Page 14 of 388
PDF/HTML Page 41 of 415
single page version
वह स्वेद है
कारण तथा सहज ऐश्वर्यके कारण आत्मामें जो अहङ्कारकी उत्पत्ति वह मद है
पूर्वकालमें न देखा हुआ देखनेके कारण होनेवाला भाव वह विस्मय है
उत्पत्ति, मायासे तिर्यञ्चपर्यायमें जो उत्पत्ति और शुभाशुभ मिश्र कर्मसे मनुष्यपर्यायमें
जो उत्पत्ति, सो जन्म है
Page 15 of 388
PDF/HTML Page 42 of 415
single page version
या तृषाका निमित्त कहाँसे होगा ? नहीं होगा; क्योंकि चाहे जितना असातावेदनीय कर्म हो
तथापि मोहनीयकर्मके अभावमें दुःखकी वेदना नहीं हो सकती; तो फि र यहाँ तो जहाँ
अनन्तगुने सातावेदनीयकर्मके मध्य अल्पमात्र (
वीर्य आदि कहाँसे सम्भव होंगे ? इसप्रकार वीतराग सर्वज्ञको क्षुधा (तथा तृषा) न होनेसे
उन्हें कवलाहार भी नहीं होता
पुद्गल प्रतिक्षण आते हैं और इसलिये शरीरस्थिति रहती है
रहे अघातिकर्मोंके फलरूप परमौदारिक शरीरमें जरा, रोग तथा स्वेद नहीं होते
देहवियोगको मरण नहीं कहा जाता
Page 16 of 388
PDF/HTML Page 43 of 415
single page version
है; इसलिये उनके प्रसादके कारण आप्त पुरुष बुधजनों द्वारा पूजनेयोग्य हैं (अर्थात् मुक्ति
सर्वज्ञदेवकी कृपाका फल होनेसे सर्वज्ञदेव ज्ञानियों द्वारा पूजनीय हैं ), क्योंकि किये हुए
उपकारको साधु पुरुष (सज्जन) भूलते नहीं हैं
जिन्होंने नाश किया है, श्री कृष्ण जिनके चरणोंमें नमें हैं, भव्यकमलके जो सूर्य हैं (अर्थात्
भव्योंरूपी कमलोंको विकसित करनेमें जो सूर्य समान हैं ), वे आनन्दभूमि नेमिनाथ
(
स च भवति सुशास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात
न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति
स्मरतिरसुरनाथः प्रास्तदुष्टाघयूथः
दिशतु शमनिशं नो नेमिरानन्दभूमिः
Page 17 of 388
PDF/HTML Page 44 of 415
single page version
[परमात्मा उच्यते ] परमात्मा कहलाता है; [तद्विपरीतः ] उससे विपरीत [परमात्मा न ] वह
परमात्मा नहीं है
‘निःशेषदोषरहित’ कहा गया है और जो ‘सकलविमल (
शेषदोषनिर्मुक्त इत्युक्त :
Page 18 of 388
PDF/HTML Page 45 of 415
single page version
संसारी हैं
दासरूपसे वर्ते ऐसा) ऐश्वर्य, और (तीन लोकके अधिपतियोंके वल्लभ होनेरूप)
त्रिभुवनप्रधानवल्लभपना
है
Page 19 of 388
PDF/HTML Page 46 of 415
single page version
दिव्यध्वनि द्वारा (भव्योंके) कानोंमें मानों कि साक्षात् अमृत बरसाते हों ऐसा सुख उत्पन्न करते
हैं तथा जो एक हजार और आठ लक्षणोंको धारण करते हैं, वे तीर्थङ्करसूरि वंद्य हैं
धामोद्दाममहस्विनां जनमनो मुष्णन्ति रूपेण ये
वन्द्यास्तेऽष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वराः सूरयः
र्भ्रमरवदवभाति प्रस्फु टं यस्य नित्यम्
जलनिधिमपि दोर्भ्यामुत्तराम्यूर्ध्ववीचिम्
Page 20 of 388
PDF/HTML Page 47 of 415
single page version
वर्तनिमग्नसमस्तभव्यजनतादत्तहस्तावलम्बनेन सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिना अक्षुण्ण-
मोक्षप्रासादप्रथमसोपानेन स्मरभोगसमुद्भूताप्रशस्तरागाङ्गारैः पच्यमानसमस्तदीनजनतामहत्क्लेश-
[तत्त्वार्थाः ] तत्त्वार्थ [कथिताः भवन्ति ] कहे हैं
दरशाता है ), जो संसारसमुद्रके महा भँवरमें निमग्न समस्त भव्यजनोंको हस्तावलम्बन
(हाथका सहारा) देता है, जो सहज वैराग्यरूपी महलके शिखरका
है
Page 21 of 388
PDF/HTML Page 48 of 415
single page version
निखिलभविनामेतत्कर्णामृतं जिनसद्वचः
प्रतिदिनमहं वन्दे वन्द्यं सदा जिनयोगिभिः
सजल मेघ (
दावानलको शांत करनेमें जल हैं और जो जैन योगियों द्वारा सदा वंद्य हैं, ऐसे इन
जिनभगवानके सद्वचनोंको (सम्यक् जिनागमको) मैं प्रतिदिन वन्दन करता हूँ
२-ललितमें ललित = अत्यन्त प्रसन्नता उत्पन्न करें ऐसे; अतिशय मनोहर ।
Page 22 of 388
PDF/HTML Page 49 of 415
single page version
गुणपर्यायोंसे संयुक्त हैं ।
Page 23 of 388
PDF/HTML Page 50 of 415
single page version
(स्कन्धके प्रत्येक परमाणुकी) विभावगतिक्रिया है
स्थितिक्रिया है
Page 24 of 388
PDF/HTML Page 51 of 415
single page version
द्युतिपटलजटालं तद्धि षड्द्रव्यजातम्
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः
है उसे
यथार्थ श्रद्धा करता है, वह मुक्तिलक्ष्मीका वरण करता है )
Page 25 of 388
PDF/HTML Page 52 of 415
single page version
ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग)
विभावज्ञानोपयोग)
कार्यस्वभावज्ञान और कारणस्वभावज्ञान)
सहजज्ञान है
Page 26 of 388
PDF/HTML Page 53 of 415
single page version
परिहृतपरभावः स्वस्वरूपे स्थितो यः
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः
मनःपर्ययज्ञानोपयोग) अब अगली दो गाथाओंमें कहेंगे
(३) विभङ्गज्ञानोपयोग अर्थात् कुअवधिज्ञानोपयोग]
प्रविष्ट हो जाता है
जाननेवाला) केवलज्ञानोपयोग प्रगट होता है
कार्यस्वभावज्ञानोपयोग कहा जाता है
Page 27 of 388
PDF/HTML Page 54 of 415
single page version
इति ] स्वभावज्ञान है; [संज्ञानेतरविकल्पे ] सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञानरूप भेद किये जाने
पर, [विभावज्ञानं ] विभावज्ञान [द्विविधं भवेत् ] दो प्रकारका है
(
Page 28 of 388
PDF/HTML Page 55 of 415
single page version
समर्थ होनेसे वैसा ही है
कारण) अवधिज्ञान तीन प्रकारका है
(
उक्त, ध्रुव तथा अध्रुव
Page 29 of 388
PDF/HTML Page 56 of 415
single page version
‘विभंगज्ञान’
पारिणामिकभावरूप स्वभावके कारण भव्यका परमस्वभाव होनेसे, सहजज्ञानके अतिरिक्त
अन्य कुछ उपादेय नहीं है
स्वस्वरूपमें अविचल स्थितिरूप सहज परम चारित्र, और (४) त्रिकाल अविच्छिन्न
(अटूट) होनेसे सदा निकट ऐसी परम चैतन्यरूपकी श्रद्धा
Page 30 of 388
PDF/HTML Page 57 of 415
single page version
व्युच्छिन्नतया सदा सन्निहितपरमचिद्रूपश्रद्धानेन अनेन स्वभावानंतचतुष्टयेन सनाथम्
अनाथमुक्ति सुन्दरीनाथम् आत्मानं भावयेत
परिहरतु समस्तं घोरसंसारमूलम्
तत उपरि समग्रं शाश्वतं शं प्रयाति
(
Page 31 of 388
PDF/HTML Page 58 of 415
single page version
द्वेषाम्भःपरिपूर्णमानसघटप्रध्वंसनात
भेदज्ञानमहीजसत्फलमिदं वन्द्यं जगन्मंगलम्
निर्व्याबाधं स्फु टितसहजावस्थमन्तर्मुखं च
स्वस्य ज्योतिःप्रतिहततमोवृत्ति नित्याभिरामम्
Page 32 of 388
PDF/HTML Page 59 of 415
single page version
[तत् ] वह [स्वभावः इति भणितः ] स्वभावदर्शनोपयोग कहा है
Page 33 of 388
PDF/HTML Page 60 of 415
single page version
निरंजनबोधस्य निखिलदुरघवीरवैरिसेनावैजयन्तीविध्वंसकारणस्य तस्य खलु स्वरूप-
श्रद्धानमात्रमेव
समुद्रस्य यथाख्याताभिधानकार्यशुद्धचारित्रस्य साद्यनिधनामूर्तातींद्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहार-
नयात्मकस्य त्रैलोक्यभव्यजनताप्रत्यक्षवंदनायोग्यस्य तीर्थकरपरमदेवस्य केवलज्ञानवदियमपि
युगपल्लोकालोकव्यापिनी
परमचैतन्यसामान्यस्वरूप है, जो अकृत्रिम परम स्व-स्वरूपमें अविचलस्थितिमय
शुद्धचारित्रस्वरूप है, जो नित्य-शुद्ध-निरंजनज्ञानस्वरूप है और जो समस्त दुष्ट पापोंरूप वीर
शत्रुओंकी सेनाकी ध्वजाके नाशका कारण है ऐसे आत्माके सचमुच
नामक कार्यशुद्धचारित्रस्वरूप है, जो सादि-अनन्त अमूर्त अतीन्द्रियस्वभाववाले
और अतीन्द्रियस्वभाववाला है