Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 114-131 ; Ajiv padarth ka vyakhyan; Punya-pap padarth ka vyakhyan.

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१७२
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
एकेन्द्रियाणां चैतन्यास्तित्वे द्रष्टांतोपन्यासोऽयम्।
अंडांतर्लीनानां, गर्भस्थानां, मूर्च्छितानां च बुद्धिपूर्वकव्यापारादर्शनेऽपि येन प्रकारेण जीवत्वं
निश्चीयते, तेन प्रकारेणैकेन्द्रियाणामपि, उभयेषामपि बुद्धिपूर्वकव्यापारादर्शनस्य समान–त्वादिति।।
११३।।
संबुक्कमादुवाहा संखा सिप्पी अपादगा य किमी।
जाणंति रसं फासं जे ते बेइंदिया
जीवा।। ११४।।
शंबूकमातृवाहाः शङ्खाः शुक्तयोऽपादकाः च कृमयः।
जानन्ति रसं स्पर्शं ये ते द्वीन्द्रियाः जीवाः।। ११४।।
द्वीन्द्रियप्रकारसूचनेयम्।
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अंडेमें रहे हुए, गर्भमें रहे हुए और मूर्छा पाए हुए [प्राणियोंं] के जीवत्वका, उन्हें बुद्धिपूर्वक
व्यापार नहीं देखा जाता तथापि, जिस प्रकार निश्चय किया जाता है, उसी प्रकार एकेन्द्रियोंके
जीवत्वका भी निश्चय किया जाता है; क्योंकि दोनोंमें बुद्धिपूर्वक व्यापारका
अदर्शन समान है।
भावार्थः– जिस प्रकार गर्भस्थादि प्राणियोंमें, ईहापूर्वक व्यवहारका अभाव होने पर भी, जीवत्व
है ही, उसी प्रकार एकेन्द्रियोंमें भी, ईहापूर्वक व्यवहारका अभाव होने पर भी, जीवत्व है ही ऐसा
आगम, अनुमान इत्यादिसे निश्चित किया जा सकता है।
यहाँ ऐसा तात्पर्य ग्रहण करना कि–जीव परमार्थेसे स्वाधीन अनन्त ज्ञान और सौख्य सहित
होने पर भी अज्ञान द्वारा पराधीन इन्द्रियसुखमें आसक्त होकर जो कर्म बन्ध करता है उसके
निमित्तसे अपनेको एकेन्द्रिय और दुःखी करता है।। ११३।।
गाथा ११४
अन्वयार्थः– [शंबूकमातृवाहाः] शंबूक, मातृवाह, [शङ्खाः] शंख, [शुक्तयः] सीप [च] और
[अपादकाः कृमयः] पग रहित कृमि–[ये] जो कि [रसं स्पर्शं] रस और स्पर्शको [जानन्ति]
जानते हैं [ते] वे–[द्वीन्द्रियाः जीवाः] द्वीन्द्रिय जीव हैं।
टीकाः– यह, द्वीन्द्रिय जीवोंके प्रकारकी सूचना है।
--------------------------------------------------------------------------
अदर्शन = द्रष्टिगोचर नहीं होना।
शंबूक, छीपो, मातृवाहो, शंख, कृमि पग–वगरना
–जे जाणता रसस्पर्शने, ते जीव द्वींद्रिय जाणवा। ११४।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
१७३
एते स्पर्शनरसनेन्द्रियावरणक्षयोपशमात् शेषेन्द्रियावरणोदये नोइन्द्रियावरणोदये च सति
स्पर्शरसयोः परिच्छेत्तारो द्वीन्द्रिया अमनसो भवंतीति।। ११४।।
जूगागुंभीमक्कणपिपीलिया विच्छुयादिया कीडा।
जाणंति रसं फासं गंधं तेइंदिया जीवा।। ११५।।
यूकाकुंभीमत्कुणपिपीलिका वृश्चिकादयः कीटाः।
जानन्ति रसं स्पर्शं गंधं त्रींद्रियाः जीवाः।। ११५।।
त्रीन्द्रियप्रकारसूचनेयम्।
एते स्पर्शनरसनघ्राणेंद्रियावरणक्षयोपशमात् शेषेंद्रियावरणोदये नोइंद्रियावरणोदये च सति
स्पर्शरसगंधानां परिच्छेत्तारस्त्रीन्द्रिया अमनसो भवंतीति।। ११५।।
-----------------------------------------------------------------------------
स्पर्शनेन्द्रिय और रसनेन्द्रियके [–इन दो भावेन्द्रियोंके] आवरणके क्षयोपशमके कारण तथा
शेष इन्द्रियोंके [–तीन भावेन्द्रियोंके] आवरणका उदय तथा मनके [–भावमनके] आवरणका उदय
होनेसे स्पर्श और रसको जाननेवाले यह [शंबूक आदि] जीव मनरहित द्वीन्द्रिय जीव हैं।। ११४।।
गाथा ११५
अन्वयार्थः– [युकाकुंभीमत्कुणपिपीलिकाः] जू, कुंभी, खटमल, चींटी और [वृश्चिकादयः] बिच्छू
आदि [कीटाः] जन्तु [रसं स्पर्शं गंधं] रस, स्पर्श और गंधको [जानन्ति] जानते हैं; [त्रींद्रियाः
जीवाः] वे त्रीन्द्रिय जीव हैं।
टीकाः– यह, त्रीन्द्रिय जीवोंके प्रकारकी सूचना है।
स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और घ्राणेन्द्रियके आवरणके क्षयोपशमके कारण तथा शेष इन्द्रियोंके
आवरणका उदय तथा मनके आवरणका उदय होनेसे स्पर्श, रस और गन्धको जाननेवाले यह [जू
आदि] जीव मनरहित त्रीन्द्रिय जीव हैं।। ११५।।
--------------------------------------------------------------------------
जूं,कुंभी, माकड, कीडी तेम ज वृश्चिकादिक जंतु जे
रस, गंध तेम ज स्पर्श जाणे, जीव
त्रीन्द्रिय तेह छे। ११५।

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१७४
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
उद्दंसमसयमक्खियमधुकरिभमरा पयंगमादीया।
रूवं रसं च गंधं फासं पुण ते विजाणंति।। ११६।।
उद्दंशमशकमक्षिकामधुकरीभ्रमराः पतङ्गाद्याः।
रूपं रसं च गंधं स्पर्शं पुनस्ते विजानन्ति।। ११६।।
चतुरिन्द्रियप्रकारसूचनेयम्।
एते स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुरिन्द्रियावरणक्षयोपशमात् श्रोत्रेन्द्रियावरणोदये नोइन्द्रिया–वरणोदये च
सति स्पर्शरसगंधवर्णानां परिच्छेत्तारश्चतुरिन्द्रिया अमनसो भवंतीति।। ११६।।
सुरणरणारयतिरिया वण्णरसप्फासगंधसद्दण्हू।
जलचरथलचरखचरा बलिया पंचेंदिया जीवा।। ११७।।
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गाथा ११६
अन्वयार्थः– [पुनः] पुनश्च [उद्दंशमशकमक्षिकामधुकरीभ्रमराः] डाँस, मच्छर, मक्खी,
मधुमक्खी, भँवरा और [पतङ्गाद्याः ते] पतंगे आदि जीव [रूपं] रूप, [रसं] रस, [गंधं] गन्ध
[च] और [स्पर्शं] स्पर्शको [विजानन्ति] वजानते हैं। [वे चतुरिन्द्रिय जीव हैं।]
टीकाः– यह, चतुरिन्द्रिय जीवोंके प्रकारकी सूचना है।
स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय और चक्षुरिन्द्रियके आवरणके क्षयोपशमके कारण तथा
श्रोत्रेन्द्रियके आवरणका उदय तथा मनके आवरणका उदय होनेसे स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णको
जाननेवाले यह [डाँस आदि] जीव मनरहित चतुरिन्द्रिय जीव हैं।। ११६।।
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मधमाख, भ्रमर, पतंग, माखी, डांस, मच्छर आदि जे,
ते जीव जाणे स्पर्शने, रस, गंध तेम ज रूपने। ११६।
स्पर्शादि पंचक जाणतां तिर्यंच–नारक–सुर–नरो
–जळचर, भूचर के खेचरो–बळवान पंचेंद्रिय जीवो। ११७।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
१७५
सुरनरनारकतिर्यचो वर्णरसस्पर्शगंधशब्दज्ञाः।
जलचरस्थलचरखचरा बलिनः पंचेन्द्रिया जीवाः।। ११७।।
पञ्चेन्द्रियप्रकारसूचनेयम्।
अथ स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमात् नोइन्द्रियावरणोदये सति स्पर्श–
रसगंधवर्णशब्दानां परिच्छेत्तारः पंचेन्द्रिया अमनस्काः। केचित्तु नोइन्द्रियावरणस्यापि क्षयोप–शमात्
समनस्काश्च भवन्ति। तत्र देवमनुष्यनारकाः समनस्का एव, तिर्यंच उभयजातीया इति।।११७।।
देवा चउण्णिकाया मणुया पुण कम्मभोगभूमीया।
तिरिया बहुप्पयारा णेरइया
पुढविभेयगदा।। ११८।।
देवाश्चतुर्णिकायाः मनुजाः पुनः कर्मभोगभूमिजाः।
तिर्यंचः बहुप्रकाराः नारकाः पृथिवीभेदगताः।। ११८।।

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गाथा ११७
अन्वयार्थः– [वर्णरसस्पर्शगंधशब्दज्ञाः] वर्ण, रस, स्पर्श, गन्ध और शब्दको जाननेवाले
ं[सुरनरनारकतिर्यंञ्चः] देव–मनुष्य–नारक–तिर्यंच–[जलचरस्थलचरखचराः] जो जलचर, स्थलचर,
खेचर होते हैं वे –[बलिनः पंचेन्द्रियाः जीवाः] बलवान पंचेन्द्रिय जीव हैं।
टीकाः– यह, पंचेन्न्द्रिय जीवोंके प्रकारकी सूचना है।
स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय और श्रोत्रेन्द्रियके आवरणके क्षयोपशमके
कारण, मनके आवरणका उदय होनेसे, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्दको जाननेवाले जीव
मनरहित पंचेन्द्रिय जीव हैं; कतिपय [पंचेन्द्रिय जीव] तो, उन्हें मनके आवरणका भी क्षयोपशम
होनेसे, मनसहित [पंचेन्द्रिय जीव] होते हैं।
उनमें, देव, मनुष्य और नारकी मनसहित ही होते हैं; तिर्यंच दोनों जातिके [अर्थात् मनरहित
तथा मनसहित] होते हैं।। ११७।।
गाथा ११८
अन्वयार्थः– [देवाः चतुर्णिकायाः] देवोंके चार निकाय हैं, [मनुजाः कर्मभोग–
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नर कर्मभूमिज भोगभूमिज, देव चार प्रकारना,
तिर्यंच बहुविध, नारकोना पृथ्वीगत भेदो कह्या। ११८।

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१७६
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
इन्द्रियभेदेनोक्तानां जीवानां चतुर्गतिसंबंधत्वेनोपसंहारोऽयम्।

देवगतिनाम्नो देवायुषश्चोदयाद्देवाः, ते च भवनवासिव्यंतरज्योतिष्कवैमानिकनिकाय–भेदाच्चतुर्धा।
मनुष्यगतिनाम्नो मनुष्यायुषश्च उदयान्मनुष्याः। ते कर्मभोगभूमिजभेदात्
द्वेधा।
तिर्यग्गतिनाम्नस्तिर्यगायुषश्च उदयात्तिर्यञ्चः। ते पृथिवीशम्बूकयूकोद्दंशजलचरोरगपक्षिपरिसर्प–
चतुष्पदादिभेदादनेकधा। नरकगतिनाम्नो नरकायुषश्च उदयान्नारकाः। ते रत्नशर्करावालुका–
पङ्कधूमतमोमहातमःप्रभाभूमिजभेदात्सप्तधा। तत्र देवमनुष्यनारकाः पंचेन्द्रिया एव। तिर्यंचस्तु
केचित्पंचेन्द्रियाः, केचिदेक–द्वि–त्रि–चतुरिन्द्रिया अपीति।। ११८।।
-----------------------------------------------------------------------------
भूमिजाः] मनुष्य कर्मभूमिज और भोगभूमिज ऐसे दो प्रकारके हैं, [तिर्यञ्चः बहुप्रकाराः] तिर्यंच अनेक
प्रकारके हैं [पुनः] और [नारकाः पृथिवीभेदगताः] नारकोंके भेद उनकी पृथ्वियोंके भेद जितने हैं।
टीकाः– यह, इन्द्रियोंके भेदकी अपेक्षासे कहे गये जीवोंका चतुर्गतिसम्बन्ध दर्शाते हुए उपसंहार
है [अर्थात् यहाँ एकेन्द्रिय–द्वीन्द्रियादिरूप जीवभेदोंका चार गतिके साथ सम्बन्ध दर्शाकर जीवभेदों
उपसंहार किया गया है]।
देवगतिनाम और देवायुके उदयसे [अर्थात् देवगतिनामकर्म और देवायुकर्मके उदयके
निमित्तसे] देव होते हैं; वे भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक ऐसे निकायभेदोंके कारण
चार प्रकारके हैं। मनुष्यगतिनाम और मनुष्यायुके उदयसे मनुष्य होते हैं; वे कर्मभूमिज और भोगभूमिज
ऐसे भेदोंके कारण दो प्रकारके हैं। तिर्यंचगतिनाम और तिर्यंचायुके उदयसे तिर्यंच होते हैं; वे पृथ्वी,
शंबूक, जूं, डाँस, जलचर, उरग, पक्षी, परिसर्प, चतुष्पाद [चौपाये] इत्यादि भेदोंके कारण अनेक
प्रकारके हैं। नरकगतिनाम और नरकायुके उदयसे नारक होते हैं; वे
रत्नप्रभाभूमिज,
शर्कराप्रभाभूमिज, बालुकाप्रभाभूमिज, पंकप्रभाभूमिज, धूमप्रभाभूमिज, तमःप्रभाभूमिज और
महातमःप्रभाभूमिज ऐसे भेदोंके कारण सात प्रकारके हैं।
उनमें, देव, मनुष्य और नारकी पंचेन्द्रिय ही होते हैं। तिर्यंच तो कतिपय
--------------------------------------------------------------------------
१। निकाय = समूह

२। रत्नप्रभाभूमिज = रत्नप्रभा नामकी भूमिमें [–प्रथम नरकमें] उत्पन्न ।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
१७७
खीणे पुव्वणिबद्धे गदिणामे आउसे य ते वि खलु।
पाउण्णंति य अण्णं गदिमाउस्सं सलेस्सवसा।। ११९।।
क्षीणे पूर्वनिबद्धे गतिनाम्नि आयुषि च तेऽपि खलु।
प्राप्नुवन्ति चान्यां गतिमायुष्कं स्वलेश्यावशात्।। ११९।।
गत्यायुर्नामोदयनिर्वृत्तत्वाद्देवत्वादीनामनात्मस्वभावत्वोद्योतनमेतत्।
क्षीयते हि क्रमेणारब्धफलो गतिनामविशेष आयुर्विशेषश्च जीवानाम्। एवमपि तेषां
गत्यंतरस्यायुरंतरस्य च कषायानुरंजिता योगप्रवृत्तिर्लेश्या भवति बीजं, ततस्तदुचितमेव
-----------------------------------------------------------------------------
पंचेन्द्रिय होते हैं और कतिपय एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय भी होते हैं।
भावार्थः– यहाँ ऐसा तात्पर्य ग्रहण करना चाहिये कि चार गतिसे विलक्षण, स्वात्मोपलब्धि
जिसका लक्षण है ऐसी जो सिद्धगति उसकी भावनासे रहित जीव अथवा सिद्धसद्रश निजशुद्धात्माकी
भावनासे रहित जीव जो चतुर्गतिनामकर्म उपार्जित करते हैं उसके उदयवश वे देवादि गतियोंमें
उत्पन्न होते हैं।। ११८।।
गाथा ११९
अन्वयार्थः– [पूर्वनिबद्धे] पूर्वबद्ध [गतिनाम्नि आयुषि च] गतिनामकर्म और आयुषकर्म [क्षीणे]
क्षीण होनेसे [ते अपि] जीव [स्वलेश्यावशात्] अपनी लेश्याके वश [खलु] वास्तवमें [अन्यां गतिम्
आयुष्कं च] अन्य गति और आयुष्य [प्राप्नुवन्ति] प्राप्त करते हैं।
टीकाः– यहाँ, गतिनामकर्म और आयुषकर्मके उदयसे निष्पन्न होते हैं इसलिये देवत्वादि
अनात्मस्वभावभूत हैं [अर्थात् देवत्व, मनुष्यत्व, तिर्यंचत्व और नारकत्व आत्माका स्वभाव नहीं है]
ऐसा दर्शाया गया है।
जीवोंको, जिसका फल प्रारम्भ होजाता है ऐसा अमुक गतिनामकर्म और अमुक आयुषकर्म
क्रमशः क्षयको प्राप्त होता है। ऐसा होने पर भी उन्हें कषाय–अनुरंजित योगप्रवृत्तिरूप लेश्या अन्य
--------------------------------------------------------------------------
कषाय–अनुरंजित =कषायरंजित; कषायसे रंगी हुई। [कषायसे अनुरंजित योगप्रवृत्ति सो लेश्या है।]
गतिनाम ने आयुष्य पूर्वनिबद्ध ज्यां क्षय थाय छे,
त्यां अन्य गति–आयुष्य पामे जीव निजलेश्यावशे। ११९।

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१७८
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
गत्यंतरमायुरंतरंच ते प्राप्नुवन्ति। एवं क्षीणाक्षीणाभ्यामपि पुनः पुनर्नवीभूताभ्यां
गतिनामायुःकर्मभ्यामनात्मस्वभावभूताभ्यामपि चिरमनुगम्यमानाः संसरंत्यात्मानमचेतयमाना जीवा
इति।। ११९।।
एदे जीवणिकाया देहप्पविचारमस्सिदा भणिदा।
देहविहूणा सिद्धा भव्वा संसारिणो अभव्वा य।। १२०।।
एते जीवनिकाया देहप्रवीचारमाश्रिताः भणिताः।
देहविहीनाः सिद्धाः भव्याः संसारिणोऽभव्याश्च।। १२०।।

-----------------------------------------------------------------------------
गति और अन्य आयुषका बीज होती है [अर्थात् लेश्या अन्य गतिनामकर्म और अन्य आयुषकर्मका
कारण होती है], इसलिये उसके उचित ही अन्य गति तथा अन्य आयुष वे प्राप्त करते हैं। इस
प्रकार
क्षीण–अक्षीणपनेको प्राप्त होने पर भी पुनः–पुनः नवीन उत्पन्न होेवाले गतिनामकर्म और
आयुषकर्म [प्रवाहरूपसे] यद्यपिे वे अनात्मस्वभावभूत हैं तथापि–चिरकाल [जीवोंके] साथ साथ
रहते हैं इसलिये, आत्माको नहीं चेतनेवाले जीव संसरण करते हैं [अर्थात् आत्माका अनुभव नहीं
करनेवाले जीव संसारमें परिभ्रमण करते हैं]।
भावार्थः– जीवोंको देवत्वादिकी प्राप्तिमें पौद्गलिक कर्म निमित्तभूत हैं इसलिये देवत्वादि
जीवका स्वभाव नहीं है।
[पुनश्च, देव मरकर देव ही होता रहे और मनुष्य मरकर मनुष्य ही होता रहे इस मान्यताका
भी यहाँ निषेध हुआ। जीवोंको अपनी लेश्याके योग्य ही गतिनामकर्म और आयुषकर्मका बन्ध होता है
और इसलिये उसके योग्य ही अन्य गति–आयुष प्राप्त होती है] ।। ११९।।
गाथा १२०
अन्वयार्थः– [एते जीवनिकायाः] यह [पूर्वोक्त] जीवनिकाय [देहप्रवीचारमाश्रिताः] देहमें
वर्तनेवाले अर्थात् देहसहित [भणिताः] कहे गये हैं; [देहविहीनाः सिद्धाः] देहरहित ऐसे सिद्ध हैं।
--------------------------------------------------------------------------
पहलेके कर्म क्षीण होते हैं और बादके अक्षीणरूपसे वर्तते हैं।
आ उक्त जीवनिकाय सर्वे देहसहित कहेल छे,
ने देहविरहित सिद्ध छे; संसारी भव्य–अभव्य छे। १२०।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
१७९
उक्तजीवप्रपंचोपसंहारोऽयम्।
एते ह्युक्तप्रकाराः सर्वे संसारिणो देहप्रवीचाराः, अदेहप्रवीचारा भगवंतः सिद्धाः शुद्धा जीवाः।
तत्र देहप्रवीचारत्वादेकप्रकारत्वेऽपि संसारिणो द्विप्रकाराः भव्या अभव्याश्च। ते शुद्ध–
स्वरूपोपलम्भशक्तिसद्भावासद्भावाभ्यां पाच्यापाच्यमुद्गवदभिधीयंत इति।। १२०।।
ण हि इंदियाणि जीवा काया पुण छप्पयार पण्णत्ता।
जं हवदि तेसु णाणं जीवो त्ति य तं परूवेंति।। १२१।।
न हीन्द्रियाणि जीवाः कायाः पुनः षट्प्रकाराः प्रज्ञप्ताः।
यद्भवति तेषु ज्ञानं जीव इति च तत्प्ररूपयन्ति।। १२१।।
-----------------------------------------------------------------------------
[संसारिणाः] संसारी [भव्याः अभव्याः च] भव्य और अभव्य ऐसे दो प्रकारके हैं।
टीकाः– यह उक्त [–पहले कहे गये] जीवविस्तारका उपसंहार है।
जिनके प्रकार [पहले] कहे गये ऐसे यह समस्त संसारी देहमें वर्तनेवाले [अर्थात् देहसहित]
हैं; देहमें नहीं वर्तनेवाले [अर्थात् देहरहित] ऐसे सिद्धभगवन्त हैं– जो कि शुद्ध जीव है। वहाँ, देहमें
वर्तनेकी अपेक्षासे संसारी जीवोंका एक प्रकार होने पर भी वे भव्य और अभव्य ऐसे दो प्रकारके हैं।
पाच्य’ और ‘अपाच्य’ मूँगकी भाँति, जिनमें शुद्ध स्वरूपकी उपलब्धिकी शक्तिका सद्भाव है
उन्हें ‘भव्य’ और जिनमें शुद्ध स्वरूपकी उपलब्धिकी शक्तिका असद्भाव है उन्हें ‘अभव्य’ कहा जाता
हैं ।। १२०।।
गाथा १२१
अन्वयार्थः– [न हि इंद्रियाणि जीवाः] [व्यवहारसे कहे जानेवाले एकेन्द्रियादि तथा
पृथ्वीकायिकादि ‘जीवों’में] इन्द्रियाँ जीव नहीं है और [षट्प्रकाराः प्रज्ञप्ताः कायाः पुनः] छह
--------------------------------------------------------------------------
१। पाच्य = पकनेयोग्य; रंधनेयोग्य; सीझने योग्य; कोरा न हो ऐसा।
२। अपाच्य = नहीं पकनेयोग्य; रंधने–सीझनेकी योग्यता रहित; कोरा।
३। उपलब्धि = प्राप्ति; अनुभव।
रे! इंद्रियो नहि जीव, षड्विध काय पण नहि जीव छे;
छे तेमनामां ज्ञान जे बस ते ज जीव निर्दिष्ट छे। १२१।

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१८०
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
व्यवहारजीवत्वैकांतप्रतिपत्तिनिरासोऽयम्।
य इमे एकेन्द्रियादयः पृथिवीकायिकादयश्चानादिजीवपुद्गलपरस्परावगाहमवलोक्य व्य–
वहारनयेन जीवप्राधान्याञ्जीवा इति प्रज्ञाप्यंते। निश्चयनयेन तेषु स्पर्शनादीन्द्रियाणि पृथिव्यादयश्च
कायाः जीवलक्षणभूतचैतन्यस्वभावाभावान्न जीवा भवंतीति। तेष्वेव यत्स्वपरपरिच्छित्तिरूपेण
प्रकाशमानं ज्ञानं तदेव गुणगुणिनोः कथञ्चिदभेदाज्जीवत्वेन प्ररूप्यत इति।। १२१।।
जाणदि पस्सदि सव्वं इच्छदि सुक्खं बिभेदि दुक्खादो।
कुव्वदि हिदमहिदं वा भुंजदि जीवो फलं तेसिं।। १२२।।
जानाति पश्यति सर्वमिच्छति सौख्यं बिभेति दुःखात्।
करोति हितमहितं वा भुंक्ते जीवः फलं तयोः।। १२२।।
-----------------------------------------------------------------------------
प्रकारकी शास्त्रोक्त कायें भी जीव नहीं है; [तेषु] उनमें [यद् ज्ञानं भवति] जो ज्ञान है [तत् जीवः]
वह जीव है [इति च प्ररूपयन्ति] ऐसी [ज्ञानी] प्ररूपणा करते हैं।
टीकाः– यह, व्यवहारजीवत्वके एकान्तकी प्रतिपत्तिका खण्डन है [अर्थात् जिसे मात्र
व्यवहारनयसे जीव कहा जाता है उसका वास्तवमें जीवरूपसे स्वीकार करना उचित नहीं है ऐसा
यहाँ समझाया है]।
यह जो एकेन्द्रियादि तथा पृथ्वीकायिकादि, ‘जीव’ कहे जाते हैं, अनादि जीव –पुद्गलका
परस्पर अवगाह देखकर व्यवहारनयसे जीवके प्राधान्य द्वारा [–जीवको मुख्यता देकर] ‘जीव’ कहे
जाते हैं। निश्चयनयसे उनमें स्पर्शनादि इन्द्रियाँ तथा पृथ्वी–आदि कायें, जीवके लक्षणभूत
चैतन्यस्वभावके अभावके कारण, जीव नहीं हैं; उन्हींमें जो स्वपरको ज्ञप्तिरूपसे प्रकाशमान ज्ञान है
वही, गुण–गुणीके कथंचित् अभेदके कारण, जीवरूपसे प्ररूपित किया जाता है।। १२१।।
गाथा १२२
अन्वयार्थः– [जीवः] जीव [सर्वं जानाति पश्यति] सब जानता है और देखता है, [सौख्यम्
इच्छति] सुखकी इच्छा करता है, [दुःखात् बिभेति] दुःखसे डरता है, [हितम् अहितम् करोति]
--------------------------------------------------------------------------
प्रतिपत्ति = स्वीकृति; मान्यता।
जाणे अने देखे बधुं, सुख अभिलषे, दुखथी डरे,
हित–अहित जीव करे अने हित–अहितनुं फळ भोगवे। १२२।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
१८१
अन्यासाधारणजीवकार्यख्यापनमेतत्।
चैतन्यस्वभावत्वात्कर्तृस्थायाः क्रियायाः ज्ञप्तेर्द्रशेश्च जीव एव कर्ता, न तत्संबन्धः पुद्गलो,
यथाकाशादि। सुखाभिलाषक्रियायाः दुःखोद्वेगक्रियायाः स्वसंवेदितहिताहितनिर्विर्तनक्रियायाश्च
चैतन्यविवर्तरूपसङ्कल्पप्रभवत्वात्स एव कर्ता, नान्यः। शुभाशुभाकर्मफलभूताया इष्टानिष्ट–
विषयोपभोगक्रियायाश्च सुखदुःखस्वरूपस्वपरिणामक्रियाया इव स एव कर्ता, नान्यः।
एतेनासाधारणकार्यानुमेयत्वं पुद्गलव्यतिरिक्तस्यात्मनो द्योतितमिति।। १२२।।
-----------------------------------------------------------------------------
हित–अहितको [शुभ–अशुभ भावोंको] करता है [वा] और [तयोः फलं भुंक्ते] उनके फलको
भोगता है।
टीकाः– यह, अन्यसे असाधारण ऐसे जीवकार्योंका कथन है [अर्थात् अन्य द्रव्योंसे असाधारण
ऐसे जो जीवके कार्य वे यहाँ दर्शाये हैं]।
चैतन्यस्वभावपनेके कारण, कर्तृस्थित [कर्तामें रहनेवाली] क्रियाका–ज्ञप्ति तथा द्रशिका–जीव
ही कर्ता है; उसके सम्बन्धमें रहा हुआ पुद्गल उसका कर्ता नहीं है, जिस प्रकार आकाशादि नहीं है
उसी प्रकार। [चैतन्यस्वभावके कारण जानने और देखने की क्रियाका जीव ही कर्ता है; जहाँ जीव
है वहाँ चार अरूपी अचेतन द्रव्य भी हैं तथापि वे जिस प्रकार जानने और देखने की क्रियाके
कर्ता नहीं है उसी प्रकार जीवके साथ सम्बन्धमें रहे हुए कर्म–नोकर्मरूप पुद्गल भी उस क्रियाके
कर्ता नहीं है।] चैतन्यके विवर्तरूप [–परिवर्तनरूप] संकल्पकी उत्पत्ति [जीवमें] होनेके कारण,
सुखकी अभिलाषारूप क्रियाका, दुःखके उद्वेगरूप क्रियाका तथा स्वसंवेदित हित–अहितकी
निष्पत्तिरूप क्रियाका [–अपनेसे संचेतन किये जानेवाले शुभ–अशुभ भावोंको रचनेरूप क्रियाका]
जीव ही कर्ता है; अन्य नहीं है। शुभाशुभ कर्मके फलभूत
इष्टानिष्टविषयोपभोगक्रियाका, सुख–
दुःखस्वरूप स्वपरिणामक्रियाकी भाँति, जीव ही कर्ता है; अन्य नहीं।
इससे ऐसा समझाया कि [उपरोक्त] असाधारण कार्यों द्वारा पुद्गलसे भिन्न ऐसा आत्मा
अनुमेय [–अनुमान कर सकने योग्य] है।
--------------------------------------------------------------------------
इष्टानिष्ट विषय जिसमें निमित्तभूत होते हैं ऐसे सुखदुःखपरिणामोंके उपभोगरूप क्रियाको जीव करता है
इसलिये उसे इष्टानिष्ट विषयोंके उपभोगरूप क्रियाका कर्ता कहा जाता है।

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१८२
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
एवमभिगम्म जीवं अण्णेहिं वि पज्जएहिं बहुगेहिं।
अभिगच्छदु अज्जीवं णाणंतरिदेहिं लिंगेहिं।। १२३।।
एवमभिगम्य जीवमन्यैरपि पर्यायैर्बहुकैः।
अभिगच्छत्वजीवं ज्ञानांतरितैर्लिङ्गैः।। १२३।।
जीवाजीवव्याखयोपसंहारोपक्षेपसूचनेयम्।
-----------------------------------------------------------------------------
भावार्थः– शरीर, इन्द्रिय, मन, कर्म आदि पुद्गल या अन्य कोई अचेतन द्रव्य कदापि जानते
नहीं है, देखते नहीं है, सुखकी इच्छा नहीं करते, दुःखसे डरते नहीं है, हित–अहितमें प्रवर्तते नहीं
है या उनके फलको नहीं भोगते; इसलिये जो जानता है और देखता है, सुखकी इच्छा करता है,
दुःखसे भयभीत होता है, शुभ–अशुभ भावोंमें प्रवर्तता है और उनके फलको भोगता है, वह, अचेतन
पदार्थोंके साथ रहने पर भी सर्व अचेतन पदार्थोंकी क्रियाओंसे बिलकुल विशिष्ट प्रकारकी क्रियाएँ
करनेवाला, एक विशिष्ट पदार्थ है। इसप्रकार जीव नामका चैतन्यस्वभावी पदार्थविशेष–कि जिसका
ज्ञानी स्वयं स्पष्ट अनुभव करते हैं वह–अपनी असाधारण क्रियाओं द्वारा अनुमेय भी है।। १२२।।
गाथा १२३
अन्वयार्थः– [एवम्] इसप्रकार [अन्यैः अपि बहुकैः पर्यायैः] अन्य भी बहुत पर्यायोंं द्वारा
[जीवम् अभिगम्य] जीवको जानकर [ज्ञानांतरितैः लिङ्गैः] ज्ञानसे अन्य ऐसे [जड़] लिंगोंं द्वारा
[अजीवम् अभिगच्छतु] अजीव जानो।
टीकाः– यह, जीव–व्याख्यानके उपसंहारकी और अजीव–व्याख्यानके प्रारम्भकी सूचना है।
--------------------------------------------------------------------------
बीजाय बहु पर्यायथी ए रीत जाणी जीवने,
जाणो अजीवपदार्थ ज्ञानविभिन्न जड लिंगो वडे। १२३।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
१८३
प्रपञ्चितविवित्रविकल्परूपैः, निश्चयनयेन मोहरागद्वेषपरिणतिसंपादितविश्वरूपत्वात्कदाचिदशुद्धैः
कदाचित्तदभावाच्छुद्धैश्चैतन्यविवर्तग्रन्थिरूपैर्बहुभिः पर्यायैः जीवमधिगच्छेत्। अधिगम्य चैवमचैतन्य–
स्वभावत्वात् ज्ञानादर्थांतरभूतैरितः प्रपंच्यमानैर्लिङ्गैर्जीवसंबद्धमसंबद्धं वा स्वतो भेदबुद्धि–प्रसिद्धय
र्थमजीवमधिगच्छेदिति।। १२३।।
–इति जीवपदार्थव्याख्यानं समाप्तम्।
-----------------------------------------------------------------------------
इसप्रकार इस निर्देशके अनुसार [अर्थात् उपर संक्षेपमें समझाये अनुसार], [१] व्यवहारनयसे
कर्मग्रंथप्रतिपादित जीवस्थान–गुणस्थान–मार्गणास्थान इत्यादि द्वारा प्रपंचित विचित्र भेदरूप बहु
पर्यायों द्वारा, तथा [२] निश्चयनयसे मोहराग–द्वेषपरिणतिसंप्राप्त विश्वरूपताके कारण कदाचित्
अशुद्ध [ऐसी] और कदाचित् उसके [–मोहरागद्वेषपरिणतिके] अभावके कारण शुद्ध ऐसी
चैतन्यविवर्तग्रन्थिरूप बहु पर्यायों द्वारा, जीवको जानो। इसप्रकार जीवको जानकर, अचैतन्यस्वभावके
कारण, ज्ञानसे अर्थांतरभूत ऐसे, यहाँसे [अबकी गाथाओंमें] कहे जानेवाले लिंगोंं द्वारा, जीव–
सम्बद्ध या जीव–असम्बद्ध अजीवको, अपनेसे भेदबुद्धिकी प्रसिद्धिके लिये जानो।। १२३।।
इसप्रकार जीवपदार्थका व्याख्यान समाप्त हुआ।
--------------------------------------------------------------------------
१। कर्मग्रंथप्रतिपादित = गोम्मटसारादि कर्मपद्धतिके ग्रन्थोमें प्ररूपित –निरूपित ।

२। प्रपंचित = विस्तारपूर्वक कही गई।

३। मोहरागद्वेषपरिणतिके कारणा जीवको विश्वरूपता अर्थात् अनेकरूपता प्राप्त होती है।

४। ग्रन्थि = गाँठ। [जीवकी कदाचित् अशुद्ध और कदाचित् शुद्ध ऐसी पर्यायें चैतन्यविवर्तकी–चैतन्यपरिणमनकी–
ग्रन्थियाँ हैं; निश्चयनयसे उनके द्वारा जीवको जानो।]

५। ज्ञानसे अर्थांन्तरभूत = ज्ञानसे अन्यवस्तुभूत; ज्ञानसे अन्य अर्थात् जड़़़। [अजीवका स्वभाव अचैतन्य होनेके
कारण ज्ञानसे अन्य ऐसे जड़ चिह्नोंं द्वारा वह ज्ञात होता है।]

६। जीवके साथ सम्बद्ध या जीव साथ असम्बद्ध ऐसे अजीवको जाननेका प्रयोजन यह है कि समस्त अजीव
अपनेसे [स्वजीवसे] बिलकुल भिन्न हैं ऐसी बुद्धि उत्पन्न हो।

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१८४
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
अथ अजीवपदार्थव्याख्यानम्।
आगासकालपोग्गलधम्माधम्मेसु णत्थि जीवगुणा।
तेसिं अचेदणत्तं भणिदं जीवस्स
चेदणदा।। १२४।।
आकाशकालपुद्गलधर्माधर्मेषु न सन्ति जीवगुणाः।
तेषामचेतनत्वं भणितं जीवस्य चेतनता।। १२४।।
आकाशादीनामेवाजीवत्वे हेतूपन्यासोऽयम्।
आकाशकालपुद्गलधर्माधर्मेषु चैतन्यविशेषरूपा जीवगुणा नो विद्यंते, आकाशादीनां
तेषामचेतनत्वसामान्यत्वात्। अचेतनत्वसामान्यञ्चाकाशादीनामेव, जीवस्यैव चेतनत्वसामान्या–
दिति।। १२४।।
सुहदुक्खजाणणा वा हिदपरियम्मं च अहिदभीरुत्तं।
जस्स ण विज्जदि णिच्चं
तं समणा बेंति अज्जीवं।। १२५।।
-----------------------------------------------------------------------------
अब अजीवपदार्थका व्याख्यान है।
गाथा १२४
अन्वयार्थः– [आकाशकालपुद्गलधर्माधर्मेषु] आकाश, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्ममें
[जीवगुणाः न सन्ति] जीवके गुण नहीं है; [क्योंकि] [तेषाम् अचेतनत्वं भणितम्] उन्हें
अचेतनपना कहा है, [जीवस्य चेतनता] जीवको चेतनता कही है।
टीकाः– यह, आकाशादिका ही अजीवपना दर्शानेके लिये हेतुका कथन है।
आकाश, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्ममें चैतन्यविशेषोंरूप जीवगुण विद्यमान नहीं है; क्योंकि
उन आकाशादिको अचेतनत्वसामान्य है। और अचेतनत्वसामान्य आकाशादिको ही है, क्योंकि जीवको
ही चेतनत्वसामान्य है।। १२४।।
--------------------------------------------------------------------------
छे जीवगुण नहि आभ–धर्म–अधर्म–पुद्गल–काळमां;
तेमां अचेतनता कही, चेतनपणुं कह्युं जीवमां। १२४।
सुखदुःखसंचेतन, अहितनी भीति, उद्यम हित विषे
जेने कदी होतां नथी, तेने अजीव श्रमणो कहे। १२५।
सुखदुःखज्ञानं वा हितपरिकर्म चाहितभीरुत्वम्।
यस्य न विद्यते नित्यं तं श्रमणा ब्रुवन्त्यजीवम्।। १२५।।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
१८५
आकाशादीनामचेतनत्वसामान्ये पुनरनुमानमेतत्।
सुखदुःखज्ञानस्य हितपरिकर्मणोऽहितभीरुत्वस्य चेति चैतन्यविशेषाणां नित्यमनुपलब्धेर–
विद्यमानचैतन्यसामान्या एवाकाशादयोऽजीवा इति।। १२५।।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा १२५
अन्वयार्थः– [सुखदुःखज्ञानं वा] सुखदुःखका ज्ञान [हितपरिकर्म] हितका उद्यम [च] और
[अहितभीरुत्वम्] अहितका भय– [यस्य नित्यं न विद्यते] यह जिसे सदैव नहीं होते, [तम्] उसे
[श्रमणाः] श्रमण [अजीवम् ब्रुवन्ति] अजीव कहते हैं।
टीकाः– यह पुनश्च, आकाशादिका अचेतनत्वसामान्य निश्चित करनेके लिये अनुमान है।
आकाशादिको सुखदुःखका ज्ञान, हितका उद्यम और अहितका भय–इन चैतन्यविशेषोंकी सदा
अनुपलब्धि है [अर्थात् यह चैतन्यविशेष आकाशादिको किसी काल नहीं देखे जाते], इसलिये [ऐसा
निश्चित होता है कि] आकाशादि अजीवोंको चैतन्यसामान्य विद्यमान नहीं है।
भावार्थः– जिसे चेतनत्वसामान्य हो उसे चेतनत्वविशेष होना ही चाहिए। जिसे चेतनत्वविशेष
न हो उसे चेतनत्वसामान्य भी नहीं होता। अब, आकाशादि पाँच द्रव्योंको सुखदुःखका संचेतन,
हित के लिए प्रयत्न और अहितके लिए भीति–यह चेतनत्वविशेष कभी देखे नहीं जाते; इसलिये
निश्चित होता है कि आकाशादिको चेतनत्वसामान्य भी नहीं है, अर्थात् अचेतनत्वसामान्य ही है।।
१२५।।
--------------------------------------------------------------------------
हित और अहितके सम्बन्धमें आचार्यवर श्री जयसेनाचार्यदेवकृत तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें निम्नोक्तानुसार
विवरण हैः–
अज्ञानी जीव फूलकी माला, स्त्री, चंदनादिकोे तथा उनके कारणभूत दानपूजादिको हित समझते हैं और
सर्प, विष, कंटकादिको अहित समझते हैं। सम्यग्ज्ञानी जीव अक्षय अनन्त सुखको तथा उसके कारणभूत
निश्चयरत्नत्रयपरिणत परमात्मद्रव्यको हित समझते हैं और आकुलताके उत्पादक ऐसे दुःखको तथा उसके
कारणभूत मिथ्यात्वरागादिपरिणत आत्मद्रव्यको अहित समझते हैं।

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१८६
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
संठाणा संघादा वण्णरसप्फासगंधसद्दा य।
पोग्गलदव्वप्पभवा होंति गुणा पज्जया य बहू।। १२६।।
अरसमरूवमगंधं
अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं।
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं।। १२७।।
संस्थानानि संघाताः वर्णरसस्पर्शगंधशब्दाश्च।
पुद्गलद्रव्यप्रभवा भवन्ति गुणाः पर्यायाश्च बहवः।। १२६।।
अरसमरूपमगंधमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम्।
जानीह्यलिङ्गग्रहणं जीवमनिर्दिष्टसंस्थानम्।। १२७।।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा १२६–१२७
अन्वयार्थः– [संस्थानानि] [समचतुरस्रादि] संस्थान, [संघाताः] [औदारिक शरीर सम्बन्धी]
संघात, [वर्णरसस्पर्शगंधशब्दाः च] वर्ण, रस, स्पर्श, गन्ध और शब्द–[बहवः गुणाः पर्यायाः च] ऐसे
जो बहु गुण और पर्यायें हैं, [पुद्गलद्रव्यप्रभवाः भवन्ति] वे पुद्गलद्रव्यनिष्पन्न है।
[अरसम् अरूपम् अगंधम्] जो अरस, अरूप तथा अगन्ध है, [अव्यक्तम्] अव्यक्त है,
[अशब्दम्] अशब्द है, [अनिर्दिष्टसंस्थानम्] अनिर्दिष्टसंस्थान है [अर्थात् जिसका कोई संस्थान नहीं
कहा ऐसा है], [चेतनागुणम्] चेतनागुणवाला है और [अलिङ्गग्रहणम्] इन्द्रियोंके द्वारा अग्राह्य है,
[जीवं जानीहि] उसे जीव जानो।
टीकाः– जीव–पुद्गलके संयोगमें भी, उनके भेदके कारणभूत स्वरूपका यह कथन है [अर्थात्
जीव और पुद्गलके संयोगमें भी, जिसके द्वारा उनका भेद जाना जा सकता है ऐसे उनके भिन्न–
भिन्न स्वरूपका यह कथन है]।
--------------------------------------------------------------------------
संस्थान–संधातो, वरण–रस–गंध–शब्द–स्पर्श जे,
ते बहु गुणो ने पर्ययो पुद्गलदरवनिष्पन्न छे। १२६।
जे चेतनागुण, अरसरूप,
अगंधशब्द, अव्यक्त छे,
निर्दिष्ट नहि संस्थान, इंद्रियग्राह्य नहि, ते जीव छे। १२७।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
१८७
जीवपुद्गलयोः संयोगेऽपि भेदनिबंधनस्वरूपाख्यानमेतत्।
यत्खलु शरीरशरीरिसंयोगे स्पर्शरसगंधवर्णगुणत्वात्सशब्दत्वात्संस्थानसङ्गातादिपर्याय–
परिणतत्वाच्च इन्द्रियग्रहणयोग्यं, तत्पुद्गलद्रव्यम्। यत्पुनरस्पर्शरसगंधवर्णगुणत्वादशब्दत्वाद–
निर्दिष्टसंस्थानत्वादव्यक्तत्वादिपर्यायैः परिणतत्वाच्च नेन्द्रियग्रहणयोग्यं, तच्चेतना–
गुणत्वात् रूपिभ्योऽरूपिभ्यश्चाजीवेभ्यो विशिष्टं जीवद्रव्यम्। एवमिह जीवाजीवयोर्वास्तवो भेदः
सम्यग्ज्ञानिनां मार्गप्रसिद्धयर्थं प्रतिपादित इति।। १२६–१२७।।
–इति अजीवपदार्थव्याख्यानं समाप्तम्।
-----------------------------------------------------------------------------
शरीर और शरीरीके संयोगमें, [१] जो वास्तवमें स्पर्श–रस–गन्ध–वर्ण। गुणवाला होनेके
कारण, सशब्द होनेके कारण तथा संस्थान–संघातादि पर्यायोंरूपसे परिणत होनेके कारण
इन्द्रियग्रहणयोग्य है, वह पुद्गलद्रव्य हैे; और [२] जो स्पर्श–रस–गन्ध–वर्णगुण रहित होनेके
कारण, अशब्द होनेके कारण, अनिर्दिष्टसंस्थान होनेके कारण तथा
अव्यक्तत्वादि पर्यायोंरूपसे
परिणत होनेके कारण इन्द्रियग्रहणयोग्य नहीं है, वह, चेतनागुणमयपनेके कारण रूपी तथा अरूपी
अजीवोंसे
विशिष्ट [भिन्न] ऐसा जीवद्रव्य है।
इस प्रकार यहाँ जीव और अजीवका वास्तविक भेद सम्यग्ज्ञानीयोंके मार्गकी प्रसिद्धिके हेतु
प्रतिपादित किया गया।
[भावार्थः– अनादि मिथ्यावासनाके कारण जीवोंको स्वयं कौन है उसका वास्तविक ज्ञान नहीं
है और अपनेको शरीरादिरूप मानते हैं। उन्हें जीवद्रव्य तथा अजीवद्रव्यका यथार्थ भेद दर्शाकर
मुक्तिका मार्ग प्राप्त करानेके हेतु यहाँ जड़ पुद्गलद्रव्यके और चेतन जीवद्रव्यके वीतरागसर्वज्ञकथित
लक्षण कहे गए। जो जीव उन लक्षणोंको जानकर, अपनेको एक स्वतःसिद्ध स्वतंत्र द्रव्यरूपसे
पहिचानकर, भेदविज्ञानी अनुभवी होता है, वह निजात्मद्रव्यमें लीन होकर मोक्षमार्गको साधकर
शाश्वत निराकुल सुखका भोक्ता होता है।] १२६–१२७।।
इस प्रकार अजीवपदार्थका व्याख्यान समाप्त हुआ।
--------------------------------------------------------------------------
१। शरीरी = देही; शरीरवाला [अर्थात् आत्मा]।

२। अव्यक्तत्वादि = अव्यक्तत्व आदि; अप्रकटत्व आदिे।

३। विशिष्ट = भिन्न; विलक्षण; खास प्रकारका।

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१८८
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
उक्तौ मूलपदार्थौ। अथ संयोगपरिणामनिर्वृत्तेतरसप्तपदार्थानामुपोद्धातार्थं जीवपुद्गल–
कर्मचक्रमनुवर्ण्यते–
जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो।
परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु
गदी।। १२८।।
गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते।
तेहिं दु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा।। १२९।।
जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि।
इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिधणो सणिधणो वा।। १३०।।
यः खलु संसारस्थो जीवस्ततस्तु भवति परिणामः।
परिणामात्कर्म कर्मणो भवति गतिषु गतिः।। १२८।।
गतिमधिगतस्य देहो देहादिन्द्रियाणि जायंते।
तैस्तु विषयग्रहणं ततो रागो वा द्वेषो वा।। १२९।।
जायते जीवस्यैवं भावः संसारचक्रवाले।
इति जिनवरैर्भणितोऽनादिनिधनः सनिधनो वा।। १३०।।
-----------------------------------------------------------------------------
दो मूलपदार्थ कहे गए अब [उनके] संयोगपरिणामसे निष्पन्न होनेवाले अन्य सात पदार्थोंके
उपोद्घातके हेतु जीवकर्म और पुद्गलकर्मके चक्रका वर्णन किया जाता है।
--------------------------------------------------------------------------
संसारगत जे जीव छे परिणाम तेने थाय छे,
परिणामथी कर्मो, करमथी गमन गतिमां थाय छे; १२८।
गतिप्राप्तने तन थाय, तनथी इंद्रियो वळी थाय छे,
एनाथी विषय ग्रहाय, रागद्वेष तेथी थाय छे। १२९।
ए रीत भाव अनादिनिधन अनादिसांत थया करे
संसारचक्र विषे जीवोने–एम जिनदेवो कहे। १३०।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
१८९
इह हि संसारिणो जीवादनादिबंधनोपाधिवशेन स्निग्धः परिणामो भवति।
परिणामात्पुनः पुद्गलपरिणामात्मकं कर्म। कर्मणो नारकादिगतिषु गतिः। गत्यधिगमना–द्देहः।
देहादिन्द्रियाणि। इन्द्रियेभ्यो विषयग्रहणम्। विषयग्रहणाद्रागद्वेषौ। रागद्वेषाभ्यां पुनः स्निग्धः परिणामः।
परिणामात्पुनः पुद्गलपरिणामात्मकं कर्म। कर्मणः पुनर्नारकादिगतिषु गतिः। गत्यधिगमनात्पुनर्देहः।
देहात्पुनरिन्द्रियाणि। इन्द्रियेभ्यः पुनर्विषयग्रहणम्। विषयग्रहणात्पुना रागद्वेषौ। रागद्वेषाभ्यां पुनरपि
स्निग्धः परिणामः। एवमिदमन्योन्यकार्यकारणभूतजीवपुद्गल–परिणामात्मकं कर्मजालं संसारचक्रे
जीवस्यानाद्यनिधनं अनादिसनिधनं वा चक्रवत्परिवर्तते। तदत्र पुद्गलपरिणामनिमित्तो जीवपरिणामो
जीवपरिणामनिमित्तः पुद्गलपरिणामश्च वक्ष्यमाण–पदार्थबीजत्वेन संप्रधारणीय इति।। १२८–१३०।।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा १२८–१३०
अन्वयार्थः– [यः] जो [खलु] वास्तवमें [संसारस्थः जीवः] संसारस्थित जीव है [ततः तु
परिणामः भवति] उससे परिणाम होता है [अर्थात् उसे स्निग्ध परिणाम होता है], [परिणामात्
कर्म] परिणामसे कर्म और [कर्मणः] कर्मसे [गतिषु गतिः भवति] गतियोंमें गमन होता है।
[गतिम् अधिगतस्य देहः] गतिप्राप्तको देह होती है, [देहात् इन्द्रियाणि जायंते] देहथी
इन्द्रियाँ होती है, [तैः तु विषयग्रहणं] इन्द्रियोंसे विषयग्रहण और [ततः रागः वा द्वेषः वा]
विषयग्रहणसे राग अथवा द्वेष होता है।
[एवं भावः] ऐसे भाव, [संसारचक्रवाले] संसारचक्रमें [जीवस्य] जीवको [अनादिनिधनः
सनिधनः वा] अनादि–अनन्त अथवा अनादि–सान्त [जायते] होते रहते हैं–[इति जिनवरैः भणितः]
ऐसा जिनवरोंने कहा है।
टीकाः– इस लोकमें संसारी जीवसे अनादि बन्धनरूप उपाधिके वश स्निग्ध परिणाम होता है,
परिणामसे पुद्गलपरिणामात्मक कर्म, कर्मसे नरकादि गतियोंमें गमन, गतिकी प्राप्तिसे देह, देहसे
इन्द्रियाँ, इन्द्रियोंसे विषयग्रहण, विषयग्रहणसे रागद्वेष, रागद्वेषसे फिर स्निग्ध परिणाम, परिणामसे फिर
पुद्गलपरिणामात्मक कर्म, कर्मसे फिर नरकादि गतियोंमें गमन, गतिकी प्राप्तिसे फिर देह, देहसे
फिर इन्द्रियाँ, इन्द्रियोंसे फिर विषयग्रहण, विषयग्रहणसे फिर रागद्वेष, रागद्वेषसे फिर पुनः स्निग्ध
परिणाम। इस प्रकार यह अन्योन्य
कार्यकारणभूत जीवपरिणामात्मक और पुद्गलपरिणामात्मक
कर्मजाल संसारचक्रमें जीवको अनादि–अनन्तरूपसे अथवा अनादि–सान्तरूपसे चक्रकी भाँति पुनः–
पुनः होते रहते हैं।
--------------------------------------------------------------------------
१। कार्य अर्थात् नैमित्तिक, और कारण अर्थात् निमित्त। [जीवपरिणामात्मक कर्म और पुद्गलपरिणामात्मक कर्म
परस्पर कार्यकारणभूत अर्थात् नैमित्तिक–निमित्तभूत हैं। वे कर्म किसी जीवको अनादि–अनन्त और किसी
जीवको अनादि–सान्त होते हैं।]

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१९०
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
इस प्रकार यहाँ [ऐसा कहा कि], पुद्गलपरिणाम जिनका निमित्त है ऐसे जीवपरिणाम और
जीवपरिणाम जिनका निमित्त है ऐसे पुद्गलपरिणाम अब आगे कहे जानेवाले [पुण्यादि सात]
पदार्थोंके बीजरूप अवधारना।
भावार्थः– जीव और पुद्गलको परस्पर निमित्त–नैमित्तिकरूपसे परिणाम होता है। उस
परिणामके कारण पुण्यादि पदार्थ उत्पन्न होते हैं, जिनका वर्णन अगली गाथाओंमें किया जाएगा।
प्रश्नः– पुण्यादि सात पदार्थोंका प्रयोजन जीव और अजीव इन दो से ही पूरा हो जाता है,
क्योंकि वे जीव और अजीवकी ही पर्यायें हैं। तो फिर वे सात पदार्थ किसलिए कहे जा रहे हैं?
उत्तरः– भव्योंको हेय तत्त्व और उपादेय तत्त्व [अर्थात् हेय और उपादेय तत्त्वोंका स्वरूप तथा
उनके कारण] दर्शानेके हेतु उनका कथन है। दुःख वह हेय तत्त्व है, उनका कारण संसार है,
संसारका कारण आस्रव और बन्ध दो हैं [अथवा विस्तारपूर्वक कहे तो पुण्य, पाप, आस्रव और बन्ध
चार हैं] और उनका कारण मिथ्यादर्शन–ज्ञान–चारित्र है। सुख वह उपादेय तत्त्व है, उसका कारण
मोक्ष है, मोक्षका कारण संवर और निर्जरा है और उनका कारण सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र है। यह
प्रयोजनभूत बात भव्य जीवोंको प्रगटरूपसे दर्शानेके हेतु पुण्यादि
सात पदार्थोंका कथन है।। १२८–
१३०।।
--------------------------------------------------------------------------
१। अज्ञानी और ज्ञानी जीव पुण्यादि सात पदार्थोंमेसें किन–किन पदार्थोंके कर्ता हैं तत्सम्बन्धी आचार्यवर श्री
जयसेनाचार्यदेवकृत तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें निम्नोक्तानुसार वर्णन हैेः–
अज्ञानी जीव निर्विकार स्वसंवेदनके अभावके कारण पापपदार्थका तथा आस्रव–बंधपदार्थोंका कर्ता होता
है; कदाचित् मंद मिथ्यात्वके उदयसे, देखे हुए–सुने हुए–अनुभव किए हुए भोगोकी आकांक्षारूप निदानबन्ध
द्वारा, भविष्यकालमें पापका अनुबन्ध करनेवाले पुण्यपदार्थका भी कर्ता होता है। जो ज्ञानी जीव है वह,
निर्विकार–आत्मतत्त्वविषयक रुचि, तद्विषयक ज्ञप्ति और तद्विषयक निश्चल अनुभूतिरूप अभेदरत्नत्रयपरिणाम
द्वारा, संवर–निर्जरा–मोक्षपदार्थोंका कर्ता होता है; और जीव जब पूर्वोक्त निश्चयरत्नत्रयमें स्थिर नहीं रह
सकता तब निर्दोषपरमात्मस्वरूप अर्हंत–सिद्धोंकी तथा उनका [निर्दोष परमात्माका] आराधन करनेवाले
आचार्य–उपाध्याय–साधुओंकी निर्भर असाधारण भक्तिरूप ऐसा जो संसारविच्छेदके कारणभूत, परम्परासे
मुक्तिकारणभूत, तीर्थंकरप्रकृति आदि पुण्यका अनुबन्ध करनेवाला विशिष्ट पुण्य उसे अनीहितवृत्तिसे निदानरहित
परिणामसे करता है। इस प्रकार अज्ञानी जीव पापादि चार पदार्थोंका कर्ता है और ज्ञानी संवरादि तीन
पदार्थोंका कर्ता हैे।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
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अथ पुण्यपापपदार्थव्याख्यानम्।
मोहो रागो दोसो चित्तपसादो य जस्स भावम्मि।
विज्जदि तस्स सुहो वा असुहो वा होदि परिणामो।। १३१।।
मोहो रागो द्वेषश्चित्तप्रसादः वा यस्य भावे।
विद्यते तस्य शुभो वा अशुभो वा भवति परिणामः।। १३१।।
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अब पुण्य–पापपदार्थका व्यख्यान है।
गाथा १३१
अन्वयार्थः– [यस्य भावे] जिसके भावमें [मोहः] मोह, [रागः] राग, [द्वेषः] द्वेष [वा]
अथवा [चित्तप्रसादः] चित्तप्रसन्नता [विद्यते] है, [तस्य] उसेे [शुभः वा अशुभः वा] शुभ अथवा
अशुभ [परिणामः] परिणाम [भवति] है।
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[यहा ज्ञानीके विशिष्ट पुण्यको संसारविच्छेदके कारणभूत कहा वहा ऐसा समझना कि –वास्तवमें तो
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र ही संसारविच्छेदके कारणभूत हैं, परन्तु जब वह सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र अपूर्णदशामें
होता है तब उसके साथ अनिच्छितवृत्तिसे वर्तते हुए विशिष्ट पुण्यमें संसारविच्छेदके कारणपनेका आरोप किया
जाता है। वह आरोप भी वास्तविक कारणके–सम्यग्दर्शनादिके –अस्तित्वमें ही हो सकता है।]
छे राग, द्वेष, विमोह, चित्तप्रसादपरिणति जेहने,
ते जीवने शुभ वा अशुभ परिणामनो सद्भाव छे। १३१।