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कायक्रिया है; मारणका भी अन्तरंग हेतु आंतरिक (निकट) सम्बन्धका (आयुष्यका) क्षय
है, बहिरंग कारण किसीकी कायविकृति है; आकुंचन, प्रसारण आदिका हेतु
संकोचविस्तारादिकके हेतुभूत समुद्घात है
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शुद्धाशुद्धनयातिरिक्त मनघं चिन्मात्रचिन्तामणिम्
जीवन्मुक्ति मुपैति योगितिलकः पापाटवीपावकः
भवति ] सो वचनगुप्ति है
प्रति वचनप्रवृत्ति नहीं होती
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करता है
[हिंसादिनिवृत्तिः ] हिंसादिकी निवृत्तिको [शरीरगुप्तिः इति ] शरीरगुप्ति [निर्दिष्टा ] कहा है
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अतिशय संयुक्त;
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सुकृतनिलयगोत्रः पंडिताम्भोजमित्रः
सकलहितचरित्रः श्रीसुसीमासुपुत्रः
सकलगुणसमाजः सर्वकल्पावनीजः
तीन लोकको
पण्डितरूपी कमलोंको (विकसित करनेके लिये) जो सूर्य हैं, मुनिजनरूपी वनको जो चैत्र
हैं (अर्थात् मुनिजनरूपी वनको खिलानेमें जो वसन्तऋतु समान हैं ), कर्मकी सेनाके जो
शत्रु हैं और सर्वको हितरूप जिनका चरित्र है, वे श्री सुसीमा माताके सुपुत्र (श्री पद्मप्रभ
तीर्थंकर) जयवन्त हैं
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पदनुतसुरराजस्त्यक्त संसारभूजः
परिणतसुखरूपः पापकीनाशरूपः
स जयति जितकोपः प्रह्वविद्वत्कलापः
प्रजितदुरितकक्षः प्रास्तकंदर्पपक्षः
कृतबुधजनशिक्षः प्रोक्त निर्वाणदीक्षः
(
किया है, वे जिनराज (श्री पद्मप्रभ भगवान) जयवन्त हैं
श्रीपदमें (
शिक्षा (सीख) दी है और निर्वाणदीक्षाका जिन्होंने उच्चारण किया है, वे (श्री पद्मप्रभ
जिनेन्द्र) जयवन्त हैं
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पदविनतयमीशः प्रास्तकीनाशपाशः
जयति जगदधीशः चारुपद्मप्रभेशः
नमते हैं, यमके पाशका जिन्होंने नाश किया है, दुष्ट पापरूपी वनको (जलानेके लिये)
जो अग्नि हैं, सर्व दिशाओंमें जिनकी कीर्ति व्याप्त हो गई है और जगतके जो अधीश (नाथ)
हैं, वे सुन्दर पद्मप्रभेश जयवन्त हैं
[लोकाग्रस्थिताः ] लोकके अग्रमें स्थित और [नित्याः ] नित्य;
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त्रिभुवनशिखराग्रग्रावचूडामणिः स्यात
निवसति निजरूपे निश्चयेनैव देवः
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तान् सर्वान् सिद्धिसिद्धयै निरुपमविशदज्ञान
अव्याबाधान्नमामि त्रिभुवनतिलकान् सिद्धिसीमन्तिनीशान्
लोकमें प्रधान हैं और मुक्तिसुन्दरीके स्वामी हैं, उन सर्व सिद्धोंको सिद्धिकी प्राप्तिके हेतु
मैं नमन करता हूँ
पुनः वन्दन करता हूँ
[गुणगंभीराः ] गुणगंभीर;
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चंचज्ज्ञानबलप्रपंचितमहापंचास्तिकायस्थितीन्
अंचामो भवदुःखसंचयभिदे भक्ति क्रियाचंचवः
मदांध हाथीके दर्पका दलन करनेमें दक्ष (
समझाते हैं, विपुल अचंचल योगमें (
भेदनेके लिये पूजते हैं
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स्वहितनिरतं शुद्धं निर्वाणकारणकारणम्
निरुपममिदं वंद्यं श्रीचन्द्रकीर्तिमुनेर्मनः
[निःकांक्षभावसहिताः ] निःकांक्षभाव सहित;
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सनाथाः
परिग्रहके परित्यागस्वरूप जो निरंजन निज परमात्मतत्त्व उसकी भावनासे उत्पन्न होनेवाले
परम वीतराग सुखामृतके पानमें सन्मुख होनेसे ही निष्कांक्षभावना सहित;
निर्ग्रंथ और [निर्मोहाः ] निर्मोह;
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र्मोहाः च
(२) ज्ञान, दर्शन, चारित्र और परम तप नामकी चतुर्विध आराधनामें सदा अनुरक्त; (३)
बाह्य
प्रतिपक्ष ऐसे मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चारित्रका अभाव होनेके कारण निर्मोह;
आतुर बुद्धिवाले समस्त साधु होते हैं )
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वक्ष्यमाणपंचमाधिकारे परमपंचमभावनिरतपंचमगतिहेतुभूतशुद्धनिश्चयनयात्मपरमचारित्रं द्रष्टव्यं
भवतीति
[निश्चयनयस्य ] निश्चयनयके अभिप्रायसे [चरणम् ] चारित्र [एतदूर्ध्वम् ] इसके पश्चात्
[प्रवक्ष्यामि ] कहूँगा
परम चारित्र है; अब कहे जानेवाले पाँचवें अधिकारमें, परम पंचमभावमें लीन,
पंचमगतिके हेतुभूत, शुद्धनिश्चयनयात्मक परम चारित्र द्रष्टव्य (
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भवेद्विना येन सु
नमामि जैनं चरणं पुनः पुनः
तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार
परमागमकी निर्ग्रंथ मुनिराज श्री
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स्मरेभकुंभस्थलभेदनाय वै
विराजते माधवसेनसूरये
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न हि कारयिता ] उनका (मैं) कर्ता नहीं हूँ, कारयिता (
मैं कर्ता नहीं हूँ, कारयिता नहीं हूँ, [कर्तॄणाम् अनुमंता न एव ] कर्ताका अनुमोदक नहीं
हूँ
उनका (मैं) कर्ता नहीं हूँ, कारयिता नहीं हूँ, [कर्तॄणाम् अनुमंता न एव ] कर्ताका
अनुमोदक नहीं हूँ
नहीं हूँ, कारयिता नहीं हूँ; [कर्तॄणाम् अनुमंता न एव ] कर्ताका अनुमोदक नहीं हूँ
कर्ता नहीं हूँ, कारयिता नहीं हूँ, [कर्तॄणाम् अनुमंता न एव ] कर्ताका अनुमोदक नहीं हूँ
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न च मम शुद्धनिश्चयबलेन शुद्धजीवास्तिकायस्य
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यथाख्यात चारित्रवाले ऐसे मुझे समस्त संसारक्लेशके हेतु क्रोध