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स्वद्रव्यपर्ययगुणात्मनि दत्तचित्तः
प्राप्नोति मुक्ति मचिरादिति पंचरत्नात
भावसे भिन्न ऐसे सकल विभावको छोड़कर अल्प कालमें मुक्तिको प्राप्त करता है
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परमसंयमिनां वास्तवं चारित्रं भवति
परम संयमियोंको वास्तविक चारित्र होता है
करनेके लिये है )
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स्वयमयमुपयोगाद्राजते मुक्त मोहः
स खलु समयसारस्यास्य भेदः क एषः
हुआ, शमजलनिधिके पूरसे (उपशमसमुद्रके ज्वारसे) पापकलङ्कको धोकर, विराजता
(
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मोहरागद्वेषभावानां निवारणं कृत्वाऽखंडानंदमयं निजकारणपरमात्मानं ध्यायति, तस्य खलु पर-
मतत्त्वश्रद्धानावबोधानुष्ठानाभिमुखस्य सकलवाग्विषयव्यापारविरहितनिश्चयप्रतिक्रमणं भवतीति
[ध्यायति ] ध्याता है, [तस्य तु ] उसे [प्रतिक्रमणं ] प्रतिक्रमण [भवति इति ] होता है
उसका इसमें निराकरण
वचनरचनासे परिमुक्त (
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रयमिह परमार्थश्चेत्यतां नित्यमेकः
न्न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति
क्योंकि निज रसके विस्तारसे पूर्ण जो ज्ञान उसके स्फु रायमान होनेमात्र जो समयसार
(
वर्तता हूँ
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(जीव) [प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण [उच्यते ] कहलाता है, [यस्मात् ] कारण कि वह
[प्रतिक्रमणमयः भवेत् ] प्रतिक्रमणमय है
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स्पृशति निरपराधो बंधनं नैव जातु
भवति निरपराधः साधु शुद्धात्मसेवी
नियतमिह भवार्तः सापराधः स्मृतः सः
भवति निरपराधः कर्मसंन्यासदक्षः
भलीभाँति शुद्ध आत्माका सेवन करनेवाला होता है
अखण्ड
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सहजवैराग्यभावनापरिणतः स्थिरभावं करोति, स परमतपोधन एव प्रतिक्रमणस्वरूप इत्युच्यते,
यस्मात
[सः ] वह (जीव) [प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण [उच्यते ] कहलाता है, [यस्मात् ] कारण
कि वह [प्रतिक्रमणमयः भवेत् ] प्रतिक्रमणमय है
भावनास्वरूप
परम समरसीभावनारूपसे परिणमित हुआ सहज निश्चयप्रतिक्रमणमय है
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स्फु रितसहजबोधात्मानमात्मानमात्मा
स्नपयतु बहुभिः किं लौकिकालापजालैः
स्थित्वात्मन्यात्मनात्मा निरुपमसहजानंद
सोऽयं पुण्यः पुराणः क्षपितमलकलिर्भाति लोकोद्घसाक्षी
लौकिक कथनसमूहोंसे क्या कार्य सिद्ध हो सकता है ) ? ११३
आत्मासे स्थित होकर, बाह्य आचारसे मुक्त होता हुआ, शमरूपी समुद्रके जलबिन्दुओंके
समूहसे पवित्र होता है, ऐसा वह पवित्र पुराण (
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महादेवाधिदेवपरमेश्वरसर्वज्ञवीतरागमार्गे पंचमहाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिपंचेन्द्रियनिरोध-
षडावश्यकाद्यष्टाविंशतिमूलगुणात्मके स्थिरपरिणामं करोति, शुद्धनिश्चयनयेन सहज-
बोधादिशुद्धगुणालंकृते सहजपरमचित्सामान्यविशेषभासिनि निजपरमात्मद्रव्ये स्थिरभावं
करता है, [सः ] वह (जीव) [प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण [उच्यते ] कहलाता है,
[यस्मात् ] कारण कि वह [प्रतिक्रमणमयः भवेत् ] प्रतिक्रमणमय है
पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, पाँच इन्द्रियोंका निरोध, छह आवश्यक इत्यादि
अट्ठाईस मूलगुणस्वरूप महादेवाधिदेव
(सहज परम) चैतन्यविशेषरूप जिसका प्रकाश है ऐसे निज परमात्मद्रव्यमें शुद्धचारित्रमय
स्थिरभाव करता है, (अर्थात् जो शुद्धनिश्चय
स्थिरभाव करता है,) वह मुनि निश्चय प्रतिक्रमणस्वरूप कहलाता है, कारण कि उसे
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परमतत्त्वगतं तत एव स तपोधनः सदा शुद्ध इति
रुत्सर्गादपवादतश्च विचरद्बह्वीः पृथग्भूमिकाः
श्चित्सामान्यविशेषभासिनि निजद्रव्ये करोतु स्थितिम्
तपसि निरतचित्ताः शास्त्रसंघातमत्ताः
कथममृतवधूटीवल्लभा न स्युरेते
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वह (साधु) [प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण [उच्यते ] कहलाता है, [यस्मात् ] कारण कि वह
[प्रतिक्रमणमयः भवेत् ] प्रतिक्रमणमय है
है उसे निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप कहा जाता है, कारण कि उसे स्वरूपगत (
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भवभ्रमणकारणं स्मरशराग्निदग्धं मुहुः
भज त्वमलिनं यते प्रबलसंसृतेर्भीतितः
[प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण [उच्यते ] कहलाता है, [यस्मात् ] कारण कि वह
[प्रतिक्रमणमयः भवेत् ] प्रतिक्रमणमय है
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यस्मात
सहजपरमां गुप्तिं संज्ञानपुंजमयीमिमाम्
भवति विशदं शीलं तस्य त्रिगुप्तिमयस्य तत
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रौद्रध्यानं च, एतद्द्वितयम् अपरिमितस्वर्गापवर्गसुखप्रतिपक्षं संसारदुःखमूलत्वान्निरवशेषेण
त्यक्त्वा, स्वर्गापवर्गनिःसीमसुखमूलस्वात्माश्रितनिश्चयपरमधर्मध्यानम्, ध्यानध्येयविविधविकल्प-
विरहितान्तर्मुखाकारसकलकरणग्रामातीतनिर्भेदपरमकलासनाथनिश्चयशुक्लध्यानं च ध्यात्वा यः
परमभावभावनापरिणतः भव्यवरपुंडरीकः निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपो भवति, परमजिनेन्द्रवदनार-
विन्दविनिर्गतद्रव्यश्रुतेषु विदितमिति
ध्याता है, [सः ] वह (जीव) [जिनवरनिर्दिष्टसूत्रेषु ] जिनवरकथित सूत्रोंमें [प्रतिक्रमणम् ]
प्रतिक्रमण [उच्यते ] कहलाता है
(२) चोर
दोनोंको निरवशेषरूपसे (सर्वथा) छोड़कर, (३) स्वर्ग और मोक्षके निःसीम
(
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व्यक्तं सदाशिवमये परमात्मतत्त्वे
स्तत्त्वं जिनेन्द्र तदहो महदिन्द्रजालम्
मुक्तं विकल्पनिकरैरखिलैः समन्तात
ध्यानावली कथय सा कथमत्र जाता
हैं
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(अर्थात् ध्यानावली इस परमात्मतत्त्वमें कैसे हो सकती है ) सो कहो
भाये हैं; [सम्यक्त्वप्रभृतिभावाः ] सम्यक्त्वादि भाव [जीवेन ] जीवने [अभाविताः भवन्ति ]
नहीं भाये हैं
प्रत्यय होते हैं
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चरित्रेण सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि न भावितानि भवन्तीति
किया है ऐसे उस स्वरूपशून्य बहिरात्म
द्वारा) कहा है कि :
भवका अभाव तो भवभ्रमणके कारणभूत भावनाओंसे विरुद्ध प्रकारकी, पहले न भायी हुई
ऐसी अपूर्व भावनाओंसे ही होता है )
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किमपि वचनमात्रं निर्वृतेः कारणं यत
न च न च बत कष्टं सर्वदा ज्ञानमेकम्
सुना
[सम्यक्त्वज्ञानचरणं ] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको [यः ] जो (जीव)
[भावयति ] भाता है, [सः ] वह (जीव) [प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण है
निश्चयप्रतिक्रमण होता है ऐसा कहा है
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स्वात्मश्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानरूपविमुखत्वमेव मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रात्मकरत्नत्रयम्, एतदपि
त्यक्त्वा
मात्मसुखाभिलाषी यः परमपुरुषार्थपरायणः शुद्धरत्नत्रयात्मकम् आत्मानं भावयति स
परमतपोधन एव निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप इत्युक्त :
रत्नत्रयं च मतिमान्निजतत्त्ववेदी
श्रद्धानमन्यदपरं चरणं प्रपेदे
आचरण वह मिथ्याचारित्र है;
कारणपरमात्मा वह आत्मा है; उसके स्वरूपके श्रद्धान
तपोधनको ही (शास्त्रमें) निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप कहा है