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ततःपरपरिणामद्योतमानत्वाद्वयवहारकालो निश्चयेनानन्याश्रितोऽपि प्रतीत्यभव इत्यभि–धीयते।
तदत्रास्तिकायसामान्यप्ररूपणायामस्तिकायत्वाभावात्साक्षादनुपन्यस्यमानोऽपि
[सा मात्रा अपि] और वह परिमाण [खलु] वास्तवमें [पुद्गलद्रव्येण विना] पुद्गलद्रव्यके नहीं होता;
[तस्मात्] इसलिये [कालः प्रतीत्यभवः] काल आश्रितरूपसे उपजनेवाला है [अर्थात् व्यवहारकाल
परका आश्रय करके उत्पन्न होता है ऐसा उपचारसे कहा जाता है]।
रखनेवाले प्रमाण [–कालपरिमाण] बिना संभवित नहीं होता; और वह प्रमाण पुद्गलद्रव्यके परिणाम
बिना निश्चित नहीं होता। इसलिये, व्यवहारकाल परके परिणाम द्वारा ज्ञात होनेके कारण – यद्यपि
निश्चयसे वह अन्यके आश्रित नहीं है तथापि – आश्रितरूपसे उत्पन्न होनेवाला [–परके अवलम्बनसे
उपजनेवाला] कहा जाता है।
पंचास्तिकायकी भाँति लोकरूपसे परिणत है– ऐसा, अत्यन्त तीक्ष्ण दष्टिसे जाना जा सकता है।
साक्षात् =सीधा [कालका विस्तृत सीधा कथन श्री प्रवचनसारके द्वितीय–श्रुतस्कंधमें किया गया है; इसलिये
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पुद्गलों द्वारा निश्चित होता है। इसलिये व्यवहारकालकी उत्पत्ति पुद्गलों द्वारा होती [उपचारसे]
कही जाती है।
भिन्न है–ऐसा समझना। जिस प्रकार दस सेर पानीके मिट्टीमय घड़ेका माप पानी द्वारा होता है
तथापि घड़ा मिट्टीकी ही पर्यायरूप है, पानीकी पर्यायरूप नहीं है, उसी प्रकार समय–निमेषादि
व्यवहारकालका माप पुद्गल द्वारा होता है तथापि व्यवहारकाल कालद्रव्यकी ही पर्यायरूप है,
पुद्गलकी पर्यायरूप नहीं है।
पदार्थ अवश्य होना चाहिये। वह पदार्थ सो कालद्रव्य है। कालद्रव्य परिणमित होनेसे व्यवहारकाल
होता है और वह व्यवहारकाल पुद्गल द्वारा मापा जानेसे उसे उपचारसे पराश्रित कहा जाता है।
पंचास्तिकायकी भाँति निश्चयव्यवहाररूप काल भी लोकरूपसे परिणत है ऐसा सर्वज्ञोंने देखा है और
अति तीक्ष्ण द्रष्टि द्वारा स्पष्ट सम्यक् अनुमान भी हो सकता है।
उपलब्धि नहीं हुई है; उस जीवास्तिकायका ही सम्यक् श्रद्धान, उसीका रागादिसे भिन्नरूप भेदज्ञान
और उसीमें रागादिविभावरूप समस्त संकल्प–विकल्पजालके त्याग द्वारा स्थिर परिणति कर्तव्य है
।। २६।।
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भोत्ता य देहमेत्तो ण हि
भोक्ता च देहमात्रो न हि मूर्तः कर्मसंयुक्तः।। २७।।
आत्मा हि निश्चयेन भावप्राणधारणाज्जीवः, व्यवहारेण द्रव्यप्राणधारणाज्जीवः। निश्चयेन
पीठिका समाप्त हुई।
भोक्ता है, [देहमात्रः] देहप्रमाण है, [न हि मूर्तः] अमूर्त है [च] और [कर्मसंयुक्तः] कर्मसंयुक्त है।
१। सोपाधि = उपाधि सहित; जिसमें परकी अपेक्षा आती हो ऐसा।
२। निश्चयसे चित्शक्तिको आत्माके साथ अभेद है और व्यवहारसे भेद है; इसलिये निश्चयसे आत्मा चित्शक्तिस्वरूप
कर्ता अने भोक्ता, शरीरप्रमाण, कर्मे युक्त छे। २७।
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चैतन्यपरिणामलक्षणेनोपयोगेनोपलक्षितत्वादुपयोगविशेषितः। निश्चयेन भावकर्मणां, व्यवहारेण
द्रव्यकर्मणामास्रवणबंधनसंवरणनिर्जरणमोक्षणेषु स्वयमीशत्वात् प्रभुः। निश्चयेन
पौद्गलिककर्मनिमित्तात्मपरिणामानां, व्यवहारेणात्मपरिणामनिमित्तपौद्गलिककर्मणां कर्तृत्वात्कर्ता।
निश्चयेनशुभाशुभकर्मनिमित्तसुखदुःखपरिणामानां, व्यवहारेण शुभाशुभकर्मसंपादि–तेष्टानिष्टविषयाणां
भोक्तृत्वाद्भोक्ता। निश्चयेन लोकमात्रोऽपि विशिष्टावगाहपरिणामशक्तियुक्त–त्वान्नामकर्मनिर्वृत्तमणु महच्च
शरीरमधितिष्ठन् व्यवहारेण देहमात्रः। व्यवहारेण कर्मभिः सहैकत्वपरिणामान्मूर्तोऽपि निश्चयेन
‘उपयोगलक्षित’ है; निश्चयसे भावकर्मोंके आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष करनेमें स्वयं ईश
[समर्थ] होनेसे ‘प्रभु’ है, व्यवहारसे [असद्भूत व्यवहारनयसे] द्रव्यकर्मोंके आस्रव, बंध, संवर,
निर्जरा और मोक्ष करनेमें स्वयं ईश होनेसे ‘प्रभु’ है; निश्चयसे पौद्गलिक कर्म जिनका निमित्त है
ऐसे आत्मपरिणामोंका कर्तृत्व होनेसे ‘कर्ता’ है, व्यवहारसे [असद्भूत व्यवहारनयसे] आत्मपरिणाम
जिनका निमित्त है ऐसे पौद्गलिक कर्मोंका कर्तृत्व होनेसे ‘कर्ता’ है; निश्चयसे शुभाशुभ कर्म
जिनका निमित्त है ऐसे सुखदुःखपरिणामोंका भोक्तृत्व होनेसे ‘भोक्ता’ है, व्यवहारसे [असद्भूत
व्यवहारनयसे] शुभाशुभ कर्मोंसे संपादित [प्राप्त] इष्टानिष्ट विषयोंका भोक्तृत्व होनेसे ‘भोक्ता’ है;
निश्चयसे लोकप्रमाण होने पर भी, विशिष्ट अवगाहपरिणामकी शक्तिवाला होनेसे नामकर्मसे रचित
छोटे–बड़े शरीरमें रहता हुआ व्यवहारसे [सद्भूत व्यवहारनयसे] ‘देहप्रमाण’ है; व्यवहारसे
[असद्भूत व्यवहारनयसे] कर्मोंके साथ एकत्वपरिणामके कारण मूर्त होने पर भी, निश्चयसे अरूपी–
स्वभाववाला होनेके कारण ‘अमूर्त’ है;
२। संसारी आत्मा निश्चयसे निमित्तभूत पुद्गलकर्मोंको अनुरूप ऐसे नैमित्तिक आत्म परिणामोंके साथ [अर्थात्
नैमित्तिक पुद्गलकर्मोंके साथ [अर्थात् द्रव्यकर्मोंके साथ] संयुक्त होनेसे कर्मसंयुक्त है।
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चैतन्यपरिणामानुरूपपुद्गलपरिणामात्मभिः कर्मभिः संयुक्तत्वात्कर्मसंयुक्त इति।। २७।।
कम्ममलविप्पमुक्को उड्ढं
स सर्वज्ञानदर्शी लभते सुखमनिन्द्रियमनंतम्।। २८।।
अनुरूप पुद्गलपरिणामात्मक कर्मोंके साथ संयुक्त होनेसे ‘कर्मसंयुक्त’ है।
निरूपण प्रारम्भ करते हुए इस गाथामें संसारस्थित आत्माको जीव [अर्थात् जीवत्ववाला], चेतयिता,
उपयोगलक्षणवाला, प्रभु, कर्ता इत्यादि कहा है। जीवत्व, चेतयितृत्व, उपयोग, प्रभुत्व, कर्तृत्व,
इत्यादिका विवरण अगली गाथाओंमें आयेगा।। २७।।
[अनिन्द्रियम्] अनिन्द्रिय [सुखम्] सुखका [लभते] अनुभव करता है।
सर्वज्ञदर्शी ते अनंत अनिंद्रि सुखने अनुभवे। २८।
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आत्मा हि परद्रव्यत्वात्कर्मरजसा साकल्येन यस्मिन्नेव क्षणे
स्वरूपभूतत्वादमुक्तोऽनंतमतीन्द्रियं सुखमनुभवति। मुक्तस्य चास्य भावप्राणधारणलक्षणं जीवत्वं,
चिद्रूपलक्षणं चेतयितृत्वं, चित्परिणामलक्षण उपयोगः, निर्वर्तितसमस्ताधिकारशक्तिमात्रं प्रभुत्वं,
समस्तवस्त्वसाधारणस्वरूपनिर्वर्तनमात्रं कर्तृत्वं, स्वरूपभूतस्वातन्क्र्यलक्षणसुखोपलम्भ–रूपं
भोक्तृत्वं, अतीतानंतरशरीरपरिमाणावगाहपरिणामरूपं
भावकर्माणि तु
अभाव होनेसे [वहाँ] स्थिर रहता हुआ, केवलज्ञान और केवलदर्शन [निज] स्वरूपभूत होनेके
कारण उनसे न छूटता हुआ अनन्त अतीन्द्रिय सुखका अनुभव करता है। उस मुक्त आत्माको,
भावप्राणधारण जिसका लक्षण
होता है; प्राप्त किये हुए समस्त [आत्मिक] अधिकारोंकी
स्वरूपभूत स्वातंक्र्य जिसका लक्षण [–स्वरूप] है ऐसे सुखकी उपलब्धिरूप ‘भोक्तृत्व’ होता है;
अतीत अनन्तर [–अन्तिम] शरीर प्रमाण अवगाहपरिणामरूप ‘
स्वयं समर्थ है इसलिये वह प्रभु है।]
२। मुक्त आत्माकी अवगाहना चरमशरीरप्रमाण होती है इसलिये उस अन्तिम शरीरकी अपेक्षा लेकर उनको
३। विविक्त = भिन्न; रहित।
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विश्वस्यैकदेशेषु क्रमेण व्याप्रियमाणा। यदा तु ज्ञानावरणादिकर्मसंपर्कः प्रणश्यति तदा परिच्छेद्यस्य
विश्वस्य
देशमें क्रमशः व्यापार करती हुई विवर्तनको प्राप्त होती है। किन्तु जब ज्ञानावरणादिकर्मोंका सम्पर्क
विनष्ट होता है, तब
अभाव], वास्तवमें निश्चित [–नियत, अचल] सर्वज्ञपनेकी और सर्वदर्शीपनेकी उपलब्धि है। यही,
द्रव्यकर्मोंके निमित्तभूत भावकर्मोंके कर्तृत्वका विनाश है; यही, विकारपूर्वक अनुभवके अभावके कारण
२। चिद्विवर्त = चैतन्यका परिवर्तन अर्थात् चैतन्यका एक विषयको छोड़़कर अन्य विषयको जाननेरूप बदलना;
३। कूटस्थ = सर्वकाल एक रूप रहनेवाली; अचल। [ज्ञानावरणादिकर्मोका सम्बन्ध नष्ट होने पर कहीं चित्शक्ति
कालके समस्त ज्ञेयोंको जानती रहती है, इसलिये उसे कथंचित् कूटस्थ कहा है।]
४। औपाधिक = द्रव्यकर्मरूप उपाधिके साथ सम्बन्धवाले; जिनमें द्रव्यकर्मरूपी उपाधि निमित्त होती है ऐसे;
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चानादिविवर्तखेदविच्छित्तिसुस्थितानंतचैतन्यस्यात्मनः स्वतंत्रस्वरूपानुभूतिलक्षणसुखस्य भोक्तृ–
त्वमिति।। २८।।
पप्पोदि सुहमणंतं अव्वाबाधं सगममुत्तं।। २९।।
प्राप्नोति सुखमनंतमव्याबाधं स्वकममूर्तम्।। २९।।
जिसका अनन्त चैतन्य सुस्थित हुआ है ऐसे आत्माको स्वतंत्रस्वरूपानुभूतिलक्षण सुखका [–स्वतंत्र
स्वरूपकी अनुभूति जिसका लक्षण है ऐसे सुखका] भोक्तृत्व है।। २८।।
[अव्याबाधम्] अव्याबाध [अनंतम्] अनन्त [सुखम्] सुखको [प्राप्नोति] उपलब्ध करता है।
द्वारा] क्रमशः कुछ–कुछ जानता है और देखता है तथा पराश्रित, मूर्त [इन्द्रियादि] के साथ
सम्बन्धवाला, सव्याबाध [–बाधा सहित] और सान्त सुखका अनुभव करता है; किन्तु जब उसके
कर्मक्लेश समस्तरूपसे विनाशको प्राप्त होते हैं तब, आत्मशक्ति अनर्गल [–निरंकुश] और
असंकुचित होनेसे, वह असहायरूपसे [–किसीकी सहायताके बिना] स्वयमेव युगपद् सब [–
सर्व द्रव्यक्षेत्रकालभाव] जानता है और देखता है तथा स्वाश्रित, मूर्त [इन्द्रियादि] के साथ सम्बन्ध
रहित, अव्याबाध और अनन्त सुखका अनुभव करता है। इसलिये सब स्वयमेव जानने और
देखनेवाले तथा स्वकीय सुखका अनुभवन करनेवाले सिद्धको परसे [कुछभी] प्रयोजन नहीं है।
स्वयमेव चेतक सर्वज्ञानी–सर्वदर्शी थाय छे,
ने निज अमूर्त अनंत अव्याबाध सुखने अनुभवे। २९।
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आत्मा हि ज्ञानदर्शनसुखस्वभावः संसारावस्थायामनादिकर्मकॢेशसंकोचितात्मशक्तिः
सुखमनुभवति च। यदा त्वस्य कर्मकॢेशाः सामस्त्येन प्रणश्यन्ति, तदाऽनर्गलासंकुचितात्म–
शक्तिरसहायः स्वयमेव युगपत्समग्रं जानाति पश्यति, स्वप्रत्ययममूर्तसंबद्धमव्याबाधमनंतं सुख
मनुभवति च। ततः सिद्धस्य समस्तं स्वयमेव जानतः पश्यतः, सुखमनुभवतश्च स्वं, न परेण
प्रयोजनमिति।। २९।।
कालमें सर्वज्ञ नहीं है’ ऐसा कहो, तो वह संमत ही है। किन्तु यदि ‘ तीनों लोकमें और तीनों
कालमें सर्वज्ञ नहीं है ’ ऐसा कहो तो हम पूछते हैं कि वह तुमने कैसे जाना? य्दि तीनों लोकको
और तीनों कालको सर्वज्ञ रहित तुमने देख–जान लिया तो तुम्हीं सर्वज्ञ हो गये, क्योंकि जो तीन
लोक और तीन कालको जाने वही सर्वज्ञ है। और यदि सर्वज्ञ रहित तीनों लोक और तीनों कालको
तुमने नहीं देखा–जाना है तो फिर ‘ तीन लोक और तीन कालमें सर्वज्ञ नहीं है ’ ऐसा तुम कैसे
कह सकते हो? इस प्रकार सिद्ध होता है कि तुम्हारा किया हुआ सर्वज्ञका निषेध योग्य नहीं है।
उष्णतारूप परिणमित अग्नि समस्त दाह्यको जलाती है, उसी प्रकार परिपूर्ण ज्ञानरूप परिणमित
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सो जीवो पाणा पुण बलमिंदियमाउ उस्सासो।। ३०।।
स जीवः प्राणाः पुनर्बलमिन्द्रियमायुरुच्छवासः।। ३०।।
कालमें जन्म लेने वाले जीवोंको ] प्राप्त नहीं होती तथापि सर्वज्ञत्वशक्तिवाले निज आत्माका स्पष्ट
अनुभव इस क्षेत्रमें इस कालमें भी हो सकता है।
यह शास्त्र अध्यात्म शास्त्र होनेसे यहाँ सर्वज्ञसिद्धिका विस्तार नहीं किया गया है; जिज्ञासुको
प्राण [इन्द्रियम्] इन्द्रिय, [बलम्] बल, [आयुः] आयु तथा [उच्छवासः] उच्छ्वास है।
त्रिकाल अच्छिन्न–संतानरूपसे [अटूट धारासे] धारण करता है इसलिये संसारीको जीवत्व है।
मुक्तको [सिद्धको] तो केवल भावप्राण ही धारण होनेसे जीवत्व है ऐसा समझना।। ३०।।
‘पुद्गलसामान्य, पुद्गलसामान्य, पुद्गलसामान्य ’ ऐसी एकरूपता–सद्रशता होती है वे द्रव्यप्राण हैं।]
जे चार प्राणे जीवतो पूर्वे, जीवे छे, जीवशे,
ते जीव छे; ने प्राण इन्द्रिय–आयु–बल–उच्छ्वास छे। ३०।
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धारणात्संसारिणो जीवत्वम्। मुक्तस्य तु केवलानामेव भावप्राणानां धारणात्तदवसेयमिति।। ३०।।
देसेहिं असंखादा सिय लोगं सव्वमावण्णा।। ३१।।
केचित्तु अणावण्णा मिच्छादंसणकसायजोगजुदा।
विजुदा य तेहिं बहुगा
देशैरसंख्याताः स्याल्लोकं सर्वमापन्नाः।। ३१।।
केचित्तु अनापन्ना मिथ्यादर्शनकषाययोगयुताः।
वियुताश्च तैर्बहवः सिद्धाः संसारिणो जीवाः।। ३२।।
असंख्यात प्रदेशवाले हैं। [स्यात् सर्वम् लोकम् आपन्नाः] कतिपय कथंचित् समस्त लोकको प्राप्त होते
हैं [केचित् तु] और कतिपय [अनापन्नाः] अप्राप्त होते हैं। [बहवः जीवाः] अनेक [–अनन्त] जीव
[मिथ्यादर्शनकषाययोगयुताः] मिथ्यादर्शन–कषाय–योगसहित [संसारिणः] संसारी हैं [च] और
अनेक [–अनन्त जीव] [तैः वियुताः] मिथ्यादर्शन–कषाय–योगरहित [सिद्धाः] सिद्ध हैं।
जे अगुरुलघुक अनन्त ते–रूप सर्व जीवो परिणमे;
सौना प्रदेश असंख्य; कतिपय लोकव्यापी होय छे; ३१।
अव्यापी छे कतिपय; वली निर्दोष सिद्ध जीवो घणा;
मिथ्यात्व–योग–कषाययुत संसारी जीव बहु जाणवा। ३२।
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ऐसे उन जीवोंमें कतिपय कथंचित् [केवलसमुद्घातके कारण] लोकपूरण–अवस्थाके प्रकार द्वारा
समस्त लोकमें व्याप्त होते हैं और कतिपय समस्त लोकमें अव्याप्त होते हैं। और उन जीवोंमें जो
अनादि
जितना हैं। और जीवके स्वक्षेत्रके छोटेसे छोटे अंश करने पर स्वभावसे ही सदैव असंख्य अंश होते हैं,
इसलिये जीव सदैव ऐसे असंख्य अंशों जितना है।]
२। गुण = अंश; अविभाग परिच्छेद। [जीवमें अगुरुलघुत्व नामका स्वभाव है। वह स्वभाव जीवको
[–अंश] कहे हैं।]
३। किसी गुणमें [अर्थात् गुणकी पर्यायमें] अंशकल्पना की जानेपर, उसका जो छोटेसे छोटा [जघन्य मात्रारूप,
४। षट्स्थानपतित वृद्धिहानि = छह स्थानमें समावेश पानेवाली वृद्धिहानि; षट्गुण वृद्धिहानि।
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असंख्येयाः। एवंविधेषु तेषु केचित्कथंचिल्लोकपूरणावस्थाप्रकारेण सर्वलोकव्यापिनः, केचित्तु
तदव्यापिन इति। अथ ये तेषु मिथ्यादर्शनकषाययोगैरनादिसंततिप्रवृत्तैर्युक्तास्ते संसारिणः, ये
विमुक्तास्ते सिद्धाः, ते च प्रत्येकं बहव इति।। ३१–३२।।
तह देही देहत्थो सदेहमित्तं पभासयदि।। ३३।।
तथा देही देहस्थः स्वदेहमात्रं प्रभायसति।। ३३।।
प्रवाहरूपसे प्रवर्तमान मिथ्यादर्शन–कषाय–योग सहित हैं वे संसारी हैं, जो उनसे विमुक्त हैं [अर्थात्
मिथ्यादर्शन–कषाय–योगसे रहित हैं] वे सिद्ध हैं; और वे हर प्रकारके जीव बहुत हैं [अर्थात्
संसारी तथा सिद्ध जीवोंमेंसे हरएक प्रकारके जीव अनन्त हैं]।। ३१–३२।।
[देहस्थः] देहमें रहता हुआ [स्वदेहमात्रं प्रभासयति] स्वदेहप्रमाण प्रकाशित होता है।
ज्यम दूधमां स्थित पद्मरागमणि प्रकाशे दूधने,
त्यम देहमां स्थित देही देहप्रमाण व्यापकता लहे। ३३।
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क्षीरेऽग्निसंयोगादुद्वलमाने तस्य पद्मरागरत्नस्य प्रभास्कंध उद्वलते पुनर्निविशमाने निविशते च, तथैव
च तत्र शरीरे विशिष्टाहारादिवशादुत्सर्पति तस्य जीवस्य प्रदेशाः उत्सर्पन्ति पुनरपसर्पति अपसर्पन्ति
च। यथैव च तत्पद्मरागरत्नमन्यत्र प्रभूतक्षीरे क्षिप्तं स्वप्रभा–स्कंधविस्तारेण तद्वयाप्नोति प्रभूतक्षीरं,
तथैव हि जीवोऽन्यत्र महति शरीरेऽवतिष्ठमानः स्वप्रदेशविस्तारेण तद्वयाप्नोति महच्छरीरम्। यथैव च
तत्पद्मरागरत्नमन्यत्र स्तोकक्षीरे निक्षिप्तं स्वप्रभास्कंधोपसंहारेण तद्वयाप्नोति स्तोकक्षीरं, तथैव च
जीवोऽन्यत्राणुशरीरेऽवतिष्ठमानः
हुआ स्वप्रदेशों द्वारा उस शरीरमें व्याप्त होता है। और जिस प्रकार अग्निके संयोगसे उस दूधमें
उफान आने पर उस पद्मरागरत्नके प्रभासमूहमें उफान आता है [अर्थात् वह विस्तारको व्याप्त होता
है] और दूध फिर बैठ जाने पर प्रभासमूह भी बैठ जाता है, उसी प्रकार विशिष्ट आहारादिके वश
उस शरीरमें वृद्धि होने पर उस जीवके प्रदेश विस्तृत होते हैं और शरीर फिर सूख जाने पर प्रदेश
भी संकुचित हो जाते हैं। पुनश्च, जिस प्रकार वह पद्मरागरत्न दूसरे अधिक दूधमें डाला जाने पर
स्वप्रभासमूहके विस्तार द्वारा उस अधिक दूधमें व्याप्त होता है, उसी प्रकार जीव दूसरे बड़े शरीरमें
स्थितिको प्राप्त होने पर स्वप्रदेशोंके विस्तार द्वारा उस बड़े शरीरमें व्याप्त होता है। और जिस
प्रकार वह पद्मरागरत्न दूसरे कम दूधमें डालने पर स्वप्रभासमूहके संकोच द्वारा उस थोड़े दूधमें
समझनेके लिये रत्न और
समझानेके हेतु यहाँ रत्नकी प्रभाको रत्नसे अभिन्न कहा है।
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अज्झवसाणविसिट्ठो चिट्ठदि
अध्यवसानविशिष्टश्चेष्टते मलिनो रजोमलैः।। ३४।।
व्याप्त होता है, उसी प्रकार जीव अन्य छोटे शरीरमें स्थितिको प्राप्त होने पर स्वप्रदेशोंके संकोच
द्वारा उस छोटे शरीरमें व्याप्त होता है।
मिथ्यात्वरागादि विकल्पों द्वारा उपार्जित जो शरीरनामकर्म उससे जनित [अर्थात् उस
शरीरनामकर्मका उदय जिसमें निमित्त है ऐसे] संकोचविस्तारके आधीनरूपसे जीव सर्वोत्कृष्ट
अवगाहरूपसे परिणमित होता हुआ सहस्रयोजनप्रमाण महामत्स्यके शरीरमें व्याप्त होता है, जघन्य
अवगाहरूपसे परिणमित होता हुआ उत्सेध घनांगुलके असंख्यातवें भाग जितने लब्ध्यपर्याप्त
सूक्ष्मनिगोदके शरीरमें व्याप्त होता है और मध्यम अवगाहरूपसे परिणमित होता हुआ मध्यम शरीरमें
व्याप्त होता है।। ३३।।
अन्वयार्थः–
उसके साथ एक नहीं है; [अध्यवसानविशिष्टः] अध्यवसायविशिष्ट वर्तता हुआ [रजोमलैः मलिनः]
रजमल [कर्ममल] द्वारा मलिन होनेसे [चेष्टते] वह भमण करता है।
जीव विविध अध्यवसाययुत, रजमळमलिन थईने भमे। ३४।
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क्रमेणान्येष्वपि शरीरेषु वर्तत इति तस्य सर्वत्रास्तित्वम्। न चैकस्मिन् शरीरे नीरे क्षीरमिवैक्येन
स्थितोऽपि भिन्नस्वभावत्वात्तेन सहैक इति तस्य देहात्पृथग्भूतत्वम्। अनादि–
बंधनोपाधिविवर्तितविविधाध्यवसायविशिष्टत्वातन्मूलकर्मजालमलीमसत्वाच्च चेष्टमानस्यात्मनस्त–
थाविधाध्यवसायकर्मनिर्वर्तितेतरशरीरप्रवेशो भवतीति तस्य देहांतरसंचरणकारणोपन्यास
इति।।३४।।
ते होंति भिण्णदेहा सिद्धा वचिगोयरमदीदा।। ३५।।
ते भवन्ति भिन्नदेहाः सिद्धा वाग्गोचरमतीताः।। ३५।।
अस्तित्व है। और किसी एक शरीरमें, पानीमें दूधकी भाँति एकरूपसे रहने पर भी, भिन्न स्वभावके
कारण उसके साथ एक [तद्रूप] नहीं है; इस प्रकार उसे देहसे पृथक्पना है। अनादि बंधनरूप
उपाधिसे विवर्तन [परिवर्तन] पानेवाले विविध अध्यवसायोंसे विशिष्ट होनेके कारण [–अनेक प्रकारके
अध्यवसायवाला होनेके कारण] तथा वे अध्यवसाय जिसका निमित्त हैं ऐसे कर्मसमूहसे मलिन होनेके
कारण भ्रमण करते हुए आत्माको तथाविध अध्यवसायों तथा कर्मोंसे रचे जाने वाले [–उस प्रकारके
मिथ्यात्वरागादिरूप भावकर्मों तथा द्रव्यकर्मोंसे रचे जाने वाले] अन्य शरीरमें प्रवेश होता है; इस
प्रकार उसे देहान्तरमें गमन होनेका कारण कहा गया।। ३४।।
[भिन्नदेहाः] देहरहित [वाग्गोचरम् अतीताः] वचनगोचरातीत [सिद्धाः भवन्ति] सिद्ध
[सिद्धभगवन्त] हैं।
जीवत्व नहि ने सर्वथा तदभाव पण नहि जेमने,
ते सिद्ध छे–जे देहविरहित वचनविषयातीत छे। ३५।
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नीरक्षीरयोरिवैक्येन वृत्तिः, यतस्ते तत्संपर्कहेतुभूतकषाययोगविप्रयोगादती–
तानंतरशरीरमात्रावगाहपरिणतत्वेऽप्यत्यंतभिन्नदेहाः। वाचां गोचरमतीतश्च तन्महिमा, यतस्ते
लौकिकप्राणधारणमंतरेण शरीरसंबंधमंतरेण च परिप्राप्तनिरुपाधिस्वरूपाः सततं प्रत–पंतीति।।३५।।
उप्पादेदि ण किंचि वि कारणमवि तेण ण स होदि।। ३६।।
सद्भाव है। और उन्हें शरीरके साथ, नीरक्षीरकी भाँति, एकरूप
द्वारा वे सतत प्रतपते हैं [–प्रतापवन्त वर्तते हैं]।। ३५।।
२। अतीत अनन्तर = भूत कालका सबसे अन्तिम; चरम। [सिद्धभगवन्तोंकी अवगाहना चरमशरीरप्रमाण होने के
अत्यन्त देहरहित हैं।]
३। वचनगोचरातीत = वचनगोचरताको अतिक्रान्त ; वचनविषयातीत; वचन–अगोचर।
ऊपजे नहीं को कारणे ते सिद्ध तेथी न कार्य छे,
उपजावता नथी कांई पण तेथी न कारण पण ठरे। ३६।
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उत्पादयति न किंचिदपि कारणमपि तेन न स भवति।। ३६।।
ह्युभयकर्मक्षये स्वयमुत्पद्यमानो नान्यतः कुतश्चिदुत्पद्यत इति। यथैव च स एव संसारी
भावकर्मरूपामात्मपरिणामसंततिं द्रव्यकर्मरूपां च पुद्गलपरिणामसंततिं कार्यभूतां कारणभूतत्वेन
निर्वर्तयन् तानि तानि देवमनुष्यतिर्यग्नारकरूपाणि कार्याण्युत्पादयत्यात्मनो न तथा सिद्धरूपमपीति।
सिद्धो ह्युभयकर्मक्षये स्वयमात्मानमुत्पादयन्नान्यत्किञ्चिदुत्पादयति।। ३६।।
[अन्य कार्यको] [न उत्पादयति] उत्पन्न नहीं करते [तेन] इसलिये [सः] वे [कारणम् अपि]
कारण भी [न भवति] नहीं हैं।
है, उसी प्रकार सिद्धरूपसे भी उत्पन्न होता है–– ऐेसा नहीं है; [और] सिद्ध [–सिद्धभगवान]
वास्तवमें, दोनों कर्मों का क्षय होने पर, स्वयं [सिद्धरूपसे] उत्पन्न होते हुए अन्य किसी कारणसे
[–भावकर्मसे या द्रव्यकर्मसे] उत्पन्न नहीं होते।
मनुष्य–तिर्यंच–नारकके रूप अपनेमें उत्पन्न करता है, उसी प्रकार सिद्धका रूप भी [अपनेमें] उत्पन्न
करता है–– ऐेसा नहीं है; [और] सिद्ध वास्तवमें, दोनों कर्मोंका क्षय होने पर, स्वयं अपनेको
[सिद्धरूपसे] उत्पन्न करते हुए अन्य कुछ भी [भावद्रव्यकर्मस्वरूप अथवा देवादिस्वरूप कार्य] उत्पन्न
नहीं करते।। ३६।।
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विण्णाणमविण्णाणं ण वि जुज्जदि असदि सब्भावे।। ३७।।
विज्ञानमविज्ञानं नापि युज्यते असति सद्भावे।। ३७।।
स्वद्रव्येण सदाऽशून्यमिति, क्वचिज्जीवद्रव्येऽनंतं ज्ञानं क्वचित्सांतं ज्ञानमिति, क्वचिज्जीवद्रव्येऽनंतं
क्वचित्सांतमज्ञानमिति–एतदन्यथा–
[शून्यम्] शून्य, [इतरत् च] अशून्य, [विज्ञानम्] विज्ञान और [अविज्ञानम्] अविज्ञान [न अपि
युज्यते] [जीवद्रव्यमें] घटित नहीं हो सकते। [इसलिये मोक्षमें जीवका सद्भाव है ही।]
पर्यायरूपसे अभाव्य [–न होनेयोग्य] है, [५] द्रव्य अन्य द्रव्यों से सदा शून्य है, [६] द्रव्य
स्वद्रव्यसे सदा अशून्य है, [७]
विज्ञान, अणविज्ञान, शून्य, अशून्य–ए कंई नव घटे। ३७।
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चेदयदि जीवरासी चेदगभावेण तिविहेण।। ३८।।
चेतयति जीवराशिश्चेतकभावेन त्रिविधेन।। ३८।।
जीवद्रव्यमें अनन्त अज्ञान और किसीमें सान्त अज्ञान है – यह सब,
एक जीवराशि [ज्ञानम्] ज्ञानको [चेतयति] चेतती [–वेदती] है।
द्रव्यरूपसे शाश्वत है–यह बात कैसे घटित होगी? [२] प्रत्येक द्रव्य नित्य रहकर उसमें पर्यायका नाश
होता रहता है– यह बात कैसे घटित होगी? [३–६] प्रत्येक द्रव्य सर्वदा अनागत पर्यायसे भाव्य, सर्वदा
अतीत पर्यायसे अभाव्य, सर्वदा परसे शून्य और सर्वदा स्वसे अशून्य है– यह बातें कैसे घटित होंगी?
[७] किसी जीवद्रव्यमें अनन्त ज्ञान हैे– यह बात कैसे घटित होगी? और [८] किसी जीवद्रव्यमें सान्त
अज्ञान है [अर्थात् जीवद्रव्य नित्य रहकर उसमें अज्ञानपरिणामका अन्त आता है]– यह बात कैसे घटित
होगी? इसलिये इन आठ भावों द्वारा मोक्षमें जीवका अस्तित्व सिद्ध होता है।]
को जीवराशि ‘कर्मफळ’ने, कोई चेते ‘ज्ञान’ने। ३८।