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चेट्ठा तवम्हि चरिया ववहारो मोक्खमग्गो त्ति।। १६०।।
चेष्टा तपसि चर्या व्यवहारो मोक्षमार्ग इति।। १६०।।
[इति] इस प्रकार [व्यवहारः मोक्षमार्गः] व्यवहारमोक्षमार्ग है।
शुद्धि होती हैे’– इस बातको भी साथ ही साथ समझना हो तो विस्तारसे एैसा निरूपण किया जाता है कि
‘जिस शुद्धिके सद्भावमें, उसके साथ–साथ महाव्रतादिके शुभविकल्प हठ विना सहजरूपसे प्रवर्तमान हो वह
छठवें गुणस्थानयोग्य शुद्धि सातवें गुणस्थानयोग्य निर्विकल्प शुद्ध परिणतिका साधन है।’ ऐसे लम्बे कथनके
बदले, ऐसा कहा जाए कि ‘छठवें गुणस्थानमें प्रवर्तमान महाव्रतादिके शुभ विकल्प सातवें गुणस्थानयोग्य
निर्विकल्प शुद्ध परिणतिका साधन है,’ तो वह उपचरित निरूपण है। ऐसे उपचरित निरूपणमेंसे ऐसा अर्थ
निकालना चाहिये कि ‘महाव्रतादिके शुभ विकल्प नहीं किन्तु उनके द्वारा जिस छठवें गुणस्थानयोग्य शुद्धि
बताना था वह शूद्धि वास्तवमें सातवें गुणस्थानयोग्य निर्विकल्प शुद्ध परिणतिका साधन है।’]
तपमांहि चेष्टा चरण–एक व्यवहारमुक्तिमार्ग छे। १६०।
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च्छित्तिर्ज्ञानम्, आचारादिसूत्रप्रपञ्चितविचित्रयतिवृत्तसमस्तसमुदयरूपे तपसि चेष्टा चर्या–इत्येषः
स्वपरप्रत्ययपर्यायाश्रितं भिन्नसाध्यसाधनभावं व्यवहारनयमाश्रित्यानुगम्यमानो मोक्षमार्गः कार्त–
स्वरपाषाणार्पितदीप्तजातवेदोवत्समाहितान्तरङ्गस्य प्रतिपदमुपरितनशुद्धभूमिकासु परमरम्यासु
विश्रान्तिमभिन्नां निष्पादयन्, जात्यकार्तस्वरस्येव शुद्धजीवस्य कथंचिद्भिन्नसाध्यसाधनभावाभावा–
त्स्वयं शुद्धस्वभावेन विपरिणममानस्यापि, निश्चयमोक्षमार्गस्य साधनभावमापद्यत इति।। १६०।।
स्वभाव है ऐसा, ‘श्रद्धान’ नामका भावविशेष सो सम्यक्त्व; तत्त्वार्थश्रद्धानके सद्भावमें अंगपूर्वगत
पदार्थोंंका अवबोधन [–जानना] सो ज्ञान; आचारादि सूत्रों द्वारा कहे गए अनेकविध मुनि–आचारोंके
समस्त समुदायरूप तपमें चेष्टा [–प्रवर्तन] सो चारित्र; – ऐसा यह, स्वपरहेतुक पर्यायके आश्रित,
भिन्नसाध्यसाधनभाववाले व्यवहारनयके आश्रयसे [–व्यवहारनयकी अपेक्षासे] अनुसरण किया
जानेवाला मोक्षमार्ग, सुवर्णपाषाणको लगाई जानेवाली प्रदीप्त अग्निकी भाँति समाहित अंतरंगवाले
जीवको [अर्थात्] जिसका अंतरंग एकाग्र–समाधिप्राप्त है ऐसे जीवको] पद–पद पर परम रम्य
ऐसी उपरकी शुद्ध भूमिकाओंमें अभिन्न विश्रांति [–अभेदरूप स्थिरता] उत्पन्न करता हुआ – यद्यपि
उत्तम सुवर्णकी भाँति शुद्ध जीव कथंचित् भिन्नसाध्यसाधनभावके अभावके कारण स्वयं [अपने आप]
शुद्ध स्वभावसे परिणमित होता है तथापि–निश्चयमोक्षमार्गके साधनपनेको प्राप्त होता है।
व्यवहारमोक्षमार्गके स्वरूपका निम्नानुसार वर्णन किया हैः– ‘वीतरागसर्वज्ञप्रणीत जीवादिपदार्थो सम्बन्धी सम्यक्
श्रद्धान तथा ज्ञान दोनों, गृहस्थको और तपोधनको समान होते हैं; चारित्र, तपोधनोंको आचारादि चरणग्रंथोंमें
विहित किये हुए मार्गानुसार प्रमत्त–अप्रमत्त गुणस्थानयोग्य पंचमहाव्रत–पंचसमिति–त्रिगुप्ति–षडावश्यकादिरूप
होता है और गृहस्थोंको उपासकाध्ययनग्रंथमें विहित किये हुए मार्गके अनुसार पंचमगुणस्थानयोग्य दान–शील–
पूवजा–उपवासादिरूप अथवा दार्शनिक–व्रतिकादि ग्यारह स्थानरूप [ग्यारह प्रतिमारूप] होता है; इस प्रकार
व्यवहारमोक्षमार्गका लक्षण है।
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ण कुणदि किंचि वि अण्णं ण मुयदि सो मोक्खमग्गो त्ति।। १६१।।
न करोति किंचिदप्यन्यन्न मुञ्चति स मोक्षमार्ग इति।। १६१।।
भाँति अभिन्नसाध्यसाधनभावके कारण स्वयमेव शुद्धभावरूप परिणमन होता है तथापि, व्यवहारनयसे
निश्चयमोक्षमार्गके साधनपनेको प्राप्त होता है।
होनेसे उसे व्यवहारमोक्षमार्ग भी नहीं है।।] १६०।।
[अन्यत् किंचित् अपि] अन्य कुछ भी [न करोति न मुञ्चति] करता नहीं है या छोड़ता नहीं है,
[सः] वह [निश्चयनयेन] निश्चयनयसे [मोक्षमार्गः इति भणितः] ‘मोक्षमार्ग’ कहा गया है।
टीकाः– व्यवहारमोक्षमार्गके साध्यरूपसे, निश्चयमोक्षमार्गका यह कथन है।
छोडे–ग्रहे नहि अन्य कंईपण, निश्चये शिवमार्ग छे। १६१।
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गतार्थाज्ञानातपश्चेष्टानां धर्मादितत्त्वार्थश्रद्धानाङ्गपूर्वगतार्थज्ञानतपश्चेष्टानाञ्च त्यागोपादानाय प्रारब्ध–
विविक्तभावव्यापारः, कुतश्चिदुपादेयत्यागे त्याज्योपादाने च पुनः प्रवर्तितप्रतिविधानाभिप्रायो,
यस्मिन्यावति काले विशिष्टभावनासौष्ठववशात्सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैः स्वभावभूतैः सममङ्गाङ्गिभाव–
परिणत्या
अश्रद्धानके, अंगपूर्वगत पदार्थोंसम्बन्धी अज्ञानके और अतपमें चेष्टाके त्याग हेतुसे तथा धर्मादिसम्बन्धी
तत्त्वार्थ–श्रद्धानके, अंगपूर्वगत पदार्थोंसम्बन्धी ज्ञानके और तपमें चेष्टाके ग्रहण हेतुसे [–तीनोंके त्याग
हेतु तथा तीनोंके ग्रहण हेतुसे] विविक्त भावरूप व्यापार करता हुआ, और किसी कारणसे ग्राह्यका
त्याग हो जानेपर और त्याज्यका ग्रहण हो जानेपर उसके प्रतिविधानका अभिप्राय करता हुआ, जिस
काल और जितने काल तक विशिष्ट भावनासौष्ठवके कारण स्वभावभूत सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रके
साथ अंग–अंगीभावसे परिणति द्वारा
[सविकल्प] जीवको निःशंकता–निःकांक्षा–निर्विचिकित्सादि भावरूप, स्वाध्याय–विनयादि भावरूप और
निरतिचार व्रतादि भावरूप व्यापार भूमिकानुसार होते हैं तथा किसी कारण उपादेय भावोंका [–व्यवहारसे
ग्राह्य भावोंका] त्याग हो जाने पर और त्याज्य भावोंका उपादान अर्थात् ग्रहण हो जाने पर उसके
प्रतिकाररूपसे प्रायश्चित्तादि विधान भी होता है।]
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तस्मिन् तावति काले अयमेवात्मा जीवस्वभावनियतचरितत्वान्निश्चयेन मोक्षमार्ग इत्युच्यते। अतो
निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गयोः साध्यसाधनभावो नितरामुपपन्न।। १६१।।
विराम प्राप्त होनेसे [अर्थात् भेदभावरूप–खंडभावरूप व्यापार रुक जानेसे] सुनिष्कम्परूपसे रहता है,
उस काल और उतने काल तक यही आत्मा जीवस्वभावमें नियत चारित्ररूप होनेके कारण निश्चयसे
‘मोक्षमार्ग’ कहलाता है। इसलिये, निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्गको साध्य–साधनपना अत्यन्त
घटता है।
जीव कथंचित् [–किसी प्रकार, निज उद्यमसे] अपने संवेदनमें आनेवाली अविद्याकी वासनाके विलय
द्वारा प्राप्त होता हुआ, जब गुणस्थानरूप सोपानके क्रमानुसार निजशुद्धात्मद्रव्यकी भावनासे उत्पन्न
नित्यानन्दलक्षणवाले सुखामृतके रसास्वादकी तृप्तिरूप परम कलाके अनुभवके कारण निजशुद्धात्माश्रित
निश्चयदर्शनज्ञानचारित्ररूपसे अभेदरूप परिणमित होता है, तब निश्चयनयसे भिन्न साध्य–साधनके
अभावके कारण यह आत्मा ही मोक्षमार्ग है। इसलिये ऐसा सिद्ध हुआ कि सुवर्ण और सुवर्णपाषाणकी
भाँति निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्गको साध्य–साधकपना [व्यवहारनयसे] अत्यन्त घटित होता
है।। १६१।।
२। यहाँ यह ध्यानमें रखनेयोग्य है कि जीव व्यवहारमोक्षमार्गको भी अनादि अविद्याका नाश करके ही प्राप्त कर
शुद्धात्मस्वरूपका भान करनेसे पूर्व तो] व्यवहारमोक्षमार्ग भी नहीं होता।
‘छठवें गुणस्थानमें वर्तनेवाले शुभ विकल्पोंको नहीं किन्तु छठवें गुणस्थानमें वर्तनेवाले शुद्धिके अंशकोे और
सातवें गुणस्थानयोग्य निश्चयमोक्षमार्गको वास्तवमें साधन–साध्यपना है।’ छठवें गुणस्थानमें वर्तनेवाले शुद्धिका
अंश बढ़कर जब और जितने काल तक उग्र शुद्धिके कारण शुभ विकल्पोंका अभाव वर्तता है तब और उतने
काल तक सातवें गुणस्थानयोग्य निश्चयमोक्षमार्ग होता है।
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सो चारित्तं णाणं दंसणमिदि णिच्छिदो होदि।। १६२।।
स चारित्रं ज्ञानं दर्शनमिति निश्चितो भवति।। १६२।।
ही] [चारित्रं] चारित्र है, [ज्ञानं] ज्ञान है, [दर्शनम्] दर्शन है–[इति] ऐसा [निश्चितः भवति]
निश्चित है।
परिणमित होकर अनुसरता है], [अनन्यमय आत्माको ही] आत्मासे जानता है अर्थात्
स्वपरप्रकाशकरूपसे चेतता है, [अनन्यमय आत्माको ही] आत्मासे देखता है अर्थात् यथातथरूपसे
ते जीव दर्शन, ज्ञान ने चारित्र छे निश्चितपणे। १६२।
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अतश्चारित्रज्ञानदर्शनरूपत्वाज्जीवस्वभावनियतचरितत्वलक्षणं निश्चयमोक्षमार्गत्वमात्मनो
नितरामुपपन्नमिति।। १६२।।
इदि तं जाणदि भविओ अभवियसत्तो ण सद्दहदि।। १६३।।
अभेदके कारण निश्चित है। इससे [ऐसा निश्चित हुआ कि] चारित्र–ज्ञान–दर्शनरूप होनेके कारण
आत्माको जीवस्वभावनियत चारित्र जिसका लक्षण है ऐसा निश्चयमोक्षमार्गपना अत्यन्त घटित होता है
[अर्थात् आत्मा ही चारित्र–ज्ञान–दर्शन होनेके कारण आत्मा ही ज्ञानदर्शनरूप जीवस्वभावमें द्रढ़रूपसे
स्थित चारित्र जिसका स्वरूप है ऐसा निश्चयमोक्षमार्ग है]।। १६२।।
[इति तद्] ऐसा [भव्यः जानाति] भव्य जीव जानता है, [अभव्यसत्त्वः न श्रद्धत्ते] अभव्य जीव श्रद्धा
नहीं करता।
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ततस्तद्धेतुकस्यानाकुलत्वलक्षणस्य परमार्थसुखस्य मोक्षेऽनुभूतिरचलिताऽस्ति। इत्येतद्भव्य एव
भावतो विजानाति, ततः स एव मोक्षमार्गार्हः। नैतदभव्यः श्रद्धत्ते, ततः स मोक्षमार्गानर्ह एवेति। अतः
कतिपये एव संसारिणो मोक्षमार्गार्हा न सर्व एवेति।। १६३।।
वास्तवमें आत्मा सर्वको जानता और देखता होनेसे उसका अभाव होता है [अर्थात् मोक्षमें स्वभावकी
प्रतिकूलताका अभाव होता है]। इसलिये उसका अभाव जिसका कारण है ऐसे
भावसे जानता है, इसलिये वही मोक्षमार्गके योग्य है; अभव्य जीव इस प्रकार श्रद्धा नहीं करता,
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साधूहि इदं भणिदं तेहिं
साधुभिरिदं भणितं तैस्तु बन्धो वा मोक्षो वा।। १६४।।।
कृशानु–संवलितानीव घृतानि कथञ्चिद्विरुद्धकारणत्वरूढेर्बन्धकारणान्यपि
तु] परन्तु उनसे [बन्धः वा] बन्ध भी होता है और [मोक्षः वा] मोक्ष भी होता है।
व्याप्तिके कारण बन्धकारण भी है। और जब वे
किंचित् भी परसमयप्रवृतिसे युक्त हो तो, उनसे [कथंचित्] बन्ध भी होता है।
२। परसमयप्रवृत्तियुक्त दर्शन–ज्ञान–चारित्रमें कथंचित् मोक्षरूप कार्यसे विरुद्ध कार्यका कारणपना [अर्थात् बन्धरूप
दृग, ज्ञान ने चारित्र छे शिवमार्ग तेथी सेववां
–संते कह्युं, पण हेतु छे ए बंधना वा मोक्षना। १६४।
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निवृत्तकृशानुसंवलनानीव घृतानि विरुद्धकार्यकारणभावाभावात्साक्षान्मोक्षकारणान्येव
भवन्ति। ततः स्वसमयप्रवृत्तिनाम्नो जीवस्वभावनियतचरितस्य साक्षान्मोक्षमार्गत्वमुपपन्न–मिति।।१६४।।
भवतीति दुःखमोक्षः परसमयरतो भवति जीवः।। १६५।।
हैं तब, जिसे अग्निके साथका मिलितपना निवृत्त हुआ है ऐसे घृतकी भाँति, विरुद्ध कार्यका कारणभाव
निवृत्त हो गया होनेसे साक्षात् मोक्षका कारण ही है। इसलिये ‘स्वसमयप्रवृत्ति’ नामका जो
जीवस्वभावमें नियत चारित्र उसे साक्षात् मोक्षमार्गपना घटित होता है ।। १६४।।
वह [परसमयरतः जीवः] परसमयरत जीव [भवति] है। [‘अर्हंतादिके प्रति भक्ति–अनुरागवाली
मंदशुद्धिसे भी क्रमशः मोक्ष होता है’ इस प्रकार यदि अज्ञानके कारण [–शुद्धात्मसंवेदनके अभावके
कारण, रागांशकेे कारण] ज्ञानीको भी [मंद पुरुषार्थवाला] झुकाव वर्ते, तो तब तक वह भी सूक्ष्म
परसमयमें रत है।]
शास्त्रोमें आनेवाले ऐसे भिन्नभिन्न पद्धतिनके कथनोंको सुलझाते हुए यह सारभूत वास्तविकता ध्यानमें रखनी
चाहिये कि –ज्ञानीको जब शुद्धाशुद्धरूप मिश्रपर्याय वर्तती है तब वह मिश्रपर्याय एकांतसे संवर–निर्जरा–मोक्षके
कारणभूत नहीं होती , अथवा एकांतसे आस्रव–बंधके कारणभूत नहीं होती, परन्तु उस मिश्रपर्यायका शुद्ध
अंश संवर–निर्जरा–मोक्षके कारणभूत होता है और अशुद्ध अंश आस्रव–बंधके कारणभूत होता है।]
१। इस निरूपणके साथ तुलना करनेके लिये श्री प्रवचनसारकी ११ वीं गाथा और उसकी तत्त्वप्रदीपिका टीका
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त्यभिप्रायेण खिद्यमानस्तत्र प्रवर्तते तदा तावत्सोऽपि रागलवसद्भावात्परसमयरत इत्युपगीयते। अथ
न किं पुनर्निरङ्कुशरागकलिकलङ्कितान्तरङ्गवृत्तिरितरो जन इति।। १६५।।
ही]
२। अज्ञानलव = किन्चित् अज्ञान; अल्प अज्ञान।
३। रागलव = किन्चित् राग; अल्प राग।
५। इस गाथाकी श्री जयसेनाचार्यदेवकृत टीकामें इस प्रकार विवरण हैः–
पंचपरमेष्ठीके प्रति गुणस्तवनादि भक्ति करता है, तब वह सूक्ष्म परसमयरूपसे परिणत वर्तता हुआ सराग
सम्यग्द्रष्टि हैे; और यदि वह पुरुष शुद्धात्मभावनामें समर्थ होने पर भी उसे [शुद्धात्मभावनाको] छोड़कर
‘शुभोपयोगसे ही मोक्ष होता है ऐसा एकान्त माने, तो वह स्थूल परसमयरूप परिणाम द्वारा अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि
होता है।
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बंधदि पुण्णं बहुसो ण हु सो कम्मक्खयं कुणदि।। १६६।।
बध्नाति पुण्यं बहुशो न खलु स कर्मक्षयं करोति।। १६६।।
पुण्यं बध्नाति] बहुत पुण्य बांधता है, [न खलु सः कर्मक्षयं करोति] परन्तु वास्तवमें वह कर्मोंका क्षय
नहीं करता।
नहीं है ऐसा यहाँ दर्शाया है]। अर्हंतादिके प्रति भक्तिसम्पन्न जीव, कथंचित् ‘शुद्धसम्प्रयोगवाला’
होने पर भी, रागलव जीवित [विद्यमान] होनेसे ‘शुभोपयोगीपने’ को नहीं छोड़ता हुआ, बहुत
क्योंकि अशुद्धिरूप अंश है।]
३। सिद्धिके निमित्तभूत ऐसे जो अर्हंन्तादि उनके प्रति भक्तिभावको पहले शुद्धसम्प्रयोग कहा गया है। उसमें ‘शुद्ध’
प्रयोग होता है उसी प्रकार यहाँ ‘शुद्ध’ शब्दका प्रयोग हुआ है।]
जिन–सिद्ध–प्रवचन–चैत्य–मुनिगण–ज्ञाननी भक्ति करे,
ते पुण्यबंध लहे घणो, पण कर्मनो क्षय नव करे। १६६।
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परसमयप्रवृत्तिनिबन्धनत्वादिति।। १६६।।
परिहरनेयोग्य है, क्योंकि वह परसमयप्रवृत्तिका कारण है।। १६६।।
हो तथापि, [स्वकस्य समयं न विजानाति] स्वकीय समयको नहीं जानता [–अनुभव नहीं
करता]।
कणिका भी हृदयमें जीवित है वह, भले समस्त सिद्धांतसागरका पारंगत हो तथापि, निरुपराग–
शुद्धस्वरूप स्वसमयको वास्तवमें नहीं चेतता [–अनुभव नहीं करता]।
हो सर्वआगमधर भले जाणे नहीं स्वक–समयने। १६७।
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रागरेणुरपसारणीय इति।। १६७।।
रोधस्तस्य न विद्यते शुभाशुभकृतस्य कर्मणः।। १६८।।
रागपरिणतिके बिना नहीं होती। रागादिपरिणति होने पर, आत्मा बुद्धिप्रसार रहित [–चित्तके
भ्रमणसे रहित] अपनेको किसी प्रकार नहीं रख सकता ;
अर्हंतादि–विषयक भी रागरेणु [–अर्हंतादिके ओरकी भी रागरज] क्रमशः दूर करनेयोग्य है।। १६७।।
कर्मणः] शुभाशुभ कर्मका [रोधः न विद्यते] निरोध नहीं है।
सा भी राग स्वसमयकी उपलब्धिरूप कार्यमें विघ्न करता है।
शुभ वा अशुभ कर्मो तणो नहि रोध छे ते जीवने। १६८।
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एवायमनर्थसन्तान इति।। १६८।।
सिद्धेसु कुणदि भत्तिं णिव्वाणं तेण पप्पोदि।। १६९।।
सिद्धेषु करोति भक्तिं निर्वाणं तेन प्राप्नोति।। १६९।।
समस्तविभावरूप बुद्धिप्रसार रोका नहीं जा सकता और यह नहीं रुकनेसे [अर्थात् बुद्धिप्रसारका निरोध नहीं
होनेसे] शुभाशुभ कर्मका संवर नहीं होता; इसलिए ऐसा सिद्ध हुआ कि समस्त अनर्थपरम्पराओंका
रागादिविकल्प ही मूल है।
इसलिए, इस अनर्थसंततिका मूल रागरूप क्लेशका विलास ही है।
पारमार्थिक सिद्धभक्ति] [करोति] करता है, [तेन] इसलिए वह [निर्वाणं प्राप्नोति] निर्वाणको प्राप्त
करता है।
ते कारणे मोक्षेच्छु जीव असंग ने निर्मम बनी
सिद्धो तणी भक्ति करे, उपलब्धि जेथी मोक्षनी। १६९।
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कर्मबन्धमूलचित्तोद्भ्रान्तिमूलभूता रागाद्यनुवृत्तिरेकान्तेन निःशेषीकरणीया। निः–शेषितायां तस्यां
प्रसिद्धनैःसङ्गयनैर्मम्यः शुद्धात्मद्रव्यविश्रान्तिरूपां पारमार्थिकीं सिद्धभक्तिमनुबिभ्राणः
प्रसिद्धस्वसमयप्रवृत्तिर्भवति। तेन कारणेन स एव निः–शेषितकर्मबन्धः सिद्धिमवाप्नोतीति।। १६९।।
[पहले] कहा गया, इसलिए मोक्षार्थीको कर्मबन्धका मूल ऐसा जो चित्तका भ्रमण उसके मूलभूत
रागादिपरिणतिका एकान्त निःशेष नाश करनेयोग्य है। उसका निःशेष नाश किया जानेसे, जिसे
कर्मबन्धका निःशेष नाश करके सिद्धिको प्राप्त करता है।। १६९।।
२। रागादि–उपाधिरहित चैतन्यप्रकाश जिसका लक्षण है ऐसे आत्मतत्त्वसे विपरीत मोहोदय जिसकी उत्पत्तिमें
है इसलिए स्वसमयप्रवृत्तिके कारण वही जीव कर्मबन्धका क्षय करके मोक्षको प्राप्त करता है, अन्य नहीं।]
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दूरतरं णिव्वाणं संजमतवसंपउत्तस्स।। १७०।।
दूरतरं निर्वाणं संयमतपःसम्प्रयुक्तस्य।। १७०।।
सूत्रोंके प्रति जिसे रुचि [प्रीति] वर्तती है, उस जीवको [निर्वाणं] निर्वाण [दूरतरम्] दूरतर
[विशेष दूर] है।
तो मात्र देवलोकादिके क्लेशकी परम्पराका ही हेतु है और साथ ही साथ ज्ञानीको जो [मंदशुद्धिरूप] शुद्ध
अंश परिणमित होता है वह संवरनिर्जराका तथा [उतने अंशमें] मोक्षका हेतु है। वास्तवमें ऐसा होने पर भी,
शुद्ध अंशमें स्थित संवर–निर्जरा–मोक्षहेतुत्वका आरोप उसके साथके भक्ति–आदिरूप शुभ अंशमें करके उन
शुभ भावोंको देवलोकादिके क्लेशकी प्राप्तिकी परम्परा सहित मोक्षप्राप्तिके हेतुभूत कहा गया है। यह कथन
आरोपसे [उपचारसे] किया गया है ऐसा समझना। [ऐसा कथंचित् मोक्षहेतुत्वका आरोप भी ज्ञानीको ही
वर्तनेवाले भक्ति–आदिरूप शुभ भावोंमें किया जा सकता है। अज्ञानीके तो शुद्धिका अंशमात्र भी परिणमनमें नहीं
होनेसे यथार्थ मोक्षहेतु बिलकुल प्रगट ही नहीं हुआ है–विद्यमान ही नहींं है तो फिर वहाँ उसके भक्ति–
आदिरूप शुभ भावोंमें आरोप किसका किया जाय?]
सूत्रो, पदार्थो, जिनवरो प्रति चित्तमां रुचि जो रहे। १७०।
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समयप्रवृत्तिं परित्यक्तुं नोत्सहते, स खलु न नाम साक्षान् मोक्षं लभते किन्तु सुरलोकादि–
कॢेशप्राप्तिरूपया परम्परया तमवाप्नोति।। १७०।।
जो कुणदि तवोकम्मं सो सुरलोगं समादियदि।। १७१।।
होनेसे, ‘धुनकी को चिपकी हुई रूई’के न्यायसे, नव पदार्थों तथा अर्हंतादिकी रुचिरूप [प्रीतिरूप]
परसमयप्रवृत्तिका परित्याग नहीं कर सकता, वह जीव वास्तवमें साक्षात् मोक्षको प्राप्त नहीं करता
किन्तु देवलोकादिके क्लेशकी प्राप्तिरूप परम्परा द्वारा उसे प्राप्त करता है।। १७०।।
प्रतिपादन करनेवाले आगमोंके प्रति रुचि [प्रीति] करता है, कदाचित् [जिस प्रकार कोई रामचन्द्रादि पुरुष
देशान्तरस्थित सीतादि स्त्री के पाससे आए हुए मनुष्योंको प्रेमसे सुनता है, उनका सन्मानादि करता है और
उन्हें दान देता है उसी प्रकार] निर्दोष–परमात्मा तीर्थंकरपरमदेवोंके और गणधरदेव–भरत–सगर–राम–
पांडवादि महापुरुषोंके चरित्रपुराण शुभ धर्मानुरागसे सुनता है तथा कदाचित् गृहस्थ–अवस्थामें
भेदाभेदरत्नत्रयपरिणत आचार्य–उपाध्याय–साधुनके पूजनादि करता है और उन्हें दान देता है –इत्यादि शुभ
भाव करता है। इस प्रकार जो ज्ञानी जीव शुभ रागको सर्वथा नहीं छोड़ सकता, वह साक्षात् मोक्षको प्राप्त
नहीं करता परन्तु देवलोकादिके क्लेशकी परम्पराको पाकर फिर चरम देहसे निर्विकल्पसमाधिविधान द्वारा
विशुद्धदर्शनज्ञानस्वभाववाले निजशुद्धात्मामें स्थिर होकर उसे [मोक्षको] प्राप्त करता है।]
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यः करोति तपःकर्म स सुरलोकं समादत्ते।। १७१।।
समासाद्य, सुचिरं रागाङ्गारैः पच्यमानोऽन्तस्ताम्यतीति।। १७१।।
सो तेण वीदरागो
संयम सहित [तपःकर्म] तपकर्म [–तपरूप कार्य] [करोति] करता है, [सः] वह [सुरलोकं]
देवलोकको [समादत्ते] सम्प्राप्त करता है।
[–मलिन] है ऐसा वर्तता हुआ, विषयविषवृक्षके
पर्यंत [–बहुत लम्बे काल तक] रागरूपी अंगारोंसे दह्यमान हुआ अन्तरमें संतप्त [–दुःखी, व्यथित]
होता है।। १७१।।
२। आमोद = [१] सुगंध; [२] मोज।
वीतराग थईने ए रीते ते भव्य भवसागर तरे। १७२।
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स तेन वीतरागो भव्यो भवसागरं तरति।। १७२।।
महाजनः समस्तविषयमपि रागमुत्सृज्यात्यन्तवीतरागो भूत्वा समुच्छलज्ज्वलद्दुःखसौख्यकल्लोलं
कर्माग्नितप्तकलकलोदभारप्राग्भारभयङ्करं भवसागरमुत्तीर्य, शुद्धस्वरूपपरमामृतसमुद्रमध्यास्य सद्यो
निर्वाति।।
समझकर, साक्षात् मोक्षका अभिलाषी महाजन सभी की ओरसे रागको छोड़कर, अत्यन्त वीतराग
होकर, जिसमें उबलती हुई दुःखसुखकी कल्लोलें ऊछलती है और जो कर्माग्नि द्वारा तप्त, खलबलाते
जलसमूहकी अतिशयतासे भयंकर है ऐसे भवसागरको पार उतरकर, शुद्धस्वरूप परमामृतसमुद्रको
अवगाहकर, शीघ्र निर्वाणको प्राप्त करता है।
[वीतरागः] वीतराग होकर [भवसागरं तरति] भवसागरको तरता है।
अत्यन्त अन्तरंग जलनका कारण होता है।]