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कृतं मया कंठविभूषणार्थम्
बुद्ध्वा पुनर्बोधति शुद्धमार्गम्
प्रदेश है)
शुद्धमार्गको भी जानता है
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वदनसरसिजाते यस्य भव्योत्तमस्य
लसति निशितबुद्धेः किं पुनश्चित्रमेतत
[चैतन्यभावः ] चैतन्यभाववाला है, [शेषाणि ] शेष द्रव्य [चैतन्यगुणवर्जितानि ]
चैतन्यगुण रहित हैं
(बन्धदशामें) अशुद्धपना होता है, धर्मादि चार पदार्थोंको विशेषगुणकी अपेक्षासे
(सदा) शुद्धपना ही है
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तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार
परमागमकी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्तिनामक टीकामें)
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व्यतिरिक्त [आत्मा ] आत्मा [आत्मनः ] आत्माको [उपादेयम् ] उपादेय है
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सहजपरमपारिणामिकभावस्वभावकारणपरमात्मा ह्यात्मा
सकलविलयदूरः प्रास्तदुर्वारमारः
सुखजलनिधिपूरः क्लेशवाराशिपारः
बुद्धि है
शुद्ध ज्ञानका अवतार है, जो सुखसागरकी बाढ़ है और जो क्लेशोदधिका किनारा है, वह
समयसार (शुद्ध आत्मा) जयवन्त वर्तता है
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हर्षभावके स्थान नहीं हैं [वा ] या [न अहर्षस्थानानि ] अहर्षके स्थान नहीं हैं
कर्म नहीं है, शुभ कर्मका अभाव होनेसे संसारसुख नहीं है, संसारसुखका अभाव
होनेसे हर्षस्थान नहीं हैं; और (शुद्ध जीवास्तिकायको) अशुभ परिणतिका अभाव
होनेसे अशुभ कर्म नहीं है, अशुभ कर्मका अभाव होनेसे दुःख नहीं है, दुःखका
अभाव होनेसे अहर्षस्थान नहीं हैं
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निर्भेदोदितशर्मनिर्मितवियद्बिम्बाकृतावात्मनि
बुद्धिं किं न करोषि वाञ्छसि सुखं त्वं संसृतेर्दुष्कृतेः
आकृतिवाला (अर्थात् निराकार
प्रदेशस्थान नहीं हैं, [न अनुभागस्थानानि ] अनुभागस्थान नहीं हैं [वा ] अथवा [न
उदयस्थानानि ] उदयस्थान नहीं हैं
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स्फु टमुपरितरन्तोऽप्येत्य यत्र प्रतिष्ठाम्
भी (निरंजन निज परमात्मतत्त्वको) नहीं हैं
परमात्मतत्त्वमें) नहीं है
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मुक्त्वा फलानि निजरूपविलक्षणानि
प्राप्नोति मुक्ति मचिरादिति संशयः कः
ऊपर तैरते होने पर भी वास्तवमें स्थितिको प्राप्त नहीं होते
पदका मैं अनुभव करता हूँ
भोगता है, वह जीव अल्प कालमें मुक्ति प्राप्त करता है
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पारिणामिकभावस्त्रिभेदः
[औदयिकभावस्थानानि ] औदयिकभावके स्थान नहीं हैं [वा ] अथवा [न
उपशमस्वभावस्थानानि ] उपशमस्वभावके स्थान नहीं हैं
तीन भेद हैं
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भेदाद्दर्शनानि त्रीणि, कालकरणोपदेशोपशमप्रायोग्यताभेदाल्लब्धयः पञ्च, वेदकसम्यक्त्वं,
वेदकचारित्रं, संयमासंयमपरिणतिश्चेति
शुक्लपद्मपीतकापोतनीलकृष्णभेदाल्लेश्याः षट् च भवन्ति
अज्ञान तीन; चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन ऐसे भेदोंके कारण दर्शन तीन;
काललब्धि, करणलब्धि, उपदेशलब्धि, उपशमलब्धि और प्रायोग्यतालब्धि ऐसे भेदोंके
कारण लब्धि पाँच; वेदकसम्यक्त्व; वेदकचारित्र; और संयमासंयमपरिणति
ऐसे भेदोंके कारण कषाय चार; स्त्रीलिंग, पुंलिंग और नपुंसकलिंग ऐसे भेदोंके कारण लिंग
तीन; सामान्यसंग्रहनयकी अपेक्षासे मिथ्यादर्शन एक, अज्ञान एक और असंयमता एक;
असिद्धत्व एक; शुक्ललेश्या, पद्मलेश्या, पीतलेश्या, कापोतलेश्या, नीललेश्या और
कृष्णलेश्या ऐसे भेदोंके कारण लेश्या छह
ही होता है
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भवति
जीवोंको नहीं
(
प्राप्त करनेके लिये पंचमभावका स्मरण करते हैं
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त्यजतु परमतत्त्वाभ्यासनिष्णातचित्तः
भजतु भवविमुक्त्यै कोऽत्र दोषो मुनीशः
कर्मको छोड़ो और
[कुलयोनिजीवमार्गणस्थानानि च ] कुल, योनि, जीवस्थान और मार्गणास्थान [नो सन्ति ]
नहीं है
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कोटिकुलानि, वायुकायिकजीवानां सप्तलक्षकोटिकुलानि, वनस्पतिकायिकजीवानाम्
अष्टोत्तरविंशतिलक्षकोटिकुलानि, द्वीन्द्रियजीवानां सप्तलक्षकोटिकुलानि, त्रीन्द्रियजीवानाम्
अष्टलक्षकोटिकुलानि, चतुरिन्द्रियजीवानां नवलक्षकोटिकुलानि, पंचेन्द्रियेषु जलचराणां
सार्धद्वादशलक्षकोटिकुलानि, आकाशचरजीवानां द्वादशलक्षकोटिकुलानि, चतुष्पदजीवानां
दशलक्षकोटिकुलानि, सरीसृपानां नवलक्षकोटिकुलानि, नारकाणां पंचविंशतिलक्ष-
कोटिकुलानि, मनुष्याणां द्वादशलक्षकोटिकुलानि, देवानां षड्विंशतिलक्षकोटिकुलानि
जीवोंके सात लाख करोड़ कुल हैं; वनस्पतिकायिक जीवोंके अट्ठाईस लाख करोड़ कुल
हैं; द्वीन्द्रिय जीवोंके सात लाख करोड़ कुल हैं; त्रीन्द्रिय जीवोंके आठ लाख करोड़ कुल
हैं; चतुरिन्द्रिय जीवोंके नौ लाख करोड़ कुल हैं; पंचेन्द्रिय जीवोंमें जलचर जीवोंके साढ़े
बारह लाख करोड़ कुल हैं; खेचर जीवोंके बारह लाख करोड़ कुल हैं; चार पैर वाले
जीवोंके दस लाख करोड़ कुल हैं; सर्पादिक पेटसे चलनेवाले जीवोंके नौ लाख करोड़
कुल हैं; नारकोंके पच्चीस लाख करोड़ कुल हैं; मनुष्योंके बारह लाख करोड़ कुल हैं
और देवोंके छब्बीस लाख करोड़ कुल हैं
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नित्यनिगोदिजीवानां सप्तलक्षयोनिमुखानि, चतुर्गतिनिगोदिजीवानां सप्तलक्षयोनिमुखानि,
वनस्पतिकायिकजीवानां दशलक्षयोनिमुखानि, द्वीन्द्रियजीवानां द्विलक्षयोनिमुखानि,
त्रीन्द्रियजीवानां द्विलक्षयोनिमुखानि, चतुरिन्द्रियजीवानां द्विलक्षयोनिमुखानि, देवानां
चतुर्लक्षयोनिमुखानि, नारकाणां चतुर्लक्षयोनिमुखानि, तिर्यग्जीवानां चतुर्लक्षयोनिमुखानि,
मनुष्याणां चतुर्दशलक्षयोनिमुखानि
योनिमुख हैं; नित्य निगोदी जीवोंके सात लाख योनिमुख हैं; चतुर्गति (
दस लाख योनिमुख हैं; द्वीन्द्रिय जीवोंके दो लाख योनिमुख हैं; त्रीन्द्रिय जीवोंके दो लाख
योनिमुख हैं; चतुरिन्द्रिय जीवोंके दो लाख योनिमुख हैं; देवोंके चार लाख योनिमुख हैं;
नारकोंके चार लाख योनिमुख हैं; तिर्यंच जीवोंके चार लाख योनिमुख हैं; मनुष्योंके चौदह
लाख योनिमुख हैं
पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त
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स्फु टतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्ति मात्रम्
व्रजति न च विकल्पं संसृतेर्घोररूपम्
परपरिणतिदूरं याति चिन्मात्रमेषः
ऊ पर सुन्दरतासे प्रवर्तमान ऐसे इस केवल (एक) अविनाशी आत्माको आत्मामें साक्षात्
अनुभव करो
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भक्ति प्रह्वामरेन्द्रप्रकटमुकुटसद्रत्नमालार्चितांघ्रेः
एते संतो भवाब्धेरपरतटममी यांति सच्छीलपोताः
किनारे पहुँच जाते हैं
[निर्दोषः ] निर्दोष, [निर्मूढः ] निर्मूढ और [निर्भयः ] निर्भय है
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तसहजावस्थात्मसहजज्ञानगात्रपवित्रत्वान्निर्दोषः
अथवा साद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारनयबलेन त्रिकालत्रिलोक-
है
चौदह अभ्यंतर परिग्रहोंका अभाव होनेसे आत्मा निराग है
कारण आत्मा निर्दोष है
होनेसे आत्मा निर्मूढ़ (मूढ़ता रहित) है; अथवा, सादि
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त्वान्निर्मूढश्च
रहितमहितहीनं शाश्वतं मुक्त संख्यम्
क्षितिपवनसखाणुस्थूलदिक्चक्रवालम्
परपरिणतिदूरः प्रास्तरागाब्धिपूरः
सपदि समयसारः पातु मामस्तमारः
निर्भय है
शाश्वत है, अंधकार तथा स्पर्श, रस, गंध और रूप रहित है, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुके
अणुओं रहित है तथा स्थूल दिक्चक्र (दिशाओंके समूह) रहित है
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प्रभमुनिहृदयाब्जे संस्थितं निर्विकारम्
भवभवसुखदुःखान्मुक्त मुक्तं बुधैर्यत
सहजगुणमणीनामाकरं तत्त्वसारम्
भजतु भवविमुक्त्यै भव्यताप्रेरितो यः
पदमिदं भवहेतुविनाशनम्
स्तव किमध्रुववस्तुनि चिन्तया
दूर है, जिसने रागरूपी समुद्रके पूरको नष्ट किया है, जिसने विविध विकारोंका हनन कर
दिया है, जो सच्चे सुखसागरका नीर है और जिसने कामको अस्त किया है, वह समयसार
मेरी शीघ्र रक्षा करो
और जिसे बुधपुरुषोंने कल्पनामात्र-रम्य ऐसे भवभवके सुखोंसे तथा दुःखोंसे मुक्त (रहित)
कहा है, वह परमतत्त्व जयवन्त है
मग्न होता है