Page -8 of 264
PDF/HTML Page 21 of 293
single page version
व्यवहारको उपचारमात्र मानकर उसके द्वारा वस्तुका श्रद्धान बराबर किया जावे तो वह कार्यकारी
हो, और यदि निश्चयकी भाँति व्यवहार भी सत्यभूत मानकर ‘वस्तु ऐसी ही है’ ऐसा श्रद्धान किया
जावे तो वह उल्टा अकार्यकारी हो जाये। यही पुरुषार्थसिद्धयुपायमें कहा हैः–
व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति।।
माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य।
व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य।।
सच्चे सिंहको न समझता उसे तो बिलाव ही सिंह है, उसी प्रकार जो निश्चयको नहीं समझता
उसके तो व्यवहार ही निश्चयपनेको प्राप्त होता है।
Page -7 of 264
PDF/HTML Page 22 of 293
single page version
कथन किया था तदनुसार तो वे निश्चयका अंगीकार करते हैं और जिस प्रकार केवलव्यवहाराभासके
अवलिम्बयोंका कथन किया था तदनुसार व्यवहारका अंगीकार करते हैं। यद्यपि इस प्रकार अंगीकार
करनेमें दोनों नयोंमें विरोध है, तथापि करें क्या? दोनों नयोंका सच्चा स्वरूप तो भासित हुआ नहीं
है और जिनमतमें दो नय कहे हैं उनमेंसे किसीको छोड़ा भी नहीं जाता। इसलिये भ्रमपूर्वक दोनों
नयोकां साधन साधते हैं। उन जीवोंको भी मिथ्याद्रष्टि जानना।
कहीं दो हैं नहीं, मोक्षमार्गका निरूपण दो प्रकारसे है। जहाँं सच्चे मोक्षमार्गको मोक्षमार्ग निरूपण
किया है वह निश्चयमोक्षमार्ग है, और जहाँंं मोक्षमार्ग तो है नहीं किन्तु मोक्षमार्गका निमित्त हैे अथवा
सहचारी है, उसे उपचारसे मोक्षमार्ग कहें वह व्यवहारमोक्षमार्ग है; क्योंकि निश्चय–व्यवहारका सर्वत्र
ऐसा ही लक्षण है। सच्चा निरूपण सो निश्चय, उपचार निरूपण सो व्यवहार। इसलिये निरूपणकी
अपेक्षासे दो प्रकासे मोक्षमार्ग जानना। परंतु एक निश्चयमोक्षमार्ग है तथा एक व्यवहारमोक्षमार्ग है इस
प्रकार दो मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है।
Page -6 of 264
PDF/HTML Page 23 of 293
single page version
उसका कथन करने सम्बन्धी
अभाव
का उत्पाद नहीं होता उसका
होने
विभाग
सामान्य
कथन
प्रकार
द्रव्य–
होनेपर
होनेका
Page -5 of 264
PDF/HTML Page 24 of 293
single page version
विषय
से पृथकत्व तथा देहान्तरमें गमन का
पूर्वक, द्रव्य और गुणोंके अभिन्न–
प्रमाणत्वकी व्यवस्था
Page -4 of 264
PDF/HTML Page 25 of 293
single page version
विषय
अकर्तापना
Page -3 of 264
PDF/HTML Page 26 of 293
single page version
विषय
सम्बन्धी
सूचना
कथन
अभाव
स्वरूप
कहकर
Page -2 of 264
PDF/HTML Page 27 of 293
single page version
विषय
२७
३०
सूचना
Page -1 of 264
PDF/HTML Page 28 of 293
single page version
विषय
नियत
Page 0 of 264
PDF/HTML Page 29 of 293
single page version
कामदं मोक्षदं चैव
मुनिभिरुपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान्।। २ ।।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।। ३ ।।
भव्यजीवमनःप्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं
श्री पंचास्तिकायनामधेयं, अस्य मूलग्रन्थकर्तारः
श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तारः श्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां
वचनानुसारमासाद्य आचार्यश्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवविरचितं, श्रोतारः
सावधानतया श्रृणवन्तु।।
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्।। ९ ।।
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम्।। २ ।।
Page 1 of 264
PDF/HTML Page 30 of 293
single page version
नमोऽनेकान्तविश्रान्तमहिम्ने परमात्मने।। १।।
‘पंचास्तिकायसंग्रह’ नामक शास्त्रकी ‘समयव्याख्या’ नामक संस्कृत टीका रचनेवाले आचार्य श्री
अमृतचन्द्राचार्यदेव श्लोक द्वारा मंगलके हेतु परमात्माको नमस्कार करते हैंः––
Page 2 of 264
PDF/HTML Page 31 of 293
single page version
स्यात्कारजीविता जीयाज्जैनी सिद्धान्तपद्धतिः।। २।।
सम्यग्ज्ञानामलज्योतिर्जननी द्विनयाश्रया।
अथातः समयव्याख्या संक्षेपेणाऽभिधीयते।। ३।।
२ ़ दुर्निवार = निवारण करना कठिन; टालना कठिन।
३ ़ प्रत्येक वस्तु नित्यत्व, अनित्यत्व आदि अनेक अन्तमय [धर्ममय] है। वस्तुकी सर्वथा नित्यता तथा सर्वथा
पर्याय– अपेक्षासे] अनित्यता माननेमें किंचित विरोध नहींं आता–ऐसा जिनवाणी स्पष्ट समझाती है। इसप्रकार
जिनभगवानकी वाणी स्याद्वाद द्वारा [अपेक्षा–कथनसे] वस्तुका परम यथार्थ निरूपण करके, नित्यत्व–
अनित्यत्वादि धर्मोंमें [तथा उन–उन धर्मोंको बतलानेवाले नयोंमें] अविरोध [सुमेल] अबाधितरूपसे सिद्ध
करती है और उन धर्मोंके बिना वस्तुकी निष्पत्ति ही नहीं हो सकती ऐसा निर्बाधरूपसे स्थापित करती है।
४ ़ समयव्याख्या = समयकी व्याख्या; पंचास्तिकायकी व्याख्या; द्रव्यकी व्याख्या; पदार्थकी व्याख्या।
[व्याख्या = व्याख्यान; स्पष्ट कथन; विवरण; स्पष्टीकरण।]
Page 3 of 264
PDF/HTML Page 32 of 293
single page version
पूर्वं मूलपदार्थानामिह सूत्रकृता कृतम्।। ४।।
ततोनवपदार्थानां व्यवस्था प्रतिपादिता।। ५।।
ततस्तत्त्वपरिज्ञानपूर्वेण त्रितयात्मना।
प्रोक्ता मार्गेण कल्याणी मोक्षप्राप्तिरपश्चिमा।। ६।।
पदार्थोंका पाँच अस्तिकाय और छह द्रव्यकी पद्धतिसे निरूपण किया है]। [४]
[५]
मार्गसे] कल्याणस्वरूप उत्तम मोक्षप्राप्ति कही है। [६]
करते हुए लिखते हैं किः–– ‘अब श्री कुमारनंदी–सिद्धांतिदेवके शिष्य श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवने–
जिनके दूसरे नाम पद्मनंदी आदि थे उन्होंने – प्रसिद्धकथान्यायसे पूर्वविदेहमें जाकर वीतराग–
सर्वज्ञ सीमंधरस्वामी तीर्थंकरपरमदेवके दर्शन करके, उनके मुखकमलसे नीकली हुई दिव्य वाणीके
श्रवणसे अवधारित पदार्थ द्वारा शुद्धात्मतत्त्वादि सारभूत अर्थ ग्रहण करके, वहाँसे लौटकर
अंतःतत्त्व एवं बहिःतत्त्वके गौण–मुख्य प्रतिपादनके हेतु अथवा शिवकुमारमहाराजादि संक्षेपरुचि
शिष्योंके प्रतिबोधनार्थ रचे हुए पंचास्तिकायप्राभृतशास्त्रका यथाक्रमसे अधिकारशुद्धिपूर्वक
तात्पर्यार्थरूप व्याख्यान किया जाता है।
Page 4 of 264
PDF/HTML Page 33 of 293
single page version
अंतातीदगुणाणं णमो जिणाणं जिदभवाणं।। १।।
अन्तातीतगुणेभ्यो नमो जिनेभ्यो जितभवेभ्यः।। १।।
[चैतन्यके अनन्त विलासस्वरूप] अनन्त गुण जिनको वर्तता है और [जितभवेभ्यः] जिन्होंने भव पर
विजय प्राप्त की है, [जिनेभ्यः] उन जिनोंको [नमः] नमस्कार हो।
और तिर्यंचोंका १– इसप्रकार कुल १०० इन्द्र अनादि प्रवाहरूपसें चले आरहे हैं ।
Page 5 of 264
PDF/HTML Page 34 of 293
single page version
जीवलोकस्तस्मै निर्व्योबाधविशुद्धात्मतत्त्वोपलम्भो–पायाभिधायित्वाद्धितं
परमार्थरसिकजनमनोहारित्वान्मधुरं, निरस्तसमस्तशंकादिदोषास्पदत्वाद्वि–शदं वाक्यं दिव्यो
ध्वनिर्येषामित्यनेन समस्तवस्तुयाथात्म्योपदेशित्वात्प्रेक्षावत्प्रतीक्ष्यत्वमाख्यातम्। अन्तमतीतः
क्षेत्रानवच्छिन्नः कालानवच्छिन्नश्च परमचैतन्यशक्तिविलासलक्षणो गुणो येषामित्यनेन तु
परमाद्भुतज्ञानातिशयप्रकाशनादवाप्तज्ञानातिशयानामपि योगीन्द्राणां वन्धत्वमुदितम्। जितो भव
आजवंजवो यैरित्यनेन तु कुतकृत्यत्वप्रकटनात्त एवान्येषामकृतकृत्यानां शरणमित्युपदिष्टम्। इति
सर्वपदानां तात्पर्यम्।। १।।
‘जिनकी वाणी अर्थात दिव्यध्वनि तीन लोकको –ऊर्ध्व–अधो–मध्य लोकवर्ती समस्त जीवसमुहको–
निर्बाध विशुद्ध आत्मतत्त्वकी उपलब्धिका उपाय कहनेवाली होनेसे हितकर है, परमार्थरसिक जनोंके
मनको हरनेवाली होनेसे मधुर है और समस्त शंकादि दोषोंके स्थान दूर कर देनेसे विशद [निर्मल,
स्पष्ट] है’ ––– ऐसा कहकर [जिनदेव] समस्त वस्तुके यथार्थ स्वरूपके उपदेशक होनेसे
विचारवंत बुद्धिमान पुरुषोंके बहुमानके योग्य हैं [अर्थात् जिनका उपदेश विचारवंत बुद्धिमान पुरुषोंको
बहुमानपूर्वक विचारना चाहिये ऐसे हैं] ऐसा कहा। ‘अनन्त–क्षेत्रसे अन्त रहित और कालसे अन्त
रहित–––परमचैतन्यशक्तिके विलासस्वरूप गुण जिनको वर्तता है’ ऐसा कहकर [जिनोंको] परम
अदभुत ज्ञानातिशय प्रगट होनेके कारण ज्ञानातिशयको प्राप्त योगन्द्रोंसे भी वंद्य है ऐसा कहा। ‘भव
अर्थात् संसार पर जिन्होंने विजय प्राप्त की है’ ऐसा कहकर कृतकृत्यपना प्रगट हो जानेसे वे
ही [जिन ही] अन्य अकृतकृत्य जीवोंको शरणभूत हैं ऐसा उपदेश दिया।– ऐसा सर्व पदोंका तात्पर्य
है।
क्योंकि देवों तथा असुरोंमें युद्ध होता है इसलिए [देवाधिदेव जिनभगवानके अतिरिक्त] अन्य कोई भी
देव सौ इन्द्रोंसे वन्दित नहीं है। [२] दूसरे, जिनभगवानकी वाणी तीनलोकको शुद्ध आत्मस्वरूपकी
प्राप्तिका उपाय दर्शाती है इसलिए हितकर है; वीतराग निर्विकल्प समाधिसे उत्पन्न सहज –अपूर्व
परमानन्दरूप पारमार्थिक सुखरसास्वादके रसिक जनोंके मनको हरती है इसलिए [अर्थात् परम
समरसीभावके रसिक जीवोंको मुदित करती है इसलिए] मधुर है;
Page 6 of 264
PDF/HTML Page 35 of 293
single page version
विभ्रम रहित निरूपण क्रती है इसलिए अथवा पूर्वापरविरोधादि दोष रहित होनेसे अथवा युगपद् सर्व
जीवोंको अपनी–अपनी भाषामें स्पष्ट अर्थका प्रतिपादन करती है इसलिए विशद–स्पष्ट– व्यक्त है।
इसप्रकार जिनभगवानकी वाणी ही प्रमाणभूत है; एकान्तरूप अपौरुषेय वचन या विचित्र कथारूप
कल्पित पुराणवचन प्रमाणभूत नहीं है। [३] तीसरे, अनन्त द्रव्य–क्षेत्र–काल–भावका जाननेवाला
अनन्त केवलज्ञानगुण जिनभगवन्तोंको वर्तता है। इसप्रकार बुद्धि आदि सात ऋद्धियाँ तथा
मतिज्ञानादि चतुर्विध ज्ञानसे सम्पन्न गणधरदेवादि योगन्द्रोंसे भी वे वंद्य हैं। [४] चौथे, पाँच प्रकारके
संसारको जिनभगवन्तोंने जीता है। इसप्रकार कृतकृत्यपनेके कारण वे ही अन्य अकृतकृत्य जीवोंको
शरणभूत है, दूसरा कोई नहीं।–
ऐसा कहा है।
Page 7 of 264
PDF/HTML Page 36 of 293
single page version
सर्वज्ञवीतरागाः। अर्थः पुनरनेकशब्दसंबन्धेनाभिधीयमानो वस्तुतयैकोऽभिधेय। सफलत्वं तु चतसृणां
और [सनिर्वाणम्] निर्वाण सहित [–निर्वाणके कारणभूत] – [इमं समयं] ऐसे इस समयको
[शिरसा प्रणम्य] शिरसा नमन करके [एषवक्ष्यामि] मैं उसका कथन करता हूँ; [श्रृणुत] वह
श्रवण करो।
है, क्योंकि वह
सर्वज्ञवीतरागदेव; और ‘अर्थ’ अर्थात् अनेक शब्दोंके सम्बन्धसे कहा जानेवाला, वस्तुरूपसे एक ऐसा
पदार्थ। पुनश्च उसकी [–समयकी] सफलता इसलिए है कि जिससे वह समय
हैं और वे वीतराग [मोहरागद्वेषरहित] होनेके कारण उन्हें असत्य कहनेका लेशमात्र प्रयोजन नहीं रहा है;
इसलिए वीतराग–सर्वज्ञदेव सचमुच आप्त हैं। ऐसे आप्त द्वारा आगम उपदिष्ट होनेसे वह [आगम] सफल
हैं।]
जिनवदननिर्गत–अर्थमय, चउगतिहरण, शिवहेतु छे। २।
Page 8 of 264
PDF/HTML Page 37 of 293
single page version
शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भरूपस्य परम्परया कारणत्वात् स्वातंक्र्यप्राप्तिलक्षणस्य च फलस्य सद्भावादिति।।
२।।
परतंत्रतानिवृति जिसका लक्षण है और [२] स्वतंत्रताप्राप्ति जिसका लक्षण है –– ऐसे
भावार्थः– वीतरागसर्वज्ञ महाश्रमणके मुखसे नीकले हुए शब्दसमयको कोई आसन्नभव्य पुरुष
वाले शुद्धजीवास्तिकायस्वरूप अर्थमें [पदार्थमें] वीतराग निर्विकल्प समाधि द्वारा स्थित रहकर चार
गतिका निवारण करके, निर्वाण प्राप्त करके, स्वात्मोत्पन्न, अनाकुलतालक्षण, अनन्त सुखको प्राप्त
करता है। इस कारणसे द्रव्यागमरूप शब्दसमय नमस्कार करने तथा व्याख्यान करने योग्य है।।२।।
ते लोक छे, आगळ अमाप अलोक आभस्वरूप छे। ३।
Page 9 of 264
PDF/HTML Page 38 of 293
single page version
परिच्छेदो ज्ञानसमयो ज्ञानगम इति यावत्। तेषामेवाभिधानप्रत्ययपरिच्छिन्नानां वस्तुरूपेण समवायः
संधातोऽर्थसमयः सर्वपदार्थसार्थ इति यावत्। तदत्र ज्ञानसमयप्रसिद्धयर्थ शब्दसमयसम्बन्धेनार्थसमय
ोऽभिधातुमभिप्रेतः। अथ तस्यैवार्थसमयस्य द्वैविध्यं लोकालोक–विकल्पात्।
[जिनोत्तमैः प्रज्ञप्तम्] जिनवरोंने कहा है। [सः च एव लोकः भवति] वही लोक है। [–पाँच
अस्तिकायके समूह जितना ही लोक है।]; [ततः] उससे आगे [अमितः अलोकः] अमाप अलोक
[खम्] आकाशस्वरूप है।
कहा है।
[–रागद्वेषसे विकृत नहीं हुआ] पाठ [–मौखिक या शास्त्रारूढ़ निरूपण] वह शब्दसमय है, अर्थात्
शब्दागम वह शब्दसमय है। [२] मिथ्यादर्शनके उदयका नाश होने पर, उस पंचास्तिकायका ही
सम्बन्धसे अर्थसमयका कथन [श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव] करना चाहते हैं।
समवाय वह समय है।’ ऐसा कहा है; इसलिये ‘छह द्रव्यका समवाय वह समय है’ ऐसे कथनके भावके साथ
इस कथनके भावका विरोध नहीं समझना चाहिये, मात्र विवक्षाभेद है ऐसा समझना चाहिये। और इसी प्रकार
अन्य स्थान पर भी विवक्षा समझकर अविरुद्ध अर्थ समझ लेना चाहिये]
Page 10 of 264
PDF/HTML Page 39 of 293
single page version
किन्तु
अस्तित्वे च नियता अनन्यमया अणुमहान्तः।। ४।।
नहीं है किन्तु पंचास्तिकायसमूह जितना क्षेत्र छोड़ कर शेष अनन्त क्षेत्रवाला आकाश है [अर्थात
अलोक शून्यरूप नहीं है किन्ंतु शुद्ध आकाशद्रव्यरूप है।। ३।।
अनन्यमय [च] और [अणुमहान्तः]
१। ‘लोक्यन्ते द्रश्यन्ते जीवादिपदार्था यत्र स लोकः’ अर्थात् जहाँ जीवादिपदार्थ दिखाई देते हैं, वह लोक है।
अस्तित्वनियत, अनन्यमय ने अणुमहान पदार्थ छे। ४।
Page 11 of 264
PDF/HTML Page 40 of 293
single page version
तत्र जीवाः पुद्गलाः धर्माधर्मौ आकाशमिति तेषां विशेषसंज्ञा अन्वर्थाः प्रत्येयाः।
वस्थितत्वादवसेयम्। अस्तित्वे नियतानामपि न तेषामन्यमयत्वम्, यतस्ते सर्वदैवानन्य–मया
आत्मनिर्वृत्ताः। अनन्यमयत्वेऽपि तेषामस्तित्वनियतत्वं नयप्रयोगात्। द्वौ हि नयौ भगवता प्रणीतौ–
द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च। तत्र न खल्वेकनयायत्तादेशना किन्तु तदुभयायता। ततः
पर्यायार्थादेशादस्तित्वे स्वतः कथंचिद्भिन्नऽपि व्यवस्थिताः द्रव्यार्थादेशात्स्वयमेव सन्तः सतोऽनन्यमया
भवन्तीति। कायत्वमपि तेषामणुमहत्त्वात्। अणवोऽत्र प्रदेशा मूर्तोऽमूर्ताश्च निर्विभागांशास्तैः
महान्तोऽणुमहान्तः प्रदेशप्रचयात्मका इति सिद्धं तेषां कायत्वम्। अणुभ्यां। महान्त इतिः व्यत्पत्त्या
टीकाः– यहाँ [इस गाथामें] पाँच अस्तिकायोंकी विशेषसंज्ञा, सामान्य विशेष–अस्तित्व तथा
[जिसप्रकार बर्तनमें रहनेवाला घी बर्तनसे अन्यमय है उसीप्रकार] अस्तित्वसे अन्यमय नहीं है;
क्योंकि वे सदैव अपनेसे निष्पन्न [अर्थात् अपनेसे सत्] होनेके कारण [अस्तित्वसे] अनन्यमय है
[जिसप्रकार अग्नि उष्णतासे अनन्यमय है उसीप्रकार]। ‘अस्तित्वसे अनन्यमय’ होने पर भी उनका
‘अस्तित्वमें नियतपना’ नयप्रयोगसे है। भगवानने दो नय कहे है – द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। वहाँ
कथन एक नयके आधीन नहीं होता किन्तु उन दोनों नयोंके आधीन होता है। इसलिये वे
पर्यायार्थिक कथनसे जो अपनेसे कथंचित् भिन्न भी है ऐसे अस्तित्वमें व्यवस्थित [निश्चित स्थित] हैं
और द्रव्यार्थिक कथनसे स्वयमेव सत् [–विद्यमान] होनेके कारण अस्तित्वसे अनन्यमय हैं।