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११३।।
जाणंति रसं फासं जे ते बेइंदिया
जानन्ति रसं स्पर्शं ये ते द्वीन्द्रियाः जीवाः।। ११४।।
जीवत्वका भी निश्चय किया जाता है; क्योंकि दोनोंमें बुद्धिपूर्वक व्यापारका
आगम, अनुमान इत्यादिसे निश्चित किया जा सकता है।
निमित्तसे अपनेको एकेन्द्रिय और दुःखी करता है।। ११३।।
जानते हैं [ते] वे–[द्वीन्द्रियाः जीवाः] द्वीन्द्रिय जीव हैं।
–जे जाणता रसस्पर्शने, ते जीव द्वींद्रिय जाणवा। ११४।
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जाणंति रसं फासं गंधं तेइंदिया जीवा।। ११५।।
जानन्ति रसं स्पर्शं गंधं त्रींद्रियाः जीवाः।। ११५।।
होनेसे स्पर्श और रसको जाननेवाले यह [शंबूक आदि] जीव मनरहित द्वीन्द्रिय जीव हैं।। ११४।।
जीवाः] वे त्रीन्द्रिय जीव हैं।
आदि] जीव मनरहित त्रीन्द्रिय जीव हैं।। ११५।।
रस, गंध तेम ज स्पर्श जाणे, जीव त्रीन्द्रिय तेह छे। ११५।
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रूवं रसं च गंधं फासं पुण ते विजाणंति।। ११६।।
रूपं रसं च गंधं स्पर्शं पुनस्ते विजानन्ति।। ११६।।
एते स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुरिन्द्रियावरणक्षयोपशमात् श्रोत्रेन्द्रियावरणोदये नोइन्द्रिया–वरणोदये च
[च] और [स्पर्शं] स्पर्शको [विजानन्ति] वजानते हैं। [वे चतुरिन्द्रिय जीव हैं।]
जाननेवाले यह [डाँस आदि] जीव मनरहित चतुरिन्द्रिय जीव हैं।। ११६।।
ते जीव जाणे स्पर्शने, रस, गंध तेम ज रूपने। ११६।
स्पर्शादि पंचक जाणतां तिर्यंच–नारक–सुर–नरो
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जलचरस्थलचरखचरा बलिनः पंचेन्द्रिया जीवाः।। ११७।।
अथ स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमात् नोइन्द्रियावरणोदये सति स्पर्श–
समनस्काश्च भवन्ति। तत्र देवमनुष्यनारकाः समनस्का एव, तिर्यंच उभयजातीया इति।।११७।।
तिरिया बहुप्पयारा णेरइया
तिर्यंचः बहुप्रकाराः नारकाः पृथिवीभेदगताः।। ११८।।
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खेचर होते हैं वे –[बलिनः पंचेन्द्रियाः जीवाः] बलवान पंचेन्द्रिय जीव हैं।
मनरहित पंचेन्द्रिय जीव हैं; कतिपय [पंचेन्द्रिय जीव] तो, उन्हें मनके आवरणका भी क्षयोपशम
होनेसे, मनसहित [पंचेन्द्रिय जीव] होते हैं।
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देवगतिनाम्नो देवायुषश्चोदयाद्देवाः, ते च भवनवासिव्यंतरज्योतिष्कवैमानिकनिकाय–भेदाच्चतुर्धा।
मनुष्यगतिनाम्नो मनुष्यायुषश्च उदयान्मनुष्याः। ते कर्मभोगभूमिजभेदात्
चतुष्पदादिभेदादनेकधा। नरकगतिनाम्नो नरकायुषश्च उदयान्नारकाः। ते रत्नशर्करावालुका–
पङ्कधूमतमोमहातमःप्रभाभूमिजभेदात्सप्तधा। तत्र देवमनुष्यनारकाः पंचेन्द्रिया एव। तिर्यंचस्तु
केचित्पंचेन्द्रियाः, केचिदेक–द्वि–त्रि–चतुरिन्द्रिया अपीति।। ११८।।
प्रकारके हैं [पुनः] और [नारकाः पृथिवीभेदगताः] नारकोंके भेद उनकी पृथ्वियोंके भेद जितने हैं।
उपसंहार किया गया है]।
ऐसे भेदोंके कारण दो प्रकारके हैं। तिर्यंचगतिनाम और तिर्यंचायुके उदयसे तिर्यंच होते हैं; वे पृथ्वी,
शंबूक, जूं, डाँस, जलचर, उरग, पक्षी, परिसर्प, चतुष्पाद [चौपाये] इत्यादि भेदोंके कारण अनेक
प्रकारके हैं। नरकगतिनाम और नरकायुके उदयसे नारक होते हैं; वे
महातमःप्रभाभूमिज ऐसे भेदोंके कारण सात प्रकारके हैं।
२। रत्नप्रभाभूमिज = रत्नप्रभा नामकी भूमिमें [–प्रथम नरकमें] उत्पन्न ।
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पाउण्णंति य अण्णं गदिमाउस्सं सलेस्सवसा।। ११९।।
प्राप्नुवन्ति चान्यां गतिमायुष्कं स्वलेश्यावशात्।। ११९।।
भावनासे रहित जीव जो चतुर्गतिनामकर्म उपार्जित करते हैं उसके उदयवश वे देवादि गतियोंमें
उत्पन्न होते हैं।। ११८।।
आयुष्कं च] अन्य गति और आयुष्य [प्राप्नुवन्ति] प्राप्त करते हैं।
ऐसा दर्शाया गया है।
त्यां अन्य गति–आयुष्य पामे जीव निजलेश्यावशे। ११९।
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गतिनामायुःकर्मभ्यामनात्मस्वभावभूताभ्यामपि चिरमनुगम्यमानाः संसरंत्यात्मानमचेतयमाना जीवा
इति।। ११९।।
देहविहूणा सिद्धा भव्वा संसारिणो अभव्वा य।। १२०।।
देहविहीनाः सिद्धाः भव्याः संसारिणोऽभव्याश्च।। १२०।।
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कारण होती है], इसलिये उसके उचित ही अन्य गति तथा अन्य आयुष वे प्राप्त करते हैं। इस
प्रकार
रहते हैं इसलिये, आत्माको नहीं चेतनेवाले जीव संसरण करते हैं [अर्थात् आत्माका अनुभव नहीं
करनेवाले जीव संसारमें परिभ्रमण करते हैं]।
और इसलिये उसके योग्य ही अन्य गति–आयुष प्राप्त होती है] ।। ११९।।
ने देहविरहित सिद्ध छे; संसारी भव्य–अभव्य छे। १२०।
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स्वरूपोपलम्भशक्तिसद्भावासद्भावाभ्यां पाच्यापाच्यमुद्गवदभिधीयंत इति।। १२०।।
जं हवदि तेसु णाणं जीवो त्ति य तं परूवेंति।। १२१।।
यद्भवति तेषु ज्ञानं जीव इति च तत्प्ररूपयन्ति।। १२१।।
वर्तनेकी अपेक्षासे संसारी जीवोंका एक प्रकार होने पर भी वे भव्य और अभव्य ऐसे दो प्रकारके हैं।
‘
हैं ।। १२०।।
२। अपाच्य = नहीं पकनेयोग्य; रंधने–सीझनेकी योग्यता रहित; कोरा।
३। उपलब्धि = प्राप्ति; अनुभव।
छे तेमनामां ज्ञान जे बस ते ज जीव निर्दिष्ट छे। १२१।
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कायाः जीवलक्षणभूतचैतन्यस्वभावाभावान्न जीवा भवंतीति। तेष्वेव यत्स्वपरपरिच्छित्तिरूपेण
प्रकाशमानं ज्ञानं तदेव गुणगुणिनोः कथञ्चिदभेदाज्जीवत्वेन प्ररूप्यत इति।। १२१।।
कुव्वदि हिदमहिदं वा भुंजदि जीवो फलं तेसिं।। १२२।।
करोति हितमहितं वा भुंक्ते जीवः फलं तयोः।। १२२।।
वह जीव है [इति च प्ररूपयन्ति] ऐसी [ज्ञानी] प्ररूपणा करते हैं।
यहाँ समझाया है]।
जाते हैं। निश्चयनयसे उनमें स्पर्शनादि इन्द्रियाँ तथा पृथ्वी–आदि कायें, जीवके लक्षणभूत
चैतन्यस्वभावके अभावके कारण, जीव नहीं हैं; उन्हींमें जो स्वपरको ज्ञप्तिरूपसे प्रकाशमान ज्ञान है
वही, गुण–गुणीके कथंचित् अभेदके कारण, जीवरूपसे प्ररूपित किया जाता है।। १२१।।
हित–अहित जीव करे अने हित–अहितनुं फळ भोगवे। १२२।
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चैतन्यविवर्तरूपसङ्कल्पप्रभवत्वात्स एव कर्ता, नान्यः। शुभाशुभाकर्मफलभूताया इष्टानिष्ट–
विषयोपभोगक्रियायाश्च सुखदुःखस्वरूपस्वपरिणामक्रियाया इव स एव कर्ता, नान्यः।
एतेनासाधारणकार्यानुमेयत्वं पुद्गलव्यतिरिक्तस्यात्मनो द्योतितमिति।। १२२।।
भोगता है।
उसी प्रकार। [चैतन्यस्वभावके कारण जानने और देखने की क्रियाका जीव ही कर्ता है; जहाँ जीव
है वहाँ चार अरूपी अचेतन द्रव्य भी हैं तथापि वे जिस प्रकार जानने और देखने की क्रियाके
कर्ता नहीं है उसी प्रकार जीवके साथ सम्बन्धमें रहे हुए कर्म–नोकर्मरूप पुद्गल भी उस क्रियाके
कर्ता नहीं है।] चैतन्यके विवर्तरूप [–परिवर्तनरूप] संकल्पकी उत्पत्ति [जीवमें] होनेके कारण,
सुखकी अभिलाषारूप क्रियाका, दुःखके उद्वेगरूप क्रियाका तथा स्वसंवेदित हित–अहितकी
निष्पत्तिरूप क्रियाका [–अपनेसे संचेतन किये जानेवाले शुभ–अशुभ भावोंको रचनेरूप क्रियाका]
जीव ही कर्ता है; अन्य नहीं है। शुभाशुभ कर्मके फलभूत
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अभिगच्छदु अज्जीवं णाणंतरिदेहिं लिंगेहिं।। १२३।।
अभिगच्छत्वजीवं ज्ञानांतरितैर्लिङ्गैः।। १२३।।
है या उनके फलको नहीं भोगते; इसलिये जो जानता है और देखता है, सुखकी इच्छा करता है,
दुःखसे भयभीत होता है, शुभ–अशुभ भावोंमें प्रवर्तता है और उनके फलको भोगता है, वह, अचेतन
पदार्थोंके साथ रहने पर भी सर्व अचेतन पदार्थोंकी क्रियाओंसे बिलकुल विशिष्ट प्रकारकी क्रियाएँ
करनेवाला, एक विशिष्ट पदार्थ है। इसप्रकार जीव नामका चैतन्यस्वभावी पदार्थविशेष–कि जिसका
ज्ञानी स्वयं स्पष्ट अनुभव करते हैं वह–अपनी असाधारण क्रियाओं द्वारा अनुमेय भी है।। १२२।।
[अजीवम् अभिगच्छतु] अजीव जानो।
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कदाचित्तदभावाच्छुद्धैश्चैतन्यविवर्तग्रन्थिरूपैर्बहुभिः पर्यायैः जीवमधिगच्छेत्। अधिगम्य चैवमचैतन्य–
स्वभावत्वात् ज्ञानादर्थांतरभूतैरितः प्रपंच्यमानैर्लिङ्गैर्जीवसंबद्धमसंबद्धं वा स्वतो भेदबुद्धि–प्रसिद्धय
र्थमजीवमधिगच्छेदिति।। १२३।।
२। प्रपंचित = विस्तारपूर्वक कही गई।
३। मोहरागद्वेषपरिणतिके कारणा जीवको विश्वरूपता अर्थात् अनेकरूपता प्राप्त होती है।
४। ग्रन्थि = गाँठ। [जीवकी कदाचित् अशुद्ध और कदाचित् शुद्ध ऐसी पर्यायें चैतन्यविवर्तकी–चैतन्यपरिणमनकी–
५। ज्ञानसे अर्थांन्तरभूत = ज्ञानसे अन्यवस्तुभूत; ज्ञानसे अन्य अर्थात् जड़़़। [अजीवका स्वभाव अचैतन्य होनेके
६। जीवके साथ सम्बद्ध या जीव साथ असम्बद्ध ऐसे अजीवको जाननेका प्रयोजन यह है कि समस्त अजीव
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तेसिं अचेदणत्तं भणिदं जीवस्स
तेषामचेतनत्वं भणितं जीवस्य चेतनता।। १२४।।
दिति।। १२४।।
जस्स ण विज्जदि णिच्चं
अचेतनपना कहा है, [जीवस्य चेतनता] जीवको चेतनता कही है।
ही चेतनत्वसामान्य है।। १२४।।
तेमां अचेतनता कही, चेतनपणुं कह्युं जीवमां। १२४।
सुखदुःखसंचेतन, अहितनी भीति, उद्यम हित विषे
जेने कदी होतां नथी, तेने अजीव श्रमणो कहे। १२५।
यस्य न विद्यते नित्यं तं श्रमणा ब्रुवन्त्यजीवम्।। १२५।।
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सुखदुःखज्ञानस्य हितपरिकर्मणोऽहितभीरुत्वस्य चेति चैतन्यविशेषाणां नित्यमनुपलब्धेर–
[श्रमणाः] श्रमण [अजीवम् ब्रुवन्ति] अजीव कहते हैं।
निश्चित होता है कि] आकाशादि अजीवोंको चैतन्यसामान्य विद्यमान नहीं है।
हित के लिए प्रयत्न और अहितके लिए भीति–यह चेतनत्वविशेष कभी देखे नहीं जाते; इसलिये
निश्चित होता है कि आकाशादिको चेतनत्वसामान्य भी नहीं है, अर्थात् अचेतनत्वसामान्य ही है।।
१२५।।
निश्चयरत्नत्रयपरिणत परमात्मद्रव्यको हित समझते हैं और आकुलताके उत्पादक ऐसे दुःखको तथा उसके
कारणभूत मिथ्यात्वरागादिपरिणत आत्मद्रव्यको अहित समझते हैं।
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अरसमरूवमगंधं
पुद्गलद्रव्यप्रभवा भवन्ति गुणाः पर्यायाश्च बहवः।। १२६।।
अरसमरूपमगंधमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम्।
जानीह्यलिङ्गग्रहणं जीवमनिर्दिष्टसंस्थानम्।। १२७।।
जो बहु गुण और पर्यायें हैं, [पुद्गलद्रव्यप्रभवाः भवन्ति] वे पुद्गलद्रव्यनिष्पन्न है।
कहा ऐसा है], [चेतनागुणम्] चेतनागुणवाला है और [अलिङ्गग्रहणम्] इन्द्रियोंके द्वारा अग्राह्य है,
[जीवं जानीहि] उसे जीव जानो।
भिन्न स्वरूपका यह कथन है]।
ते बहु गुणो ने पर्ययो पुद्गलदरवनिष्पन्न छे। १२६।
जे चेतनागुण, अरसरूप,
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निर्दिष्टसंस्थानत्वादव्यक्तत्वादिपर्यायैः परिणतत्वाच्च नेन्द्रियग्रहणयोग्यं, तच्चेतना–
गुणत्वात् रूपिभ्योऽरूपिभ्यश्चाजीवेभ्यो विशिष्टं जीवद्रव्यम्। एवमिह जीवाजीवयोर्वास्तवो भेदः
सम्यग्ज्ञानिनां मार्गप्रसिद्धयर्थं प्रतिपादित इति।। १२६–१२७।।
इन्द्रियग्रहणयोग्य है, वह पुद्गलद्रव्य हैे; और [२] जो स्पर्श–रस–गन्ध–वर्णगुण रहित होनेके
कारण, अशब्द होनेके कारण, अनिर्दिष्टसंस्थान होनेके कारण तथा
अजीवोंसे
मुक्तिका मार्ग प्राप्त करानेके हेतु यहाँ जड़ पुद्गलद्रव्यके और चेतन जीवद्रव्यके वीतरागसर्वज्ञकथित
लक्षण कहे गए। जो जीव उन लक्षणोंको जानकर, अपनेको एक स्वतःसिद्ध स्वतंत्र द्रव्यरूपसे
पहिचानकर, भेदविज्ञानी अनुभवी होता है, वह निजात्मद्रव्यमें लीन होकर मोक्षमार्गको साधकर
शाश्वत निराकुल सुखका भोक्ता होता है।] १२६–१२७।।
२। अव्यक्तत्वादि = अव्यक्तत्व आदि; अप्रकटत्व आदिे।
३। विशिष्ट = भिन्न; विलक्षण; खास प्रकारका।
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परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु
परिणामात्कर्म कर्मणो भवति गतिषु गतिः।। १२८।।
गतिमधिगतस्य देहो देहादिन्द्रियाणि जायंते।
तैस्तु विषयग्रहणं ततो रागो वा द्वेषो वा।। १२९।।
जायते जीवस्यैवं भावः संसारचक्रवाले।
इति जिनवरैर्भणितोऽनादिनिधनः सनिधनो वा।। १३०।।
गतिप्राप्तने तन थाय, तनथी इंद्रियो वळी थाय छे,
एनाथी विषय ग्रहाय, रागद्वेष तेथी थाय छे। १२९।
ए रीत भाव अनादिनिधन अनादिसांत थया करे
संसारचक्र विषे जीवोने–एम जिनदेवो कहे। १३०।
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परिणामात्पुनः पुद्गलपरिणामात्मकं कर्म। कर्मणो नारकादिगतिषु गतिः। गत्यधिगमना–द्देहः।
परिणामात्पुनः पुद्गलपरिणामात्मकं कर्म। कर्मणः पुनर्नारकादिगतिषु गतिः। गत्यधिगमनात्पुनर्देहः।
देहात्पुनरिन्द्रियाणि। इन्द्रियेभ्यः पुनर्विषयग्रहणम्। विषयग्रहणात्पुना रागद्वेषौ। रागद्वेषाभ्यां पुनरपि
स्निग्धः परिणामः। एवमिदमन्योन्यकार्यकारणभूतजीवपुद्गल–परिणामात्मकं कर्मजालं संसारचक्रे
जीवस्यानाद्यनिधनं अनादिसनिधनं वा चक्रवत्परिवर्तते। तदत्र पुद्गलपरिणामनिमित्तो जीवपरिणामो
जीवपरिणामनिमित्तः पुद्गलपरिणामश्च वक्ष्यमाण–पदार्थबीजत्वेन संप्रधारणीय इति।। १२८–१३०।।
कर्म] परिणामसे कर्म और [कर्मणः] कर्मसे [गतिषु गतिः भवति] गतियोंमें गमन होता है।
विषयग्रहणसे राग अथवा द्वेष होता है।
ऐसा जिनवरोंने कहा है।
इन्द्रियाँ, इन्द्रियोंसे विषयग्रहण, विषयग्रहणसे रागद्वेष, रागद्वेषसे फिर स्निग्ध परिणाम, परिणामसे फिर
पुद्गलपरिणामात्मक कर्म, कर्मसे फिर नरकादि गतियोंमें गमन, गतिकी प्राप्तिसे फिर देह, देहसे
फिर इन्द्रियाँ, इन्द्रियोंसे फिर विषयग्रहण, विषयग्रहणसे फिर रागद्वेष, रागद्वेषसे फिर पुनः स्निग्ध
परिणाम। इस प्रकार यह अन्योन्य
पुनः होते रहते हैं।
जीवको अनादि–सान्त होते हैं।]
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पदार्थोंके बीजरूप अवधारना।
संसारका कारण आस्रव और बन्ध दो हैं [अथवा विस्तारपूर्वक कहे तो पुण्य, पाप, आस्रव और बन्ध
चार हैं] और उनका कारण मिथ्यादर्शन–ज्ञान–चारित्र है। सुख वह उपादेय तत्त्व है, उसका कारण
मोक्ष है, मोक्षका कारण संवर और निर्जरा है और उनका कारण सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र है। यह
प्रयोजनभूत बात भव्य जीवोंको प्रगटरूपसे दर्शानेके हेतु पुण्यादि
द्वारा, भविष्यकालमें पापका अनुबन्ध करनेवाले पुण्यपदार्थका भी कर्ता होता है। जो ज्ञानी जीव है वह,
निर्विकार–आत्मतत्त्वविषयक रुचि, तद्विषयक ज्ञप्ति और तद्विषयक निश्चल अनुभूतिरूप अभेदरत्नत्रयपरिणाम
द्वारा, संवर–निर्जरा–मोक्षपदार्थोंका कर्ता होता है; और जीव जब पूर्वोक्त निश्चयरत्नत्रयमें स्थिर नहीं रह
सकता तब निर्दोषपरमात्मस्वरूप अर्हंत–सिद्धोंकी तथा उनका [निर्दोष परमात्माका] आराधन करनेवाले
आचार्य–उपाध्याय–साधुओंकी निर्भर असाधारण भक्तिरूप ऐसा जो संसारविच्छेदके कारणभूत, परम्परासे
मुक्तिकारणभूत, तीर्थंकरप्रकृति आदि पुण्यका अनुबन्ध करनेवाला विशिष्ट पुण्य उसे अनीहितवृत्तिसे निदानरहित
परिणामसे करता है। इस प्रकार अज्ञानी जीव पापादि चार पदार्थोंका कर्ता है और ज्ञानी संवरादि तीन
पदार्थोंका कर्ता हैे।
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विद्यते तस्य शुभो वा अशुभो वा भवति परिणामः।। १३१।।
अशुभ [परिणामः] परिणाम [भवति] है।
होता है तब उसके साथ अनिच्छितवृत्तिसे वर्तते हुए विशिष्ट पुण्यमें संसारविच्छेदके कारणपनेका आरोप किया
जाता है। वह आरोप भी वास्तविक कारणके–सम्यग्दर्शनादिके –अस्तित्वमें ही हो सकता है।]
ते जीवने शुभ वा अशुभ परिणामनो सद्भाव छे। १३१।