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संख्याता असंख्याता अनन्ताश्च । लोकाकाशधर्माधर्मैकजीवानामसंख्यातप्रदेशा भवन्ति । इतरस्यालोकाकाशस्यानन्ताः प्रदेशा भवन्ति । कालस्यैकप्रदेशो भवति, अतः कारणादस्य कायत्वं न भवति अपि तु द्रव्यत्वमस्त्येवेति ।
कृतं मया कंठविभूषणार्थम् ।
बुद्ध्वा पुनर्बोधति शुद्धमार्गम् ।।५२।।
प्रदेश है) । पुद्गलद्रव्यको ❃ऐसे प्रदेश संख्यात, असंख्यात और अनन्त होते हैं ।
[श्लोेकार्थ : — ] पदार्थोंरूपी ( – छह द्रव्योंरूपी) रत्नोंका आभरण मैंने मुमुक्षुके कण्ठकी शोभाके हेतु बनाया है; उसके द्वारा धीमान पुरुष व्यवहारमार्गको जानकर, शुद्धमार्गको भी जानता है ।५२। ❃आकाशके प्रदेशकी भाँति, किसी भी द्रव्यका एक परमाणु द्वारा व्यपित होनेयोग्य जो अंश उसे उस
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इतरेषामचेतनत्वम् । स्वजातीयविजातीयबन्धापेक्षया जीवपुद्गलयोरशुद्धत्वम्, धर्मादीनां चतुर्णां विशेषगुणापेक्षया शुद्धत्वमेवेति ।
वदनसरसिजाते यस्य भव्योत्तमस्य ।
लसति निशितबुद्धेः किं पुनश्चित्रमेतत् ।।५३।।
गाथा : ३७ अन्वयार्थ : — [पुद्गलद्रव्यं ] पुद्गलद्रव्य [मूर्तं ] मूर्त है, [शेषाणि ] शेष द्रव्य [मूर्तिविरहितानि ] मूर्तत्व रहित [भवन्ति ] हैं; [जीवः ] जीव [चैतन्यभावः ] चैतन्यभाववाला है, [शेषाणि ] शेष द्रव्य [चैतन्यगुणवर्जितानि ] चैतन्यगुण रहित हैं ।
उन (पूर्वोक्त) मूल पदार्थोंमें पुद्गल मूर्त है, शेष अमूर्त हैं; जीव चेतन है, शेष अचेतन हैं; स्वजातीय और विजातीय बन्धनकी अपेक्षासे जीव तथा पुद्गलको (बन्धदशामें) अशुद्धपना होता है, धर्मादि चार पदार्थोंको विशेषगुणकी अपेक्षासे (सदा) शुद्धपना ही है ।
[अब इस अजीव अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोेकार्थ : — ] इसप्रकार ललित पदोंकी पंक्ति जिस भव्योत्तमके मुखारविंदमें सदा शोभती है, उस तीक्ष्ण बुद्धिवाले पुरुषके हृदयकमलमें शीघ्र समयसार ( – शुद्ध आत्मा) प्रकाशित होता है । और इसमें आश्चर्य क्या है ।५३।
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इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ अजीवाधिकारो द्वितीयः श्रुतस्कन्धः ।।
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियोंके फै लाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागमकी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्तिनामक टीकामें) अजीव अधिकार नामका दूसरा श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।
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शिखरशिखामणेः परद्रव्यपराङ्मुखस्य पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहस्य परमजिन-
गाथा : ३८ अन्वयार्थ : — [जीवादिबहिस्तत्त्वं ] जीवादि बाह्यतत्त्व [हेयम् ] हेय हैं; [कर्म्मोपाधिसमुद्भवगुणपर्यायैः ] कर्मोपाधिजनित गुणपर्यायोंसे [व्यतिरिक्तः ] व्यतिरिक्त [आत्मा ] आत्मा [आत्मनः ] आत्माको [उपादेयम् ] उपादेय है ।
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योगीश्वरस्य स्वद्रव्यनिशितमतेरुपादेयो ह्यात्मा । औदयिकादिचतुर्णां भावान्तराणामगोचरत्वाद् द्रव्यभावनोकर्मोपाधिसमुपजनितविभावगुणपर्यायरहितः, अनादिनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्ध- सहजपरमपारिणामिकभावस्वभावकारणपरमात्मा ह्यात्मा । अत्यासन्नभव्यजीवानामेवंभूतं निजपरमात्मानमन्तरेण न किंचिदुपादेयमस्तीति ।
सकलविलयदूरः प्रास्तदुर्वारमारः ।
सुखजलनिधिपूरः क्लेशवाराशिपारः ।।५४।।
वैराग्यरूपी महलके शिखरका जो १शिखामणि है, परद्रव्यसे जो पराङ्मुख है, पाँच इन्द्रियोंके फै लाव रहित देहमात्र जिसे परिग्रह है, जो परम जिनयोगीश्वर है, स्वद्रव्यमें जिसकी तीक्ष्ण बुद्धि है — ऐसे आत्माको ‘आत्मा’ वास्तवमें उपादेय है । औदयिक आदि चार २भावान्तरोंको अगोचर होनेसे जो (कारणपरमात्मा) द्रव्यकर्म, भावकर्म, और नोकर्मरूप उपाधिसे जनित विभावगुणपर्यायों रहित है, तथा अनादि - अनन्त अमूर्त अतीन्द्रियस्वभाववाला शुद्ध - सहज - परम - पारिणामिकभाव जिसका स्वभाव है — ऐसा कारणपरमात्मा वह वास्तवमें ‘आत्मा’ है । अति - आसन्न भव्यजीवोंको ऐसे निज परमात्माके अतिरिक्त (अन्य) कुछ उपादेय नहीं है ।
[अब ३८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ : — ] सर्व तत्त्वोंमें जो एक सार है, जो समस्त नष्ट होनेयोग्य भावोंसे दूर है, जिसने दुर्वार कामको नष्ट किया है, जो पापरूप वृक्षको छेदनेवाला कुठार है, जो शुद्ध ज्ञानका अवतार है, जो सुखसागरकी बाढ़ है और जो क्लेशोदधिका किनारा है, वह समयसार (शुद्ध आत्मा) जयवन्त वर्तता है ।५४। १. शिखामणि = शिखरकी चोटीके ऊ परका रत्न; चूडामणि; कलगीका रत्न । २. भावांतर = अन्य भाव । [औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, और क्षायिक – यह चार भाव
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प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तमोहरागद्वेषाभावान्न च मानापमानहेतुभूतकर्मोदयस्थानानि । न खलु शुभ- परिणतेरभावाच्छुभकर्म, शुभकर्माभावान्न संसारसुखं, संसारसुखस्याभावान्न हर्षस्थानानि । न चाशुभपरिणतेरभावादशुभकर्म, अशुभकर्माभावान्न दुःखं, दुःखाभावान्न चाहर्षस्थानानि चेति ।
गाथा : ३९ अन्वयार्थ : — [जीवस्य ] जीवको [खलु ] वास्तवमें [न स्वभावस्थानानि ] स्वभावस्थान ( – विभावस्वभावके स्थान) नहीं हैं, [न मानापमानभावस्थानानि वा ] मानापमानभावके स्थान नहीं हैं, [न हर्षभावस्थानानि ] हर्षभावके स्थान नहीं हैं [वा ] या [न अहर्षस्थानानि ] अहर्षके स्थान नहीं हैं ।
त्रिकाल - निरुपाधि जिसका स्वरूप है ऐसे शुद्ध जीवास्तिकायको वास्तवमें विभावस्वभावस्थान ( – विभावरूप स्वभावके स्थान) नहीं हैं; (शुद्ध जीवास्तिकायको) प्रशस्त या अप्रशस्त समस्त मोह - राग - द्वेषका अभाव होनेसे मान - अपमानके हेतुभूत कर्मोदयके स्थान नहीं हैं; (शुद्ध जीवास्तिकायको) शुभ परिणतिका अभाव होनेसे शुभ कर्म नहीं है, शुभ कर्मका अभाव होनेसे संसारसुख नहीं है, संसारसुखका अभाव होनेसे हर्षस्थान नहीं हैं; और (शुद्ध जीवास्तिकायको) अशुभ परिणतिका अभाव होनेसे अशुभ कर्म नहीं है, अशुभ कर्मका अभाव होनेसे दुःख नहीं है, दुःखका अभाव होनेसे अहर्षस्थान नहीं हैं
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निर्भेदोदितशर्मनिर्मितवियद्बिम्बाकृतावात्मनि ।
बुद्धिं किं न करोषि वाञ्छसि सुखं त्वं संसृतेर्दुष्कृतेः ।।५५।।
[अब ३९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ : — ] जो प्रीति – अप्रीति रहित शाश्वत पद है, जो सर्वथा अन्तर्मुख और निर्भेदरूपसे प्रकाशमान ऐसे सुखका बना हुआ है, नभमण्डल समान आकृतिवाला (अर्थात् निराकार – अरूपी) है, चैतन्यामृतके पूरसे भरा हुआ जिसका स्वरूप है, जो विचारवन्त चतुर पुरुषोंको गोचर है — ऐसे आत्मामें तू रुचि क्यों नहीं करता और दुष्कृतरूप संसारके सुखकी वांछा क्यों करता है ? ५५।
गाथा : ४० अन्वयार्थ : — [जीवस्य ] जीवको [न स्थितिबन्धस्थानानि ] स्थितिबन्धस्थान नहीं हैं, [प्रकृतिस्थानानि ] प्रकृतिस्थान नहीं हैं, [प्रदेशस्थानानि वा ] प्रदेशस्थान नहीं हैं, [न अनुभागस्थानानि ] अनुभागस्थान नहीं हैं [वा ] अथवा [न उदयस्थानानि ] उदयस्थान नहीं हैं ।
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कर्मस्थितिबंधस्थानानि । ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मणां तत्तद्योग्यपुद्गलद्रव्यस्वाकारः प्रकृतिबन्धः, तस्य स्थानानि न भवन्ति । अशुद्धान्तस्तत्त्वकर्मपुद्गलयोः परस्परप्रदेशानुप्रवेशः प्रदेशबन्धः, अस्य बंधस्य स्थानानि वा न भवन्ति । शुभाशुभकर्मणां निर्जरासमये सुखदुःखफल- प्रदानशक्ति युक्तो ह्यनुभागबन्धः, अस्य स्थानानां वा न चावकाशः । न च द्रव्यभावकर्मोदय- स्थानानामप्यवकाशोऽस्ति इति ।
स्फु टमुपरितरन्तोऽप्येत्य यत्र प्रतिष्ठाम् ।
टीका : — यहाँ (इस गाथामें) प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धके स्थानोंका तथा उदयके स्थानोंका समूह जीवको नहीं है ऐसा कहा है ।
सदा ❃निरुपराग जिसका स्वरूप है ऐसे निरंजन (निर्दोष) निज परमात्मतत्त्वको वास्तवमें द्रव्यकर्मके जघन्य, मध्यम या उत्कृष्ट स्थितिबंधके स्थान नहीं हैं । ज्ञानावरणादि अष्टविध कर्मोंमें उस - उस कर्मके योग्य ऐसा जो पुद्गलद्रव्यका स्व - आकार वह प्रकृतिबन्ध है; उसके स्थान (निरंजन निज परमात्मतत्त्वको) नहीं हैं । अशुद्ध अन्तःतत्त्वके ( – अशुद्ध आत्माके) और कर्मपुद्गलके प्रदेशोंका परस्पर प्रवेश वह प्रदेशबन्ध है; इस बन्धके स्थान भी (निरंजन निज परमात्मतत्त्वको) नहीं हैं । शुभाशुभ कर्मकी निर्जराके समय सुखदुःखरूप फल देनेकी शक्तिवाला वह अनुभागबन्ध है; इसके स्थानोंका भी अवकाश (निरंजन निज परमात्मतत्त्वमें) नहीं है । और द्रव्यकर्म तथा भावकर्मके उदयके स्थानोंका भी अवकाश (निरंजन निज परमात्मतत्त्वमें) नहीं है ।
इसप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति नामक टीकामें ११वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोेकार्थ : — ] जगत मोहरहित होकर सर्व ओरसे प्रकाशमान ऐसे उस सम्यक् ❃निरुपराग = उपराग रहित । [उपराग = किसी पदार्थमें, अन्य उपाधिकी समीपताके निमित्तसे होनेवाला
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मुक्त्वा फलानि निजरूपविलक्षणानि ।
प्राप्नोति मुक्ति मचिरादिति संशयः कः ।।५७।।
स्वभावका ही अनुभव करो कि जिसमें यह बद्धस्पृष्टत्व आदि भाव उत्पन्न होकर स्पष्टरूपसे ऊपर तैरते होने पर भी वास्तवमें स्थितिको प्राप्त नहीं होते ।’’
और (४०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोेकार्थ : — ] जो नित्य-शुद्ध चिदानन्दरूपी सम्पदाओंकी उत्कृष्ट खान है तथा जो विपदाओंका अत्यन्तरूपसे अपद है (अर्थात् जहाँ विपदा बिलकुल नहीं है ) ऐसे इसी पदका मैं अनुभव करता हूँ ।५६।
[श्लोेकार्थ : — ] (अशुभ तथा शुभ) सर्व कर्मरूपी विषवृक्षोंसे उत्पन्न होनेवाले, निजरूपसे विलक्षण ऐसे फलोंको छोड़कर जो जीव इसीसमय सहजचैतन्यमय आत्मतत्त्वको भोगता है, वह जीव अल्प कालमें मुक्ति प्राप्त करता है — इसमें क्या संशय है ? ५७।
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कर्मणामुदये भवः औदयिकभावः । कर्मणामुपशमे भवः औपशमिक भावः । सकलकर्मोपाधि- विनिर्मुक्त : परिणामे भवः पारिणामिकभावः । एषु पंचसु तावदौपशमिकभावो द्विविधः, क्षायिकभावश्च नवविधः, क्षायोपशमिकभावोऽष्टादशभेदः, औदयिकभाव एकविंशतिभेदः, पारिणामिकभावस्त्रिभेदः । अथौपशमिकभावस्य उपशमसम्यक्त्वम् उपशमचारित्रम् च । क्षायिकभावस्य क्षायिकसम्यक्त्वं, यथाख्यातचारित्रं, केवलज्ञानं केवलदर्शनं च, अन्तराय-
गाथा : ४१ अन्वयार्थ : — [न क्षायिकभावस्थानानि ] जीवको क्षायिकभावके स्थान नहीं हैं, [न क्षयोपशमस्वभावस्थानानि वा ] क्षयोपशमस्वभावके स्थान नहीं हैं, [औदयिकभावस्थानानि ] औदयिकभावके स्थान नहीं हैं [वा ] अथवा [न उपशमस्वभावस्थानानि ] उपशमस्वभावके स्थान नहीं हैं ।
टीका : — चार विभावस्वभावोंके स्वरूपकथन द्वारा पंचमभावके स्वरूपका यह कथन है ।
१कर्मोंका क्षय होनेपर जो भाव हो वह क्षायिकभाव है । कर्मोंका क्षयोपशम होनेपर जो भाव हो वह क्षायोपशमिकभाव है । कर्मोंका उदय होनेपर जो भाव हो वह औदयिकभाव है । कर्मोंका उपशम होनेपर जो भाव हो वह औपशमिकभाव है । सकल कर्मोपाधिसे विमुक्त ऐसा, परिणामसे जो भाव हो वह पारिणामिकभाव है ।
इन पाँच भावोंमें, औपशमिकभावके दो भेद हैं, क्षायिकभावके नौ भेद हैं, क्षायोपशमिकभावके अठारह भेद हैं, औदयिकभावके इक्कीस भेद हैं, पारिणामिकभावके तीन भेद हैं ।
१कर्मोंका क्षय होनेपर = कर्मोंके क्षयमें; कर्मक्षयके सद्भावमें । [व्यवहारसे कर्मक्षयकी अपेक्षा जीवके
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कर्मक्षयसमुपजनितदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि चेति । क्षायोपशमिकभावस्य मतिश्रुतावधि- मनःपर्ययज्ञानानि चत्वारि, कुमतिकुश्रुतविभंगभेदादज्ञानानि त्रीणि, चक्षुरचक्षुरवधिदर्शन- भेदाद्दर्शनानि त्रीणि, कालकरणोपदेशोपशमप्रायोग्यताभेदाल्लब्धयः पञ्च, वेदकसम्यक्त्वं, वेदकचारित्रं, संयमासंयमपरिणतिश्चेति । औदयिकभावस्य नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवभेदाद् गतयश्चतस्रः, क्रोधमानमायालोभभेदात् कषायाश्चत्वारः, स्त्रीपुंनपुंसकभेदाल्लिङ्गानि त्रीणि, सामान्यसंग्रहनयापेक्षया मिथ्यादर्शनमेकम्, अज्ञानं चैकम्, असंयमता चैका, असिद्धत्वं चैकम्, शुक्लपद्मपीतकापोतनीलकृष्णभेदाल्लेश्याः षट् च भवन्ति । पारिणामिकस्य जीवत्व- पारिणामिकः, भव्यत्वपारिणामिकः, अभव्यत्वपारिणामिकः इति त्रिभेदाः । अथायं जीवत्व- पारिणामिकभावो भव्याभव्यानां सद्रशः, भव्यत्वपारिणामिकभावो भव्यानामेव भवति, अभव्यत्वपारिणामिकभावोऽभव्यानामेव भवति । इति पंचभावप्रपंचः । और केवलदर्शन, तथा अन्तरायकर्मके क्षयजनित दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ।
क्षायोपशमिकभावके अठारह भेद इसप्रकार हैं : मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान ऐसे ज्ञान चार; कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और विभङ्गज्ञान ऐसे भेदोंके कारण अज्ञान तीन; चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन ऐसे भेदोंके कारण दर्शन तीन; काललब्धि, करणलब्धि, उपदेशलब्धि, उपशमलब्धि और प्रायोग्यतालब्धि ऐसे भेदोंके कारण लब्धि पाँच; वेदकसम्यक्त्व; वेदकचारित्र; और संयमासंयमपरिणति
औदयिकभावके इक्कीस भेद इसप्रकार हैं : नारकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति ऐसे भेदोंके कारण गति चार; क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय और लोभकषाय ऐसे भेदोंके कारण कषाय चार; स्त्रीलिंग, पुंलिंग और नपुंसकलिंग ऐसे भेदोंके कारण लिंग तीन; सामान्यसंग्रहनयकी अपेक्षासे मिथ्यादर्शन एक, अज्ञान एक और असंयमता एक; असिद्धत्व एक; शुक्ललेश्या, पद्मलेश्या, पीतलेश्या, कापोतलेश्या, नीललेश्या और कृष्णलेश्या ऐसे भेदोंके कारण लेश्या छह
पारिणामिकभावके तीन भेद इसप्रकार हैं : जीवत्वपारिणामिक, भव्यत्वपारिणामिक और अभव्यत्वपारिणामिक । यह जीवत्वपारिणामिकभाव भव्योंको तथा अभव्योंको समान होता है; भव्यत्वपारिणामिकभाव भव्योंको ही होता है; अभव्यत्वपारिणामिकभाव अभव्योंको ही होता है ।
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पंचानां भावानां मध्ये क्षायिकभावः कार्यसमयसारस्वरूपः स त्रैलोक्यप्रक्षोभ- हेतुभूततीर्थकरत्वोपार्जितसकलविमलकेवलावबोधसनाथतीर्थनाथस्य भगवतः सिद्धस्य वा भवति । औदयिकौपशमिकक्षायोपशमिकभावाः संसारिणामेव भवन्ति, न मुक्तानाम् । पूर्वोक्त भावचतुष्टयमावरणसंयुक्त त्वात् न मुक्ति कारणम् । त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपनिरंजन- निजपरमपंचमभावभावनया पंचमगतिं मुमुक्षवो यान्ति यास्यन्ति गताश्चेति ।
पाँच भावोंमें क्षायिकभाव कार्यसमयसारस्वरूप है; वह (क्षायिकभाव) त्रिलोकमें १प्रक्षोभके हेतुभूत तीर्थंकरत्व द्वारा प्राप्त होनेवाले सकल-विमल केवलज्ञानसे युक्त तीर्थनाथको (तथा उपलक्षणसे सामान्य केवलीको) अथवा सिद्धभगवानको होता है । औदयिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक भाव संसारियोंको ही होते हैं, मुक्त जीवोंको नहीं ।
पूर्वोक्त चार भाव आवरणसंयुक्त होनेसे मुक्तिका कारण नहीं हैं । त्रिकालनिरुपाधि जिसका स्वरूप है ऐसे निरंजन निज परम पंचमभावकी ( – पारिणामिकभावकी) भावनासे पंचमगतिमें मुमुक्षु (वर्तमान कालमें) जाते हैं, (भविष्यकालमें) जायेंगे और (भूतकालमें) जाते थे ।
[अब ४१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोेकार्थ : — ] (ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्यरूप) पाँच आचारोंसे युक्त और किंचित् भी परिग्रहप्रपंचसे सर्वथा रहित ऐसे विद्वान पूजनीय पंचमगतिको प्राप्त करनेके लिये पंचमभावका स्मरण करते हैं । ५८ । १प्रक्षोभ = खलबली । [तीर्थंकरके जन्मकल्याणकादि प्रसंगों पर तीन लोकमें आनन्दमय खलबली
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त्यजतु परमतत्त्वाभ्यासनिष्णातचित्तः ।
भजतु भवविमुक्त्यै कोऽत्र दोषो मुनीशः ।।५9।।
[श्लोेकार्थ : — ] समस्त सुकृत (शुभ कर्म) भोगियोंके भोगका मूल है; परम तत्त्वके अभ्यासमें निष्णात चित्तवाले मुनीश्वर भवसे विमुक्त होने हेतु उस समस्त शुभ कर्मको छोड़ो और ❃
दोष है ? ५९।
गाथा : ४२ अन्वयार्थ : — [जीवस्य ] जीवको [चतुर्गतिभवसंभ्रमणं ] चार गतिके भवोंमें परिभ्रमण, [जातिजरामरणरोगशोकाः ] जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, [कुलयोनिजीवमार्गणस्थानानि च ] कुल, योनि, जीवस्थान और मार्गणास्थान [नो सन्ति ] नहीं है ।
टीका : — शुद्ध निश्चयनयसे शुद्ध जीवको समस्त संसारविकारोंका समुदाय नहीं है ऐसा यहाँ (इस गाथामें) कहा है ।
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भ्रमणं न भवति । नित्यशुद्धचिदानन्दरूपस्य कारणपरमात्मस्वरूपस्य द्रव्यभाव- कर्मग्रहणयोग्यविभावपरिणतेरभावान्न जातिजरामरणरोगशोकाश्च । चतुर्गतिजीवानां कुल- योनिविकल्प इह नास्ति इत्युच्यते । तद्यथा — पृथ्वीकायिकजीवानां द्वाविंशति- लक्षकोटिकुलानि, अप्कायिकजीवानां सप्तलक्षकोटिकुलानि, तेजस्कायिकजीवानां त्रिलक्ष- कोटिकुलानि, वायुकायिकजीवानां सप्तलक्षकोटिकुलानि, वनस्पतिकायिकजीवानाम् अष्टोत्तरविंशतिलक्षकोटिकुलानि, द्वीन्द्रियजीवानां सप्तलक्षकोटिकुलानि, त्रीन्द्रियजीवानाम् अष्टलक्षकोटिकुलानि, चतुरिन्द्रियजीवानां नवलक्षकोटिकुलानि, पंचेन्द्रियेषु जलचराणां सार्धद्वादशलक्षकोटिकुलानि, आकाशचरजीवानां द्वादशलक्षकोटिकुलानि, चतुष्पदजीवानां दशलक्षकोटिकुलानि, सरीसृपानां नवलक्षकोटिकुलानि, नारकाणां पंचविंशतिलक्ष- कोटिकुलानि, मनुष्याणां द्वादशलक्षकोटिकुलानि, देवानां षड्विंशतिलक्षकोटिकुलानि
सर्वाणि सार्धसप्तनवत्यग्रशतकोटिलक्षाणि १9७५००००००००००० । और देवत्वस्वरूप चार गतियोंका परिभ्रमण नहीं है ।
नित्य-शुद्ध चिदानन्दरूप कारणपरमात्मस्वरूप जीवको द्रव्यकर्म तथा भावकर्मके ग्रहणके योग्य विभावपरिणतिका अभाव होनेसे जन्म, जरा, मरण, रोग और शोक नहीं है ।
चतुर्गति (चार गतिके) जीवोंके कुल तथा योनिके भेद जीवमें नहीं हैं ऐसा (अब) कहा जाता है । वह इसप्रकार :
पृथ्वीकायिक जीवोंके बाईस लाख करोड़ कुल हैं; अप्कायिक जीवोंके सात लाख करोड़ कुल हैं; तेजकायिक जीवोंके तीन लाख करोड़ कुल हैं; वायुकायिक जीवोंके सात लाख करोड़ कुल हैं; वनस्पतिकायिक जीवोंके अट्ठाईस लाख करोड़ कुल हैं; द्वीन्द्रिय जीवोंके सात लाख करोड़ कुल हैं; त्रीन्द्रिय जीवोंके आठ लाख करोड़ कुल हैं; चतुरिन्द्रिय जीवोंके नौ लाख करोड़ कुल हैं; पंचेन्द्रिय जीवोंमें जलचर जीवोंके साढ़े बारह लाख करोड़ कुल हैं; खेचर जीवोंके बारह लाख करोड़ कुल हैं; चार पैर वाले जीवोंके दस लाख करोड़ कुल हैं; सर्पादिक पेटसे चलनेवाले जीवोंके नौ लाख करोड़ कुल हैं; नारकोंके पच्चीस लाख करोड़ कुल हैं; मनुष्योंके बारह लाख करोड़ कुल हैं और देवोंके छब्बीस लाख करोड़ कुल हैं । कुल मिलकर एक सौ साढ़े सत्तानवे लाख करोड़ (१९७५०००,०००,०००,००) कुल हैं ।
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पृथ्वीकायिकजीवानां सप्तलक्षयोनिमुखानि, अप्कायिकजीवानां सप्तलक्षयोनिमुखानि, तेजस्कायिकजीवानां सप्तलक्षयोनिमुखानि, वायुकायिकजीवानां सप्तलक्षयोनिमुखानि, नित्यनिगोदिजीवानां सप्तलक्षयोनिमुखानि, चतुर्गतिनिगोदिजीवानां सप्तलक्षयोनिमुखानि, वनस्पतिकायिकजीवानां दशलक्षयोनिमुखानि, द्वीन्द्रियजीवानां द्विलक्षयोनिमुखानि, त्रीन्द्रियजीवानां द्विलक्षयोनिमुखानि, चतुरिन्द्रियजीवानां द्विलक्षयोनिमुखानि, देवानां चतुर्लक्षयोनिमुखानि, नारकाणां चतुर्लक्षयोनिमुखानि, तिर्यग्जीवानां चतुर्लक्षयोनिमुखानि, मनुष्याणां चतुर्दशलक्षयोनिमुखानि
स्थूलसूक्ष्मैकेन्द्रियसंज्ञ्यसंज्ञिपंचेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रींद्रियचतुरिन्द्रियपर्याप्तापर्याप्तकभेदसनाथ- चतुर्दशजीवस्थानानि । गतीन्द्रियकाययोगवेदकषायज्ञानसंयमदर्शनलेश्याभव्यसम्यक्त्वसंज्ञ्या- हारविकल्पलक्षणानि मार्गणास्थानानि । एतानि सर्वाणि च तस्य भगवतः परमात्मनः शुद्धनिश्चयनयबलेन न सन्तीति भगवतां सूत्रकृतामभिप्रायः ।
पृथ्वीकायिक जीवोंके सात लाख योनिमुख हैं; अप्कायिक जीवोंके सात लाख योनिमुख हैं; तेजकायिक जीवोंके सात लाख योनिमुख हैं; वायुकायिक जीवोंके सात लाख योनिमुख हैं; नित्य निगोदी जीवोंके सात लाख योनिमुख हैं; चतुर्गति ( – चार गतिमें परिभ्रमण करनेवाले अर्थात् इतर) निगोदी जीवोंके सात लाख योनिमुख हैं; वनस्पतिकायिक जीवोंके दस लाख योनिमुख हैं; द्वीन्द्रिय जीवोंके दो लाख योनिमुख हैं; त्रीन्द्रिय जीवोंके दो लाख योनिमुख हैं; चतुरिन्द्रिय जीवोंके दो लाख योनिमुख हैं; देवोंके चार लाख योनिमुख हैं; नारकोंके चार लाख योनिमुख हैं; तिर्यंच जीवोंके चार लाख योनिमुख हैं; मनुष्योंके चौदह लाख योनिमुख हैं । (कुल मिलकर ८४००००० योनिमुख हैं ।)
सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, स्थूल एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, चतुरिन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त — ऐसे भेदोंवाले चौदह जीवस्थान हैं ।
गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहार — ऐसे भेदस्वरूप (चौदह) मार्गणास्थान हैं ।
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स्फु टतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्ति मात्रम् ।
व्रजति न च विकल्पं संसृतेर्घोररूपम् ।
परपरिणतिदूरं याति चिन्मात्रमेषः ।।६०।।
हैं — ऐसा भगवान सूत्रकर्ताका (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवका) अभिप्राय है ।
इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति नामक टीकामें ३५ – ३६वें दो श्लोकों द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोेकार्थ : — ] चित्शक्तिसे रहित अन्य सकल भावोंको मूलसे छोड़कर और चित्शक्तिमात्र ऐसे निज आत्माका अति स्फु टरूपसे अवगाहन करके, आत्मा समस्त विश्वके ऊ पर सुन्दरतासे प्रवर्तमान ऐसे इस केवल (एक) अविनाशी आत्माको आत्मामें साक्षात् अनुभव करो ।’’
‘‘[श्लोेकार्थ : — ] चैतन्यशक्तिसे व्याप्त जिसका सर्वस्व-सार है ऐसा यह जीव इतना ही मात्र है; इस चित्शक्तिसे शून्य जो यह भाव हैं वे सब पौद्गलिक हैं ।’’
और (४२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोेकार्थ : — ] सततरूपसे अखण्ड ज्ञानकी सद्भावनावाला आत्मा (अर्थात् ‘मैं अखण्ड ज्ञान हूँ’ ऐसी सच्ची भावना जिसे निरंतर वर्तती है वह आत्मा) संसारके घोर
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भक्ति प्रह्वामरेन्द्रप्रकटमुकुटसद्रत्नमालार्चितांघ्रेः ।
एते संतो भवाब्धेरपरतटममी यांति सच्छीलपोताः ।।६१।।
[श्लोकार्थ : — ] भक्तिसे नमित देवेन्द्र मुकुटकी सुन्दर रत्नमाला द्वारा जिनके चरणोंको प्रगटरूपसे पूजते हैं ऐसे महावीर तीर्थाधिनाथ द्वारा यह सन्त जन्म - जरा - मृत्युका नाशक तथा दुष्ट मलसमूहरूपी अंधकारका ध्वंस करनेमें चतुर ऐसा इसप्रकारका (पूर्वोक्त) उपदेश समझकर, सत्शीलरूपी नौका द्वारा भवाब्धिके सामने किनारे पहुँच जाते हैं ।६१।
गाथा : ४३ अन्वयार्थ : — [आत्मा ] आत्मा [निर्दण्डः ] २निर्दंड [निर्द्वन्द्वः ] निर्द्वंद्व, [निर्ममः ] निर्मम, [निःकलः ] निःशरीर, [निरालंबः ] निरालंब, [नीरागः ] नीराग, [निर्दोषः ] निर्दोष, [निर्मूढः ] निर्मूढ और [निर्भयः ] निर्भय है । १. अनघ = दोष रहित; निष्पाप; मल रहित । २. निर्दण्ड = दण्ड रहित । (जिस मनवचनकायाश्रित प्रवर्तनसे आत्मा दण्डित होता है उस प्रवर्तनको दण्ड
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निश्चयेन परमपदार्थव्यतिरिक्त समस्तपदार्थसार्थाभावान्निर्द्वन्द्वः । प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तमोहराग- द्वेषाभावान्निर्ममः । निश्चयेनौदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसकार्मणाभिधानपंचशरीरप्रपंचाभावा- न्निःकलः । निश्चयेन परमात्मनः परद्रव्यनिरवलम्बत्वान्निरालम्बः । मिथ्यात्ववेदरागद्वेषहास्य- रत्यरतिशोकभयजुगुप्साक्रोधमानमायालोभाभिधानाभ्यन्तरचतुर्दशपरिग्रहाभावान्नीरागः । निश्चयेन निखिलदुरितमलकलंकपंकनिर्न्निक्त समर्थसहजपरमवीतरागसुखसमुद्रमध्यनिर्मग्नस्फु टि- तसहजावस्थात्मसहजज्ञानगात्रपवित्रत्वान्निर्दोषः । सहजनिश्चयनयबलेन सहजज्ञानसहजदर्शन- सहजचारित्रसहजपरमवीतरागसुखाद्यनेकपरमधर्माधारनिजपरमतत्त्वपरिच्छेदनसमर्थत्वान्निर्मूढः, अथवा साद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारनयबलेन त्रिकालत्रिलोक-
टीका : — यहाँ (इस गाथामें) वास्तवमें शुद्ध आत्माको समस्त विभावका अभाव है ऐसा कहा है ।
मनदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्डके योग्य द्रव्यकर्मों तथा भावकर्मोंका अभाव होनेसे आत्मा निर्दण्ड है । निश्चयसे परम पदार्थके अतिरिक्त समस्त पदार्थसमूहका (आत्मामें) अभाव होनेसे आत्मा निर्द्वन्द्व (द्वैत रहित) है । प्रशस्त - अप्रशस्त समस्त मोह- राग - द्वेषका अभाव होनेसे आत्मा निर्मम (ममता रहित) है । निश्चयसे औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण नामक पाँच शरीरोंके समूहका अभाव होनेसे आत्मा निःशरीर है । निश्चयसे परमात्माको परद्रव्यका अवलम्बन न होनेसे आत्मा निरालम्ब है । मिथ्यात्व, वेद, राग, द्वेष, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ नामक चौदह अभ्यंतर परिग्रहोंका अभाव होनेसे आत्मा निराग है । निश्चयसे समस्त पापमलकलंकरूपी कीचड़को धो डालनेमें समर्थ, सहज - परमवीतराग - सुखसमुद्रमें मग्न (डूबी हुई, लीन) प्रगट सहजावस्थास्वरूप जो सहजज्ञानशरीर उसके द्वारा पवित्र होनेके कारण आत्मा निर्दोष है । सहज निश्चयनयसे सहज ज्ञान, सहज दर्शन, सहज चारित्र, सहज परमवीतराग सुख आदि अनेक परम धर्मोंके आधारभूत निज परमतत्त्वको जाननेमें समर्थ होनेसे आत्मा निर्मूढ़ (मूढ़ता रहित) है; अथवा, सादि - अनन्त अमूर्त अतीन्द्रियस्वभाववाले शुद्धसद्भूत व्यवहारनयसे तीन काल और तीन लोकके स्थावर - जंगमस्वरूप समस्त द्रव्य - गुण - पर्यायोंको एक समयमें जाननेमें समर्थ सकल - विमल (सर्वथा निर्मल) केवलज्ञानरूपसे
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वर्तिस्थावरजंगमात्मकनिखिलद्रव्यगुणपर्यायैकसमयपरिच्छित्तिसमर्थसकलविमलकेवलज्ञानावस्थ- त्वान्निर्मूढश्च । निखिलदुरितवीरवैरिवाहिनीदुःप्रवेशनिजशुद्धान्तस्तत्त्वमहादुर्गनिलयत्वान्निर्भयः । अयमात्मा ह्युपादेयः इति ।
रहितमहितहीनं शाश्वतं मुक्त संख्यम् ।
क्षितिपवनसखाणुस्थूलदिक्चक्रवालम् ।।’’
परपरिणतिदूरः प्रास्तरागाब्धिपूरः ।
सपदि समयसारः पातु मामस्तमारः ।।६२।।
अवस्थित होनेसे आत्मा निर्मूढ़ है । समस्त पापरूपी शूरवीर शत्रुओंकी सेना जिसमें प्रवेश नहीं कर सकती ऐसे निज शुद्ध अन्तःतत्त्वरूप महा दुर्गमें (किलेमें) निवास करनेसे आत्मा निर्भय है । ऐसा यह आत्मा वास्तवमें उपादेय है ।
इसीप्रकार (श्री योगीन्द्रदेवकृत) अमृताशीतिमें (५७वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोेकार्थ : — ] आत्मतत्त्व स्वरसमूह, विसर्ग और व्यंजनादि अक्षरों रहित तथा संख्या रहित है (अर्थात् अक्षर और अङ्कका आत्मतत्त्वमें प्रवेश नहीं है ), अहित रहित है, शाश्वत है, अंधकार तथा स्पर्श, रस, गंध और रूप रहित है, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुके अणुओं रहित है तथा स्थूल दिक्चक्र (दिशाओंके समूह) रहित है ।’’
और (४३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज सात श्लोक कहते हैं ) : —
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प्रभमुनिहृदयाब्जे संस्थितं निर्विकारम् ।
भवभवसुखदुःखान्मुक्त मुक्तं बुधैर्यत् ।।६३।।
सहजगुणमणीनामाकरं तत्त्वसारम् ।
भजतु भवविमुक्त्यै भव्यताप्रेरितो यः ।।६४।।
पदमिदं भवहेतुविनाशनम् ।
स्तव किमध्रुववस्तुनि चिन्तया ।।६५।।
कर्मोंके पारको प्राप्त हुआ है (अर्थात् जिसने कर्मोंका अन्त किया है ), जो परपरिणतिसे दूर है, जिसने रागरूपी समुद्रके पूरको नष्ट किया है, जिसने विविध विकारोंका हनन कर दिया है, जो सच्चे सुखसागरका नीर है और जिसने कामको अस्त किया है, वह समयसार मेरी शीघ्र रक्षा करो ।६२।
[श्लोेकार्थ : — ] जो तत्त्वनिष्णात (वस्तुस्वरूपमें निपुण) पद्मप्रभमुनिके हृदयकमलमें सुस्थित है, जो निर्विकार है, जिसने विविध विकल्पोंका हनन कर दिया है, और जिसे बुधपुरुषोंने कल्पनामात्र-रम्य ऐसे भवभवके सुखोंसे तथा दुःखोंसे मुक्त (रहित) कहा है, वह परमतत्त्व जयवन्त है ।६३।
[श्लोेकार्थ : — ] जो आत्मा भव्यता द्वारा प्रेरित हो, वह आत्मा भवसे विमुक्त होनेके हेतु निरन्तर इस आत्माको भजो — कि जो (आत्मा) अनुपम ज्ञानके आधीन है, जो सहजगुणमणिकी खान है, जो (सर्व) तत्त्वोंमें सार है और जो निजपरिणतिके सुखसागरमें मग्न होता है ।६४।