Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 132-134,136-146 ; Aasrav padarth ka vyakhyan; Sanvar padarth ka vyakhyan; Nirjara padarth ka vyakhyan.

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१९२
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
पुण्यपापयोग्यभावस्वभावाख्यापनमेतत्।
इह हि दर्शनमोहनीयविपाककलुषपरिणामता मोहः। विचित्रचारित्रमोहनीयविपाकप्रत्यये
प्रीत्यप्रीती रागद्वेषौ। तस्यैव मंदोदये विशुद्धपरिणामता चित्तप्रसादपरिणामः। एवमिमे यस्य भावे
भवन्ति, तस्यावश्यं भवति शुभोऽशुभो वा परिणामः। तत्र यत्र प्रशस्तरागश्चित्तप्रसादश्च तत्र शुभः
परिणामः, यत्र तु मोहद्वेषावप्रशस्तरागश्च तत्राऽशुभ इति।। १३१।।
सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावं ति हवदि जीवस्स।
दोण्हं पोग्गलमेत्तो भावो कम्मत्तणं
पत्तो।। १३२।।
शुभपरिणामः पुण्यमशुभः पापमिति भवति जीवस्य।
द्वयोः पुद्गलमात्रो भावः कर्मत्वं प्राप्तः।। १३२।।
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– यह, पुण्य–पापके योग्य भावके स्वभावका [–स्वरूपका] कथन है।
यहाँ, दर्शनमोहनीयके विपाकसे जो कलुषित परिणाम वह मोह है; विचित्र [–अनेक प्रकारके]
चारित्रमोहनीयका विपाक जिसका आश्रय [–निमित्त] है ऐसी प्रीति–अप्रीति वह राग–द्वेष है; उसीके
[चारित्रमोहनीयके ही] मंद उदयसे होनेवाले जो विशुद्ध परिणाम वह
चित्तप्रसादपरिणाम [–मनकी
प्रसन्नतारूप परिणाम] है। इस प्रकार यह [मोह, राग, द्वेष अथवा चित्तप्रसाद] जिसके भावमें है,
उसे अवश्य शुभ अथवा अशुभ परिणाम है। उसमें, जहाँ प्रशस्त राग तथा चित्तप्रसाद है वहाँ शुभ
परिणाम है और जहाँ मोह, द्वेष तथा अप्रशस्त राग है वहाँ अशुभ परिणाम है।। १३१।।
गाथा १३२
अन्वयार्थः– [जीवस्य] जीवके [शुभपरिणामः] शुभ परिणाम [पुण्यम्] पुण्य हैं और [अशुभः]
अशुभ परिणाम [पापम् इति भवति] पाप हैं; [द्वयोः] उन दोनोंके द्वारा [पुद्गलमात्रः भावः]
पुद्गलमात्र भाव [कर्मत्वं प्राप्तः] कर्मपनेको प्राप्त होते हैं [अर्थात् जीवके पुण्य–पापभावके निमित्तसे
साता–असातावेदनीयादि पुद्गलमात्र परिणाम व्यवहारसे जीवका कर्म कहे जाते हैं]।
--------------------------------------------------------------------------
१। प्रसाद = प्रसन्नता; विशुद्धता; उज्ज्वलता।
शुभ भाव जीवना पुण्य छे ने अशुभ भावो पाप छे;
तेना निमित्ते पौद्गलिक परिणाम कर्मपणुं लहे। १३२।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
१९३
पुण्यपापस्वरूपाख्यानमेतत्।
जीवस्य कर्तुः निश्चयकर्मतामापन्नः शुभपरिणामो द्रव्यपुण्यस्य निमित्तमात्रत्वेन कारणी–
भूतत्वात्तदास्रवक्षणादूर्ध्वं भवति भावपुण्यम्। एवं जीवस्य कर्तुर्निश्चयकर्मतामापन्नोऽशुभपरिणामो
द्रव्यपापस्य निमित्तमात्रत्वेन कारणीभूतत्वात्तदास्रवक्षणादूर्ध्वं भावपापम्। पुद्गलस्य
कर्तुर्निश्चयकर्मतामापन्नो विशिष्टप्रकृतित्वपरिणामो जीवशुभपरिणामनिमित्तो द्रव्यपुण्यम्। पुद्गलस्य
कर्तुर्निश्चयकर्मतामापन्नो विशिष्टप्रकृतित्वपरिणामो जीवाशुभपरिणामनिमित्तो द्रव्यपापम्। एवं
व्यवहारनिश्चयाभ्यामात्मनो मूर्तममूर्तञ्च कर्म प्रज्ञापितमिति।। १३२।।
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– यह, पुण्य–पापके स्वरूपका कथन है।
जीवरूप कर्ताके निश्चयकर्मभूत शुभपरिणाम द्रव्यपुण्यको निमित्तमात्ररूपसे कारणभूत है इसलिये
‘द्रव्यपुण्यास्रव’के प्रसंगका अनुसरण करके [–अनुलक्ष करके] वे शुभपरिणाम ‘भावपुण्य’ हैं।
[सातावेदनीयादि द्रव्यपुण्यास्रवका जो प्रसंग बनता है उसमें जीवके शुभपरिणाम निमित्तकारण हैं
इसलिये ‘द्रव्यपुण्यास्रव’ प्रसंगके पीछे–पीछे उसके निमित्तभूत शुभपरिणामको भी ‘भावपुण्य’ ऐसा
नाम है।] इस प्रकार जीवरूप कर्ताके निश्चयकर्मभूत अशुभपरिणाम द्रव्यपापको निमित्तमात्ररूपसे
कारणभूत हैं इसलिये ‘द्रव्यपापास्रव’के प्रसंगका अनुसरण करके [–अनुलक्ष करके] वे
अशुभपरिणाम ‘भावपाप’ हैं।
पुद्गलरूप कर्ताके निश्चयकर्मभूत विशिष्टप्रकृतिरूप परिणाम [–सातावेदनीयादि खास
प्रकृतिरूप परिणाम]–कि जिनमें जीवके शुभपरिणाम निमित्त हैं वे–द्रव्यपुण्य हैं। पुद्गलरूप कर्ताके
निश्चयकर्मभूत विशिष्टप्रकृतिरूप परिणाम [–असातावेदनीयादि खास प्रकृतिरूप परिणाम] – कि
जिनमें जीवके अशुभपरिणाम निमित्त हैं वे–द्रव्यपाप हैं।
इस प्रकार व्यवहार तथा निश्चय द्वारा आत्माको मूर्त तथा अमूर्त कर्म दर्शाया गया।
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१। जीव कर्ता है और शुभपरिणाम उसका [अशुद्धनिश्चयनयसे] निश्चयकर्म है।

२। पुद्गल कर्ता है और विशिष्टप्रकृतिरूप परिणाम उसका निश्चयकर्म है [अर्थात् निश्चयसे पुद्गल कर्ता हैे और
सातावेदनीयादि विशिष्ट प्रकृतिरूप परिणाम उसका कर्म है]।

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१९४
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
जम्हा कम्मस्स फलं विसयं फासेहिं भुंजदे णियदं।
जीवेण सुहं दुक्खं तम्हा कम्माणि मुत्ताणि।। १३३।।्रबद्य
यस्मात्कर्मणः फलं विषयः स्पर्शैर्भुज्यते नियतम्।
जीवेन सुखं दुःखं तस्मात्कर्माणि मूर्तानि।। १३३।।
मूर्तकर्मसमर्थनमेतत्।
यतो हि कर्मणां फलभूतः सुखदुःखहेतुविषयो मूर्तो मूर्तैरिन्द्रियैर्जीवेन नियतं भुज्यते, ततः
कर्मणां मूर्तत्वमनुमीयते। तथा हि–मूर्तं कर्म, मूर्तसंबंधेनानुभूयमानमूर्तफलत्वादाखु–विषवदिति।।
१३३।।
-----------------------------------------------------------------------------
भावार्थः– निश्चयसे जीवके अमूर्त शुभाशुभपरिणामरूप भावपुण्यपाप जीवका कर्म है।
शुभाशुभपरिणाम द्रव्यपुण्यपापका निमित्तकारण होनके कारण मूर्त ऐसे वे पुद्गलपरिणामरूप [साता–
असातावेदनीयादि] द्रव्यपुण्यपाप व्यवहारसे जीवका कर्म कहे जाते हैं।। १३२।।
गाथा १३३
अन्वयार्थः– [यस्मात्] क्योंकि [कर्मणः फलं] कर्मका फल [विषयः] जो [मूर्त] विषय वे
[नियतम्] नियमसे [स्पर्शैः] [मूर्त ऐसी] स्पर्शनादि–इन्द्रियों द्वारा [जीवेन] जीवसे [सुखं दुःखं]
सुखरूपसे अथवा दुःखरूपसे [भुज्यते] भोगे जाते हैं, [तस्मात्] इसलिये [कर्माणि] कर्म [मूर्तानि]
मूर्त हैं।
टीकाः– यह, मूर्त कर्मका समर्थन है।
कर्मका फल जो सुख–दुःखके हेतुभूत मूर्त विषय वे नियमसे मूर्त इन्द्रियोंं द्वारा जीवसे भोगे
जाते हैं, इसलिये कर्मके मूर्तपनेका अनुमान हो सकता है। वह इस प्रकारः– जिस प्रकार मूषकविष
मूर्त है उसी प्रकार कर्म मूर्त है, क्योंकि [मूषकविषके फलकी भाँति] मूर्तके सम्बन्ध द्वारा अनुभवमें
आनेवाला ऐसा मूर्त उसका फल है। [चूहेके विषका फल
(–शरीरमें सूजन आना, बुखार आना
आदि) मूर्त हैे और मूर्त शरीरके सम्बन्ध द्वारा अनुभवमें आता है–भोगा जाता है, इसलिये अनुमान
हो
--------------------------------------------------------------------------
छे कर्मनुं फळ विषय, तेने नियमथी अक्षो वडे
जीव भोगवे दुःखे–सुखे, तेथी करम ते मूर्त छे। १३३।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
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मुत्तो फासदि मुत्तं मुत्तो मुत्तेण बंधमणुहवदि।
जीवो मुत्तिविरहिदो गाहदि ते तेहिं उग्गहदि।। १३४।।
मूर्तः स्पृशति मूर्तंं मूर्तो मूर्तेन बंधमनुभवति।
जीवो मूर्तिविरहितो गाहति तानि तैरवगाह्यते।। १३४।।
मूर्तकर्मणोरमूर्तजीवमूर्तकर्मणोश्च बंधप्रकारसूचनेयम्।
इह हि संसारिणि जीवेऽनादिसंतानेन प्रवृत्तमास्ते मूर्तकर्म। तत्स्पर्शादिमत्त्वादागामि
मूर्तकर्म स्पृशति, ततस्तन्मूर्तं तेन सह स्नेहगुणवशाद्बंधमनुभवति। एष मूर्तयोः कर्मणोर्बंध–प्रकारः।
अथ निश्चयनयेनामूर्तो जीवोऽनादिमूर्तकर्मनिमित्तरागादिपरिणामस्निग्धः सन् विशिष्टतया मूर्तानि

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सकता है कि चूहेका विषका मूर्त है; उसी प्रकार कर्मका फल (–विषय) मूर्त है और मूर्त इन्द्रियोंके
सम्बन्ध द्वारा अनुभवमें आता है–भोगा जाता है, इसलिये अनुमान हो सकता है कि कर्म मूर्त है।]
१३३।।
गाथा १३४
अन्वयार्थः– [मूर्तः मूर्तं स्पृशति] मूर्त मूर्तको स्पर्श करता है, [मूर्तः मूर्तेन] मूर्त मूर्तके साथ
[बंधम् अनुभवति] बन्धको प्राप्त होता है; [मूर्तिविरहितः जीवः] मूर्तत्वरहित जीव [तानि गाहति]
मूर्तकर्मोंको अवगाहता है और [तैः अवगाह्यते] मूर्तकर्म जीवको अवगाहते हैं [अर्थात् दोनों
एकदूसरेमें अवगाह प्राप्त करते हैं]।
टीकाः– यह, मूर्तकर्मका मूर्तकर्मके साथ जो बन्धप्रकार तथा अमूर्त जीवका मूर्तकर्मके साथ जो
बन्धप्रकार उसकी सूचना है।
यहाँ [इस लोकमें], संसारी जीवमें अनादि संततिसे [–प्रवाहसे] प्रवर्तता हुआ मूर्तकर्म
विद्यमान है। वह, स्पर्शादिवाला होनेके कारण, आगामी मूर्तकर्मको स्पर्श करता है; इसलिये मूर्त ऐसा
वह वह उसके साथ, स्निग्धत्वगुणके वश [–अपने स्निग्धरूक्षत्वपर्यायके कारण], बन्धको प्राप्त
होता है। यह, मूर्तकर्मका मूर्तकर्मके साथ बन्धप्रकार है।
--------------------------------------------------------------------------
मूरत मूरत स्पर्शे अने मूरत मूरत बंधन लहे;
आत्मा अमूरत ने करम अन्योन्य अवगाहन लहे। १३४।

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
कर्माण्यवगाहते, तत्परिणामनिमित्तलब्धात्मपरिणामैः मूर्तकर्मभिरपि विशिष्टतयाऽवगाह्यते च।
अयं त्वन्योन्यावगाहात्मको जीवमूर्तकर्मणोर्बंधप्रकारः। एवममूर्तस्यापि जीवस्य मूर्तेन पुण्यपापकर्मणा
कथञ्चिद्बन्धो न विरुध्यते।। १३४।।
–इति पुण्यपापपदार्थव्याख्यानम्।
अथ आस्रवपदार्थव्याख्यानम्।
रागो जस्स पसत्थो अणुकंपासंसिदो य परिणामो।
चित्तम्हि णत्थि कलुसं पुण्णं जीवस्स आसवदि।। १३५।।
रागो यस्य प्रशस्तोऽनुकम्पासंश्रितश्च परिणामः।
चित्ते नास्ति कालुष्यं पुण्यं जीवस्यास्रवति।। १३५।।
-----------------------------------------------------------------------------
पुनश्च [अमूर्त जीवका मूर्तकर्मोंके साथ बन्धप्रकार इस प्रकार है कि], निश्चयनयसे जो अमूर्त
है ऐसा जीव, अनादि मूर्तकर्म जिसका निमित्त है ऐसे रागादिपरिणाम द्वारा स्निग्ध वर्तता हुआ,
मूर्तकर्मोंको विशिष्टरूपसे अवगाहता है [अर्थात् एक–दूसरेको परिणाममें निमित्तमात्र हों ऐसे
सम्बन्धविशेष सहित मूर्तकर्मोंके क्षेत्रमें व्याप्त होता है] और उस रागादिपरिणामके निमित्तसे जो
अपने [ज्ञानावरणादि] परिणामको प्राप्त होते हैं ऐसे मूर्तकर्म भी जीवको विशिष्टरूपसे अवगाहते हैं
[अर्थात् जीवके प्रदेशोंके साथ विशिष्टतापूर्वक एकक्षेत्रावगाहको प्राप्त होते हैं]। यह, जीव और
मूर्तकर्मका अन्योन्य–अवगाहस्वरूप बन्धप्रकार है। इस प्रकार
अमूर्त ऐसे जीवका भी मूर्त
पुण्यपापकर्मके साथ कथंचित् [–किसी प्रकार] बन्ध विरोधको प्राप्त नहीं होता।। १३४।।
इस प्रकार पुण्य–पापपदार्थका व्याख्यान समाप्त हुआ।
अब आस्रवपदार्थका व्याख्यान है।
गाथा १३५
अन्वयार्थः– [यस्य] जिस जीवको [प्रशस्तः रागः] प्रशस्त राग है, [अनुकम्पासंश्रितः
परिणामः] अनुकम्पायुक्त परिणाम हैे [च] और [चित्ते कालुष्यं न अस्ति] चित्तमें कलुषताका अभाव
है, [जीवस्य] उस जीवको [पुण्यम् आस्रवति] पुण्य आस्रवित होता है।
--------------------------------------------------------------------------
छे रागभाव प्रशस्त, अनुकंपासहित परिणाम छे,
मनमां नहीं कालुष्य छे, त्यां पुण्य–आस्रव होय छे। १३५।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
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पुण्यास्रवस्वरूपाख्यानमेतत्।
प्रशस्तरागोऽनुकम्पापरिणतिः चित्तस्याकलुषत्वञ्चेति त्रयः शुभा भावाः द्रव्यपुण्यास्रवस्य
निमित्तमात्रत्वेन कारणभुतत्वात्तदास्रवक्षणादूर्ध्वं भावपुण्यास्रवः। तन्निमित्तः शुभकर्मपरिणामो
योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानां द्रव्यपुण्यास्रव इति।। १३५।।
अरहंतसिद्धसाहुसु भत्ती धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा।
अणुगमणं पि गुरूणं पसत्थरागो त्ति
वुच्चंति।। १३६।।
अर्हत्सिद्धसाधुषु भक्तिर्धर्मे या च खलु चेष्टा।
अनुगमनमपि गुरूणां प्रशस्तराग इति ब्रुवन्ति।। १३६।।
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– यह, पुण्यास्रवके स्वरूपका कथन है।
प्रशस्त राग, अनुकम्पापरिणति और चित्तकी अकलुषता–यह तीन शुभ भाव द्रव्यपुण्यास्रवको
निमित्तमात्ररूपसे कारणभूत हैं इसलिये ‘द्रव्यपुण्यास्रव’ के प्रसंगका अनुसरण करके [–अनुलक्ष
करके] वे शुभ भाव भावपुण्यास्रव हैं और वे [शुभ भाव] जिसका निमित्त हैं ऐसे जो योगद्वारा
प्रविष्ट होनेवाले पुद्गलोंके शुभकर्मपरिणाम [–शुभकर्मरूप परिणाम] वे द्रव्यपुण्यास्रव हैं।। १३५।।
गाथा १३६
अन्वयार्थः– [अर्हत्सिद्धसाधुषु भक्तिः] अर्हन्त–सिद्ध–साधुओंके प्रति भक्ति, [धर्म या च खलु
चेष्टा] धर्ममें यथार्थतया चेष्टा [अनुगमनम् अपि गुरूणाम्] और गुरुओंका अनुगमन, [प्रशस्तरागः
इति ब्रुवन्ति] वह ‘प्रशस्त राग’ कहलाता है।
--------------------------------------------------------------------------
१। सातावेदनीयादि पुद्गलपरिणामरूप द्रव्यपुण्यास्रवका जो प्रसङ्ग बनता है उसमें जीवके प्रशस्त रागादि शुभ भाव
निमित्तकारण हैं इसलियेे ‘द्रव्यपुण्यास्रव’ प्रसङ्गके पीछे–पीछे उसके निमित्तभूत शुभ भावोंको भी
‘भावपुण्यास्रव’ ऐसा नाम है।
अर्हत–साधु–सिद्ध प्रत्ये भक्ति, चेष्टा धर्ममां,
गुरुओ तणुं अनुगमन–ए परिणाम राग प्रशस्तना। १३६।

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१९८
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
प्रशस्तरागस्वरूपाख्यानमेतत्।
अर्हत्सिद्धसाधुषु भक्तिः, धर्मे व्यवहारचारित्रानुष्ठाने वासनाप्रधाना चेष्टा,
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– यह, प्रशस्त रागके स्वरूपका कथन है।
अर्हन्त–सिद्ध–साधुओंके प्रति भक्ति, धर्ममें–व्यवहारचारित्रके अनुष्ठानमें– भावनाप्रधान चेष्टा
और गुरुओंका–आचार्यादिका–रसिकभावसे अनुगमन, यह ‘प्रशस्त राग’ है क्योंकि उसका विषय
प्रशस्त है।
--------------------------------------------------------------------------
१। अर्हन्त–सिद्ध–साधुओंमें अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु पाँचोंका समावेश हो जाता है क्योंकि
‘साधुओं’में आचार्य, उपाध्याय और साधु तीनका समावेश होता है।
[निर्दोष परमात्मासे प्रतिपक्षभूत ऐसे आर्त–रौद्रध्यानों द्वारा उपार्जित जो ज्ञानावरणादि प्रकृतियाँ उनका,
रागादिविकल्परहित धर्म–शुक्लध्यानों द्वारा विनाश करके, जो क्षुधादि अठारह दोष रहित और केवलज्ञानादि
अनन्त चतुष्टय सहित हुए, वे अर्हन्त कहलाते हैं।
लौकिक अंजनसिद्ध आदिसे विलक्षण ऐसे जो ज्ञानावरणादि–अष्टकर्मके अभावसे सम्यक्त्वादि–अष्टगुणात्मक
हैं और लोकाग्रमें बसते हैं, वे सिद्ध हैं।
विशुद्ध ज्ञानदर्शन जिसका स्वभाव है ऐसे आत्मतत्त्वकी निश्चयरुचि, वैसी ही ज्ञप्ति, वैसी ही निश्चल–
अनुभूति, परद्रव्यकी इच्छाके परिहारपूर्वक उसी आत्मद्रव्यमें प्रतपन अर्थात् तपश्चरण और स्वशक्तिको गोपे
बिना वैसा ही अनुष्ठान–ऐसे निश्चयपंचाचारको तथा उसके साधक व्यवहारपंचाचारको–कि जिसकी विधि
आचारादिशास्त्रोंमें कही है उसेे–अर्थात् उभय आचारको जो स्वयं आचरते है और दूसरोंको उसका आचरण
कराते हैं, वे आचार्य हैं।
पाँच अस्तिकायोंमें जीवास्तिकायको, छह द्रव्योंमें शुद्धजीवद्रव्यको, सात तत्त्वोमें शुद्धजीवतत्त्वको और नव
पदार्थोंमें शुद्धजीवपदाथकोे जो निश्चयनयसे उपादेय कहते हैं तथा भेदाभेदरत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्गकी प्ररूपणा
करते हैं और स्वयं भाते [–अनुभव करते ] हैं, वे उपाध्याय हैं।
निश्चय–चतुर्विध–आराधना द्वारा जो शुद्ध आत्मस्वरूपकी साधना करते हैं, वे साधु हैं।]
२। अनुष्ठान = आचरण; आचरना; अमलमें लाना।

३। भावनाप्रधान चेष्टा = भावप्रधान प्रवृत्ति; शुभभावप्रधान व्यापार।

४। अनुगमन = अनुसरण; आज्ञांकितपना; अनुकूल वर्तन। [गुरुओंके प्रति रसिकभावसे
(उल्लाससे, उत्साहसे)
आज्ञांकित वर्तना वह प्रशस्त राग है।]

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
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गुरूणामाचार्यादीनां रसिकत्वेनानुगमनम्–एषः प्रशस्तो रागः प्रशस्तविषयत्वात्। अयं हि
स्थूललक्ष्यतया केवलभक्तिप्रधानस्याज्ञानिनो भवति। उपरितनभूमिकायामलब्धास्पदस्यास्थान–
रागनिषेधार्थं तीव्ररागज्वरविनोदार्थं वा कदाचिज्ज्ञानिनोऽपि भवतीति।। १३६।।
तिसिदं व भुक्खिदं वा दुहिदं दट्ठूण जो दु दुहिदमणो।
पडिवज्जदि तं किवया तस्सेसा होदि
अणुकंपा।। १३७।।
तृषितं बुभुक्षितं वा दुःखितं द्रष्टवा यस्तु दुःखितमनाः।
प्रतिपद्यते तं कृपया तस्यैषा भवत्यनुकम्पा।। १३७।।
-----------------------------------------------------------------------------
यह [प्रशस्त राग] वास्तवमें, जो स्थूल–लक्ष्यवाला होनेसे केवल भक्तिप्रधान है ऐसे
अज्ञानीको होता है; उच्च भूमिकामें [–उपरके गुणस्थानोंमें] स्थिति प्राप्त न की हो तब, अस्थानका
राग रोकनेके हेतु अथवा तीव्र रागज्वर हठानेके हेतु, कदाचित् ज्ञानीको भी होता है।। १३६।।
गाथा १३७
अन्वयार्थः– [तृषितं] तृषातुर, [बुभुक्षितं] क्षुधातुर [वा] अथवा [दुःखितं] दुःखीको [द्रष्टवा]
देखकर [यः तु] जो जीव [दुःखितमनाः] मनमें दुःख पाता हुआ [तं कृपया प्रतिपद्यते] उसके प्रति
करुणासे वर्तता है, [तस्य एषा अनुकम्पा भवति] उसका वह भाव अनुकम्पा है।
टीकाः– यह, अनुकम्पाके स्वरूपका कथन है।
किसी तृषादिदुःखसे पीड़ित प्राणीको देखकर करुणाके कारण उसका प्रतिकार [–उपाय]
करने की इच्छासे चित्तमें आकुलता होना वह अज्ञानीकी अनुकम्पा है। ज्ञानीकी अनुकम्पा तो, नीचली
भूमिकामें विहरते हुए [–स्वयं नीचले गुणस्थानोंमें वर्तता हो तब], जन्मार्णवमें निमग्न जगतके
-------------------------------------------------------------------------
१। अज्ञानीका लक्ष्य [–ध्येय] स्थूल होता है इसलिये उसे केवल भक्तिकी ही प्रधानता होती है।

२। अस्थानका = अयोग्य स्थानका, अयोग्य विषयकी ओरका ; अयोग्य पदार्थोंका अवलम्बन लेने वाला।

दुःखित, तृषित वा क्षुधित देखी दुःख पामी मन विषे
करुणाथी वर्ते जेह, अनुकंपा सहित ते जीव छे। १३७।

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२००
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
अनुकम्पास्वरूपाख्यानमेतत्।
कञ्चिदुदन्यादिदुःखप्लुतमवलोक्य करुणया तत्प्रतिचिकीर्षाकुलितचित्तत्वमज्ञानिनोऽनु–कम्पा।
ज्ञानिनस्त्वधस्तनभूमिकासु विहरमाणस्य जन्मार्णवनिमग्नजगदवलोकनान्मनाग्मनःखेद इति।। १३७।।
कोधो व जदा माणो माया लोभो व चित्तमासेज्ज।
जीवस्स कुणदि खोहं कलुसो त्ति य तं बुधा
बेंति।। १३८।।
क्रोधो वा यदा मानो माया लोभो वा चित्तमासाद्य।
जीवस्य करोति क्षोभं कालुष्यमिति च तं बुधा ब्रुवन्ति।। १३८।।
चित्तकलुषत्वस्वरूपाख्यानमेतत्।
क्रोधमानमायालोभानां तीव्रोदये चित्तस्य क्षोभः कालुष्यम्। तेषामेव मंदोदये तस्य
प्रसादोऽकालुष्यम्। तत् कादाचित्कविशिष्टकषायक्षयोपशमे सत्यज्ञानिनो भवति। कषायोदयानु–
वृत्तेरसमग्रव्यावर्तितोपयोगस्यावांतरभूमिकासु कदाचित् ज्ञानिनोऽपि भवतीति।। १३८।।
-----------------------------------------------------------------------------
अवलोकनसे [अर्थात् संसारसागरमें डुबे हुए जगतको देखनेसे] मनमें किंचित् खेद होना वह है।।
१३७।।
गाथा १३८
अन्वयार्थः– [यदा] जब [क्रोधः वा] क्रोध, [मानः] मान, [माया] माया [वा] अथवा
[लोभः] लोभ [चित्तम् आसाद्य] चित्तका आश्रय पाकर [जीवस्य] जीवको [क्षोभं करोति] क्षोभ
करते हैैं, तब [तं] उसे [बुधाः] ज्ञानी [कालुष्यम् इति च ब्रुवन्ति] ‘कलुषता’ कहते हैं।
टीकाः– यह, चित्तकी कलुषताके स्वरूपका कथन है।
-------------------------------------------------------------------------
इस गाथाकी आचार्यवर श्री जयसेनाचार्यदेवकृत टीकामें इस प्रकार विवरण हैः– तीव्र तृषा, तीव्र क्षुधा, तीव्र
रोग आदिसे पीड़ित प्राणीको देखकर अज्ञानी जीव ‘किसी भी प्रकारसे मैं इसका प्रतिकार करूँ’ इस प्रकार
व्याकुल होकर अनुकम्पा करता है; ज्ञानी तो स्वात्मभावनाको प्राप्त न करता हुआ [अर्थात् निजात्माके
अनुभवकी उपलब्धि न होती हो तब], संक्लेशके परित्याग द्वारा [–अशुभ भावको छोड़कर] यथासम्भव
प्रतिकार करता है तथा उसे दुःखी देखकर विशेष संवेग और वैराग्यकी भावना करता है।
मद–क्रोध अथवा लोभ–माया चित्त–आश्रय पामीने
जीवने करे जे क्षोभ, तेने कलुषता ज्ञानी कहे। १३८।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२०१
चरिया पमादबहुला कालुस्सं लोलदा य विसएसु।
परपरिदावपवादो पावस्स य आसवं
कुणदि।। १३९।।
चर्या प्रमादबहुला कालुष्यं लोलता च विषयेषु।
परपरितापापवादः पापस्य चास्रवं करोति।। १३९।।
पापास्रवस्वरूपाख्यानमेतत्।
प्रमादबहुलचर्यापरिणतिः, कालुष्यपरिणतिः, विषयलौल्यपरिणतिः, परपरितापपरिणतिः,
परापवादपरिणतिश्चेति पञ्चाशुभा भावा द्रव्यपापास्रवस्य निमित्तमात्रत्वेन कारणभूतत्वा–
त्तदास्रवक्षणादूर्ध्वं भावपापास्रवः। तन्निमित्तोऽशुभकर्मपरिणामो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानां
द्रव्यपापास्रव इति।। १३९।।
-----------------------------------------------------------------------------
क्रोध, मान, माया और लोभके तीव्र उदयसे चित्तका क्षोभ सो कलुषता है। उन्हींके [–
क्रोधादिके ही] मंद उदयसे चित्तकी प्रसन्नता सो अकलुषता है। वह अकलुषता, कदाचित् कषायका
विशिष्ट [–खास प्रकारका] क्षयोपशम होने पर, अज्ञानीको होती है; कषायके उदयका अनुसरण
करनेवाली परिणतिमेंसे उपयोगको
असमग्ररूपसे विमुख किया हो तब [अर्थात् कषायके उदयका
अनुसरण करनेवाले परिणमनमेंसे उपयोगको पूर्ण विमुख न किया हो तब], मध्यम भूमिकाओंमें [–
मध्यम गुणस्थानोंमें], कदाचित् ज्ञानीको भी होती है।। १३८।।
गाथा १३९
अन्वयार्थः– [प्रमादबहुला चर्या] बहु प्रमादवाली चर्या, [कालुष्यं] कलुषता, [विषयेषु च
लोलता] विषयोंके प्रति लोलुपता, [परपरितापापवादः] परको परिताप करना तथा परके अपवाद
बोलना–वह [पापस्य च आस्रवं करोति] पापका आस्रव करता है।
टीकाः– यह, पापास्रवके स्वरूपका कथन है।
बहु प्रमादवाली चर्यारूप परिणति [–अति प्रमादसे भरे हुए आचरणरूप परिणति], कलुषतारूप
परिणति, विषयलोलुपतारूप परिणति, परपरितापरूप परिणति [–परको दुःख देनेरूप परिणति] और
परके अपवादरूप परिणति–यह पाँच अशुभ भाव द्रव्यपापास्रवको निमित्तमात्ररूपसे
-------------------------------------------------------------------------
१। असमग्ररूपसे = अपूर्णरूपसे; अधूरेरूपसे; अंशतः।
चर्या प्रमादभरी, कलुषता, लुब्धता विषयो विषे,
परिताप ने अपवाद परना, पाप–आस्रवने करे। १३९।

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२०२
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
सण्णाओ य तिलेस्सा इंदियवसदा य अट्टरुद्दाणि।
णाणं च दुप्पउत्तं मोहो पावप्पदा
होंति।। १४०।।
संज्ञाश्च त्रिलेश्या इन्द्रियवशता चार्तरौद्रे।
ज्ञानं च दुःप्रयुक्तं मोहः पापप्रदा भवन्ति।। १४०।।
पापास्रवभूतभावप्रपञ्चाख्यानमेतत्।
तीव्रमोहविपाकप्रभवा आहारभयमैथुनपरिग्रहसंज्ञाः, तीव्रकषायोदयानुरंजितयोगप्रवृत्ति–रूपाः
कृष्णनीलकापोतलेश्यास्तिस्रः, रागद्वेषोदयप्रकर्षादिन्द्रियाधीनत्वम्,
-----------------------------------------------------------------------------
कारणभूत हैं इसलिये ‘द्रव्यपापास्रव’ के प्रसंगका अनुसरण करके [–अनुलक्ष करके] वे अशुभ भाव
भावपापास्रव हैं और वे [अशुभ भाव] जिनका निमित्त हैं ऐसे जो योगद्वारा प्रविष्ट होनेवाले
पुद्गलोंके अशुभकर्मपरिणाम [–अशुभकर्मरूप परिणाम] वे द्रव्यपापास्रव हैं।। १३९।।
गाथा १४०
अन्वयार्थः– [संज्ञाः च] [चारों] संज्ञाएँ, [त्रिलेश्या] तीन लेश्याएँ, [इन्द्रियवशता च]
इन्द्रियवशता, [आर्तरौद्रे] आर्त–रौद्रध्यान, [दुःप्रयुक्तं ज्ञानं] दुःप्रयुक्त ज्ञान [–दुष्टरूपसे अशुभ
कार्यमें लगा हुआ ज्ञान] [च] और [मोहः] मोह–[पापप्रदाः भवन्ति] यह भाव पापप्रद है।
टीकाः– यह, पापास्रवभूत भावोंके विस्तारका कथन है।
तीव्र मोहके विपाकसे उत्पन्न होनेवाली आहार–भय–मैथुन–परिग्रहसंज्ञाएँ; तीव्र कषायके
उदयसे अनुरंजित योगप्रवृत्तिरूप कृष्ण–नील–कापोत नामकी तीन लेश्याएँ;
-------------------------------------------------------------------------
१। असातावेदनीयादि पुद्गलपरिणामरूप द्रव्यपापास्रवका जो प्रसंग बनता है उसमें जीवके अशुभ भाव
निमित्तकारण हैं इसलियेे ‘द्रव्यपापास्रव’ प्रसंगके पीछे–पीछे उनके निमित्तभूत अशुभ भावोंको भी
‘भावपापास्रव’ ऐसा नाम है।
२। अनुरंजित = रंगी हुई। [कषायके उदयसे अनुरंजित योगप्रवृत्ति वह लेश्या है। वहाँ, कृष्णादि तीन लेश्याएँ
तीव्र कषायके उदयसे अनुरंजित योगप्रवृत्तिरूप है।]

संज्ञा, त्रिलेश्या, इन्द्रिवशता, आर्तरौद्र ध्यान
बे,
वळी मोह ने दुर्युक्त ज्ञान प्रदान पाप तणुं करे। १४०।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२०३
रागद्वेषोद्रेकात्प्रिय–संयोगाप्रियवियोगवेदनामोक्षणनिदानाकांक्षणरूपमार्तम्,
कषायक्रूराशयत्वाद्धिंसाऽसत्यस्तेयविषय–संरक्षणानंदरूपं रौद्रम्, नैष्कर्म्यं तु शुभकर्मणश्चान्यत्र दुष्टतया
प्रयुक्तं ज्ञानम्, सामान्येन दर्शन–चारित्रमोहनीयोदयोपजनिताविवेकरूपो मोहः, –एषः
भावपापास्रवप्रपञ्चो द्रव्यपापास्रवप्रपञ्चप्रदो भवतीति।। १४०।।
–इति आस्रवपदार्थव्याख्यानं समाप्तम्।
अथ संवरपदार्थव्याख्यानम्।
इंदियकसायसण्णा णिग्गहिदा जेहिं सुट्ठु मग्गम्हि।
जावत्तावत्तेसिं पिहिदं
पावासवच्छिद्दं।। १४१।।
-----------------------------------------------------------------------------
रागद्वेषके उदयके प्रकर्षके कारण वर्तता हुआ इन्द्रियाधीनपना; रागद्वेषके उद्रेकके कारण प्रियके
संयोगकी, अप्रियके वियोगकी, वेदनासे छुटकाराकी तथा निदानकी इच्छारूप आर्तध्यानः कषाय द्वारा
क्रूर ऐसे परिणामके कारण होनेवाला हिंसानन्द, असत्यानन्द, स्तेयानन्द एवं विषयसंरक्षणानन्दरूप
रौद्रध्यान; निष्प्रयोजन [–व्यर्थ] शुभ कर्मसे अन्यत्र [–अशुभ कार्यमें] दुष्टरूपसे लगा हुआ ज्ञान;
और सामान्यरूपसे दर्शनचारित्र मोहनीयके उदयसे उत्पन्न अविवेकरूप मोह;– यह, भावपापास्रवका
विस्तार द्रव्यपापास्रवके विस्तारको प्रदान करनेवाला है [अर्थात् उपरोक्त भावपापास्रवरूप अनेकविध
भाव वैसे–वैसे अनेकविध द्रव्यपापास्रवमें निमित्तभूत हैं]।। १४०।।
इस प्रकार आस्रवपदार्थका व्याख्यान समाप्त हुआ।
अब, संवरपदार्थका व्याख्यान है।
-------------------------------------------------------------------------
१। प्रकर्ष = उत्कर्ष; उग्रता

२। उद्रेक = बहुलता; अधिकता ।
३। क्रूर = निर्दय; कठोर; उग्र।

मार्गे रही संज्ञा–कषायो–इन्द्रिनो निग्रह करे,
पापासरवनुं छिद्र तेने तेटलुं रूंधाय छे। १४१।

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२०४
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
इन्द्रियकषायसंज्ञा निगृहीता यैः सुष्ठु मार्गे।
यावत्तावतेषां पिहितं पापास्रवछिद्रम्।। १४१।।
अनन्तरत्वात्पापस्यैव संवराख्यानमेतत्।
मार्गो हि संवरस्तन्निमित्तमिन्द्रियाणि कषायाः संज्ञाश्च यावतांशेन यावन्तं वा कालं निगृह्यन्ते
तावतांशेन तावन्तं वा कालं पापास्रवद्वारं पिधीयते। इन्द्रियकषायसंज्ञाः भावपापास्रवो
द्रव्यपापास्रवहेतुः पूर्वमुक्तः। इह तन्निरोधो भावपापसंवरो द्रव्यपापसंवरहेतुरवधारणीय इति।।१४१।।
जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व सव्वदव्वेसु।
णासवदि
सुहं असुहं समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स।। १४२।।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा १४१
अन्वयार्थः– [यैः] जो [सुष्ठु मार्गे] भली भाँति मार्गमें रहकर [इन्द्रियकषायसंज्ञाः] इन्द्रियाँ,
कषायों और संज्ञाओंका [यावत् निगृहीताः] जितना निग्रह करते हैं, [तावत्] उतना
[पापास्रवछिद्रम्] पापास्रवका छिद्र [तेषाम्] उनको [पिहितम्] बन्ध होता है।
टीकाः– पापके अनन्तर होनेसेे, पापके ही संवरका यह कथन है [अर्थात् पापके कथनके
पश्चात तुरन्त होनेसेे, यहाँ पापके ही संवरका कथन किया गया है]।
मार्ग वास्तवमें संवर है; उसके निमित्तसे [–उसके लिये] इन्द्रियों, कषायों तथा संज्ञाओंका
जितने अंशमें अथवा जितने काल निग्रह किया जाता है, उतने अंशमें अथवा उतने काल
पापास्रवद्वारा बन्ध होता है।
इन्द्रियों, कषायों और संज्ञाओं–भावपापास्रव––को द्रव्यपापास्रवका हेतु [–निमित्त] पहले
[१४० वीं गाथामें] कहा था; यहाँ [इस गाथामें] उनका निरोध [–इन्द्रियों, कषायों और संज्ञाओंका
निरोध]–भावपापसंवर–द्रव्य–पापसंवरका हेतु अवधारना [–समझना]।। १४१।।
-------------------------------------------------------------------------
सौ द्रव्यमां नहि राग–द्वेष–विमोह वर्ते जेहने,
शुभ–अशुभ कर्म न आस्रवे समदुःखसुख ते भिक्षुने। १४२।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२०५
यस्य न विद्यते रागो द्वेषो मोहो वा सर्वद्रव्येषु।
नास्रवति शुभमशुभं समसुखदुःखस्य भिक्षोः।। १४२।।
सामान्यसंवरस्वरूपाख्यानमेतत्।
यस्य रागरूपो द्वेषरूपो मोहरूपो वा समग्रपरद्रव्येषु न हि विद्यते भावः तस्य
निर्विकारचैतन्यत्वात्समसुखदुःखस्य भिक्षोः शुभमशुभञ्च कर्म नास्रवति, किन्तु संव्रियत एव। तदत्र
मोहरागद्वेषपरिणामनिरोधो भावसंवरः। तन्निमित्तः शुभाशुभकर्मपरिणामनिरोधो योगद्वारेण प्रविशतां
पुद्गलानां द्रव्यसंवर इति।। १४२।।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा १४२
अन्वयार्थः– [यस्य] जिसे [सर्वद्रव्येषु] सर्व द्रव्योंके प्रति [रागः] राग, [द्वेषः] द्वेष [वा] या
[मोहः] मोह [न विद्यते] नहीं है, [समसुखदुःखस्य भिक्षोः] उस समसुखदुःख भिक्षुको [–
सुखदुःखके प्रति समभाववाले मुनिको] [शुभम् अशुभम्] शुभ और अशुभ कर्म [न आस्रवति]
आस्रवित नहीं होते।
टीकाः– यह, सामान्यरूपसे संवरके स्वरूपका कथन है।
जिसे समग्र परद्रव्योंके प्रति रागरूप, द्वेषरूप या मोहरूप भाव नहीं है, उस भिक्षुको – जो
कि निर्विकारचैतन्यपनेके कारण समसुखदुःख है उसेे–शुभ और अशुभ कर्मका आस्रव नहीं होता,
परन्तु संवर ही होता है। इसलिये यहाँ [ऐसा समझना कि] मोहरागद्वेषपरिणामका निरोध सो
भावसंवर है, और वह [मोहरागद्वेषरूप परिणामका निरोध] जिसका निमित्त है ऐसा जो योगद्वारा
प्रविष्ट होनेवाले पुद्गलोंके शुभाशुभकर्मपरिणामका [शुभाशुभकर्मरूप परिणामका] निरोध सो
द्रव्यसंवर है।। १४२।।
-------------------------------------------------------------------------
१। समसुखदुःख = जिसे सुखदुःख समान है ऐसेः इष्टानिष्ट संयोगोमें जिसे हर्षशोकादि विषम परिणाम नहीं होते
ऐसे। [जिसे रागद्वेषमोह नहीं है, वह मुनि निर्विकारचैतन्यमय है अर्थात् उसका चैतन्य पर्यायमें भी
विकाररहित है इसलिये समसुखदुःख है।]

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२०६
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
जस्स जदा खलु पुण्णं जोगे पावं च णत्थि विरदस्स।
संवरणं तस्स तदा सुहासुहकदस्स
कम्मस्स।। १४३।।
यस्य यदा खलु पुण्यं योगे पापं च नास्ति विरतस्य।
संवरणं तस्य तदा शुभाशुभकृतस्य कर्मणः।। १४३।।
विशेषेण संवरस्वरूपाख्यानमेतत्।
यस्य योगिनो विरतस्य सर्वतो निवृत्तस्य योगे वाङ्मनःकायकर्मणि शुभपरिणामरूपं
पुण्यमशुभपरिणामरूपं पापञ्च यदा न भवति तस्य तदा शुभाशुभभावकृतस्य द्रव्यकर्मणः संवरः
स्वकारणाभावात्प्रसिद्धयति। तदत्र शुभाशुभपरिणामनिरोधो भावपुण्यपापसंवरो द्रव्यपुण्यपाप–संवरस्य
हेतुः प्रधानोऽवधारणीय इति।। १४३।।
–इति संवरपदार्थव्याख्यानं समाप्तम्।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा १४३
अन्वयार्थः– [यस्य] जिसे [–जिस मुनिको], [विरतस्य] विरत वर्तते हुए [योगे] योगमें
[पुण्यं पापं च] पुण्य और पाप [यदा] जब [खलु] वास्तवमें [न अस्ति] नहीं होते, [तदा] तब
[तस्य] उसे [शुभाशुभकृतस्य कर्मणाः] शुभाशुभभावकृत कर्मका [संवरणम्] संवर होता है।
टीकाः– यह, विशेषरूपसे संवरका स्वरूपका कथन है।
जिस योगीको, विरत अर्थात् सर्वथा निवृत्त वर्तते हुए, योगमें–वचन, मन और कायसम्बन्धी
क्रियामेंं–शुभपरिणामरूप पुण्य और अशुभपरिणामरूप पाप जब नहीं होते, तब उसे शुभाशुभभावकृत
द्रव्यकर्मका [–शुभाशुभभाव जिसका निमित्त होता है ऐसे द्रव्यकर्मका], स्वकारणके अभावके कारण
संवर होता है। इसलिये यहाँ [इस गाथामें] शुभाशुभ परिणामका निरोध–भावपुण्यपापसंवर–
द्रव्यपुण्यपापसंवरका
प्रधान हेतु अवधारना [–समझना]।। १४३।।
इस प्रकार संवरपदार्थका व्याख्यान समाप्त हुआ।
-------------------------------------------------------------------------
प्रधान हेतु = मुख्य निमित्त। [द्रव्यसंवरमें ‘मुख्य निमित्त’ जीवके शुभाशुभ परिणामका निरोध है। योगका
निरोध नहीं है। [ यहाँ यह ध्यान रखने योग्य है कि द्रव्यसंवरका उपादान कारण– निश्चय कारण तो पुद्गल
स्वयं ही है।]
ज्यारे न योगे पुण्य तेम ज पाप वर्ते विरतने,
त्यारे शुभाशुभकृत करमनो थाय संवर तेहने। १४३।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२०७
अथ निर्जरापदार्थव्याख्यानम्।
संवरजोगेहिं जुदो तवेहिं जो चिट्ठदे बहुविहेहिं।
कम्माणं णिज्जरणं बहुगाणं
कुणदि सो णियदं।। १४४।।
संवरयोगाभ्यां युक्तस्तपोभिर्यश्चेष्टते बहुविधैः।
कर्मणां निर्जरणं बहुकानां करोति स नियतम्।। १४४।।
निर्जरास्वरूपाख्यानमेतत्।
शुभाशुभपरिणामनिरोधः संवरः, शुद्धोपयोगो योगः। ताभ्यां युक्तस्तपोभिरनशनावमौदर्य–
वृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशादिभेदाद्बहिरङ्गैः प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्य–
स्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानभेदादन्तरङ्गैश्च बहुविधैर्यश्चेष्टते स खलु
-----------------------------------------------------------------------------
अब निर्जरापदार्थका व्याख्यान है।
गाथा १४४
अन्वयार्थः– [संवरयोगाभ्याम् युक्तः] संवर और योगसे [शुद्धोपयोगसे] युक्त ऐसा [यः] जो
जीव [बहुविधैः तपोभिः चेष्टते] बहुविध तपों सहित प्रवर्तता है, [सः] वह [नियतम्] नियमसे
[बहुकानाम् कर्मणाम्] अनेक कर्मोंकी [निर्जरणं करोति] निर्जरा करता है।
टीकाः– यह, निर्जराके स्वरूपका कथन है।

संवर अर्थात् शुभाशुभ परिणामका निरोध, और योग अर्थात् शुद्धोपयोग; उनसे [–संवर और
योगसे] युक्त ऐसा जो [पुरुष], अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन
तथा कायक्लेशादि भेदोंवाले बहिरंग तपों सहित और प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग
और ध्यान ऐसे भेदोंवाले अंतरंग तपों सहित–इस प्रकार बहुविध
तपों सहित
-------------------------------------------------------------------------
१। जिस जीवको सहजशुद्धस्वरूपके प्रतपनरूप निश्चय–तप हो उस जीवके, हठ रहित वर्तते हुए अनशनादिसम्बन्धी भावोंको तप कहा जाता है।
उसमें वर्तता हुआ शुद्धिरूप अंश वह निश्चय–तप है और
शुभपनेरूप अंशको व्यवहार–तप कहा जाता है। [मिथ्याद्रष्टिको निश्चय–
तप नहीं है इसलिये उसके अनशनादिसम्बन्धी शुभ भावोंको व्यवहार–तप भी नहीं कहा जाता ; क्योंकि जहाँ
यथार्थ तपका सद्भाव ही नहीं है, वहाँ उन शुभ भावोंमें आरोप किसका किया जावे?]

जे योग–संवरयुक्त जीव बहुविध तपो सह परिणमे,
तेने नियमथी निर्जरा बहु कर्म केरी थाय छे। १४४।

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२०८
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
बहूनां कर्मणां निर्जरणं करोति। तदत्र कर्मवीर्यशातनसमर्थो बहिरङ्गान्तरङ्गतपोभिर्बृंहितः शुद्धोपयोगो
भावनिर्जरा, तदनुभावनीरसीभूतानामेकदेशसंक्षयः समुपात्तकर्मपुद्गलानां द्रव्य–निर्जरेति।। १४४।।
प्रवर्तता है, वह [पुरुष] वास्तवमें बहुत कर्मोंकी निर्जरा करता है। इसलिये यहाँ [इस गाथामें ऐसा
कहा कि], कर्मके वीर्यका [–कर्मकी शक्तिका] शातन करनेमें समर्थ ऐसा जो बहिरंग और अंतरंग
तपों द्वारा वृद्धिको प्राप्त शुद्धोपयोग सो भावनिर्जरा हैे और उसके प्रभावसे [–वृद्धिको प्राप्त
शुद्धोपयोगके निमित्तसे] नीरस हुए ऐसे उपार्जित कर्मपुद्गलोंका एकदेश संक्षय सो द्रव्य निर्जरा
है।। १४४।।
१। शातन करना = पतला करना; हीन करना; क्षीण करना; नष्ट करना।
जो संवरेण जुत्तो अप्पट्ठपसाधगो हि अप्पाणं।
मुणिऊण झादि णियदं णाणं सो संधुणोदि कम्मरयं।। १४५।।
यः संवरेण युक्तः आत्मार्थप्रसाधको ह्यात्मानम्।
ज्ञात्वा ध्यायति नियतं ज्ञानं स संधुनोति कर्मरजः।। १४५।।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा १४५
अन्वयार्थः– [संवरेण युक्तः] संवरसे युक्त ऐसा [यः] जो जीव, [आत्मार्थ– प्रसाधकः हि]
-------------------------------------------------------------------------

२। वृद्धिको प्राप्त = बढ़ा हुआ; उग्र हुआ। [संवर और शुद्धोपयोगवाले जीवको जब उग्र शुद्धोपयोग होता है तब
बहुत कर्मोंकी निर्जरा होती है। शुद्धोपयोगकी उग्रता करने की विधि शुद्धात्मद्रव्यके आलम्बनकी उग्रता करना
ही है। ऐसा करनेवालेको, सहजदशामें हठ रहित जो अनशनादि सम्बन्धी भाव वर्तते हैं उनमेंं [शुभपनेरूप
अंशके साथ] उग्र–शुद्धिरूप अंश होता है, जिससे बहुत कर्मोंकी निर्जरा होती है। [मिथ्याद्रष्टिको तो
शुद्धात्मद्रव्य भासित ही नहीं हुआ हैं, इसलिये उसे संवर नहीं है, शुद्धोपयोग नहीं है, शुद्धोपयोगकी वृद्धिकी
तो बात ही कहाँ रही? इसलिये उसे, सहज दशा रहित–हठपूर्वक–अनशनादिसम्बन्धी शुभभाव कदाचित् भले
हों तथापि, मोक्षके हेतुभूत निर्जरा बिलकुल नहीं होती।]]

३। संक्षय = सम्यक् प्रकारसे क्षय।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२०९
मुख्यनिर्जराकारणोपन्यासोऽयम्।
यो हि संवरेण शुभाशुभपरिणामपरमनिरोधेन युक्तः परिज्ञातवस्तुस्वरूपः परप्रयोजनेभ्यो
व्यावृत्तबुद्धिः केवलं स्वप्रयोजनसाधनोद्यतमनाः आत्मानं स्वोपलभ्भेनोपलभ्य गुणगुणिनोर्वस्तु–
त्वेनाभेदात्तदेव ज्ञानं स्वं स्वेनाविचलितमनास्संचेतयते स खलु नितान्तनिस्स्नेहः प्रहीण–
स्नेहाभ्यङ्गपरिष्वङ्गशुद्धस्फटिकस्तम्भवत् पूर्वोपात्तं कर्मरजः संधुनोति एतेन निर्जरामुख्यत्वे हेतुत्वं
ध्यानस्य द्योतितमिति।। १४५।।
-----------------------------------------------------------------------------
संवरसे अर्थात् शुभाशुभ परिणामके परम निरोधसे युक्त ऐसा जो जीव, वस्तुस्वरूपको [हेय–
उपादेय तत्त्वको] बराबर जानता हुआ परप्रयोजनसे जिसकी बुद्धि व्यावृत्त हुई है और केवल
स्वप्रयोजन साधनेमें जिसका
मन उद्यत हुआ है ऐसा वर्तता हुआ, आत्माको स्वोपलब्धिसे उपलब्ध
करके [–अपनेको स्वानुभव द्वारा अनुभव करके], गुण–गुणीका वस्तुरूपसे अभेद होनेके कारण
उसी
भाँति–पूर्वोपार्जित कर्मरजको खिरा देती है।
५। निःस्नेह = स्नेह रहित; मोहरागद्वेष रहित।
वास्तवमें आत्मार्थका प्रसाधक [स्वप्रयोजनका प्रकृष्ट साधक] वर्तता हुआ, [आत्मानम् ज्ञात्वा]
आत्माको जानकर [–अनुभव करके] [ज्ञानं नियतं ध्यायति] ज्ञानको निश्चलरूपसे ध्याता है, [सः]
वह [कर्मरजः] कर्मरजको [संधुनोति] खिरा देता है।
टीकाः– यह, निर्जराके मुख्य कारणका कथन है।
ज्ञानको–स्वको–स्व द्वारा अविचलपरिणतिवाला होकर संचेतता है, वह जीव वास्तवमें अत्यन्त
निःस्नेह वर्तता हुआ –जिसको स्नेहके लेपका संग प्रक्षीण हुआ है ऐसे शुद्ध स्फटिकके स्तंभकी
-------------------------------------------------------------------------
१। व्यावृत्त होना = निवर्तना; निवृत्त होना; विमुख होना।
२। मन = मति; बुद्धि; भाव; परिणाम।
३। उद्यत होना = तत्पर होना ; लगना; उद्यमवंत होना ; मुड़़ना; ढलना।
४। गुणी और गुणमें वस्तु–अपेक्षासे अभेद है इसलिये आत्मा कहो या ज्ञान कहो–दोनों एक ही हैं। उपर जिसका
‘आत्मा’ शब्दसे कथन किया था उसीका यहाँ ‘ज्ञान’शब्दसे कथन किया है। उस ज्ञानमें–निजात्मामें–
निजात्मा द्वारा निश्चल परिणति करके उसका संचेतन–संवेदन–अनुभवन करना सो ध्यान है।
६। स्नेह = तेल; चिकना पदार्थ; स्निग्धता; चिकनापन।
संवर सहित, आत्मप्रयोजननो प्रसाधक आत्मने
जाणी, सुनिश्चळ ज्ञान ध्यावे, ते करमरज निर्जरे। १४५।

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२१०
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो।
तस्स सुहासुहडहणो ज्ञाणमओ जायदे अगणी।। १४६।।
यस्य न विद्यते रागो द्वेषो मोहो वा योगपरिकर्म।
तस्य शुभाशुभदहनो ध्यानमयो जायते अग्निः।। १४६।।
शुद्ध स्वरूपमें अविचलित चैतन्यपरिणति सो वास्तवमें ध्यान है। वह ध्यान प्रगट होनेकी विधि
अब कही जाती है; जब वास्तवमें योगी, दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयका विपाक पुद्गलकर्म
होनेसे उस विपाकको [अपनेसे भिन्न ऐसे अचेतन] कर्मोंमें समेटकर, तदनुसार परिणतिसे उपयोगको
व्यवृत्त करके [–उस विपाकके अनुरूप परिणमनमेंसे उपयोगका निवर्तन करके], मोही, रागी और
द्वेषी न होनेवाले ऐसे उस उपयोगको अत्यन्त शुद्ध आत्मामें ही निष्कम्परूपसे लीन करता
-------------------------------------------------------------------------
ध्यानस्वरूपाभिधानमेतत्।
शुद्धस्वरूपेऽविचलितचैतन्यवृत्तिर्हि ध्यानम्। अथास्यात्मलाभविधिरभिधीयते। यदा खलु योगी
दर्शनचारित्रमोहनीयविपाकं पुद्गलकर्मत्वात् कर्मसु संहृत्य, तदनुवृत्तेः व्यावृत्त्योपयोगम–
मुह्यन्तमरज्यन्तमद्विषन्तं चात्यन्तशुद्ध एवात्मनि निष्कम्पं
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इससे [–इस गाथासे] ऐसा दर्शाया कि निर्जराका मुख्य हेतु ध्यान है।। १४५।।
गाथा १४६
अन्वयार्थः– [यस्य] जिसे [मोहः रागः द्वेषः] मोह और रागद्वेष [न विद्यते] नहीं है [वा]
तथा [योगपरिकर्म] योगोंका सेवन नहीं है [अर्थात् मन–वचन–कायाके प्रति उपेक्षा है], [तस्य]
उसे [शुभाशुभदहनः] शुभाशुभको जलानेवाली [ध्यानमयः अग्निः] ध्यानमय अग्नि [जायते] प्रगट
होती है।
टीकाः– यह, ध्यानके स्वरूपका कथन है।
१। यह ध्यान शुद्धभावरूप है।
नहि रागद्वेषविमोह ने नहि योगसेवन जेहने,
प्रगटे शुभाशुभ बाळनारो ध्यान–अग्नि तेहने। १४६।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२११
निवेशयति, तदास्य निष्क्रियचैतन्यरूपस्वरूपविश्रान्तस्य वाङ्मनःकायानभावयतः स्वकर्मस्व–
व्यापारयतः सकलशुभाशुभकर्मेन्धनदहनसमर्थत्वात् अग्निकल्पं परमपुरुषार्थसिद्धयुपायभूतं ध्यानं
जायते इति। तथा चोक्तम्–
‘‘अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहइ इंदत्तं। लोयंतियदेवत्तं
तत्थ चुआ णिव्वुदिं जंति’’।। ‘‘अंतो णत्थि सुईणं कालो थोओ वयं च दुम्मेहा। तण्णवरि
सिक्खियव्वं जं जरमरणं खयं कुणई’’।। १४६।।
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है, तब उस योगीको– जो कि अपने निष्क्रिय चैतन्यरूप स्वरूपमें विश्रान्त है, वचन–मन–कायाको
नहीं
भाता और स्वकर्मोमें व्यापार नहीं करता उसे– सकल शुभाशुभ कर्मरूप ईंधनको जलानेमें
समर्थ होनेसे अग्निसमान ऐसा, परमपुरुषार्थसिद्धिके उपायभूत ध्यान प्रगट होता है।
फिर कहा है कि –
‘अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहइ इंदतं।
लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिव्वृर्दि जंति।।
‘अंतो णत्थि सुईणं कालो थोओ वयं च दुम्मेहा।
तण्णवरि सिक्खियव्वं जं जरमरणं खयं कुणइ।।
[अर्थः– इस समय भी त्रिरत्नशुद्ध जीव [– इस काल भी सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप तीन
रत्नोंसे शुद्ध ऐसे मुनि] आत्माका ध्यान करके इन्द्रपना तथा लौकान्तिक–देवपना प्राप्त करते हैं और
वहाँ से चय कर [मनुष्यभव प्राप्त करके] निर्वाणको प्राप्त करते हैं।
श्रुतिओंका अन्त नहीं है [–शास्त्रोंका पार नहीं है], काल अल्प है और हम दुर्मेध हैं;
इसलिये वही केवल सीखने योग्य है कि जो जरा–मरणका क्षय करे।]
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इन दो उद्धवत गाथाओंमेंसे पहली गाथा श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत मोक्षप्राभृतकी है।

१। भाना = चिंतवन करना; ध्याना; अनुभव करना।

२। व्यापार = प्रवृत्ति [स्वरूपविश्रान्त योगीको अपने पूर्वोपार्जित कर्मोंमें प्रवर्तन नहीं है, क्योंकि वह मोहनीयकर्मके
विपाकको अपनेसे भिन्न–अचेतन–जानता है तथा उस कर्मविपाकको अनुरूप परिणमनसे उसने उपयोगको
विमुख किया है।]

३। पुरुषार्थ = पुरुषका अर्थ; पुरुषका प्रयोजन; आत्माका प्रयोजन; आत्मप्रयोजन। [परमपुरुषार्थ अर्थात् आत्माका
परम प्रयोजन मोक्ष है और वह मोक्ष ध्यानसे सधता है, इसलिये परमपुरुषार्थकी [–मोक्षकी] सिद्धिका उपाय
ध्यान हैे।]