Niyamsar (Hindi). Gatha: 7-13.

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(आयुके कारण होनेवाली शरीरकी जीर्णदशा) वही जरा है (९) वात, पित्त और
कफ की विषमतासे उत्पन्न होनेवाली कलेवर (शरीर) सम्बन्धी पीड़ा वही रोग है
(१०) सादि - सनिधन, मूर्त इन्द्रियोंवाले, विजातीय नरनारकादि विभावव्यंजनपर्यायका जो
विनाश उसीको मृत्यु कहा गया है (११) अशुभ कर्मके विपाकसे जनित, शारीरिक
श्रमसे उत्पन्न होनेवाला, जो दुर्गंधके सम्बन्धके कारण बुरी गंधवाले जलबिन्दुओंका समूह
वह स्वेद है
(१२) अनिष्टकी प्राप्ति (अर्थात् कोई वस्तु अनिष्ट लगना) वह खेद है
(१३) सर्व जनताके (जनसमाजके) कानोंमें अमृत उँडेलनेवाले सहज चतुर कवित्वके
कारण, सहज (सुन्दर) शरीरके कारण, सहज (उत्तम) कुलके कारण, सहज बलके
कारण तथा सहज ऐश्वर्यके कारण आत्मामें जो अहङ्कारकी उत्पत्ति वह मद है
(१४) मनोज्ञ (मनोहरसुन्दर) वस्तुओंमें परम प्रीति वही रति है (१५) परम
समरसीभावकी भावना रहित जीवोंको (परम समताभावके अनुभव रहित जीवोंको) कभी
पूर्वकालमें न देखा हुआ देखनेके कारण होनेवाला भाव वह विस्मय है
(१६) केवल
शुभ कर्मसे देवपर्यायमें जो उत्पत्ति, केवल अशुभ कर्मसे नारकपर्यायमें जो
उत्पत्ति, मायासे तिर्यञ्चपर्यायमें जो उत्पत्ति और शुभाशुभ मिश्र कर्मसे मनुष्यपर्यायमें
जो उत्पत्ति, सो जन्म है
(१७) दर्शनावरणीय कर्मके उदयसे जिसमें ज्ञानज्योति अस्त
हो जाती है वही निद्रा है (१८) इष्टके वियोगमें विक्लवभाव (घबराहट) ही
उद्वेग है इन (अठारह) महा दोषोंसे तीन लोक व्याप्त हैं वीतराग सर्वज्ञ इन दोषोंसे
विमुक्त हैं
प्रशस्तमितरदप्रशस्तमेव तिर्यङ्मानवानां वयःकृतदेहविकार एव जरा वातपित्तश्लेष्मणां
वैषम्यसंजातकलेवरविपीडैव रुजा सादिसनिधनमूर्तेन्द्रियविजातीयनरनारकादिविभावव्यंजन-
पर्यायविनाश एव मृत्युरित्युक्त : अशुभकर्मविपाकजनितशरीरायाससमुपजातपूतिगंधसम्बन्ध-
वासनावासितवार्बिन्दुसंदोहः स्वेदः अनिष्टलाभः खेदः सहजचतुरकवित्वनिखिलजनता-
कर्णामृतस्यंदिसहजशरीरकुलबलैश्वर्यैरात्माहंकारजननो मदः मनोज्ञेषु वस्तुषु परमा प्रीतिरेव
रतिः परमसमरसीभावभावनापरित्यक्तानां क्वचिदपूर्वदर्शनाद्विस्मयः केवलेन शुभकर्मणा,
केवलेनाशुभकर्मणा, मायया, शुभाशुभमिश्रेण देवनारकतिर्यङ्मनुष्यपर्यायेषूत्पत्तिर्जन्म
दर्शनावरणीयकर्मोदयेन प्रत्यस्तमितज्ञानज्योतिरेव निद्रा इष्टवियोगेषु विक्लवभाव एवोद्वेगः
एभिर्महादोषैर्व्याप्तास्त्रयो लोकाः एतैर्विनिर्मुक्तो वीतरागसर्वज्ञ इति

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[वीतराग सर्वज्ञको द्रव्य-भाव घातिकर्मोंका अभाव होनेसे उन्हें भय, रोष, राग,
मोह, शुभाशुभ चिन्ता, खेद, मद, रति, विस्मय, निद्रा तथा उद्वेग कहाँसे होंगे ?
और उनको समुद्र जितने सातावेदनीयकर्मोदयके मध्य बिन्दु जितना
असातावेदनीयकर्मोदय वर्तता है वह, मोहनीयकर्मके बिलकुल अभावमें, लेशमात्र भी क्षुधा
या तृषाका निमित्त कहाँसे होगा ? नहीं होगा; क्योंकि चाहे जितना असातावेदनीय कर्म हो
तथापि मोहनीयकर्मके अभावमें दुःखकी वेदना नहीं हो सकती; तो फि र यहाँ तो जहाँ
अनन्तगुने सातावेदनीयकर्मके मध्य अल्पमात्र (
अविद्यमान जैसा) असातावेदनीयकर्म
वर्तता है वहाँ क्षुधातृषाकी वेदना कहाँसे होगी ? क्षुधातृषाके सद्भावमें अनन्त सुख, अनन्त
वीर्य आदि कहाँसे सम्भव होंगे ? इसप्रकार वीतराग सर्वज्ञको क्षुधा (तथा तृषा) न होनेसे
उन्हें कवलाहार भी नहीं होता
कवलाहारके बिना भी उनके (अन्य मनुष्योंको असम्भवित
ऐसे,) सुगन्धित, सुरसयुक्त, सप्तधातुरहित परमौदारिक शरीररूप नोकर्माहारके योग्य, सूक्ष्म
पुद्गल प्रतिक्षण आते हैं और इसलिये शरीरस्थिति रहती है
और पवित्रताका तथा पुण्यका ऐसा सम्बन्ध होता है अर्थात् घातिकर्मोंके अभावको
और शेष रहे अघाति कर्मोंका ऐसा सहज सम्बन्ध होता है कि वीतराग सर्वज्ञको उन शेष
रहे अघातिकर्मोंके फलरूप परमौदारिक शरीरमें जरा, रोग तथा स्वेद नहीं होते
और केवली भगवानको भवान्तरमें उत्पत्तिके निमित्तभूत शुभाशुभ भाव न होनेसे उन्हें
जन्म नहीं होता; और जिस देहवियोगके पश्चात् भवान्तरप्राप्तिरूप जन्म नहीं होता उस
देहवियोगको मरण नहीं कहा जाता
इस प्रकार वीतराग सर्वज्ञ अठारह दोष रहित हैं ]
इसीप्रकार (अन्य शास्त्रमें गाथा द्वारा) कहा है किः
‘‘[गाथार्थः] वह धर्म है जहाँ दया है, वह तप है जहाँ विषयोंका निग्रह है,
वह देव है जो अठारह दोष रहित है; इस सम्बन्धमें संशय नहीं है ’’
तथा चोक्त म्
‘‘सो धम्मो जत्थ दया सो वि तवो विसयणिग्गहो जत्थ
दसअठ्ठदोसरहिओ सो देवो णत्थि संदेहो ।।’’

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और श्री विद्यानन्दस्वामीने (श्लोक द्वारा) कहा है किः
‘‘[श्लोेकार्थ :] इष्ट फलकी सिद्धिका उपाय सुबोध है (अर्थात् मुक्तिकी
प्राप्तिका उपाय सम्यग्ज्ञान है ), सुबोध सुशास्त्रसे होता है, सुशास्त्रकी उत्पत्ति आप्तसे होती
है; इसलिये उनके प्रसादके कारण आप्त पुरुष बुधजनों द्वारा पूजनेयोग्य हैं (अर्थात् मुक्ति
सर्वज्ञदेवकी कृपाका फल होनेसे सर्वज्ञदेव ज्ञानियों द्वारा पूजनीय हैं ), क्योंकि किये हुए
उपकारको साधु पुरुष (सज्जन) भूलते नहीं हैं
’’
और (छठवीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक द्वारा सर्वज्ञ भगवान श्री नेमिनाथकी स्तुति करते हैं ):
[श्लोेकार्थ :] जो सौ इन्द्रोंसे पूज्य हैं, जिनका सद्बोधरूपी (सम्यग्ज्ञानरूपी)
राज्य विशाल है, कामविजयी (लौकांतिक) देवोंके जो नाथ हैं, दुष्ट पापोंके समूहका
जिन्होंने नाश किया है, श्री कृष्ण जिनके चरणोंमें नमें हैं, भव्यकमलके जो सूर्य हैं (अर्थात्
भव्योंरूपी कमलोंको विकसित करनेमें जो सूर्य समान हैं ), वे आनन्दभूमि नेमिनाथ
(
आनन्दके स्थानरूप नेमिनाथ भगवान) हमें शाश्वत सुख प्रदान करें
१३
तथा चोक्तं श्रीविद्यानंदस्वामिभिः
(मालिनी)
‘‘अभिमतफलसिद्धेरभ्युपायः सुबोधः
स च भवति सुशास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात
इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादात्प्रबुद्धैः
न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति
।।’’
तथा हि
(मालिनी)
शतमखशतपूज्यः प्राज्यसद्बोधराज्यः
स्मरतिरसुरनाथः प्रास्तदुष्टाघयूथः
पदनतवनमाली भव्यपद्मांशुमाली
दिशतु शमनिशं नो नेमिरानन्दभूमिः
।।१३।।

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गाथा : ७ अन्वयार्थ :[निःशेषदोषरहितः] (ऐसे) निःशेष दोषसे जो रहित है
और [केवलज्ञानादिपरमविभवयुतः ] केवलज्ञानादि परम वैभवसे जो संयुक्त है, [सः ] वह
[परमात्मा उच्यते ] परमात्मा कहलाता है; [तद्विपरीतः ] उससे विपरीत [परमात्मा न ] वह
परमात्मा नहीं है
टीका :यह, तीर्थंकर परमदेवके स्वरूपका कथन है
आत्माके गुणोंका घात करनेवाले घातिकर्मज्ञानावरणीयकर्म, दर्शनावरणीयकर्म,
अन्तरायकर्म तथा मोहनीयकर्महैं; उनका निरवशेषरूपसे प्रध्वंस कर देनेके कारण
(कुछ भी शेष रखे बिना नाश कर देनेसे) जो ‘निःशेषदोषरहित’ हैं अथवा पूर्व सूत्रमें
(छठवीं गाथामें) कहे हुए अठारह महादोषोंको निर्मूल कर दिया है इसलिये जिन्हें
‘निःशेषदोषरहित’ कहा गया है और जो ‘सकलविमल (
सर्वथा निर्मल) केवलज्ञान-
केवलदर्शन, परमवीतरागात्मक आनन्द इत्यादि अनेक वैभवसे समृद्ध’ हैं, ऐसे जो
णिस्सेसदोसरहिओ केवलणाणाइपरमविभवजुदो
सो परमप्पा उच्चइ तव्विवरीओ ण परमप्पा ।।।।
निःशेषदोषरहितः केवलज्ञानादिपरमविभवयुतः
स परमात्मोच्यते तद्विपरीतो न परमात्मा ।।।।
तीर्थंकरपरमदेवस्वरूपाख्यानमेतत
आत्मगुणघातकानि घातिकर्माणि ज्ञानदर्शनावरणान्तरायमोहनीयकर्माणि, तेषां
निरवशेषेण प्रध्वंसनान्निःशेषदोषरहितः अथवा पूर्वसूत्रोपात्ताष्टादशमहादोषनिर्मूलनान्निः-
शेषदोषनिर्मुक्त इत्युक्त :
सकलविमलकेवलबोधकेवलद्रष्टिपरमवीतरागात्मकानन्दाद्यनेक-
विभवसमृद्धः यस्त्वेवंविधः त्रिकालनिरावरणनित्यानन्दैकस्वरूपनिजकारणपरमात्मभावनोत्पन्न-
सब दोष रहित, अनन्तज्ञानदृगादि परम विभवमयी
परमात्म है वह, किन्तु तद्विपरीत परमात्मा नहीं ।।।।

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परमात्माअर्थात् त्रिकालनिरावरण, नित्यानन्दएकस्वरूप निज कारणपरमात्माकी
भावनासे उत्पन्न कार्यपरमात्मा, वही भगवान अर्हत् परमेश्वर हैं इन भगवान परमेश्वरके
गुणोंसे विपरीत गुणोंवाले समस्त (देवाभास), भले देवत्वके अभिमानसे दग्ध हों तथापि,
संसारी हैं
ऐसा (इस गाथाका) अर्थ है
इसीप्रकार (भगवान) श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवने (प्रवचनसारकी गाथामें) कहा
है किः
‘‘[गाथार्थः] तेज (भामण्डल), दर्शन (केवलदर्शन), ज्ञान (केवलज्ञान),
ऋद्धि (समवसरणादि विभूति), सौख्य (अनन्त अतीन्द्रिय सुख), (इन्द्रादिक भी
दासरूपसे वर्ते ऐसा) ऐश्वर्य, और (तीन लोकके अधिपतियोंके वल्लभ होनेरूप)
त्रिभुवनप्रधानवल्लभपना
ऐसा जिनका माहात्म्य है, वे अर्हंत हैं ’’
और इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (आत्मख्यातिके २४वें
श्लोकमेंकलशमें) कहा है कि :
कार्यपरमात्मा स एव भगवान् अर्हन् परमेश्वरः अस्य भगवतः परमेश्वरस्य
विपरीतगुणात्मकाः सर्वे देवाभिमानदग्धा अपि संसारिण इत्यर्थः
तथा चोक्तं श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवैः
‘‘तेजो दिट्ठी णाणं इड्ढी सोक्खं तहेव ईसरियं
तिहुवणपहाणदइयं माहप्पं जस्स सो अरिहो ।।’’
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः
१-नित्यानन्द-एकस्वरूप=नित्य आनन्द ही जिसका एक स्वरूप है ऐसा [कारणपरमात्मा त्रिकाल
आवरणरहित है और नित्य आनन्द ही उसका एक स्वरूप है प्रत्येक आत्मा शक्ति-अपेक्षासे निरावरण
एवं आनन्दमय ही है इसलिये प्रत्येक आत्मा कारणपरमात्मा है; जो कारणपरमात्माको भाता है
उसीका आश्रय करता है, वह व्यक्ति - अपेक्षासे निरावरण और आनन्दमय होता है अर्थात् कार्यपरमात्मा
होता है शक्तिमेंसे व्यक्ति होती है, इसलिये शक्ति कारण है और व्यक्ति कार्य है ऐसा होनेसे
शक्तिरूप परमात्माको कारणपरमात्मा कहा जाता है और व्यक्त परमात्माको कार्यपरमात्मा कहा जाता
है
]
२-देखो, श्री प्रवचनसार, श्री जयसेनाचार्यकृत ‘तात्पर्यवृत्ति’ टीका, पृष्ठ ११९

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‘‘[श्लोेकार्थ :] जो कान्तिसे दशों दिशाओंको धोते हैंनिर्मल करते हैं, जो तेज
द्वारा अत्यन्त तेजस्वी सूर्यादिकके तेजको ढँक देते हैं, जो रूपसे जनोंके मन हर लेते हैं, जो
दिव्यध्वनि द्वारा (भव्योंके) कानोंमें मानों कि साक्षात् अमृत बरसाते हों ऐसा सुख उत्पन्न करते
हैं तथा जो एक हजार और आठ लक्षणोंको धारण करते हैं, वे तीर्थङ्करसूरि वंद्य हैं
’’
और (सातवीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक द्वारा श्री नेमिनाथ तीर्थंकरकी स्तुति करते हैं ) :
[श्लोेकार्थ :] जिसप्रकार कमलके भीतर भ्रमर समा जाता है उसीप्रकार जिनके
ज्ञानकमलमें यह जगत तथा अजगत (लोक तथा अलोक) सदा स्पष्टरूपसे समा जाते
हैंज्ञात होते हैं, उन नेमिनाथ तीर्थंकरभगवानको मैं सचमुच पूजता हूँ कि जिससे ऊँ ची
तरंगोंवाले समुद्रको भी (दुस्तर संसारसमुद्रको भी) दो भुजाओंसे पार कर लूँ १४
(शार्दूलविक्रीडित)
‘‘कान्त्यैव स्नपयन्ति ये दशदिशो धाम्ना निरुन्धन्ति ये
धामोद्दाममहस्विनां जनमनो मुष्णन्ति रूपेण ये
दिव्येन ध्वनिना सुखं श्रवणयोः साक्षात्क्षरन्तोऽमृतं
वन्द्यास्तेऽष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वराः सूरयः
।।’’
तथा हि
(मालिनी)
जगदिदमजगच्च ज्ञाननीरेरुहान्त-
र्भ्रमरवदवभाति प्रस्फु टं यस्य नित्यम्
तमपि किल यजेऽहं नेमितीर्थंकरेशं
जलनिधिमपि दोर्भ्यामुत्तराम्यूर्ध्ववीचिम्
।।१४।।
तस्स मुहुग्गदवयणं पुव्वावरदोसविरहियं सुद्धं
आगममिदि परिकहियं तेण दु कहिया हवंति तच्चत्था ।।।।
परमात्मवाणी शुद्ध, पूर्वापर रहित विरोध है
आगम वही, देती वही तत्त्वार्थका उपदेश है ।।।।

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तस्य मुखोद्गतवचनं पूर्वापरदोषविरहितं शुद्धम्
आगममिति परिकथितं तेन तु कथिता भवन्ति तत्त्वार्थाः ।।।।
परमागमस्वरूपाख्यानमेतत
तस्य खलु परमेश्वरस्य वदनवनजविनिर्गतचतुरवचनरचनाप्रपञ्चः पूर्वापरदोषरहितः,
तस्य भगवतो रागाभावात् पापसूत्रवद्धिंसादिपापक्रियाभावाच्छुद्धः परमागम इति परिकथितः
तेन परमागमामृतेन भव्यैः श्रवणाञ्जलिपुटपेयेन मुक्ति सुन्दरीमुखदर्पणेन संसरणवारिनिधिमहा-
वर्तनिमग्नसमस्तभव्यजनतादत्तहस्तावलम्बनेन सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिना अक्षुण्ण-
मोक्षप्रासादप्रथमसोपानेन स्मरभोगसमुद्भूताप्रशस्तरागाङ्गारैः पच्यमानसमस्तदीनजनतामहत्क्लेश-
गाथा : ८ अन्वयार्थ :[तस्य मुखोद्गतवचनं ] उनके मुखसे निकली हुई
वाणी जो कि [पूर्वापरदोषविरहितं शुद्धम् ] पूर्वापर दोष रहित (आगे पीछे विरोध रहित)
और शुद्ध है, उसे [आगमम् इति परिकथितं ] आगम कहा है; [तेन तु ] और उसने
[तत्त्वार्थाः ] तत्त्वार्थ [कथिताः भवन्ति ] कहे हैं
टीका :यह, परमागमके स्वरूपका कथन है
उन (पूर्वोक्त) परमेश्वरके मुखकमलसे निकली हुई चतुर वचनरचनाका विस्तार
जो कि ‘पूर्वापर दोष रहित’ है और उन भगवानको रागका अभाव होनेसे
पापसूत्रकी भाँति हिंसादि पापक्रियाशून्य होनेसे ‘शुद्ध’ है वहपरमागम कहा गया
है । उस परमागमनेकि जो (परमागम) भव्योंको कर्णरूपी अञ्जलिपुटसे पीनेयोग्य
अमृत है, जो मुक्तिसुन्दरीके मुखका दर्पण है (अर्थात् जो परमागम मुक्तिका स्वरूप
दरशाता है ), जो संसारसमुद्रके महा भँवरमें निमग्न समस्त भव्यजनोंको हस्तावलम्बन
(हाथका सहारा) देता है, जो सहज वैराग्यरूपी महलके शिखरका
शिखामणि है,
जो कभी न देखे हुए (अनजाने, अननुभूत, जिस पर स्वयं पहले कभी नहीं गया
है ऐसे) मोक्ष-महलकी प्रथम सीढ़ी है और जो कामभोगसे उत्पन्न होनेवाले अप्रशस्त
शिखामणि = शिखरकी चोटीके ऊ परका रत्न; चूड़ामणि; कलगीका रत्न (परमागम
सहज वैराग्यरूपी महलके शिखामणि समान है, क्योंकि परमागमका तात्पर्य सहज वैराग्यकी उत्कृष्टता
है
)

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निर्नाशनसमर्थसजलजलदेन कथिताः खलु सप्त तत्त्वानि नव पदार्थाश्चेति
तथा चोक्तं श्रीसमन्तभद्रस्वामिभिः
(आर्या)
‘‘अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात
निःसन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ।।’’
(हरिणी)
ललितललितं शुद्धं निर्वाणकारणकारणं
निखिलभविनामेतत्कर्णामृतं जिनसद्वचः
भवपरिभवारण्यज्वालित्विषां प्रशमे जलं
प्रतिदिनमहं वन्दे वन्द्यं सदा जिनयोगिभिः
।।१५।।
रागरूप अंगारों द्वारा सिकते हुए समस्त दीन जनोंके महाक्लेशका नाश करनेमें समर्थ
सजल मेघ (
पानीसे भरा हुआ बादल) है, उसनेवास्तवमें सात तत्त्व तथा नव
पदार्थ कहे हैं
इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्री समन्तभद्रस्वामीने (रत्नकरण्डश्रावकाचारमें ४२वें
श्लोक द्वारा) कहा है किः
‘‘[श्लोेकार्थ :] जो न्यूनता बिना, अधिकता बिना, विपरीतता बिना यथातथ
वस्तुस्वरूपको निःसन्देहरूपसे जानता है उसे आगमियों ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) कहते
हैं ।’’
[अब, आठवीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक द्वारा
जिनवाणीकोजिनागमको वन्दन करते हैं : ]
[श्लोेकार्थ :] जो (जिनवचन) ललितमें ललित हैं, जो शुद्ध हैं, जो निर्वाणके
कारणका कारण हैं, जो सर्व भव्योंके कर्णोंको अमृत हैं, जो भवभवरूपी अरण्यके उग्र
दावानलको शांत करनेमें जल हैं और जो जैन योगियों द्वारा सदा वंद्य हैं, ऐसे इन
जिनभगवानके सद्वचनोंको (सम्यक् जिनागमको) मैं प्रतिदिन वन्दन करता हूँ
१५
१-आगमियों = आगमवन्तों; आगमके ज्ञाताओं ।
२-ललितमें ललित = अत्यन्त प्रसन्नता उत्पन्न करें ऐसे; अतिशय मनोहर ।

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जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं
तच्चत्था इदि भणिदा णाणागुणपज्जएहिं संजुत्ता ।।9।।
जीवाः पुद्गलकाया धर्माधर्मौ च काल आकाशम्
तत्त्वार्था इति भणिताः नानागुणपर्यायैः संयुक्ताः ।।9।।
अत्र षण्णां द्रव्याणां पृथक्पृथक् नामधेयमुक्त म्
स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रमनोवाक्कायायुरुच्छ्वासनिःश्वासाभिधानैर्दशभिः प्राणैः जीवति
जीविष्यति जीवितपूर्वो वा जीवः संग्रहनयोऽयमुक्त : निश्चयेन भावप्राणधारणाज्जीवः
व्यवहारेण द्रव्यप्राणधारणाज्जीवः शुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञानादिशुद्धगुणानामाधारभूतत्वा-
त्कार्यशुद्धजीवः अशुद्धसद्भूतव्यवहारेण मतिज्ञानादिविभावगुणानामाधारभूतत्वादशुद्धजीवः
गाथा : ९ अन्वयार्थ :[जीवाः ] जीव, [पुद्गलकायाः ] पुद्गलकाय,
[धर्माधर्मौ ] धर्म, अधर्म, [कालः ] काल, [च ] और [आकाशम् ] आकाश
[तत्त्वार्थाः इति भणिताः ] यह तत्त्वार्थ कहे हैं, जो कि [नानागुणपर्यायैः संयुक्ताः ] विविध
गुणपर्यायोंसे संयुक्त हैं ।
टीका :यहाँ (इस गाथामें), छह द्रव्योंके पृथक्-पृथक् नाम कहे गये हैं
स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र, मन, वचन, काय, आयु और श्वासोच्छवास नामक
दस प्राणोंसे (संसारदशामें) जो जीता है, जियेगा और पूर्वकालमें जीता था वह ‘जीव’ है
यह संग्रहनय कहा निश्चयसे भावप्राण धारण करनेके कारण ‘जीव’ है व्यवहारसे
द्रव्यप्राण धारण करनेके कारण ‘जीव’ है शुद्ध-सद्भूत-व्यवहारसे केवलज्ञानादि
शुद्धगुणोंका आधार होनेके कारण ‘कार्यशुद्ध जीव’ है अशुद्ध-सद्भूत-व्यवहारसे
मतिज्ञानादि विभावगुणोंका आधार होनेके कारण ‘अशुद्ध जीव’ है शुद्धनिश्चयसे
सहजज्ञानादि परमस्वभावगुणोंका आधार होनेके कारण ‘कारणशुद्ध जीव’ है यह (जीव)
षट् द्रव्य पुद्गल, जीव, धर्म, अधर्म, कालाकाश हैं
ये विविध गुणपर्यायसे संयुक्त षट् तत्त्वार्थ हैं ।।।।
प्रत्येक जीव शक्ति-अपेक्षासे शुद्ध है अर्थात् सहजज्ञानादिक सहित है इसलिये प्रत्येक जीव ‘कारणशुद्ध

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शुद्धनिश्चयेन सहजज्ञानादिपरमस्वभावगुणानामाधारभूतत्वात्कारणशुद्धजीवः अयं चेतनः
अस्य चेतनगुणाः अयममूर्तः अस्यामूर्तगुणाः अयं शुद्धः अस्य शुद्धगुणाः
अयमशुद्धः अस्याशुद्धगुणाः पर्यायश्च तथा गलनपूरणस्वभावसनाथः पुद्गलः
श्वेतादिवर्णाधारो मूर्तः अस्य हि मूर्तगुणाः अयमचेतनः अस्याचेतनगुणाः
स्वभावविभावगतिक्रियापरिणतानां जीवपुद्गलानां स्वभावविभावगतिहेतुः धर्मः
स्वभावविभावस्थितिक्रियापरिणतानां तेषां स्थितिहेतुरधर्मः पंचानामवकाशदान-
चेतन है; इसके(जीवके ) चेतन गुण हैं यह अमूर्त है; इसके अमूर्त गुण हैं यह शुद्ध
है; इसके शुद्ध गुण हैं यह अशुद्ध है; इसके अशुद्ध गुण हैं पर्याय भी इसीप्रकार है
और, जो गलन - पूरणस्वभाव सहित है (अर्थात् पृथक् होने और एकत्रित होनेके
स्वभाववाला है ) वह पुद्गल है यह (पुद्गल) श्वेतादि वर्णोंके आधारभूत मूर्त है; इसके
मूर्त गुण हैं यह अचेतन है; इसके अचेतन गुण हैं
स्वभावगतिक्रियारूप और विभावगतिक्रियारूप परिणत जीव - पुद्गलोंको
स्वभावगतिका और विभावगतिका निमित्त सो धर्म है
स्वभावस्थितिक्रियारूप और विभावस्थितिक्रियारूप परिणत जीव-पुद्गलोंको
जीव’ है; जो कारणशुद्ध जीवको भाता हैउसीका आश्रय करता है, वह व्यक्ति-अपेक्षासे शुद्ध
(केवलज्ञानादि सहित) होता है अर्थात् ‘कार्यशुद्ध जीव’ होता है शक्तिमेंसे व्यक्ति होती है,
इसलिये शक्ति कारण है और व्यक्ति कार्य है ऐसा होनेसे शक्तिरूप शुद्धतावाले जीवको कारणशुद्ध
जीव कहा जाता है और व्यक्त शुद्धतावाले जीवको कार्यशुद्ध जीव कहा जाता है [कारणशुद्ध
अर्थात् कारण-अपेक्षासे शुद्ध अर्थात् शक्ति-अपेक्षासे शुद्ध कार्यशुद्ध अर्थात् कार्य-अपेक्षासे शुद्ध
अर्थात् व्यक्ति-अपेक्षासे शुद्ध ]
१ चौदहवें गुणस्थानके अन्तमें जीव ऊ र्ध्वगमनस्वभावसे लोकान्तमें जाता है वह जीवकी स्वभावगतिक्रिया
है और संसारावस्थामें कर्मके निमित्तसे गमन करता है वह जीवकी विभावगतिक्रिया है एक पृथक्
परमाणु गति करता है वह पुद्गलकी स्वभावगतिक्रिया है और पुद्गलस्कन्ध गमन करता है वह पुद्गलकी
(स्कन्धके प्रत्येक परमाणुकी) विभावगतिक्रिया है
इस स्वाभाविक तथा वैभाविक गतिक्रियामें धर्मद्रव्य
निमित्तमात्र है
२- सिद्धदशामें जीव स्थिर रहता है वह जीवकी स्वाभाविक स्थितिक्रिया है और संसारदशामें स्थिर रहता है
वह जीवकी वैभाविक स्थितिक्रिया है अकेला परमाणु स्थिर रहता है वह पुद्गलकी स्वाभाविक
स्थितिक्रिया है और स्कन्ध स्थिर रहता है वह पुद्गलकी (स्कन्धके प्रत्येक परमाणुकी) वैभाविक
स्थितिक्रिया है
इन जीव-पुद्गलकी स्वाभाविक तथा वैभाविक स्थितिक्रियामें अधर्मद्रव्य निमित्तमात्र है

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लक्षणमाकाशम् पंचानां वर्तनाहेतुः कालः चतुर्णाममूर्तानां शुद्धगुणाः, पर्यायाश्चैतेषां
तथाविधाश्च
(मालिनी)
इति जिनपतिमार्गाम्भोधिमध्यस्थरत्नं
द्युतिपटलजटालं तद्धि षड्द्रव्यजातम्
हृदि सुनिशितबुद्धिर्भूषणार्थं विधत्ते
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः
।।१६।।
जीवो उवओगमओ उवओगो णाणदंसणो होइ
णाणुवओगो दुविहो सहावणाणं विहावणाणं ति ।।१०।।
स्थितिका (स्वभावस्थितिका तथा विभावस्थितिका) निमित्त सो अधर्म है
(शेष) पाँच द्रव्योंको अवकाशदान (अवकाश देना) जिसका लक्षण है वह
आकाश है
(शेष) पाँच द्रव्योंको वर्तनाका निमित्त वह काल है
(जीवके अतिरिक्त) चार अमूर्त द्रव्योंके शुद्ध गुण हैं; उनकी पर्यायें भी वैसी (शुद्ध
ही) हैं
[अब, नवमी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक द्वारा छह
द्रव्यकी श्रद्धाके फलका वर्णन करते हैं : ]
[श्लोेकार्थ :] इसप्रकार उस षट्द्रव्यसमूहरूपी रत्नकोजो कि (रत्न)
तेजके अम्बारके कारण किरणोंवाला है और जो जिनपतिके मार्गरूपी समुद्रके मध्यमें स्थित
है उसे
जो तीक्ष्ण बुद्धिवाला पुरुष हृदयमें भूषणार्थ (शोभाके लिये) धारण करता है,
वह पुरुष परमश्रीरूपी कामिनीका वल्लभ होता है (अर्थात् जो पुरुष अन्तरंगमें छह द्रव्यकी
यथार्थ श्रद्धा करता है, वह मुक्तिलक्ष्मीका वरण करता है )
१६
उपयोगमय है जीव, वह उपयोग दर्शन-ज्ञान है
ज्ञानोपयोग स्वभाव और विभाव द्विविध विधान है ।।१०।।

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जीव उपयोगमयः उपयोगो ज्ञानदर्शनं भवति
ज्ञानोपयोगो द्विविधः स्वभावज्ञानं विभावज्ञानमिति ।।१०।।
अत्रोपयोगलक्षणमुक्त म्
आत्मनश्चैतन्यानुवर्ती परिणामः स उपयोगः अयं धर्मः जीवो धर्मी अनयोः
सम्बन्धः प्रदीपप्रकाशवत ज्ञानदर्शनविकल्पेनासौ द्विविधः अत्र ज्ञानोपयोगोऽपि स्वभाव-
विभावभेदाद् द्विविधो भवति इह हि स्वभावज्ञानम् अमूर्तम् अव्याबाधम् अतीन्द्रियम्
अविनश्वरम् तच्च कार्यकारणरूपेण द्विविधं भवति कार्यं तावत् सकलविमलकेवलज्ञानम्
तस्य कारणं परमपारिणामिकभावस्थितत्रिकालनिरुपाधिरूपं सहजज्ञानं स्यात केवलं विभाव-
रूपाणि ज्ञानानि त्रीणि कुमतिकुश्रुतविभङ्गभाञ्जि भवन्ति एतेषाम् उपयोगभेदानां ज्ञानानां
भेदो वक्ष्यमाणसूत्रयोर्द्वयोर्बोद्धव्य इति
गाथा : १० अन्वयार्थ :[जीवः ] जीव [उपयोगमयः ] उपयोगमय है [उपयोगः ]
उपयोग [ज्ञानदर्शनं भवति ] ज्ञान और दर्शन है [ज्ञानोपयोगः द्विविधः ] ज्ञानोपयोग दो
प्रकारका है : [स्वभावज्ञानं ] स्वभावज्ञान और [विभावज्ञानम् इति ] विभावज्ञान
टीका :यहाँ (इस गाथामें) उपयोगका लक्षण कहा है
आत्माका चैतन्य-अनुवर्ती (चैतन्यका अनुसरण करके वर्तनेवाला) परिणाम सो
उपयोग है उपयोग धर्म है, जीव धर्मी है दीपक और प्रकाश जैसा उनका सम्बन्ध है
ज्ञान और दर्शनके भेदसे यह उपयोग दो प्रकारका है (अर्थात् उपयोगके दो प्रकार हैं :
ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग)
इनमें ज्ञानोपयोग भी स्वभाव और विभावके भेदके कारण
दो प्रकारका है (अर्थात् ज्ञानोपयोगके भी दो प्रकार हैं : स्वभावज्ञानोपयोग और
विभावज्ञानोपयोग)
उनमें स्वभावज्ञान अमूर्त, अव्याबाध, अतीन्द्रिय और अविनाशी है; वह
भी कार्य और कारणरूपसे दो प्रकारका है (अर्थात् स्वभावज्ञानके भी दो प्रकार हैं :
कार्यस्वभावज्ञान और कारणस्वभावज्ञान)
कार्य तो सकलविमल (सर्वथा निर्मल)
केवलज्ञान है और उसका कारण परम पारिणामिकभावसे स्थित त्रिकालनिरुपाधिक
सहजज्ञान है
केवल विभावरूप ज्ञान तीन हैं : कुमति, कुश्रुत और विभङ्ग
इस उपयोगके भेदरूप ज्ञानके भेद, अब कहे जानेवाले दो सूत्रों द्वारा (११ और
१२वीं गाथा द्वारा) जानना
[भावार्थःचैतन्यानुविधायी परिणाम वह उपयोग है उपयोग दो प्रकारका है :

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(मालिनी)
अथ सकलजिनोक्त ज्ञानभेदं प्रबुद्ध्वा
परिहृतपरभावः स्वस्वरूपे स्थितो यः
सपदि विशति यत्तच्चिच्चमत्कारमात्रं
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः
।।१७।।
केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावणाणं ति
सण्णाणिदरवियप्पे विहावणाणं हवे दुविहं ।।११।।
(१) ज्ञानोपयोग और (२) दर्शनोपयोग ज्ञानोपयोगके भी दो प्रकार हैं : (१) स्वभाव-
ज्ञानोपयोग और (२) विभावज्ञानोपयोग स्वभावज्ञानोपयोग भी दो प्रकारका है : (१) कार्य-
स्वभावज्ञानोपयोग (अर्थात् केवलज्ञानोपयोग) और (२) कारणस्वभाव-ज्ञानोपयोग (अर्थात्
सहजज्ञानोपयोग) विभावज्ञानोपयोग भी दो प्रकारका है : (१) सम्यक् विभावज्ञानोपयोग
और (२) मिथ्या विभावज्ञानोपयोग (अर्थात् केवल विभावज्ञानोपयोग) सम्यक्
विभावज्ञानोपयोगके चार भेद (सुमतिज्ञानोपयोग, सुश्रुतज्ञानोपयोग, सुअवधिज्ञानोपयोग और
मनःपर्ययज्ञानोपयोग) अब अगली दो गाथाओंमें कहेंगे
मिथ्या विभावज्ञानोपयोगके अर्थात्
केवल विभावज्ञानोपयोगके तीन भेद हैं : (१) कुमतिज्ञानोपयोग, (२) कुश्रुतज्ञानोपयोग और
(३) विभङ्गज्ञानोपयोग अर्थात् कुअवधिज्ञानोपयोग]
[अब दसवीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ :] जिनेन्द्रकथित समस्त ज्ञानके भेदोंको जानकर जो पुरुष
परभावोंका परिहार करके निज स्वरूपमें स्थित रहता हुआ शीघ्र चैतन्यचमत्कारमात्र तत्त्वमें
प्रविष्ट हो जाता है
गहरा उत्तर जाता है, वह पुरुष परमश्रीरूपी कामिनीका वल्लभ होता
है (अर्थात् मुक्तिसुन्दरीका पति होता है ) १७
सहजज्ञानोपयोग परमपारिणामिकभावसे स्थित है तथा त्रिकाल उपाधि रहित है; उसमेंसे (सर्वको
जाननेवाला) केवलज्ञानोपयोग प्रगट होता है
इसलिये सहजज्ञानोपयोग कारण है और केवलज्ञानोपयोग
कार्य है । ऐसा होनेसे सहजज्ञानोपयोगको कारणस्वभावज्ञानोपयोग कहा जाता है और केवलज्ञानोपयोगको
कार्यस्वभावज्ञानोपयोग कहा जाता है
इन्द्रियरहित, असहाय, केवल वह स्वभाविक ज्ञान है
दो विधि विभाविकज्ञानसम्यक् और मिथ्याज्ञान है ।।११।।

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सण्णाणं चउभेयं मदिसुदओही तहेव मणपज्जं
अण्णाणं तिवियप्पं मदियाई भेददो चेव ।।१२।।
केवलमिन्द्रियरहितं असहायं तत्स्वभावज्ञानमिति
संज्ञानेतरविकल्पे विभावज्ञानं भवेद् द्विविधम् ।।११।।
संज्ञानं चतुर्भेदं मतिश्रुतावधयस्तथैव मनःपर्ययम्
अज्ञानं त्रिविकल्पं मत्यादेर्भेदतश्चैव ।।१२।।
अत्र च ज्ञानभेदमुक्त म्
निरुपाधिस्वरूपत्वात् केवलम्, निरावरणस्वरूपत्वात् क्रमकरणव्यवधानापोढम्,
अप्रतिवस्तुव्यापकत्वात् असहायम्, तत्कार्यस्वभावज्ञानं भवति कारणज्ञानमपि ताद्रशं
गाथा : ११-१२ अन्वयार्थ :[केवलम् ] जो (ज्ञान) केवल,
[इन्द्रियरहितम् ] इन्द्रियरहित और [असहायं ] असहाय है, [तत् ] वह [स्वभावज्ञानम्
इति ]
स्वभावज्ञान है; [संज्ञानेतरविकल्पे ] सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञानरूप भेद किये जाने
पर, [विभावज्ञानं ] विभावज्ञान [द्विविधं भवेत् ] दो प्रकारका है
[संज्ञानं ] सम्यग्ज्ञान [चतुर्भेदं ] चार भेदवाला है : [मतिश्रुतावधयः तथा एव
मनःपर्ययम् ] मति, श्रुत, अवधि तथा मनःपर्यय; [अज्ञानं च एव ] और अज्ञान
(
मिथ्याज्ञान) [मत्यादेः भेदतः ] मति आदिके भेदसे [त्रिविकल्पम् ] तीन भेदवाला है
टीका :यहाँ (इन गाथाओंमें) ज्ञानके भेद कहे हैं
जो उपाधि रहित स्वरूपवाला होनेसे केवल है, आवरण रहित स्वरूपवाला होनेसे
क्रम, इन्द्रिय और (देशकालादि) व्यवधान रहित है, एकएक वस्तुमें व्याप्त नहीं होता
१ केवल = अकेला; शुद्ध; मिलावट रहित (निर्भेल)
२ व्यवधान = आड़; परदा; अन्तर; आँतर-दूरी; विघ्न
मति, श्रुत, अवधि, अरु मनःपर्यय चार सम्यग्ज्ञान है
अरु कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ये तीन भेद मिथ्याज्ञान है ।।१२।।

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भवति कुतः, निजपरमात्मस्थितसहजदर्शनसहजचारित्रसहजसुखसहजपरमचिच्छक्ति निज-
कारणसमयसारस्वरूपाणि च युगपत् परिच्छेत्तुं समर्थत्वात् तथाविधमेव इति शुद्ध-
ज्ञानस्वरूपमुक्त म्
इदानीं शुद्धाशुद्धज्ञानस्वरूपभेदस्त्वयमुच्यते अनेकविकल्पसनाथं मतिज्ञानम् उप-
लब्धिभावनोपयोगाच्च अवग्रहादिभेदाच्च बहुबहुविधादिभेदाद्वा लब्धिभावनाभेदाच्छ्रुतज्ञानं
द्विविधम् देशसर्वपरमभेदादवधिज्ञानं त्रिविधम् ऋजुविपुलमतिविकल्पान्मनःपर्ययज्ञानं च
द्विविधम् परमभावस्थितस्य सम्यग्द्रष्टेरेतत्संज्ञानचतुष्कं भवति मतिश्रुतावधिज्ञानानि
मिथ्याद्रष्टिं परिप्राप्य कुमतिकुश्रुतविभंगज्ञानानीति नामान्तराणि प्रपेदिरे
(समस्त वस्तुओंमें व्याप्त होता है ) इसलिये असहाय है, वह कार्यस्वभावज्ञान है ।
कारणज्ञान भी वैसा ही है काहेसे ? निज परमात्मामें विद्यमान सहजदर्शन, सहजचारित्र,
सहजसुख और सहजपरमचित्शक्तिरूप निज कारणसमयसारके स्वरूपोंको युगपद् जाननेमें
समर्थ होनेसे वैसा ही है
इस प्रकार शुद्ध ज्ञानका स्वरूप कहा
अब यह (निम्नानुसार), शुद्धाशुद्ध ज्ञानका स्वरूप और भेद कहे जाते हैं :
उपलब्धि, भावना और उपयोगसे तथा अवग्रहादि भेदसे अथवा बहु, बहुविध आदि
भेदसे मतिज्ञान अनेक भेदवाला है लब्धि और भावनाके भेदसे श्रुतज्ञान दो प्रकारका है
देश, सर्व और परमके भेदसे (अर्थात् देशावधि, सर्वावधि तथा परमावधि ऐसे तीन भेदोंके
कारण) अवधिज्ञान तीन प्रकारका है
ऋजुमति और विपुलमतिके भेदके कारण
मतिज्ञान तीन प्रकारका है : उपलब्धि, भावना और उपयोग मतिज्ञानावरणका क्षयोपशम जिसमें निमित्त
है ऐसी अर्थग्रहणशक्ति (पदार्थको जाननेकी शक्ति) सो उपलब्धि है; जाने हुए पदार्थके प्रति पुनः
पुनः चिंतन सो भावना है; ‘यह काला है,’ ‘यह पीला है’ इत्यादिरूप अर्थग्रहणव्यापार
(
पदार्थको जाननेका व्यापार) सो उपयोग है
मतिज्ञान चार भेदवाला है : अवग्रह, ईहा (विचारणा), अवाय (निर्णय) और धारणा [विशेषके
लिये मोक्षशास्त्र (सटीक) देखें ]
मतिज्ञान बारह भेदवाला है : बहु, एक, बहुविध, एकविध, क्षिप्र, अक्षिप्र, अनिःसृत, निःसृत, अनुक्त,
उक्त, ध्रुव तथा अध्रुव
[विशेषके लिये मोक्षशास्त्र (सटीक) देखें ]

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अत्र सहजज्ञानं शुद्धान्तस्तत्त्वपरमतत्त्वव्यापकत्वात् स्वरूपप्रत्यक्षम् केवलज्ञानं
सकलप्रत्यक्षम् ‘रूपिष्ववधेः’ इति वचनादवधिज्ञानं विकलप्रत्यक्षम् तदनन्तभागवस्त्वंश-
ग्राहकत्वान्मनःपर्ययज्ञानं च विकलप्रत्यक्षम् मतिश्रुतज्ञानद्वितयमपि परमार्थतः परोक्षं
व्यवहारतः प्रत्यक्षं च भवति
किं च उक्ते षु ज्ञानेषु साक्षान्मोक्षमूलमेकं निजपरमतत्त्वनिष्ठसहजज्ञानमेव अपि च
पारिणामिकभावस्वभावेन भव्यस्य परमस्वभावत्वात् सहजज्ञानादपरमुपादेयं न समस्ति
अनेन सहजचिद्विलासरूपेण सदा सहजपरमवीतरागशर्मामृतेन अप्रतिहतनिरा-
मनःपर्ययज्ञान दो प्रकारका है परमभावमें स्थित सम्यग्दृष्टिको यह चार सम्यग्ज्ञान होते हैं
मिथ्यादर्शन हो वहाँ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ‘कुमतिज्ञान,’ ‘कुश्रुतज्ञान’ तथा
‘विभंगज्ञान’
ऐसे नामांतरोंको (अन्य नामोंको) प्राप्त होते हैं
यहाँ (ऊ पर कहे हुए ज्ञानोंमें) सहजज्ञान, शुद्ध अन्तःतत्त्वरूप परमतत्त्वमें व्यापक
होनेसे, स्वरूपप्रत्यक्ष है केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष (सम्पूर्णप्रत्यक्ष) है ‘रूपिष्ववधेः
(अवधिज्ञानका विषयसम्बन्ध रूपी द्रव्योंमें है )’ ऐसा (आगमका) वचन होनेसे
अवधिज्ञान विकलप्रत्यक्ष (एकदेशप्रत्यक्ष) है उसके अनन्तवें भागमें वस्तुके अंशका
ग्राहक (ज्ञाता) होनेसे मनःपर्ययज्ञान भी विकलप्रत्यक्ष है मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों
परमार्थसे परोक्ष हैं और व्यवहारसे प्रत्यक्ष हैं
और विशेष यह है किउक्त (ऊ पर कहे हुए) ज्ञानोंमें साक्षात् मोक्षका मूल
निजपरमतत्त्वमें स्थित ऐसा एक सहजज्ञान ही है; तथा सहजज्ञान (उसके)
पारिणामिकभावरूप स्वभावके कारण भव्यका परमस्वभाव होनेसे, सहजज्ञानके अतिरिक्त
अन्य कुछ उपादेय नहीं है
इस सहजचिद्विलासरूप (१) सदा सहज परम वीतराग सुखामृत,
(२) अप्रतिहत निरावरण परम चित्शक्तिका रूप, (३) सदा अन्तर्मुख ऐसा
स्वस्वरूपमें अविचल स्थितिरूप सहज परम चारित्र, और (४) त्रिकाल अविच्छिन्न
(अटूट) होनेसे सदा निकट ऐसी परम चैतन्यरूपकी श्रद्धा
इस स्वभाव-
सुमतिज्ञान और सुश्रुतज्ञान सर्व सम्यग्दृष्टि जीवोंको होते हैं सुअवधिज्ञान किन्हीं-किन्हीं सम्यग्दृष्टि
जीवोंको होता है मनःपर्ययज्ञान किन्हीं-किन्हीं मुनिवरोंकोविशिष्टसंयमधरोंकोहोता है
स्वरूपप्रत्यक्ष = स्वरूपसे प्रत्यक्ष; स्वरूप-अपेक्षासे प्रत्यक्ष; स्वभावसे प्रत्यक्ष

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वरणपरमचिच्छक्ति रूपेण सदान्तर्मुखे स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपसहजपरमचारित्रेण त्रिकालेष्व-
व्युच्छिन्नतया सदा सन्निहितपरमचिद्रूपश्रद्धानेन अनेन स्वभावानंतचतुष्टयेन सनाथम्
अनाथमुक्ति सुन्दरीनाथम् आत्मानं भावयेत
इत्यनेनोपन्यासेन संसारव्रततिमूललवित्रेण ब्रह्मोपदेशः कृत इति
(मालिनी)
इति निगदितभेदज्ञानमासाद्य भव्यः
परिहरतु समस्तं घोरसंसारमूलम्
सुकृतमसुकृतं वा दुःखमुच्चैः सुखं वा
तत उपरि समग्रं शाश्वतं शं प्रयाति
।।१८।।
(अनुष्टुभ्)
परिग्रहाग्रहं मुक्त्वा कृत्वोपेक्षां च विग्रहे
निर्व्यग्रप्रायचिन्मात्रविग्रहं भावयेद् बुधः ।।9।।
अनन्तचतुष्टयसे जो सनाथ (सहित) है ऐसे आत्माकोअनाथ मुक्तिसुन्दरीके
नाथकोभाना चाहिये (अर्थात् सहजज्ञानविलासरूपसे स्वभाव-अनन्तचतुष्टययुक्त
आत्माको भाना चाहियेअनुभवन करना चाहिये)
इसप्रकार संसाररूपी लताका मूल छेदनेके लिये हँसियारूप इस उपन्याससे
ब्रह्मोपदेश किया
[अब, इन दो गाथाओंकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज पाँच श्लोक
कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ :] इसप्रकार कहे गये भेदोंके ज्ञानको पाकर भव्य जीव घोर संसारके
मूलरूप समस्त सुकृत या दुष्कृतको, सुख या दुःखको अत्यन्त परिहरो उससे ऊ पर
(अर्थात् उसे पार कर लेने पर), जीव समग्र (परिपूर्ण) शाश्वत सुखको प्राप्त करता है १८
[श्लोेकार्थ :] परिग्रहका ग्रहण छोड़कर तथा शरीरके प्रति उपेक्षा करके बुध
पुरुषको अव्यग्रतासे (निराकुलतासे) भरा हुआ चैतन्य मात्र जिसका शरीर है उसे
(
आत्माको) भाना चाहिये १९
१-उपन्यास = कथन; सूचन; लेख; प्रारम्भिक कथन; प्रस्तावना २-सुकृत या दुष्कृत = शुभ या अशुभ

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(शार्दूलविक्रीडित)
शस्ताशस्तसमस्तरागविलयान्मोहस्य निर्मूलनाद्
द्वेषाम्भःपरिपूर्णमानसघटप्रध्वंसनात
् पावनम्
ज्ञानज्योतिरनुत्तमं निरुपधि प्रव्यक्ति नित्योदितं
भेदज्ञानमहीजसत्फलमिदं वन्द्यं जगन्मंगलम्
।।२०।।
(मन्दाक्रान्ता)
मोक्षे मोक्षे जयति सहजज्ञानमानन्दतानं
निर्व्याबाधं स्फु टितसहजावस्थमन्तर्मुखं च
लीनं स्वस्मिन्सहजविलसच्चिच्चमत्कारमात्रे
स्वस्य ज्योतिःप्रतिहततमोवृत्ति नित्याभिरामम्
।।२१।।
(अनुष्टुभ्)
सहजज्ञानसाम्राज्यसर्वस्वं शुद्धचिन्मयम्
ममात्मानमयं ज्ञात्वा निर्विकल्पो भवाम्यहम् ।।२२।।
[श्लोेकार्थ :] मोहको निर्मूल करनेसे, प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त रागका विलय
करनेसे तथा द्वेषरूपी जलसे भरे हुए मनरूपी घड़ेका नाश करनेसे, पवित्र अनुत्तम,
निरुपधि और नित्य-उदित (सदा प्रकाशमान) ऐसी ज्ञानज्योति प्रगट होती है भेदोंके
ज्ञानरूपी वृक्षका यह सत्फल वंद्य है, जगतको मंगलरूप है २०
[श्लोेकार्थ :] आनन्दमें जिसका फै लाव है, जो अव्याबाध (बाधा रहित) है,
जिसकी सहज दशा विकसित हो गई है, जो अन्तर्मुख है, जो अपनेमेंसहज विलसते
(खेलते, परिणमते) चित्चमत्कारमात्रमेंलीन है, जिसने निज ज्योतिसे तमोवृत्तिको
(अन्धकारदशाको, अज्ञानपरिणतिको) नष्ट किया है और जो नित्य अभिराम (सदा
सुन्दर) है, ऐसा सहजज्ञान सम्पूर्ण मोक्षमें जयवन्त वर्तता है २१
[श्लोेकार्थ :] सहजज्ञानरूपी साम्राज्य जिसका सर्वस्व है ऐसा शुद्धचैतन्यमय
अपने आत्माको जानकर, मैं यह निर्विकल्प होऊँ २२
१-अनुत्तम = जिससे अन्य कोई उत्तम नहीं है ऐसी; सर्वश्रेष्ठ
२-निरुपधि = उपधि रहित; परिग्रह रहित; बाह्य सामग्री रहित; उपाधि रहित; छलकपट रहितसरल
३-सत्फल = सुन्दर फल; अच्छा फल; उत्तम फल; सच्चा फल

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तह दंसणउवओगो ससहावेदरवियप्पदो दुविहो
केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावमिदि भणिदं ।।१३।।
तथा दर्शनोपयोगः स्वस्वभावेतरविकल्पतो द्विविधः
केवलमिन्द्रियरहितं असहायं तत् स्वभाव इति भणितः ।।१३।।
दर्शनोपयोगस्वरूपाख्यानमेतत
यथा ज्ञानोपयोगो बहुविधविकल्पसनाथः दर्शनोपयोगश्च तथा स्वभावदर्शनोपयोगो
विभावदर्शनोपयोगश्च स्वभावोऽपि द्विविधः, कारणस्वभावः कार्यस्वभावश्चेति तत्र कारण-
द्रष्टिः सदा पावनरूपस्य औदयिकादिचतुर्णां विभावस्वभावपरभावानामगोचरस्य सहजपरमपारि-
णामिकभावस्वभावस्य कारणसमयसारस्वरूपस्य निरावरणस्वभावस्य स्वस्वभावसत्तामात्रस्य
गाथा : १३ अन्वयार्थ :[तथा ] उसीप्रकार [दर्शनोपयोगः ] दर्शनोपयोग
[स्वस्वभावेतरविकल्पतः ] स्वभाव और विभावके भेदसे [द्विविधः ] दो प्रकारका है
[केवलम् ] जो केवल, [इन्द्रियरहितम् ] इन्द्रियरहित और [असहायं ] असहाय है,
[तत् ] वह [स्वभावः इति भणितः ] स्वभावदर्शनोपयोग कहा है
टीका :यह, दर्शनोपयोगके स्वरूपका कथन है
जिसप्रकार ज्ञानोपयोग बहुविध भेदोंवाला है, उसीप्रकार दर्शनोपयोग भी वैसा है
(वहाँ प्रथम, उसके दो भेद हैं :) स्वभावदर्शनोपयोग और विभावदर्शनोपयोग
स्वभावदर्शनोपयोग भी दो प्रकारका है : कारणस्वभावदर्शनोपयोग और कार्यस्वभाव -
दर्शनोपयोग
वहाँ कारणदृष्टि तो, सदा पावनरूप और औदयिकादि चार विभावस्वभाव
परभावोंको अगोचर ऐसा सहज - परमपारिणामिकभावरूप जिसका स्वभाव है, जो
दृष्टि = दर्शन [दर्शन अथवा दृष्टिके दो अर्थ हैं : (१) सामान्य प्रतिभास, और (२) श्रद्धा जहाँ
जो अर्थ घटित होता हो वहाँ वह अर्थ समझना दोनों अर्थ गर्भित हों वहाँ दोनों समझना ]
विभाव = विशेष भाव; अपेक्षित भाव [औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक यह
चार भाव अपेक्षित भाव होनेसे उन्हें विभावस्वभाव परभाव कहा है एक सहजपरमपारिणामिक भावको
दर्शनपयोग स्वभाव और विभाव दो विधि जानिये
इन्द्रिय - रहित, असहाय, केवल दृग्स्वभाविक मानिये ।।१३।।

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परमचैतन्यसामान्यस्वरूपस्य अकृत्रिमपरमस्वस्वरूपाविचलस्थितिसनाथशुद्धचारित्रस्य नित्यशुद्ध-
निरंजनबोधस्य निखिलदुरघवीरवैरिसेनावैजयन्तीविध्वंसकारणस्य तस्य खलु स्वरूप-
श्रद्धानमात्रमेव
अन्या कार्यद्रष्टिः दर्शनज्ञानावरणीयप्रमुखघातिकर्मक्षयेण जातैव अस्य खलु
क्षायिकजीवस्य सकलविमलकेवलावबोधबुद्धभुवनत्रयस्य स्वात्मोत्थपरमवीतरागसुखसुधा-
समुद्रस्य यथाख्याताभिधानकार्यशुद्धचारित्रस्य साद्यनिधनामूर्तातींद्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहार-
नयात्मकस्य त्रैलोक्यभव्यजनताप्रत्यक्षवंदनायोग्यस्य तीर्थकरपरमदेवस्य केवलज्ञानवदियमपि
युगपल्लोकालोकव्यापिनी
कारणसमयसारस्वरूप है, निरावरण जिसका स्वभाव है, जो निज स्वभावसत्तामात्र है, जो
परमचैतन्यसामान्यस्वरूप है, जो अकृत्रिम परम स्व-स्वरूपमें अविचलस्थितिमय
शुद्धचारित्रस्वरूप है, जो नित्य-शुद्ध-निरंजनज्ञानस्वरूप है और जो समस्त दुष्ट पापोंरूप वीर
शत्रुओंकी सेनाकी ध्वजाके नाशका कारण है ऐसे आत्माके सचमुच
स्वरूपश्रद्धानमात्र ही
है (अर्थात् कारणदृष्टि तो वास्तवमें शुद्धात्माकी स्वरूपश्रद्धामात्र ही है )
दूसरी कार्यदृष्टि दर्शनावरणीय-ज्ञानावरणीयादि घातिकर्मोंके क्षयसे उत्पन्न होती है
इस क्षायिक जीवकोजिसने सकलविमल (सर्वथा निर्मल) केवलज्ञान द्वारा तीन भुवनको
जाना है, निज आत्मासे उत्पन्न होनेवाले परम वीतराग सुखामृतका जो समुद्र है, जो यथाख्यात
नामक कार्यशुद्धचारित्रस्वरूप है, जो सादि-अनन्त अमूर्त अतीन्द्रियस्वभाववाले
शुद्धसद्भूतव्यवहारनयात्मक है, और जो त्रिलोकके भव्य जनोंको प्रत्यक्ष वन्दनायोग्य है, ऐसे
तीर्थंकरपरमदेवकोकेवलज्ञानकी भाँति यह (कार्यदृष्टि) भी युगपत् लोकालोकमें व्याप्त
होनेवाली है
ही सदा-पावनरूप निज स्वभाव कहा है चार विभावभावोंका आश्रय करनेसे परमपारिणामिकभावका
आश्रय नहीं होता परमपारिणामिकभावका आश्रय करनेसे ही सम्यक्त्वसे लेकर मोक्ष दशा तककी
दशाएँ प्राप्त होती हैं ]
स्वरूपश्रद्धान = स्वरूप-अपेक्षासे श्रद्धान [जिसप्रकार कारणस्वभावज्ञान अर्थात् सहजज्ञान स्वरूपप्रत्यक्ष
है, उसीप्रकार कारणस्वभावदृष्टि अर्थात् सहजदर्शन स्वरूपश्रद्धानमात्र ही है ]
तीर्थंकरपरमदेव शुद्धसद्भूतव्यवहारनयस्वरूप हैं, कि जो शुद्धसद्भूतव्यवहारनय सादि-अनन्त, अमूर्तिक
और अतीन्द्रियस्वभाववाला है