Niyamsar (Hindi). Gatha: 44-57 ; Adhikar-4 : VyavahAr Charitra Adhikar; VyavhAr Charitra Adhikar.

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(द्रुतविलंबित)
समयसारमनाकुलमच्युतं
जननमृत्युरुजादिविवर्जितम्
सहजनिर्मलशर्मसुधामयं
समरसेन सदा परिपूजये
।।६६।।
(इंद्रवज्रा)
इत्थं निजज्ञेन निजात्मतत्त्व-
मुक्तं पुरा सूत्रकृता विशुद्धम्
बुद्ध्वा च यन्मुक्ति मुपैति भव्य-
स्तद्भावयाम्युत्तमशर्मणेऽहम्
।।६७।।
(वसन्ततिलका)
आद्यन्तमुक्त मनघं परमात्मतत्त्वं
निर्द्वन्द्वमक्षयविशालवरप्रबोधम्
तद्भावनापरिणतो भुवि भव्यलोकः
सिद्धिं प्रयाति भवसंभवदुःखदूराम्
।।६८।।
हुए हे यति ! तू भवहेतुका विनाश करनेवाले ऐसे इस (ध्रुव) पदको भज; अध्रुव वस्तुकी
चिन्तासे तुझे क्या प्रयोजन है ?
६५
[श्लोेकार्थ :] जो अनाकुल है, अच्युत है, जन्म - मृत्यु - रोगादि रहित है, सहज
निर्मल सुखामृतमय है, उस समयसारको मैं समरस (समताभाव) द्वारा सदा
पूजता हूँ
६६
[श्लोेकार्थ :] इसप्रकार पहले निजज्ञ सूत्रकारने (आत्मज्ञानी सूत्रकर्ता
श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवने) जिस निजात्मतत्त्वका वर्णन किया और जिसे जानकर भव्य
जीव मुक्तिको प्राप्त करता है, उस निजात्मतत्त्वको उत्तम सुखकी प्राप्तिके हेतु मैं भाता हूँ
६७
[श्लोेकार्थ :] परमात्मतत्त्व आदि - अन्त रहित है, दोष रहित है, निर्द्वन्द्व है और
अक्षय विशाल उत्तम ज्ञानस्वरूप है जगतमें जो भव्य जन उसकी भावनारूप परिणमित
होते हैं, वे भवजनित दुःखोंसे दूर ऐसी सिद्धिको प्राप्त करते हैं ६८
अच्युत = अस्खलित; निजस्वरूपसे न हटा हुआ

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णिग्गंथो णीरागो णिस्सल्लो सयलदोसणिम्मुक्को
णिक्कामो णिक्कोहो णिम्माणो णिम्मदो अप्पा ।।४४।।
निर्ग्रन्थो नीरागो निःशल्यः सकलदोषनिर्मुक्त :
निःकामो निःक्रोधो निर्मानो निर्मदः आत्मा ।।४४।।
अत्रापि शुद्धजीवस्वरूपमुक्त म्
बाह्याभ्यन्तरचतुर्विंशतिपरिग्रहपरित्यागलक्षणत्वान्निर्ग्रन्थः सकलमोहरागद्वेषात्मक-
चेतनकर्माभावान्नीरागः निदानमायामिथ्याशल्यत्रयाभावान्निःशल्यः शुद्धनिश्चयनयेन शुद्ध-
जीवास्तिकायस्य द्रव्यभावनोकर्माभावात् सकलदोषनिर्मुक्त : शुद्धनिश्चयनयेन निजपरम-
तत्त्वेऽपि वांछाभावान्निःकामः निश्चयनयेन प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तपरद्रव्यपरिणतेरभावान्निः-
क्रोधः निश्चयनयेन सदा परमसमरसीभावात्मकत्वान्निर्मानः निश्चयनयेन निःशेषतोऽन्तर्मुख-
गाथा : ४४ अन्वयार्थ :[आत्मा ] आत्मा [निर्ग्रन्थः ] निर्ग्रंथ [नीरागः ]
निराग, [निःशल्यः ] निःशल्य, [सकलदोषनिर्मुक्तः ] सर्वदोषविमुक्त, [निःकामः ] निष्काम,
[निःक्रोधः ] निःक्रोध, [निर्मानः ] निर्मान और [निर्मदः ] निर्मद है
टीका :यहाँ (इस गाथामें) भी शुद्ध जीवका स्वरूप कहा है
शुद्ध जीवास्तिकाय बाह्य-अभ्यंतर चौवीस परिग्रहके परित्यागस्वरूप होनेसे निग्रन्थ
है; सकल मोह-राग-द्वेषात्मक चेतन कर्मके अभावके कारण निराग है; निदान, माया और
मिथ्यात्व
इन तीन शल्योंके अभावके कारण निःशल्य है; शुद्ध निश्चयनयसे शुद्ध
जीवास्तिकायको द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मका अभाव होनेके कारण सर्वदोषविमुक्त
है; शुद्ध निश्चयनयसे निज परम तत्त्वकी भी वांछा न होनेसे निष्काम है; निश्चयनयसे प्रशस्त
अप्रशस्त समस्त परद्रव्यपरिणतिका अभाव होनेके कारण निःक्रोध है; निश्चयनयसे सदा परम
क्षेत्र, मकान, चाँदी, सोना, धन, धान्य, दासी, दास, वस्त्र और बरतनऐसा दस प्रकारका बाह्य
परिग्रह है; एक मिथ्यात्व, चार कषाय और नौ नोकषाय ऐसा चौदह प्रकारका अभ्यंतर परिग्रह है
निर्ग्रन्थ है, निराग है, निःशल्य, जीव अमान है
सब दोष रहित, अक्रोध, निर्मद, जीव यह निष्काम है ।।४४।।

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त्वान्निर्मदः उक्त प्रकारविशुद्धसहजसिद्धनित्यनिरावरणनिजकारणसमयसारस्वरूपमुपादेयमिति
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः
(मन्दाक्रांता)
‘‘इत्युच्छेदात्परपरिणतेः कर्तृकर्मादिभेद-
भ्रान्तिध्वंसादपि च सुचिराल्लब्धशुद्धात्मतत्त्वः
सञ्चिन्मात्रे महसि विशदे मूर्छितश्चेतनोऽयं
स्थास्यत्युद्यत्सहजमहिमा सर्वदा मुक्त एव
।।’’
तथा हि
(मन्दाक्रांता)
ज्ञानज्योतिःप्रहतदुरितध्वान्तसंघातकात्मा
नित्यानन्दाद्यतुलमहिमा सर्वदा मूर्तिमुक्त :
स्वस्मिन्नुच्चैरविचलतया जातशीलस्य मूलं
यस्तं वन्दे भवभयहरं मोक्षलक्ष्मीशमीशम्
।।9।।
समरसीभावस्वरूप होनेके कारण निर्मान है; निश्चयनयसे निःशेषरूपसे अंतर्मुख होनेके कारण
निर्मद है
उक्त प्रकारका (ऊ पर कहे हुए प्रकारका), विशुद्ध सहजसिद्ध नित्यनिरावरण
निज कारणसमयसारका स्वरूप उपादेय है
इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री प्रवचनसारकी टीकामें ८वें
श्लोक द्वारा) कहा है कि :
‘‘[श्लोेकार्थ :] इसप्रकार परपरिणतिके उच्छेद द्वारा (अर्थात् परद्रव्यरूप
परिणमनके नाश द्वारा) तथा कर्ता, कर्म आदि भेद होनेकी जो भ्रान्ति उसके भी नाश द्वारा
अन्तमें जिसने शुद्ध आत्मतत्त्वको उपलब्ध किया है
ऐसा यह आत्मा, चैतन्यमात्ररूप
विशद (निर्मल) तेजमें लीन रहता हुआ, अपनी सहज (स्वाभाविक) महिमाके
प्रकाशमानरूपसे सर्वदा मुक्त ही रहेगा
’’
और (४४वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) :
[श्लोेकार्थ :] जिसने ज्ञानज्योति द्वारा पापरूपी अंधकारसमूहका नाश किया है,
जो नित्य आनन्द आदि अतुल महिमाका धारण करनेवाला है, जो सर्वदा अमूर्त है, जो

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वण्णरसगंधफासा थीपुंसणउंसयादिपज्जाया
संठाणा संहणणा सव्वे जीवस्स णो संति ।।४५।।
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ।।४६।।
वर्णरसगंधस्पर्शाः स्त्रीपुंनपुंसकादिपर्यायाः
संस्थानानि संहननानि सर्वे जीवस्य नो सन्ति ।।४५।।
अरसमरूपमगंधमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम्
जानीह्यलिंगग्रहणं जीवमनिर्दिष्टसंस्थानम् ।।४६।।
इह हि परमस्वभावस्य कारणपरमात्मस्वरूपस्य समस्तपौद्गलिकविकारजातं न
समस्तीत्युक्त म्
अपनेमें अत्यन्त अविचलता द्वारा उत्तम शीलका मूल है, उस भवभयको हरनेवाले
मोक्षलक्ष्मीके ऐश्वर्यवान स्वामीको मैं वन्दन करता हूँ
६९
गाथा : ४५-४६ अन्वयार्थ :[वर्णरसगंधस्पर्शाः ] वर्ण - रस - गंध - स्पर्श,
[स्त्रीपुंनपुंसकादिपर्यायाः ] स्त्री - पुरुष - नपुंसकादि पर्यायें, [संस्थानानि ] संस्थान और
[संहननानि ] संहनन[सर्वे ] यह सब [जीवस्य ] जीवको [नो सन्ति ] नहीं हैं
[जीवम् ] जीवको [अरसम् ] अरस, [अरूपम् ] अरूप, [अगंधम् ] अगंध,
[अव्यक्तम् ] अव्यक्त, [चेतनागुणम् ] चेतनागुणवाला, [अशब्दम् ] अशब्द,
[अलिंगग्रहणम् ] अलिंगग्रहण (लिंगसे अग्राह्य) और [अनिर्दिष्टसंस्थानम् ] जिसे कोई
संस्थान नहीं कहा है ऐसा [जानीहि ] जान
टीका :यहाँ (इन दो गाथाओंमें) परमस्वभावभूत ऐसा जो कारणपरमात्माका
स्वरूप उसे समस्त पौद्गलिक विकारसमूह नहीं है ऐसा कहा है
नहिं स्पर्श - रस - अरु गंध - वर्ण न, क्लीव, नर - नारी नहीं
संस्थान संहनन सर्व ही ये भाव सब जीवको नहीं ।।४५।।
रस, रूप, गंध न, व्यक्त नहिं, नहिं शब्द, चेतनगुणमयी
निर्दिष्ट नहिं संस्थान, होता जीवलिंग - ग्रहण नहीं ।।४६।।

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निश्चयेन वर्णपंचकं, रसपंचकं, गन्धद्वितयं, स्पर्शाष्टकं, स्त्रीपुंनपुंसकादिविजातीय-
विभावव्यंजनपर्यायाः, कुब्जादिसंस्थानानि, वज्रर्षभनाराचादिसंहननानि विद्यन्ते पुद्गलानामेव,
न जीवानाम्
संसारावस्थायां संसारिणो जीवस्य स्थावरनामकर्मसंयुक्त स्य कर्मफलचेतना
भवति, त्रसनामकर्मसनाथस्य कार्ययुतकर्मफलचेतना भवति कार्यपरमात्मनः कारण-
परमात्मनश्च शुद्धज्ञानचेतना भवति अत एव कार्यसमयसारस्य वा कारणसमयसारस्य वा
शुद्धज्ञानचेतना सहजफलरूपा भवति अतः सहजशुद्धज्ञानचेतनात्मानं निजकारणपरमात्मानं
संसारावस्थायां मुक्तावस्थायां वा सर्वदैकरूपत्वादुपादेयमिति हे शिष्य त्वं जानीहि इति
तथा चोक्त मेकत्वसप्ततौ
(मन्दाक्रांता)
‘‘आत्मा भिन्नस्तदनुगतिमत्कर्म भिन्नं तयोर्या
प्रत्यासत्तेर्भवति विकृतिः साऽपि भिन्ना तथैव
कालक्षेत्रप्रमुखमपि यत्तच्च भिन्नं मतं मे
भिन्नं भिन्नं निजगुणकलालंकृतं सर्वमेतत
।।’’
निश्चयसे पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध, आठ स्पर्श, स्त्री - पुरुष - नपुंसकादि विजातीय
विभावव्यंजनपर्यायें, कुब्जादि संस्थान, वज्रर्षभनाराचादि संहनन पुद्गलोंको ही हैं, जीवोंको
नहीं हैं
संसार - दशामें स्थावरनामकर्मयुक्त संसारी जीवको कर्मफलचेतना होती है,
त्रसनामकर्मयुक्त संसारी जीवको कार्य सहित कर्मफलचेतना होती है कार्यपरमात्मा और
कारणपरमात्माको शुद्धज्ञानचेतना होती है इसीसे कार्यसमयसार अथवा कारणसमयसारको
सहजफलरूप शुद्धज्ञानचेतना होती है इसलिये, सहजशुद्ध - ज्ञानचेतनास्वरूप निज
कारणपरमात्मा संसारावस्थामें या मुक्तावस्थामें सर्वदा एकरूप होनेसे उपादेय है ऐसा, हे
शिष्य ! तू जान
इसप्रकार एकत्वसप्ततिमें (श्रीपद्मनन्दी - आचार्यदेवकृत पद्मनन्दिपंचविंशतिका नामक
शास्त्रमें एकत्वसप्तति नामक अधिकारमें ७९वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :
‘‘[श्लोेकार्थ :] मेरा ऐसा मंतव्य है किआत्मा पृथक् है और उसके पीछे
पीछे जानेवाला कर्म पृथक् है; आत्मा और कर्मकी अति निकटतासे जो विकृति होती है
वह भी उसीप्रकार (आत्मासे) भिन्न है; और काल
क्षेत्रादि जो हैं वे भी (आत्मासे) पृथक्
हैं निज निज गुणकलासे अलंकृत यह सब पृथक् - पृथक् हैं (अर्थात् अपने - अपने गुणों

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तथा हि
(मालिनी)
असति च सति बन्धे शुद्धजीवस्य रूपाद्
रहितमखिलमूर्तद्रव्यजालं विचित्रम्
इति जिनपतिवाक्यं वक्ति शुद्धं बुधानां
भुवनविदितमेतद्भव्य जानीहि नित्यम्
।।७०।।
जारिसिया सिद्धप्पा भवमल्लिय जीव तारिसा होंति
जरमरणजम्ममुक्का अट्ठगुणालंकिया जेण ।।४७।।
याद्रशाः सिद्धात्मानो भवमालीना जीवास्ताद्रशा भवन्ति
जरामरणजन्ममुक्ता अष्टगुणालंकृता येन ।।४७।।
तथा पर्यायोंसे युक्त सर्व द्रव्य अत्यन्त भिन्न - भिन्न हैं ) ’’
और (इन दो गाथाओंकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) :
[श्लोेकार्थ :] ‘‘बन्ध हो न हो (अर्थात् बन्धावस्थामें या मोक्षावस्थामें), समस्त
विचित्र मूर्तद्रव्यजाल (अनेकविध मूर्तद्रव्योंका समूह) शुद्ध जीवके रूपसे व्यतिरिक्त है’’
ऐसा जिनदेवका शुद्ध वचन बुधपुरुषोंको कहते हैं
इस भुवनविदितको (इस जगतप्रसिद्ध
सत्यको), हे भव्य ! तू सदा जान ७०
गाथा : ४७ अन्वयार्थ :[याद्रशाः ] जैसे [सिद्धात्मानः ] सिद्ध आत्मा हैं
[ताद्रशाः ] वैसे [भवम् आलीनाः जीवाः ] भवलीन (संसारी) जीव [भवन्ति ] हैं, [येन ]
जिससे (वे संसारी जीव सिद्धात्माओंकी भाँति) [जरामरणजन्ममुक्ताः ] जन्म - जरा - मरणसे
रहित और [अष्टगुणालंकृताः ] आठ गुणोंसे अलंकृत हैं
है सिद्ध जैसे जीव, त्यों भवलीन संसारी वही
गुण आठसे जो है अलंकृत जन्म-मरण-जरा नहीं ।।४७।।

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शुद्धद्रव्यार्थिकनयाभिप्रायेण संसारिजीवानां मुक्त जीवानां विशेषाभावोपन्यासोयम्
ये केचिद् अत्यासन्नभव्यजीवाः ते पूर्वं संसारावस्थायां संसारक्लेशायासचित्ताः सन्तः
सहजवैराग्यपरायणाः द्रव्यभावलिंगधराः परमगुरुप्रसादासादितपरमागमाभ्यासेन सिद्धक्षेत्रं
परिप्राप्य निर्व्याबाधसकलविमलकेवलज्ञानकेवलदर्शनकेवलसुखकेवलशक्ति युक्ताः सिद्धात्मानः
कार्यसमयसाररूपाः कार्यशुद्धाः
ते याद्रशास्ताद्रशा एव भविनः शुद्धनिश्चयनयेन येन
कारणेन ताद्रशास्तेन जरामरणजन्ममुक्ताः सम्यक्त्वाद्यष्टगुणपुष्टितुष्टाश्चेति
(अनुष्टुभ्)
प्रागेव शुद्धता येषां सुधियां कुधियामपि
नयेन केनचित्तेषां भिदां कामपि वेद्म्यहम् ।।७१।।
टीका :शुद्धद्रव्यार्थिक नयके अभिप्रायसे संसारी जीवोंमें और मुक्त जीवोंमें
अन्तर न होनेका यह कथन है
जो कोई अति - आसन्न - भव्य जीव हुए, वे पहले संसारावस्थामें संसारक्लेशसे थके
चित्तवाले होते हुए सहजवैराग्यपरायण होनेसे द्रव्य-भाव लिंगको धारण करके परमगुरुके
प्रसादसे प्राप्त किये हुए परमागमके अभ्यास द्वारा सिद्धक्षेत्रको प्राप्त करके अव्याबाध (बाधा
रहित) सकल-विमल (सर्वथा निर्मल) केवलज्ञान
- केवलदर्शन - केवलसुख - केवलवीर्ययुक्त
सिद्धात्मा हो गयेकि जो सिद्धात्मा कार्यसमयसाररूप हैं, कार्यशुद्ध हैं जैसे वे सिद्धात्मा
हैं वैसे ही शुद्धनिश्चयनयसे भववाले (संसारी) जीव हैं जिसकारण वे संसारी जीव सिद्धात्माके
समान हैं, उस कारण वे संसारी जीव जन्मजरामरणसे रहित और सम्यक्त्वादि आठ गुणोंकी
पुष्टिसे तुष्ट हैं (
सम्यक्त्व, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहन,
अगुरुलघु तथा अव्याबाध इन आठ गुणोंकी समृद्धिसे आनन्दमय हैं )
[अब ४७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ :] जिन सुबुद्धिओंको तथा कुबुद्धिओंको पहलेसे ही शुद्धता है,
उनमें कुछ भी भेद मैं किस नयसे जानूँ ? (वास्तवमें उनमें कुछ भी भेद अर्थात्
अंतर नहीं है
) ७१
कार्यशुद्ध = कार्यअपेक्षासे शुद्ध

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असरीरा अविणासा अणिंदिया णिम्मला विसुद्धप्पा
जह लोयग्गे सिद्धा तह जीवा संसिदी णेया ।।४८।।
अशरीरा अविनाशा अतीन्द्रिया निर्मला विशुद्धात्मानः
यथा लोकाग्रे सिद्धास्तथा जीवाः संसृतौ ज्ञेयाः ।।४८।।
अयं च कार्यकारणसमयसारयोर्विशेषाभावोपन्यासः
निश्चयेन पंचशरीरप्रपंचाभावादशरीराः, निश्चयेन नरनारकादिपर्यायपरित्याग-
स्वीकाराभावादविनाशाः, युगपत्परमतत्त्वस्थितसहजदर्शनादिकारणशुद्धस्वरूपपरिच्छित्ति-
समर्थसहजज्ञानज्योतिरपहस्तितसमस्तसंशयस्वरूपत्वादतीन्द्रियाः, मलजनकक्षायोपशमिकादि-
विभावस्वभावानामभावान्निर्मलाः, द्रव्यभावकर्माभावाद् विशुद्धात्मानः यथैव लोकाग्रे भगवन्तः
गाथा : ४८ अन्वयार्थ :[यथा ] जिसप्रकार [लोकाग्रे ] लोकाग्रमें
[सिद्धाः ] सिद्धभगवन्त [अशरीराः ] अशरीरी, [अविनाशाः ] अविनाशी, [अतीन्द्रियाः ]
अतीन्द्रिय, [निर्मलाः ] निर्मल और [विशुद्धात्मानः ] विशुद्धात्मा (विशुद्धस्वरूपी) हैं,
[तथा ] उसीप्रकार [संसृतौ ] संसारमें [जीवाः ] (सर्व) जीव [ज्ञेयाः ] जानना
टीका :और यह, कार्यसमयसार तथा कारणसमयसारमें अन्तर न होनेका
कथन है
जिसप्रकार लोकाग्रमें सिद्धपरमेष्ठी भगवन्त निश्चयसे पाँच शरीरके प्रपंचके
अभावके कारण ‘अशरीरी’ हैं, निश्चयसे नर - नारकादि पर्यायोंके त्याग - ग्रहणके अभावके
कारण ‘अविनाशी’ हैं, परम तत्त्वमें स्थित सहजदर्शनादिरूप कारणशुद्धस्वरूपको युगपद्
जाननेमें समर्थ ऐसी सहजज्ञानज्योति द्वारा जिसमेंसे समस्त संशय दूर कर दिये गये हैं
ऐसे स्वरूपवाले होनेके कारण ‘अतीन्द्रिय’ हैं, मलजनक क्षायोपशमिकादि
विभावस्वभावोंके अभावके कारण ‘निर्मल’ हैं और द्रव्यकर्मों तथा भावकर्मोंके
विन देह अविनाशी, अतीन्द्रिय, शुद्ध निर्मल सिद्ध ज्यों
लोकाग्रमें जैसे विराजे, जीव हैं भवलीन त्यों ।।४८।।

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सिद्धपरमेष्ठिनस्तिष्ठन्ति, तथैव संसृतावपि अमी केनचिन्नयबलेन संसारिजीवाः शुद्धा इति
(शार्दूलविक्रीडित)
शुद्धाशुद्धविकल्पना भवति सा मिथ्याद्रशि प्रत्यहं
शुद्धं कारणकार्यतत्त्वयुगलं सम्यग्द्रशि प्रत्यहम्
इत्थं यः परमागमार्थमतुलं जानाति सद्द्रक् स्वयं
सारासारविचारचारुधिषणा वन्दामहे तं वयम् ।।७२।।
एदे सव्वे भावा ववहारणयं पडुच्च भणिदा हु
सव्वे सिद्धसहावा सुद्धणया संसिदी जीवा ।।9।।
एते सर्वे भावाः व्यवहारनयं प्रतीत्य भणिताः खलु
सर्वे सिद्धस्वभावाः शुद्धनयात् संसृतौ जीवाः ।।9।।
अभावके कारण ‘विशुद्धात्मा’ हैं, उसीप्रकार संसारमें भी यह संसारी जीव किसी नयके
बलसे (किसी नयसे) शुद्ध हैं
[अब ४८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ :] शुद्ध - अशुद्धकी जो विकल्पना वह मिथ्यादृष्टिको सदैव होती है;
सम्यग्दृष्टिको तो सदा (ऐसी मान्यता होती है कि) कारणतत्त्व और कार्यतत्त्व दोनों शुद्ध
हैं
इसप्रकार परमागमके अतुल अर्थको सारासारके विचारवाली सुन्दर बुद्धि द्वारा जो
सम्यग्दृष्टि स्वयं जानता है, उसे हम वन्दन करते हैं ७२
गाथा : ४९ अन्वयार्थ :[एते ] यह (पूर्वोक्त) [सर्वे भावाः ] सब भाव
[खलु ] वास्तवमें [व्यवहारनयं प्रतीत्य ] व्यवहारनयका आश्रय करके [भणिताः ] (संसारी
जीवोंमें विद्यमान) कहे गये हैं; [शुद्धनयात् ] शुद्धनयसे [संसृतौ ] संसारमें रहनेवाले [सर्वे
जीवाः ]
सर्व जीव [सिद्धस्वभावाः ] सिद्धस्वभावी हैं
विकल्पना = विपरीत कल्पना; मिथ्या मान्यता; अनिश्चय; शंका; भेद करना
व्यवहारनयसे हैं कहे सब जीवके ही भाव ये
हैं शुद्धनयसे जीव सब भवलीन सिद्ध स्वभावसे ।।४९।।

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निश्चयव्यवहारनययोरुपादेयत्वप्रद्योतनमेतत
ये पूर्वं न विद्यन्ते इति प्रतिपादितास्ते सर्वे विभावपर्यायाः खलु व्यवहारनयादेशेन
विद्यन्ते संसृतावपि ये विभावभावैश्चतुर्भिः परिणताः सन्तस्तिष्ठन्ति अपि च ते सर्वे भगवतां
सिद्धानां शुद्धगुणपर्यायैः सद्रशाः शुद्धनयादेशादिति
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः
(मालिनी)
‘‘व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदव्या-
मिह निहितपदानां हंत हस्तावलम्बः
टीका :यह, निश्चयनय और व्यवहारनयकी उपादेयताका प्रकाशन
(कथन) है
पहले जो विभावपर्यायें ‘विद्यमान नहीं हैं ’ ऐसी प्रतिपादित की गई हैं वे सब
विभावपर्यायें वास्तवमें व्यवहारनयके कथनसे विद्यमान हैं और जो (व्यवहारनयके
कथनसे) चार विभावभावरूप परिणत होनेसे संसारमें भी विद्यमान हैं वे सब शुद्धनयके
कथनसे शुद्धगुणपर्यायों द्वारा सिद्धभगवन्त समान हैं (अर्थात् जो जीव व्यवहारनयके कथनसे
औदयिकादि विभावभावोंवाले होनेसे संसारी हैं वे सब शुद्धनयके कथनसे शुद्ध गुणों तथा
शुद्ध पर्यायोंवाले होनेसे सिद्ध सदृश हैं )
इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति
नामक टीकामें पाँचवें श्लोक द्वारा) कहा है कि :
‘‘[श्लोेकार्थ :] यद्यपि व्यवहारनय इस प्रथम भूमिकामें जिन्होंने पैर रखा है ऐसे
प्रमाणभूत ज्ञानमें शुद्धात्मद्रव्यका तथा उसकी पर्यायोंकादोनोंका सम्यक् ज्ञान होना चाहिये
‘स्वयंको कथंचित् विभावपर्यायें विद्यमान है’ ऐसा स्वीकार ही जिसके ज्ञानमें न हो उसे
शुद्धात्मद्रव्यका भी सच्चा ज्ञान नहीं हो सकता
इसलिये ‘व्यवहारनयके विषयोंका भी ज्ञान तो
ग्रहण करने योग्य है’ ऐसी विवक्षासे ही यहाँ व्यवहारनयको उपादेय कहा है, ‘उनका आश्रय ग्रहण
करने योग्य है’ ऐसी विवक्षासे नहीं
व्यवहारनयके विषयोंका आश्रय (आलम्बन, झुकाव,
सन्मुखता, भावना) तो छोड़नेयोग्य है ही ऐसा समझानेके लिये ५०वीं गाथामें व्यवहारनयको
स्पष्टरूपसे हेय कहा जायेगा
जिस जीवको अभिप्रायमें शुद्धात्मद्रव्यके आश्रयका ग्रहण और
पर्यायोंके आश्रयका त्याग हो, उसी जीवको द्रव्यका तथा पर्यायोंका ज्ञान सम्यक् है ऐसा समझना,
अन्यको नहीं

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तदपि परममर्थं चिच्चमत्कारमात्रं
परविरहितमन्तः पश्यतां नैष किंचित
।।’’
तथा हि
(स्वागता)
शुद्धनिश्चयनयेन विमुक्तौ
संसृतावपि च नास्ति विशेषः
एवमेव खलु तत्त्वविचारे
शुद्धतत्त्वरसिकाः प्रवदन्ति
।।७३।।
पुव्वुत्तसयलभावा परदव्वं परसहावमिदि हेयं
सगदव्वमुवादेयं अंतरतच्चं हवे अप्पा ।।५०।।
पूर्वोक्त सकलभावाः परद्रव्यं परस्वभावा इति हेयाः
स्वकद्रव्यमुपादेयं अन्तस्तत्त्वं भवेदात्मा ।।५०।।
जीवोंको, अरेरे ! हस्तावलम्बरूप भले हो, तथापि जो जीव चैतन्यचमत्कारमात्र, परसे रहित
ऐसे परम पदार्थको अन्तरंगमें देखते हैं उन्हें यह व्यवहारनय कुछ नहीं है
’’
और (इस ४९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) :
[श्लोेकार्थ :] ‘शुद्धनिश्चयनयसे मुक्तिमें तथा संसारमें अन्तर नहीं है;’ ऐसा ही
वास्तवमें, तत्त्व विचारने पर (परमार्थ वस्तुस्वरूपका विचार अथवा निरूपण करने पर),
शुद्ध तत्त्वके रसिक पुरुष कहते हैं ७३
गाथा : ५० अन्वयार्थ :[पूर्वोक्तसकलभावाः ] पूर्वोक्त सर्व भाव
[परस्वभावाः ] पर स्वभाव हैं, [परद्रव्यम् ] परद्रव्य हैं, [इति ] इसलिये [हेयाः ] हेय हैं,
[अन्तस्तत्त्वं ] अन्तःतत्त्व [स्वकद्रव्यम् ] ऐसा स्वद्रव्य
[आत्मा ] आत्मा[उपादेयम् ]
उपादेय [भवेत् ] है
परद्रव्य हैं परभाव हैं पूर्वोक्त सारे भाव ही
अतएव हैं ये त्याज्य, अन्तस्तत्त्व है आदेय ही ।।५०।।

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हेयोपादेयत्यागोपादानलक्षणकथनमिदम्
ये केचिद् विभावगुणपर्यायास्ते पूर्वं व्यवहारनयादेशादुपादेयत्वेनोक्ताः शुद्ध-
निश्चयनयबलेन हेया भवन्ति कुतः ? परस्वभावत्वात्, अत एव परद्रव्यं भवति
सकलविभावगुणपर्यायनिर्मुक्तं शुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपं स्वद्रव्यमुपादेयम् अस्य खलु सहज-
ज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजपरमवीतरागसुखात्मकस्य शुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपस्याधारः सहज-
परमपारिणामिकभावलक्षणकारणसमयसार इति
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः
(शार्दूलविक्रीडित)
‘‘सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्तचरितैर्मोक्षार्थिभिः सेव्यतां
शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैवास्म्यहम्
एते ये तु समुल्लसन्ति विविधा भावाः पृथग्लक्षणा-
स्तेऽहं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि
।।’’
टीका :यह, हेय-उपादेय अथवा त्याग-ग्रहणके स्वरूपका कथन है
जो कोई विभावगुणपर्यायें हैं वे पहले (४९वीं गाथामें) व्यवहारनयके कथन द्वारा
उपादेयरूपसे कही गई थीं किन्तु शुद्धनिश्चयनयके बलसे (शुद्धनिश्चयनयसे) वे हेय हैं
किस कारणसे ? क्योंकि वे परस्वभाव हैं, और इसीलिये परद्रव्य हैं सर्व
विभावगुणपर्यायोंसे रहित शुद्ध-अन्तस्तत्त्वस्वरूप स्वद्रव्य उपादेय है वास्तवमें सहजज्ञान
सहजदर्शनसहजचारित्रसहजपरमवीतरागसुखात्मक शुद्ध-अन्तस्तत्त्वस्वरूप इस
स्वद्रव्यका आधार सहजपरमपारिणामिकभावलक्षण (सहज परम पारिणामिक भाव
जिसका लक्षण है ऐसा) कारणसमयसार है
इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति
नामक टीकामें १८५वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :
‘‘[श्लोेकार्थ :] जिनके चित्तका चरित्र उदात्त (उदार, उच्च, उज्ज्वल) है ऐसे
मोक्षार्थी इस सिद्धान्तका सेवन करो कि‘मैं तो शुद्ध चैतन्यमय एक परम ज्योति ही सदैव
हूँ; और यह जो भिन्न लक्षणवाले विविध प्रकारके भाव प्रगट होते हैं वह मैं नहीं हूँ, क्योंकि
वे सब मुझे परद्रव्य हैं
’’

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तथा हि
(शालिनी)
न ह्यस्माकं शुद्धजीवास्तिकाया-
दन्ये सर्वे पुद्गलद्रव्यभावाः
इत्थं व्यक्तं वक्ति यस्तत्त्ववेदी
सिद्धिं सोऽयं याति तामत्यपूर्वाम्
।।७४।।
विवरीयाभिणिवेसविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं
संसयविमोहविब्भमविवज्जियं होदि सण्णाणं ।।५१।।
चलमलिणमगाढत्तविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं
अधिगमभावो णाणं हेयोवादेयतच्चाणं ।।५२।।
सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा
अंतरहेऊ भणिदा दंसणमोहस्स खयपहुदी ।।५३।।
और (इस ५०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
हैं ) :
[श्लोेकार्थ :] ‘शुद्ध जीवास्तिकायसे अन्य ऐसे जो सब पुद्गलद्रव्यके भाव वे
वास्तवमें हमारे नहीं हैं’ऐसा जो तत्त्ववेदी स्पष्टरूपसे कहता है वह अति अपूर्व सिद्धिको
प्राप्त होता है ७४
मिथ्याभिप्राय विहीन जो श्रद्धान वह सम्यक्त्व है
संशय-विमोह-विभ्रान्ति विरहित ज्ञान सुज्ञानत्व है ।।५१।।
चल-मल-अगाढ़पने रहित श्रद्धान वह सम्यक्त्व है
आदेय-हेय पदार्थका अवबोध सुज्ञानत्व है ।।५२।।
जिनसूत्र समकितहेतु है, अरु सूत्रज्ञाता पुरुष जो
वह जान अंतर्हेतु जिनके दर्शनमोहक्षयादि हो ।।५३।।

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सम्मत्तं सण्णाणं विज्जदि मोक्खस्स होदि सुण चरणं
ववहारणिच्छएण दु तम्हा चरणं पवक्खामि ।।५४।।
ववहारणयचरित्ते ववहारणयस्स होदि तवचरणं
णिच्छयणयचारित्ते तवचरणं होदि णिच्छयदो ।।५५।।
विपरीताभिनिवेशविवर्जितश्रद्धानमेव सम्यक्त्वम्
संशयविमोहविभ्रमविवर्जितं भवति संज्ञानम् ।।५१।।
चलमलिनमगाढत्वविवर्जितश्रद्धानमेव सम्यक्त्वम्
अधिगमभावो ज्ञानं हेयोपादेयतत्त्वानाम् ।।५२।।
सम्यक्त्वस्य निमित्तं जिनसूत्रं तस्य ज्ञायकाः पुरुषाः
अन्तर्हेतवो भणिताः दर्शनमोहस्य क्षयप्रभृतेः ।।५३।।
गाथा : ५१ से ५५ अन्वयार्थ :[विपरीताभिनिवेशविवर्जितश्रद्धानम् एव ]
विपरीत अभिनिवेश रहित श्रद्धान ही [सम्यक्त्वम् ] सम्यक्त्व है; [संशयविमोहविभ्रम-
विवर्जितम् ] संशय, विमोह और विभ्रम रहित (ज्ञान) वह [संज्ञानम् भवति ] सम्यग्ज्ञान है
[चलमलिनमगाढत्वविवर्जितश्रद्धानम् एव ] चलता, मलिनता और अगाढ़ता रहित
श्रद्धान ही [सम्यक्त्वम् ] सम्यक्त्व है; [हेयोपादेयतत्त्वानाम् ] हेय और उपादेय तत्त्वोंको
[अधिगमभावः ] जाननेरूप भाव वह [ज्ञानम् ] (सम्यक्) ज्ञान है
[सम्यक्त्वस्य निमित्तं ] सम्यक्त्वका निमित्त [जिनसूत्रं ] जिनसूत्र है; [तस्य ज्ञायकाः
पुरुषाः ] जिनसूत्रके जाननेवाले पुरुषोंको [अन्तर्हेतवः ] (सम्यक्त्वके) अन्तरंग हेतु
[भणिताः ] कहे हैं, [दर्शनमोहस्य क्षयप्रभृतेः ] क्योंकि उनको दर्शनमोहके क्षयादिक हैं
अभिनिवेश = अभिप्राय; आग्रह
सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान अरु चारित्र मोक्ष उपाय है
व्यवहार निश्चयसे अतः चारित्र मम प्रतिपाद्य है ।।५४।।
व्यवहारनयचारित्रमें व्यवहारनय तप जानिये
चारित्र निश्चयमें तपश्चर्या नियतनय मानिये ।।५५।।

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सम्यक्त्वं संज्ञानं विद्यते मोक्षस्य भवति शृणु चरणम्
व्यवहारनिश्चयेन तु तस्माच्चरणं प्रवक्ष्यामि ।।५४।।
व्यवहारनयचरित्रे व्यवहारनयस्य भवति तपश्चरणम्
निश्चयनयचारित्रे तपश्चरणं भवति निश्चयतः ।।५५।।
रत्नत्रयस्वरूपाख्यानमेतत
भेदोपचाररत्नत्रयमपि तावद् विपरीताभिनिवेशविवर्जितश्रद्धानरूपं भगवतां सिद्धि-
परंपराहेतुभूतानां पंचपरमेष्ठिनां चलमलिनागाढविवर्जितसमुपजनितनिश्चलभक्ति युक्त त्वमेव
विपरीते हरिहिरण्यगर्भादिप्रणीते पदार्थसार्थे ह्यभिनिवेशाभाव इत्यर्थः संज्ञानमपि च
संशयविमोहविभ्रमविवर्जितमेव तत्र संशयः तावत् जिनो वा शिवो वा देव इति विमोहः
शाक्यादिप्रोक्ते वस्तुनि निश्चयः विभ्रमो ह्यज्ञानत्वमेव पापक्रियानिवृत्तिपरिणामश्चारित्रम्
[शृणु ] सुन, [मोक्षस्य ] मोक्षके लिये [सम्यक्त्वं ] सम्यक्त्व होता है, [संज्ञानं ]
सम्यग्ज्ञान [विद्यते ] होता है, [चरणम् ] चारित्र (भी) [भवति ] होता है; [तस्मात् ]
इसलिये [व्यवहारनिश्चयेन तु ] मैं व्यवहार और निश्चयसे [चरणं प्रवक्ष्यामि ] चारित्र कहूँगा
[व्यवहारनयचरित्रे ] व्यवहारनयके चारित्रमें [व्यवहारनयस्य ] व्यवहारनयका
[तपश्चरणम् ] तपश्चरण [भवति ] होता है; [निश्चयनयचारित्रे ] निश्चयनयके चारित्रमें
[निश्चयतः ] निश्चयसे [तपश्चरणम् ] तपश्चरण [भवति ] होता है
टीका :यह, रत्नत्रयके स्वरूपका कथन है
प्रथम, भेदोपचार-रत्नत्रय इस प्रकार है :विपरीत अभिनिवेश रहित श्रद्धानरूप
ऐसा जो सिद्धिके परम्पराहेतुभूत भगवन्त पंचपरमेष्ठीके प्रति उत्पन्न हुआ चलता
मलिनताअगाढ़ता रहित निश्चल भक्तियुक्तपना वही सम्यक्त्व है विष्णुब्रह्मादिकथित
विपरीत पदार्थसमूहके प्रति अभिनिवेशका अभाव ही सम्यक्त्व हैऐसा अर्थ है
संशय, विमोह और विभ्रम रहित (ज्ञान) ही सम्यग्ज्ञान है वहाँ, जिन देव होंगे या
शिव देव होंगे (ऐसा शंकारूपभाव) वह संशय है; शाक्यादिकथित वस्तुमें निश्चय
(अर्थात् बुद्धादि कथित पदार्थका निर्णय) वह विमोह है; अज्ञानपना (अर्थात् वस्तु
क्या है तत्सम्बन्धी अजानपना) ही विभ्रम है
पापक्रियासे निवृत्तिरूप परिणाम वह

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इति भेदोपचाररत्नत्रयपरिणतिः तत्र जिनप्रणीतहेयोपादेयतत्त्वपरिच्छित्तिरेव सम्यग्ज्ञानम्
अस्य सम्यक्त्वपरिणामस्य बाह्यसहकारिकारणं वीतरागसर्वज्ञमुखकमलविनिर्गतसमस्तवस्तु-
प्रतिपादनसमर्थद्रव्यश्रुतमेव तत्त्वज्ञानमिति
ये मुमुक्षवः तेऽप्युपचारतः पदार्थनिर्णयहेतुत्वात
अंतरंगहेतव इत्युक्ताः दर्शनमोहनीयकर्मक्षयप्रभृतेः सकाशादिति अभेदानुपचाररत्नत्रय-
परिणतेर्जीवस्य टंकोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावनिजपरमतत्त्वश्रद्धानेन, तत्परिच्छित्तिमात्रांतर्मुखपरम-
बोधेन, तद्रूपाविचलस्थितिरूपसहजचारित्रेण अभूतपूर्वः सिद्धपर्यायो भवति
यः परमजिन-
योगीश्वरः प्रथमं पापक्रियानिवृत्तिरूपव्यवहारनयचारित्रे तिष्ठति, तस्य खलु व्यवहारनय-
गोचरतपश्चरणं भवति
सहजनिश्चयनयात्मकपरमस्वभावात्मकपरमात्मनि प्रतपनं तपः
स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपं सहजनिश्चयचारित्रम् अनेन तपसा भवतीति
तथा चोक्त मेकत्वसप्ततौ
चारित्र है इसप्रकार भेदोपचार-रत्नत्रयपरिणति है उसमें, जिनप्रणीत हेय-उपादेय
तत्त्वोंका ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है इस सम्यक्त्वपरिणामका बाह्य सहकारी कारण
वीतराग-सर्वज्ञके मुखकमलसे निकला हुआ समस्त वस्तुके प्रतिपादनमें समर्थ ऐसा
द्रव्यश्रुतरूप तत्त्वज्ञान ही है
जो मुमुक्षु हैं उन्हें भी उपचारसे पदार्थनिर्णयके हेतुपनेके
कारण (सम्यक्त्वपरिणामके) अन्तरङ्गहेतु कहे हैं, क्योंकि उन्हें दर्शनमोहनीयकर्मका
क्षयादिक है
अभेद-अनुपचार-रत्नत्रयपरिणतिवाले जीवको, टंकोत्कीर्ण ज्ञायक जिसका एक
स्वभाव है ऐसे निज परम तत्त्वकी श्रद्धा द्वारा, तद्ज्ञानमात्र (उस निज परम तत्त्वके
ज्ञानमात्रस्वरूप) ऐसे अंतर्मुख परमबोध द्वारा और उस-रूपसे (अर्थात् निज परम
तत्त्वरूपसे) अविचलरूपसे स्थित होनेरूप सहजचारित्र द्वारा
अभूतपूर्व सिद्धपर्याय होती
है जो परमजिनयोगीश्वर पहले पापक्रियासे निवृत्तिरूप व्यवहारनयके चारित्रमें होते हैं, उन्हें
वास्तवमें व्यवहारनयगोचर तपश्चरण होता है सहजनिश्चयनयात्मक परमस्वभावस्वरूप
परमात्मामें प्रतपन सो तप है; निज स्वरूपमें अविचल स्थितिरूप सहजनिश्चयचारित्र इस
तपसे होता है
इसीप्रकार एकत्वसप्ततिमें (श्री पद्मनन्दि-आचार्यदेवकृत पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका
नामक शास्त्रमें एकत्वसप्तति नामके अधिकारमें १४वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :
अभूतपूर्व = पहले कभी न हुआ हो ऐसा; अपूर्व

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(अनुष्टुभ्)
‘‘दर्शनं निश्चयः पुंसि बोधस्तद्बोध इष्यते
स्थितिरत्रैव चारित्रमिति योगः शिवाश्रयः ।।’’
तथा च
(मालिनी)
जयति सहजबोधस्ताद्रशी द्रष्टिरेषा
चरणमपि विशुद्धं तद्विधं चैव नित्यम्
अघकुलमलपंकानीकनिर्मुक्त मूर्तिः
सहजपरमतत्त्वे संस्थिता चेतना च
।।७५।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां
नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ शुद्धभावाधिकारः तृतीयः श्रुतस्कन्धः ।।
‘‘[श्लोेकार्थ :] आत्माका निश्चय वह दर्शन है, आत्माका बोध वह ज्ञान है,
आत्मामें ही स्थिति वह चारित्र है; ऐसा योग (अर्थात् इन तीनोंकी एकता) शिवपदका
कारण है ’’
और (इस शुद्धभाव अधिकारकी अन्तिम पाँच गाथाओंकी टीका पूर्ण करते हुए
टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ) :
[श्लोेकार्थ :] सहज ज्ञान सदा जयवन्त है, वैसी (सहज) यह दृष्टि सदा
जयवन्त है, वैसा ही (सहज) विशुद्ध चारित्र भी सदा जयवन्त है; पापसमूहरूपी मलकी
अथवा कीचड़की पंक्तिसे रहित जिसका स्वरूप है ऐसी सहजपरमतत्त्वमें संस्थित चेतना
भी सदा जयवन्त है
७५
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियोंके
फै लाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी
तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार
परमागमकी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें)
शुद्धभाव अधिकार नामका तीसरा श्रुतस्कंध समाप्त हुआ
❄ ❁ ❄

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व्यवहारचारित्र अधिकार
अथेदानीं व्यवहारचारित्राधिकार उच्यते
कुलजोणिजीवमग्गणठाणाइसु जाणिऊण जीवाणं
तस्सारंभणियत्तणपरिणामो होइ पढमवदं ।।५६।।
कुलयोनिजीवमार्गणास्थानादिषु ज्ञात्वा जीवानाम्
तस्यारम्भनिवृत्तिपरिणामो भवति प्रथमव्रतम् ।।५६।।
अहिंसाव्रतस्वरूपाख्यानमेतत
कुलविकल्पो योनिविकल्पश्च जीवमार्गणास्थानविकल्पाश्च प्रागेव प्रतिपादिताः अत्र
पुनरुक्ति दोषभयान्न प्रतिपादिताः तत्रैव तेषां भेदान् बुद्ध्वा तद्रक्षापरिणतिरेव भवत्यहिंसा
अब व्यवहारचारित्र अधिकार कहा जाता है
गाथा : ५६ अन्वयार्थ :[जीवानाम् ] जीवोंके [कुलयोनिजीवमार्गणास्थानादिषु ]
कुल, योनि, जीवस्थान, मार्गणास्थान आदि [ज्ञात्वा ] जानकर [तस्य ] उनके [आरम्भनिवृत्ति-
परिणामः ]
आरम्भसे निवृत्तिरूप परिणाम वह [प्रथमव्रतम् ] पहला व्रत [भवति ] है
टीका :यह, अहिंसाव्रतके स्वरूपका कथन है
कुलभेद, योनिभेद, जीवस्थानके भेद और मार्गणास्थानके भेद पहले ही (४२वीं
गाथाकी टीकामें ही) प्रतिपादित किये गये हैं; यहाँ पुनरुक्तिदोषके भयसे प्रतिपादित
नहीं किये हैं
वहाँ कहे हुए उनके भेदोंको जानकर उनकी रक्षारूप परिणति ही अहिंसा
रे जानकर कुलयोनि, जीवस्थान मार्गण जीवके
आरम्भ इनके से विरत हो प्रथमव्रत कहते उसे ।।५६।।

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तेषां मृतिर्भवतु वा न वा, प्रयत्नपरिणाममन्तरेण सावद्यपरिहारो न भवति अत एव
प्रयत्नपरे हिंसापरिणतेरभावादहिंसाव्रतं भवतीति
तथा चोक्तं श्रीसमन्तभद्रस्वामिभिः
(शिखरिणी)
‘‘अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं
न सा तत्रारम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ
ततस्तत्सिद्धयर्थं परमकरुणो ग्रन्थमुभयं
भवानेवात्याक्षीन्न च विकृतवेषोपधिरतः
।।’’
तथा हि
है उनका मरण हो या न हो, प्रयत्नरूप परिणाम बिना सावद्यपरिहार (दोषका
त्याग) नहीं होता इसीलिये, प्रयत्नपरायणको हिंसापरिणतिका अभाव होनेसे अहिंसाव्रत
होता है
इसीप्रकार (आचार्यवर) श्री समंतभद्रस्वामीने (बृहत्स्वयंभूस्तोत्रमें श्री नमिनाथ
भगवानकी स्तुति करते हुए ११९वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :
‘‘[श्लोेकार्थ : ] जगतमें विदित है कि जीवोंकी अहिंसा परम ब्रह्म है जिस
आश्रमकी विधिमें लेश भी आरंभ है वहाँ (उस आश्रममें अर्थात् सग्रंथपनेमें) वह अहिंसा
नहीं होती इसलिये उसकी सिद्धिके हेतु, (हे नमिनाथ प्रभु !) परम करुणावन्त ऐसे
आपश्रीने दोनों ग्रंथको छोड़ दिया (द्रव्य तथा भाव दोनों प्रकारके परिग्रहको छोड़कर
निर्ग्रन्थपना अंगीकार किया), विकृत वेश तथा परिग्रहमें रत न हुए ’’
और (५६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ) :
मुनिको (मुनित्वोचित्त) शुद्धपरिणतिके साथ वर्तनेवाला जो (हठ रहित) देहचेष्टादिकसम्बन्धी शुभोपयोग
वह व्यवहार प्रयत्न है
[शुद्धपरिणति न हो वहाँ शुभोपयोग हठ सहित होता है; वह शुभोपयोग तो
व्यवहार-प्रयत्न भी नहीं कहलाता ]

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(मालिनी)
त्रसहतिपरिणामध्वांतविध्वंसहेतुः
सकलभुवनजीवग्रामसौख्यप्रदो यः
स जयति जिनधर्मः स्थावरैकेन्द्रियाणां
विविधवधविदूरश्चारुशर्माब्धिपूरः
।।७६।।
रागेण व दोसेण व मोहेण व मोसभासपरिणामं
जो पजहदि साहु सया बिदियवदं होइ तस्सेव ।।५७।।
रागेण वा द्वेषेण वा मोहेन वा मृषाभाषापरिणामं
यः प्रजहाति साधुः सदा द्वितीयव्रतं भवति तस्यैव ।।५७।।
सत्यव्रतस्वरूपाख्यानमेतत
अत्र मृषापरिणामः सत्यप्रतिपक्षः, स च रागेण वा द्वेषेण वा मोहेन वा जायते
सदा यः साधुः आसन्नभव्यजीवः तं परिणामं परित्यजति तस्य द्वितीयव्रतं भवति इति
[श्लोेकार्थ :] त्रसघातके परिणामरूप अंधकारके नाशका जो हेतु है, सकल
लोकके जीवसमूहको जो सुखप्रद है, स्थावर एकेन्द्रिय जीवोंके विविध वधसे जो बहुत दूर
है और सुन्दर सुखसागरका जो पूर है, वह जिनधर्म जयवन्त वर्तता है
७६
गाथा : ५७ अन्वयार्थ :[रागेण वा ] रागसे, [द्वेषेण वा ] द्वेषसे [मोहेन वा ]
अथवा मोहसे होनेवाले [मृषाभाषापरिणामं ] मृषा भाषाके परिणामको [यः साधुः ] जो साधु
[प्रजहाति ] छोड़ता है, [तस्य एव ] उसीको [सदा ] सदा [द्वितीयव्रतं ] दूसरा व्रत
[भवति ] है
टीका :यह, सत्यव्रतके स्वरूपका कथन है
यहाँ (ऐसा कहा है कि), सत्यका प्रतिपक्ष (अर्थात् सत्यसे विरुद्ध परिणाम) वह
मृषापरिणाम हैं; वे (असत्य बोलनेके परिणाम) रागसे, द्वेषसे अथवा मोहसे होते हैं; जो
साधु
आसन्नभव्य जीवउन परिणामोंका परित्याग करता है (समस्त प्रकारसे छोड़ता
जो राग, द्वेष रु मोहसे परिणाम हो मृष-भाषका
छोड़े उसे जो साधु, होता है उसे व्रत दूसरा ।।५७।।