Panchastikay Sangrah (Hindi). Bandh padarth ka vyakhyan; Gatha: 147-159 ; Moksh padarth ka vyakhyaan; Mokshmarg prapanch soochak choolika.

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२१२
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
–इति निर्जरापदार्थव्याख्यानं समाप्तम्।
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जिस प्रकार थोड़ी–सी अग्नि बहुत–से घास और काष्ठकी राशिको अल्प कालमें जला देती है,
उसी प्रकार मिथ्यात्व–कषायादि विभावके परित्यागस्वरूप महा पवनसे प्रज्वलित हुई और अपूर्व–
अद्भूत–परम–आह्लादात्मक सुखस्वरूप घृतसे सिंची हुई निश्चय–आत्मसंवेदनरूप ध्यानाग्नि
मूलोत्तरप्रकृतिभेदवाले कर्मरूपी इन्धनकी राशिको क्षणमात्रमें जला देती है।
भावार्थः– निर्विकार निष्क्रिय चैतन्यचमत्कारमें निश्चल परिणति वह ध्यान है। यह ध्यान मोक्षके
उपायरूप है।
इस पंचमकालमें भी यथाशक्ति ध्यान हो सकता है। इस कालमेें जो विच्छेद है सो
शुक्लध्यानका है, धर्मध्यानका नहीं। आज भी यहाँसे जीव धर्मध्यान करके देवका भव और फिर
मनुष्यका भव पाकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। और बहुश्रुतधर ही ध्यान कर सकते हैं ऐसा भी नहीं है;
सारभूत अल्प श्रुतसे भी ध्यान हो सकता है। इसलिये मोक्षार्थीयोंको शुद्धात्माका प्रतिपादक,
सवंरनिर्जराका करनेवाला और जरामरणका हरनेवाला सारभूत उपदेश ग्रहण करके ध्यान करनेयोग्य
है।
[यहाँ यह लक्षमें रखने योग्य है कि उपरोक्त ध्यानका मूल सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शनके बिना
ध्यान नहीं होता, क्योंकि निर्विकार निष्क्रिय चैतन्यचमत्कारकी [शुद्धात्माकी] सम्यक् प्रतीति बिना
उसमें निश्चल परिणति कहाँसे होसकती है? इसलिये मोक्षके उपायभूत ध्यान करनेकी इच्छा
रखनेवाले जीवकोे प्रथम तो जिनोक्त द्रव्यगुणपर्यायरूप वस्तुस्वरूपकी यथार्थ समझपूर्वक निर्विकार
निष्क्रिय चैतन्यचमत्कारकी सम्यक् प्रतीतिका सर्व प्रकारसे उद्यम करने योग्य है; उसके पश्चात् ही
चैतन्यचमत्कारमें विशेष लीनताका यथार्थ उद्यम हो सकता है]।। १४६।।
इस प्रकार निर्जरापदार्थका व्याख्यान समाप्त हुआ।
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१। दुर्मेध = अल्पबुद्धि वाले; मन्दबुद्धि; ठोट।

२। मुनिको जो शुद्धात्मस्वरूपका निश्चल उग्र आलम्बन वर्तता है उसे यहाँ मुख्यतः ‘ध्यान’ कहा है।
[शुद्धात्मावलम्बनकी उग्रताको मुख्य न करें तो, अविरत सम्यग्दष्टिको भी ‘जघन्य ध्यान’ कहनेमें विरोध नहीं
है, क्यों कि उसे भी शुद्धात्मस्वरूपका जघन्य आलम्बन तो होता है।]

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२१३
अथ बंधपदार्थव्याख्यानम्।
जं सुहमसुहमुदिण्णं भावं रत्तो करेदि जदि अप्पा।
सो तेण हवदि बद्धो पोग्गलकम्मेण विविहेण।। १४७।।
तो ते वडे ए विविध पुद्गलकर्मथी बंधाय छे। १४७।
यं शुभमशुभमुदीर्णं भावं रक्तः करोति यद्यात्मा।
स तेन भवति बद्धः पुद्गलकर्मणा विविधेन।। १४७।।
बन्धस्वरूपाख्यानमेतत्।
यदि खल्वयमात्मा परोपाश्रयेणानादिरक्तः कर्मोदयप्रभावत्वादुदीर्णं शुभमशुभं वा भावं करोति,
तदा स आत्मा तेन निमित्तभूतेन भावेन पुद्गलकर्मणा विविधेन बद्धो भवति। तदत्र मोहरागद्वेषस्निग्धः
शुभोऽशुभो वा परिणामो जीवस्य भावबन्धः, तन्निमित्तेन शुभाशुभकर्मत्वपरिणतानां जीवेन
सहान्योन्यमूर्च्छनं पुद्गलानां द्रव्यबन्ध इति।। १४७।।
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अब बंन्धपदार्थका व्याख्यान है।
गाथा १४७
अन्वयार्थः– [यदि] यदि [आत्मा] आत्मा [रक्तः] रक्त [विकारी] वर्तता हुआ [उदीर्णं]
उदित [यम् शुभम् अशुभम् भावम्] शुभ या अशुभ भावको [करोति] करता है, तो [सः] वह
आत्मा [तेन] उस भाव द्वारा [–उस भावके निमित्तसे] [विविधेन पुद्गलकर्मणा] विविध
पुद्गलकर्मोंसे [बद्धः भवति] बद्ध होता है।
टीकाः– यह, बन्धके स्वरूपका कथन है।
यदि वास्तवमें यह आत्मा अन्यके [–पुद्गलकर्मके] आश्रय द्वारा अनादि कालसे रक्त रहकर
कर्मोदयके प्रभावयुक्तरूप वर्तनेसे उदित [–प्रगट होनेवाले] शुभ या अशुभ भावको करता है, तो वह
आत्मा उस निमित्तभूत भाव द्वारा विविध पुद्गलकर्मसे बद्ध होता है। इसलिये यहाँ [ऐसा कहा है
कि], मोहरागद्वेष द्वारा स्निग्ध ऐसे जो जीवके शुभ या अशुभ परिणाम वह भावबन्ध है और उसके
[–शुभाशुभ परिणामके] निमित्तसे शुभाशुभ कर्मरूप परिणत पुद्गलोंका जीवके साथ अन्योन्य
अवगाहन [–विशिष्ट शक्ति सहित एकक्षेत्रावगाहसम्बन्ध] वह द्रव्य बन्ध है।। १४७।।
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जो आतमा उपरक्त करतो अशुभ वा शुभ भावने,

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२१४
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
जोगणिमित्तं गहणं जोगो मणवयणकायसंभूदो।
भावणिमित्तो बंधो भावो रदिरागदोसमोहजुदो।। १४८।।
योगनिमित्तं ग्रहणं योगो मनोवचनकायसंभूतः।
भावनिमित्तो बन्धो भावो रतिरागद्वेषमोहयुतः।। १४८।।
बहिरङ्गान्तरङ्गबन्धकारणाख्यानमेतत्।
ग्रहणं हि कर्मपुद्गलानां जीवप्रदेशवर्तिकर्मस्कन्धानुप्रवेशः। तत् खलु योगनिमित्तम्। योगो
वाङ्मनःकायकर्मवर्गणालम्बन आत्मप्रदेशपरिस्पन्दः। बन्धस्तु कर्मपुद्गलानां विशिष्ट–
शक्तिपरिणामेनावस्थानम्। स पुनर्जीवभावनिमित्तः। जीवभावः पुना रतिरागद्वेषमोहयुतः,
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गाथा १४८
अन्वयार्थः– [योगनिमित्तं ग्रहणम्] ग्रहणका [–कर्मग्रहणका] निमित्त योग है; [योगः
मनोवचनकायसंभूतः] योग मनवचनकायजनित [आत्मप्रदेशपरिस्पंद] है। [भावनिमित्तः बन्धः] बन्धका
निमित्त भाव है; [भावः रतिरागद्वेषमोहयुतः] भाव रतिरागद्वेषमोहसे युक्त [आत्मपरिणाम] है।
टीकाः– यह, बन्धके बहिरंग कारण और अन्तरंग कारणका कथन है।
ग्रहण अर्थात् कर्मपुद्गलोंका जीवप्रदेशवर्ती [–जीवके प्रदेशोंके साथ एक क्षेत्रमें स्थित]
कर्मस्कन्धोमें प्रवेश; उसका निमित्त योग है। योग अर्थात् वचनवर्गणा, मनोवर्गणा, कायवर्गणा और
कर्मवर्गणाका जिसमें आलम्बन होता है ऐसा आत्मप्रदेशोंका परिस्पन्द [अर्थात् जीवके प्रदेशोंका
कंपन।
बंध अर्थात् कर्मपुद्गलोंका विशिष्ट शक्तिरूप परिणाम सहित स्थित रहना [अर्थात्
कर्मपुद्गलोंका अमुक अनुभागरूप शक्ति सहित अमुक काल तक टिकना]; उसका निमित्त जीवभाव
हैे। जीवभाव रतिरागद्वेषमोहयुक्त [परिणाम] है अर्थात् मोहनीयके विपाकसे उत्पन्न होनेवाला विकार
है
छे योगहेतुक ग्रहण, मनवचकाय–आश्रित योग छे;
छे भावहेतुक बंध, ने मोहादिसंयुत भाव छे। १४८।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२१५
मोहनीयविपाकसंपादितविकार इत्यर्थः। तदत्र मोहनीयविपाकसंपादितविकार इत्यर्थः। तदत्र
पुद्गलानां ग्रहणहेतुत्वाद्बहिरङ्गकारणं योगः, विशिष्टशक्तिस्थितिहेतुत्वादन्तरङ्गकारणं जीवभाव
एवेति।। १४८।।
हेदू चदुव्वियप्पो अट्ठवियप्पस्स कारणं भणिदं।
तेसिं पि य रागादी तेसिमभावे ण बज्झंति।। १४९।।
हेतुश्चतुर्विकल्पोऽष्टविकल्पस्य कारणं भणितम्।
तेषामपि च रागादयस्तेषामभावे न बध्यन्ते।। १४९।।
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जीवके किसी भी परिणाममें वर्तता हुआ योग कर्मके प्रकृति–प्रदेशका अर्थात् ‘ग्रहण’ का
निमित्त होता है और जीवके उसी परिणाममें वर्तता हुआ मोहरागद्वेषभाव कर्मके स्थिति–अनुभागका
अर्थात् ‘बंध’ का निमित्त होता है; इसलिये मोहरागद्वेषभावको ‘बन्ध’ का अंतरंग कारण [अंतरंग
निमित्त] कहा है और योगको – जो कि ‘ग्रहण’ का निमित्त है उसे–‘बन्ध’ का बहिरंग कारण
[बाह्य निमित्त] कहा है।। १४८।।
इसलिये यहाँ [बन्धमेंं], बहिरंग कारण [–निमित्त] योग है क्योंकि वह पुद्गलोंके ग्रहणका
हेतु है, और अंतरंग कारण [–निमित्त] जीवभाव ही है क्योंकि वह [कर्मपुद्गलोंकी] विशिष्ट शक्ति
तथा स्थितिका हेतु है।। १४८।।
भावार्थः– कर्मबन्धपर्यायके चार विशेष हैंः प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध।
इसमें स्थिति–अनुभाग ही अत्यन्त मुख्य विशेष हैं, प्रकृति–प्रदेश तो अत्यन्त गौण विशेष हैं; क्योंकि
स्थिति–अनुभाग बिना कर्मबन्धपर्याय नाममात्र ही रहती है। इसलिये यहाँ प्रकृति–प्रदेशबन्धका मात्र
‘ग्रहण’ शब्दसे कथन किया है और स्थिति–अनुभागबन्धका ही ‘बन्ध’ शब्दसे कहा है।
गाथा १४९
अन्वयार्थः– [चतुर्विकल्पः हेतुः] [द्रव्यमिथ्यात्वादि] चार प्रकारके हेतु [अष्टविकल्पस्य
कारणम्] आठ प्रकारके कर्मोंके कारण [भणितम्] कहे गये हैं; [तेषाम् अपि च] उन्हें भी
[रागादयः] [जीवके] रागादिभाव कारण हैं; [तेषाम् अभावे] रागादिभावोंके अभावमें [न बध्यन्ते]
जीव नहींं बँधते।
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हेतु चतुर्विध अष्टविध कर्मो तणां कारण कह्या,
तेनांय छे रागादि, ज्यां रागादि नहि त्यां बंध ना। १४९।

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२१६
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
मिथ्यात्वादिद्रव्यपर्यायाणामपि बहिरङ्गकारणद्योतनमेतत्।
तन्त्रान्तरे किलाष्टविकल्पकर्मकारणत्वेन बन्धहेतुर्द्रव्यहेतुरूपश्चतुर्विकल्पः प्रोक्तः मिथ्या–
त्वासंयमकषाययोगा इति। तेषामपि जीवभावभूता रागादयो बन्धहेतुत्वस्य हेतवः, यतो
रागादिभावानामभावे द्रव्यमिथ्यात्वासंयमकषाययोगसद्भावेऽपि जीवा न बध्यन्ते। ततो रागा–
दीनामन्तरङ्गत्वान्निश्चयेन बन्धहेतुत्वमवसेयमिति।। १४९।।
–इति बन्धपदार्थव्याख्यानं समाप्तम्।
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टीकाः– यह, मिथ्यात्वादि द्रव्यपर्यायोंको [–द्रव्यमिथ्यात्वादि पुद्गलपर्यायोंको] भी [बंधके]
बहिरंग–कारणपनेका प्रकाशन है।
ग्रंथान्तरमें [अन्य शास्त्रमें] मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग इन चार प्रकारके
द्रव्यहेतुओंको [द्रव्यप्रत्ययोंको] आठ प्रकारके कर्मोंके कारणरूपसे बन्धहेतु कहे हैं। उन्हें भी
बन्धहेतुपनेके हेतु जीवभावभूत रागादिक हैं; क्योंकि
रागादिभावोंका अभाव होने पर द्रव्यमिथ्यात्व,
द्रव्य–असंयम, द्रव्यकषाय और द्रव्ययोगके सद्भावमें भी जीव बंधते नहीं हैं। इसलिये रागादिभावोंको
अंतरंग बन्धहेतुपना होनेके कारण
निश्चयसे बन्धहेतुपना है ऐसा निर्णय करना।। १४९।।
इस प्रकार बंधपदार्थका व्याख्यान समाप्त हुआ।
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१। प्रकाशन=प्रसिद्ध करना; समझना; दर्शाना।

२। जीवगत रागादिरूप भावप्रत्ययोंका अभाव होने पर द्रव्यप्रत्ययोंके विद्यमानपनेमें भी जीव बंधते नहीं हैं। यदि
जीवगत रागादिभावोंके अभावमें भी द्रव्यप्रत्ययोंके उदयमात्रसे बन्ध हो तो सर्वदा बन्ध ही रहे [–मोक्षका
अवकाश ही न रहे], क्योंकि संसारीयोंको सदैव कर्मोदयका विद्यमानपना होता है।

३। उदयगत द्रव्यमिथ्यात्वादि प्रत्ययोंकी भाँति रागादिभाव नवीन कर्मबन्धमें मात्र बहिरंग निमित्त नहीं है किन्तु वे
तो नवीन कर्मबन्धमें ‘अंतरंग निमित्त’ हैं इसलिये उन्हें ‘निश्चयसे बन्धहेतु’ कहे हैं।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२१७
अथ मोक्षपदार्थव्याख्यानम्।
हेदुमभावे णियमा जायदि णाणिस्स आसवणिरोधो।
आसवभावेण विणा जायदि कम्मस्स दु णिरोधो।। १५०।।
प्राप्नोतीन्द्रियरहितमव्याबाधं सुखमनन्तम्।। १५१।।
कम्मस्साभावेण य सव्वण्हू सव्वलोगदरिसी य।
पावदि इंदियरहिदं अव्वाबाहं
सुहमणंतं।। १५१।।
हेत्वभावे नियमाज्जायते ज्ञानिनः आस्रवनिरोधः।
आस्रवभावेन विना जायते कर्मणस्तु निरोधः।। १५०।।
कर्मणामभावेन च सर्वज्ञः सर्वलोकदर्शी च।
द्रव्यकर्ममोक्षहेतुपरमसंवररूपेण भावमोक्षस्वरूपाख्यानमेतत्।
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अब मोक्षपदार्थका व्याख्यान है।
गाथा १५०–१५१
अन्वयार्थः– [हेत्वभावे] [मोहरागद्वेषरूप] हेतुका अभाव होनेसे [ज्ञानिनः] ज्ञानीको
[नियमात्] नियमसे [आस्रवनिरोधः जायते] आस्रवका निरोध होता है [तु] और [आस्रवभावेन
विना] आस्रवभावके अभावमें [कर्मणः निरोधः जायते] कर्मका निरोध होता है। [च] और [कर्मणाम्
अभावेन] कर्मोंका अभाव होनेसे वह [सर्वज्ञः सर्वलोकदर्शी च] सर्वज्ञ और सर्वलोकदर्शी होता हुआ
[इन्द्रियरहितम्] इन्द्रियरहित, [अव्याबाधम्] अव्याबाध, [अनन्तम् सुखम् प्राप्नोति] अनन्त सुखको
प्राप्त करता है।
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टीकाः– यह, द्रव्यकर्ममोक्षके हेतुभूत परम–संवररूपसे भावमोक्षके स्वरूपका कथन है।
१। द्रव्यकर्ममोक्ष=द्रव्यकर्मका सर्वथा छूट जानाः द्रव्यमोक्ष [यहाँ भावमोक्षका स्वरूप द्रव्यमोक्षके निमित्तभूत परम–
संवररूपसे दर्शाया है।]

हेतु–अभावे नियमथी आस्रवनिरोधन ज्ञानीने,
आसरवभाव–अभावमां कर्मो तणुं रोधन बने; १५०।
कर्मो–अभावे सर्वज्ञानी
सर्वदर्शी थाय छे,
ने अक्षरहित, अनंत, अव्याबाध सुखने ते लहे। १५१।

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२१८
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
द्रव्यकर्ममोक्षहेतुपरमसंवररूपेण भावमोक्षस्वरूपाख्यानमेतत्।
आस्रवहेतुर्हि जीवस्य मोहरागद्वेषरूपो भावः। तदभावो भवति ज्ञानिनः। तदभावे
भवत्यास्रवभावाभावः। आस्रवभावाभावे भवति कर्माभावः। कर्माभावेन भवति सार्वज्ञं सर्व–
दर्शित्वमव्याबाधमिन्द्रियव्यापारातीतमनन्तसुखत्वञ्चेति। स एष जीवन्मुक्तिनामा भावमोक्षः। कथमिति
चेत्। भावः खल्वत्र विवक्षितः कर्मावृत्तचैतन्यस्य क्रमप्रवर्तमानज्ञप्तिक्रियारूपः। स खलु
संसारिणोऽनादिमोहनीयकर्मोदयानुवृत्तिवशादशुद्धो द्रव्यकर्मास्रवहेतुः। स तु ज्ञानिनो मोहराग–
द्वेषानुवृत्तिरूपेण प्रहीयते। ततोऽस्य आस्रवभावो निरुध्यते। ततो निरुद्धास्रवभावस्यास्य
मोहक्षयेणात्यन्तनिर्विकारमनादिमुद्रितानन्तचैतन्यवीर्यस्य शुद्धज्ञप्तिक्रियारूपेणान्तर्मुहूर्त– मतिवाह्य
युगपञ्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षेयण कथञ्चिच्
कूटस्थज्ञानत्वमवाप्य ज्ञप्तिक्रियारूपे
क्रमप्रवृत्त्यभावाद्भावकर्म विनश्यति।
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आस्रवका हेतु वास्तवमें जीवका मोहरागद्वेषरूप भाव है। ज्ञानीको उसका अभाव होता है।
उसका अभाव होने पर आस्रवभावका अभाव होता है। आस्रवभावका अभाव होने पर कर्मका अभाव
होता है। कर्मका अभाव होने पर सर्वज्ञता, सर्वदर्शिता और अव्याबाध, १इन्द्रियव्यापारातीत, अनन्त
सुख होता है। यह
निम्नानुसार प्रकार स्पष्टीकरण हैेः–
३। विवक्षित=कथन करना है।
जीवन्मुक्ति नामका भावमोक्ष है। ‘किस प्रकार?’ ऐसा प्रश्न किया जाय तो
यहाँ जो ‘भाव’ विवक्षित है वह कर्मावृत [कर्मसे आवृत हुए] चैतन्यकी क्रमानुसार प्रवर्तती
ज्ञाप्तिक्रियारूप है। वह [क्रमानुसार प्रवर्तती ज्ञप्तिक्रियारूप भाव] वास्तवमें संसारीको अनादि कालसे
मोहनीयकर्मके उदयका अनुसरण करती हुई परिणतिके कारण अशुद्ध है, द्रव्यकर्मास्रवका हेतु है।
परन्तु वह [क्रमानुसार प्रवर्तती ज्ञप्तिक्रियारूप भाव] ज्ञानीको मोहरागद्वेषवाली परिणतिरूपसे हानिको
प्राप्त होता है इसलिये उसे आस्रवभावको निरोध होता है। इसलिये जिसे आस्रवभावका निरोध हुआ
है ऐसे उस ज्ञानीको मोहके क्षय द्वारा अत्यन्त निर्विकारपना होनेसे, जिसे अनादि कालसे अनन्त
चैतन्य और [अनन्त] वीर्य मुंद गया है ऐसा वह ज्ञानी [क्षीणमोह गुणस्थानमें] शुद्ध ज्ञप्तिक्रियारूपसे
अंतर्मुहूर्त व्यतीत करके युगपद् ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका क्षय होनेसे कथंचित्
कूटस्थ ज्ञानको प्राप्त करता है और इस प्रकार उसे ज्ञप्तिक्रियाके रूपमें क्रमप्रवृत्तिका अभाव होनेसे
भावकर्मका विनाश होता है।
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१। इन्द्रियव्यापारातीत=इन्द्रियव्यापार रहित।

२। जीवन्मुक्ति = जीवित रहते हुए मुक्ति; देह होने पर भी मुक्ति।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२१९
ततः कर्माभावे स हि भगवान्सर्वज्ञः सर्वदर्शी व्युपरतेन्द्रिय–व्यापाराव्याबाधानन्तसुखश्च
नित्यमेवावतिष्ठते। इत्येष भावकर्ममोक्षप्रकारः द्रव्यकर्ममोक्षहेतुः परम–संवरप्रकारश्च।। १५०–१५१।।
दंसणणाणसमग्गं झाणं णो अप्णदव्वसंजुत्तं।
जायदि णिज्जरहेदू सभावसहिदस्स साधुस्स।। १५२।।
दर्शनज्ञानसमग्रं ध्यानं नो अन्यद्रव्यसंयुक्तम्।
जायते निर्जराहेतुः स्वभावसहितस्य साधोः।। १५२।।
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इसलिये कर्मका अभाव होने पर वह वास्तवमें भगवान सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा इन्द्रियव्यापारातीत–
अव्याबाध–अनन्तसुखवाला सदैव रहता है।
इस प्रकार यह [जो यहाँ कहा है वह], भावकर्ममोक्षका प्रकार तथा द्रव्यकर्ममोक्षका हेतुभूत
परम संवरका प्रकार है ।। १५०–१५१।।
गाथा १५२
अन्वयार्थः– [स्वभावसहितस्य साधोः] स्वभावसहित साधुको [–स्वभावपरिणत
केवलीभगवानको] [दर्शनज्ञानसमग्रं] दर्शनज्ञानसे सम्पूर्ण और [नो अन्यद्रव्य– संयुक्तम्]
-------------------------------------------------------------------------
१। कूटस्थ=सर्व काल एक रूप रहनेवालाः अचल। [ज्ञानावरणादि घातिकर्मोंका नाश होने पर ज्ञान कहींं सर्वथा
अपरिणामी नहीं हो जाता; परन्तु वह अन्य–अन्य ज्ञेयोंको जाननेरूप परिवर्तित नहीं होता–सर्वदा तीनों कालके
समस्त ज्ञेयोंको जानता रहता है, इसलिये उसे कथंचित् कूटस्थ कहा है।]

२। भावकर्ममोक्ष=भावकर्मका सर्वथा छूट जाना; भावमोक्ष। [ज्ञप्तिक्रियामें क्रमप्रवृत्तिका अभाव होना वह भावमोक्ष है
अथवा सर्वज्ञ –सर्वदर्शीपनेकी और अनन्तानन्दमयपनेकी प्रगटता वह भावमोक्ष है।]

३। प्रकार=स्वरूप; रीत।

द्रगज्ञानथी परिपूर्ण ने परद्रव्यविरहित ध्यान जे,
ते निर्जरानो हेतु थाय स्वभावपरिणत साधुने। १५२।

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२२०
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
द्रव्यकर्ममोक्षहेतुपरमनिर्जराकारणध्यानाख्यानमेतत्।
एवमस्य खलु भावमुक्तस्य भगवतः केवलिनः स्वरूपतृप्तत्वाद्विश्रान्तस्रुखदुःखकर्म–
विपाककृतविक्रियस्य प्रक्षीणावरणत्वादनन्तज्ञानदर्शनसंपूर्णशुद्धज्ञानचेतनामयत्वादतीन्द्रियत्वात्
चान्यद्रव्यसंयोगवियुक्तं
शुद्धस्वरूपेऽविचलितचैतन्यवृत्तिरूपत्वात्कथञ्चिद्धयानव्यपदेशार्हमात्मनः
स्वरूपं पूर्वसंचितकर्मणां शक्तिशातनं पतनं वा विलोक्य निर्जराहेतुत्वेनोपवर्ण्यत इति।। १५२।।
इस प्रकार वास्तवमें इस [–पूवोक्त] भावमुक्त [–भावमोक्षवाले] भगवान केवलीको–कि
जिन्हें स्वरूपतृप्तपनेके कारण १कर्मविपाकृत सुखदुःखरूप विक्रिया अटक गई है उन्हें –आवरणके
प्रक्षीणपनेके कारण, अनन्त ज्ञानदर्शनसे सम्पूर्ण शुद्धज्ञानचेतनामयपनेके कारण तथा अतीन्द्रियपनेके
कारण जो अन्यद्रव्यके संयोग रहित है और शुद्ध स्वरूपमें अविचलित चैतन्यवृत्तिरूप होनेके कारण
जो कथंचित् ‘ध्यान’ नामके योग्य है ऐसा आत्माका स्वरूप [–आत्माकी निज दशा] पूर्वसंचित
कर्मोंकी शक्तिको शातन अथवा उनका पतन देखकर निर्जराके हेतुरूपसे वर्णन किया जाता है।
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अन्यद्रव्यसे असंयुक्त ऐसा [ध्यानं] ध्यान [निर्जराहेतुः जायते] निर्जराका हेतु होता है।
टीकाः– यह, द्रव्यकर्ममोक्षनके हेतुभूत ऐसी परम निर्जराके कारणभूत ध्यानका कथन है।
भावार्थः– केवलीभगवानके आत्माकी दशा ज्ञानदर्शनावरणके क्षयवाली होनेके कारण,
शुद्धज्ञानचेतनामय होनेके कारण तथा इन्द्रियव्यापारादि बहिर्द्रव्यके आलम्बन रहित होनेके कारण
अन्यद्रव्यके संसर्ग रहित है और शुद्धस्वरूपमें निश्चल चैतन्यपरिणतिरूप होनेके कारण किसी प्रकार
‘ध्यान’ नामके योग्य है। उनकी ऐसी आत्मदशाका निर्जराके निमित्तरूपसे वर्णन किया जाता है
क्योंकि उन्हें पूर्वोपार्जित कर्मोंकी शक्ति हीन होती जाती है तथा वे कर्म खिरते जाते है।। १५२।।
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१। केवलीभगवान निर्विकार –परमानन्दस्वरूप स्वात्मोत्पन्न सुखसे तृप्त हैं इसलिये कर्मका विपाक जिसमें
निमित्तभूत होता है ऐसी सांसारिक सुख–दुःखरूप [–हर्षविषादरूप] विक्रिया उन्हेें विरामको प्राप्त हुई
है।
२। शातन = पतला होना; हीन होना; क्षीण होना
३। पतन = नाश; गलन; खिर जाना।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२२१
जो संवरेण जुत्तो णिज्जरमाणोध सव्वकम्माणि।
ववगदवेदाउस्सो मुयदि भवं तेण सो मोक्खो।। १५३।।
यः संवरेण युक्तो निर्जरन्नथ सर्वकर्माणि।
व्यपगतवेद्यायुष्को मुञ्चति भवं तेन स मोक्षः।। १५३।।
द्रव्यमोक्षस्वरूपाख्यानमेतत्।
अथ खलु भगवतः केवलिनो भावमोक्षे सति प्रसिद्धपरमसंवरस्योत्तरकर्मसन्ततौ निरुद्धायां
परमनिर्जराकारणध्यानप्रसिद्धौ सत्यां पूर्वकर्मसंततौ कदाचित्स्वभावेनैव कदा–चित्समुद्धात
विधानेनायुःकर्मसमभूतस्थित्यामायुःकर्मानुसारेणैव निर्जीर्यमाणायाम पुनर्भवाय तद्भवत्यागसमये
वेदनीयायुर्नामगोत्ररूपाणां जीवेन सहात्यन्तविश्लेषः कर्मपुद्गलानां द्रव्यमोक्षः।। १५३।।
–इति मोक्षपदार्थव्याख्यानं समाप्तम्।
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गाथा १५३
अन्वयार्थः– [यः संवरेण युक्तः] जो संवरसेयुक्त हैे ऐसा [केवलज्ञान प्राप्त] जीव [निर्जरन्
अथ सर्वकर्माणि] सर्व कर्मोंकी निर्जरा करता हुआ [व्यपगतवेद्यायुष्कः] वेदनीय और आयु रहित
होकर [भवं मञ्चति] भवको छोड़ता है; [तेन] इसलिये [इस प्रकार सर्व कर्मपुद्गलोंका वियोग
होनेके कारण] [सः मोक्षः] वह मोक्ष है।
वास्तवमें भगवान केवलीको, भावमोक्ष होने पर, परम संवर सिद्ध होनेके कारण उत्तर
कर्मसंतति निरोधको प्राप्त होकर और परम निर्जराके कारणभूत ध्यान सिद्ध होनेके कारण
कर्मसंतति– कि जिसकी स्थिति कदाचित् स्वभावसे ही आयुकर्मके जितनी होती है और कदाचित्
वह– आयुकर्मके अनुसार ही निर्जरित होती
हुई,
दनीय–आयु–नाम–गोत्ररूप
कर्मपुद्गलोंका जीवके साथ अत्यन्त विश्लेष [वियोग] वह द्रव्यमोक्ष है।। १५३।।
१। उत्तर कर्मसंतति=बादका कर्मप्रवाह; भावी कर्मपरम्परा।
टीकाः– यह, द्रव्यमोक्षके स्वरूपका कथन है।
पूर्व
समुद्घातविधानसे आयुकर्मके जितनी होती है
अपुनर्भवके लिये वह भव छूटनेके समय होनेवाला जो व
इस प्रकार मोक्षपदार्थका व्याख्यान समाप्त हुआ।
-------------------------------------------------------------------------
२। पूर्व=पहलेकी।
३। केवलीभगवानको वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मकी स्थिति कभी स्वभावसे ही [अर्थात् केवलीसमुद्घातरूप
निमित्त हुए बिना ही] आयुकर्मके जितनी होती है और कभी वह तीन कर्मोंकी स्थिति आयुकर्मसे अधिक होने
पर भी वह स्थिति घटकर आयुकर्म जितनी होनेमें केवलीसमुद्घात निमित्त बनता है।
४। अपुनर्भव=फिरसे भव नहीं होना। [केवलीभगवानको फिरसे भव हुए बिना ही उस भवका त्याग होता है;
इसलिये उनके आत्मासे कर्मपुद्गलोंका सदाके लिए सर्वथा वियोग होता है।]
संवरसहित ते जीव पूर्ण समस्त कर्मो निर्जरे
ने आयुवेद्यविहीन थई भवने तजे; ते मोक्ष छे। १५३।

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२२२
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
समाप्तं च मोक्षमार्गावयवरूपसम्यग्दर्शनज्ञानविषयभूतनवपदार्थव्याख्यानम्।।
अथ मोक्षमार्गप्रपञ्चसूचिका चूलिका।
जीवसहावं णाणं अप्पडिहददंसणं अणण्णमयं।
चरियं च तेसु णियदं अत्थित्तमणिंदियं भणियं।। १५४।।
और मोक्षमार्गके अवयवरूप सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानके विषयभूत नव पदार्थोंका व्याख्यान भी
समाप्त हुआ।
जीवस्वभावं ज्ञानमप्रतिहतदर्शनमनन्यमयम्।
चारित्रं च तयोर्नियतमस्तित्वमनिन्दितं भणितम्।। १५४।।
-----------------------------------------------------------------------------
* *
अब मोक्षमार्गप्रपंचसूचक चूलिका है।
-------------------------------------------------------------------------
१। मोक्षमार्गप्रपंचसूचक = मोक्षमार्गका विस्तार बतलानेवाली; मोक्षमार्गका विस्तारसे करनेवाली; मोक्षमार्गका
विस्तृत कथन करनेवाली।

२। चूलिकाके अर्थके लिए पृष्ठ १५१ का पदटिप्पण देखे।
आत्मस्वभाव अनन्यमय निर्विघ्न दर्शन ज्ञान छे;
द्रग्ज्ञाननियत अनिंध जे अस्तित्व ते चारित्र छे। १५४।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२२३
मोक्षमार्गस्वरूपाख्यानमेतत्।
जीवस्वभावनियतं चरितं मोक्षमार्गः। जीवस्वभावो हि ज्ञानदर्शने अनन्यमयत्वात्। अनन्यमयत्वं
च तयोर्विशेषसामान्यचैतन्यस्वभावजीवनिर्वृत्तत्वात्। अथ तयोर्जीवस्वरूपभूतयो–
र्ज्ञानदर्शनयोर्यन्नियतमवस्थितमुत्पादव्ययध्रौव्यरूपवृत्तिमयमस्तित्वं रागादिपरिणत्यभावादनिन्दितं
तच्चरितं; तदेव मोक्षमार्ग इति। द्विविधं हि किल संसारिषु चरितं– स्वचरितं परचरितं च;
स्वसमयपरसमयावित्यर्थः। तत्र स्वभावावस्थितास्तित्वस्वरूपं स्वचरितं, परभावावस्थितास्ति–
त्वस्वरूपं परचरितम्। तत्र यत्स्व–
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा १५४
अन्वयार्थः– [जीवस्वभावं] जीवका स्वभाव [ज्ञानम्] ज्ञान और [अप्रतिहत–दर्शनम्]
अप्रतिहत दर्शन हैे– [अनन्यमयम्] जो कि [जीवसे] अनन्यमय है। [तयोः] उन ज्ञानदर्शनमें
[नियतम्] नियत [अस्तिवम्] अस्तित्व– [अनिन्दितं] जो कि अनिंदित है– [चारित्रं च भणितम्]
उसे [जिनेन्द्रोंने] चारित्र कहा है।
टीकाः– यह, मोक्षमार्गके स्वरूपका कथन है।
जीवस्वभावमें नियत चारित्र वह मोक्षमार्ग है। जीवस्वभाव वास्तवमें ज्ञान–दर्शन है क्योंकि वे
[जीवसे] अनन्यमय हैं। ज्ञानदर्शनका [जीवसे] अनन्यमयपना होनेका कारण यह है कि
विशेषचैतन्य और सामान्यचैतन्य जिसका स्वभाव है ऐसे जीवसे वे निष्पन्न हैं [अर्थात् जीव द्वारा
ज्ञानदर्शन रचे गये हैं]। अब जीवके स्वरूपभूत ऐसे उन ज्ञानदर्शनमें नियत–अवस्थित ऐसा जो
उत्पादव्ययध्रौव्यरूप वृत्तिमय अस्तित्व– जो कि रागादिपरिणामके अभावके कारण अनिंदित है – वह
चारित्र है; वही मोक्षमार्ग है।
संसारीयोंमें चारित्र वास्तवमें दो प्रकारका हैः– [१] स्वचारित्र और [२] परचारित्र;
[१]स्वसमय और [२] परसमय ऐसा अर्थ है। वहाँ, स्वभावमें अवस्थित अस्तित्वस्वरूप [चारित्र]
वह स्वचारित्र है और परभावमें अवस्थित अस्तित्वस्वरूप [चारित्र] वह परचारित्र है। उसमेंसे
-------------------------------------------------------------------------
१। विशेषचैतन्य वह ज्ञान हैे और सामान्यचैतन्य वह दर्शन है।

२। नियत=अवस्थित; स्थित; स्थिर; द्रढ़रूप स्थित।

३। वृत्ति=वर्तना; होना। [उत्पादव्ययध्रौव्यरूप वृत्ति वह अस्तित्व है।]

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२२४
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
भावावस्थितास्तित्वरूपं परभावावस्थितास्तित्वव्यावृत्तत्वेनात्यन्तमनिन्दितं तदत्र साक्षान्मोक्षमार्ग–
त्वेनावधारणीयमिति।। १५४।।
जीवो सहावणियदो अणियदगुणपज्जओध परसमओ।
जदि कुणदि सगं समयं पब्भस्सदि
कम्मबंधादो।। १५५।।
जीवः स्वभावनियतः अनियतगुणपर्यायोऽथ परसमयः।
यदि कुरुते स्वकं समयं प्रभ्रस्यति कर्मबन्धात्।। १५५।।
-----------------------------------------------------------------------------
[अर्थात् दो प्रकारके चारित्रमेंसे], स्वभावमें अवस्थित अस्तित्वरूप चारित्र–जो कि परभावमें
अवस्थित अस्तित्वसे भिन्न होनेके कारण अत्यन्त अनिंदित है वह–यहाँ साक्षात् मोक्षमार्गरूप
अवधारणा।
[यही चारित्र ‘परमार्थ’ शब्दसे वाच्य ऐसे मोक्षका कारण है, अन्य नहीं–ऐसा न जानकर,
मोक्षसे भिन्न ऐसे असार संसारके कारणभूत मिथ्यात्वरागादिमें लीन वर्तते हुए अपना अनन्त काल
गया; ऐसा जानकर उसी जीवस्वभावनियत चारित्रकी – जो कि मोक्षके कारणभूत है उसकी –
निरन्तर भावना करना योग्य है। इस प्रकार सूत्रतात्पर्य है।] । १५४।।
गाथा १५५
अन्वयार्थः– [जीवः] जीव, [स्वभावनियतः] [द्रव्य–अपेक्षासे] स्वभावनियत होने पर भी,
[अनियतगुणपर्यायः अथ परसमयः] यदि अनियत गुणपर्यायवाला हो तो परसमय है। [यदि] यदि
वह [स्वकं समयं कुरुते] [नियत गुणपर्यायसे परिणमित होकर] स्वसमयको करता है तो
[कर्मबन्धात्] कर्मबन्धसे [प्रभ्रस्यति] छूटता है।
-------------------------------------------------------------------------
निजभावनियत अनियतगुणपर्ययपणे परसमय छे;
ते जो करे स्वकसमयने तो कर्मबंधनथी छूटे। १५५।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२२५
स्वसमयपरसमयोपादानव्युदासपुरस्सरकर्मक्षयद्वारेण जीवस्वभावनियतचरितस्य मोक्ष–
मार्गत्वद्योतनमेतत्।

संसारिणो हि जीवस्य ज्ञानदर्शनावस्थितत्वात् स्वभावनियतस्याप्यनादिमोहनीयो–
दयानुवृत्तिपरत्वेनोपरक्तोपयोगस्य सतः समुपात्तभाववैश्वरुप्यत्वादनियतगुणपर्यायत्वं परसमयः
परचरितमिति यावत्। तस्यैवानादिमोहनीयोदयानुवृत्तिपरत्वमपास्यात्यन्तशुद्धोपयोगस्य सतः
समुपात्तभावैक्यरुप्यत्वान्नियतगुणपर्यायत्वं स्वसमयः स्वचरितमिति यावत् अथ खलु यदि
कथञ्चनोद्भिन्नसम्यग्ज्ञानज्योतिर्जीवः परसमयं व्युदस्य स्वसमयमुपादत्ते तदा कर्मबन्धादवश्यं भ्रश्यति।
यतो हि जीवस्वभावनियतं चरितं मोक्षमार्ग इति।। १५५।।
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– स्वसमयके ग्रहण और परसमयके त्यागपूर्वक कर्मक्षय होता है– ऐसे प्रतिपादन द्वारा
यहाँ [इस गाथामें] ‘जीवस्वभावमें नियत चारित्र वह मोक्षमार्ग है’ ऐसा दर्शाया है।
संसारी जीव, [द्रव्य–अपेक्षासे] ज्ञानदर्शनमें अवस्थित होनेके कारण स्वभावमें नियत
[–निश्चलरूपसे स्थित] होने पर भी जब अनादि मोहनीयके उदयका अनुसरण करके परिणति करने
के कारण उपरक्त उपयोगवाला [–अशुद्ध उपयोगवाला] होता है तब [स्वयं] भावोंका विश्वरूपपना
[–अनेकरूपपना] ग्रहण किया होनकेे कारण उसेे जो अनियतगुणपर्यायपना होता है वह परसमय
अर्थात् परचारित्र है; वही [जीव] जब अनादि मोहनीयके उदयका अनुसरण करने वाली परिणति
करना छोड़कर अत्यन्त शुद्ध उपयोगवाला होता है तब [स्वयं] भावका एकरूपपना ग्रहण किया
होनेके कारण उसे जो नियतगुणपर्यायपना होता है वह स्वसमय अर्थात् स्वचारित्र है।
अब, वास्तवमें यदि किसी भी प्रकार सम्यग्ज्ञानज्योति प्रगट करके जीव परसमयको छोड़कर
स्वसमयको ग्रहण करता है तो कर्मबन्धसे अवश्य छूटता है; इसलिये वास्तवमें [ऐसा निश्चित होता
है कि] जीवस्वभावमें नियत चारित्र वह मोक्षमार्ग है।। १५५।।
-------------------------------------------------------------------------
१। उपरक्त=उपरागयुक्त [किसी पदार्थमें होनेवाला। अन्य उपाधिके अनुरूप विकार [अर्थात् अन्य उपाधि जिसमें
निमित्तभूत होती है ऐसी औपाधिक विकृति–मलिनता–अशुद्धि] वह उपराग है।]

२। अनियत=अनिश्चित; अनेकरूप; विविध प्रकारके।

३। नियत=निश्चित; एकरूप; अमुक एक ही प्रकारके।

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२२६
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
जो परदव्वम्हि सुहं असुहं रागेण कुणदि जदि भावं।
सो सगचरित्तभट्ठो
परचरियचरो हवदि जीवो।। १५६।।
यः परद्रव्ये शुभमशुभं रागेण करोति यदि भावम्।
स स्वकचरित्रभ्रष्टः परचरितचरो भवति जीवः।। १५६।।
परचरितप्रवृत्तस्वरूपाख्यानमेतत्।
यो हि मोहनीयोदयानुवृत्तिवशाद्रज्यमानोपयोगः सन् परद्रव्ये शुभमशुभं वा भावमादधाति, स
स्वकचरित्रभ्रष्टः परचरित्रचर इत्युपगीयते; यतो हि स्वद्रव्ये शुद्धोपयोगवृत्तिः स्वचरितं, परद्रव्ये
सोपरागोपयोगवृत्तिः परचरितमिति।। १५६।।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा १५६
अन्वयार्थः– [यः] जो [रागेण] रागसे [–रंजित अर्थात् मलिन उपयोगसे] [परद्रव्ये]
परद्रव्यमें [शुभम् अशुभम् भावम्] शुभ या अशुभ भाव [यदि करोति] करता है, [सः जीवः] वह
जीव [स्वकचरित्रभ्रष्टः] स्वचारित्रभ्रष्ट ऐसा [परचरितचरः भवति] परचारित्रका आचरण करनेवाला
है
टीकाः– यह, परचारित्रमें प्रवर्तन करनेवालेके स्वरूपका कथन है।
जो [जीव] वास्तवमें मोहनीयके उदयका अनुसरण करनेवालीे परिणतिके वश [अर्थात्
मोहनीयके उदयका अनुसरण करके परिणमित होनेके कारण ] रंजित–उपयोगवाला
[उपरक्तउपयोगवाला] वर्तता हुआ, परद्रव्यमें शुभ या अशुभ भावको धारण करता है, वह [जीव]
स्वचारित्रसे भ्रष्ट ऐसा परचारित्रका आचरण करनेवाला कहा जाता है; क्योंकि वास्तवमें स्वद्रव्यमें
ंशुद्ध–उपयोगरूप परिणति वह स्वचारित्र है और परद्रव्यमें सोपराग–उपयोगरूप परिणति वह
परचारित्र है।। १५६।।
-------------------------------------------------------------------------
१। सोपराग=उपरागयुक्त; उपरक्त; मलिन; विकारी; अशुद्ध [उपयोगमें होनेवाला, कर्मोदयरूप उपाधिके अनुरूप
विकार (अर्थात् कर्मोदयरूप उपाधि जिसमें निमित्तभूत होती है ऐसी औपाधिक विकृति) वह उपराग है।]

जे रागथी परद्रव्यमां करतो शुभाशुभ भावने,
ते स्वकचरित्रथी भ्रष्ट परचारित्र आचरनार छे। १५६।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२२७
आसवदि जेण पुण्णं पावं वा अप्पणोध भावेण।
सो तेण परचरित्तो हवदि त्ति जिणा परुवेंति।। १५७।।
आस्रवति येन पुण्यं पापं वात्मनोऽथ भावेन।
स तेन परचरित्रः भवतीति जिनाः प्ररूपयन्ति।। १५्र७।।
परचरितप्रवृत्तेर्बन्धहेतुत्वेन मोक्षमार्गत्वनिषेधनमेतत्।
इह किल शुभोपरक्तो भावः पुण्यास्रवः, अशुभोपरक्तः पापास्रव इति। तत्र पुण्यं पापं वा येन
भावेनास्रवति यस्य जीवस्य यदि स भावो भवति स जीवस्तदा तेन परचरित इति प्ररुप्यते। ततः
परचरितप्रवृत्तिर्बन्धमार्ग एव, न मोक्षमार्ग इति।। १५७।।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा १५७
अन्वयार्थः– [येन भावेन] जिस भावसे [आत्मनः] आत्माको [पुण्यं पापं वा] पुण्य अथवा पाप
[अथ आस्रवति] आस्रवित होते हैं, [तेन] उस भाव द्वारा [सः] वह [जीव] [परचरित्रः भवति]
परचारित्र है–[इति] ऐसा [जिनाः] जिन [प्ररूपयन्ति] प्ररूपित करते हैं।
टीकाः– यहाँ, परचारित्रप्रवृति बंधहेतुभूत होनेसे उसे मोक्षमार्गपनेका निषेध किया गया है
[अर्थात् परचारित्रमें प्रवर्तन बंधका हेतु होनेसे वह मोक्षमार्ग नहीं है ऐसा इस गाथामें दर्शाया है]।
यहाँ वास्तवमें शुभोपरक्त भाव [–शुभरूप विकारी भाव] वह पुण्यास्रव है और अशुभोपरक्त
भाव [–अशुभरूप विकारी भाव] पापास्रव है। वहाँ, पुण्य अथवा पाप जिस भावसे आस्रवित होते हैं,
वह भाव जब जिस जीवको हो तब वह जीव उस भाव द्वारा परचारित्र है– ऐसा [जिनेंद्रों द्वारा]
प्ररूपित किया जाता है। इसलिये [ऐसा निश्चित होता है कि] परचारित्रमें प्रवृत्ति सो बंधमार्ग ही
है, मोक्षमार्ग नहीं है।। १५७।।
-------------------------------------------------------------------------
रे! पुण्य अथवा पाप जीवने आस्रवे जे भावथी,
तेना वडे ते ‘परचरित’ निर्दिष्ट छे जिनदेवथी। १५७।

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२२८
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
जो सव्वसंगमुक्को णण्णमणो अप्पणं सहावेण।
जाणदि पस्सदि णियदं सो सगचरियं चरदि जीवो।। १५८।।
यः सर्वसङ्गमुक्तः अनन्यमनाः आत्मानं स्वभावेन।
जानाति पश्यति नियतं सः स्वकचरितं चरित जीवः।। १५८।।
स्वचरितप्रवृत्तस्वरूपाख्यानमेतत्।
यः खलु निरुपरागोपयोगत्वात्सर्वसङ्गमुक्तः परद्रव्यव्यावृत्तोपयोगत्वादनन्यमनाः आत्मानं
स्वभावेन ज्ञानदर्शनरूपेण जानाति पश्यति नियतमवस्थितत्वेन, स खलु स्वकं चरितं चरति जीवः।
यतो हि द्रशिज्ञप्तिस्वरूपे पुरुषे तन्मात्रत्वेन वर्तनं स्वचरितमिति।। १५८।।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा १५८
अन्वयार्थः– [यः] जो [सर्वसङ्गमुक्तः] सर्वसंगमुक्त और [अनन्यमनाः] अनन्यमनवाला वर्तता
हुआ [आत्मानं] आत्माको [स्वभावेन] [ज्ञानदर्शनरूप] स्वभाव द्वारा [नियतं] नियतरूपसे [–
स्थिरतापूर्वक] [जानाति पश्यति] जानता–देखता है, [सः जीवः] वह जीव [स्वकचरितं]
स्वचारित्र [चरित] आचरता है।
टीकाः– यह, स्वचारित्रमें प्रवर्तन करनेवालेके स्वरूपका कथन है।
-------------------------------------------------------------------------
२। आवृत्त=विमुख हुआ; पृथक हुआ; निवृत्त हुआ ; निवृत्त; भिन्न।
जो [जीव] वास्तवमें निरुपराग उपयोगवाला होनेके कारण सर्वसंगमुक्त वर्तता हुआ,
परद्रव्यसे व्यावृत्त उपयोगवाला होनेके कारण अनन्यमनवाला वर्तता हुआ, आत्माको ज्ञानदर्शनरूप
१। निरुपराग=उपराग रहित; निर्मळ; अविकारी; शुद्ध [निरुपराग उपयोगवाला जीव समस्त बाह्य–अभ्यंतर संगसे
शून्य है तथापि निःसंग परमात्माकी भावना द्वारा उत्पन्न सुन्दर आनन्दस्यन्दी परमानन्दस्वरूप सुखसुधारसके
आस्वादसे, पूर्ण–कलशकी भाँति, सर्व आत्मप्रदेशमें भरपूर होता है।]

३। अनन्यमनवाला=जिसकी परिणति अन्य प्रति नहीं जाती ऐसा। [मन=चित्त; परिणति; भाव]

सौ–संगमुक्त अनन्यचित्त स्वभावथी निज आत्मने
जाणे अने देखे नियत रही, ते स्वचरितप्रवृत्त छे। १५८।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२२९
चरियं चरदि संग सो जो परदव्वप्पभावरहिदप्पा।
दंसणणाणवियप्पं अवियप्पं चरदि अप्पादो।। १५९।।
चरितं चरति स्वकं स यः परद्रव्यात्मभावरहितात्मा।
दर्शनज्ञानविकल्पमविकल्पं चरत्यात्मनः।। १५९।।
-----------------------------------------------------------------------------
स्वभाव द्वारा नियतरूपसे अर्थात् अवस्थितरूपससे जानता–देखता है, वह जीव वास्तवमें स्वचारित्र
आचरता है; क्योंकि वास्तवमें दृशिज्ञप्तिस्वरूप पुरुषमें [आत्मामें] तन्मात्ररूपसे वर्तना सो स्वचारित्र
है।
भावार्थः– जो जीव शुद्धोपयोगी वर्तता हुआ और जिसकी परिणति परकी ओर नहीं जाती ऐसा
वर्तता हुआ, आत्माको स्वभावभूत ज्ञानदर्शनपरिणाम द्बारा स्थिरतापूर्वक जानता–देखता है, वह जीव
स्वचारित्रका आचरण करनेवाला है; क्योंकि दृशिज्ञप्तिस्वरूप आत्मामें मात्र दृशिज्ञप्तिरूपसे परिणमित
होकर रहना वह स्वचारित्र है।। १५८।।
गाथा १५९
अन्वयार्थः– [यः] जो [परद्रव्यात्मभावरहितात्मा] परद्रव्यात्मक भावोंसे रहित स्वरूपवाला
वर्तता हुआ, [दर्शनज्ञानविकल्पम्] [निजस्वभावभूत] दर्शनज्ञानरूप भेदको [आत्मनः अविकल्पं]
आत्मासे अभेरूप [चरति] आचरता है, [सः] वह [स्वकं चरितं चरति] स्वचारित्रको आचरता है।
टीकाः– यह, शुद्ध स्वचारित्रप्रवृत्तिके मार्गका कथन है।
-------------------------------------------------------------------------
१। दृशि= दर्शन क्रिया; सामान्य अवलोकन।
ते छे स्वचरितप्रवृत्त, जे परद्रव्यथी विरहितपणे
निज ज्ञानदर्शनभेदने जीवथी अभिन्न ज आचरे। १५९।

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२३०
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
शुद्धस्वचरितप्रवृत्तिपथप्रतिपादनमेतत्।
३। जिस नयमें साध्य और साधन अभिन्न [अर्थात् एक प्रकारके] हों वह यहाँ निश्चयनय हैे। जैसे कि,
निर्विकल्पध्यानपरिणत [–शुद्धाद्नश्रद्धानज्ञानचारित्रपरिणत] मुनिको निश्चयनयसे मोक्षमार्ग है क्योंकि वहाँ
[मोक्षरूप] साध्य और [मोक्षमार्गरूप] साधन एक प्रकारके अर्थात् शुद्धात्मरूप [–शुद्धात्मपर्यायरूप] हैं।
यो हि योगीन्द्रः समस्तमोहव्यूहबहिर्भूतत्वात्परद्रव्यस्वभावभावरहितात्मा सन्, स्वद्रव्य–
मेकमेवाभिमुख्येनानुवर्तमानः स्वस्वभावभूतं दर्शनज्ञानविकल्पमप्यात्मनोऽविकल्पत्वेन चरति, स खलु
स्वकं चरितं चरति। एवं हि शुद्धद्रव्याश्रितमभिन्नसाध्य–
-----------------------------------------------------------------------------
जो योगीन्द्र, समस्त मोहव्यूहसे बहिर्भूत होनेके कारण परद्रव्यके स्वभावरूप भावोंसे रहित
स्वरूपवाले वर्तते हुए, स्वद्रव्यको एकको ही अभिमुखतासे अनुसरते हुए निजस्वभावभूत
दर्शनज्ञानभेदको भी आत्मासे अभेदरूपसे आचरते हैं, वे वास्तवमें स्वचारित्रको आचरते हैं।
इस प्रकार वास्तवमें शुद्धद्रव्यके आश्रित, अभिन्नसाध्यसाधनभाववाले निश्चयनयके आश्रयसे
मोक्षमार्गका प्ररूपण किया गया। और जो पहले [१०७ वीं गाथामें] दर्शाया गया था वह स्वपरहेतुक
-------------------------------------------------------------------------
१। मोहव्यूह=मोहसमूह। [जिन मुनींद्रने समस्त मोहसमूहका नाश किया होनेसे ‘अपना स्वरूप परद्रव्यके
स्वभावरूप भावोंसे रहित है’ ऐसी प्रतीति और ज्ञान जिन्हें वर्तता है, तथा तदुपरान्त जो केवल स्वद्रव्यमें ही
निर्विकल्परूपसे अत्यन्त लीन होकर निजस्वभावभूत दर्शनज्ञानभेदोंको आत्मासे अभेदरूपसे आचरते हैं, वे मुनींद्र
स्वचारित्रका आचरण करनेवाले हैं।]

२। यहाँ निश्चयनयका विषय शुद्धद्रव्य अर्थात् शुद्धपर्यायपरिणत द्रव्य है, अर्थात् अकले द्रव्यकी [–परनिमित्त
रहित] शुद्धपर्याय हैे; जैसे कि निर्विकल्प शुद्धपर्यायपरिणत मुनिको निश्चयनयसे मोक्षमार्ग है।

४। जिन पर्यायोंमें स्व तथा पर कारण होते हैं अर्थात् उपादानकारण तथा निमित्तकारण होते हैं वे पर्यायें
स्वपरहेतुक पर्यायें हैं; जैसे कि छठवें गुणस्थानमें [द्रव्यार्थिकनयके विषयभूत शुद्धात्मस्वरूपके आंशिक
अवलम्बन सहित] वर्तते हुए तत्त्वार्थश्रद्धान [नवपदार्थगत श्रद्धान], तत्त्वार्थज्ञान [नवपदार्थगत ज्ञान] और
पंचमहाव्रतादिरूप चारित्र–यह सब स्वपरहेतुक पर्यायें हैं। वे यहा व्यवहारनयके विषयभूत हैं।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२३१
साधनभावं निश्चयनयमाश्रित्य मोक्षमार्गप्ररूपणम्। यत्तु पूर्वमुद्रिष्टं तत्स्वपरप्रत्ययपर्यायाश्रितं
भिन्नसाध्यसाधनभावं व्यवहारनयमाश्रित्य प्ररुपितम्। न चैतद्विप्रतिषिद्धं निश्चयव्यवहारयोः साध्य–
साधनभावत्वात्सुवर्णसुवर्णपाषाणवत्। अत एवोभयनयायत्ता पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तनेति।। १५९।।
-----------------------------------------------------------------------------
पर्यायके आश्रित, भिन्नसाध्यसाधनभाववाले व्यवहारनयके आश्रयसे [–व्यवहारनयकी अपेक्षासे]
प्ररूपित किया गया था। इसमें परस्पर विरोध आता है ऐसा भी नहीं है, क्योंकि सुर्वण और
सुर्वणपाषाणकी भाँति निश्चय–व्यवहारको साध्य–साधनपना है; इसलिये पारमेश्वरी [–
जिनभगवानकी] तीर्थप्रवर्तना दोनों नयोंके आधीन है।। १५९।।
-------------------------------------------------------------------------
१। जिस नयमें साध्य तथा साधन भिन्न हों [–भिन्न प्ररूपित किये जाएँ] वह यहाँ व्यवहारनय है; जैसे कि,
छठवें गुणस्थानमें [द्रव्यार्थिकनयके विषयभूत शुद्धात्मस्वरूपके आंशिक आलम्बन सहित] वर्तते हुए
तत्त्वार्थश्रद्धान [नवपदार्थसम्बन्धी श्रद्धान], तत्त्वार्थज्ञान और पंचमहाव्रतादिरूप चारित्र व्यवहारनयसे मोक्षमार्ग है
क्योंकि [मोक्षरूप] साध्य स्वहेतुक पर्याय है और [तत्त्वार्थश्रद्धानादिमय मोक्षमार्गरूप] साधन स्वपरहेतुक
पर्याय है।
२। जिस पाषाणमें सुवर्ण हो उसे सुवर्णपाषाण कहा जाता है। जिस प्रकार व्यवहारनयसे सुवर्णपाषाण सुवर्णका
साधन है, उसी प्रकार व्यवहारनयसे व्यवहारमोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्गका साधन है; अर्थात् व्यवहारनयसे
भावलिंगी मुनिको सविकल्प दशामें वर्तते हुए तत्त्वार्थश्रद्धान, तत्त्वार्थज्ञान और महाव्रतादिरूप चारित्र निर्विकल्प
दशामें वर्तते हुए शुद्धात्मश्रद्धानज्ञानानुष्ठाननके साधन हैं।
३। तीर्थ=मार्ग [अर्थात् मोक्षमार्ग]; उपाय [अर्थात् मोक्षका उपाय]; उपदेश; शासन।
४। जिनभगवानके उपदेशमें दो नयों द्वारा निरूपण होता है। वहाँ, निश्चयनय द्वारा तो सत्यार्थ निरूपण किया
जाता हैे और व्यवहारनय द्वारा अभूतार्थ उपचरित निरूपण किया जाता है।

प्रश्नः–
सत्यार्थ निरूपण ही करना चाहिये; अभूतार्थ उपचरित निरूपण किसलिये किया जाता है?

उत्तरः–
जिसे सिंहका यथार्थ स्वरूप सीधा समझमें न आता हो उसे सिंहके स्वरूपके उपचरित निरूपण
द्वारा अर्थात् बिल्लीके स्वरूपके निरूपण द्वारा सिंहके यथार्थ स्वरूपकी समझ की ओर ले जाते हैं, उसी
प्रकार जिसे वस्तुका यथार्थ स्वरूप सीधा समझमें न आता हो उसे वस्तुस्वरूपके उपचरित निरूपण द्वारा
वस्तुस्वरूपकी यथार्थ समझ की ओर ले जाते हैं। और लम्बे कथनके बदलेमें संक्षिप्त कथन करनेके लिए भी
व्यवहारनय द्वारा उपचरित निरूपण किया जाता है। यहाँ इतना लक्षमें रखनेयोग्य है कि – जो पुरुष
बिल्लीके निरूपणको ही सिंहका निरूपण मानकर बिल्लीको ही सिंह समझ ले वह तो उपदेशके ही योग्य
नहीं है, उसी प्रकार जो पुरुष उपचरित निरूपणको ही सत्यार्थ निरूपण मानकर वस्तुस्वरूपको मिथ्या
रीतिसे समझ बैठेे वह तो उपदेशके ही योग्य नहीं है।