Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 160-172.

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२३२
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
धम्मादीसद्दहणं सम्मत्तं णाणमंगपुव्वगदं।
चेट्ठा तवम्हि चरिया ववहारो मोक्खमग्गो त्ति।। १६०।।
टीकाः– निश्चयमोक्षमार्गके साधनरूपसे, पूर्वोद्ष्टि [१०७ वीं गाथामें उल्लिखित]
व्यवहारमोक्षमार्गका यह निर्देश है।
धर्मादिश्रद्धानं सम्यक्त्वं ज्ञानमङ्गपूर्वगतम्।
चेष्टा तपसि चर्या व्यवहारो मोक्षमार्ग इति।। १६०।।
निश्चयमोक्षमार्गसाधनभावेन पूर्वोद्दिष्टव्यवहारमोक्षमार्गनिर्देशोऽयम्।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा १६०
अन्वयार्थः– [धर्मादिश्रद्धानं सम्यक्त्वम्] धर्मास्तिकायादिका श्रद्धान सो सम्यक्त्व [अङ्गपूर्वगतम्
ज्ञानम्] अंगपूर्वसम्बन्धी ज्ञान सो ज्ञान और [तपसि चेष्टा चर्या] तपमें चेष्टा [–प्रवृत्ति] सोे चारित्र;
[इति] इस प्रकार [व्यवहारः मोक्षमार्गः] व्यवहारमोक्षमार्ग है।
-------------------------------------------------------------------------
[यहाँ एक उदाहरण लिया जाता हैः–
साध्य–साधन सम्बन्धी सत्यार्थ निरूपण इस प्रकार है कि ‘छठवें गुणस्थानमें वर्तती हुई आंशिक शुद्धि
सातवें गुणस्थानयोग्य निर्विकल्प शुद्ध परिणतिका साधन है।’ अब, ‘छठवें गुणस्थानमें कैसी अथवा कितनी
शुद्धि होती हैे’– इस बातको भी साथ ही साथ समझना हो तो विस्तारसे एैसा निरूपण किया जाता है कि
‘जिस शुद्धिके सद्भावमें, उसके साथ–साथ महाव्रतादिके शुभविकल्प हठ विना सहजरूपसे प्रवर्तमान हो वह
छठवें गुणस्थानयोग्य शुद्धि सातवें गुणस्थानयोग्य निर्विकल्प शुद्ध परिणतिका साधन है।’ ऐसे लम्बे कथनके
बदले, ऐसा कहा जाए कि ‘छठवें गुणस्थानमें प्रवर्तमान महाव्रतादिके शुभ विकल्प सातवें गुणस्थानयोग्य
निर्विकल्प शुद्ध परिणतिका साधन है,’ तो वह उपचरित निरूपण है। ऐसे उपचरित निरूपणमेंसे ऐसा अर्थ
निकालना चाहिये कि ‘महाव्रतादिके शुभ विकल्प नहीं किन्तु उनके द्वारा जिस छठवें गुणस्थानयोग्य शुद्धि
बताना था वह शूद्धि वास्तवमें सातवें गुणस्थानयोग्य निर्विकल्प शुद्ध परिणतिका साधन है।’]
धर्मादिनी श्रद्धा सुद्रग, पूर्वांगबोध सुबोध छे,
तपमांहि चेष्टा चरण–एक व्यवहारमुक्तिमार्ग छे। १६०।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२३३
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। तत्र धर्मादीनां द्रव्यपदार्थविकल्पवतां तत्त्वार्थ–
श्रद्धानभावस्वभावं भावन्तरं श्रद्धानाख्यं सम्यक्त्वं, तत्त्वार्थश्रद्धाननिर्वृतौ सत्यामङ्गपूर्वगतार्थपरि–
च्छित्तिर्ज्ञानम्, आचारादिसूत्रप्रपञ्चितविचित्रयतिवृत्तसमस्तसमुदयरूपे तपसि चेष्टा चर्या–इत्येषः
स्वपरप्रत्ययपर्यायाश्रितं भिन्नसाध्यसाधनभावं व्यवहारनयमाश्रित्यानुगम्यमानो मोक्षमार्गः कार्त–
स्वरपाषाणार्पितदीप्तजातवेदोवत्समाहितान्तरङ्गस्य प्रतिपदमुपरितनशुद्धभूमिकासु परमरम्यासु
विश्रान्तिमभिन्नां निष्पादयन्, जात्यकार्तस्वरस्येव शुद्धजीवस्य कथंचिद्भिन्नसाध्यसाधनभावाभावा–
त्स्वयं शुद्धस्वभावेन विपरिणममानस्यापि, निश्चयमोक्षमार्गस्य साधनभावमापद्यत इति।। १६०।।
-----------------------------------------------------------------------------
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र सो मोक्षमार्ग है। वहाँ [छह] द्रव्यरूप और [नव] पदार्थरूप जिनके
भेद हैं ऐसे धर्मादिके तत्त्वार्थश्रद्धानरूप भाव [–धर्मास्तिकायादिकी तत्त्वार्थप्रतीतिरूप भाव] जिसका
स्वभाव है ऐसा, ‘श्रद्धान’ नामका भावविशेष सो सम्यक्त्व; तत्त्वार्थश्रद्धानके सद्भावमें अंगपूर्वगत
पदार्थोंंका अवबोधन [–जानना] सो ज्ञान; आचारादि सूत्रों द्वारा कहे गए अनेकविध मुनि–आचारोंके
समस्त समुदायरूप तपमें चेष्टा [–प्रवर्तन] सो चारित्र; – ऐसा यह, स्वपरहेतुक पर्यायके आश्रित,
भिन्नसाध्यसाधनभाववाले व्यवहारनयके आश्रयसे [–व्यवहारनयकी अपेक्षासे] अनुसरण किया
जानेवाला मोक्षमार्ग, सुवर्णपाषाणको लगाई जानेवाली प्रदीप्त अग्निकी भाँति समाहित अंतरंगवाले
जीवको [अर्थात्] जिसका अंतरंग एकाग्र–समाधिप्राप्त है ऐसे जीवको] पद–पद पर परम रम्य
ऐसी उपरकी शुद्ध भूमिकाओंमें अभिन्न विश्रांति [–अभेदरूप स्थिरता] उत्पन्न करता हुआ – यद्यपि
उत्तम सुवर्णकी भाँति शुद्ध जीव कथंचित् भिन्नसाध्यसाधनभावके अभावके कारण स्वयं [अपने आप]
शुद्ध स्वभावसे परिणमित होता है तथापि–निश्चयमोक्षमार्गके साधनपनेको प्राप्त होता है।
भावार्थः–िजसे अंतरंगमें शुद्धिका अंश परिणमित हुआ है उस जीवको तत्त्वार्थ–श्रद्धान,
अंगपूर्वगत ज्ञान और मुनि–आचारमें प्रवर्तनरूप व्यवहारमोक्षमार्ग विशेष–विशेष शुद्धिका
-------------------------------------------------------------------------
१। समाहित=एकाग्र; एकताकोे प्राप्त; अभेदताको प्राप्त; छिन्नभिन्नता रहित; समाधिप्राप्त; शुद्ध; प्रशांत।
२। इस गाथाकी श्री जयसेनाचार्यदेवकृत टीकामें पंचमगुणस्थानवर्ती गृहस्थको भी व्यवहारमोक्षमार्ग कहा है। वहाँ
व्यवहारमोक्षमार्गके स्वरूपका निम्नानुसार वर्णन किया हैः– ‘वीतरागसर्वज्ञप्रणीत जीवादिपदार्थो सम्बन्धी सम्यक्
श्रद्धान तथा ज्ञान दोनों, गृहस्थको और तपोधनको समान होते हैं; चारित्र, तपोधनोंको आचारादि चरणग्रंथोंमें
विहित किये हुए मार्गानुसार प्रमत्त–अप्रमत्त गुणस्थानयोग्य पंचमहाव्रत–पंचसमिति–त्रिगुप्ति–षडावश्यकादिरूप
होता है और गृहस्थोंको उपासकाध्ययनग्रंथमें विहित किये हुए मार्गके अनुसार पंचमगुणस्थानयोग्य दान–शील–
पूवजा–उपवासादिरूप अथवा दार्शनिक–व्रतिकादि ग्यारह स्थानरूप [ग्यारह प्रतिमारूप] होता है; इस प्रकार
व्यवहारमोक्षमार्गका लक्षण है।

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२३४
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
णिच्छयणएण भणिदो तिहि तेहिं समाहिदो हु जो अप्पा।
ण कुणदि किंचि वि अण्णं ण मुयदि सो मोक्खमग्गो त्ति।। १६१।।
निश्चयनयेन भणितस्त्रिभिस्तैः समाहितः खलु यः आत्मा।
न करोति किंचिदप्यन्यन्न मुञ्चति स मोक्षमार्ग इति।। १६१।।
व्यवहारमोक्षमार्गसाध्यभावेन निश्चयमोक्षमार्गोपन्यासोऽयम्।
-----------------------------------------------------------------------------
व्यवहारसाधन बनता हुआ, यद्यपि निर्विकल्पशुद्धभावपरिणत जीवको परमार्थसे तो उत्तम सुवर्णकी
भाँति अभिन्नसाध्यसाधनभावके कारण स्वयमेव शुद्धभावरूप परिणमन होता है तथापि, व्यवहारनयसे
निश्चयमोक्षमार्गके साधनपनेको प्राप्त होता है।
[अज्ञानी द्रव्यलिंगी मुनिका अंतरंग लेशमात्र भी समाहित नहीं होनेसे अर्थात्
उसे[द्रव्यार्थिकनयके विषयभूत शुद्धात्मस्वरूपके अज्ञानके कारण] शुद्धिका अंश भी परिणमित नहीं
होनेसे उसे व्यवहारमोक्षमार्ग भी नहीं है।।] १६०।।
गाथा १६१
अन्वयार्थः– [यः आत्मा] जो आत्मा [तैः त्रिभिः खलु समाहितः] इन तीन द्वारा वास्तवमें
समाहित होता हुआ [अर्थात् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र द्वारा वास्तवमें एकाग्र–अभेद होता हुआ]
[अन्यत् किंचित् अपि] अन्य कुछ भी [न करोति न मुञ्चति] करता नहीं है या छोड़ता नहीं है,
[सः] वह [निश्चयनयेन] निश्चयनयसे [मोक्षमार्गः इति भणितः] ‘मोक्षमार्ग’ कहा गया है।

टीकाः– व्यवहारमोक्षमार्गके साध्यरूपसे, निश्चयमोक्षमार्गका यह कथन है।
-------------------------------------------------------------------------
जे जीव दर्शनज्ञानचरण वडे समाहित होईने,
छोडे–ग्रहे नहि अन्य कंईपण, निश्चये शिवमार्ग छे। १६१।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२३५
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रसमाहित आत्मैव जीवस्वभावनियतचरित्रत्वान्निश्चयेन मोक्षमार्गः। अथ
खलु कथञ्चनानाद्यविद्याव्यपगमाद्वयवहारमोक्षमार्गमनुप्रपन्नो धर्मादितत्त्वार्थाश्रद्धानाङ्गपूर्व–
गतार्थाज्ञानातपश्चेष्टानां धर्मादितत्त्वार्थश्रद्धानाङ्गपूर्वगतार्थज्ञानतपश्चेष्टानाञ्च त्यागोपादानाय प्रारब्ध–
विविक्तभावव्यापारः, कुतश्चिदुपादेयत्यागे त्याज्योपादाने च पुनः प्रवर्तितप्रतिविधानाभिप्रायो,
यस्मिन्यावति काले विशिष्टभावनासौष्ठववशात्सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैः स्वभावभूतैः सममङ्गाङ्गिभाव–
परिणत्या
-----------------------------------------------------------------------------
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र द्वारा समाहित हुआ आत्मा ही जीवस्वभावमें नियत चारित्ररूप होने
के कारण निश्चयसे मोक्षमार्ग है।
अब [विस्तार ऐसा है कि], यह आत्मा वास्तवमें कथंचित् [–किसी प्रकारसे, निज उद्यमसे]
अनादि अविद्याके नाश द्वारा व्यवहारमोक्षमार्गको प्राप्त होता हुआ, धर्मादिसम्बन्धी तत्त्वार्थ–
अश्रद्धानके, अंगपूर्वगत पदार्थोंसम्बन्धी अज्ञानके और अतपमें चेष्टाके त्याग हेतुसे तथा धर्मादिसम्बन्धी
तत्त्वार्थ–श्रद्धानके, अंगपूर्वगत पदार्थोंसम्बन्धी ज्ञानके और तपमें चेष्टाके ग्रहण हेतुसे [–तीनोंके त्याग
हेतु तथा तीनोंके ग्रहण हेतुसे] विविक्त भावरूप व्यापार करता हुआ, और किसी कारणसे ग्राह्यका
त्याग हो जानेपर और त्याज्यका ग्रहण हो जानेपर उसके प्रतिविधानका अभिप्राय करता हुआ, जिस
काल और जितने काल तक विशिष्ट भावनासौष्ठवके कारण स्वभावभूत सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रके
साथ अंग–अंगीभावसे परिणति द्वारा
२। प्रतिविधान = प्रतिकार करनेकी विधि; प्रतिकारका उपाय; इलाज।
३। विशिष्ट भावनासौष्ठव = विशेष अच्छी भावना [अर्थात् विशिष्टशुद्ध भावना]; विशिष्ट प्रकारकी उत्तम भावना।
४। आत्मा वह अंगी और स्वभावभूत सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र वह अंग।
-------------------------------------------------------------------------
१। विविक्त = विवेकसे पृथक किए हुए [अर्थात् हेय और उपादेयका विवेक करके व्यवहारसे उपादेय रूप जाने
हुए]। [जिसने अनादि अज्ञानका नाश करके शुद्धिका अंश प्रगट किया है ऐसे व्यवहार–मोक्षमार्गी
[सविकल्प] जीवको निःशंकता–निःकांक्षा–निर्विचिकित्सादि भावरूप, स्वाध्याय–विनयादि भावरूप और
निरतिचार व्रतादि भावरूप व्यापार भूमिकानुसार होते हैं तथा किसी कारण उपादेय भावोंका [–व्यवहारसे
ग्राह्य भावोंका] त्याग हो जाने पर और त्याज्य भावोंका उपादान अर्थात् ग्रहण हो जाने पर उसके
प्रतिकाररूपसे प्रायश्चित्तादि विधान भी होता है।]

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२३६
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
तत्समाहितो भूत्वा त्यागोपादानविकल्पशून्यत्वाद्विश्रान्तभावव्यापारः सुनिःप्रकम्पः अयमात्माव–तिष्ठते,
तस्मिन् तावति काले अयमेवात्मा जीवस्वभावनियतचरितत्वान्निश्चयेन मोक्षमार्ग इत्युच्यते। अतो
निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गयोः साध्यसाधनभावो नितरामुपपन्न।। १६१।।
-----------------------------------------------------------------------------
उनसे समाहित होकर, त्यागग्रहणके विकल्पसे शून्यपनेके कारण [भेदात्मक] भावरूप व्यापार
विराम प्राप्त होनेसे [अर्थात् भेदभावरूप–खंडभावरूप व्यापार रुक जानेसे] सुनिष्कम्परूपसे रहता है,
उस काल और उतने काल तक यही आत्मा जीवस्वभावमें नियत चारित्ररूप होनेके कारण निश्चयसे
‘मोक्षमार्ग’ कहलाता है। इसलिये, निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्गको साध्य–साधनपना अत्यन्त
घटता है।
भावार्थः– निश्चयमोक्षमार्ग निज शुद्धात्माकी रुचि, ज्ञप्ति और निश्चळ अनुभूतिरूप है। उसका
साधक [अर्थात् निश्चयमोक्षमार्गका व्यवहार–साधन] ऐसा जो भेदरत्नत्रयात्मक व्यवहारमोक्षमार्ग उसे
जीव कथंचित् [–किसी प्रकार, निज उद्यमसे] अपने संवेदनमें आनेवाली अविद्याकी वासनाके विलय
द्वारा प्राप्त होता हुआ, जब गुणस्थानरूप सोपानके क्रमानुसार निजशुद्धात्मद्रव्यकी भावनासे उत्पन्न
नित्यानन्दलक्षणवाले सुखामृतके रसास्वादकी तृप्तिरूप परम कलाके अनुभवके कारण निजशुद्धात्माश्रित
निश्चयदर्शनज्ञानचारित्ररूपसे अभेदरूप परिणमित होता है, तब निश्चयनयसे भिन्न साध्य–साधनके
अभावके कारण यह आत्मा ही मोक्षमार्ग है। इसलिये ऐसा सिद्ध हुआ कि सुवर्ण और सुवर्णपाषाणकी
भाँति निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्गको साध्य–साधकपना [व्यवहारनयसे] अत्यन्त घटित होता
है।। १६१।।
-------------------------------------------------------------------------
१। उनसे = स्वभावभूत सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रसे।

२। यहाँ यह ध्यानमें रखनेयोग्य है कि जीव व्यवहारमोक्षमार्गको भी अनादि अविद्याका नाश करके ही प्राप्त कर
सकता है; अनादि अविद्याके नाश होनेसे पूर्व तो [अर्थात् निश्चयनयके–द्रव्यार्थिकनयके–विषयभूत
शुद्धात्मस्वरूपका भान करनेसे पूर्व तो] व्यवहारमोक्षमार्ग भी नहीं होता।
पुनश्च, ‘निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्गको साध्य–साधनपना अत्यन्त घटित होता है’ ऐसा जो
कहा गया है वह व्यवहारनय द्वारा किया गया उपचरित निरूपण है। उसमेंसे ऐसा अर्थ निकालना चाहिये कि
‘छठवें गुणस्थानमें वर्तनेवाले शुभ विकल्पोंको नहीं किन्तु छठवें गुणस्थानमें वर्तनेवाले शुद्धिके अंशकोे और
सातवें गुणस्थानयोग्य निश्चयमोक्षमार्गको वास्तवमें साधन–साध्यपना है।’ छठवें गुणस्थानमें वर्तनेवाले शुद्धिका
अंश बढ़कर जब और जितने काल तक उग्र शुद्धिके कारण शुभ विकल्पोंका अभाव वर्तता है तब और उतने
काल तक सातवें गुणस्थानयोग्य निश्चयमोक्षमार्ग होता है।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२३७
जो चरदि णादि पेच्छदि अप्पाणं अप्पणा अणण्णमयं।
सो चारित्तं णाणं दंसणमिदि णिच्छिदो होदि।। १६२।।
यश्चरति जानाति पश्यति आत्मानमात्मनानन्यमयम्।
स चारित्रं ज्ञानं दर्शनमिति निश्चितो भवति।। १६२।।
आत्मनश्चारित्रज्ञानदर्शनत्वद्योतनमेतत्।
-----------------------------------------------------------------------------
अन्वयार्थः– [यः] जो [आत्मा] [अनन्यमयम् आत्मानम्] अनन्यमय आत्माको [आत्मना]
आत्मासे [चरति] आचरता है, [जानाति] जानता है, [पश्यति] देखता है, [सः] वह [आत्मा
ही] [चारित्रं] चारित्र है, [ज्ञानं] ज्ञान है, [दर्शनम्] दर्शन है–[इति] ऐसा [निश्चितः भवति]
निश्चित है।
यः खल्वात्मानमात्ममयत्वादनन्यमयमात्मना चरति–स्वभावनियतास्तित्वेनानुवर्तते, आत्मना
जानाति–स्वपरप्रकाशकत्वेन चेतयते, आत्मना पश्यति–याथातथ्येनावलोकयते, स खल्वात्मैव चारित्रं
गाथा १६२
टीकाः– यह, आत्माके चारित्र–ज्ञान–दर्शनपनेका प्रकाशन है [अर्थात् आत्मा ही चारित्र, ज्ञान
और दर्शन है ऐसा यहाँ समझाया है]।
जो [आत्मा] वास्तवमें आत्माको– जो कि आत्ममय होनेसे अनन्यमय है उसे–आत्मासे
आचरता है अर्थात् स्वभावनियत अस्तित्व द्वारा अनुवर्तता है [–स्वभावनियत अस्तित्वरूपसे
परिणमित होकर अनुसरता है], [अनन्यमय आत्माको ही] आत्मासे जानता है अर्थात्
स्वपरप्रकाशकरूपसे चेतता है, [अनन्यमय आत्माको ही] आत्मासे देखता है अर्थात् यथातथरूपसे
-------------------------------------------------------------------------
१। स्वभावनियत = स्वभावमें अवस्थित; [ज्ञानदर्शनरूप] स्वभावमें द्रढ़रूपसे स्थित। [‘स्वभावनियत अस्तित्व’की
विशेष स्पष्टताके लिए १४४ वीं गाथाकी टीका देखो।]
जाणे, जुए ने आचरे निज आत्मने आत्मा वडे,
ते जीव दर्शन, ज्ञान ने चारित्र छे निश्चितपणे। १६२।

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२३८
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
ज्ञानं दर्शनमिति कर्तृकर्मकरणानामज्ञानं दर्शनमिति कर्तृकर्मकरणानामभेदान्निश्चितो भवति।
अतश्चारित्रज्ञानदर्शनरूपत्वाज्जीवस्वभावनियतचरितत्वलक्षणं निश्चयमोक्षमार्गत्वमात्मनो
नितरामुपपन्नमिति।। १६२।।
जेण विजाणदि सव्वं पेच्छदि सो तेण सोक्खमणुहवदि।
इदि तं जाणदि भविओ अभवियसत्तो ण सद्दहदि।। १६३।।
सर्वस्यात्मनः संसारिणो मोक्षमार्गार्हत्वनिरासोऽयम्।
-----------------------------------------------------------------------------
अवलोकता है, वह आत्मा ही वास्तवमें चारित्र है, ज्ञान है, दर्शन है–ऐसा कर्ता–कर्म–करणके
अभेदके कारण निश्चित है। इससे [ऐसा निश्चित हुआ कि] चारित्र–ज्ञान–दर्शनरूप होनेके कारण
आत्माको जीवस्वभावनियत चारित्र जिसका लक्षण है ऐसा निश्चयमोक्षमार्गपना अत्यन्त घटित होता है
[अर्थात् आत्मा ही चारित्र–ज्ञान–दर्शन होनेके कारण आत्मा ही ज्ञानदर्शनरूप जीवस्वभावमें द्रढ़रूपसे
स्थित चारित्र जिसका स्वरूप है ऐसा निश्चयमोक्षमार्ग है]।। १६२।।
गाथा १६३
अन्वयार्थः– [येन] जिससे [आत्मा मुक्त होनेपर] [सर्वं विजानाति] सर्वको जानता है और
[पश्यति] देखता हैे, [तेन] उससे [सः] वह [सौख्यम् अनुभवति] सौख्यका अनुभव करता है; –
[इति तद्] ऐसा [भव्यः जानाति] भव्य जीव जानता है, [अभव्यसत्त्वः न श्रद्धत्ते] अभव्य जीव श्रद्धा
नहीं करता।
टीकाः– यह, सर्व संसारी आत्मा मोक्षमार्गके योग्य होनेका निराकरण [निषेध] है
-------------------------------------------------------------------------
१। जब आत्मा आत्माको आत्मासे आचरता है–जानता है–देखता है, तब कर्ता भी आत्मा, कर्म भी आत्मा और
करण भी आत्मा है; इस प्रकार यहाँ कर्ता–कर्म–करणकी अभिन्नता है।
जाणे–जुए छे सर्व तेथी सौख्य–अनुभव मुक्तने;
–आ भावजाणे भव्य जीव, अभव्य नहि श्रद्धा लहे। १६३।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२३९
इह हि स्वभावप्रातिकूल्याभावहेतुकं सौख्यम्। आत्मनो हि द्रशि–ज्ञप्ती
स्वभावः। तयोर्विषयप्रतिबन्धः प्रातिकूल्यम्। मोक्षे खल्वात्मनः सर्वं विजानतः पश्यतश्च तदभावः।
ततस्तद्धेतुकस्यानाकुलत्वलक्षणस्य परमार्थसुखस्य मोक्षेऽनुभूतिरचलिताऽस्ति। इत्येतद्भव्य एव
भावतो विजानाति, ततः स एव मोक्षमार्गार्हः। नैतदभव्यः श्रद्धत्ते, ततः स मोक्षमार्गानर्ह एवेति। अतः
कतिपये एव संसारिणो मोक्षमार्गार्हा न सर्व एवेति।। १६३।।
-----------------------------------------------------------------------------
-------------------------------------------------------------------------
वास्तवमें सौख्यका कारण स्वभावकी प्रतिकूलताका अभाव है। आत्माका ‘स्वभाव’ वास्तवमें
द्रशि–ज्ञप्ति [दर्शन और ज्ञान] है। उन दोनोंको विषयप्रतिबन्ध होना सो ‘प्रतिकूलता’ है। मोक्षमें
वास्तवमें आत्मा सर्वको जानता और देखता होनेसे उसका अभाव होता है [अर्थात् मोक्षमें स्वभावकी
प्रतिकूलताका अभाव होता है]। इसलिये उसका अभाव जिसका कारण है ऐसे
अनाकुलतालक्षणवाले परमार्थ–सुखकी मोक्षमें अचलित अनुभूति होती है। –इस प्रकार भव्य जीव ही
भावसे जानता है, इसलिये वही मोक्षमार्गके योग्य है; अभव्य जीव इस प्रकार श्रद्धा नहीं करता,
इसलिये वह मोक्षमार्गके अयोग्य ही है।
इससे [ऐसा कहा कि] कतिपय ही संसारी मोक्षमार्गके योग्य हैं, सर्व नहीं।। १६३।।
१। प्रतिकूलता = विरुद्धता; विपरीतता; ऊलटापन।
२। विषयप्रतिबन्ध = विषयमें रुकावट अर्थात् मर्यादितपना। [दर्शन और ज्ञानके विषयमें मर्यादितपना होना वह
स्वभावकी प्रतिकूलता है।]
३। पारमार्थिक सुखका कारण स्वभावकी प्रतिकूलताका अभाव है।
४। पारमार्थिक सुखका लक्षण अथवा स्वरूप अनाकुलता है।
५। श्री जयसेनाचार्यदेवकृत टीकामें कहा है कि ‘उस अनन्त सुखको भव्य जीव जानते है, उपादेयरूपसे श्रद्धते हैं
और अपने–अपने गुणस्थानानुसार अनुभव करते हैं।’

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२४०
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
दंसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गो त्ति सेविदव्वाणि।
साधूहि इदं भणिदं तेहिं
दु बंधो व मोक्खो वा।। १६४।।
-----------------------------------------------------------------------------
-------------------------------------------------------------------------
दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति सेवितव्यानि।
साधुभिरिदं भणितं तैस्तु बन्धो वा मोक्षो वा।। १६४।।।
दर्शनज्ञानचारित्राणां कथंचिद्बन्धहेतुत्वोपदर्शनेन जीवस्वभावे नियतचरितस्य साक्षान्मोक्ष–
हेतुत्वद्योतनमेतत्। अमूनि हि दर्शनज्ञानचारित्राणि कियन्मात्रयापि परसमयप्रवृत्त्या संवलितानि
कृशानु–संवलितानीव घृतानि कथञ्चिद्विरुद्धकारणत्वरूढेर्बन्धकारणान्यपि
गाथा १६४
अन्वयार्थः– [दर्शनज्ञानचारित्राणि] दर्शन–ज्ञान–चारित्र [मोक्षमार्गः] मोक्षमार्ग है [इति]
इसलिये [सेवितव्यानि] वे सेवनयोग्य हैं– [इदम् साधुभिः भणितम्] ऐसा साधुओंने कहा है; [तैः
तु] परन्तु उनसे [बन्धः वा] बन्ध भी होता है और [मोक्षः वा] मोक्ष भी होता है।
टीकाः– यहाँ, दर्शन–ज्ञान–चारित्रका कथंचित् बन्धहेतुपना दर्शाया है और इस प्रकार
जीवस्वभावमें नियत चारित्रका साक्षात् मोक्षहेतुपना प्रकाशित किया है।
यह दर्शन–ज्ञान–चारित्र यदि अल्प भी परसमयप्रवृत्तिके साथ मिलित हो तो, अग्निके साथ
मिलित घृतकी भाँति [अर्थात् उष्णतायुक्त घृतकी भाँति], कथंचित् विरुद्ध कार्यके कारणपनेकी
व्याप्तिके कारण बन्धकारण भी है। और जब वे
१। घृत स्वभावसे शीतलताके कारणभूत होनेपर भी, यदि वह किंचित् भी उष्णतासे युक्त हो तो, उससे
[कथंचित्] जलते भी हैं; उसी प्रकार दर्शन–ज्ञान–चारित्र स्वभावसे मोक्षके कारणभूत होने पर भी , यदि वे
किंचित् भी परसमयप्रवृतिसे युक्त हो तो, उनसे [कथंचित्] बन्ध भी होता है।

२। परसमयप्रवृत्तियुक्त दर्शन–ज्ञान–चारित्रमें कथंचित् मोक्षरूप कार्यसे विरुद्ध कार्यका कारणपना [अर्थात् बन्धरूप
कार्यका कारणपना] व्याप्त है।

दृग, ज्ञान ने चारित्र छे शिवमार्ग तेथी सेववां
–संते कह्युं, पण हेतु छे ए बंधना वा मोक्षना। १६४।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२४१
भवन्ति। यदा तु समस्तपर–समयप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपया स्वसमयप्रवृत्त्या सङ्गच्छंते, तदा
निवृत्तकृशानुसंवलनानीव घृतानि विरुद्धकार्यकारणभावाभावात्साक्षान्मोक्षकारणान्येव

भवन्ति। ततः स्वसमयप्रवृत्तिनाम्नो जीवस्वभावनियतचरितस्य साक्षान्मोक्षमार्गत्वमुपपन्न–मिति।।१६४।।
अण्णाणादो णाणी जदि मण्णदि सुद्धसंपओगादो।
हवदि त्ति दुक्खमोक्खं परसमयरदो हवदि जीवो।। १६५।।
अज्ञानात् ज्ञानी यदि मन्यते शुद्धसंप्रयोगात्।
भवतीति दुःखमोक्षः परसमयरतो भवति जीवः।। १६५।।
-----------------------------------------------------------------------------
[दर्शन–ज्ञान–चारित्र], समस्त परसमयप्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप ऐसी स्वसमयप्रवृत्तिके साथ संयुक्त होते
हैं तब, जिसे अग्निके साथका मिलितपना निवृत्त हुआ है ऐसे घृतकी भाँति, विरुद्ध कार्यका कारणभाव
निवृत्त हो गया होनेसे साक्षात् मोक्षका कारण ही है। इसलिये ‘स्वसमयप्रवृत्ति’ नामका जो
जीवस्वभावमें नियत चारित्र उसे साक्षात् मोक्षमार्गपना घटित होता है ।। १६४।।
गाथा १६५
अन्वयार्थः– [शुद्धसंप्रयोगात्] शुद्धसंप्रयोगसे [शुभ भक्तिभावसे] [दुःखमोक्षः भवति] दुःखमोक्ष
होता है [इति] ऐसा [यदि] यदि [अज्ञानात्] अज्ञानके कारण [ज्ञानी] ज्ञानी [मन्यते] माने, तो
वह [परसमयरतः जीवः] परसमयरत जीव [भवति] है। [‘अर्हंतादिके प्रति भक्ति–अनुरागवाली
मंदशुद्धिसे भी क्रमशः मोक्ष होता है’ इस प्रकार यदि अज्ञानके कारण [–शुद्धात्मसंवेदनके अभावके
कारण, रागांशकेे कारण] ज्ञानीको भी [मंद पुरुषार्थवाला] झुकाव वर्ते, तो तब तक वह भी सूक्ष्म
परसमयमें रत है।]
-------------------------------------------------------------------------
[शास्त्रोंमें कभी–कभी दर्शन–ज्ञान–चारित्रको भी यदि वे परसंमयप्रवृत्तियुक्त हो तो, कथंचित् बंधका कारण
कहा जाता है; और कभी ज्ञानीको वर्तनेवाले शुभभावोंको भी कथंचित् मोक्षके परंपराहेतु कहा जाता है।
शास्त्रोमें आनेवाले ऐसे भिन्नभिन्न पद्धतिनके कथनोंको सुलझाते हुए यह सारभूत वास्तविकता ध्यानमें रखनी
चाहिये कि –ज्ञानीको जब शुद्धाशुद्धरूप मिश्रपर्याय वर्तती है तब वह मिश्रपर्याय एकांतसे संवर–निर्जरा–मोक्षके
कारणभूत नहीं होती , अथवा एकांतसे आस्रव–बंधके कारणभूत नहीं होती, परन्तु उस मिश्रपर्यायका शुद्ध
अंश संवर–निर्जरा–मोक्षके कारणभूत होता है और अशुद्ध अंश आस्रव–बंधके कारणभूत होता है।]

१। इस निरूपणके साथ तुलना करनेके लिये श्री प्रवचनसारकी ११ वीं गाथा और उसकी तत्त्वप्रदीपिका टीका
देखिए।
२। मानना = झुकाव करना; आशय रखना; आशा रखना; इच्छा करना; अभिप्राय करना।
जिनवरप्रमुखनी भक्ति द्वारा मोक्षनी आशा धरे
अज्ञानथी जो ज्ञानी जीव, तो परसमयरत तेह छे। १६५।

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२४२
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
सूक्ष्मपरसमयस्वरूपाख्यानमेतत्।
अर्हदादिषु भगवत्सु सिद्धिसाधनीभूतेषु भक्तिभावानुरञ्जिता चित्तवृत्तिरत्र
शुद्धसंप्रयोगः। अथ खल्वज्ञानलवावेशाद्यदि यावत् ज्ञानवानपि ततः शुद्धसंप्रयोगान्मोक्षो भवती–
त्यभिप्रायेण खिद्यमानस्तत्र प्रवर्तते तदा तावत्सोऽपि रागलवसद्भावात्परसमयरत इत्युपगीयते। अथ
न किं पुनर्निरङ्कुशरागकलिकलङ्कितान्तरङ्गवृत्तिरितरो जन इति।। १६५।।
-----------------------------------------------------------------------------
सिद्धिके साधनभूत ऐसे अर्हंतादि भगवन्तोंके प्रति भक्तिभावसे अनुरंजित चित्तवृत्ति वह यहाँ
‘शुद्धसम्प्रयोग’ है। अब, अज्ञानलवके आवेशसे यदि ज्ञानवान भी ‘उस शुद्धसम्प्रयोगसे मोक्ष होता है
’ ऐसे अभिप्राय द्वारा खेद प्राप्त करता हुआ उसमें [शुद्धसम्प्रयोगमें] प्रवर्ते, तो तब तक वह भी
कलंकित ऐसी अंतरंग वृत्तिवाला इतर जन क्या परसमयरत नहीं कहलाएगा? [अवश्य कहलाएगा
ही]
टीकाः– यह, सूक्ष्म परसमयके स्वरूपका कथन है।
रागलवके सद्भावके कारण ‘परसमयरत’ कहलाता है। तो फिर निरंकुश रागरूप क्लेशसे
।। १६५।।
-------------------------------------------------------------------------
१। अनुरंजित = अनुरक्त; रागवाली; सराग।

२। अज्ञानलव = किन्चित् अज्ञान; अल्प अज्ञान।

३। रागलव = किन्चित् राग; अल्प राग।
४। परसमयरत = परसमयमें रत; परसमयस्थित; परसमयकी ओर झुकाववाला; परसमयमें आसक्त।

५। इस गाथाकी श्री जयसेनाचार्यदेवकृत टीकामें इस प्रकार विवरण हैः–
कोई पुरुष निर्विकार–शुद्धात्मभावनास्वरूप परमोपेक्षासंयममें स्थित रहना चाहता है, परन्तु उसमें स्थित
रहनेको अशक्त वर्तता हुआ कामक्रोधादि अशुभ परिणामके वंचनार्थ अथवा संसारस्थितिके छेदनार्थ जब
पंचपरमेष्ठीके प्रति गुणस्तवनादि भक्ति करता है, तब वह सूक्ष्म परसमयरूपसे परिणत वर्तता हुआ सराग
सम्यग्द्रष्टि हैे; और यदि वह पुरुष शुद्धात्मभावनामें समर्थ होने पर भी उसे [शुद्धात्मभावनाको] छोड़कर
‘शुभोपयोगसे ही मोक्ष होता है ऐसा एकान्त माने, तो वह स्थूल परसमयरूप परिणाम द्वारा अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि
होता है।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२४३
अरहंतसिद्धचेदियपवयणगणणाणभत्तिसंपण्णो।
बंधदि पुण्णं बहुसो ण हु सो कम्मक्खयं कुणदि।। १६६।।
अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनगणज्ञानभक्तिसम्पन्नः।
बध्नाति पुण्यं बहुशो न खलु स कर्मक्षयं करोति।। १६६।।
उक्तशुद्धसंप्रयोगस्य कथञ्चिद्बन्धहेतुत्वेन मोक्षमार्गत्वनिरासोऽयम्। अर्हदादिभक्तिसंपन्नः
कथञ्चिच्छुद्धसंप्रयोगोऽपि सन् जीवो जीवद्रागलवत्वाच्छुभोपयोग–तामजहत् बहुशः
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा १६६
अन्वयार्थः– [अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनगणज्ञानभक्तिसम्पन्नः] अर्हंत, सिद्ध, चैत्य
[–अर्हंतादिकी प्रतिमा], प्रवचन [–शास्त्र], मुनिगण और ज्ञानके प्रति भक्तिसम्पन्न जीव [बहुशः
पुण्यं बध्नाति] बहुत पुण्य बांधता है, [न खलु सः कर्मक्षयं करोति] परन्तु वास्तवमें वह कर्मोंका क्षय
नहीं करता।
टीकाः– यहाँ, पूर्वोक्त शुद्धसम्प्रयोगको कथंचित् बंधहेतुपना होनेसे उसका मोक्षमार्गपना निरस्त
किया है [अर्थात् ज्ञानीको वर्तता हुआ शुद्धसम्प्रयोग निश्चयसे बंधहेतुभूत होनेके कारण वह मोक्षमार्ग
नहीं है ऐसा यहाँ दर्शाया है]। अर्हंतादिके प्रति भक्तिसम्पन्न जीव, कथंचित् ‘शुद्धसम्प्रयोगवाला’
होने पर भी, रागलव जीवित [विद्यमान] होनेसे ‘शुभोपयोगीपने’ को नहीं छोड़ता हुआ, बहुत
-------------------------------------------------------------------------
१। कथंचित् = किसी प्रकार; किसी अपेक्षासे [अर्थात् निश्चयनयकी अपेक्षासे]। [ज्ञानीको वर्तते हुए
शुद्धसम्प्रयोगकोे कदाचित् व्यवहारसे भले मोक्षका परम्पराहेतु कहा जाय, किन्तु निश्चयसे तो वह बंधहेतु ही है
क्योंकि अशुद्धिरूप अंश है।]
२। निरस्त करना = खंडित करना; निकाल देना; निषिद्ध करना।
३। सिद्धिके निमित्तभूत ऐसे जो अर्हंन्तादि उनके प्रति भक्तिभावको पहले शुद्धसम्प्रयोग कहा गया है। उसमें ‘शुद्ध’
शब्द होने पर भी ‘शुभ’ उपयोगरूप रागभाव है। [‘शुभ’ ऐसे अर्थमें जिस प्रकार ‘विशुद्ध’ शब्द कदाचित्
प्रयोग होता है उसी प्रकार यहाँ ‘शुद्ध’ शब्दका प्रयोग हुआ है।]
४। रागलव = किंचित् राग; अल्प राग।

जिन–सिद्ध–प्रवचन–चैत्य–मुनिगण–ज्ञाननी भक्ति करे,
ते पुण्यबंध लहे घणो, पण कर्मनो क्षय नव करे। १६६।

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२४४
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
पुण्यं बध्नाति, न खलु सकलकर्मक्षयमारभते। ततः सर्वत्र रागकणिकाऽपि परिहरणीया
परसमयप्रवृत्तिनिबन्धनत्वादिति।। १६६।।
जस्स हिदएणुमेत्तं वा परदव्वम्हि विज्जदे रागो।
स न विजानाति समयं स्वकस्य सर्वागमधरोऽपि।। १६७।।
सो ण विजाणदि समयं सगस्स सव्वागमधरो वि।। १६७।।
यस्य हृदयेऽणुमात्रो वा परद्रव्ये विद्यते रागः।
स्वसमयोपलम्भाभावस्य रागैकहेतुत्वद्योतनमेतत्। यस्य खलु रागरेणुकणिकाऽपि जीवति हृदये
न नाम स समस्तसिद्धान्तसिन्धुपारगोऽपि निरुपरागशुद्धस्वरूपं स्वसमयं चेतयते।
-----------------------------------------------------------------------------
पुण्य बांधता है, परन्तु वास्तवमें सकल कर्मका क्षय नहीं करता। इसलिये सर्वत्र रागकी कणिका भी
परिहरनेयोग्य है, क्योंकि वह परसमयप्रवृत्तिका कारण है।। १६६।।
गाथा १६७
अन्वयार्थः– [यस्य] जिसे [परद्रव्ये] परद्रव्यके प्रति [अणुमात्रः वा] अणुमात्र भी [लेशमात्र
भी [रागः] राग [हृदये विद्यते] हृदयमें वर्तता है [सः] वह, [सर्वागमधरः अपि] भले सर्वआगमधर
हो तथापि, [स्वकस्य समयं न विजानाति] स्वकीय समयको नहीं जानता [–अनुभव नहीं
करता]।
टीकाः– यहाँ, स्वसमयकी उपलब्धिके अभावका, राग एक हेतु है ऐसा प्रकाशित किया है
[अर्थात् स्वसमयकी प्राप्तिके अभावका राग ही एक कारण है ऐसा यहाँ दर्शाया है]। जिसे रागरेणुकी
कणिका भी हृदयमें जीवित है वह, भले समस्त सिद्धांतसागरका पारंगत हो तथापि, निरुपराग–
शुद्धस्वरूप स्वसमयको वास्तवमें नहीं चेतता [–अनुभव नहीं करता]।
-------------------------------------------------------------------------
१। निरुपराग–शुद्धस्वरूप = उपरागरहित [–निर्विकार] शुद्ध जिसका स्वरूप है ऐसा।
अणुमात्र जेने हृदयमां परद्रव्य प्रत्ये राग छे,
हो सर्वआगमधर भले जाणे नहीं स्वक–समयने। १६७।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२४५
ततः स्वसमयप्रसिद्धयर्थं पिञ्जनलग्नतूलन्यासन्यायमधिद्धताऽर्हदादिविषयोऽपि क्रमेण
रागरेणुरपसारणीय इति।। १६७।।
धरिदुं जस्स ण सक्कं चित्तुब्भामं विणा दु अप्पाणं।
रोधो तस्स ण विज्जदि सुहासुहकदस्स कम्मस्स।। १६८।।
धर्तुं यस्य न शक्यम् चित्तोद्भ्रामं विना त्वात्मानम्।
रोधस्तस्य न विद्यते शुभाशुभकृतस्य कर्मणः।। १६८।।
रागलवमूलदोषपरंपराख्यानमेतत्। इह खल्वर्हदादिभक्तिरपि न रागानुवृत्तिमन्तरेण भवति।
रागाद्यनुवृत्तौ च सत्यां बुद्धिप्रसरमन्तरेणात्मा न तं कथंचनापि धारयितुं शक्यते।
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– यह, रागलवमूलक दोषपरम्पराका निरूपण है [अर्थात् अल्प राग जिसका मूल है ऐसी
दोषोंकी संततिका यहाँ कथन है]। यहाँ [इस लोकमें] वास्तवमें अर्हंतादिके ओरकी भक्ति भी
रागपरिणतिके बिना नहीं होती। रागादिपरिणति होने पर, आत्मा बुद्धिप्रसार रहित [–चित्तके
भ्रमणसे रहित] अपनेको किसी प्रकार नहीं रख सकता ;
इसलिये, ‘ धुनकीसे चिपकी हुई रूई’का न्याय लागु होनेसे, जीवको स्वसमयकी प्रसिद्धिके हेतु
अर्हंतादि–विषयक भी रागरेणु [–अर्हंतादिके ओरकी भी रागरज] क्रमशः दूर करनेयोग्य है।। १६७।।
गाथा १६८
अन्वयार्थः– [यस्य] जो [चित्तोद्भ्रामं विना तु] [रागनके सद्भावके कारण] चित्तके भ्रमण
रहित [आत्मानम्] अपनेको [धर्तुम् न शक्यम्] नहीं रख सकता, [तस्य] उसे [शुभाशुभकृतस्य
कर्मणः] शुभाशुभ कर्मका [रोधः न विद्यते] निरोध नहीं है।
-------------------------------------------------------------------------
१। धुनकीसे चिपकी हुई थोड़ी सी भी २। जिस प्रकार रूई, धुननेके कार्यमें विघ्न करती है, उसी प्रकार थोड़ा
सा भी राग स्वसमयकी उपलब्धिरूप कार्यमें विघ्न करता है।
मनना भ्रमणथी रहित जे राखी शके नहि आत्मने,
शुभ वा अशुभ कर्मो तणो नहि रोध छे ते जीवने। १६८।

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२४६
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
बुद्धिप्रसरे च सति शुभस्याशुभस्य वा कर्मणो न निरोधोऽस्ति। ततो रागकलिविलासमूल
एवायमनर्थसन्तान इति।। १६८।।
तम्हा णिव्वुदिकामो णिस्संगो णिम्ममो य हविय पुणो।
सिद्धेसु कुणदि भत्तिं णिव्वाणं तेण पप्पोदि।। १६९।।
तस्मान्निवृत्तिकामो निस्सङ्गो निर्ममश्च भूत्वा पुनः।
सिद्धेषु करोति भक्तिं निर्वाणं तेन प्राप्नोति।। १६९।।
रागकलिनिःशेषीकरणस्य करणीयत्वाख्यानमेतत्।
-----------------------------------------------------------------------------
-------------------------------------------------------------------------
२। इस गाथाकी श्री जयसेनाचार्यदेवविरचित टीकामें निम्नानुसार विवरण दिया गया हैः–मात्र नित्यानंद जिसका
स्वभाव है ऐसे निज आत्माको जो जीव नहीं भाता, उस जीवको माया–मिथ्या–निदानशल्यत्रयादिक
समस्तविभावरूप बुद्धिप्रसार रोका नहीं जा सकता और यह नहीं रुकनेसे [अर्थात् बुद्धिप्रसारका निरोध नहीं
होनेसे] शुभाशुभ कर्मका संवर नहीं होता; इसलिए ऐसा सिद्ध हुआ कि समस्त अनर्थपरम्पराओंका
रागादिविकल्प ही मूल है।
और बुद्धिप्रसार होने पर [–चित्तका भ्रमण होने पर], शुभ तथा अशुभ कर्मका निरोध नहीं होता।
इसलिए, इस अनर्थसंततिका मूल रागरूप क्लेशका विलास ही है।
भावार्थः– अर्हंतादिकी भक्ति भी राग बिना नहीं होती। रागसे चित्तका भ्रमण होता है; चित्तके
भ्रमणसे कर्मबंध होता है। इसलिए इन अनर्थोंकी परम्पराका मूल कारण राग ही है।। १६८।।
गाथा १६९
अन्वयार्थः– [तस्मात्] इसलिए [निवृत्तिकामः] मोक्षार्थी जीव [निस्सङ्गः] निःसंग [च] और
[निर्ममः] निर्मम [भूत्वा पुनः] होकर [सिद्धेषु भक्ति] सिद्धोंकी भक्ति [–शुद्धात्मद्रव्यमें स्थिरतारूप
पारमार्थिक सिद्धभक्ति] [करोति] करता है, [तेन] इसलिए वह [निर्वाणं प्राप्नोति] निर्वाणको प्राप्त
करता है।
टीकाः– यह, रागरूप क्लेशका निःशेष नाश करनेयोग्य होनेका निरूपण है।
१। बुद्धिप्रसार = विकल्पोंका विस्तार; चित्तका भ्रमण; मनका भटकना; मनकी चंचलता।
३। निःशेष = सम्पूर्ण; किंचित् शेष न रहे ऐसा।

ते कारणे मोक्षेच्छु जीव असंग ने निर्मम बनी
सिद्धो तणी भक्ति करे, उपलब्धि जेथी मोक्षनी। १६९।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२४७
यतो रागाद्यनुवृत्तौ चित्तोद्भ्रान्तिः, चित्तोद्भ्रान्तौ कर्मबन्ध इत्युक्तम्, ततः खलु मोक्षार्थिना
कर्मबन्धमूलचित्तोद्भ्रान्तिमूलभूता रागाद्यनुवृत्तिरेकान्तेन निःशेषीकरणीया। निः–शेषितायां तस्यां
प्रसिद्धनैःसङ्गयनैर्मम्यः शुद्धात्मद्रव्यविश्रान्तिरूपां पारमार्थिकीं सिद्धभक्तिमनुबिभ्राणः
प्रसिद्धस्वसमयप्रवृत्तिर्भवति। तेन कारणेन स एव निः–शेषितकर्मबन्धः सिद्धिमवाप्नोतीति।। १६९।।
-----------------------------------------------------------------------------
रागादिपरिणति होने पर चित्तका भ्रमण होता है और चित्तका भ्रमण होने पर कर्मबन्ध होता है ऐसा
[पहले] कहा गया, इसलिए मोक्षार्थीको कर्मबन्धका मूल ऐसा जो चित्तका भ्रमण उसके मूलभूत
रागादिपरिणतिका एकान्त निःशेष नाश करनेयोग्य है। उसका निःशेष नाश किया जानेसे, जिसे
निःसंगता और निर्ममता प्रसिद्ध हुई है ऐसा वह जीव शुद्धात्मद्रव्यमें विश्रांतिरूप पारमार्थिक
सिद्धभक्ति धारण करता हुआ स्वसमयप्रवृत्तिकी प्रसिद्धिवाला होता है। उस कारणसे वही जीव
कर्मबन्धका निःशेष नाश करके सिद्धिको प्राप्त करता है।। १६९।।
-------------------------------------------------------------------------
१ निःसंग = आत्मतत्त्वसे विपरीत ऐसा जो बाह्य–अभ्यंतर परिग्रहण उससे रहित परिणति सो निःसंगता है।

२। रागादि–उपाधिरहित चैतन्यप्रकाश जिसका लक्षण है ऐसे आत्मतत्त्वसे विपरीत मोहोदय जिसकी उत्पत्तिमें
निमित्तभूत होता है ऐसे ममकार–अहंकारादिरूप विकल्पसमूहसे रहित निर्मोहपरिणति सो निर्ममता है।
३। स्वसमयप्रवृत्तिकी प्रसिद्धिवाला = जिसे स्वसमयमें प्रवृत्ति प्रसिद्ध हुई है ऐसा। [जो जीव रागादिपरिणतिका
सम्पूर्ण नाश करके निःसंग और निर्मम हुआ है उस परमार्थ–सिद्धभक्तिवंत जीवके स्वसमयमें प्रवृत्ति सिद्ध की
है इसलिए स्वसमयप्रवृत्तिके कारण वही जीव कर्मबन्धका क्षय करके मोक्षको प्राप्त करता है, अन्य नहीं।]

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२४८
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
सपयत्थं तित्थयरं अभिगदबुद्धिस्स सुत्तरोइस्स।
दूरतरं णिव्वाणं संजमतवसंपउत्तस्स।। १७०।।
सपदार्थं तीर्थकरमभिगतबुद्धेः सूत्ररोचिनः।
दूरतरं निर्वाणं संयमतपःसम्प्रयुक्तस्य।। १७०।।
अर्हदादिभक्तिरूपपरसमयप्रवृत्तेः साक्षान्मोक्षहेतुत्वाभावेऽपि परम्परया मोक्षहेतुत्वसद्भाव–
द्योतनमेतत्।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा १७०
अन्वयार्थः– [संयमतपःसम्प्रयुक्तस्य] संयमतपसंयुक्त होने पर भी, [सपदार्थ तीर्थकरम्] नव
पदार्थों तथा तीर्थंकरके प्रति [अभिगतबुद्धेः] जिसकी बुद्धिका झुकाव वर्तता है और [सूत्ररोचिनः]
सूत्रोंके प्रति जिसे रुचि [प्रीति] वर्तती है, उस जीवको [निर्वाणं] निर्वाण [दूरतरम्] दूरतर
[विशेष दूर] है।
टीकाः– यहाँ, अर्हंतादिकी भक्तिरूप परसमयप्रवृत्तिमें साक्षात् मोक्षहेतुपनेका अभाव होने पर भी
परम्परासे मोक्षहेतुपनेका सद्भाव दर्शाया है।
-------------------------------------------------------------------------
१। वास्तवमें तो ऐसा है कि –ज्ञानीको शुद्धाशुद्धरूप मिश्र पर्यायमें जो भक्ति–आदिरूप शुभ अंश वर्तता है वह
तो मात्र देवलोकादिके क्लेशकी परम्पराका ही हेतु है और साथ ही साथ ज्ञानीको जो [मंदशुद्धिरूप] शुद्ध
अंश परिणमित होता है वह संवरनिर्जराका तथा [उतने अंशमें] मोक्षका हेतु है। वास्तवमें ऐसा होने पर भी,
शुद्ध अंशमें स्थित संवर–निर्जरा–मोक्षहेतुत्वका आरोप उसके साथके भक्ति–आदिरूप शुभ अंशमें करके उन
शुभ भावोंको देवलोकादिके क्लेशकी प्राप्तिकी परम्परा सहित मोक्षप्राप्तिके हेतुभूत कहा गया है। यह कथन
आरोपसे [उपचारसे] किया गया है ऐसा समझना। [ऐसा कथंचित् मोक्षहेतुत्वका आरोप भी ज्ञानीको ही
वर्तनेवाले भक्ति–आदिरूप शुभ भावोंमें किया जा सकता है। अज्ञानीके तो शुद्धिका अंशमात्र भी परिणमनमें नहीं
होनेसे यथार्थ मोक्षहेतु बिलकुल प्रगट ही नहीं हुआ है–विद्यमान ही नहींं है तो फिर वहाँ उसके भक्ति–
आदिरूप शुभ भावोंमें आरोप किसका किया जाय?]
संयम तथा तपयुक्तने पण दूरतर निर्वाण छे,
सूत्रो, पदार्थो, जिनवरो प्रति चित्तमां रुचि जो रहे। १७०।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२४९
यः खलु मौक्षार्थमुद्यतमनाः समुपार्जिताचिन्त्यसंयमतपोभारोऽप्यसंभावितपरमवैराग्य–
भूमिकाधिरोहणसमर्थप्रभुशक्तिः पिञ्जनलग्नतूलन्यासन्यायेन नवपदार्थैः सहार्हदादिरुचिरूपां पर–
समयप्रवृत्तिं परित्यक्तुं नोत्सहते, स खलु न नाम साक्षान् मोक्षं लभते किन्तु सुरलोकादि–
कॢेशप्राप्तिरूपया परम्परया तमवाप्नोति।। १७०।।
अरहंतसिद्धचेदियपवयणभत्तो परेण णियमेण।
जो कुणदि तवोकम्मं सो सुरलोगं समादियदि।। १७१।।
संयम परम सह तप करे, ते जीव पामे स्वर्गने। १७१।
-----------------------------------------------------------------------------
जो जीव वास्तवमें मोक्षके लिये उद्यमी चित्तवाला वर्तता हुआ, अचिंत्य संयमतपभार सम्प्राप्त
किया होने पर भी परमवैराग्यभूमिकाका आरोहण करनेमें समर्थ ऐसी प्रभुशक्ति उत्पन्न नहीं की
होनेसे, ‘धुनकी को चिपकी हुई रूई’के न्यायसे, नव पदार्थों तथा अर्हंतादिकी रुचिरूप [प्रीतिरूप]
परसमयप्रवृत्तिका परित्याग नहीं कर सकता, वह जीव वास्तवमें साक्षात् मोक्षको प्राप्त नहीं करता
किन्तु देवलोकादिके क्लेशकी प्राप्तिरूप परम्परा द्वारा उसे प्राप्त करता है।। १७०।।
-------------------------------------------------------------------------
१। प्रभुशक्ति = प्रबल शक्ति; उग्र शक्ति; प्रचुर शक्ति। [जिस ज्ञानी जीवने परम उदासीनताको प्राप्त करनेमें समर्थ
ऐसी प्रभुशक्ति उत्पन्न नहीं की वह ज्ञानी जीव कदाचित् शुद्धात्मभावनाको अनुकूल, जीवादिपदार्थोंका
प्रतिपादन करनेवाले आगमोंके प्रति रुचि [प्रीति] करता है, कदाचित् [जिस प्रकार कोई रामचन्द्रादि पुरुष
देशान्तरस्थित सीतादि स्त्री के पाससे आए हुए मनुष्योंको प्रेमसे सुनता है, उनका सन्मानादि करता है और
उन्हें दान देता है उसी प्रकार] निर्दोष–परमात्मा तीर्थंकरपरमदेवोंके और गणधरदेव–भरत–सगर–राम–
पांडवादि महापुरुषोंके चरित्रपुराण शुभ धर्मानुरागसे सुनता है तथा कदाचित् गृहस्थ–अवस्थामें
भेदाभेदरत्नत्रयपरिणत आचार्य–उपाध्याय–साधुनके पूजनादि करता है और उन्हें दान देता है –इत्यादि शुभ
भाव करता है। इस प्रकार जो ज्ञानी जीव शुभ रागको सर्वथा नहीं छोड़ सकता, वह साक्षात् मोक्षको प्राप्त
नहीं करता परन्तु देवलोकादिके क्लेशकी परम्पराको पाकर फिर चरम देहसे निर्विकल्पसमाधिविधान द्वारा
विशुद्धदर्शनज्ञानस्वभाववाले निजशुद्धात्मामें स्थिर होकर उसे [मोक्षको] प्राप्त करता है।]
जिन–सिद्ध–प्रवचन–चैत्य प्रत्ये भक्ति धारी मन विषे,

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२५०
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनभक्तः परेण नियमेन।
यः करोति तपःकर्म स सुरलोकं समादत्ते।। १७१।।
अर्हदादिभक्तिमात्ररागजनितसाक्षान्मोक्षस्यान्तरायद्योतनमेतत्।
यः खल्वर्हदादिभक्तिविधेयबुद्धिः सन् परमसंयमप्रधानमतितीव्रं तपस्तप्यते, स तावन्मात्र–
रागकलिकलङ्कितस्वान्तः साक्षान्मोक्षस्यान्तरायीभूतं विषयविषद्रुमामोदमोहितान्तरङ्गं स्वर्गलोकं
समासाद्य, सुचिरं रागाङ्गारैः पच्यमानोऽन्तस्ताम्यतीति।। १७१।।
तम्हा णिव्वुदिकामो रागं सव्वत्थ कुणदु मा किंचि।
सो तेण वीदरागो
भविओ भवसायरं तरदि।। १७२।।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा १७१
अन्वयार्थः– [यः] जो [जीव], [अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनभक्तः] अर्हंत, सिद्ध, चैत्य [–
अर्हर्ंतादिकी प्रतिमा] और प्रवचनके [–शास्त्र] प्रति भक्तियुक्त वर्तता हुआ, [परेण नियमेन] परम
संयम सहित [तपःकर्म] तपकर्म [–तपरूप कार्य] [करोति] करता है, [सः] वह [सुरलोकं]
देवलोकको [समादत्ते] सम्प्राप्त करता है।
टीकाः– यह, मात्र अर्हंतादिकी भक्ति जितने रागसे उत्पन्न होनेवाला जो साक्षात् मोक्षका
अंतराय उसका प्रकाशन है।
जो [जीव] वास्तवमें अर्हंतादिकी भक्तिके आधीन बुद्धिवाला वर्तता हुआ परमसंयमप्रधान
अतितीव्र तप तपता है, वह [जीव], मात्र उतने रागरूप क्लेशसे जिसका निज अंतःकरण कलंकित
[–मलिन] है ऐसा वर्तता हुआ, विषयविषवृक्षके
आमोदसे जहाँ अन्तरंग [–अंतःकरण] मोहित
होता है ऐसे स्वर्गलोकको– जो कि साक्षात् मोक्षको अन्तरायभूत है उसे–सम्प्राप्त करके, सुचिरकाल
पर्यंत [–बहुत लम्बे काल तक] रागरूपी अंगारोंसे दह्यमान हुआ अन्तरमें संतप्त [–दुःखी, व्यथित]
होता है।। १७१।।
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१। परमसंयमप्रधान = उत्कृष्ट संयम जिसमें मुख्य हो ऐसा।
२। आमोद = [१] सुगंध; [२] मोज।
तेथी न करवो राग जरीये कयांय पण मोक्षेच्छुए;
वीतराग थईने ए रीते ते भव्य भवसागर तरे। १७२।

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२५१
तस्मान्निर्वृत्तिकामो रागं सर्वत्र करोतु मा किञ्चित्।
स तेन वीतरागो भव्यो भवसागरं तरति।। १७२।।
साक्षान्मोक्षमार्गसारसूचनद्वारेण शास्त्रतात्पर्योपसंहारोऽयम्।
साक्षान्मोक्षमार्गपुरस्सरो हि वीतरागत्वम्। ततः खल्वर्हदादिगतमपि रागं चन्दननग–
सङ्गतमग्निमिव सुरलोकादिक्लेशप्राप्त्याऽत्यन्तमन्तर्दाहाय कल्पमानमाकलय्य साक्षान्मोक्षकामो
महाजनः समस्तविषयमपि रागमुत्सृज्यात्यन्तवीतरागो भूत्वा समुच्छलज्ज्वलद्दुःखसौख्यकल्लोलं
कर्माग्नितप्तकलकलोदभारप्राग्भारभयङ्करं भवसागरमुत्तीर्य, शुद्धस्वरूपपरमामृतसमुद्रमध्यास्य सद्यो
निर्वाति।।
साक्षात्मोक्षमार्गमें अग्रसर सचमुच वीतरागता है। इसलिए वास्तवमें अर्हंतादिगत रागको भी,
चंदनवृक्षसंगत अग्निकी भाँति, देवलोकादिके क्लेशकी प्राप्ति द्वारा अत्यन्त अन्तर्दाहका कारण
समझकर, साक्षात् मोक्षका अभिलाषी महाजन सभी की ओरसे रागको छोड़कर, अत्यन्त वीतराग
होकर, जिसमें उबलती हुई दुःखसुखकी कल्लोलें ऊछलती है और जो कर्माग्नि द्वारा तप्त, खलबलाते
जलसमूहकी अतिशयतासे भयंकर है ऐसे भवसागरको पार उतरकर, शुद्धस्वरूप परमामृतसमुद्रको
अवगाहकर, शीघ्र निर्वाणको प्राप्त करता है।
अलं विस्तरेण। स्वस्ति साक्षान्मोक्षमार्गसारत्वेन शास्त्रतात्पर्यभूताय वीतराग त्वायेति।
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गाथा १७२
अन्वयार्थः– [तस्मात्] इसलिए [निर्वृत्तिकामः] मोक्षाभिलाषी जीव [सर्वत्र] सर्वत्र [किञ्चित्
रागं] किंचित् भी राग [मा करोतु] न करो; [तेन] ऐसा करनेसे [सः भव्यः] वह भव्य जीव
[वीतरागः] वीतराग होकर [भवसागरं तरति] भवसागरको तरता है।
टीकाः– यह, साक्षात्मोक्षमार्गके सार–सूचन द्वारा शास्त्रतात्पर्यरूप उपसंहार है [अर्थात् यहाँ
साक्षात्मोक्षमार्गका सार क्या है उसके कथन द्वारा शास्त्रका तात्पर्य कहनेरूप उपसंहार किया है]।
–विस्तारसे बस हो। जयवन्त वर्ते वीतरागता जो कि साक्षात्मोक्षमार्गका सार होनेसे
शास्त्रतात्पर्यभूत है।
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१। अर्हंंतादिगत राग = अर्हंंतादिकी ओरका राग; अर्हंतादिविषयक राग; अर्हंतादिका राग। [जिस प्रकार
चंदनवृक्षकी अग्नि भी उग्ररूपसे जलाती है, उसी प्रकार अर्हंंतादिका राग भी देवलोकादिके क्लेशकी प्राप्ति द्वारा
अत्यन्त अन्तरंग जलनका कारण होता है।]