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स्वर्गस्त्रीणां भूरिभोगैकभाक् स्यात् ।
सत्यात्सत्यं चान्यदस्ति व्रतं किम् ।।७७।।
है ), उसे दूसरा व्रत होता है ।
[श्लोेकार्थ : — ] जो पुरुष अति स्पष्टरूपसे सत्य बोलता है, वह स्वर्गकी स्त्रियोंके अनेक भोगोंका एक भागी होता है (अर्थात् वह परलोकमें अनन्यरूपसे देवांगनाओंके बहुत-से भोग प्राप्त करता है ) और इस लोकमें सर्वदा सर्व सत्पुरुषोंका पूज्य बनता है । वास्तवमें क्या सत्यसे अन्य कोई (बढ़कर) व्रत है ? ७७ ।
गाथा : ५८ अन्वयार्थ : — [ग्रामे वा ] ग्राममें, [नगरे वा ] नगरमें [अरण्ये वा ] या वनमें [परम् अर्थम् ] परायी वस्तुको [प्रेक्षयित्वा ] देखकर [यः ] जो (साधु) [ग्रहणभावं ] उसे ग्रहण करनेके भावको [मुंचति ] छोड़ता है, [तस्य एव ] उसीको [तृतीयव्रतं ] तीसरा व्रत [भवति ] है ।
-छोड़े ग्रहणके भाव, होता तीसरा व्रत है उसे ।।५८।।
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वनस्पतिजातवल्लीगुल्मप्रभृतिभिः परिपूर्णमरण्यं तस्मिन् वा परेण विसृष्टं निहितं पतितं वा विस्मृतं वा परद्रव्यं द्रष्ट्वा स्वीकारपरिणामं यः परित्यजति, तस्य हि तृतीयव्रतं भवति इति ।
चतुर्थव्रतस्वरूपकथनमिदम् । है; जो मनुष्यके संचार रहित, वनस्पतिसमूह, बेलों और वृक्षोंके झुंड आदिसे खचाखच भरा हो वह अरण्य है । ऐसे ग्राम, नगर या अरण्यमें अन्यसे छोड़ी हुई, रखी हुई, गिरी हुई अथवा भूली हुई परवस्तुको देखकर उसके स्वीकारपरिणामका (अर्थात् उसे अपनी बनाने — ग्रहण करनेके परिणामका) जो परित्याग करता है, उसे वास्तवमें तीसरा व्रत होता है ।
[श्लोेकार्थ : — ] यह उग्र अचौर्य इस लोकमें रत्नोंके संचयको आकर्षित करता है और (परलोकमें) स्वर्गकी स्त्रियोंके सुखका कारण है तथा क्रमशः मुक्तिरूपी स्त्रीके सुखका कारण है । ७८ ।
गाथा : ५९ अन्वयार्थ : — [स्त्रीरूपं दृष्टवा ] स्त्रियोंका रूप देखकर [तासु ] उनके प्रति [वांच्छाभावं निवर्तते ] वांछाभावकी निवृत्ति वह [अथवा ] अथवा [मैथुनसंज्ञा- विवर्जितपरिणामः ] मैथुनसंज्ञारहित जो परिणाम वह [तुरीयव्रतम् ] चौथा व्रत है ।
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कमनीयकामिनीनां तन्मनोहराङ्गनिरीक्षणद्वारेण समुपजनितकौतूहलचित्तवांच्छापरि- त्यागेन, अथवा पुंवेदोदयाभिधाननोकषायतीव्रोदयेन संजातमैथुनसंज्ञापरित्यागलक्षण- शुभपरिणामेन च ब्रह्मचर्यव्रतं भवति इति ।
स्मरसि मनसि कामिंस्त्वं तदा मद्वचः किम् ।
व्रजसि विपुलमोहं हेतुना केन चित्रम् ।।७9।।
सुन्दर कामिनियोंके मनोहर अङ्गके निरीक्षण द्वारा उत्पन्न होनेवाली कुतूहलताके — चित्तवांछाके — परित्यागसे, अथवा पुरुषवेदोदय नामका जो नोकषायका तीव्र उदय उसके कारण उत्पन्न होनेवाली मैथुनसंज्ञाके परित्यागस्वरूप शुभ परिणामसे, ब्रह्मचर्यव्रत होता है ।
[श्लोेकार्थ : — ] कामिनियोंकी जो शरीरविभूति उस विभूतिका, हे कामी पुरुष ! यदि तू मनमें स्मरण करता है, तो मेरे वचनसे तुझे क्या लाभ होगा ? अहो ! आश्चर्य होता है कि सहज परमतत्त्वको — निज स्वरूपको — छोड़कर तू किस कारण विपुल मोहको प्राप्त हो रहा है ! ७९।
गाथा : ६० अन्वयार्थ : — [निरपेक्षभावनापूर्वम् ] १निरपेक्ष भावनापूर्वक १ – मुनिको मुनित्वोचित निरपेक्ष शुद्ध परिणतिके साथ वर्तता हुआ जो (हठ रहित) सर्वपरिग्रहत्यागसम्बन्धी
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जिनयोगीश्वराणां सदैव निश्चयव्यवहारात्मकचारुचारित्रभरं वहतां, बाह्याभ्यन्तरचतुर्विंशति- परिग्रहपरित्याग एव परंपरया पंचमगतिहेतुभूतं पंचमव्रतमिति ।
तथा चोक्तं समयसारे — (अर्थात् जिस भावनामें परकी अपेक्षा नहीं है ऐसी शुद्ध निरालम्बन भावना सहित) [सर्वेषां ग्रन्थानां त्यागः ] सर्व परिग्रहोंका त्याग (सर्वपरिग्रहत्यागसम्बन्धी शुभभाव) वह, [चारित्रभरं वहतः ] २चारित्रभर वहन करनेवालेको [पंचमव्रतम् इति भणितम् ] पाँचवाँ व्रत कहा है ।
सकल परिग्रहके परित्यागस्वरूप निज कारणपरमात्माके स्वरूपमें अवस्थित (स्थिर हुए) परमसंयमियोंको — परम जिनयोगीश्वरोंको — सदैव निश्चयव्यवहारात्मक सुन्दर चारित्रभर वहन करनेवालोंको, बाह्य - अभ्यंतर चौवीस प्रकारके परिग्रहका परित्याग ही ३परम्परासे पंचमगतिके हेतुभूत ऐसा पाँचवाँ व्रत है ।
इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री समयसारमें (२०८वीं गाथा द्वारा) कहा है कि : —
२ – चारित्रभर = चारित्रका भार; चारित्रसमूह; चारित्रकी अतिशयता । ३ – शुभोपयोगरूप व्यवहारव्रत शुद्धोपयोगका हेतु है और शुद्धोपयोग मोक्षका हेतु है ऐसा गिनकर यहाँ
होती है और वह शुद्धोपयोग मोक्षका हेतु होता है । इसप्रकार इस शुद्धपरिणतिमें रहे हुए मोक्ष़के
कहा जाता है । जहाँ शुद्धपरिणति ही न हो वहाँ वर्तते हुए शुभोपयोगमें मोक्षके परम्पराहेतुपनेका
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निरुपमसुखावासप्राप्त्यै करोतु निजात्मनि ।
न च भवति महच्चित्रं चित्रं सतामसतामिदम् ।।८०।।
‘‘[गाथार्थ : — ] यदि परद्रव्य - परिग्रह मेरा हो तो मैं अजीवत्वको प्राप्त होऊँ । मैं तो ज्ञाता ही हूँ इसलिये (परद्रव्यरूप) परिग्रह मेरा नहीं है ।’’
और (६०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोेकार्थ : — ] भव्य जीव भवभीरुताके कारण परिग्रहविस्तारको छोड़ो और निरुपम सुखके ❃आवासकी प्राप्ति हेतु निज आत्मामें अविचल, सुखाकार (सुखमयी) तथा जगतजनोंको दुर्लभ ऐसी स्थिति (स्थिरता) करो । और यह (निजात्मामें अचल सुखात्मक स्थिति करनेका कार्य) सत्पुरुषोंको कोई महा आश्चर्यकी बात नहीं है, असत्पुरुषोंको आश्चर्यकी बात है ।८०।
गाथा : ६१ अन्वयार्थ : — [श्रमणः ] जो श्रमण [प्रासुकमार्गेण ] प्रासुक मार्ग ❃ आवास = निवासस्थान; घर; आयतन ।
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स्थावरजंगमप्राणिपरिरक्षार्थं दिवैव गच्छति, तस्य खलु परमश्रमणस्येर्यासमितिर्भवति । व्यवहार- समितिस्वरूपमुक्त म् । इदानीं निश्चयसमितिस्वरूपमुच्यते । अभेदानुपचाररत्नत्रयमार्गेण परम- धर्मिणमात्मानं सम्यग् इता परिणतिः समितिः । अथवा निजपरमतत्त्वनिरतसहजपरमबोधादि- परमधर्माणां संहतिः समितिः । इति निश्चयव्यवहारसमितिभेदं बुद्ध्वा तत्र परमनिश्चय- समितिमुपयातु भव्य इति । पर [दिवा ] दिनमें [युगप्रमाणं ] धुरा-प्रमाण [पुरतः ] आगे [खलु अवलोकन् ] देखकर [गच्छति ] चलता है, [तस्य ] उसे [ईर्यासमितिः ] ईर्यासमिति [भवेत् ] होती है ।
जो ❃परमसंयमी गुरुयात्रा (गुरुके पास जाना), देवयात्रा (देवके पास जाना) आदि प्रशस्त प्रयोजनका उद्देश रखकर एक धुरा (चार हाथ) जितना मार्ग देखते-देखते स्थावर तथा जङ्गम प्राणियोंकी परिरक्षा(समस्त प्रकारसे रक्षा)के हेतु दिनमें ही चलता है, उस परमश्रमणको ईर्यासमिति होती है । (इसप्रकार) व्यवहारसमितिका स्वरूप कहा गया ।
अब निश्चयसमितिका स्वरूप कहा जाता है : अभेद - अनुपचार - रत्नत्रयरूपी मार्ग पर परमधर्मी ऐसे (अपने) आत्माके प्रति सम्यक् ‘‘इति’’ ( – गति) अर्थात् परिणति वह समिति है; अथवा, निज परमतत्त्वमें लीन सहज परमज्ञानादिक परमधर्मोंकी संहति ( – मिलन, संगठन) वह समिति है ।
इसप्रकार निश्चय और व्यवहाररूप समितिभेद जानकर उनमें ( – उन दो में से) परमनिश्चयसमितिको भव्य जीव प्राप्त करो ।
[अब ६१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज चार श्लोक कहते हैं : ] ❃ परमसंयमी मुनिको (अर्थात् मुनियोग्य शुद्धपरिणतिवाले मुनिको) शुद्धपरिणतिके साथ वर्तता हुआ जो
कहलाता [इस ईर्यासमितिकी भाँति अन्य समितियोंका भी समझ लेना । ]
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मुक्त्वा संगं भवभयकरं हेमरामात्मकं च ।
भेदाभावे समयति च यः सर्वदा मुक्त एव ।।८१।।
त्रसहतिपरिदूरा स्थावरणां हतेर्वा ।
सकलसुकृतसीत्यानीकसन्तोषदायी ।।८२।।
समितिविरहितानां कामरोगातुराणाम् ।
ह्यपवरकममुष्याश्चारुयोषित्सुमुक्ते : ।।८३।।
[श्लोेकार्थ : — ] इसप्रकार मुक्तिकान्ताकी (मुक्तिसुन्दरीकी) सखी परमसमितिको जानकर जो जीव भवभयके करनेवाले कंचनकामिनीके संगको छोड़कर, अपूर्व, सहज - विलसते (स्वभावसे प्रकाशते), अभेद चैतन्यचमत्कारमात्रमें स्थित रहकर (उसमें) सम्यक् ‘इति’ ( – गति) करता है अर्थात् सम्यक्रूपसे परिणमित होता है वह सर्वदा मुक्त ही है ।८१।
[श्लोेकार्थ : — ] जो (समिति) मुनियोंको शीलका ( – चारित्रका) मूल है, जो त्रस जीवोंके घातसे तथा स्थावर जीवोंके घातसे समस्त प्रकारसे दूर है, जो भवदावानलके परितापरूपी क्लेशको शान्त करनेवाली तथा समस्त सुकृतरूपी धान्यकी राशिको (पोषण देकर) सन्तोष देनेवाली मेघमाला है, ऐसी यह समिति जयवन्त है ।८२।
[श्लोेकार्थ : — ] यहाँ (विश्वमें) यह निश्चित है कि इस जन्मार्णवमें (भवसागरमें) समितिरहित कामरोगातुर ( – इच्छारूपी रोगसे पीड़ित) जनोंका जन्म होता है । इसलिये हे मुनि ! तू अपने मनरूपी घरमें इस सुमुक्तिरूपी सुन्दर स्त्रीके लिये निवासगृह (क मरा) रख (अर्थात् तू मुक्तिका चिंतवन कर) ।८३।
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महद्विपत्कारणं वचः पैशून्यम् । क्वचित् कदाचित् किंचित् परजनविकाररूपमवलोक्य त्वाकर्ण्य च हास्याभिधाननोकषायसमुपजनितम् ईषच्छुभमिश्रितमप्यशुभकर्मकारणं पुरुषमुख-
[श्लोेकार्थ : — ] यदि जीव निश्चयरूप समितिको उत्पन्न करे, तो वह मुक्तिको प्राप्त करता है — मोक्षरूप होता है । परन्तु समितिके नाशसे ( – अभावसे), अरेरे ! वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाता, किन्तु संसाररूपी महासागरमें भटकता है ।८४ ।
गाथा : ६२ अन्वयार्थ : — [पैशून्यहास्यकर्कशपरनिन्दात्मप्रशंसितं वचनम् ] पैशून्य (चुगली), हास्य, कर्कश भाषा, परनिन्दा और आत्मप्रशंसारूप वचनका [परित्यज्य ] परित्यागकर [स्वपरहितं वदतः ] जो स्वपरहितरूप वचन बोलता है, उसे [भाषासमितिः ] भाषासमिति होती है ।
चुगलखोर मनुष्यके मुँहसे निकले हुए और राजाके कान तक पहुँचे हुए, किसी एक पुरुष, किसी एक कुटुम्ब अथवा किसी एक ग्रामको महा विपत्तिके कारणभूत ऐसे वचन वह पैशून्य है । कहीं कभी किञ्चित् परजनोंके विकृत रूपको देखकर अथवा सुनकर हास्य नामक नोकषायसे उत्पन्न होनेवाला, किंचित् शुभके साथ मिश्रित होने पर भी अशुभ कर्मका
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विकारगतं हास्यकर्म । कर्णशष्कुलीविवराभ्यर्णगोचरमात्रेण परेषामप्रीतिजननं हि कर्कशवचः । परेषां भूताभूतदूषणपुरस्सरवाक्यं परनिन्दा । स्वस्य भूताभूतगुणस्तुतिरात्मप्रशंसा । एतत्सर्वम- प्रशस्तवचः परित्यज्य स्वस्य च परस्य च शुभशुद्धपरिणतिकारणं वचो भाषासमितिरिति ।
स्वहितनिहितचित्ताः शांतसर्वप्रचाराः ।
कथमिह न विमुक्ते र्भाजनं ते विमुक्ताः ।।’’
तथा च — कारण, पुरुषके मुंहके विकारके साथ सम्बन्धवाला, वह हास्यकर्म है । कर्ण छिद्रके निकट पहुँचनेमात्रसे जो दूसरोंको अप्रीति उत्पन्न करते हैं वे कर्कश वचन हैं । दूसरेके विद्यमान - अविद्यमान दूषणपूर्वकके वचन (अर्थात् परके सच्चे तथा झूठे दोष कहनेवाले वचन) वह परनिन्दा है । अपने विद्यमान - अविद्यमान गुणोंकी स्तुति वह आत्मप्रशंसा है । — इन सब अप्रशस्त वचनोंके परित्याग पूर्वक स्व तथा परको शुभ और शुद्ध परिणतिके कारणभूत वचन वह भाषासमिति है ।
इसीप्रकार (आचार्यवर) श्रीगुणभद्रस्वामीने (आत्मानुशासनमें २२६ वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोेकार्थ : — ] जिन्होंने सब (वस्तुस्वरूप) जान लिया है, जो सर्व सावद्यसे दूर हैं, जिन्होंने स्वहितमें चित्तको स्थापित किया है, जिनके सर्व ❃प्रचार शान्त हुआ है, जिनकी भाषा स्वपरको सफल (हितरूप) है, जो सर्व संकल्प रहित हैं, वे विमुक्त पुरुष इस लोकमें विमुक्तिका भाजन क्यों नहीं होंगे ? (अर्थात् ऐसे मुनिजन अवश्य मोक्षके पात्र हैं ।)’’
और (६२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
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संयुक्त मन्नं नवकोटिविशुद्धमित्युक्त म्; अतिप्रशस्तं मनोहरम्; हरितकायात्मकसूक्ष्मप्राणि-
[श्लोेकार्थ : — ] परब्रह्मके अनुष्ठानमें निरत (अर्थात् परमात्माके आचरणमें लीन) ऐसे बुद्धिमान पुरुषोंको — मुनिजनोंको अन्तर्जल्पसे ( – विकल्परूप अन्तरंग उत्थानसे) भी बस होओ, बहिर्जल्पकी ( – भाषा बोलनेकी) तो बात ही क्या ? ।८५।
गाथा : ६३ अन्वयार्थ : — [परेण दत्तं ] पर द्वारा दिया गया, [कृतकारितानुमोदनरहितं ] कृत - कारित - अनुमोदन रहित, [तथा प्रासुकं ] प्रासुक [प्रशस्तं च ] और ❃प्रशस्त [भक्तं ] भोजन करनेरूप [संभुक्तिः ] जो सम्यक् आहारग्रहण [एषणासमितिः ] वह एषणासमिति है ।
मन, वचन और कायामेंसे प्रत्येकको कृत, कारित और अनुमोदना सहित गिनने पर उनके नौ भेद होते हैं; उनसे संयुक्त अन्न नव कोटिरूपसे विशुद्ध नहीं है ऐसा (शास्त्रमें) कहा है; अतिप्रशस्त अर्थात् मनोहर (अन्न); हरितकायमय सूक्ष्म प्राणियोंके संचारको
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संचारागोचरं प्रासुकमित्यभिहितम्; प्रतिग्रहोच्चस्थानपादक्षालनार्चनप्रणामयोगशुद्धिभिक्षा- शुद्धिनामधेयैर्नवविधपुण्यैः प्रतिपत्तिं कृत्वा श्रद्धाशक्त्यलुब्धताभक्ति ज्ञानदयाक्षमाऽभिधान- सप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन योग्याचारेणोपासकेन दत्तं भक्तं भुंजानः तिष्ठति यः परमतपोधनः तस्यैषणासमितिर्भवति । इति व्यवहारसमितिक्रमः । अथ निश्चयतो जीवस्याशनं नास्ति परमार्थतः, षट्प्रकारमशनं व्यवहारतः संसारिणामेव भवति ।
अगोचर वह प्रासुक (अन्न) — ऐसा (शास्त्रमें) कहा है । १प्रतिग्रह, उच्च स्थान, पादप्रक्षालन, अर्चन, प्रणाम, योगशुद्धि (मन - वचन - कायाकी शुद्धि) और भिक्षाशुद्धि — इस नवविध पुण्यसे (नवधा भक्तिसे) आदर करके, श्रद्धा, शक्ति, अलुब्धता, भक्ति, ज्ञान, दया और क्षमा — इन (दाताके) सात गुणों सहित शुद्ध योग्य-आचारवाले उपासक द्वारा दिया गया (नव कोटिरूपसे शुद्ध, प्रशस्त और प्रासुक) भोजन जो परम तपोधन लेते हैं, उन्हें एषणासमिति होती है । ऐसा व्यवहारसमितिका क्रम है ।
अब निश्चयसे ऐसा है कि — जीवको परमार्थसे अशन नहीं है; छह प्रकारका अशन व्यवहारसे संसारियोंको ही होता है ।
आहार और मन - आहार — इसप्रकार आहार क्रमशः छह प्रकारका जानना ।’’ १ प्रतिग्रह = ‘‘आहारजल शुद्ध है; तिष्ठ, तिष्ठ, तिष्ठ, (ठहरिये ठहरिये, ठहरिये)’’ ऐसा कहकर
ले जाकर, उच्च-आसन पर विराजमान करके, पाँव धोकर, पूजन करता है और प्रणाम करता है ।
फि र मन-वचन-कायाकी शुद्धिपूर्वक शुद्ध भिक्षा देता है । ] ❃यहाँ उद्धृत की गई गाथा समयसारमें नहि है, परन्तु प्रवचनसारमें (प्रथम अधिकारकी २०वीँ गाथाकी
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परिणमितसमाधिः सर्वसत्त्वानुकम्पी ।
दहति निहतनिद्रो निश्चिताध्यात्मसारः ।।’’
— अशुद्ध जीवोंके विभावधर्म सम्बन्धमें व्यवहारनयका यह (अवतरण की गई गाथामें) उदाहरण है ।
अब (श्री प्रवचनसारकी २२७वीं गाथा द्वारा) निश्चयका उदाहरण कहा जाता है । वह इसप्रकार : —
‘‘[गाथार्थ : — ] जिसका आत्मा एषणारहित है (अर्थात् जो अनशनस्वभावी आत्माको जाननेके कारण स्वभावसे आहारकी इच्छा रहित है ) उसे वह भी तप है; (और) उसे प्राप्त करनेके लिये ( – अनशनस्वभावी आत्माको परिपूर्णरूपसे प्राप्त करनेके लिये) प्रयत्न करनेवाले ऐसे जो श्रमण उन्हें अन्य ( – स्वरूपसे भिन्न ऐसी) भिक्षा एषणा बिना ( – एषणादोष रहित) होती है; इसलिये वे श्रमण अनाहारी हैं ।’’
इसीप्रकार (आचार्यवर) श्री गुणभद्रस्वामीने (आत्मानुशासनमें २२५वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोेकार्थ : — ] जिसने अध्यात्मके सारका निश्चय किया है, जो अत्यन्त यमनियम सहित है, जिसका आत्मा बाहरसे और भीतरसे शान्त हुआ है, जिसे समाधि परिणमित हुई है, जिसे सर्व जीवोंके प्रति अनुकम्पा है, जो विहित ( – शास्त्राज्ञाके अनुसार) ❃
समूल जला देता है ।’’ ❃ हित-मित = हितकर और उचित मात्रामें ।
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ध्यात्वात्मानं पूर्णबोधप्रकाशम् ।
प्राप्नोतीद्धां मुक्ति वारांगनां सः ।।८६।।
और (६३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोेकार्थ : — ] भक्तके हस्ताग्रसे ( – हाथकी उँगलियोंसे) दिया गया भोजन लेकर, पूर्ण ज्ञानप्रकाशवाले आत्माका ध्यान करके, इसप्रकार सत् तपको ( – सम्यक् तपको) तपकर, वह सत् तपस्वी ( – सच्चा तपस्वी) देदीप्यमान मुक्तिवारांगनाको ( – मुक्तिरूपी स्त्रीको) प्राप्त करता है ।८६।
गाथा : ६४ अन्वयार्थ : — [पुस्तककमण्डलादिग्रहणविसर्गयोः ] पुस्तक, कमण्डल आदि लेने-रखने सम्बन्धी [प्रयत्नपरिणामः ] प्रयत्नपरिणाम वह [आदाननिक्षेपणसमितिः ] आदाननिक्षेपणसमिति [भवति ] है [इति निर्दिष्टा ] ऐसा कहा है ।
यह, १अपहृतसंयमियोंको संयमज्ञानादिकके उपकरण लेते – रखते समय उत्पन्न १ – अपहृतसंयमी = अपहृतसंयमवाले मुनि । [अपवाद, व्यवहारनय, एकदेशपरित्याग, अपहृतसंयम (हीन –
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उपेक्षासंयमिनां न पुस्तककमण्डलुप्रभृतयः, अतस्ते परमजिनमुनयः एकान्ततो निस्पृहाः, अत एव बाह्योपकरणनिर्मुक्ताः । अभ्यन्तरोपकरणं निजपरमतत्त्वप्रकाशदक्षं निरुपाधिस्वरूपसहज- ज्ञानमन्तरेण न किमप्युपादेयमस्ति । अपहृतसंयमधराणां परमागमार्थस्य पुनः पुनः प्रत्यभिज्ञानकारणं पुस्तकं ज्ञानोपकरणमिति यावत्, शौचोपकरणं च कायविशुद्धिहेतुः कमण्डलुः, संयमोपकरणहेतुः पिच्छः । एतेषां ग्रहणविसर्गयोः समयसमुद्भवप्रयत्नपरिणाम- विशुद्धिरेव हि आदाननिक्षेपणसमितिरिति निर्दिष्टेति ।
परमजिनमुनीनां संहतौ क्षांतिमैत्री ।
भवसि हि परमश्रीकामिनीकांतकांतः ।।८७।।
होनेवाली समितिका प्रकार कहा है । १उपेक्षासंयमियोंको पुस्तक, कमण्डल आदि नहीं होते; वे परमजिनमुनि एकान्त ( – सर्वथा) निस्पृह होते हैं इसीलिये वे बाह्य उपकरण रहित होते हैं । अभ्यंतर उपकरणभूत, निज परमतत्त्वको प्रकाशित करनेमें चतुर ऐसा जो निरुपाधिस्वरूप सहज ज्ञान उसके अतिरिक्त अन्य कुछ उन्हें उपादेय नहीं है । अपहृतसंयमधरोंको परमागमके अर्थका पुनः पुनः प्रत्यभिज्ञान होनेमें कारणभूत ऐसी पुस्तक वह ज्ञानका उपकरण है; शौचका उपकरण कायविशुद्धिके हेतुभूत कमण्डल है; संयमका उपकरण – हेतु पींछी है । इन उपकरणोंको लेते – रखते समय उत्पन्न होनेवाली प्रयत्नपरिणामरूप विशुद्धि ही आदाननिक्षेपणसमिति है ऐसा (शास्त्रमें) कहा है ।
[श्लोेकार्थ : — ] उत्तम परमजिनमुनियोंकी यह समिति समितियोंमें शोभती है । उसके संगमें क्षांति और मैत्री होते हैं (अर्थात् इस समितियुक्त मुनिको धीरज – सहनशीलता – क्षमा और मैत्रीभाव होते हैं ) । हे भव्य ! तू भी मन - कमलमें सदा वह समिति धारण कर, कि जिससे तू परमश्रीरूपी कामिनीका प्रिय कान्त होगा (अर्थात् १ – उपेक्षासंयमी = उपेक्षासंयमवाले मुनि । [उत्सर्ग, निश्चयनय, सर्वपरित्याग, उपेक्षासंयम, वीतरागचारित्र और
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हि देहे सति ह्याहारग्रहणं भवति; आहारग्रहणान्मलमूत्रादयः संभवन्त्येव । अत एव संयमिनां मलमूत्रविसर्गस्थानं निर्जन्तुकं परेषामुपरोधेन विरहितम् । तत्र स्थाने शरीरधर्मं कृत्वा पश्चात्तस्मात्स्थानादुत्तरेण कतिचित् पदानि गत्वा ह्युदङ्मुखः स्थित्वा चोत्सृज्य कायकर्माणि मुक्तिलक्ष्मीका वरण करेगा) ।८७।
गाथा : ६५ अन्वयार्थ : — [परोपरोधेन रहिते ] जिसे परके उपरोध रहित ( – दूसरेसे रोका न जाये ऐसे), [गूढे ] गूढ़ और [प्रासुकभूमिप्रदेशे ] प्रासुक भूमिप्रदेशमें [उच्चारादित्यागः ] मलादिका त्याग हो, [तस्य ] उसे [प्रतिष्ठासमितिः ] प्रतिष्ठापन समिति [भवेत् ] होती है ।
शुद्धनिश्चयसे जीवको देहका अभाव होनेसे अन्नग्रहणरूप परिणति नहीं है । व्यवहारसे (-जीवको) देह है; इसलिये उसीको देह होनेसे आहारग्रहण है; आहारग्रहणके कारण मलमूत्रादिक संभवित हैं ही । इसीलिये संयमियोंको मलमूत्रादिकके उत्सर्गका ( – त्यागका) स्थान जन्तुरहित तथा परके उपरोध रहित होता है । उस स्थान पर शरीरधर्म करके फि र जो परमसंयमी उस स्थानसे उत्तर दिशामें कुछ डग जाकर उत्तरमुख खड़े रहकर, कायकर्मोंका ( – शरीरकी क्रियाओंका), संसारके कारणभूत हों ऐसे परिणामका
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संसारकारणं परिणामं मनश्च संसृतेर्निमित्तं, स्वात्मानमव्यग्रो भूत्वा ध्यायति यः परमसंयमी मुहुर्मुहुः कलेवरस्याप्यशुचित्वं वा परिभावयति, तस्य खलु प्रतिष्ठापनसमितिरिति । नान्येषां स्वैरवृत्तीनां यतिनामधारिणां काचित् समितिरिति ।
जिनमतकुशलानां स्वात्मचिंतापराणाम् ।
सहितमुनिगणानां नैव सा गोचरा स्यात् ।।८८।।
भवभवभयध्वान्तप्रध्वंसपूर्णशशिप्रभाम् ।
जिनमततपःसिद्धं यायाः फलं किमपि ध्रुवम् ।।८9।।
तथा संसारके निमित्तभूत मनका उत्सर्ग करके, निज आत्माको अव्यग्र ( – एकाग्र) होकर ध्याता है अथवा पुनः पुनः कलेवरकी ( – शरीरकी) भी अशुचिता सर्व ओरसे भाता है, उसे वास्तवमें प्रतिष्ठापनसमिति होती है । दूसरे स्वच्छन्दवृत्तिवाले यतिनामधारियोंको कोई समिति नहीं होती ।
[अब ६५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज तीन श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोेकार्थ : — ] जिनमतमें कुशल और स्वात्मचिन्तनमें परायण ऐसे यतिओंको यह समिति मुक्तिसाम्राज्यका मूल है । कामदेवके तीक्ष्ण अस्त्रसमूहसे भिदे हुए हृदयवाले मुनिगणोंको वह (समिति) गोचर होती ही नहीं ।८८।
[श्लोेकार्थ : — ] हे मुनि ! समितियोंमेंकी इस समितिको — कि जो मुक्तिरूपी स्त्रीको प्यारी है, जो भवभवके भयरूपी अंधकारको नष्ट करनेके लिये पूर्ण चन्द्रकी प्रभा समान है तथा तेरी सत् - दीक्षारूपी कान्ताकी ( – सच्ची दीक्षारूपी प्रिय स्त्रीकी) सखी है उसे — अब प्रमोदसे जानकर, जिनमतकथित तपसे सिद्ध होनेवाले ऐसे किसी (अनुपम) ध्रुव फलको तू प्राप्त करेगा ।८९।
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सपदि याति मुनिः परमार्थतः ।
किमपि केवलसौख्यसुधामयम् ।।9०।।
[श्लोेकार्थ : — ] समितिकी संगति द्वारा वास्तवमें मुनि मन – वाणीको भी अगोचर ( – मनसे अचिन्त्य और वाणीसे अकथ्य) ऐसा कोई केवलसुखामृतमय उत्तम फल शीघ्र प्राप्त करता है । ९० ।
गाथा : ६६ अन्वयार्थ : — [कालुष्यमोहसंज्ञारागद्वेषाद्यशुभभावानाम् ] कलुषता, मोह, संज्ञा, राग, द्वेष आदि अशुभ भावोंके [परिहारः ] परिहारको [व्यवहारनयेन ] व्यवहारनयसे [मनोगुप्तिः ] मनोगुप्ति [परिकथिता ] कहा है ।
क्रोध, मान, माया और लोभ नामक चार कषायोंसे क्षुब्ध हुआ चित्त सो कलुषता ❃ मुनिको मुनित्वोचित शुद्धपरिणतिके साथ वर्तता हुआ जो (हठ रहित) मन – आश्रित, वचन – आश्रित अथवा
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दर्शनचारित्रभेदाद् द्विधा । संज्ञा आहारभयमैथुनपरिग्रहाणां भेदाच्चतुर्धा । रागः प्रशस्ताप्रशस्तभेदेन द्विविधः । असह्यजनेषु वापि चासह्यपदार्थसार्थेषु वा वैरस्य परिणामो द्वेषः । इत्याद्यशुभपरिणामप्रत्ययानां परिहार एव व्यवहारनयाभिप्रायेण मनोगुप्तिरिति ।
चिंतासनाथमनसो विजितेन्द्रियस्य ।
श्रीमज्जिनेन्द्रचरणस्मरणान्वितस्य ।।9१।।
[श्लोेकार्थ : — ] जिसका मन परमागमके अर्थोंके चिन्तनयुक्त है, जो विजितेन्द्रिय है (अर्थात् जिसने इन्द्रियोंको विशेषरूपसे जीता है ), जो बाह्य तथा अभ्यन्तर संग रहित है और जो श्रीजिनेन्द्रचरणके स्मरणसे संयुक्त है, उसे सदा गुप्ति होती है ।९१। ❃ प्रत्यय = आस्रव; कारण । (संसारके कारणोंसे आत्माका गोपन — रक्षण करना सो गुप्ति है । भावपापास्रव
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श्रोतव्या च सैव स्त्रीकथा । राज्ञां युद्धहेतूपन्यासो राजकथाप्रपंचः । चौराणां चौरप्रयोगकथनं चौरकथाविधानम् । अतिप्रवृद्धभोजनप्रीत्या विचित्रमंडकावलीखंडदधिखंडसिताशनपानप्रशंसा भक्त कथा । आसामपि कथानां परिहारो वाग्गुप्तिः । अलीकनिवृत्तिश्च वाग्गुप्तिः । अन्येषां अप्रशस्तवचसां निवृत्तिरेव वा वाग्गुप्तिः इति ।
गाथा : ६७ अन्वयार्थ : — [पापहेतोः ] पापके हेतुभूत ऐसे [स्त्रीराजचौरभक्तकथादिवचनस्य ] स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा, भक्तकथा इत्यादिरूप वचनोंका [परिहारः ] परिहार [वा ] अथवा [अलीकादिनिवृत्तिवचनं ] असत्यादिककी निवृत्तिवाले वचन [वाग्गुप्तिः ] वह वचनगुप्ति है ।
जिन्हें काम अति वृद्धिको प्राप्त हुआ हो ऐसे कामी जनों द्वारा की जानेवाली और सुनी जानेवाली ऐसी जो स्त्रियोंकी संयोगवियोगजनित विविध वचनरचना ( – स्त्रियों सम्बन्धी बात) वही स्त्रीकथा है; राजाओंका युद्धहेतुक कथन (अर्थात् राजाओं द्वारा किये जानेवाले युद्धादिकका कथन) वह राजकथाप्रपंच है; चोरोंका चोरप्रयोगकथन वह चोरकथाविधान है (अर्थात् चोरों द्वारा किये जानेवाले चोरीके प्रयोगोंकी बात वह चोरकथा है ); अति वृद्धिको प्राप्त भोजनकी प्रीति द्वारा मैदाकी पूरी और शक्कर, दही - शक्कर, मिसरी इत्यादि अनेक प्रकारके अशन - पानकी प्रशंसा वह भक्तकथा (भोजनकथा) है । — इन समस्त कथाओंका परिहार सो वचनगुप्ति है । असत्यकी निवृत्ति भी वचनगुप्ति है । अथवा (असत्य उपरान्त) अन्य अप्रशस्त वचनोंकी निवृत्ति वही वचनगुप्ति है ।
इसप्रकार (आचार्यवर) श्री पूज्यपादस्वामीने (समाधितंत्रमें १७वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
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ध्यात्वा शुद्धं सहजविलसच्चिच्चमत्कारमेकम् ।
प्राप्नोत्युच्चैः प्रहतदुरितध्वांतसंघातरूपः ।।9२।।
‘‘[श्लोेकार्थ : — ] इसप्रकार बहिर्वचनोंको त्यागकर अन्तर्वचनोंको अशेषतः (सम्पूर्णरूपसे) त्यागना । — यह, संक्षेपसे योग (अर्थात् समाधि) है — कि जो योग परमात्माका प्रदीप है (अर्थात् परमात्माको प्रकाशित करनेवाला दीपक है ) ।’’
और (इस ६७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोेकार्थ : — ] भव्यजीव भवभयकी करनेवाली समस्त वाणीको छोड़कर शुद्ध सहज - विलसते चैतन्यचमत्कारका एकका ध्यान करके, फि र, पापरूपी, तिमिरसमूहको नष्ट करके सहजमहिमावंत आनन्दसौख्यकी खानरूप ऐसी उस मुक्तिको अतिशयरूपसे प्राप्त करता है ।९२।