Niyamsar (Hindi). Gatha: 69-81 ; Adhikar-5 : Parmarth Pratikraman Adhikar.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 9 of 21

 

Page 134 of 388
PDF/HTML Page 161 of 415
single page version

अत्र कायगुप्तिस्वरूपमुक्त म्
कस्यापि नरस्य तस्यान्तरंगनिमित्तं कर्म, बंधनस्य बहिरंगहेतुः कस्यापि
कायव्यापारः छेदनस्याप्यन्तरंगकारणं कर्मोदयः, बहिरंगकारणं प्रमत्तस्य कायक्रिया मारण-
स्याप्यन्तरंगहेतुरांतर्यक्षयः, बहिरंगकारणं कस्यापि कायविकृतिः आकुंचनप्रसारणादिहेतुः
संहरणविसर्पणादिहेतुसमुद्घातः एतासां कायक्रियाणां निवृत्तिः कायगुप्तिरिति
(अनुष्टुभ्)
मुक्त्वा कायविकारं यः शुद्धात्मानं मुहुर्मुहुः
संभावयति तस्यैव सफलं जन्म संसृतौ ।।9।।
जा रायादिणियत्ती मणस्स जाणीहि तं मणोगुत्ती
अलियादिणियत्तिं वा मोणं वा होइ वइगुत्ती ।।9।।
(मार डालना), आकुञ्चन (संकोचना) [तथा ] तथा [प्रसारणादीनि ] प्रसारण
(विस्तारना) इत्यादि [कायक्रियानिवृत्तिः ] कायक्रियाओंकी निवृत्तिको [कायगुप्तिः इति
निर्दिष्टा ] कायगुप्ति कहा है
टीका :यहाँ कायगुप्तिका स्वरूप कहा है
किसी पुरुषको बन्धनका अन्तरंग निमित्त कर्म है, बन्धनका बहिरंग हेतु किसीका
कायव्यापार है; छेदनका भी अन्तरंग कारण कर्मोदय है, बहिरंग कारण प्रमत्त जीवकी
कायक्रिया है; मारणका भी अन्तरंग हेतु आंतरिक (निकट) सम्बन्धका (आयुष्यका) क्षय
है, बहिरंग कारण किसीकी कायविकृति है; आकुंचन, प्रसारण आदिका हेतु
संकोचविस्तारादिकके हेतुभूत समुद्घात है
इन कायक्रियाओंकी निवृत्ति वह कायगुप्ति है
[अब ६८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोेकार्थ : ] कायविकारको छोड़कर जो पुनः पुनः शुद्धात्माकी संभावना
(सम्यक् भावना) करता है, उसीका जन्म संसारमें सफल है ९३
हो रागकी निवृत्ति मनसे नियत मनगुप्ति वही
होवे असत्य - निवृत्ति अथवा मौन वचगुप्ति कही ।।६९।।

Page 135 of 388
PDF/HTML Page 162 of 415
single page version

या रागादिनिवृत्तिर्मनसो जानीहि तां मनोगुप्तिम्
अलीकादिनिवृत्तिर्वा मौनं वा भवति वाग्गुप्तिः ।।9।।
निश्चयनयेन मनोवाग्गुप्तिसूचनेयम्
सकलमोहरागद्वेषाभावादखंडाद्वैतपरमचिद्रूपे सम्यगवस्थितिरेव निश्चयमनोगुप्तिः हे
शिष्य त्वं तावदचलितां मनोगुप्तिमिति जानीहि निखिलानृतभाषापरिहृतिर्वा मौनव्रतं च
मूर्तद्रव्यस्य चेतनाभावाद् अमूर्तद्रव्यस्येंद्रियज्ञानागोचरत्वादुभयत्र वाक्प्रवृत्तिर्न भवति इति
निश्चयवाग्गुप्तिस्वरूपमुक्त म्
(शार्दूलविक्रीडित)
शस्ताशस्तमनोवचस्समुदयं त्यक्त्वात्मनिष्ठापरः
शुद्धाशुद्धनयातिरिक्त मनघं चिन्मात्रचिन्तामणिम्
प्राप्यानंतचतुष्टयात्मकतया सार्धं स्थितां सर्वदा
जीवन्मुक्ति मुपैति योगितिलकः पापाटवीपावकः
।।9।।
गाथा : ६९ अन्वयार्थ :[मनसः ] मनमेंसे [या ] जो [रागादिनिवृत्तिः ]
रागादिकी निवृत्ति [ताम् ] उसे [मनोगुप्तिम् ] मनोगुप्ति [जानीहि ] जान
[अलीकादिनिवृत्तिः ] असत्यादिकी निवृत्ति [वा ] अथवा [मौनं वा ] मौन [वाग्गुप्तिः
भवति ]
सो वचनगुप्ति है
टीका :यह, निश्चयनयसे मनोगुप्ति और वचनगुप्तिकी सूचना है
सकल मोहरागद्वेषके अभावके कारण अखण्ड अद्वैत परमचिद्रूपमें सम्यक्रूपसे
अवस्थित रहना ही निश्चयमनोगुप्ति है हे शिष्य ! तू उसे वास्तवमें अचलित मनोगुप्ति जान
समस्त असत्य भाषाका परिहार अथवा मौनव्रत सो वचनगुप्ति है मूर्तद्रव्यको
चेतनाका अभाव होनेके कारण और अमूर्तद्रव्य इन्द्रियज्ञानसे अगोचर होनेके कारण दोनोंके
प्रति वचनप्रवृत्ति नहीं होती
इसप्रकार निश्चयवचनगुप्तिका स्वरूप कहा गया
[अब ६९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोेकार्थ : ] पापरूपी अटवीको जलानेमें अग्नि समान ऐसा योगितिलक
(मुनिशिरोमणि) प्रशस्त - अप्रशस्त मन - वाणीके समुदायको छोड़कर आत्मनिष्ठामें

Page 136 of 388
PDF/HTML Page 163 of 415
single page version

कायकिरियाणियत्ती काउस्सग्गो सरीरगे गुत्ती
हिंसाइणियत्ती वा सरीरगुत्ति त्ति णिद्दिट्ठा ।।७०।।
कायक्रियानिवृत्तिः कायोत्सर्गः शरीरके गुप्तिः
हिंसादिनिवृत्तिर्वा शरीरगुप्तिरिति निर्दिष्टा ।।७०।।
निश्चयशरीरगुप्तिस्वरूपाख्यानमेतत
सर्वेषां जनानां कायेषु बह्वयः क्रिया विद्यन्ते, तासां निवृत्तिः कायोत्सर्गः, स एव
गुप्तिर्भवति पंचस्थावराणां त्रसानां च हिंसानिवृत्तिः कायगुप्तिर्वा परमसंयमधरः परमजिन-
योगीश्वरः यः स्वकीयं वपुः स्वस्य वपुषा विवेश तस्यापरिस्पंदमूर्तिरेव निश्चयकायगुप्तिरिति
तथा चोक्तं तत्त्वानुशासने
परायण रहता हुआ, शुद्धनय और अशुद्धनयसे रहित ऐसे अनघ (निर्दोष) चैतन्यमात्र
चिन्तामणिको प्राप्त करके, अनन्तचतुष्टयात्मकपनेके साथ सर्वदा स्थित ऐसी जीवन्मुक्तिको प्राप्त
करता है
९४
गाथा : ७० अन्वयार्थ :[कायक्रियानिवृत्तिः ] कायक्रियाओंकी निवृत्तिरूप
[कायोत्सर्गः ] कायोत्सर्ग [शरीरके गुप्तिः ] शरीरसम्बन्धी गुप्ति है; [वा ] अथवा
[हिंसादिनिवृत्तिः ] हिंसादिकी निवृत्तिको [शरीरगुप्तिः इति ] शरीरगुप्ति [निर्दिष्टा ] कहा है
टीका :यह, निश्चयशरीरगुप्तिके स्वरूपका कथन है
सर्व जनोंको कायासम्बन्धी बहु क्रियाएँ होती हैं; उनकी निवृत्ति सो कायोत्सर्ग है;
वही गुप्ति (अर्थात् कायगुप्ति) है अथवा पाँच स्थावरोंकी और त्रसोंकी हिंसानिवृत्ति सो
कायगुप्ति है जो परमसंयमधर परमजिनयोगीश्वर अपने (चैतन्यरूप) शरीरमें अपने
(चैतन्यरूप) शरीरसे प्रविष्ट हो गये, उनकी अपरिस्पंदमूर्ति ही (अकंप दशा ही)
निश्चयकायगुप्ति है
इसीप्रकार श्री तत्त्वानुशासनमें (श्लोक द्वारा) कहा है कि :
कायिक क्रिया निवृत्ति कायोत्सर्ग तनकी गुप्ति है
हिंसादिसे निवृत्ति भी होती नियत तनगुप्ति है ।।७०।।

Page 137 of 388
PDF/HTML Page 164 of 415
single page version

(अनुष्टुभ्)
‘‘उत्सृज्य कायकर्माणि भावं च भवकारणम्
स्वात्मावस्थानमव्यग्रं कायोत्सर्गः स उच्यते ।।’’
तथा हि
(अनुष्टुभ्)
अपरिस्पन्दरूपस्य परिस्पन्दात्मिका तनुः
व्यवहाराद्भवेन्मेऽतस्त्यजामि विकृतिं तनोः ।।9।।
घणघाइकम्मरहिया केवलणाणाइपरमगुणसहिया
चोत्तिसअदिसयजुत्ता अरिहंता एरिसा होंति ।।७१।।
घनघातिकर्मरहिताः केवलज्ञानादिपरमगुणसहिताः
चतुस्त्रिंशदतिशययुक्ता अर्हन्त ईद्रशा भवन्ति ।।७१।।
भगवतोऽर्हत्परमेश्वरस्य स्वरूपाख्यानमेतत
आत्मगुणघातकानि घातिकर्माणि घनरूपाणि सान्द्रीभूतात्मकानि ज्ञानदर्शना-
‘‘[श्लोेकार्थ : ] कायक्रियाओंको तथा भवके कारणभूत (विकारी) भावको
छोड़कर अव्यग्ररूपसे निज आत्मामें स्थित रहना, वह कायोत्सर्ग कहलाता है ’’
और (इस ७०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) :
[श्लोेकार्थ : ] अपरिस्पन्दात्मक ऐसे मुझे परिस्पन्दात्मक शरीर व्यवहारसे है;
इसलिये मैं शरीरकी विकृतिको छोड़ता हूँ ९५
गाथा : ७१ अन्वयार्थ :[घनघातिकर्मरहिताः ] घनघातिकर्म रहित, [केवलज्ञानादि-
परमगुणसहिताः ] केवलज्ञानादि परम गुणों सहित और [चतुस्त्रिंशदतिशययुक्ताः ] चौंतीस
अतिशय संयुक्त;
[ईद्दशाः ] ऐसे, [अर्हन्तः ] अर्हन्त [भवन्ति ] होते हैं
टीका :यह, भगवान अर्हत् परमेश्वरके स्वरूपका कथन है
[भगवन्त अर्हन्त कैसे होते हैं ? ] (१) जो आत्मगुणोंके घातक घातिकर्म हैं और
चौंतीस अतिशययुक्त, अरु घनघाति कर्म विमुक्त हैं
अर्हंत श्री कैवल्यज्ञानादिक परमगुण युक्त हैं ।।७१।।

Page 138 of 388
PDF/HTML Page 165 of 415
single page version

वरणान्तरायमोहनीयानि तैर्विरहितास्तथोक्ताः प्रागुप्तघातिचतुष्कप्रध्वंसनासादितत्रैलोक्य-
प्रक्षोभहेतुभूतसकलविमलकेवलज्ञानकेवलदर्शनकेवलशक्ति केवलसुखसहिताश्च निःस्वेद-
निर्मलादिचतुस्त्रिंशदतिशयगुणनिलयाः द्रशा भवन्ति भगवन्तोऽर्हन्त इति
(मालिनी)
जयति विदितगात्रः स्मेरनीरेजनेत्रः
सुकृतनिलयगोत्रः पंडिताम्भोजमित्रः
मुनिजनवनचैत्रः कर्मवाहिन्यमित्रः
सकलहितचरित्रः श्रीसुसीमासुपुत्रः
।।9।।
(मालिनी)
स्मरकरिमृगराजः पुण्यकंजाह्निराजः
सकलगुणसमाजः सर्वकल्पावनीजः
जो घन अर्थात् गाढ़ हैंऐसे जो ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और मोहनीय कर्म उनसे
रहित वर्णन किये गये; (२) जो पूर्वमें बोये गये चार घातिकर्मोंके नाशसे प्राप्त होते हैं ऐसे,
तीन लोकको
प्रक्षोभके हेतुभूत सकलविमल (सर्वथा निर्मल) केवलज्ञान, केवलदर्शन,
केवलशक्ति (वीर्य, बल) और केवलसुख सहित; तथा (३) स्वेदरहित, मलरहित इत्यादि
चौंतीस अतिशयगुणोंके निवासस्थानरूप; ऐसे, भगवन्त अर्हंत होते हैं
[अब ७१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज पाँच श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोेकार्थ : ] प्रख्यात (अर्थात् परमौदारिक) जिनका शरीर है, प्रफु ल्लित
कमल जैसे जिनके नेत्र हैं, पुण्यका निवासस्थान (अर्थात् तीर्थंकरपद) जिनका गोत्र है,
पण्डितरूपी कमलोंको (विकसित करनेके लिये) जो सूर्य हैं, मुनिजनरूपी वनको जो चैत्र
हैं (अर्थात् मुनिजनरूपी वनको खिलानेमें जो वसन्तऋतु समान हैं ), कर्मकी सेनाके जो
शत्रु हैं और सर्वको हितरूप जिनका चरित्र है, वे श्री सुसीमा माताके सुपुत्र (श्री पद्मप्रभ
तीर्थंकर) जयवन्त हैं
९६
[श्लोेकार्थ : ] जो कामदेवरूपी हाथीको (मारनेके लिये) सिंह हैं, जो
प्रक्षोभका अर्थ ८५वें पृष्ठकी टिप्पणीमें देखें

Page 139 of 388
PDF/HTML Page 166 of 415
single page version

स जयति जिनराजः प्रास्तदुःकर्मबीजः
पदनुतसुरराजस्त्यक्त संसारभूजः
।।9।।
(मालिनी)
जितरतिपतिचापः सर्वविद्याप्रदीपः
परिणतसुखरूपः पापकीनाशरूपः
हतभवपरितापः श्रीपदानम्रभूपः
स जयति जितकोपः प्रह्वविद्वत्कलापः
।।9।।
(मालिनी)
जयति विदितमोक्षः पद्मपत्रायताक्षः
प्रजितदुरितकक्षः प्रास्तकंदर्पपक्षः
पदयुगनतयक्षः तत्त्वविज्ञानदक्षः
कृतबुधजनशिक्षः प्रोक्त निर्वाणदीक्षः
।।9 9।।
पुण्यरूपी कमलको (विकसित करनेके लिये) भानु हैं, जो सर्व गुणोंके समाज
(
समुदाय) हैं, जो सर्व कल्पित (चिंतित) देनेवाले कल्पवृक्ष हैं, जिन्होंने दुष्ट कर्मके
बीजको नष्ट किया है, जिनके चरणमें सुरेन्द्र नमते हैं और जिन्होंने संसाररूपी वृक्षका त्याग
किया है, वे जिनराज (श्री पद्मप्रभ भगवान) जयवन्त हैं
९७
[श्लोेकार्थ : ] कामदेवके बाणको जिन्होंने जीत लिया है, सर्व विद्याओंके जो
प्रदीप (प्रकाशक) हैं, जिनका स्वरूप सुखरूपसे परिणमित हुआ है, पापको (मार-
डालनेके लिये) जो यमरूप हैं, भवके परितापका जिन्होंने नाश किया है, भूपति जिनके
श्रीपदमें (
महिमायुक्त पुनीत चरणोंमें) नमते हैं, क्रोधको जिन्होंने जीता है और विद्वानोंका
समुदाय जिनके आगे नत हो जाताझुक जाता है, वे (श्री पद्मप्रभनाथ) जयवन्त हैं ९८
[श्लोेकार्थ : ] प्रसिद्ध जिनका मोक्ष है, पद्मपत्र (कमलके पत्ते) जैसे दीर्घ
जिनके नेत्र हैं, पापकक्षाको जिन्होंने जीत लिया है, कामदेवके पक्षका जिन्होंने नाश किया
है, यक्ष जिनके चरणयुगलमें नमते हैं, तत्त्वविज्ञानमें जो दक्ष (चतुर) हैं, बुधजनोंको जिन्होंने
शिक्षा (सीख) दी है और निर्वाणदीक्षाका जिन्होंने उच्चारण किया है, वे (श्री पद्मप्रभ
जिनेन्द्र) जयवन्त हैं
९९
कक्षा = भूमिका; श्रेणी; स्थिति

Page 140 of 388
PDF/HTML Page 167 of 415
single page version

(मालिनी)
मदननगसुरेशः कान्तकायप्रदेशः
पदविनतयमीशः प्रास्तकीनाशपाशः
दुरघवनहुताशः कीर्तिसंपूरिताशः
जयति जगदधीशः चारुपद्मप्रभेशः
।।१००।।
णट्ठट्ठकम्मबंधा अट्ठमहागुणसमण्णिया परमा
लोयग्गठिदा णिच्चा सिद्धा ते एरिसा होंति ।।७२।।
नष्टाष्टकर्मबन्धा अष्टमहागुणसमन्विताः परमाः
लोकाग्रस्थिता नित्याः सिद्धास्ते ईद्रशा भवन्ति ।।७२।।
भगवतां सिद्धिपरंपराहेतुभूतानां सिद्धपरमेष्ठिनां स्वरूपमत्रोक्त म्
[श्लोेकार्थ : ] कामदेवरूपी पर्वतके लिये (अर्थात् उसे तोड़ देनेमें) जो
(वज्रधर) इन्द्र समान हैं, कान्त (मनोहर) जिनका कायप्रदेश है, मुनिवर जिनके चरणमें
नमते हैं, यमके पाशका जिन्होंने नाश किया है, दुष्ट पापरूपी वनको (जलानेके लिये)
जो अग्नि हैं, सर्व दिशाओंमें जिनकी कीर्ति व्याप्त हो गई है और जगतके जो अधीश (नाथ)
हैं, वे सुन्दर पद्मप्रभेश जयवन्त हैं
१००
गाथा : ७२ अन्वयार्थ :[नष्टाष्टकर्मबन्धाः ] आठ कर्मोंके बन्धको जिन्होंने
नष्ट किया है ऐसे, [अष्टमहागुणसमन्विताः ] आठ महागुणों सहित, [परमाः ] परम,
[लोकाग्रस्थिताः ] लोकके अग्रमें स्थित और [नित्याः ] नित्य;
[ईद्रशाः ] ऐसे, [ते
सिद्धाः ] वे सिद्ध [भवन्ति ] होते हैं
टीका :सिद्धिके परम्पराहेतुभूत ऐसे भगवन्त सिद्धपरमेष्ठियोंका स्वरूप यहाँ
कहा है
हैं अष्ट गुण संयुक्त, आठों कर्म - बन्ध विनष्ट हैं
लोकाग्रमें जो हैं प्रतिष्ठित परम शाश्वत सिद्ध हैं ।।७२।।

Page 141 of 388
PDF/HTML Page 168 of 415
single page version

निरवशेषेणान्तर्मुखाकारध्यानध्येयविकल्पविरहितनिश्चयपरमशुक्लध्यानबलेन नष्टाष्ट-
कर्मबंधाः क्षायिकसम्यक्त्वाद्यष्टगुणपुष्टितुष्टाश्च त्रितत्त्वस्वरूपेषु विशिष्टगुणाधारत्वात
परमाः त्रिभुवनशिखरात्परतो गतिहेतोरभावात् लोकाग्रस्थिताः व्यवहारतोऽभूतपूर्वपर्याय-
प्रच्यवनाभावान्नित्याः द्रशास्ते भगवन्तः सिद्धपरमेष्ठिन इति
(मालिनी)
व्यवहरणनयेन ज्ञानपुंजः स सिद्धः
त्रिभुवनशिखराग्रग्रावचूडामणिः स्यात
सहजपरमचिच्चिन्तामणौ नित्यशुद्धे
निवसति निजरूपे निश्चयेनैव देवः
।।१०१।।
[भगवन्त सिद्ध कैसे होते हैं ? ] (१) निरवशेषरूपसे अन्तर्मुखाकार, ध्यान
-ध्येयके विकल्प रहित निश्चय - परमशुक्लध्यानके बलसे जिन्होंने आठ कर्मके बन्धको नष्ट
किया है ऐसे; (२) क्षायिक सम्यक्त्वादि अष्ट गुणोंकी पुष्टिसे तुष्ट; (३) विशिष्ट गुणोंके
आधार होनेसे तत्त्वके तीन स्वरूपोंमें परम; (४) तीन लोकके शिखरसे आगे गतिहेतुका
अभाव होनेसे लोकके अग्रमें स्थित; (५) व्यवहारसे अभूतपूर्व पर्यायमेंसे (पहले कभी
नहीं हुई ऐसी सिद्धपर्यायमेंसे) च्युत होनेका अभाव होनेके कारण नित्य; ऐसे, वे
भगवन्त सिद्धपरमेष्ठी होते हैं
[अब ७२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज तीन श्लोक कहते
हैं : ]
[श्लोेकार्थ : ] व्यवहारनयसे ज्ञानपुंज ऐसे वे सिद्धभगवान त्रिभुवनशिखरकी
शिखाके (चैतन्यघनरूप) ठोस चूड़ामणि हैं; निश्चयसे वे देव सहजपरमचैतन्यचिन्तामणि-
स्वरूप नित्यशुद्ध निज रूपमें ही वास करते हैं १०१
निरवशेषरूपसे = अशेषत; कुछ शेष रखे बिना; सम्पूर्णरूपसे; सर्वथा [परमशुक्लध्यानका आकार अर्थात्
स्वरूप सम्पूर्णतया अन्तर्मुख होता है ]
सिद्धभगवन्त क्षायिक सम्यक्त्व, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहन, अगुरुलघु
और अव्याबाध इन आठ गुणोंकी पुष्टिसे संतुष्टआनन्दमय होते हैं
सिद्धभगवन्त विशिष्ट गुणोंके आधार होनेसे बहिस्तत्त्व, अन्तस्तत्त्व और परमतत्त्व ऐसे तीन तत्त्वस्वरूपोंमेंसे
परमतत्त्वस्वरूप हैं
चूड़ामणि = शिखामणि; कलगीका रत्न; शिखरका रत्न

Page 142 of 388
PDF/HTML Page 169 of 415
single page version

(स्रग्धरा)
नीत्वास्तान् सर्वदोषान् त्रिभुवनशिखरे ये स्थिता देहमुक्ताः
तान् सर्वान् सिद्धिसिद्धयै निरुपमविशदज्ञान
द्रक्शक्ति युक्तान्
सिद्धान् नष्टाष्टकर्मप्रकृतिसमुदयान् नित्यशुद्धाननन्तान्
अव्याबाधान्नमामि त्रिभुवनतिलकान् सिद्धिसीमन्तिनीशान्
।।१०२।।
(अनुष्टुभ्)
स्वस्वरूपस्थितान् शुद्धान् प्राप्ताष्टगुणसंपदः
नष्टाष्टकर्मसंदोहान् सिद्धान् वंदे पुनः पुनः ।।१०३।।
पंचाचारसमग्गा पंचिंदियदंतिदप्पणिद्दलणा
धीरा गुणगंभीरा आयरिया एरिसा होंति ।।७३।।
पंचाचारसमग्राः पंचेन्द्रियदंतिदर्पनिर्दलनाः
धीरा गुणगंभीरा आचार्या ईद्रशा भवन्ति ।।७३।।
[श्लोेकार्थ : ] जो सर्व दोषोंको नष्ट करके देहमुक्त होकर त्रिभुवनशिखर पर
स्थित हैं, जो निरुपम विशद (निर्मल) ज्ञानदर्शनशक्तिसे युक्त हैं, जिन्होंने आठ कर्मोंकी
प्रकृतिके समुदायको नष्ट किया है, जो नित्यशुद्ध हैं, जो अनन्त हैं, अव्याबाध हैं, तीन
लोकमें प्रधान हैं और मुक्तिसुन्दरीके स्वामी हैं, उन सर्व सिद्धोंको सिद्धिकी प्राप्तिके हेतु
मैं नमन करता हूँ
१०२
[श्लोेकार्थ : ] जो निज स्वरूपमें स्थित हैं, जो शुद्ध हैं; जिन्होंने आठ गुणरूपी
सम्पदा प्राप्त की है और जिन्होंने आठ कर्मोंका समूह नष्ट किया है, उन सिद्धोंको मैं पुनः
पुनः वन्दन करता हूँ
१०३
गाथा : ७३ अन्वयार्थ :[पंचाचारसमग्राः ] पंचाचारोंसे परिपूर्ण, [पंचेन्द्रिय-
दंतिदर्प्पनिर्दलनाः ] पंचेन्द्रियरूपी हाथीके मदका दलन करनेवाले, [धीराः ] धीर और
[गुणगंभीराः ] गुणगंभीर;
[ईद्रशाः ] ऐसे, [आचार्याः ] आचार्य [भवन्ति ] होते हैं
हैं धीर गुण गंभीर अरु परिपूर्ण पंचाचार हैं
पंचेन्द्रि - गजके दर्प - उन्मूलक निपुण आचार्य हैं ।।७३।।

Page 143 of 388
PDF/HTML Page 170 of 415
single page version

अत्राचार्यस्वरूपमुक्त म्
ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याभिधानैः पंचभिः आचारैः समग्राः स्पर्शन-
रसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राभिधानपंचेन्द्रियमदान्धसिंधुरदर्पनिर्दलनदक्षाः निखिलघोरोपसर्गविजयो-
पार्जितधीरगुणगंभीराः एवंलक्षणलक्षितास्ते भगवन्तो ह्याचार्या इति
तथा चोक्तं श्रीवादिराजदेवैः
(शार्दूलविक्रीडित)
‘‘पंचाचारपरान्नकिंचनपतीन्नष्टकषायाश्रमान्
चंचज्ज्ञानबलप्रपंचितमहापंचास्तिकायस्थितीन्
स्फाराचंचलयोगचंचुरधियः सूरीनुदंचद्गुणान्
अंचामो भवदुःखसंचयभिदे भक्ति क्रियाचंचवः
।।’’
तथा हि
टीका :यहाँ आचार्यका स्वरूप कहा है
[भगवन्त आचार्य कैसे होते हैं ? ] (१) ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य नामक
पाँच आचारोंसे परिपूर्ण; (२) स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र नामकी पाँच इन्द्रियोंरूपी
मदांध हाथीके दर्पका दलन करनेमें दक्ष (
पंचेन्द्रियरूपी मदमत्त हाथीके मदको चूरचूर
करनेमें निपुण); (३ - ४) समस्त घोर उपसर्गों पर विजय प्राप्त करते हैं इसलिये धीर और
गुणगम्भीर; ऐसे लक्षणोंसे लक्षित, वे भगवन्त आचार्य होते हैं
इसीप्रकार (आचार्यवर) श्री वादिराजदेवने कहा है कि :
‘‘[श्लोेकार्थ : ] जो पंचाचारपरायण हैं, जो अकिंचनताके स्वामी हैं, जिन्होंने
कषायस्थानोंको नष्ट किया है, परिणमित ज्ञानके बल द्वारा जो महा पंचास्तिकायकी स्थितिको
समझाते हैं, विपुल अचंचल योगमें (
विकसित स्थिर समाधिमें) जिनकी बुद्धि निपुण है
और जिनको गुण उछलते हैं, उन आचार्योंको भक्तिक्रियामें कुशल ऐसे हम भवदुःखराशिको
भेदनेके लिये पूजते हैं
’’
और (इस ७३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) :

Page 144 of 388
PDF/HTML Page 171 of 415
single page version

(हरिणी)
सकलकरणग्रामालंबाद्विमुक्त मनाकुलं
स्वहितनिरतं शुद्धं निर्वाणकारणकारणम्
शमदमयमावासं मैत्रीदयादममंदिरं
निरुपममिदं वंद्यं श्रीचन्द्रकीर्तिमुनेर्मनः
।।१०४।।
रयणत्तयसंजुत्ता जिणकहियपयत्थदेसया सूरा
णिक्कंखभावसहिया उवज्झाया एरिसा होंति ।।७४।।
रत्नत्रयसंयुक्ताः जिनकथितपदार्थदेशकाः शूराः
निःकांक्षभावसहिता उपाध्याया ईद्रशा भवन्ति ।।७४।।
अध्यापकाभिधानपरमगुरुस्वरूपाख्यानमेतत्
अविचलिताखंडाद्वैतपरमचिद्रूपश्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानशुद्धनिश्चयस्वभावरत्नत्रयसंयुक्ताः
[श्लोेकार्थ : ] सकल इन्द्रियसमूहके आलम्बन रहित, अनाकुल, स्वहितमें
लीन, शुद्ध, निर्वाणके कारणका कारण (मुक्तिके कारणभूत शुक्लध्यानका कारण),
शम - दम - यमका निवासस्थान, मैत्री - दया - दमका मन्दिर (घर)ऐसा यह श्री
चन्द्रकीर्तिमुनिका निरुपम मन (चैतन्यपरिणमन) वंद्य है १०४
गाथा : ७४ अन्वयार्थ :[रत्नत्रयसंयुक्ताः ] रत्नत्रयसे संयुक्त, [शूराः
जिनकथितपदार्थदेशकाः ] जिनकथित पदार्थोंके शूरवीर उपदेशक और
[निःकांक्षभावसहिताः ] निःकांक्षभाव सहित;
[ईद्रशाः ] ऐसे, [उपाध्यायाः ] उपाध्याय
[भवन्ति ] होते हैं
टीका :यह, अध्यापक (अर्थात् उपाध्याय) नामके परमगुरुके स्वरूपका
कथन है
[उपाध्याय कैसे होते हैं ? ] (१) अविचलित अखण्ड अद्वैत परम चिद्रूपके
शम = शांति; उपशम दम = इन्द्रियादिका दमन; जितेन्द्रियता यम = संयम
जो रत्नत्रयसे युक्त निकांक्षित्वसे भरपूर हैं
उवझाय वे जिनवर - कथित तत्त्वोपदेष्टा शूर हैं ।।७४।।

Page 145 of 388
PDF/HTML Page 172 of 415
single page version

जिनेन्द्रवदनारविंदविनिर्गतजीवादिसमस्तपदार्थसार्थोपदेशशूराः निखिलपरिग्रहपरित्यागलक्षण-
निरंजननिजपरमात्मतत्त्वभावनोत्पन्नपरमवीतरागसुखामृतपानोन्मुखास्तत एव निष्कांक्षाभावना-
सनाथाः
एवंभूतलक्षणलक्षितास्ते जैनानामुपाध्याया इति
(अनुष्टुभ्)
रत्नत्रयमयान् शुद्धान् भव्यांभोजदिवाकरान्
उपदेष्टॄनुपाध्यायान् नित्यं वंदे पुनः पुनः ।।१०५।।
वावारविप्पमुक्का चउव्विहाराहणासयारत्ता
णिग्गंथा णिम्मोहा साहू दे एरिसा होंति ।।७५।।
व्यापारविप्रमुक्ताः चतुर्विधाराधनासदारक्ताः
निर्ग्रन्था निर्मोहाः साधवः ईद्रशा भवन्ति ।।७५।।
श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठानरूप शुद्ध निश्चय - स्वभावरत्नत्रयवाले; (२) जिनेन्द्रके
मुखारविंदसे निकले हुए जीवादि समस्त पदार्थसमूहका उपदेश देनेमें शूरवीर; (३) समस्त
परिग्रहके परित्यागस्वरूप जो निरंजन निज परमात्मतत्त्व उसकी भावनासे उत्पन्न होनेवाले
परम वीतराग सुखामृतके पानमें सन्मुख होनेसे ही निष्कांक्षभावना सहित;
ऐसे लक्षणोंसे
लक्षित, वे जैनोंके उपाध्याय होते हैं
[अब ७४वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोेकार्थ : ] रत्नत्रयमय, शुद्ध, भव्यकमलके सूर्य और (जिनकथित
पदार्थोंके) उपदेशकऐसे उपाध्यायोंको मैं नित्य पुनः पुनः वन्दन करता हूँ १०५
गाथा : ७५ अन्वयार्थ :[व्यापारविप्रमुक्ताः ] व्यापारसे विमुक्त (समस्त
व्यापार रहित), [चतुर्विधाराधनासदारक्ताः ] चतुर्विध आराधनामें सदा रक्त, [निर्ग्रन्थाः ]
निर्ग्रंथ और [निर्मोहाः ] निर्मोह;
[ईद्रशाः ] ऐसे, [साधवः ] साधु [भवन्ति ] होते हैं
अनुष्ठान = आचरण; चारित्र; विधान; कार्यरूपमें परिणत करना
निर्ग्रन्थ हैं निर्मोह हैं व्यापारसे प्रविमुक्त हैं
हैं साधु, चउआराधनामें जो सदा अनुरक्त हैं ।।७५।।

Page 146 of 388
PDF/HTML Page 173 of 415
single page version

निरन्तराखंडितपरमतपश्चरणनिरतसर्वसाधुस्वरूपाख्यानमेतत
ये महान्तः परमसंयमिनः त्रिकालनिरावरणनिरंजनपरमपंचमभावभावनापरिणताः
अत एव समस्तबाह्यव्यापारविप्रमुक्ताः ज्ञानदर्शनचारित्रपरमतपश्चरणाभिधानचतुर्विधा-
राधनासदानुरक्ताः बाह्याभ्यन्तरसमस्तपरिग्रहाग्रहविनिर्मुक्त त्वान्निर्ग्रन्थाः सदा निरञ्जन-
निजकारणसमयसारस्वरूपसम्यक्श्रद्धानपरिज्ञानाचरणप्रतिपक्षमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्राभावान्नि-
र्मोहाः च
इत्थंभूतपरमनिर्वाणसीमंतिनीचारुसीमंतसीमाशोभामसृणघुसृणरजःपुंजपिंजरित-
वर्णालंकारावलोकनकौतूहलबुद्धयोऽपि ते सर्वेऽपि साधवः इति
(आर्या)
भविनां भवसुखविमुखं त्यक्तं सर्वाभिषंगसंबंधात
मंक्षु विमंक्ष्व निजात्मनि वंद्यं नस्तन्मनः साधोः ।।१०६।।
टीका :यह, निरन्तर अखण्डित परम तपश्चरणमें निरत (लीन) ऐसे सर्व
साधुओंके स्वरूपका कथन है
[साधु कैसे होते हैं ? ] (१) परमसंयमी महापुरुष होनेसे त्रिकालनिरावरण निरंजन
परम पंचमभावकी भावनामें परिणमित होनेके कारण ही समस्त बाह्यव्यापारसे विमुक्त;
(२) ज्ञान, दर्शन, चारित्र और परम तप नामकी चतुर्विध आराधनामें सदा अनुरक्त; (३)
बाह्य
अभ्यंतर समस्त परिग्रहके ग्रहण रहित होनेके कारण निर्ग्रंथ; तथा (४) सदा निरंजन
निज कारणसमयसारके स्वरूपके सम्यक् श्रद्धान, सम्यक् परिज्ञान और सम्यक् आचरणसे
प्रतिपक्ष ऐसे मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चारित्रका अभाव होनेके कारण निर्मोह;
ऐसे, परमनिर्वाणसुन्दरीकी सुन्दर माँगकी शोभारूप कोमल केशरके रज - पुंजके सुवर्णरंगी
अलङ्कारको (केशर - रजकी कनकरंगी शोभाको) देखनेमें कौतूहलबुद्धिवाले वे समस्त
साधु होते हैं (अर्थात् पूर्वोक्त लक्षणवाले, मुक्तिसुन्दरीकी अनुपमताका अवलोकन करनेमें
आतुर बुद्धिवाले समस्त साधु होते हैं )
[अब ७५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोेकार्थ : ] भववाले जीवोंके भवसुखसे जो विमुख है और सर्व संगके
सम्बन्धसे जो मुक्त है, ऐसा वह साधुका मन हमें वंद्य है हे साधु ! उस मनको शीघ्र
निजात्मामें मग्न करो १०६

Page 147 of 388
PDF/HTML Page 174 of 415
single page version

एरिसयभावणाए ववहारणयस्स होदि चारित्तं
णिच्छयणयस्स चरणं एत्तो उड्ढं पवक्खामि ।।७६।।
द्रग्भावनायां व्यवहारनयस्य भवति चारित्रम्
निश्चयनयस्य चरणं एतदूर्ध्वं प्रवक्ष्यामि ।।७६।।
व्यवहारचारित्राधिकारव्याख्यानोपसंहारनिश्चयचारित्रसूचनोपन्यासोऽयम्
इत्थंभूतायां प्रागुक्त पंचमहाव्रतपंचसमितिनिश्चयव्यवहारत्रिगुप्तिपंचपरमेष्ठिध्यान-
संयुक्तायाम् अतिप्रशस्तशुभभावनायां व्यवहारनयाभिप्रायेण परमचारित्रं भवति,
वक्ष्यमाणपंचमाधिकारे परमपंचमभावनिरतपंचमगतिहेतुभूतशुद्धनिश्चयनयात्मपरमचारित्रं द्रष्टव्यं
भवतीति
तथा चोक्तं मार्गप्रकाशे
गाथा : ७६ अन्वयार्थ :[ईद्रग्भावनायाम् ] ऐसी (पूर्वोक्त) भावनामें
[व्यवहारनयस्य ] व्यवहारनयके अभिप्रायसे [चारित्रम् ] चारित्र [भवति ] है;
[निश्चयनयस्य ] निश्चयनयके अभिप्रायसे [चरणम् ] चारित्र [एतदूर्ध्वम् ] इसके पश्चात्
[प्रवक्ष्यामि ] कहूँगा
टीका :यह, व्यवहारचारित्र-अधिकारका जो व्याख्यान उसके उपसंहारका
और निश्चयचारित्रकी सूचनाका कथन है
ऐसी जो पूर्वोक्त पंचमहाव्रत, पंचसमिति, निश्चय - व्यवहार त्रिगुप्ति तथा
पंचपरमेष्ठीके ध्यानसे संयुक्त, अतिप्रशस्त शुभ भावना उसमें व्यवहारनयके अभिप्रायसे
परम चारित्र है; अब कहे जानेवाले पाँचवें अधिकारमें, परम पंचमभावमें लीन,
पंचमगतिके हेतुभूत, शुद्धनिश्चयनयात्मक परम चारित्र द्रष्टव्य (
देखनेयोग्य) है
इसीप्रकार मार्गप्रकाशकमें (श्लोक द्वारा) कहा है कि :
इस भावनामें जानिये चारित्र नय व्यवहारसे
निश्चय-चरण अब मैं कहूँ निश्चयनयात्मक द्वारसे ।।७६।।

Page 148 of 388
PDF/HTML Page 175 of 415
single page version

(वंशस्थ)
‘‘कुसूलगर्भस्थितबीजसोदरं
भवेद्विना येन सु
द्रष्टिबोधनम्
तदेव देवासुरमानवस्तुतं
नमामि जैनं चरणं पुनः पुनः
।।’’
तथा हि
(आर्या)
शीलमपवर्गयोषिदनंगसुखस्यापि मूलमाचार्याः
प्राहुर्व्यवहारात्मकवृत्तमपि तस्य परंपरा हेतुः ।।१०७।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेव-
विरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ व्यवहारचारित्राधिकार: चतुर्थः श्रुतस्कन्धः ।।
‘‘[श्लोेकार्थ : ] जिसके बिना (जिस चारित्रके बिना) सम्यग्दर्शन और
सम्यग्ज्ञान कोठारके भीतर पड़े हुए बीज (अनाज) समान हैं, उसी देव - असुर - मानवसे
स्तवन किये गये जैन चरणको (ऐसा जो सुर - असुर - मनुष्योंसे स्तवन किया गया जिनोक्त
चारित्र उसे) मैं पुनः पुनः नमन करता हूँ ’’
और (इस व्यवहारचारित्र अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए
टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ) :
[श्लोेकार्थ : ] आचार्योंने शीलको (निश्चयचारित्रको) मुक्तिसुन्दरीके अनंग
(अशरीरी) सुखका मूल कहा है; व्यवहारात्मक चारित्र भी उसका परम्परा कारण
है १०७
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियोंके
विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी
तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार
परमागमकी निर्ग्रंथ मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव विरचित तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें)
व्यवहारचारित्र अधिकार नामका चौथा श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ
❅ ❁ ❅

Page 149 of 388
PDF/HTML Page 176 of 415
single page version

परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार
(वंशस्थ)
नमोऽस्तु ते संयमबोधमूर्तये
स्मरेभकुंभस्थलभेदनाय वै
विनेयपंकेजविकाशभानवे
विराजते माधवसेनसूरये
।।१०८।।
अथ सकलव्यावहारिकचारित्रतत्फलप्राप्तिप्रतिपक्षशुद्धनिश्चयनयात्मकपरमचारित्र-
प्रतिपादनपरायणपरमार्थप्रतिक्रमणाधिकारः कथ्यते तत्रादौ तावत् पंचरत्नस्वरूपमुच्यते
तद्यथा
अथ पंचरत्नावतारः
[अधिकारके प्रारम्भमें टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्री माधवसेन
आचार्यदेवको श्लोक द्वारा नमस्कार करते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] संयम और ज्ञानकी मूर्ति, कामरूपी हाथीके कुम्भस्थलको
भेदनेवाले तथा शिष्यरूपी कमलको विकसित करनेमें सूर्य समानऐसे हे विराजमान
(शोभायमान) माधवसेनसूरि ! आपको नमस्कार हो १०८
अब, सकल व्यावहारिक चारित्रसे और उसके फलकी प्राप्तिसे प्रतिपक्ष ऐसा जो
शुद्धनिश्चयनयात्मक परम चारित्र उसका प्रतिपादन करनेवाला परमार्थ - प्रतिक्रमण अधिकार
कहा जाता है वहाँ प्रारम्भमें पंचरत्नका स्वरूप कहते हैं वह इसप्रकार :
अब पाँच रत्नोंका अवतरण किया जाता है :

Page 150 of 388
PDF/HTML Page 177 of 415
single page version

णाहं णारयभावो तिरियत्थो मणुवदेवपज्जाओ
कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं ।।७७।।
णाहं मग्गणठाणो णाहं गुणठाण जीवठाणो ण
कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं ।।७८।।
णाहं बालो बुड्ढो ण चेव तरुणो ण कारणं तेसिं
कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं ।।9।।
णाहं रागो दोसो ण चेव मोहो ण कारणं तेसिं
कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं ।।८०।।
णाहं कोहो माणो ण चेव माया ण होमि लोहो हं
कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं ।।८१।।
नाहं नारकभावस्तिर्यङ्मानुषदेवपर्यायः
कर्ता न हि कारयिता अनुमंता नैव कर्तॄणाम् ।।७७।।
नारक नहीं, तिर्यंच - मानव - देव पर्यय मैं नहीं
कर्ता न, कारयिता नहीं, कर्तानुमंता मैं नहीं ।।७७।।
मैं मार्गणाके स्थान नहिं, गुणस्थान - जीवस्थान नहिं
कर्ता न, कारयिता नहीं, कर्तानुमंता मैं नहीं ।।७८।।
बालक नहीं मैं, वृद्ध नहिं, नहिं युवक, तिन कारण नहीं
कर्ता न, कारयिता नहीं, कर्तानुमंता मैं नहीं ।।७९ ।।
मैं राग नहिं, मैं द्वेष नहिं, नहिं मोह, तिन कारण नहीं
कर्ता न, कारयिता नहीं, कर्तानुमंता मैं नहीं ।।८०।।
मैं क्रोध नहिं, मैं मान नहिं, माया नहीं, मैं लोभ नहिं
कर्ता न, कारयिता नहीं, कर्तानुमोदक मैं नहीं ।।८१।।

Page 151 of 388
PDF/HTML Page 178 of 415
single page version

नाहं मार्गणास्थानानि नाहं गुणस्थानानि जीवस्थानानि न
कर्ता न हि कारयिता अनुमंता नैव कर्तॄणाम् ।।७८।।
नाहं बालो वृद्धो न चैव तरुणो न कारणं तेषाम्
कर्ता न हि कारयिता अनुमंता नैव कर्तॄणाम् ।।9।।
नाहं रागो द्वेषो न चैव मोहो न कारणं तेषाम्
कर्ता न हि कारयिता अनुमंता नैव कर्तॄणाम् ।।८०।।
नाहं क्रोधो मानो न चैव माया न भवामि लोभोऽहम्
कर्ता न हि कारयिता अनुमंता नैव कर्तॄणाम् ।।८१।।
गाथा : ७७-८१ अन्वयार्थ :[अहं ] मैं [नारकभावः ] नारकपर्याय,
[तिर्यङ्मानुषदेवपर्यायः ] तिर्यंचपर्याय, मनुष्यपर्याय अथवा देवपर्याय [न ] नहीं हूँ; [कर्ता
न हि कारयिता ]
उनका (मैं) कर्ता नहीं हूँ, कारयिता (
करानेवाला) नहीं हूँ, [कर्तॄणाम्
अनुमंता न एव ] कर्ताका अनुमोदक नहीं हूँ
[अहं मार्गणास्थानानि न ] मैं मार्गणास्थान नहीं हूँ, [अहं ] मैं [गुणस्थानानि न ]
गुणस्थान नहीं हूँ [जीवस्थानानि ] जीवस्थान [न ] नहीं हूँ; [कर्ता न हि कारयिता ] उनका
मैं कर्ता नहीं हूँ, कारयिता नहीं हूँ, [कर्तॄणाम् अनुमंता न एव ] कर्ताका अनुमोदक नहीं
हूँ
[न अहं बालः वृद्धः ] मैं बाल नहीं हूँ, वृद्ध नहीं हूँ, [न च एव तरुणः ] तथा
तरुण नहीं हूँ; [तेषां कारणं न ] उनका (मैं) कारण नहीं हूँ; [कर्ता न हि कारयिता ]
उनका (मैं) कर्ता नहीं हूँ, कारयिता नहीं हूँ, [कर्तॄणाम् अनुमंता न एव ] कर्ताका
अनुमोदक नहीं हूँ
[न अहं रागः द्वेषः ] मैं राग नहीं हूँ, द्वेष नहीं हूँ, [न च एव मोहः ] तथा मोह नहीं
हूँ; [तेषां कारणं न ] उनका (मैं) कारण नहीं हूँ, [कर्ता न हि कारयिता ] उनका (मैं) कर्ता
नहीं हूँ, कारयिता नहीं हूँ; [कर्तॄणाम् अनुमंता न एव ] कर्ताका अनुमोदक नहीं हूँ
[न अहं क्रोधः मानः ] मैं क्रोध नहीं हूँ, मान नहीं हूँ, [न च एव अहं माया ] तथा
मैं माया नहीं हूँ, [लोभः न भवामि ] लोभ नहीं हूँ; [कर्ता न हि कारयिता ] उनका (मैं)
कर्ता नहीं हूँ, कारयिता नहीं हूँ, [कर्तॄणाम् अनुमंता न एव ] कर्ताका अनुमोदक नहीं हूँ

Page 152 of 388
PDF/HTML Page 179 of 415
single page version

अत्र शुद्धात्मनः सकलकर्तृत्वाभावं दर्शयति
बह्वारंभपरिग्रहाभावादहं तावन्नारकपर्यायो न भवामि संसारिणो जीवस्य बह्वारंभ-
परिग्रहत्वं व्यवहारतो भवति अत एव तस्य नारकायुष्कहेतुभूतनिखिलमोहरागद्वेषा विद्यन्ते,
न च मम शुद्धनिश्चयबलेन शुद्धजीवास्तिकायस्य
तिर्यक्पर्यायप्रायोग्यमायामिश्राशुभकर्मा-
भावात्सदा तिर्यक्पर्यायकर्तृत्वविहीनोऽहम् मनुष्यनामकर्मप्रायोग्यद्रव्यभावकर्माभावान्न मे
मनुष्यपर्यायः शुद्धनिश्चयतो समस्तीति निश्चयेन देवनामधेयाधारदेवपर्याययोग्यसुरस-
सुगंधस्वभावात्मकपुद्गलद्रव्यसम्बन्धाभावान्न मे देवपर्यायः इति
चतुर्दशभेदभिन्नानि मार्गणास्थानानि तथाविधभेदविभिन्नानि जीवस्थानानि गुण-
स्थानानि वा शुद्धनिश्चयनयतः परमभावस्वभावस्य न विद्यन्ते
मनुष्यतिर्यक्पर्यायकायवयःकृतविकारसमुपजनितबालयौवनस्थविरवृद्धावस्थाद्यनेक-
स्थूलकृशविविधभेदाः शुद्धनिश्चयनयाभिप्रायेण न मे सन्ति
टीका :यहाँ शुद्ध आत्माको सकल कर्तृत्वका अभाव दर्शाते हैं
बहु आरम्भ तथा परिग्रहका अभाव होनेके कारण मैं नारकपर्याय नहीं हूँ संसारी
जीवको बहु आरम्भ - परिग्रह व्यवहारसे होता है और इसीलिये उसे नारक-आयुके हेतुभूत
समस्त मोहरागद्वेष होते हैं, परन्तु मुझेशुद्धनिश्चयके बलसे शुद्धजीवास्तिकायकोवे नहीं
हैं तिर्यञ्चपर्यायके योग्य मायामिश्रित अशुभ कर्मका अभाव होनेके कारण मैं सदा
तिर्यञ्चपर्यायके कर्तृत्व विहीन हूँ मनुष्यनामकर्मके योग्य द्रव्यकर्म तथा भावकर्मका
अभाव होनेके कारण मुझे मनुष्यपर्याय शुद्धनिश्चयसे नहीं है ‘देव’ ऐसे नामका आधार
जो देवपर्याय उसके योग्य सुरस - सुगन्धस्वभाववाले पुद्गलद्रव्यके सम्बन्धका अभाव होनेके
कारण निश्चयसे मुझे देवपर्याय नहीं है
चौदह भेदवाले मार्गणास्थान तथा उतने (चौदह) भेदवाले जीवस्थान या गुण-
स्थान शुद्धनिश्चयनयसे परमभावस्वभाववालेको (परमभाव जिसका स्वभाव है ऐसे मुझे)
नहीं हैं
मनुष्य और तिर्यञ्चपर्यायकी कायाके, वयकृत विकारसे (परिवर्तनसे) उत्पन्न
होनेवाले बाल - युवा - स्थविर - वृद्धावस्थादिरूप अनेक स्थूल - कृश विविध भेद शुद्ध-
निश्चयनयके अभिप्रायसे मेरे नहीं हैं

Page 153 of 388
PDF/HTML Page 180 of 415
single page version

सत्तावबोधपरमचैतन्यसुखानुभूतिनिरतविशिष्टात्मतत्त्वग्राहकशुद्धद्रव्यार्थिकनयबलेन मे
सकलमोहरागद्वेषा न विद्यन्ते
सहजनिश्चयनयतः सदा निरावरणात्मकस्य शुद्धावबोधरूपस्य सहजचिच्छक्ति मयस्य
सहजद्रक्स्फू र्तिपरिपूर्णमूर्तेः स्वरूपाविचलस्थितिरूपसहजयथाख्यातचारित्रस्य न मे निखिल-
संसृतिक्लेशहेतवः क्रोधमानमायालोभाः स्युः
अथामीषां विविधविकल्पाकुलानां विभावपर्यायाणां निश्चयतो नाहं कर्ता, न कारयिता
वा भवामि, न चानुमंता वा कर्तॄणां पुद्गलकर्मणामिति
नाहं नारकपर्यायं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचिंतये नाहं तिर्यक्पर्यायं
कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचिंतये नाहं मनुष्यपर्यायं कुर्वे, सहजचिद्विलासा-
त्मकमात्मानमेव संचिंतये नाहं देवपर्यायं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचिंतये
नाहं चतुर्दशमार्गणास्थानभेदं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचिंतये नाहं
मिथ्याद्रष्टयादिगुणस्थानभेदं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचिंतये नाह-
सत्ता, अवबोध, परमचैतन्य और सुखकी अनुभूतिमें लीन ऐसे विशिष्ट आत्मतत्त्वको
ग्रहण करनेवाले शुद्धद्रव्यार्थिकनयके बलसे मेरे सकल मोहरागद्वेष नहीं हैं
सहज निश्चयनयसे (१) सदा निरावरणस्वरूप, (२) शुद्धज्ञानरूप, (३) सहज
चित्शक्तिमय, (४) सहज दर्शनके स्फु रणसे परिपूर्ण मूर्ति (जिसकी मूर्ति अर्थात्
स्वरूप सहज दर्शनके स्फु रणसे परिपूर्ण है ऐसे) और (५) स्वरूपमें अविचल स्थितिरूप सहज
यथाख्यात चारित्रवाले ऐसे मुझे समस्त संसारक्लेशके हेतु क्रोध
- मान - माया - लोभ नहीं हैं
अब, इन (उपरोक्त) विविध विकल्पोंसे (भेदोंसे) भरी हुई विभावपर्यायोंका निश्चयसे
मैं कर्ता नहीं हूँ, कारयिता नहीं हूँ और पुद्गलकर्मरूप कर्ताका (विभावपर्यायोंके कर्ता जो
पुद्गलकर्म उनका) अनुमोदक नहीं हूँ (इसप्रकार वर्णन किया जाता है )
मैं नारकपर्यायको नहीं करता, सहज चैतन्यके विलासस्वरूप आत्माको ही भाता हूँ
मैं तिर्यंचपर्यायको नहीं करता, सहज चैतन्यके विलासस्वरूप आत्माको ही भाता हूँ मैं
मनुष्यपर्यायको नहीं करता, सहज चैतन्यके विलासस्वरूप आत्माको ही भाता हूँ मैं
देवपर्यायको नहीं करता, सहज चैतन्यके विलासस्वरूप आत्माको ही भाता हूँ
मैं चौदह मार्गणास्थानके भेदोंको नहीं करता, सहज चैतन्यके विलासस्वरूप आत्माको
ही भाता हूँ मैं मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानभेदोंको नहीं करता, सहज चैतन्यके विलासस्वरूप