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जननमृत्युरुजादिविवर्जितम्
समरसेन सदा परिपूजये
मुक्तं पुरा सूत्रकृता विशुद्धम्
स्तद्भावयाम्युत्तमशर्मणेऽहम्
निर्द्वन्द्वमक्षयविशालवरप्रबोधम्
सिद्धिं प्रयाति भवसंभवदुःखदूराम्
चिन्तासे तुझे क्या प्रयोजन है ?
पूजता हूँ
जीव मुक्तिको प्राप्त करता है, उस निजात्मतत्त्वको उत्तम सुखकी प्राप्तिके हेतु मैं भाता हूँ
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[निःक्रोधः ] निःक्रोध, [निर्मानः ] निर्मान और [निर्मदः ] निर्मद है
मिथ्यात्व
है; शुद्ध निश्चयनयसे निज परम तत्त्वकी भी वांछा न होनेसे निष्काम है; निश्चयनयसे प्रशस्त
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भ्रान्तिध्वंसादपि च सुचिराल्लब्धशुद्धात्मतत्त्वः
स्थास्यत्युद्यत्सहजमहिमा सर्वदा मुक्त एव
नित्यानन्दाद्यतुलमहिमा सर्वदा मूर्तिमुक्त :
यस्तं वन्दे भवभयहरं मोक्षलक्ष्मीशमीशम्
निर्मद है
अन्तमें जिसने शुद्ध आत्मतत्त्वको उपलब्ध किया है
प्रकाशमानरूपसे सर्वदा मुक्त ही रहेगा
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मोक्षलक्ष्मीके ऐश्वर्यवान स्वामीको मैं वन्दन करता हूँ
[अलिंगग्रहणम् ] अलिंगग्रहण (लिंगसे अग्राह्य) और [अनिर्दिष्टसंस्थानम् ] जिसे कोई
संस्थान नहीं कहा है ऐसा [जानीहि ] जान
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न जीवानाम्
प्रत्यासत्तेर्भवति विकृतिः साऽपि भिन्ना तथैव
भिन्नं भिन्नं निजगुणकलालंकृतं सर्वमेतत
नहीं हैं
शिष्य ! तू जान
वह भी उसीप्रकार (आत्मासे) भिन्न है; और काल
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रहितमखिलमूर्तद्रव्यजालं विचित्रम्
भुवनविदितमेतद्भव्य जानीहि नित्यम्
ऐसा जिनदेवका शुद्ध वचन बुधपुरुषोंको कहते हैं
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परिप्राप्य निर्व्याबाधसकलविमलकेवलज्ञानकेवलदर्शनकेवलसुखकेवलशक्ति युक्ताः सिद्धात्मानः
कार्यसमयसाररूपाः कार्यशुद्धाः
प्रसादसे प्राप्त किये हुए परमागमके अभ्यास द्वारा सिद्धक्षेत्रको प्राप्त करके अव्याबाध (बाधा
रहित) सकल-विमल (सर्वथा निर्मल) केवलज्ञान
पुष्टिसे तुष्ट हैं (
अंतर नहीं है
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समर्थसहजज्ञानज्योतिरपहस्तितसमस्तसंशयस्वरूपत्वादतीन्द्रियाः, मलजनकक्षायोपशमिकादि-
विभावस्वभावानामभावान्निर्मलाः, द्रव्यभावकर्माभावाद् विशुद्धात्मानः यथैव लोकाग्रे भगवन्तः
अतीन्द्रिय, [निर्मलाः ] निर्मल और [विशुद्धात्मानः ] विशुद्धात्मा (विशुद्धस्वरूपी) हैं,
[तथा ] उसीप्रकार [संसृतौ ] संसारमें [जीवाः ] (सर्व) जीव [ज्ञेयाः ] जानना
जाननेमें समर्थ ऐसी सहजज्ञानज्योति द्वारा जिसमेंसे समस्त संशय दूर कर दिये गये हैं
ऐसे स्वरूपवाले होनेके कारण ‘अतीन्द्रिय’ हैं, मलजनक क्षायोपशमिकादि
विभावस्वभावोंके अभावके कारण ‘निर्मल’ हैं और द्रव्यकर्मों तथा भावकर्मोंके
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बलसे (किसी नयसे) शुद्ध हैं
हैं
जीवोंमें विद्यमान) कहे गये हैं; [शुद्धनयात् ] शुद्धनयसे [संसृतौ ] संसारमें रहनेवाले [सर्वे
जीवाः ] सर्व जीव [सिद्धस्वभावाः ] सिद्धस्वभावी हैं
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मिह निहितपदानां हंत हस्तावलम्बः
कथनसे शुद्धगुणपर्यायों द्वारा सिद्धभगवन्त समान हैं (अर्थात् जो जीव व्यवहारनयके कथनसे
औदयिकादि विभावभावोंवाले होनेसे संसारी हैं वे सब शुद्धनयके कथनसे शुद्ध गुणों तथा
शुद्ध पर्यायोंवाले होनेसे सिद्ध सदृश हैं )
शुद्धात्मद्रव्यका भी सच्चा ज्ञान नहीं हो सकता
करने योग्य है’ ऐसी विवक्षासे नहीं
स्पष्टरूपसे हेय कहा जायेगा
अन्यको नहीं
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परविरहितमन्तः पश्यतां नैष किंचित
संसृतावपि च नास्ति विशेषः
शुद्धतत्त्वरसिकाः प्रवदन्ति
ऐसे परम पदार्थको अन्तरंगमें देखते हैं उन्हें यह व्यवहारनय कुछ नहीं है
[अन्तस्तत्त्वं ] अन्तःतत्त्व [स्वकद्रव्यम् ] ऐसा स्वद्रव्य
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परमपारिणामिकभावलक्षणकारणसमयसार इति
शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैवास्म्यहम्
स्तेऽहं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि
वे सब मुझे परद्रव्य हैं
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दन्ये सर्वे पुद्गलद्रव्यभावाः
सिद्धिं सोऽयं याति तामत्यपूर्वाम्
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[अधिगमभावः ] जाननेरूप भाव वह [ज्ञानम् ] (सम्यक्) ज्ञान है
[भणिताः ] कहे हैं, [दर्शनमोहस्य क्षयप्रभृतेः ] क्योंकि उनको दर्शनमोहके क्षयादिक हैं
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इसलिये [व्यवहारनिश्चयेन तु ] मैं व्यवहार और निश्चयसे [चरणं प्रवक्ष्यामि ] चारित्र कहूँगा
[निश्चयतः ] निश्चयसे [तपश्चरणम् ] तपश्चरण [भवति ] होता है
क्या है तत्सम्बन्धी अजानपना) ही विभ्रम है
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प्रतिपादनसमर्थद्रव्यश्रुतमेव तत्त्वज्ञानमिति
बोधेन, तद्रूपाविचलस्थितिरूपसहजचारित्रेण अभूतपूर्वः सिद्धपर्यायो भवति
गोचरतपश्चरणं भवति
द्रव्यश्रुतरूप तत्त्वज्ञान ही है
क्षयादिक है
तत्त्वरूपसे) अविचलरूपसे स्थित होनेरूप सहजचारित्र द्वारा
तपसे होता है
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सहजपरमतत्त्वे संस्थिता चेतना च
भी सदा जयवन्त है
तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार
परमागमकी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें)
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परिणामः ] आरम्भसे निवृत्तिरूप परिणाम वह [प्रथमव्रतम् ] पहला व्रत [भवति ] है
नहीं किये हैं
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न सा तत्रारम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ
भवानेवात्याक्षीन्न च विकृतवेषोपधिरतः
वह व्यवहार प्रयत्न है
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सकलभुवनजीवग्रामसौख्यप्रदो यः
विविधवधविदूरश्चारुशर्माब्धिपूरः
है और सुन्दर सुखसागरका जो पूर है, वह जिनधर्म जयवन्त वर्तता है
[प्रजहाति ] छोड़ता है, [तस्य एव ] उसीको [सदा ] सदा [द्वितीयव्रतं ] दूसरा व्रत
[भवति ] है
साधु