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प्रतिक्रमणाभिधानेन देहत्यागो धर्मो व्यवहारेण । निश्चयेन नवार्थेषूत्तमार्थो ह्यात्मा तस्मिन् सच्चिदानंदमयकारणसमयसारस्वरूपे तिष्ठन्ति ये तपोधनास्ते नित्यमरणभीरवः, अत एव कर्मविनाशं कुर्वन्ति । तस्मादध्यात्मभाषयोक्त भेदकरणध्यानध्येयविकल्पविरहितनिरवशेषेणान्त- शुद्ध आत्मतत्त्वमें नियत ( – शुद्धात्मतत्त्वपरायण) ऐसा जो एक निजज्ञान, दूसरा श्रद्धान और फि र दूसरा चारित्र उसका आश्रय करता है । १२२ ।
गाथा : ९२ अन्वयार्थ : — [उत्तमार्थः ]ंउत्तमार्थ ( – उत्तम पदार्थ) [आत्मा ] आत्मा है; [तस्मिन् स्थिताः ] उसमें स्थित [मुनिवराः ] मुनिवर [कर्म घ्नन्ति ] कर्मका घात करते हैं । [तस्मात् तु ] इसलिये [ध्यानम् एव ] ध्यान ही [हि ] वास्तवमें [उत्तमार्थस्य ] उत्तमार्थका [प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण है ।
टीका : — यहाँ (इस गाथामें), निश्चय - उत्तमार्थप्रतिक्रमणका स्वरूप कहा है ।
जिनेश्वरके मार्गमें मुनियोंकी सल्लेखनाके समय, ब्यालीस आचार्यों द्वारा, जिसका नाम उत्तमार्थप्रतिक्रमण है वह दिया जानेके कारण, देहत्याग व्यवहारसे धर्म है । निश्चयसे — नव अर्थोंमें उत्तम अर्थ आत्मा है; सच्चिदानन्दमय कारणसमयसारस्वरूप ऐसे उस आत्मामें जो तपोधन स्थित रहते हैं, वे तपोधन नित्य मरणभीरु हैं; इसीलिये
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र्मुखाकारसकलेन्द्रियागोचरनिश्चयपरमशुक्लध्यानमेव निश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमणमित्यवबोद्धव्यम् । किं च, निश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमणं स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यानमयत्वादमृतकुंभस्वरूपं भवति, व्यवहारोत्तमार्थप्रतिक्रमणं व्यवहारधर्मध्यानमयत्वाद्विषकुंभस्वरूपं भवति ।
वे कर्मका विनाश करते हैं । इसलिये अध्यात्मभाषासे, पूर्वोक्त ❃भेदकरण रहित, ध्यान और ध्येयके विकल्प रहित, निरवशेषरूपसे अंतर्मुख जिसका आकार है ऐसा और सकल इन्द्रियोंसे अगोचर निश्चय - परमशुकलध्यान ही निश्चय - उत्तमार्थप्रतिक्रमण है ऐसा जानना ।
और, निश्चय - उत्तमार्थप्रतिक्रमण स्वात्माश्रित ऐसे निश्चयधर्मध्यान तथा निश्चयशुक्लध्यानमय होनेसे अमृतकुम्भस्वरूप है; व्यवहार - उत्तमार्थप्रतिक्रमण व्यवहारधर्मध्यानमय होनेसे विषकुम्भस्वरूप है ।
इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री समयसारमें (३०६वीं गाथा द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[गाथार्थ : — ] १प्रतिक्रमण, २प्रतिसरण, ३परिहार, ४धारणा, ५निवृत्ति, ६निंदा, ७गर्हा और ८शुद्धि — इन आठ प्रकारका विषकुम्भ है ।’’ ❃ भेदकरण = भेद करना वह; भेद डालना वह । १ – प्रतिक्रमण = किये हुये दोषोंका निराकरण करना । २ – प्रतिसरण = सम्यक्त्वादि गुणोंमें प्रेरणा । ३ – परिहार = मिथ्यात्वरागादि दोषोंका निवारण । ४ – धारणा = पंचनमस्कारादि मंत्र, प्रतिमा आदि बाह्य द्रव्योंके आलम्बन द्वारा चित्तको स्थिर करना । ५ – निवृत्ति = बाह्य विषयकषायादि इच्छामें वर्तते हुए चित्तको मोड़ना । ६ – निंदा = आत्मसाक्षीसे दोषोंका प्रगट करना । ७ – गर्हा = गुरुसाक्षीसे दोषोंका प्रगट करना । ८ – शुद्धि = दोष हो जाने पर प्रायश्चित लेकर विशुद्धि करना ।
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तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात् ।
किं नोर्ध्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमादः ।।’’
ध्यानध्येयप्रमुखसुतपःकल्पनामात्ररम्यम् ।
निर्मज्जन्तं सहजपरमात्मानमेकं प्रपेदे ।।१२३।।
और इसीप्रकार श्री समयसारकी (अमृतचन्द्राचार्यदेवकृत आत्मख्याति नामक) टीकामें (१८९वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] (अरे ! भाई,) जहाँ प्रतिक्रमणको ही विष कहा है, वहाँ अप्रतिक्रमण अमृत कहाँसे होगा ? (अर्थात् नहीं हो सकता ।) तो फि र मनुष्य नीचे नीचे गिरते हुए प्रमादी क्यों होते हैं ? निष्प्रमादी होते हुए ऊँ चे-ऊँ चे क्यों नहीं चढ़ते ?’’
और (इस ९२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] आत्मध्यानके अतिरिक्त अन्य सब घोर संसारका मूल है, (और) ध्यान - ध्येयादिक सुतप (अर्थात् ध्यान, ध्येय आदिके विकल्पवाला शुभ तप भी) कल्पनामात्र रम्य है; — ऐसा जानकर धीमान ( – बुद्धिमान पुरुष) सहज परमानन्दरूपी पीयूषके पूरमें डूबते हुए ( – निमग्न होते हुए) ऐसे सहज परमात्माका – एकका आश्रय करते हैं ।१२३।
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स्वात्माश्रितनिश्चयधर्मध्याननिलीनः निर्भेदरूपेण स्थितः, अथवा सकलक्रियाकांडाडंबर- व्यवहारनयात्मकभेदकरणध्यानध्येयविकल्पनिर्मुक्त निखिलकरणग्रामागोचरपरमतत्त्वशुद्धान्तस्तत्त्व- विषयभेदकल्पनानिरपेक्षनिश्चयशुक्लध्यानस्वरूपे तिष्ठति च, स च निरवशेषेणान्तर्मुखतया
गाथा : ९३ अन्वयार्थ : — [ध्याननिलीनः ] ध्यानमें लीन [साधुः ] साधु [सर्वदोषाणाम् ] सर्व दोषोंका [परित्यागं ] परित्याग [करोति ] करते हैं; [तस्मात् तु ] इसलिये [ध्यानम् एव ] ध्यान ही [हि ] वास्तवमें [सर्वातिचारस्य ] सर्व अतिचारका [प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण है ।
जो कोई परमजिनयोगीश्वर साधु — अति - आसन्नभव्य जीव, अध्यात्मभाषासे पूर्वोक्त स्वात्माश्रित निश्चयधर्मध्यानमें लीन होता हुआ अभेदरूपमें स्थित रहता है, अथवा सकल क्रियाकांडके आडम्बर रहित और व्यवहारनयात्मक १भेदकरण तथा ध्यान-ध्येयके विकल्प रहित, समस्त इन्द्रियसमूहसे अगोचर ऐसा जो परम तत्त्व — शुद्ध अन्तःतत्त्व, तत्सम्बन्धी भेदकल्पनासे २निरपेक्ष निश्चयशुक्लध्यानस्वरूपमें स्थित रहता है, वह (साधु) १ भेदकरण = भेद करना वह; भेद डालना वह । [समस्त भेदकरण — ध्यान-ध्येयके विकल्प भी —
२ निरपेक्ष = उदासीन; निःस्पृह; अपेक्षारहित । [निश्चयशुक्लध्यान शुद्ध अंतःतत्त्व सम्बन्धी भेदोंकी कल्पनासे
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प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तमोहरागद्वेषाणां परित्यागं करोति, तस्मात् स्वात्माश्रितनिश्चयधर्म- शुक्लध्यानद्वितयमेव सर्वातिचाराणां प्रतिक्रमणमिति ।
वे दो ध्यान ही सर्व अतिचारोंका प्रतिक्रमण है ।
[अब इस ९३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ] : —
[श्लोकार्थ : — ] यह शुक्लध्यानरूपी दीपक जिसके मनोमन्दिरमें प्रकाशित हुआ, वह योगी है; उसे शुद्ध आत्मा स्वयं प्रत्यक्ष होता है । १२४ ।
गाथा : ९४ अन्वयार्थ : — [प्रतिक्रमणनामधेये ] प्रतिक्रमण नामक [सूत्रे ] सूत्रमें [यथा ] जिसप्रकार [प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमणका [वर्णितं ] वर्णन किया गया है [तथा ज्ञात्वा ] तदनुसार जानकर [यः ] जो [भावयति ] भाता है, [तस्य ] उसे [तदा ] तब [प्रतिक्रमणम् भवति ] प्रतिक्रमण है ।
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प्रतिक्रमणाभिधानसूत्रे द्रव्यश्रुतरूपे व्यावर्णितमतिविस्तरेण प्रतिक्रमणं, तथा ज्ञात्वा जिननीतिमलंघयन् चारुचरित्रमूर्तिः सकलसंयमभावनां करोति, तस्य महामुनेर्बाह्यप्रपंच- विमुखस्य पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहस्य परमगुरुचरणस्मरणासक्त चित्तस्य तदा प्रतिक्रमणं भवतीति ।
मुक्तिं सदाकर्ण्य च यस्य चित्तम् ।
टीका : — यहाँ, व्यवहारप्रतिक्रमणकी सफलता कही है (अर्थात् द्रव्यश्रुतात्मक प्रतिक्रमणसूत्रमें वर्णित प्रतिक्रमणको सुनकर — जानकर, सकल संयमकी भावना करना वही व्यवहारप्रतिक्रमणकी सफलता — सार्थकता है ऐसा इस गाथामें कहा है ) ।
समस्त आगमके सारासारका विचार करनेमें सुन्दर चातुर्य तथा गुणसमूहके धारण करनेवाले निर्यापक आचार्योंने जिसप्रकार द्रव्यश्रुतरूप प्रतिक्रमणनामक सूत्रमें प्रतिक्रमणका अति विस्तारसे वर्णन किया है, तदनुसार जानकर जिननीतिको अनुल्लंघता हुआ जो सुन्दरचारित्रमूर्ति महामुनि सकल संयमकी भावना करता है, उस महामुनिको — कि जो (महामुनि) बाह्य प्रपंचसे विमुख है, पंचेन्द्रियके फै लाव रहित देहमात्र जिसे परिग्रह है और परम गुरुके चरणोंके स्मरणमें आसक्त जिसका चित्त है, उसे — तब (उस काल) प्रतिक्रमण है ।
[अब इस परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव दो श्लोक कहते हैं ]: —
[श्लोकार्थ : — ] निर्यापक आचार्योंकी निरुक्ति ( – व्याख्या) सहित (प्रतिक्रमणादि सम्बन्धी) कथन सदा सुनकर जिसका चित्त समस्त चारित्रका निकेतन ( – धाम) बनता है, ऐसे उस संयमधारीको नमस्कार हो ।१२५।
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र्नास्त्यप्रतिक्रमणमप्यणुमात्रमुच्चैः ।
श्रीवीरनन्दिमुनिनामधराय नित्यम् ।।१२६।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ निश्चयप्रतिक्रमणाधिकारः पंचमः श्रुतस्कन्धः ।।
[श्लोकार्थ : — ] मुमुक्षु ऐसे जिन्हें ( – मोक्षार्थी ऐसे जिन वीरनन्दि मुनिको) सदा प्रतिक्रमण ही है और अणुमात्र भी अप्रतिक्रमण बिलकु ल नहीं है, उन सकलसंयमरूपी भूषणके धारण करनेवाले श्री वीरनन्दी नामके मुनिको नित्य नमस्कार हो ।१२६।
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियोंके फै लाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागमकी निर्गं्रथ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें) निश्चय-प्रतिक्रमण अधिकार नामका पाँचवाँ श्रुतस्कंध समाप्त हुआ
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अथेदानीं सकलप्रव्रज्यासाम्राज्यविजयवैजयन्तीपृथुलदंडमंडनायमानसकलकर्मनिर्जराहेतु- भूतनिःश्रेयसनिश्रेणीभूतमुक्ति भामिनीप्रथमदर्शनोपायनीभूतनिश्चयप्रत्याख्यानाधिकारः कथ्यते । तद्यथा —
अब निम्नानुसार निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार कहा जाता है — कि जो निश्चयप्रत्याख्यान सकल प्रव्रज्यारूप साम्राज्यकी विजय-ध्वजाके विशाल दंडकी शोभा समान है, समस्त कर्मोंकी निर्जराके हेतुभूत है, मोक्षकी सीढ़ी है और मुक्तिरूपी स्त्रीके प्रथम दर्शनकी भेंट है । वह इसप्रकार है :
गाथा : ९५ अन्वयार्थ : — [सकलजल्पम् ] समस्त जल्पको ( – वचन- विस्तारको) [मुक्त्वा ] छोड़कर और [अनागतशुभाशुभनिवारणं ] अनागत शुभ-अशुभका
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प्रत्यादिष्टान्नपानखाद्यलेह्यरुचयः, एतद् व्यवहारप्रत्याख्यानस्वरूपम् । निश्चयनयतः प्रशस्ता- प्रशस्तसमस्तवचनरचनाप्रपंचपरिहारेण शुद्धज्ञानभावनासेवाप्रसादादभिनवशुभाशुभद्रव्यभाव- कर्मणां संवरः प्रत्याख्यानम् । यः सदान्तर्मुखपरिणत्या परमकलाधारमत्यपूर्वमात्मानं ध्यायति तस्य नित्यं प्रत्याख्यानं भवतीति ।
निवारण [कृत्वा ] करके [यः ] जो [आत्मानं ] आत्माको [ध्यायति ] ध्याता है, [तस्य ] उसे [प्रत्याख्यानं ] प्रत्याख्यान [भवेत् ] है ।
यहाँ ऐसा कहा है कि — व्यवहारनयके कथनसे, मुनि दिन-दिनमें ( – प्रतिदिन) भोजन करके फि र योग्य काल पर्यंत अन्न, पान, खाद्य और लेह्यकी रुचि छोड़ते हैं; यह व्यवहार-प्रत्याख्यानका स्वरूप है । निश्चयनयसे, प्रशस्त – अप्रशस्त समस्त वचनरचनाके ❃
तथा भावकर्मोंका संवर होना सो प्रत्याख्यान है । जो सदा अन्तर्मुख परिणमनसे परम कलाके आधाररूप अति-अपूर्व आत्माको ध्याता है, उसे नित्य प्रत्याख्यान है ।
इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री समयसारमें (३४वीं गाथा द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[गाथार्थ : — ] ‘अपने अतिरिक्त सर्व पदार्थ पर हैं’ — ऐसा जानकर प्रत्याख्यान करता है — त्याग करता है, इसीलिये प्रत्याख्यान ज्ञान ही है (अर्थात् अपने ज्ञानमें त्यागरूप अवस्था ही प्रत्याख्यान है ) ऐसा नियमसे जानना ।’’ ❃ प्रपंच = विस्तार । (अनेक प्रकारकी समस्त वचनरचनाको छोड़कर शुद्ध ज्ञानको भानेसे — उस भावनाके
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तं वंदेहं भवपरिभवक्लेशनाशाय नित्यम् ।।१२७।।
इसीप्रकार समयसारकी (अमृतचन्द्राचार्यदेवकृत आत्मख्याति नामक) टीकामें भी (२२८वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] (प्रत्याख्यान करनेवाला ज्ञानी कहता है कि – ) भविष्यके समस्त कर्मोंका प्रत्याख्यान करके ( – त्यागकर), जिसका मोह नष्ट हुआ है ऐसा मैं निष्कर्म (अर्थात् सर्व कर्मोंसे रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामें आत्मासे ही ( – स्वयंसे ही) निरंतर वर्तता हूँ ।’’
और (इस ९५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] जो सम्यग्दृष्टि समस्त कर्म-नोकर्मके समूहको छोड़ता है, उस सम्यग्ज्ञानकी मूर्तिको सदा प्रत्याख्यान है और उसे पापसमूहका नाश करनेवाले ऐसे सत्- चारित्र अतिशयरूपसे हैं । भव-भवके क्लेशका नाश करनेके लिये उसे मैं नित्य वंदन करता हूँ ।१२७।
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शिक्षा प्रोक्ता । कथंकारम् ? साद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारेण, शुद्धस्पर्शरस- गंधवर्णानामाधारभूतशुद्धपुद्गलपरमाणुवत्केवलज्ञानकेवलदर्शनकेवलसुखकेवलशक्ति युक्त परमात्मा यः सोहमिति भावना कर्तव्या ज्ञानिनेति; निश्चयेन सहजज्ञानस्वरूपोहम्, सहजदर्शन- स्वरूपोहम्, सहजचारित्रस्वरूपोहम्, सहजचिच्छक्ति स्वरूपोहम्, इति भावना कर्तव्या चेति —
गाथा : ९६ अन्वयार्थ : — [केवलज्ञानस्वभावः ] केवलज्ञानस्वभावी, [केवलदर्शनस्वभावः ] केवलदर्शनस्वभावी, [सुखमयः ] सुखमय और [केवलशक्तिस्वभावः ] केवलशक्तिस्वभावी [सः अहम् ] वह मैं हूँ — [इति ] ऐसा [ज्ञानी ] ज्ञानी [चिंतयेत् ] चिंतवन करते हैं ।
समस्त बाह्य प्रपंचकी वासनासे विमुक्त, निरवशेषरूपसे अन्तर्मुख परमतत्त्वज्ञानी जीवको शिक्षा दी गई है । किसप्रकार ? इसप्रकार : — सादि-अनंत अमूर्त अतीन्द्रियस्वभाववाले शुद्धसद्भूतव्यवहारसे, शुद्ध स्पर्श - रस - गंध-वर्णके आधारभूत शुद्ध पुद्गल-परमाणुकी भाँति, जो केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख तथा केवलशक्तियुक्त परमात्मा सो मैं हूँ, इसप्रकार ज्ञानीको भावना करनी चाहिये; और निश्चयसे, मैं सहजज्ञानस्वरूप हूँ, मैं सहजदर्शनस्वरूप हूँ, मैं सहजचारित्रस्वरूप हूँ तथा मैं सहजचित्शक्तिस्वरूप हूँ इसप्रकार भावना करनी चाहिये
इसीप्रकार एकत्वसप्ततिमें ( – श्री पद्मनन्दि-आचार्यवरकृत, पद्मनन्दिपञ्चविंशतिके एकत्वसप्ततिनामक अधिकारमें २०वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
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सकलविमलद्रष्टिः शाश्वतानंदरूपः ।
निखिलमुनिजनानां चित्तपंकेजहंसः ।।१२८।।
‘‘[श्लोकार्थ : — ] वह परम तेज केवलज्ञान, केवलदर्शन और केवलसौख्यस्वभावी है । उसे जानने पर क्या नहीं जाना ? उसे देखने पर क्या नहीं देखा ? उसका श्रवण करने पर क्या नहीं सुना ?’’
और (इस ९६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] समस्त मुनिजनोंके हृदयकमलका हंस ऐसा जो यह शाश्वत, केवलज्ञानकी मूर्तिरूप, सकलविमल दृष्टिमय ( – सर्वथा निर्मल दर्शनमय), शाश्वत आनन्दरूप, सहज परम चैतन्यशक्तिमय परमात्मा वह जयवन्त है । १२८ ।
गाथा : ९७ अन्वयार्थ : — [निजभावं ] जो निजभावको [न अपि मुंचति ] नहीं छोड़ता, [कम् अपि परभावं ] किंचित् भी परभावको [न एव गृह्णाति ] ग्रहण नहीं
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निरावरणनिरंजननिजपरमभावं क्वचिदपि नापि मुंचति, पंचविधसंसारप्रवृद्धिकारणं विभावपुद्गलद्रव्यसंयोगसंजातं रागादिपरभावं नैव गृह्णाति, निश्चयेन निजनिरावरणपरम- बोधेन निरंजनसहजज्ञानसहजद्रष्टिसहजशीलादिस्वभावधर्माणामाधाराधेयविकल्पनिर्मुक्त मपि सदामुक्तं सहजमुक्ति भामिनीसंभोगसंभवपरतानिलयं कारणपरमात्मानं जानाति, तथाविध- सहजावलोकेन पश्यति च, स च कारणसमयसारोहमिति भावना सदा कर्तव्या सम्यग्ज्ञानिभिरिति ।
तथा चोक्तं श्रीपूज्यपादस्वामिभिः — करता, [सर्वं ] सर्वको [जानाति पश्यति ] जानता - देखता है, [सः अहम् ] वह मैं हूँ — [इति ] ऐसा [ज्ञानी ] ज्ञानी [चिंतयेत् ] चिंतवन करता है ।
जो कारणपरमात्मा (१) समस्त पापरूपी बहादुर शत्रुसेनाकी विजय-ध्वजाको लूटनेवाले, त्रिकाल - निरावरण, निरंजन, निज परमभावको कभी नहीं छोड़ता; (२) पंचविध ( – पाँच परावर्तनरूप) संसारकी वृद्धिके कारणभूत, १विभावपुद्गलद्रव्यके संयोगसे जनित रागादिपरभावको ग्रहण नहीं करता; और (३) निरंजन सहजज्ञान - सहजदृष्टि - सहजचारित्रादि स्वभावधर्मोंके आधार - आधेय सम्बन्धी विकल्पों रहित, सदा मुक्त तथा सहज मुक्तिरूपी स्त्रीके संभोगसे उत्पन्न होनेवाले सौख्यके स्थानभूत — ऐसे २कारणपरमात्माको निश्चयसे निज निरावरण परमज्ञान द्वारा जानता है और उस प्रकारके सहज अवलोकन द्वारा ( – सहज निज निरावरण परमदर्शन द्वारा) देखता है; वह कारणसमयसार मैं हूँ — ऐसी सम्यग्ज्ञानियोंको सदा भावना करना चाहिये ।
इसीप्रकार श्री पूज्यपादस्वामीने (समाधितंत्रमें २०वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : — १ – रागादिपरभावकी उत्पत्तिमें पुद्गलकर्म निमित्त बनता है । २ – कारणपरमात्मा ‘स्वयं आधार है और स्वभावधर्म आधेय हैं ’ ऐसे विकल्पोंसे रहित है, सदा मुक्त है और मुक्तिसुखका आवास है ।
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जानाति पश्यति च पंचमभावमेकम् ।
गृह्णाति नैव खलु पौद्गलिकं विकारम् ।।१२9।।
वन्यद्रव्यकृताग्रहोद्भवमिमं मुक्त्वाधुना विग्रहम् ।
देवानाममृताशनोद्भवरुचिं ज्ञात्वा किमन्याशने ।।१३०।।
‘‘[श्लोकार्थ : — ] जो अग्राह्यको ( – ग्रहण न करने योग्यको) ग्रहण नहीं करता तथा गृहीतको ( – ग्राह्यको, शाश्वत स्वभावको) छोड़ता नहीं है, सर्वको सर्व प्रकारसे जानता है, वह स्वसंवेद्य (तत्त्व) मैं हूँ ।’’
और (इस ९७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज चार श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] आत्मा आत्मामें निज आत्मिक गुणोंसे समृद्ध आत्माको — एक पंचमभावको — जानता है और देखता है; उस सहज एक पंचमभावको उसने छोड़ा नहीं ही है तथा अन्य ऐसे परभावको — कि जो वास्तवमें पौद्गलिक विकार है उसे — वह ग्रहण नहीं ही करता ।१२९।
[श्लोकार्थ : — ] अन्य द्रव्यका १आग्रह करनेसे उत्पन्न होनेवाले इस २विग्रहको अब छोड़कर, विशुद्ध - पूर्ण - सहजज्ञानात्मक सौख्यकी प्राप्तिके हेतु, मेरा यह निज अन्तर १ – आग्रह = पकड़; ग्रहण; लगे रहना वह । २ – विग्रह = (१) रागद्वेषादि कलह; (२) शरीर ।
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नान्यद्रव्यविभावनोद्भवमिदं शर्मामृतं निर्मलम् ।
प्राप्नोति स्फु टमद्वितीयमतुलं चिन्मात्रचिंतामणिम् ।।१३१।।
मुझमें — चैतन्यमात्र - चिंतामणिमें निरन्तर लगा है — उसमें आश्चर्य नहीं है, कारण कि अमृतभोजनजनित स्वादको जानकर देवोंको अन्य भोजनसे क्या प्रयोजन है ? (जिस प्रकार अमृतभोजनके स्वादको जानकर देवोंका मन अन्य भोजनमें नहीं लगता, उसीप्रकार ज्ञानात्मक सौख्यको जानकर हमारा मन उस सौख्यके निधान चैतन्यमात्र-चिन्तामणिके अतिरिक्त अन्य कहीं नहीं लगता ।) ।१३०।
[श्लोकार्थ : — ] द्वन्द्व रहित, उपद्रव रहित, उपमा रहित, नित्य, निज आत्मासे उत्पन्न होनेवाले, अन्य द्रव्यकी विभावनासे ( – अन्य द्रव्यों सम्बन्धी विकल्प करनेसे) उत्पन्न न होनेवाले — ऐसे इस निर्मल सुखामृतको पीकर ( – उस सुखामृतके स्वादके पास सुकृत भी दुःखरूप लगनेसे), जो जीव १सुकृतात्मक है वह अब इस सुकृतको भी छोड़कर अद्वितीय अतुल चैतन्यमात्र - चिन्तामणिको स्फु टरूपसे ( – प्रगटरूपसे) प्राप्त करता है ।१३१।
[श्लोकार्थ : — ] गुरुचरणोंके २समर्चनसे उत्पन्न हुई निज महिमाको जाननेवाला कौन विद्वान ‘यह परद्रव्य मेरा है’ ऐसा कहेगा ? १३२। १ – सुकृतात्मक = सुकृतवाला; शुभकृत्यवाला; पुण्यकर्मवाला; शुभ भाववाला । २ – समर्चन = सम्यक् अर्चन; सम्यक् पूजन; सम्यक् भक्ति ।
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स्थित्यनुभागबन्धौ स्तः; एभिश्चतुर्भिर्बन्धैर्निर्मुक्त : सदानिरुपाधिस्वरूपो ह्यात्मा सोहमिति सम्यग्ज्ञानिना निरन्तरं भावना कर्तव्येति ।
संग्राह्यं तैर्निरुपममिदं मुक्ति साम्राज्यमूलम् ।
श्रुत्वा शीघ्रं कुरु तव मतिं चिच्चमत्कारमात्रे ।।१३३।।
गाथा : ९८ अन्वयार्थ :— [प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबंधैः विवर्जितः ] प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध रहित [आत्मा ] जो आत्मा [सः अहम् ] सो मैं हूँ — [इति ] यों [चिंतयन् ] चिंतवन करता हुआ, (ज्ञानी) [तत्र एव च ] उसीमें [स्थिरभावं करोति ] स्थिरभाव करता है ।
टीका : — यहाँ ( – इस गाथामें), बन्धरहित आत्मा भाना चाहिये — इस प्रकार भव्यको शिक्षा दी है ।
शुभाशुभ मनवचनकायसम्बन्धी कर्मोंसे प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध होता है; चार कषायोंसे स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध होता है; इन चार बन्धों रहित सदा निरुपाधिस्वरूप जो आत्मा सो मैं हूँ — ऐसी सम्यग्ज्ञानीको निरन्तर भावना करनी चाहिये ।
[अब इस ९८ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] जो मुक्तिसाम्राज्यका मूल है ऐसे इस निरुपम, सहजपरमानन्दवाले चिद्रूपको ( – चैतन्यके स्वरूपको) एकको बुद्धिमान पुरुषोंको सम्यक् प्रकारसे ग्रहण करना योग्य है; इसलिये, हे मित्र ! तू भी मेरे उपदेशके सारको सुनकर, तुरन्त ही उग्ररूपसे इस चैतन्यचमत्कारमात्रके प्रति अपनी वृत्ति कर ।१३३।
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पेक्षालक्षणलक्षिते निर्ममकारात्मनि आत्मनि स्थित्वा ह्यात्मानमवलम्ब्य च संसृति- पुरंध्रिकासंभोगसंभवसुखदुःखाद्यनेकविभावपरिणतिं परिहरामि ।
गाथा : ९९ अन्वयार्थ : — [ममत्वं ] मैं ममत्वको [परिवर्जयामि ] छोड़ता हूँ और [निर्ममत्वम् ] निर्ममत्वमें [उपस्थितः ] स्थित रहता हूँ; [आत्मा ] आत्मा [मे ] मेरा [आलम्बनं च ] आलम्बन है [अवशेषं च ] और शेष [विसृजामि ] मैं छोड़ता हूँ ।
सुन्दर कामिनी, १कांचन आदि समस्त परद्रव्य - गुण - पर्यायोंके प्रति ममकारको मैं छोड़ता हूँ । परमोपेक्षालक्षणसे लक्षित २निर्ममकारात्मक आत्मामें स्थित रहकर तथा आत्माका अवलम्बन लेकर, ३संसृतिरूपी स्त्रीके संभोगसे उत्पन्न सुख-दुःखादि अनेक विभावरूप परिणतिको मैं परिहरता हूँ ।
इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति नामक टीकामें १०४वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : — १ – कांचन = सुवर्ण; धन । २ – निर्ममकारात्मक = निर्ममत्वमय; निर्ममत्वस्वरूप । (निर्ममत्वका लक्षण परम उपेक्षा है ।) ३ – संसृति = संसार ।
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प्रवृत्ते नैष्कर्म्ये न खलु मुनयः संत्यशरणाः ।
स्वयं विंदंत्येते परमममृतं तत्र निरताः ।।’’
भववनधिसमुत्थं मोहयादःसमूहम् ।
प्रबलतरविशुद्धध्यानमय्या त्यजामि ।।१३४।।
‘‘[श्लोकार्थ : — ] शुभ आचरणरूप कर्म और अशुभ आचरणरूप कर्म — ऐसे समस्त कर्मोंका निषेध किया जाने पर और इसप्रकार निष्कर्म अवस्था वर्तने पर, मुनि कहीं अशरण नहीं है; (कारण कि) जब निष्कर्म अवस्था (निवृत्ति-अवस्था) वर्तती है तब ज्ञानमें आचरण करता हुआ — रमण करता हुआ — परिणमन करता हुआ ज्ञान ही उन मुनियोंको शरण है; वे उस ज्ञानमें लीन होते हुए परम अमृतका स्वयं अनुभवन करते हैं — आस्वादन करते हैं ।’’
और (इस ९९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] मन - वचन - काया सम्बन्धी और समस्त इन्द्रियों सम्बन्धी इच्छाका जिसने ❃नियंत्रण किया है ऐसा मैं अब भवसागरमें उत्पन्न होनेवाले मोहरूपी जलचर प्राणियोंके समूहको तथा कनक और युवतीकी वांछाको अतिप्रबल - विशुद्ध - ध्यानमयी सर्व शक्तिसे छोड़ता हूँ ।१३४। ❃ नियंत्रण करना = संयमन करना; अन्कु शमें लेना ।
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शुद्धज्ञानचेतनापरिणतस्य मम सम्यग्ज्ञाने च, स च प्रांचितपरमपंचमगतिप्राप्तिहेतुभूतपंचम- भावभावनापरिणतस्य मम सहजसम्यग्दर्शनविषये च, साक्षान्निर्वाणप्राप्त्युपायस्वस्वरूपाविचल- स्थितिरूपसहजपरमचारित्रपरिणतेर्मम सहजचारित्रेऽपि स परमात्मा सदा संनिहितश्च, स चात्मा सदासन्नस्थः शुभाशुभपुण्यपापसुखदुःखानां षण्णां सकलसंन्यासात्मकनिश्चयप्रत्याख्याने च
गाथा : १०० अन्वयार्थ : — [खलु ] वास्तवमें [मम ज्ञाने ] मेरे ज्ञानमें [आत्मा ] आत्मा है, [मे दर्शने ] मेरे दर्शनमें [च ] तथा [चरित्रे ] चारित्रमें [आत्मा ] आत्मा है, [प्रत्याख्याने ] मेरे प्रत्याख्यानमें [आत्मा ] आत्मा है, [मे संवरे योगे ] मेरे संवरमें तथा योगमें ( – शुद्धोपयोगमें) [आत्मा ] आत्मा है ।
टीका : — यहाँ ( – इस गाथामें), सर्वत्र आत्मा उपादेय ( – ग्रहण करने योग्य) है ऐसा कहा है ।
आत्मा वास्तवमें अनादि - अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रियस्वभाववाला, शुद्ध, सहज - सौख्यात्मक है । सहज शुद्ध ज्ञानचेतनारूपसे परिणमित जो मैं उसके (अर्थात् मेरे) सम्यग्ज्ञानमें सचमुच वह (आत्मा) है; पूजित परम पंचमगतिकी प्राप्तिके हेतुभूत पंचमभावकी भावनारूपसे परिणमित जो मैं उसके सहज सम्यग्दर्शनविषयमें (अर्थात् मेरे सहज सम्यग्दर्शनमें) वह (आत्मा) है; साक्षात् निर्वाणप्राप्तिके उपायभूत, निज स्वरूपमें अविचल स्थितिरूप सहजपरमचारित्रपरिणतिवाला जो मैं उसके (अर्थात् मेरे) सहज चारित्रमें
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मम भेदविज्ञानिनः परद्रव्यपराङ्मुखस्य पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहस्य, मम सहज- वैराग्यप्रासादशिखरशिखामणेः स्वरूपगुप्तस्य पापाटवीपावकस्य शुभाशुभसंवरयोश्च, अशुभोप- योगपराङ्मुखस्य शुभोपयोगेऽप्युदासीनपरस्य साक्षाच्छुद्धोपयोगाभिमुखस्य मम परमागममकरंद- निष्यन्दिमुखपद्मप्रभस्य शुद्धोपयोगेऽपि च स परमात्मा सनातनस्वभावत्वात्तिष्ठति ।
भी वह परमात्मा सदा संनिहित ( – निकट) है; भेदविज्ञानी, परद्रव्यसे पराङ्मुख तथा पंचेन्द्रियके विस्तार रहित देहमात्रपरिग्रहवाला जो मैं उसके निश्चयप्रत्याख्यानमें — कि जो (निश्चयप्रत्याख्यान) शुभ, अशुभ, पुण्य, पाप, सुख और दुःख इन छहके सकलसंन्यासस्वरूप है (अर्थात् इन छह वस्तुओंके सम्पूर्ण त्यागस्वरूप है ) उसमें — वह आत्मा सदा आसन्न ( – निकट) विद्यमान है; सहज वैराग्यरूपी महलके शिखरका शिखामणि, स्वरूपगुप्त और पापरूपी अटवीको जलानेके लिये पावक समान जो मैं उसके शुभाशुभसंवरमें (वह परमात्मा है ), तथा अशुभोपयोगसे पराङ्मुख, शुभोपयोगके प्रति भी उदासीनतावाला और साक्षात् शुद्धोपयोगके सम्मुख जो मैं — परमागमरूपी पुष्परस जिसके मुखसे झरता है ऐसा पद्मप्रभ — उसके शुद्धोपयोगमें भी वह परमात्मा विद्यमान है कारण कि वह (परमात्मा) सनातन स्वभाववाला है ।
इसीप्रकार एकत्वसप्ततिमें ( – श्री पद्मनन्दि-आचार्यवरकृत पद्मनन्दिपञ्चविंशतिकाके एकत्वसप्तति नामक अधिकारमें ३९, ४० तथा ४१वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] वही एक ( – वह चैतन्यज्योति ही एक) परम ज्ञान है, वही एक पवित्र दर्शन है, वही एक चारित्र है तथा वही एक निर्मल तप है ।
[श्लोकार्थ : — ] सत्पुरुषोंको वही एक नमस्कारयोग्य है, वही एक मंगल है, वही एक उत्तम है तथा वही एक शरण है ।