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कर्मविनाशं कुर्वन्ति
घ्नन्ति ] कर्मका घात करते हैं
है
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भवति, व्यवहारोत्तमार्थप्रतिक्रमणं व्यवहारधर्मध्यानमयत्वाद्विषकुंभस्वरूपं भवति
सकल इन्द्रियोंसे अगोचर निश्चय
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तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात
किं नोर्ध्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमादः
ध्यानध्येयप्रमुखसुतपःकल्पनामात्ररम्यम्
निर्मज्जन्तं सहजपरमात्मानमेकं प्रपेदे
चढ़ते ?’’
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इसलिये [ध्यानम् एव ] ध्यान ही [हि ] वास्तवमें [सर्वातिचारस्य ] सर्व अतिचारका
[प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण है
क्रियाकांडके आडम्बर रहित और व्यवहारनयात्मक
व्यवहारनयात्मकभेदकरणध्यानध्येयविकल्पनिर्मुक्त निखिलकरणग्रामागोचरपरमतत्त्वशुद्धान्तस्तत्त्व-
विषयभेदकल्पनानिरपेक्षनिश्चयशुक्लध्यानस्वरूपे तिष्ठति च, स च निरवशेषेणान्तर्मुखतया
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वे दो ध्यान ही सर्व अतिचारोंका प्रतिक्रमण है
[तथा ज्ञात्वा ] तदनुसार जानकर [यः ] जो [भावयति ] भाता है, [तस्य ] उसे [तदा ]
तब [प्रतिक्रमणम् भवति ] प्रतिक्रमण है
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प्रतिक्रमणका अति विस्तारसे वर्णन किया है, तदनुसार जानकर जिननीतिको अनुल्लंघता
हुआ जो सुन्दरचारित्रमूर्ति महामुनि सकल संयमकी भावना करता है, उस महामुनिको
परिग्रह है और परम गुरुके चरणोंके स्मरणमें आसक्त जिसका चित्त है, उसे
(
जिननीतिमलंघयन् चारुचरित्रमूर्तिः सकलसंयमभावनां करोति, तस्य महामुनेर्बाह्यप्रपंच-
विमुखस्य पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहस्य परमगुरुचरणस्मरणासक्त चित्तस्य तदा
प्रतिक्रमणं भवतीति
मुक्तिं सदाकर्ण्य च यस्य चित्तम्
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र्नास्त्यप्रतिक्रमणमप्यणुमात्रमुच्चैः
श्रीवीरनन्दिमुनिनामधराय नित्यम्
भूषणके धारण करनेवाले श्री वीरनन्दी नामके मुनिको नित्य नमस्कार हो
तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार
परमागमकी निर्गं्रथ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें)
निश्चय-प्रतिक्रमण अधिकार नामका पाँचवाँ श्रुतस्कंध समाप्त हुआ
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समान है, समस्त कर्मोंकी निर्जराके हेतुभूत है, मोक्षकी सीढ़ी है और मुक्तिरूपी स्त्रीके प्रथम
दर्शनकी भेंट है
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उसे [प्रत्याख्यानं ] प्रत्याख्यान [भवेत् ] है
व्यवहार-प्रत्याख्यानका स्वरूप है
कर्मणां संवरः प्रत्याख्यानम्
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चारित्र अतिशयरूपसे हैं
तं वंदेहं भवपरिभवक्लेशनाशाय नित्यम्
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[केवलशक्तिस्वभावः ] केवलशक्तिस्वभावी [सः अहम् ] वह मैं हूँ
परमात्मा सो मैं हूँ, इसप्रकार ज्ञानीको भावना करनी चाहिये; और निश्चयसे, मैं
सहजज्ञानस्वरूप हूँ, मैं सहजदर्शनस्वरूप हूँ, मैं सहजचारित्रस्वरूप हूँ तथा मैं
सहजचित्शक्तिस्वरूप हूँ इसप्रकार भावना करनी चाहिये
यः सोहमिति भावना कर्तव्या ज्ञानिनेति; निश्चयेन सहजज्ञानस्वरूपोहम्, सहजदर्शन-
स्वरूपोहम्, सहजचारित्रस्वरूपोहम्, सहजचिच्छक्ति स्वरूपोहम्, इति भावना कर्तव्या चेति
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सकलविमल
निखिलमुनिजनानां चित्तपंकेजहंसः
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विभावपुद्गलद्रव्यसंयोगसंजातं रागादिपरभावं नैव गृह्णाति, निश्चयेन निजनिरावरणपरम-
बोधेन निरंजनसहजज्ञानसहज
सहजावलोकेन पश्यति च, स च कारणसमयसारोहमिति भावना सदा कर्तव्या
सम्यग्ज्ञानिभिरिति
है और मुक्तिसुखका आवास है
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जानाति पश्यति च पंचमभावमेकम्
गृह्णाति नैव खलु पौद्गलिकं विकारम्
वन्यद्रव्यकृताग्रहोद्भवमिमं मुक्त्वाधुना विग्रहम्
देवानाममृताशनोद्भवरुचिं ज्ञात्वा किमन्याशने
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अमृतभोजनके स्वादको जानकर देवोंका मन अन्य भोजनमें नहीं लगता, उसीप्रकार
ज्ञानात्मक सौख्यको जानकर हमारा मन उस सौख्यके निधान चैतन्यमात्र-चिन्तामणिके
अतिरिक्त अन्य कहीं नहीं लगता
नान्यद्रव्यविभावनोद्भवमिदं शर्मामृतं निर्मलम्
प्राप्नोति स्फु टमद्वितीयमतुलं चिन्मात्रचिंतामणिम्
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अहम् ] सो मैं हूँ
जो आत्मा सो मैं हूँ
ही उग्ररूपसे इस चैतन्यचमत्कारमात्रके प्रति अपनी वृत्ति कर
सम्यग्ज्ञानिना निरन्तरं भावना कर्तव्येति
संग्राह्यं तैर्निरुपममिदं मुक्ति साम्राज्यमूलम्
श्रुत्वा शीघ्रं कुरु तव मतिं चिच्चमत्कारमात्रे
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[आलम्बनं च ] आलम्बन है [अवशेषं च ] और शेष [विसृजामि ] मैं छोड़ता हूँ
पुरंध्रिकासंभोगसंभवसुखदुःखाद्यनेकविभावपरिणतिं परिहरामि
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अशरण नहीं है; (कारण कि) जब निष्कर्म अवस्था (निवृत्ति-अवस्था) वर्तती है तब
ज्ञानमें आचरण करता हुआ
प्रवृत्ते नैष्कर्म्ये न खलु मुनयः संत्यशरणाः
स्वयं विंदंत्येते परमममृतं तत्र निरताः
भववनधिसमुत्थं मोहयादःसमूहम्
प्रबलतरविशुद्धध्यानमय्या त्यजामि
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आत्मा है, [प्रत्याख्याने ] मेरे प्रत्याख्यानमें [आत्मा ] आत्मा है, [मे संवरे योगे ] मेरे संवरमें
तथा योगमें (
पंचमभावकी भावनारूपसे परिणमित जो मैं उसके सहज सम्यग्दर्शनविषयमें (अर्थात् मेरे
सहज सम्यग्दर्शनमें) वह (आत्मा) है; साक्षात् निर्वाणप्राप्तिके उपायभूत, निज स्वरूपमें
अविचल स्थितिरूप सहजपरमचारित्रपरिणतिवाला जो मैं उसके (अर्थात् मेरे) सहज चारित्रमें
भावभावनापरिणतस्य मम सहजसम्यग्दर्शनविषये च, साक्षान्निर्वाणप्राप्त्युपायस्वस्वरूपाविचल-
स्थितिरूपसहजपरमचारित्रपरिणतेर्मम सहजचारित्रेऽपि स परमात्मा सदा संनिहितश्च, स चात्मा
सदासन्नस्थः शुभाशुभपुण्यपापसुखदुःखानां षण्णां सकलसंन्यासात्मकनिश्चयप्रत्याख्याने च
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सकलसंन्यासस्वरूप है (अर्थात् इन छह वस्तुओंके सम्पूर्ण त्यागस्वरूप है ) उसमें
शुभाशुभसंवरमें (वह परमात्मा है ), तथा अशुभोपयोगसे पराङ्मुख, शुभोपयोगके प्रति भी
उदासीनतावाला और साक्षात् शुद्धोपयोगके सम्मुख जो मैं
वैराग्यप्रासादशिखरशिखामणेः स्वरूपगुप्तस्य पापाटवीपावकस्य शुभाशुभसंवरयोश्च, अशुभोप-
योगपराङ्मुखस्य शुभोपयोगेऽप्युदासीनपरस्य साक्षाच्छुद्धोपयोगाभिमुखस्य मम परमागममकरंद-
निष्यन्दिमुखपद्मप्रभस्य शुद्धोपयोगेऽपि च स परमात्मा सनातनस्वभावत्वात्तिष्ठति