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अद्भूत–परम–आह्लादात्मक सुखस्वरूप घृतसे सिंची हुई निश्चय–आत्मसंवेदनरूप ध्यानाग्नि
मूलोत्तरप्रकृतिभेदवाले कर्मरूपी इन्धनकी राशिको क्षणमात्रमें जला देती है।
मनुष्यका भव पाकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। और बहुश्रुतधर ही ध्यान कर सकते हैं ऐसा भी नहीं है;
सारभूत अल्प श्रुतसे भी ध्यान हो सकता है। इसलिये मोक्षार्थीयोंको शुद्धात्माका प्रतिपादक,
सवंरनिर्जराका करनेवाला और जरामरणका हरनेवाला सारभूत उपदेश ग्रहण करके ध्यान करनेयोग्य
है।
उसमें निश्चल परिणति कहाँसे होसकती है? इसलिये मोक्षके उपायभूत ध्यान करनेकी इच्छा
रखनेवाले जीवकोे प्रथम तो जिनोक्त द्रव्यगुणपर्यायरूप वस्तुस्वरूपकी यथार्थ समझपूर्वक निर्विकार
निष्क्रिय चैतन्यचमत्कारकी सम्यक् प्रतीतिका सर्व प्रकारसे उद्यम करने योग्य है; उसके पश्चात् ही
चैतन्यचमत्कारमें विशेष लीनताका यथार्थ उद्यम हो सकता है]।। १४६।।
२। मुनिको जो शुद्धात्मस्वरूपका निश्चल उग्र आलम्बन वर्तता है उसे यहाँ मुख्यतः ‘ध्यान’ कहा है।
है, क्यों कि उसे भी शुद्धात्मस्वरूपका जघन्य आलम्बन तो होता है।]
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सो तेण हवदि बद्धो पोग्गलकम्मेण विविहेण।। १४७।।
स तेन भवति बद्धः पुद्गलकर्मणा विविधेन।। १४७।।
शुभोऽशुभो वा परिणामो जीवस्य भावबन्धः, तन्निमित्तेन शुभाशुभकर्मत्वपरिणतानां जीवेन
सहान्योन्यमूर्च्छनं पुद्गलानां द्रव्यबन्ध इति।। १४७।।
आत्मा [तेन] उस भाव द्वारा [–उस भावके निमित्तसे] [विविधेन पुद्गलकर्मणा] विविध
पुद्गलकर्मोंसे [बद्धः भवति] बद्ध होता है।
आत्मा उस निमित्तभूत भाव द्वारा विविध पुद्गलकर्मसे बद्ध होता है। इसलिये यहाँ [ऐसा कहा है
कि], मोहरागद्वेष द्वारा स्निग्ध ऐसे जो जीवके शुभ या अशुभ परिणाम वह भावबन्ध है और उसके
[–शुभाशुभ परिणामके] निमित्तसे शुभाशुभ कर्मरूप परिणत पुद्गलोंका जीवके साथ अन्योन्य
अवगाहन [–विशिष्ट शक्ति सहित एकक्षेत्रावगाहसम्बन्ध] वह द्रव्य बन्ध है।। १४७।।
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भावणिमित्तो बंधो भावो रदिरागदोसमोहजुदो।। १४८।।
भावनिमित्तो बन्धो भावो रतिरागद्वेषमोहयुतः।। १४८।।
ग्रहणं हि कर्मपुद्गलानां जीवप्रदेशवर्तिकर्मस्कन्धानुप्रवेशः। तत् खलु योगनिमित्तम्। योगो
शक्तिपरिणामेनावस्थानम्। स पुनर्जीवभावनिमित्तः। जीवभावः पुना रतिरागद्वेषमोहयुतः,
निमित्त भाव है; [भावः रतिरागद्वेषमोहयुतः] भाव रतिरागद्वेषमोहसे युक्त [आत्मपरिणाम] है।
कर्मवर्गणाका जिसमें आलम्बन होता है ऐसा आत्मप्रदेशोंका परिस्पन्द [अर्थात् जीवके प्रदेशोंका
कंपन।
हैे। जीवभाव रतिरागद्वेषमोहयुक्त [परिणाम] है अर्थात् मोहनीयके विपाकसे उत्पन्न होनेवाला विकार
है
छे भावहेतुक बंध, ने मोहादिसंयुत भाव छे। १४८।
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एवेति।। १४८।।
तेसिं पि य रागादी तेसिमभावे ण बज्झंति।। १४९।।
तेषामपि च रागादयस्तेषामभावे न बध्यन्ते।। १४९।।
अर्थात् ‘बंध’ का निमित्त होता है; इसलिये मोहरागद्वेषभावको ‘बन्ध’ का अंतरंग कारण [अंतरंग
निमित्त] कहा है और योगको – जो कि ‘ग्रहण’ का निमित्त है उसे–‘बन्ध’ का बहिरंग कारण
[बाह्य निमित्त] कहा है।। १४८।।
तथा स्थितिका हेतु है।। १४८।।
स्थिति–अनुभाग बिना कर्मबन्धपर्याय नाममात्र ही रहती है। इसलिये यहाँ प्रकृति–प्रदेशबन्धका मात्र
‘ग्रहण’ शब्दसे कथन किया है और स्थिति–अनुभागबन्धका ही ‘बन्ध’ शब्दसे कहा है।
[रागादयः] [जीवके] रागादिभाव कारण हैं; [तेषाम् अभावे] रागादिभावोंके अभावमें [न बध्यन्ते]
जीव नहींं बँधते।
तेनांय छे रागादि, ज्यां रागादि नहि त्यां बंध ना। १४९।
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रागादिभावानामभावे द्रव्यमिथ्यात्वासंयमकषाययोगसद्भावेऽपि जीवा न बध्यन्ते। ततो रागा–
दीनामन्तरङ्गत्वान्निश्चयेन बन्धहेतुत्वमवसेयमिति।। १४९।।
बन्धहेतुपनेके हेतु जीवभावभूत रागादिक हैं; क्योंकि
अंतरंग बन्धहेतुपना होनेके कारण
२। जीवगत रागादिरूप भावप्रत्ययोंका अभाव होने पर द्रव्यप्रत्ययोंके विद्यमानपनेमें भी जीव बंधते नहीं हैं। यदि
अवकाश ही न रहे], क्योंकि संसारीयोंको सदैव कर्मोदयका विद्यमानपना होता है।
३। उदयगत द्रव्यमिथ्यात्वादि प्रत्ययोंकी भाँति रागादिभाव नवीन कर्मबन्धमें मात्र बहिरंग निमित्त नहीं है किन्तु वे
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आसवभावेण विणा जायदि कम्मस्स दु णिरोधो।। १५०।।
पावदि इंदियरहिदं अव्वाबाहं
आस्रवभावेन विना जायते कर्मणस्तु निरोधः।। १५०।।
कर्मणामभावेन च सर्वज्ञः सर्वलोकदर्शी च।
विना] आस्रवभावके अभावमें [कर्मणः निरोधः जायते] कर्मका निरोध होता है। [च] और [कर्मणाम्
अभावेन] कर्मोंका अभाव होनेसे वह [सर्वज्ञः सर्वलोकदर्शी च] सर्वज्ञ और सर्वलोकदर्शी होता हुआ
[इन्द्रियरहितम्] इन्द्रियरहित, [अव्याबाधम्] अव्याबाध, [अनन्तम् सुखम् प्राप्नोति] अनन्त सुखको
प्राप्त करता है।
हेतु–अभावे नियमथी आस्रवनिरोधन ज्ञानीने,
आसरवभाव–अभावमां कर्मो तणुं रोधन बने; १५०।
कर्मो–अभावे सर्वज्ञानी
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आस्रवहेतुर्हि जीवस्य मोहरागद्वेषरूपो भावः। तदभावो भवति ज्ञानिनः। तदभावे
दर्शित्वमव्याबाधमिन्द्रियव्यापारातीतमनन्तसुखत्वञ्चेति। स एष जीवन्मुक्तिनामा भावमोक्षः। कथमिति
चेत्। भावः खल्वत्र विवक्षितः कर्मावृत्तचैतन्यस्य क्रमप्रवर्तमानज्ञप्तिक्रियारूपः। स खलु
संसारिणोऽनादिमोहनीयकर्मोदयानुवृत्तिवशादशुद्धो द्रव्यकर्मास्रवहेतुः। स तु ज्ञानिनो मोहराग–
द्वेषानुवृत्तिरूपेण प्रहीयते। ततोऽस्य आस्रवभावो निरुध्यते। ततो निरुद्धास्रवभावस्यास्य
मोहक्षयेणात्यन्तनिर्विकारमनादिमुद्रितानन्तचैतन्यवीर्यस्य शुद्धज्ञप्तिक्रियारूपेणान्तर्मुहूर्त– मतिवाह्य
युगपञ्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षेयण कथञ्चिच्
होता है। कर्मका अभाव होने पर सर्वज्ञता, सर्वदर्शिता और अव्याबाध, १इन्द्रियव्यापारातीत, अनन्त
सुख होता है। यह
निम्नानुसार प्रकार स्पष्टीकरण हैेः–
मोहनीयकर्मके उदयका अनुसरण करती हुई परिणतिके कारण अशुद्ध है, द्रव्यकर्मास्रवका हेतु है।
परन्तु वह [क्रमानुसार प्रवर्तती ज्ञप्तिक्रियारूप भाव] ज्ञानीको मोहरागद्वेषवाली परिणतिरूपसे हानिको
प्राप्त होता है इसलिये उसे आस्रवभावको निरोध होता है। इसलिये जिसे आस्रवभावका निरोध हुआ
है ऐसे उस ज्ञानीको मोहके क्षय द्वारा अत्यन्त निर्विकारपना होनेसे, जिसे अनादि कालसे अनन्त
चैतन्य और [अनन्त] वीर्य मुंद गया है ऐसा वह ज्ञानी [क्षीणमोह गुणस्थानमें] शुद्ध ज्ञप्तिक्रियारूपसे
अंतर्मुहूर्त व्यतीत करके युगपद् ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका क्षय होनेसे कथंचित्
२। जीवन्मुक्ति = जीवित रहते हुए मुक्ति; देह होने पर भी मुक्ति।
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नित्यमेवावतिष्ठते। इत्येष भावकर्ममोक्षप्रकारः द्रव्यकर्ममोक्षहेतुः परम–संवरप्रकारश्च।। १५०–१५१।।
जायते निर्जराहेतुः स्वभावसहितस्य साधोः।। १५२।।
अव्याबाध–अनन्तसुखवाला सदैव रहता है।
समस्त ज्ञेयोंको जानता रहता है, इसलिये उसे कथंचित् कूटस्थ कहा है।]
२। भावकर्ममोक्ष=भावकर्मका सर्वथा छूट जाना; भावमोक्ष। [ज्ञप्तिक्रियामें क्रमप्रवृत्तिका अभाव होना वह भावमोक्ष है
३। प्रकार=स्वरूप; रीत।
द्रगज्ञानथी परिपूर्ण ने परद्रव्यविरहित ध्यान जे,
ते निर्जरानो हेतु थाय स्वभावपरिणत साधुने। १५२।
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चान्यद्रव्यसंयोगवियुक्तं
कारण जो अन्यद्रव्यके संयोग रहित है और शुद्ध स्वरूपमें अविचलित चैतन्यवृत्तिरूप होनेके कारण
जो कथंचित् ‘ध्यान’ नामके योग्य है ऐसा आत्माका स्वरूप [–आत्माकी निज दशा] पूर्वसंचित
कर्मोंकी शक्तिको शातन अथवा उनका पतन देखकर निर्जराके हेतुरूपसे वर्णन किया जाता है।
अन्यद्रव्यके संसर्ग रहित है और शुद्धस्वरूपमें निश्चल चैतन्यपरिणतिरूप होनेके कारण किसी प्रकार
‘ध्यान’ नामके योग्य है। उनकी ऐसी आत्मदशाका निर्जराके निमित्तरूपसे वर्णन किया जाता है
क्योंकि उन्हें पूर्वोपार्जित कर्मोंकी शक्ति हीन होती जाती है तथा वे कर्म खिरते जाते है।। १५२।।
है।
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ववगदवेदाउस्सो मुयदि भवं तेण सो मोक्खो।। १५३।।
व्यपगतवेद्यायुष्को मुञ्चति भवं तेन स मोक्षः।। १५३।।
परमनिर्जराकारणध्यानप्रसिद्धौ सत्यां पूर्वकर्मसंततौ कदाचित्स्वभावेनैव कदा–चित्समुद्धात
विधानेनायुःकर्मसमभूतस्थित्यामायुःकर्मानुसारेणैव निर्जीर्यमाणायाम पुनर्भवाय तद्भवत्यागसमये
वेदनीयायुर्नामगोत्ररूपाणां जीवेन सहात्यन्तविश्लेषः कर्मपुद्गलानां द्रव्यमोक्षः।। १५३।।
होकर [भवं मञ्चति] भवको छोड़ता है; [तेन] इसलिये [इस प्रकार सर्व कर्मपुद्गलोंका वियोग
होनेके कारण] [सः मोक्षः] वह मोक्ष है।
कर्मसंतति– कि जिसकी स्थिति कदाचित् स्वभावसे ही आयुकर्मके जितनी होती है और कदाचित्
दनीय–आयु–नाम–गोत्ररूप
३। केवलीभगवानको वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मकी स्थिति कभी स्वभावसे ही [अर्थात् केवलीसमुद्घातरूप
पर भी वह स्थिति घटकर आयुकर्म जितनी होनेमें केवलीसमुद्घात निमित्त बनता है।
ने आयुवेद्यविहीन थई भवने तजे; ते मोक्ष छे। १५३।
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समाप्त हुआ।
चारित्रं च तयोर्नियतमस्तित्वमनिन्दितं भणितम्।। १५४।।
२। चूलिकाके अर्थके लिए पृष्ठ १५१ का पदटिप्पण देखे।
द्रग्ज्ञाननियत अनिंध जे अस्तित्व ते चारित्र छे। १५४।
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र्ज्ञानदर्शनयोर्यन्नियतमवस्थितमुत्पादव्ययध्रौव्यरूपवृत्तिमयमस्तित्वं रागादिपरिणत्यभावादनिन्दितं
तच्चरितं; तदेव मोक्षमार्ग इति। द्विविधं हि किल संसारिषु चरितं– स्वचरितं परचरितं च;
स्वसमयपरसमयावित्यर्थः। तत्र स्वभावावस्थितास्तित्वस्वरूपं स्वचरितं, परभावावस्थितास्ति–
त्वस्वरूपं परचरितम्। तत्र यत्स्व–
[नियतम्] नियत [अस्तिवम्] अस्तित्व– [अनिन्दितं] जो कि अनिंदित है– [चारित्रं च भणितम्]
उसे [जिनेन्द्रोंने] चारित्र कहा है।
उत्पादव्ययध्रौव्यरूप वृत्तिमय अस्तित्व– जो कि रागादिपरिणामके अभावके कारण अनिंदित है – वह
चारित्र है; वही मोक्षमार्ग है।
वह स्वचारित्र है और परभावमें अवस्थित अस्तित्वस्वरूप [चारित्र] वह परचारित्र है। उसमेंसे
२। नियत=अवस्थित; स्थित; स्थिर; द्रढ़रूप स्थित।
३। वृत्ति=वर्तना; होना। [उत्पादव्ययध्रौव्यरूप वृत्ति वह अस्तित्व है।]
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त्वेनावधारणीयमिति।। १५४।।
जदि कुणदि सगं समयं पब्भस्सदि
यदि कुरुते स्वकं समयं प्रभ्रस्यति कर्मबन्धात्।। १५५।।
अवस्थित अस्तित्वसे भिन्न होनेके कारण अत्यन्त अनिंदित है वह–यहाँ साक्षात् मोक्षमार्गरूप
अवधारणा।
गया; ऐसा जानकर उसी जीवस्वभावनियत चारित्रकी – जो कि मोक्षके कारणभूत है उसकी –
निरन्तर भावना करना योग्य है। इस प्रकार सूत्रतात्पर्य है।] । १५४।।
वह [स्वकं समयं कुरुते] [नियत गुणपर्यायसे परिणमित होकर] स्वसमयको करता है तो
[कर्मबन्धात्] कर्मबन्धसे [प्रभ्रस्यति] छूटता है।
ते जो करे स्वकसमयने तो कर्मबंधनथी छूटे। १५५।
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संसारिणो हि जीवस्य ज्ञानदर्शनावस्थितत्वात् स्वभावनियतस्याप्यनादिमोहनीयो–
परचरितमिति यावत्। तस्यैवानादिमोहनीयोदयानुवृत्तिपरत्वमपास्यात्यन्तशुद्धोपयोगस्य सतः
समुपात्तभावैक्यरुप्यत्वान्नियतगुणपर्यायत्वं स्वसमयः स्वचरितमिति यावत् अथ खलु यदि
कथञ्चनोद्भिन्नसम्यग्ज्ञानज्योतिर्जीवः परसमयं व्युदस्य स्वसमयमुपादत्ते तदा कर्मबन्धादवश्यं भ्रश्यति।
यतो हि जीवस्वभावनियतं चरितं मोक्षमार्ग इति।। १५५।।
के कारण उपरक्त उपयोगवाला [–अशुद्ध उपयोगवाला] होता है तब [स्वयं] भावोंका विश्वरूपपना
[–अनेकरूपपना] ग्रहण किया होनकेे कारण उसेे जो अनियतगुणपर्यायपना होता है वह परसमय
अर्थात् परचारित्र है; वही [जीव] जब अनादि मोहनीयके उदयका अनुसरण करने वाली परिणति
करना छोड़कर अत्यन्त शुद्ध उपयोगवाला होता है तब [स्वयं] भावका एकरूपपना ग्रहण किया
होनेके कारण उसे जो नियतगुणपर्यायपना होता है वह स्वसमय अर्थात् स्वचारित्र है।
है कि] जीवस्वभावमें नियत चारित्र वह मोक्षमार्ग है।। १५५।।
२। अनियत=अनिश्चित; अनेकरूप; विविध प्रकारके।
३। नियत=निश्चित; एकरूप; अमुक एक ही प्रकारके।
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सो सगचरित्तभट्ठो
स स्वकचरित्रभ्रष्टः परचरितचरो भवति जीवः।। १५६।।
सोपरागोपयोगवृत्तिः परचरितमिति।। १५६।।
जीव [स्वकचरित्रभ्रष्टः] स्वचारित्रभ्रष्ट ऐसा [परचरितचरः भवति] परचारित्रका आचरण करनेवाला
है
[उपरक्तउपयोगवाला] वर्तता हुआ, परद्रव्यमें शुभ या अशुभ भावको धारण करता है, वह [जीव]
स्वचारित्रसे भ्रष्ट ऐसा परचारित्रका आचरण करनेवाला कहा जाता है; क्योंकि वास्तवमें स्वद्रव्यमें
ंशुद्ध–उपयोगरूप परिणति वह स्वचारित्र है और परद्रव्यमें सोपराग–उपयोगरूप परिणति वह
परचारित्र है।। १५६।।
जे रागथी परद्रव्यमां करतो शुभाशुभ भावने,
ते स्वकचरित्रथी भ्रष्ट परचारित्र आचरनार छे। १५६।
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सो तेण परचरित्तो हवदि त्ति जिणा परुवेंति।। १५७।।
स तेन परचरित्रः भवतीति जिनाः प्ररूपयन्ति।। १५्र७।।
परचरितप्रवृत्तिर्बन्धमार्ग एव, न मोक्षमार्ग इति।। १५७।।
परचारित्र है–[इति] ऐसा [जिनाः] जिन [प्ररूपयन्ति] प्ररूपित करते हैं।
वह भाव जब जिस जीवको हो तब वह जीव उस भाव द्वारा परचारित्र है– ऐसा [जिनेंद्रों द्वारा]
प्ररूपित किया जाता है। इसलिये [ऐसा निश्चित होता है कि] परचारित्रमें प्रवृत्ति सो बंधमार्ग ही
है, मोक्षमार्ग नहीं है।। १५७।।
तेना वडे ते ‘परचरित’ निर्दिष्ट छे जिनदेवथी। १५७।
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यः खलु निरुपरागोपयोगत्वात्सर्वसङ्गमुक्तः परद्रव्यव्यावृत्तोपयोगत्वादनन्यमनाः आत्मानं
यतो हि द्रशिज्ञप्तिस्वरूपे पुरुषे तन्मात्रत्वेन वर्तनं स्वचरितमिति।। १५८।।
स्थिरतापूर्वक] [जानाति पश्यति] जानता–देखता है, [सः जीवः] वह जीव [स्वकचरितं]
स्वचारित्र [चरित] आचरता है।
शून्य है तथापि निःसंग परमात्माकी भावना द्वारा उत्पन्न सुन्दर आनन्दस्यन्दी परमानन्दस्वरूप सुखसुधारसके
आस्वादसे, पूर्ण–कलशकी भाँति, सर्व आत्मप्रदेशमें भरपूर होता है।]
३। अनन्यमनवाला=जिसकी परिणति अन्य प्रति नहीं जाती ऐसा। [मन=चित्त; परिणति; भाव]
सौ–संगमुक्त अनन्यचित्त स्वभावथी निज आत्मने
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दंसणणाणवियप्पं अवियप्पं चरदि अप्पादो।। १५९।।
दर्शनज्ञानविकल्पमविकल्पं चरत्यात्मनः।। १५९।।
आचरता है; क्योंकि वास्तवमें दृशिज्ञप्तिस्वरूप पुरुषमें [आत्मामें] तन्मात्ररूपसे वर्तना सो स्वचारित्र
है।
स्वचारित्रका आचरण करनेवाला है; क्योंकि दृशिज्ञप्तिस्वरूप आत्मामें मात्र दृशिज्ञप्तिरूपसे परिणमित
होकर रहना वह स्वचारित्र है।। १५८।।
आत्मासे अभेरूप [चरति] आचरता है, [सः] वह [स्वकं चरितं चरति] स्वचारित्रको आचरता है।
निज ज्ञानदर्शनभेदने जीवथी अभिन्न ज आचरे। १५९।
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[मोक्षरूप] साध्य और [मोक्षमार्गरूप] साधन एक प्रकारके अर्थात् शुद्धात्मरूप [–शुद्धात्मपर्यायरूप] हैं।
स्वकं चरितं चरति। एवं हि शुद्धद्रव्याश्रितमभिन्नसाध्य–
दर्शनज्ञानभेदको भी आत्मासे अभेदरूपसे आचरते हैं, वे वास्तवमें स्वचारित्रको आचरते हैं।
निर्विकल्परूपसे अत्यन्त लीन होकर निजस्वभावभूत दर्शनज्ञानभेदोंको आत्मासे अभेदरूपसे आचरते हैं, वे मुनींद्र
स्वचारित्रका आचरण करनेवाले हैं।]
२। यहाँ निश्चयनयका विषय शुद्धद्रव्य अर्थात् शुद्धपर्यायपरिणत द्रव्य है, अर्थात् अकले द्रव्यकी [–परनिमित्त
४। जिन पर्यायोंमें स्व तथा पर कारण होते हैं अर्थात् उपादानकारण तथा निमित्तकारण होते हैं वे पर्यायें
अवलम्बन सहित] वर्तते हुए तत्त्वार्थश्रद्धान [नवपदार्थगत श्रद्धान], तत्त्वार्थज्ञान [नवपदार्थगत ज्ञान] और
पंचमहाव्रतादिरूप चारित्र–यह सब स्वपरहेतुक पर्यायें हैं। वे यहा व्यवहारनयके विषयभूत हैं।
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भिन्नसाध्यसाधनभावं व्यवहारनयमाश्रित्य प्ररुपितम्। न चैतद्विप्रतिषिद्धं निश्चयव्यवहारयोः साध्य–
साधनभावत्वात्सुवर्णसुवर्णपाषाणवत्। अत एवोभयनयायत्ता पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तनेति।। १५९।।
प्ररूपित किया गया था। इसमें परस्पर विरोध आता है ऐसा भी नहीं है, क्योंकि सुर्वण और
तत्त्वार्थश्रद्धान [नवपदार्थसम्बन्धी श्रद्धान], तत्त्वार्थज्ञान और पंचमहाव्रतादिरूप चारित्र व्यवहारनयसे मोक्षमार्ग है
क्योंकि [मोक्षरूप] साध्य स्वहेतुक पर्याय है और [तत्त्वार्थश्रद्धानादिमय मोक्षमार्गरूप] साधन स्वपरहेतुक
पर्याय है।
भावलिंगी मुनिको सविकल्प दशामें वर्तते हुए तत्त्वार्थश्रद्धान, तत्त्वार्थज्ञान और महाव्रतादिरूप चारित्र निर्विकल्प
दशामें वर्तते हुए शुद्धात्मश्रद्धानज्ञानानुष्ठाननके साधन हैं।
प्रश्नः– सत्यार्थ निरूपण ही करना चाहिये; अभूतार्थ उपचरित निरूपण किसलिये किया जाता है?
उत्तरः– जिसे सिंहका यथार्थ स्वरूप सीधा समझमें न आता हो उसे सिंहके स्वरूपके उपचरित निरूपण
प्रकार जिसे वस्तुका यथार्थ स्वरूप सीधा समझमें न आता हो उसे वस्तुस्वरूपके उपचरित निरूपण द्वारा
वस्तुस्वरूपकी यथार्थ समझ की ओर ले जाते हैं। और लम्बे कथनके बदलेमें संक्षिप्त कथन करनेके लिए भी
व्यवहारनय द्वारा उपचरित निरूपण किया जाता है। यहाँ इतना लक्षमें रखनेयोग्य है कि – जो पुरुष
बिल्लीके निरूपणको ही सिंहका निरूपण मानकर बिल्लीको ही सिंह समझ ले वह तो उपदेशके ही योग्य
नहीं है, उसी प्रकार जो पुरुष उपचरित निरूपणको ही सत्यार्थ निरूपण मानकर वस्तुस्वरूपको मिथ्या
रीतिसे समझ बैठेे वह तो उपदेशके ही योग्य नहीं है।