Niyamsar (Hindi). Gatha: 58-68.

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(शालिनी)
वक्ति व्यक्तं सत्यमुच्चैर्जनो यः
स्वर्गस्त्रीणां भूरिभोगैकभाक् स्यात
अस्मिन् पूज्यः सर्वदा सर्वसद्भिः
सत्यात्सत्यं चान्यदस्ति व्रतं किम्
।।७७।।
गामे वा णयरे वाऽरण्णे वा पेच्छिऊण परमत्थं
जो मुयदि गहणभावं तिदियवदं होदि तस्सेव ।।५८।।
ग्रामे वा नगरे वाऽरण्ये वा प्रेक्षयित्वा परमर्थम्
यो मुंचति ग्रहणभावं तृतीयव्रतं भवति तस्यैव ।।५८।।
तृतीयव्रतस्वरूपाख्यानमेतत
वृत्यावृत्तो ग्रामः तस्मिन् वा चतुर्भिर्गोपुरैर्भासुरं नगरं तस्मिन् वा मनुष्यसंचारशून्यं
है ), उसे दूसरा व्रत होता है
[अब ५७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ :] जो पुरुष अति स्पष्टरूपसे सत्य बोलता है, वह स्वर्गकी स्त्रियोंके
अनेक भोगोंका एक भागी होता है (अर्थात् वह परलोकमें अनन्यरूपसे देवांगनाओंके
बहुत-से भोग प्राप्त करता है ) और इस लोकमें सर्वदा सर्व सत्पुरुषोंका पूज्य बनता है
वास्तवमें क्या सत्यसे अन्य कोई (बढ़कर) व्रत है ? ७७
गाथा : ५८ अन्वयार्थ :[ग्रामे वा ] ग्राममें, [नगरे वा ] नगरमें [अरण्ये वा ]
या वनमें [परम् अर्थम् ] परायी वस्तुको [प्रेक्षयित्वा ] देखकर [यः ] जो (साधु)
[ग्रहणभावं ] उसे ग्रहण करनेके भावको [मुंचति ] छोड़ता है, [तस्य एव ] उसीको
[तृतीयव्रतं ] तीसरा व्रत [भवति ] है
टीका :यह, तीसरे व्रतके स्वरूपका कथन है
जिसके चौतरफ बाड़ हो वह ग्राम (गाँव) है; जो चार द्वारोंसे सुशोभित हो वह नगर
कानन, नगर या ग्राममें जो देख पर वस्तु उसे-
-छोड़े ग्रहणके भाव, होता तीसरा व्रत है उसे
।।५८।।

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वनस्पतिजातवल्लीगुल्मप्रभृतिभिः परिपूर्णमरण्यं तस्मिन् वा परेण विसृष्टं निहितं पतितं वा
विस्मृतं वा परद्रव्यं
द्रष्ट्वा स्वीकारपरिणामं यः परित्यजति, तस्य हि तृतीयव्रतं भवति इति
(आर्या)
आकर्षति रत्नानां संचयमुच्चैरचौर्य्यमेतदिह
स्वर्गस्त्रीसुखमूलं क्रमेण मुक्त्यंगनायाश्च ।।७८।।
दट्ठूण इत्थिरूवं वांछाभावं णियत्तदे तासु
मेहुणसण्णविवज्जियपरिणामो अहव तुरियवदं ।।9।।
द्रष्ट्वा स्त्रीरूपं वांच्छाभावं निवर्तते तासु
मैथुनसंज्ञाविवर्जितपरिणामोऽथवा तुरीयव्रतम् ।।9।।
चतुर्थव्रतस्वरूपकथनमिदम्
है; जो मनुष्यके संचार रहित, वनस्पतिसमूह, बेलों और वृक्षोंके झुंड आदिसे खचाखच भरा
हो वह अरण्य है
ऐसे ग्राम, नगर या अरण्यमें अन्यसे छोड़ी हुई, रखी हुई, गिरी हुई अथवा
भूली हुई परवस्तुको देखकर उसके स्वीकारपरिणामका (अर्थात् उसे अपनी बनानेग्रहण
करनेके परिणामका) जो परित्याग करता है, उसे वास्तवमें तीसरा व्रत होता है
[अब ५८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ :] यह उग्र अचौर्य इस लोकमें रत्नोंके संचयको आकर्षित करता
है और (परलोकमें) स्वर्गकी स्त्रियोंके सुखका कारण है तथा क्रमशः मुक्तिरूपी स्त्रीके
सुखका कारण है
७८
गाथा : ५९ अन्वयार्थ :[स्त्रीरूपं दृष्टवा ] स्त्रियोंका रूप देखकर [तासु ]
उनके प्रति [वांच्छाभावं निवर्तते ] वांछाभावकी निवृत्ति वह [अथवा ] अथवा [मैथुनसंज्ञा-
विवर्जितपरिणामः ]
मैथुनसंज्ञारहित जो परिणाम वह [तुरीयव्रतम् ] चौथा व्रत है
टीका :यह, चौथे व्रतके स्वरूपका कथन है
जो देख रमणी-रूप वांछाभाव उसमें छोड़ता
परिणाम मैथुन - संज्ञ - वर्जित व्रत चतुर्थ यही कहा ।।५९।।

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कमनीयकामिनीनां तन्मनोहराङ्गनिरीक्षणद्वारेण समुपजनितकौतूहलचित्तवांच्छापरि-
त्यागेन, अथवा पुंवेदोदयाभिधाननोकषायतीव्रोदयेन संजातमैथुनसंज्ञापरित्यागलक्षण-
शुभपरिणामेन च ब्रह्मचर्यव्रतं भवति इति
(मालिनी)
भवति तनुविभूतिः कामिनीनां विभूतिं
स्मरसि मनसि कामिंस्त्वं तदा मद्वचः किम्
सहजपरमतत्त्वं स्वस्वरूपं विहाय
व्रजसि विपुलमोहं हेतुना केन चित्रम्
।।9।।
सव्वेसिं गंथाणं चागो णिरवेक्खभावणापुव्वं
पंचमवदमिदि भणिदं चारित्तभरं वहंतस्स ।।६०।।
सर्वेषां ग्रन्थानां त्यागो निरपेक्षभावनापूर्वम्
पंचमव्रतमिति भणितं चारित्रभरं वहतः ।।६०।।
सुन्दर कामिनियोंके मनोहर अङ्गके निरीक्षण द्वारा उत्पन्न होनेवाली कुतूहलताके
चित्तवांछाकेपरित्यागसे, अथवा पुरुषवेदोदय नामका जो नोकषायका तीव्र उदय उसके
कारण उत्पन्न होनेवाली मैथुनसंज्ञाके परित्यागस्वरूप शुभ परिणामसे, ब्रह्मचर्यव्रत होता है
[अब ५९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ :] कामिनियोंकी जो शरीरविभूति उस विभूतिका, हे कामी पुरुष !
यदि तू मनमें स्मरण करता है, तो मेरे वचनसे तुझे क्या लाभ होगा ? अहो ! आश्चर्य होता
है कि सहज परमतत्त्वको
निज स्वरूपकोछोड़कर तू किस कारण विपुल मोहको प्राप्त
हो रहा है ! ७९
गाथा : ६० अन्वयार्थ :[निरपेक्षभावनापूर्वम् ] निरपेक्ष भावनापूर्वक
निरपेक्ष - भाव संयुक्त सब ही ग्रन्थके परित्यागका
परिणाम है व्रत पंचवां चारित्रभर वहनारका ।।६०।।
मुनिको मुनित्वोचित निरपेक्ष शुद्ध परिणतिके साथ वर्तता हुआ जो (हठ रहित) सर्वपरिग्रहत्यागसम्बन्धी

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इह हि पंचमव्रतस्वरूपमुक्त म्
सकलपरिग्रहपरित्यागलक्षणनिजकारणपरमात्मस्वरूपावस्थितानां परमसंयमिनां परम-
जिनयोगीश्वराणां सदैव निश्चयव्यवहारात्मकचारुचारित्रभरं वहतां, बाह्याभ्यन्तरचतुर्विंशति-
परिग्रहपरित्याग एव परंपरया पंचमगतिहेतुभूतं पंचमव्रतमिति
तथा चोक्तं समयसारे
(अर्थात् जिस भावनामें परकी अपेक्षा नहीं है ऐसी शुद्ध निरालम्बन भावना सहित)
[सर्वेषां ग्रन्थानां त्यागः ] सर्व परिग्रहोंका त्याग (सर्वपरिग्रहत्यागसम्बन्धी शुभभाव)
वह, [चारित्रभरं वहतः ]
चारित्रभर वहन करनेवालेको [पंचमव्रतम् इति भणितम् ]
पाँचवाँ व्रत कहा है
टीका :यहाँ (इस गाथामें) पाँचवें व्रतका स्वरूप कहा गया है
सकल परिग्रहके परित्यागस्वरूप निज कारणपरमात्माके स्वरूपमें अवस्थित
(स्थिर हुए) परमसंयमियोंकोपरम जिनयोगीश्वरोंकोसदैव निश्चयव्यवहारात्मक
सुन्दर चारित्रभर वहन करनेवालोंको, बाह्य - अभ्यंतर चौवीस प्रकारके परिग्रहका परित्याग
ही परम्परासे पंचमगतिके हेतुभूत ऐसा पाँचवाँ व्रत है
इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री समयसारमें (२०८वीं गाथा
द्वारा) कहा है कि :
शुभोपयोग वह व्यवहार अपरिग्रहव्रत कहलाता है शुद्ध परिणति न हो वहाँ शुभोपयोग हठ सहित
होता है; वह शुभोपयोग तो व्यवहार-व्रत भी नहीं कहलाता [इस पाँचवें व्रतकी भाँति अन्य व्रतोंका
भी समझ लेना ।]
चारित्रभर = चारित्रका भार; चारित्रसमूह; चारित्रकी अतिशयता
शुभोपयोगरूप व्यवहारव्रत शुद्धोपयोगका हेतु है और शुद्धोपयोग मोक्षका हेतु है ऐसा गिनकर यहाँ
उपचारसे व्यवहारव्रतको मोक्षका परम्पराहेतु कहा है वास्तवमें तो शुभोपयोगी मुनिको मुनियोग्य
शुद्धपरिणति ही (शुद्धात्मद्रव्यका अवलम्बन करती है इसलिये) विशेष शुद्धिरूप शुद्धोपयोगका हेतु
होती है और वह शुद्धोपयोग मोक्षका हेतु होता है
इसप्रकार इस शुद्धपरिणतिमें रहे हुए मोक्ष़के
परम्पराहेतुपनेका आरोप उसके साथ रहनेवाले शुभोपयोगमें करके व्यवहारव्रतको मोक्षका परम्पराहेतु
कहा जाता है
जहाँ शुद्धपरिणति ही न हो वहाँ वर्तते हुए शुभोपयोगमें मोक्षके परम्पराहेतुपनेका
आरोप भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि जहाँ मोक्षका यथार्थ परम्पराहेतु प्रगट ही नहीं हुआ है
विद्यमान ही नहीं है वहाँ शुभोपयोगमें आरोप किसका किया जाये ?

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‘‘मज्झं परिग्गहो जदि तदो अहमजीवदं तु गच्छेज्ज
णादेव अहं जम्हा तम्हा ण परिग्गहो मज्झ ।।’’
तथा हि
(हरिणी)
त्यजतु भवभीरुत्वाद्भव्यः परिग्रहविग्रहं
निरुपमसुखावासप्राप्त्यै करोतु निजात्मनि
स्थितिमविचलां शर्माकारां जगज्जनदुर्लभां
न च भवति महच्चित्रं चित्रं सतामसतामिदम्
।।८०।।
पासुगमग्गेण दिवा अवलोगंतो जुगप्पमाणं हि
गच्छइ पुरदो समणो इरियासमिदी हवे तस्स ।।६१।।
प्रासुकमार्गेण दिवा अवलोकयन् युगप्रमाणं खलु
गच्छति पुरतः श्रमणः ईर्यासमितिर्भवेत्तस्य ।।६१।।
‘‘[गाथार्थ : ] यदि परद्रव्य - परिग्रह मेरा हो तो मैं अजीवत्वको प्राप्त होऊँ मैं
तो ज्ञाता ही हूँ इसलिये (परद्रव्यरूप) परिग्रह मेरा नहीं है ’’
और (६०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) :
[श्लोेकार्थ : ] भव्य जीव भवभीरुताके कारण परिग्रहविस्तारको छोड़ो और
निरुपम सुखके आवासकी प्राप्ति हेतु निज आत्मामें अविचल, सुखाकार (सुखमयी) तथा
जगतजनोंको दुर्लभ ऐसी स्थिति (स्थिरता) करो और यह (निजात्मामें अचल सुखात्मक
स्थिति करनेका कार्य) सत्पुरुषोंको कोई महा आश्चर्यकी बात नहीं है, असत्पुरुषोंको
आश्चर्यकी बात है
८०
गाथा : ६१ अन्वयार्थ :[श्रमणः ] जो श्रमण [प्रासुकमार्गेण ] प्रासुक मार्ग
आवास = निवासस्थान; घर; आयतन
मुनिराज चलते मार्ग दिनमें देख आगेकी मही
प्रासुक धुरा जितनी, उन्हें ही समिति ईर्या है कही ।।६१।।

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अत्रेर्यासमितिस्वरूपमुक्त म्
यः परमसंयमी गुरुदेवयात्रादिप्रशस्तप्रयोजनमुद्दिश्यैकयुगप्रमाणं मार्गम् अवलोकयन्
स्थावरजंगमप्राणिपरिरक्षार्थं दिवैव गच्छति, तस्य खलु परमश्रमणस्येर्यासमितिर्भवति व्यवहार-
समितिस्वरूपमुक्त म् इदानीं निश्चयसमितिस्वरूपमुच्यते अभेदानुपचाररत्नत्रयमार्गेण परम-
धर्मिणमात्मानं सम्यग् इता परिणतिः समितिः अथवा निजपरमतत्त्वनिरतसहजपरमबोधादि-
परमधर्माणां संहतिः समितिः इति निश्चयव्यवहारसमितिभेदं बुद्ध्वा तत्र परमनिश्चय-
समितिमुपयातु भव्य इति
पर [दिवा ] दिनमें [युगप्रमाणं ] धुरा-प्रमाण [पुरतः ] आगे [खलु अवलोकन् ] देखकर
[गच्छति ] चलता है, [तस्य ] उसे [ईर्यासमितिः ] ईर्यासमिति [भवेत् ] होती है
टीका :यहाँ (इस गाथामें) ईर्यासमितिका स्वरूप कहा है
जो परमसंयमी गुरुयात्रा (गुरुके पास जाना), देवयात्रा (देवके पास जाना) आदि
प्रशस्त प्रयोजनका उद्देश रखकर एक धुरा (चार हाथ) जितना मार्ग देखते-देखते स्थावर
तथा जङ्गम प्राणियोंकी परिरक्षा(समस्त प्रकारसे रक्षा)के हेतु दिनमें ही चलता है, उस
परमश्रमणको ईर्यासमिति होती है
(इसप्रकार) व्यवहारसमितिका स्वरूप कहा गया
अब निश्चयसमितिका स्वरूप कहा जाता है : अभेद - अनुपचार - रत्नत्रयरूपी मार्ग
पर परमधर्मी ऐसे (अपने) आत्माके प्रति सम्यक् ‘‘इति’’ (गति) अर्थात् परिणति
वह समिति है; अथवा, निज परमतत्त्वमें लीन सहज परमज्ञानादिक परमधर्मोंकी संहति
(
मिलन, संगठन) वह समिति है
इसप्रकार निश्चय और व्यवहाररूप समितिभेद जानकर उनमें (उन दो में से)
परमनिश्चयसमितिको भव्य जीव प्राप्त करो
[अब ६१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज चार श्लोक
कहते हैं : ]
परमसंयमी मुनिको (अर्थात् मुनियोग्य शुद्धपरिणतिवाले मुनिको) शुद्धपरिणतिके साथ वर्तता हुआ जो
(हठ रहित) ईर्यासम्बन्धी (गमनसम्बन्धी; चलनेसम्बन्धी) शुभोपयोग वह व्यवहार ईर्यासमिति है
शुद्धपरिणति न हो वहाँ शुभोपयोग हठ सहित होता है; वह शुभोपयोग तो व्यवहार समिति भी नहीं
कहलाता [इस ईर्यासमितिकी भाँति अन्य समितियोंका भी समझ लेना
]

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(मन्दाक्रांता)
इत्थं बुद्ध्वा परमसमितिं मुक्ति कान्तासखीं यो
मुक्त्वा संगं भवभयकरं हेमरामात्मकं च
स्थित्वाऽपूर्वे सहजविलसच्चिच्चमत्कारमात्रे
भेदाभावे समयति च यः सर्वदा मुक्त एव
।।८१।।
(मालिनी)
जयति समितिरेषा शीलमूलं मुनीनां
त्रसहतिपरिदूरा स्थावरणां हतेर्वा
भवदवपरितापक्लेशजीमूतमाला
सकलसुकृतसीत्यानीकसन्तोषदायी
।।८२।।
(मालिनी)
नियतमिह जनानां जन्म जन्मार्णवेऽस्मिन्
समितिविरहितानां कामरोगातुराणाम्
मुनिप कुरु ततस्त्वं त्वन्मनोगेहमध्ये
ह्यपवरकममुष्याश्चारुयोषित्सुमुक्ते :
।।८३।।
[श्लोेकार्थ : ] इसप्रकार मुक्तिकान्ताकी (मुक्तिसुन्दरीकी) सखी
परमसमितिको जानकर जो जीव भवभयके करनेवाले कंचनकामिनीके संगको छोड़कर,
अपूर्व, सहज
- विलसते (स्वभावसे प्रकाशते), अभेद चैतन्यचमत्कारमात्रमें स्थित रहकर
(उसमें) सम्यक् ‘इति’ (गति) करता है अर्थात् सम्यक्रूपसे परिणमित होता है वह
सर्वदा मुक्त ही है ८१
[श्लोेकार्थ : ] जो (समिति) मुनियोंको शीलका (चारित्रका) मूल है, जो
त्रस जीवोंके घातसे तथा स्थावर जीवोंके घातसे समस्त प्रकारसे दूर है, जो भवदावानलके
परितापरूपी क्लेशको शान्त करनेवाली तथा समस्त सुकृतरूपी धान्यकी राशिको (पोषण
देकर) सन्तोष देनेवाली मेघमाला है, ऐसी यह समिति जयवन्त है
८२
[श्लोेकार्थ : ] यहाँ (विश्वमें) यह निश्चित है कि इस जन्मार्णवमें (भवसागरमें)
समितिरहित कामरोगातुर (इच्छारूपी रोगसे पीड़ित) जनोंका जन्म होता है इसलिये हे
मुनि ! तू अपने मनरूपी घरमें इस सुमुक्तिरूपी सुन्दर स्त्रीके लिये निवासगृह (क मरा) रख
(अर्थात् तू मुक्तिका चिंतवन कर)
८३

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(आर्या)
निश्चयरूपां समितिं सूते यदि मुक्ति भाग्भवेन्मोक्षः
बत न च लभतेऽपायात् संसारमहार्णवे भ्रमति ।।८४।।
पेसुण्णहासकक्कसपरणिंदप्पप्पसंसियं वयणं
परिचत्ता सपरहिदं भासासमिदी वदंतस्स ।।६२।।
पैशून्यहास्यकर्कशपरनिन्दात्मप्रशंसितं वचनम्
परित्यज्य स्वपरहितं भाषासमितिर्वदतः ।।६२।।
अत्र भाषासमितिस्वरूपमुक्त म्
कर्णेजपमुखविनिर्गतं नृपतिकर्णाभ्यर्णगतं चैकपुरुषस्य एककुटुम्बस्य एकग्रामस्य वा
महद्विपत्कारणं वचः पैशून्यम् क्वचित् कदाचित् किंचित् परजनविकाररूपमवलोक्य
त्वाकर्ण्य च हास्याभिधाननोकषायसमुपजनितम् ईषच्छुभमिश्रितमप्यशुभकर्मकारणं पुरुषमुख-
[श्लोेकार्थ : ] यदि जीव निश्चयरूप समितिको उत्पन्न करे, तो वह मुक्तिको
प्राप्त करता हैमोक्षरूप होता है परन्तु समितिके नाशसे (अभावसे), अरेरे ! वह मोक्ष
प्राप्त नहीं कर पाता, किन्तु संसाररूपी महासागरमें भटकता है ८४
गाथा : ६२ अन्वयार्थ :[पैशून्यहास्यकर्कशपरनिन्दात्मप्रशंसितं वचनम् ]
पैशून्य (चुगली), हास्य, कर्कश भाषा, परनिन्दा और आत्मप्रशंसारूप वचनका
[परित्यज्य ] परित्यागकर [स्वपरहितं वदतः ] जो स्वपरहितरूप वचन बोलता है, उसे
[भाषासमितिः ] भाषासमिति होती है
टीका :यहाँ भाषासमितिका स्वरूप कहा है
चुगलखोर मनुष्यके मुँहसे निकले हुए और राजाके कान तक पहुँचे हुए, किसी एक
पुरुष, किसी एक कुटुम्ब अथवा किसी एक ग्रामको महा विपत्तिके कारणभूत ऐसे वचन
वह पैशून्य है
कहीं कभी किञ्चित् परजनोंके विकृत रूपको देखकर अथवा सुनकर हास्य
नामक नोकषायसे उत्पन्न होनेवाला, किंचित् शुभके साथ मिश्रित होने पर भी अशुभ कर्मका
पैशून्य, कर्कश, हास्य, परनिन्दा, प्रशंसा आत्मकी
छोड़ें कहे हितकर वचन, उसके समिति वचनकी ।।६२।।

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विकारगतं हास्यकर्म कर्णशष्कुलीविवराभ्यर्णगोचरमात्रेण परेषामप्रीतिजननं हि कर्कशवचः
परेषां भूताभूतदूषणपुरस्सरवाक्यं परनिन्दा स्वस्य भूताभूतगुणस्तुतिरात्मप्रशंसा एतत्सर्वम-
प्रशस्तवचः परित्यज्य स्वस्य च परस्य च शुभशुद्धपरिणतिकारणं वचो भाषासमितिरिति
तथा चोक्तं श्रीगुणभद्रस्वामिभिः
(मालिनी)
‘‘समधिगतसमस्ताः सर्वसावद्यदूराः
स्वहितनिहितचित्ताः शांतसर्वप्रचाराः
स्वपरसफलजल्पाः सर्वसंकल्पमुक्ताः
कथमिह न विमुक्ते र्भाजनं ते विमुक्ताः
।।’’
तथा च
कारण, पुरुषके मुंहके विकारके साथ सम्बन्धवाला, वह हास्यकर्म है कर्ण छिद्रके निकट
पहुँचनेमात्रसे जो दूसरोंको अप्रीति उत्पन्न करते हैं वे कर्कश वचन हैं दूसरेके विद्यमान
- अविद्यमान दूषणपूर्वकके वचन (अर्थात् परके सच्चे तथा झूठे दोष कहनेवाले वचन) वह
परनिन्दा है अपने विद्यमान - अविद्यमान गुणोंकी स्तुति वह आत्मप्रशंसा है इन सब
अप्रशस्त वचनोंके परित्याग पूर्वक स्व तथा परको शुभ और शुद्ध परिणतिके कारणभूत
वचन वह भाषासमिति है
इसीप्रकार (आचार्यवर) श्रीगुणभद्रस्वामीने (आत्मानुशासनमें २२६ वें श्लोक
द्वारा) कहा है कि :
‘‘[श्लोेकार्थ : ] जिन्होंने सब (वस्तुस्वरूप) जान लिया है, जो सर्व
सावद्यसे दूर हैं, जिन्होंने स्वहितमें चित्तको स्थापित किया है, जिनके सर्व प्रचार शान्त
हुआ है, जिनकी भाषा स्वपरको सफल (हितरूप) है, जो सर्व संकल्प रहित हैं, वे
विमुक्त पुरुष इस लोकमें विमुक्तिका भाजन क्यों नहीं होंगे ? (अर्थात् ऐसे मुनिजन
अवश्य मोक्षके पात्र हैं
)’’
और (६२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
हैं ) :
प्रचार = व्यवस्था; कार्य सिर पर लेना; आरम्भ; बाह्य प्रवृत्ति

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(अनुष्टुभ्)
परब्रह्मण्यनुष्ठाननिरतानां मनीषिणाम्
अन्तरैरप्यलं जल्पैः बहिर्जल्पैश्च किं पुनः ।।८५।।
कदकारिदाणुमोदणरहिदं तह पासुगं पसत्थं च
दिण्णं परेण भत्तं समभुत्ती एसणासमिदी ।।६३।।
कृतकारितानुमोदनरहितं तथा प्रासुकं प्रशस्तं च
दत्तं परेण भक्तं संभुक्ति : एषणासमितिः ।।६३।।
अत्रैषणासमितिस्वरूपमुक्त म् तद्यथा
मनोवाक्कायानां प्रत्येकं कृतकारितानुमोदनैः कृत्वा नव विकल्पा भवन्ति, न तैः
संयुक्त मन्नं नवकोटिविशुद्धमित्युक्त म्; अतिप्रशस्तं मनोहरम्; हरितकायात्मकसूक्ष्मप्राणि-
[श्लोेकार्थ : ] परब्रह्मके अनुष्ठानमें निरत (अर्थात् परमात्माके आचरणमें लीन)
ऐसे बुद्धिमान पुरुषोंकोमुनिजनोंको अन्तर्जल्पसे (विकल्परूप अन्तरंग उत्थानसे) भी
बस होओ, बहिर्जल्पकी (भाषा बोलनेकी) तो बात ही क्या ? ८५
गाथा : ६३ अन्वयार्थ :[परेण दत्तं ] पर द्वारा दिया गया,
[कृतकारितानुमोदनरहितं ] कृत - कारित - अनुमोदन रहित, [तथा प्रासुकं ] प्रासुक [प्रशस्तं
च ] और प्रशस्त [भक्तं ] भोजन करनेरूप [संभुक्तिः ] जो सम्यक् आहारग्रहण
[एषणासमितिः ] वह एषणासमिति है
टीका :यहाँ एषणासमितिका स्वरूप कहा है वह इसप्रकार
मन, वचन और कायामेंसे प्रत्येकको कृत, कारित और अनुमोदना सहित गिनने पर
उनके नौ भेद होते हैं; उनसे संयुक्त अन्न नव कोटिरूपसे विशुद्ध नहीं है ऐसा (शास्त्रमें)
कहा है; अतिप्रशस्त अर्थात् मनोहर (अन्न); हरितकायमय सूक्ष्म प्राणियोंके संचारको
प्रशस्त = अच्छा; शास्त्रमें प्रशंसित; जो व्यवहारसे प्रमादादिका या रोगादिका निमित्त न हो ऐसा
आहार प्रासुक शुद्ध लें पर - दत्त कृत कारित बिना
करते नहिं अनुमोदना मुनि समिति जिनके एषणा ।।६३।।

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संचारागोचरं प्रासुकमित्यभिहितम्; प्रतिग्रहोच्चस्थानपादक्षालनार्चनप्रणामयोगशुद्धिभिक्षा-
शुद्धिनामधेयैर्नवविधपुण्यैः प्रतिपत्तिं कृत्वा श्रद्धाशक्त्यलुब्धताभक्ति ज्ञानदयाक्षमाऽभिधान-
सप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन योग्याचारेणोपासकेन दत्तं भक्तं भुंजानः तिष्ठति यः परमतपोधनः
तस्यैषणासमितिर्भवति
इति व्यवहारसमितिक्रमः अथ निश्चयतो जीवस्याशनं नास्ति
परमार्थतः, षट्प्रकारमशनं व्यवहारतः संसारिणामेव भवति
तथा चोक्तं समयसारे (?)
‘‘णोकम्मकम्महारो लेप्पाहारो य कवलमाहारो
उज्ज मणो वि य कमसो आहारो छव्विहो णेयो ।।’’
अगोचर वह प्रासुक (अन्न)ऐसा (शास्त्रमें) कहा है प्रतिग्रह, उच्च स्थान,
पादप्रक्षालन, अर्चन, प्रणाम, योगशुद्धि (मन - वचन - कायाकी शुद्धि) और भिक्षाशुद्धिइस
नवविध पुण्यसे (नवधा भक्तिसे) आदर करके, श्रद्धा, शक्ति, अलुब्धता, भक्ति, ज्ञान, दया
और क्षमा
इन (दाताके) सात गुणों सहित शुद्ध योग्य-आचारवाले उपासक द्वारा दिया
गया (नव कोटिरूपसे शुद्ध, प्रशस्त और प्रासुक) भोजन जो परम तपोधन लेते हैं, उन्हें
एषणासमिति होती है
ऐसा व्यवहारसमितिका क्रम है
अब निश्चयसे ऐसा है किजीवको परमार्थसे अशन नहीं है; छह प्रकारका अशन
व्यवहारसे संसारियोंको ही होता है
इसीप्रकार श्री समयसारमें (?) कहा है कि :
‘‘[गाथार्थ : ] नोकर्म - आहार, कर्म - आहार, लेप - आहार, कवल - आहार, ओज -
आहार और मन - आहारइसप्रकार आहार क्रमशः छह प्रकारका जानना ’’
१ प्रतिग्रह = ‘‘आहारजल शुद्ध है; तिष्ठ, तिष्ठ, तिष्ठ, (ठहरिये ठहरिये, ठहरिये)’’ ऐसा कहकर
आहारग्रहणकी प्रार्थना करना; कृपा करनेके लिये प्रार्थना; आदरसन्मान [इसप्रकार प्रतिग्रह किया
जाने पर, यदि मुनि कृपा करके ठहर जायें तो दाताके सात गुणोंसे युक्त श्रावक उन्हें अपने घरमें
ले जाकर, उच्च-आसन पर विराजमान करके, पाँव धोकर, पूजन करता है और प्रणाम करता है
फि र मन-वचन-कायाकी शुद्धिपूर्वक शुद्ध भिक्षा देता है ]
यहाँ उद्धृत की गई गाथा समयसारमें नहि है, परन्तु प्रवचनसारमें (प्रथम अधिकारकी २०वीँ गाथाकी
तात्पर्यवृत्ति-टीकामें) अवतरणरूप है

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अशुद्धजीवानां विभावधर्मं प्रति व्यवहारनयस्योदाहरणमिदम्
इदानीं निश्चयस्योदाहृतिरुच्यते तद्यथा
‘‘जस्स अणेसणमप्पा तं पि तवो तप्पडिच्छगा समणा
अण्णं भिक्खमणेसणमध ते समणा अणाहारा ।।’’
तथा चोक्तं श्रीगुणभद्रस्वामिभिः
(मालिनी)
‘‘यमनियमनितान्तः शान्तबाह्यान्तरात्मा
परिणमितसमाधिः सर्वसत्त्वानुकम्पी
विहितहितमिताशी क्लेशजालं समूलं
दहति निहतनिद्रो निश्चिताध्यात्मसारः
।।’’
अशुद्ध जीवोंके विभावधर्म सम्बन्धमें व्यवहारनयका यह (अवतरण की गई
गाथामें) उदाहरण है
अब (श्री प्रवचनसारकी २२७वीं गाथा द्वारा) निश्चयका उदाहरण कहा जाता है
वह इसप्रकार :
‘‘[गाथार्थ :] जिसका आत्मा एषणारहित है (अर्थात् जो अनशनस्वभावी
आत्माको जाननेके कारण स्वभावसे आहारकी इच्छा रहित है ) उसे वह भी तप है; (और)
उसे प्राप्त करनेके लिये (
अनशनस्वभावी आत्माको परिपूर्णरूपसे प्राप्त करनेके लिये)
प्रयत्न करनेवाले ऐसे जो श्रमण उन्हें अन्य (स्वरूपसे भिन्न ऐसी) भिक्षा एषणा बिना
(एषणादोष रहित) होती है; इसलिये वे श्रमण अनाहारी हैं ’’
इसीप्रकार (आचार्यवर) श्री गुणभद्रस्वामीने (आत्मानुशासनमें २२५वें श्लोक द्वारा)
कहा है कि :
‘‘[श्लोेकार्थ : ] जिसने अध्यात्मके सारका निश्चय किया है, जो अत्यन्त
यमनियम सहित है, जिसका आत्मा बाहरसे और भीतरसे शान्त हुआ है, जिसे समाधि
परिणमित हुई है, जिसे सर्व जीवोंके प्रति अनुकम्पा है, जो विहित (
शास्त्राज्ञाके अनुसार)
हित - मित भोजन करनेवाला है, जिसने निद्राका नाश किया है, वह (मुनि) क्लेशजालको
समूल जला देता है ’’
हित-मित = हितकर और उचित मात्रामें

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तथा हि
(शालिनी)
भुक्त्वा भक्तं भक्त हस्ताग्रदत्तं
ध्यात्वात्मानं पूर्णबोधप्रकाशम्
तप्त्वा चैवं सत्तपः सत्तपस्वी
प्राप्नोतीद्धां मुक्ति वारांगनां सः
।।८६।।
पोत्थइकमंडलाइं गहणविसग्गेसु पयतपरिणामो
आदावणणिक्खेवणसमिदी होदि त्ति णिद्दिट्ठा ।।६४।।
पुस्तककमण्डलादिग्रहणविसर्गयोः प्रयत्नपरिणामः
आदाननिक्षेपणसमितिर्भवतीति निर्दिष्टा ।।६४।।
अत्रादाननिक्षेपणसमितिस्वरूपमुक्त म्
अपहृतसंयमिनां संयमज्ञानाद्युपकरणग्रहणविसर्गसमयसमुद्भवसमितिप्रकारोक्ति रियम्
और (६३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) :
[श्लोेकार्थ : ] भक्तके हस्ताग्रसे (हाथकी उँगलियोंसे) दिया गया भोजन
लेकर, पूर्ण ज्ञानप्रकाशवाले आत्माका ध्यान करके, इसप्रकार सत् तपको (सम्यक्
तपको) तपकर, वह सत् तपस्वी (सच्चा तपस्वी) देदीप्यमान मुक्तिवारांगनाको
(मुक्तिरूपी स्त्रीको) प्राप्त करता है ८६
गाथा : ६४ अन्वयार्थ :[पुस्तककमण्डलादिग्रहणविसर्गयोः ] पुस्तक,
कमण्डल आदि लेने-रखने सम्बन्धी [प्रयत्नपरिणामः ] प्रयत्नपरिणाम वह
[आदाननिक्षेपणसमितिः ] आदाननिक्षेपणसमिति [भवति ] है [इति निर्दिष्टा ] ऐसा कहा है
टीका :यहाँ आदाननिक्षेपणसमितिका स्वरूप कहा है
यह, अपहृतसंयमियोंको संयमज्ञानादिकके उपकरण लेतेरखते समय उत्पन्न
अपहृतसंयमी = अपहृतसंयमवाले मुनि [अपवाद, व्यवहारनय, एकदेशपरित्याग, अपहृतसंयम (हीन
न्यूनतावाला संयम), सरागचारित्र और शुभोपयोगयह सब एकार्थ हैं ]
पुस्तक कमण्डल आदि निक्षेपणग्रहण करते यती
होता प्रयत परिणाम वह आदाननिक्षेपण समिति ।।६४।।

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उपेक्षासंयमिनां न पुस्तककमण्डलुप्रभृतयः, अतस्ते परमजिनमुनयः एकान्ततो निस्पृहाः, अत
एव बाह्योपकरणनिर्मुक्ताः
अभ्यन्तरोपकरणं निजपरमतत्त्वप्रकाशदक्षं निरुपाधिस्वरूपसहज-
ज्ञानमन्तरेण न किमप्युपादेयमस्ति अपहृतसंयमधराणां परमागमार्थस्य पुनः पुनः
प्रत्यभिज्ञानकारणं पुस्तकं ज्ञानोपकरणमिति यावत्, शौचोपकरणं च कायविशुद्धिहेतुः
कमण्डलुः, संयमोपकरणहेतुः पिच्छः एतेषां ग्रहणविसर्गयोः समयसमुद्भवप्रयत्नपरिणाम-
विशुद्धिरेव हि आदाननिक्षेपणसमितिरिति निर्दिष्टेति
(मालिनी)
समितिषु समितीयं राजते सोत्तमानां
परमजिनमुनीनां संहतौ क्षांतिमैत्री
त्वमपि कुरु मनःपंकेरुहे भव्य नित्यं
भवसि हि परमश्रीकामिनीकांतकांतः
।।८७।।
होनेवाली समितिका प्रकार कहा है उपेक्षासंयमियोंको पुस्तक, कमण्डल आदि नहीं
होते; वे परमजिनमुनि एकान्त (सर्वथा) निस्पृह होते हैं इसीलिये वे बाह्य उपकरण
रहित होते हैं अभ्यंतर उपकरणभूत, निज परमतत्त्वको प्रकाशित करनेमें चतुर ऐसा
जो निरुपाधिस्वरूप सहज ज्ञान उसके अतिरिक्त अन्य कुछ उन्हें उपादेय नहीं है
अपहृतसंयमधरोंको परमागमके अर्थका पुनः पुनः प्रत्यभिज्ञान होनेमें कारणभूत ऐसी
पुस्तक वह ज्ञानका उपकरण है; शौचका उपकरण कायविशुद्धिके हेतुभूत कमण्डल
है; संयमका उपकरण
हेतु पींछी है इन उपकरणोंको लेतेरखते समय उत्पन्न
होनेवाली प्रयत्नपरिणामरूप विशुद्धि ही आदाननिक्षेपणसमिति है ऐसा (शास्त्रमें)
कहा है
[अब ६४ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोेकार्थ : ] उत्तम परमजिनमुनियोंकी यह समिति समितियोंमें शोभती है
उसके संगमें क्षांति और मैत्री होते हैं (अर्थात् इस समितियुक्त मुनिको धीरज
सहनशीलताक्षमा और मैत्रीभाव होते हैं ) हे भव्य ! तू भी मन - कमलमें सदा वह
समिति धारण कर, कि जिससे तू परमश्रीरूपी कामिनीका प्रिय कान्त होगा (अर्थात्
उपेक्षासंयमी = उपेक्षासंयमवाले मुनि [उत्सर्ग, निश्चयनय, सर्वपरित्याग, उपेक्षासंयम, वीतरागचारित्र और
शुद्धोपयोगयह सब एकार्थ हैं ]

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पासुगभूमिपदेसे गूढे रहिए परोपरोहेण
उच्चारादिच्चागो पइट्ठासमिदी हवे तस्स ।।६५।।
प्रासुकभूमिप्रदेशे गूढे रहिते परोपरोधेन
उच्चारादित्यागः प्रतिष्ठासमितिर्भवेत्तस्य ।।६५।।
मुनीनां कायमलादित्यागस्थानशुद्धिकथनमिदम्
शुद्धनिश्चयतो जीवस्य देहाभावान्न चान्नग्रहणपरिणतिः व्यवहारतो देहः विद्यते; तस्यैव
हि देहे सति ह्याहारग्रहणं भवति; आहारग्रहणान्मलमूत्रादयः संभवन्त्येव अत एव संयमिनां
मलमूत्रविसर्गस्थानं निर्जन्तुकं परेषामुपरोधेन विरहितम् तत्र स्थाने शरीरधर्मं कृत्वा
पश्चात्तस्मात्स्थानादुत्तरेण कतिचित् पदानि गत्वा ह्युदङ्मुखः स्थित्वा चोत्सृज्य कायकर्माणि
मुक्तिलक्ष्मीका वरण करेगा) ८७
गाथा : ६५ अन्वयार्थ :[परोपरोधेन रहिते ] जिसे परके उपरोध रहित
(दूसरेसे रोका न जाये ऐसे), [गूढे ] गूढ़ और [प्रासुकभूमिप्रदेशे ] प्रासुक
भूमिप्रदेशमें [उच्चारादित्यागः ] मलादिका त्याग हो, [तस्य ] उसे [प्रतिष्ठासमितिः ]
प्रतिष्ठापन समिति [भवेत् ] होती है
टीका :यह, मुनियोंको कायमलादित्यागके स्थानकी शुद्धिका कथन है
शुद्धनिश्चयसे जीवको देहका अभाव होनेसे अन्नग्रहणरूप परिणति नहीं है
व्यवहारसे (-जीवको) देह है; इसलिये उसीको देह होनेसे आहारग्रहण है; आहारग्रहणके
कारण मलमूत्रादिक संभवित हैं ही
इसीलिये संयमियोंको मलमूत्रादिकके उत्सर्गका
(त्यागका) स्थान जन्तुरहित तथा परके उपरोध रहित होता है उस स्थान पर शरीरधर्म
करके फि र जो परमसंयमी उस स्थानसे उत्तर दिशामें कुछ डग जाकर उत्तरमुख खड़े
रहकर, कायकर्मोंका (
शरीरकी क्रियाओंका), संसारके कारणभूत हों ऐसे परिणामका
जो गूढ़ प्रासुक और पर - उपरोध बिन भू पर यती
मल त्याग करते हैं उन्हें समिति प्रतिष्ठापन कही ।।६५।।

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संसारकारणं परिणामं मनश्च संसृतेर्निमित्तं, स्वात्मानमव्यग्रो भूत्वा ध्यायति यः परमसंयमी
मुहुर्मुहुः कलेवरस्याप्यशुचित्वं वा परिभावयति, तस्य खलु प्रतिष्ठापनसमितिरिति
नान्येषां
स्वैरवृत्तीनां यतिनामधारिणां काचित् समितिरिति
(मालिनी)
समितिरिह यतीनां मुक्ति साम्राज्यमूलं
जिनमतकुशलानां स्वात्मचिंतापराणाम्
मधुसखनिशितास्त्रव्रातसंभिन्नचेतः
सहितमुनिगणानां नैव सा गोचरा स्यात
।।८८।।
(हरिणी)
समितिसमितिं बुद्ध्वा मुक्त्यङ्गनाभिमतामिमां
भवभवभयध्वान्तप्रध्वंसपूर्णशशिप्रभाम्
मुनिप तव सद्दीक्षाकान्तासखीमधुना मुदा
जिनमततपःसिद्धं यायाः फलं किमपि ध्रुवम्
।।9।।
तथा संसारके निमित्तभूत मनका उत्सर्ग करके, निज आत्माको अव्यग्र (एकाग्र) होकर
ध्याता है अथवा पुनः पुनः कलेवरकी (शरीरकी) भी अशुचिता सर्व ओरसे भाता है,
उसे वास्तवमें प्रतिष्ठापनसमिति होती है दूसरे स्वच्छन्दवृत्तिवाले यतिनामधारियोंको कोई
समिति नहीं होती
[अब ६५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज तीन श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोेकार्थ : ] जिनमतमें कुशल और स्वात्मचिन्तनमें परायण ऐसे यतिओंको
यह समिति मुक्तिसाम्राज्यका मूल है कामदेवके तीक्ष्ण अस्त्रसमूहसे भिदे हुए हृदयवाले
मुनिगणोंको वह (समिति) गोचर होती ही नहीं ८८
[श्लोेकार्थ : ] हे मुनि ! समितियोंमेंकी इस समितिकोकि जो मुक्तिरूपी
स्त्रीको प्यारी है, जो भवभवके भयरूपी अंधकारको नष्ट करनेके लिये पूर्ण चन्द्रकी प्रभा
समान है तथा तेरी सत्
- दीक्षारूपी कान्ताकी (सच्ची दीक्षारूपी प्रिय स्त्रीकी) सखी है
उसेअब प्रमोदसे जानकर, जिनमतकथित तपसे सिद्ध होनेवाले ऐसे किसी (अनुपम)
ध्रुव फलको तू प्राप्त करेगा ८९

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(द्रुतविलंबित)
समितिसंहतितः फलमुत्तमं
सपदि याति मुनिः परमार्थतः
न च मनोवचसामपि गोचरं
किमपि केवलसौख्यसुधामयम्
।।9।।
कालुस्समोहसण्णारागद्दोसाइअसुहभावाणं
परिहारो मणुगुत्ती ववहारणयेण परिकहियं ।।६६।।
कालुष्यमोहसंज्ञारागद्वेषाद्यशुभभावनाम्
परिहारो मनोगुप्तिः व्यवहारनयेन परिकथिता ।।६६।।
व्यवहारमनोगुप्तिस्वरूपाख्यानमेतत
क्रोधमानमायालोभाभिधानैश्चतुर्भिः कषायैः क्षुभितं चित्तं कालुष्यम् मोहो
[श्लोेकार्थ : ] समितिकी संगति द्वारा वास्तवमें मुनि मनवाणीको भी अगोचर
(मनसे अचिन्त्य और वाणीसे अकथ्य) ऐसा कोई केवलसुखामृतमय उत्तम फल शीघ्र
प्राप्त करता है ९०
गाथा : ६६ अन्वयार्थ :[कालुष्यमोहसंज्ञारागद्वेषाद्यशुभभावानाम् ]
कलुषता, मोह, संज्ञा, राग, द्वेष आदि अशुभ भावोंके [परिहारः ] परिहारको [व्यवहारनयेन ]
व्यवहारनयसे [मनोगुप्तिः ] मनोगुप्ति [परिकथिता ] कहा है
टीका :यह, व्यवहार मनोगुप्तिके स्वरूपका कथन है
क्रोध, मान, माया और लोभ नामक चार कषायोंसे क्षुब्ध हुआ चित्त सो कलुषता
मुनिको मुनित्वोचित शुद्धपरिणतिके साथ वर्तता हुआ जो (हठ रहित) मनआश्रित, वचनआश्रित अथवा
कायआश्रित शुभोपयोग उसे व्यवहार गुप्ति कहा जाता है, क्योंकि शुभोपयोगमें मन, वचन या कायके
साथ अशुभोपयोगरूप युक्तता नहीं है शुद्धपरिणति न हो वहाँ शुभोपयोग हठ सहित होता है वह
शुभोपयोग तो व्यवहारगुप्ति भी नहीं कहलाता
कालुष्य, संज्ञा, मोह, राग, द्वेषके परिहारसे
होती मनोगुप्ति श्रमणको कथन नय व्यवहारसे ।।६६।।

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दर्शनचारित्रभेदाद् द्विधा संज्ञा आहारभयमैथुनपरिग्रहाणां भेदाच्चतुर्धा रागः
प्रशस्ताप्रशस्तभेदेन द्विविधः असह्यजनेषु वापि चासह्यपदार्थसार्थेषु वा वैरस्य परिणामो
द्वेषः इत्याद्यशुभपरिणामप्रत्ययानां परिहार एव व्यवहारनयाभिप्रायेण मनोगुप्तिरिति
(वसंततिलका)
गुप्तिर्भविष्यति सदा परमागमार्थ-
चिंतासनाथमनसो विजितेन्द्रियस्य
बाह्यान्तरङ्गपरिषङ्गविवर्जितस्य
श्रीमज्जिनेन्द्रचरणस्मरणान्वितस्य
।।9।।
थीराजचोरभत्तकहादिवयणस्स पावहेउस्स
परिहारो वयगुत्ती अलियादिणियत्तिवयणं वा ।।६७।।
है दर्शनमोह और चारित्रमोह ऐसे (दो) भेदोंके कारण मोह दो प्रकारका है आहारसंज्ञा,
भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा ऐसे (चार) भेदोंके कारण संज्ञा चार प्रकारकी है
प्रशस्त राग और अप्रशस्त राग ऐसे (दो) भेदोंके कारण राग दो प्रकारका है असह्य जनोंके
प्रति अथवा असह्य पदार्थसमूहोंके प्रति वैरका परिणाम वह द्वेष है इत्यादि
अशुभपरिणामप्रत्ययोंका परिहार ही (अर्थात् अशुभपरिणामरूप भावपापास्रवोंका त्याग ही)
व्यवहारनयके अभिप्रायसे मनोगुप्ति है
[अब ६६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोेकार्थ : ] जिसका मन परमागमके अर्थोंके चिन्तनयुक्त है, जो विजितेन्द्रिय
है (अर्थात् जिसने इन्द्रियोंको विशेषरूपसे जीता है ), जो बाह्य तथा अभ्यन्तर संग रहित
है और जो श्रीजिनेन्द्रचरणके स्मरणसे संयुक्त है, उसे सदा गुप्ति होती है
९१
प्रत्यय = आस्रव; कारण (संसारके कारणोंसे आत्माका गोपनरक्षण करना सो गुप्ति है भावपापास्रव
तथा भावपुण्यास्रव संसारके कारण हैं )
जो पापकारण चोर, भोजन, राज, दाराकी कथा
एवं मृषा - परिहार यह लक्षण वचनकी गुप्तिका ।।६७।।

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स्त्रीराजचौरभक्त कथादिवचनस्य पापहेतोः
परिहारो वाग्गुप्तिरलीकादिनिवृत्तिवचनं वा ।।६७।।
इह वाग्गुप्तिस्वरूपमुक्त म्
अतिप्रवृद्धकामैः कामुकजनैः स्त्रीणां संयोगविप्रलंभजनितविविधवचनरचना कर्तव्या
श्रोतव्या च सैव स्त्रीकथा राज्ञां युद्धहेतूपन्यासो राजकथाप्रपंचः चौराणां चौरप्रयोगकथनं
चौरकथाविधानम् अतिप्रवृद्धभोजनप्रीत्या विचित्रमंडकावलीखंडदधिखंडसिताशनपानप्रशंसा
भक्त कथा आसामपि कथानां परिहारो वाग्गुप्तिः अलीकनिवृत्तिश्च वाग्गुप्तिः अन्येषां
अप्रशस्तवचसां निवृत्तिरेव वा वाग्गुप्तिः इति
तथा चोक्तं श्रीपूज्यपादस्वामिभिः
गाथा : ६७ अन्वयार्थ :[पापहेतोः ] पापके हेतुभूत ऐसे
[स्त्रीराजचौरभक्तकथादिवचनस्य ] स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा, भक्तकथा इत्यादिरूप
वचनोंका [परिहारः ] परिहार [वा ] अथवा [अलीकादिनिवृत्तिवचनं ] असत्यादिककी
निवृत्तिवाले वचन [वाग्गुप्तिः ] वह वचनगुप्ति है
टीका :यहाँ वचनगुप्तिका स्वरूप कहा है
जिन्हें काम अति वृद्धिको प्राप्त हुआ हो ऐसे कामी जनों द्वारा की जानेवाली और
सुनी जानेवाली ऐसी जो स्त्रियोंकी संयोगवियोगजनित विविध वचनरचना (स्त्रियों सम्बन्धी
बात) वही स्त्रीकथा है; राजाओंका युद्धहेतुक कथन (अर्थात् राजाओं द्वारा किये जानेवाले
युद्धादिकका कथन) वह राजकथाप्रपंच है; चोरोंका चोरप्रयोगकथन वह चोरकथाविधान है
(अर्थात् चोरों द्वारा किये जानेवाले चोरीके प्रयोगोंकी बात वह चोरकथा है ); अति वृद्धिको
प्राप्त भोजनकी प्रीति द्वारा मैदाकी पूरी और शक्कर, दही
- शक्कर, मिसरी इत्यादि अनेक
प्रकारके अशन - पानकी प्रशंसा वह भक्तकथा (भोजनकथा) है इन समस्त कथाओंका
परिहार सो वचनगुप्ति है असत्यकी निवृत्ति भी वचनगुप्ति है अथवा (असत्य उपरान्त)
अन्य अप्रशस्त वचनोंकी निवृत्ति वही वचनगुप्ति है
इसप्रकार (आचार्यवर) श्री पूज्यपादस्वामीने (समाधितंत्रमें १७वें श्लोक द्वारा)
कहा है कि :

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(अनुष्टुभ्)
‘‘एवं त्यक्त्वा बहिर्वाचं त्यजेदन्तरशेषतः
एष योगः समासेन प्रदीपः परमात्मनः ।।’’
तथा हि
(मंदाक्रांता)
त्यक्त्वा वाचं भवभयकरीं भव्यजीवः समस्तां
ध्यात्वा शुद्धं सहजविलसच्चिच्चमत्कारमेकम्
पश्चान्मुक्तिं सहजमहिमानन्दसौख्याकरीं तां
प्राप्नोत्युच्चैः प्रहतदुरितध्वांतसंघातरूपः
।।9।।
बंधणछेदणमारणआकुंचण तह पसारणादीया
कायकिरियाणियत्ती णिद्दिट्ठा कायगुत्ति त्ति ।।६८।।
बंधनछेदनमारणाकुंचनानि तथा प्रसारणादीनि
कायक्रियानिवृत्तिः निर्दिष्टा कायगुप्तिरिति ।।६८।।
‘‘[श्लोेकार्थ : ] इसप्रकार बहिर्वचनोंको त्यागकर अन्तर्वचनोंको अशेषतः
(सम्पूर्णरूपसे) त्यागना यह, संक्षेपसे योग (अर्थात् समाधि) हैकि जो योग
परमात्माका प्रदीप है (अर्थात् परमात्माको प्रकाशित करनेवाला दीपक है ) ’’
और (इस ६७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) :
[श्लोेकार्थ : ] भव्यजीव भवभयकी करनेवाली समस्त वाणीको छोड़कर शुद्ध
सहज - विलसते चैतन्यचमत्कारका एकका ध्यान करके, फि र, पापरूपी, तिमिरसमूहको नष्ट
करके सहजमहिमावंत आनन्दसौख्यकी खानरूप ऐसी उस मुक्तिको अतिशयरूपसे प्राप्त
करता है
९२
गाथा : ६८ अन्वयार्थ :[बंधनछेदनमारणाकुंचनानि ] बंधन, छेदन, मारण
मारण, प्रतारण, बन्ध, छेदन और आकुञ्चन सभी
करते सदा परिहार मुनिजन, गुप्ति पालें कायकी ।।६८।।