Panchastikay Sangrah (Hindi). Shaddravya-panchastikayka vishesh varnan; Jivdravya-astikay ka varnan; Gatha: 27-38.

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५२
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
अत्र व्यवहारकालस्य कथंचित परायत्तत्वे सदुपपत्तिरुक्ता।
इह हि व्यवहारकाले निमिषसमयादौ अस्ति तावत् चिर इति क्षिप्र इति संप्रत्ययः। स खलु
दीर्धह्रस्वकालनिबंधनं प्रमाणमंतरेण न संभाव्यते। तदपि प्रमाणं पुद्गलद्रव्यपरिणाममन्तरेण नावधार्यते।
ततःपरपरिणामद्योतमानत्वाद्वयवहारकालो निश्चयेनानन्याश्रितोऽपि प्रतीत्यभव इत्यभि–धीयते।
तदत्रास्तिकायसामान्यप्ररूपणायामस्तिकायत्वाभावात्साक्षादनुपन्यस्यमानोऽपि
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा २६
अन्वयार्थः– [चिरं वा क्षिप्रं] ‘चिर’ अथवा ‘क्षिप्र’ ऐसा ज्ञान [–अधिक काल अथवा अल्प
काल ऐसा ज्ञान] [मात्रारहितं तु] परिमाण बिना [–कालके माप बिना] [न अस्ति] नहीं होता;
[सा मात्रा अपि] और वह परिमाण [खलु] वास्तवमें [पुद्गलद्रव्येण विना] पुद्गलद्रव्यके नहीं होता;
[तस्मात्] इसलिये [कालः प्रतीत्यभवः] काल आश्रितरूपसे उपजनेवाला है [अर्थात् व्यवहारकाल
परका आश्रय करके उत्पन्न होता है ऐसा उपचारसे कहा जाता है]।
टीकाः– यहाँ व्यवहारकालके कथंचित पराश्रितपनेके विषयमें सत्य युक्ति कही गई है।
प्रथम तो, निमेष–समयादि व्यवहारकालमें ‘चिर’ और ‘क्षिप्र’ ऐसा ज्ञान [–अधिक काल और
अल्प काल ऐसा ज्ञान होता है]। वह ज्ञान वास्तवमें अधिक और अल्प काल साथ सम्बन्ध
रखनेवाले प्रमाण [–कालपरिमाण] बिना संभवित नहीं होता; और वह प्रमाण पुद्गलद्रव्यके परिणाम
बिना निश्चित नहीं होता। इसलिये, व्यवहारकाल परके परिणाम द्वारा ज्ञात होनेके कारण – यद्यपि
निश्चयसे वह अन्यके आश्रित नहीं है तथापि – आश्रितरूपसे उत्पन्न होनेवाला [–परके अवलम्बनसे
उपजनेवाला] कहा जाता है।
इसलिये यद्यपि कालको अस्तिकायपनेके अभावके कारण यहाँ अस्तिकायकी सामान्य प्ररूपणामें
उसका साक्षात् कथन नहींं है तथापि, जीव–पुद्गलके परिणामकी अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा सिद्ध
होनेवाला निश्चयरूप काल और उनके परिणामके आश्रित निश्चित होनेवाला व्यवहाररूप काल
पंचास्तिकायकी भाँति लोकरूपसे परिणत है– ऐसा, अत्यन्त तीक्ष्ण दष्टिसे जाना जा सकता है।
--------------------------------------------------------------------------

साक्षात् =सीधा [कालका विस्तृत सीधा कथन श्री प्रवचनसारके द्वितीय–श्रुतस्कंधमें किया गया है; इसलिये
कालका स्वरूप विस्तारसे जाननेके इच्छुक जिज्ञासुकोे प्रवचनसारमेंसे ते जान लेना चाहिये।]

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
५३
जीव–पुद्गलपरिणामान्यथानुपपत्त्या निश्चयरूपस्तत्परिणामायत्ततया व्यवहाररूपः कालोऽस्तिकायपञ्च–
कवल्लोकरूपेण परिणत इति खरतरद्रष्टयाभ्युपगम्यत इति।। २६।।
-----------------------------------------------------------------------------
भावार्थः– ‘समय’ अल्प है, ‘निमेष’ अधिक है और ‘मुहुर्त’ उससे भी अधिक है ऐसा जो
ज्ञान होता है वह ‘समय’, ‘निमेष’ आदिका परिमाण जाननेसे होता है; और वह कालपरिमाण
पुद्गलों द्वारा निश्चित होता है। इसलिये व्यवहारकालकी उत्पत्ति पुद्गलों द्वारा होती [उपचारसे]
कही जाती है।
इस प्रकार यद्यपि व्यवहारकालका माप पुद्गल द्वारा होता है इसलिये उसे उपचारसे
पुद्गलाश्रित कहा जाता है तथापि निश्चयसे वह केवल कालद्रव्यकी ही पर्यायरूप है, पुद्गलसे सर्वथा
भिन्न है–ऐसा समझना। जिस प्रकार दस सेर पानीके मिट्टीमय घड़ेका माप पानी द्वारा होता है
तथापि घड़ा मिट्टीकी ही पर्यायरूप है, पानीकी पर्यायरूप नहीं है, उसी प्रकार समय–निमेषादि
व्यवहारकालका माप पुद्गल द्वारा होता है तथापि व्यवहारकाल कालद्रव्यकी ही पर्यायरूप है,
पुद्गलकी पर्यायरूप नहीं है।
कालसम्बन्धी गाथासूत्रोंंके कथनका संक्षेप इस प्रकार हैः– जीवपुद्गलोंके परिणाममें
[समयविशिष्ट वृत्तिमें] व्यवहारसे समयकी अपेक्षा आती है; इसलिये समयको उत्पन्न करनेवाला कोई
पदार्थ अवश्य होना चाहिये। वह पदार्थ सो कालद्रव्य है। कालद्रव्य परिणमित होनेसे व्यवहारकाल
होता है और वह व्यवहारकाल पुद्गल द्वारा मापा जानेसे उसे उपचारसे पराश्रित कहा जाता है।
पंचास्तिकायकी भाँति निश्चयव्यवहाररूप काल भी लोकरूपसे परिणत है ऐसा सर्वज्ञोंने देखा है और
अति तीक्ष्ण द्रष्टि द्वारा स्पष्ट सम्यक् अनुमान भी हो सकता है।
कालसम्बन्धी कथनका तात्पर्यार्थ निम्नोक्तानुसार ग्रहण करने योग्य हैेः– अतीत अनन्त कालमें
जीवको एक चिदानन्दरूप काल ही [स्वकाल ही] जिसका स्वभाव है ऐसे जीवास्तिकायकी
उपलब्धि नहीं हुई है; उस जीवास्तिकायका ही सम्यक् श्रद्धान, उसीका रागादिसे भिन्नरूप भेदज्ञान
और उसीमें रागादिविभावरूप समस्त संकल्प–विकल्पजालके त्याग द्वारा स्थिर परिणति कर्तव्य है
।। २६।।

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५४
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
इति समयव्याख्यायामन्तनींतषड्द्रव्यपञ्चास्तिकायसामान्यव्याख्यानरूपः पीठबंधः समाप्तः।।
अथामीषामेव विशेषव्याख्यानम्। तत्र तावत् जीवद्रव्यास्तिकायव्याख्यानम्।
जीवो त्ति हवदि चेदा उवओगविसेसिदो पहू कत्ता।
भोत्ता य देहमेत्तो ण हि
मुत्तो कम्मसंजुत्तो।। २७।।
जीव इति भवति चेतयितोपयोगविशेषितः प्रभुः कर्ता।
भोक्ता च देहमात्रो न हि मूर्तः कर्मसंयुक्तः।। २७।।
अत्र संसारावस्थस्यात्मनः सोपाधि निरुपाधि च स्वरूपमुक्तम्।
आत्मा हि निश्चयेन भावप्राणधारणाज्जीवः, व्यवहारेण द्रव्यप्राणधारणाज्जीवः। निश्चयेन
-----------------------------------------------------------------------------
इस प्रकार [श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री पंचास्तिकायसंग्रह शास्त्रकी श्री
अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित] समयव्याख्या नामकी टीकामें षड्द्रव्य–पंचास्तिकायके सामान्य व्याख्यानरूप
पीठिका समाप्त हुई।
अब उन्हींका [–षड्द्रव्य और पंचास्तिकायका ही] विशेष व्याख्यान किया जाता है। उसमें
प्रथम, जीवद्रव्यास्तिकायके व्याख्यान हैं।
गाथा २७
अन्वयार्थः– [जीवः इति भवति] [संसारस्थित] आत्मा जीव है, [चेतयिता] चेतयिता
[चेतनेवाला] है, [उपयोगविशेषितः] उपयोगलक्षित है, [प्रभुः] प्रभु है, [कर्ता] कर्ता हैे, [भोक्ता]
भोक्ता है, [देहमात्रः] देहप्रमाण है, [न हि मूर्तः] अमूर्त है [च] और [कर्मसंयुक्तः] कर्मसंयुक्त है।
टीकाः– यहाँ [इस गाथामें] संसार–दशावाले आत्माका सोपाधि और निरुपाधि स्वरूप कहा
है।
आत्मा निश्चयसे भावप्राणको धारण करता है इसलिये ‘जीव’ है, व्यवहारसे [असद्भूत
व्यवहारनयसे] द्रव्यप्राणको धारण करता है इसलिये ‘जीव’ है; निश्चयसे चित्स्वरूप होनेके कारण
‘चेतयिता’ [चेतनेवाला] है, व्यवहारसे [सद्भूत व्यवहारनयसे] चित्शक्तियुक्त होनेसे ‘चेतयिता’
--------------------------------------------------------------------------

१। सोपाधि = उपाधि सहित; जिसमें परकी अपेक्षा आती हो ऐसा।
२। निश्चयसे चित्शक्तिको आत्माके साथ अभेद है और व्यवहारसे भेद है; इसलिये निश्चयसे आत्मा चित्शक्तिस्वरूप
है और व्यवहारसे चित्शक्तिवान है।
छे जीव, चेतयिता, प्रभु, उपयोगचिह्न, अमूर्त छे,
कर्ता अने भोक्ता, शरीरप्रमाण, कर्मे युक्त छे। २७।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
५५
चिदात्मकत्वात्, व्यवहारेण चिच्छक्तियुक्तत्वाच्चेतयिता। निश्चयेनापृथग्भूतेन, व्यवहारेण पृथग्भूतेन
चैतन्यपरिणामलक्षणेनोपयोगेनोपलक्षितत्वादुपयोगविशेषितः।
निश्चयेन भावकर्मणां, व्यवहारेण
द्रव्यकर्मणामास्रवणबंधनसंवरणनिर्जरणमोक्षणेषु स्वयमीशत्वात् प्रभुः। निश्चयेन
पौद्गलिककर्मनिमित्तात्मपरिणामानां, व्यवहारेणात्मपरिणामनिमित्तपौद्गलिककर्मणां कर्तृत्वात्कर्ता।
निश्चयेनशुभाशुभकर्मनिमित्तसुखदुःखपरिणामानां, व्यवहारेण शुभाशुभकर्मसंपादि–तेष्टानिष्टविषयाणां
भोक्तृत्वाद्भोक्ता। निश्चयेन लोकमात्रोऽपि विशिष्टावगाहपरिणामशक्तियुक्त–त्वान्नामकर्मनिर्वृत्तमणु महच्च
शरीरमधितिष्ठन् व्यवहारेण देहमात्रः। व्यवहारेण कर्मभिः सहैकत्वपरिणामान्मूर्तोऽपि निश्चयेन
-----------------------------------------------------------------------------
है; निश्चयसे अपृथग्भूत ऐसे चैतन्यपरिणामस्वरूप उपयोग द्वारा लक्षित होनेसे ‘उपयोगलक्षित’ है,
व्यवहारसे [सद्भूत व्यवहारनयसे] पृथग्भूत ऐसे चैतन्यपरिणामस्वरूप उपयोग द्वारा लक्षित होनेसे
‘उपयोगलक्षित’ है; निश्चयसे भावकर्मोंके आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष करनेमें स्वयं ईश
[समर्थ] होनेसे ‘प्रभु’ है, व्यवहारसे [असद्भूत व्यवहारनयसे] द्रव्यकर्मोंके आस्रव, बंध, संवर,
निर्जरा और मोक्ष करनेमें स्वयं ईश होनेसे ‘प्रभु’ है; निश्चयसे पौद्गलिक कर्म जिनका निमित्त है
ऐसे आत्मपरिणामोंका कर्तृत्व होनेसे ‘कर्ता’ है, व्यवहारसे [असद्भूत व्यवहारनयसे] आत्मपरिणाम
जिनका निमित्त है ऐसे पौद्गलिक कर्मोंका कर्तृत्व होनेसे ‘कर्ता’ है; निश्चयसे शुभाशुभ कर्म
जिनका निमित्त है ऐसे सुखदुःखपरिणामोंका भोक्तृत्व होनेसे ‘भोक्ता’ है, व्यवहारसे [असद्भूत
व्यवहारनयसे] शुभाशुभ कर्मोंसे संपादित [प्राप्त] इष्टानिष्ट विषयोंका भोक्तृत्व होनेसे ‘भोक्ता’ है;
निश्चयसे लोकप्रमाण होने पर भी, विशिष्ट अवगाहपरिणामकी शक्तिवाला होनेसे नामकर्मसे रचित
छोटे–बड़े शरीरमें रहता हुआ व्यवहारसे [सद्भूत व्यवहारनयसे] ‘देहप्रमाण’ है; व्यवहारसे
[असद्भूत व्यवहारनयसे] कर्मोंके साथ एकत्वपरिणामके कारण मूर्त होने पर भी, निश्चयसे अरूपी–
स्वभाववाला होनेके कारण ‘अमूर्त’ है;
निश्चयसे पुद्गलपरिणामको अनुरूप चैतन्यपरिणामात्मक
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१। अपृथग्भूत = अपृथक्; अभिन्न। [निश्चयसे उपयोग आत्मासे अपृथक् है और व्यवहारसे पृथक् है।]
२। संसारी आत्मा निश्चयसे निमित्तभूत पुद्गलकर्मोंको अनुरूप ऐसे नैमित्तिक आत्म परिणामोंके साथ [अर्थात्
भावकर्मोंके साथ] संयुक्त होनेसे कर्मसंयुक्त है और व्यवहारसे निमित्तभूत आत्मपरिणामोंको अनुरूप ऐसें
नैमित्तिक पुद्गलकर्मोंके साथ [अर्थात् द्रव्यकर्मोंके साथ] संयुक्त होनेसे कर्मसंयुक्त है।

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५६
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
नीरूपस्वभावत्वान्न हि मूर्तः। निश्चयेन पुद्गल–परिणामानुरूपचैतन्यपरिणामात्मभिः, व्यवहारेण
चैतन्यपरिणामानुरूपपुद्गलपरिणामात्मभिः कर्मभिः संयुक्तत्वात्कर्मसंयुक्त इति।। २७।।

कम्ममलविप्पमुक्को उड्ढं
लोगस्स अंतमधिगंता।
सो सव्वणाणदरिसी लहदि सुहमणिंदियमणंतं।। २८।।
कर्ममलविप्रमुक्त ऊर्ध्वं लोकस्यान्तमधिगम्य।
स सर्वज्ञानदर्शी लभते सुखमनिन्द्रियमनंतम्।। २८।।
-----------------------------------------------------------------------------
कर्मोंके साथ संयुक्त होनेसे ‘कर्मसंयुक्त’ है, व्यवहारसे [असद्भूत व्यवहारनयसे] चैतन्यपरिणामको
अनुरूप पुद्गलपरिणामात्मक कर्मोंके साथ संयुक्त होनेसे ‘कर्मसंयुक्त’ है।
भावार्थः– पहली २६ गाथाओंमें षड्द्रव्य और पंचास्तिकायका सामान्य निरूपण करके, अब इस
२७वीं गाथासे उनका विशेष निरूपण प्रारम्भ किया गया है। उसमें प्रथम, जीवका [आत्माका]
निरूपण प्रारम्भ करते हुए इस गाथामें संसारस्थित आत्माको जीव [अर्थात् जीवत्ववाला], चेतयिता,
उपयोगलक्षणवाला, प्रभु, कर्ता इत्यादि कहा है। जीवत्व, चेतयितृत्व, उपयोग, प्रभुत्व, कर्तृत्व,
इत्यादिका विवरण अगली गाथाओंमें आयेगा।। २७।।
गाथा २८
अन्वयार्थः– [कर्ममलविप्रमुक्तः] कर्ममलसे मुक्त आत्मा [ऊर्ध्वं] ऊपर [लोकस्य अन्तम्]
लोकके अन्तको [अधिगम्य] प्राप्त करके [सः सर्वज्ञानदर्शी] वह सर्वज्ञ–सर्वदर्शी [अनंतम्] अनन्त
[अनिन्द्रियम्] अनिन्द्रिय [सुखम्] सुखका [लभते] अनुभव करता है।
--------------------------------------------------------------------------
सौ कर्ममळथी मुक्त आत्मा पामीने लोकाग्रने,
सर्वज्ञदर्शी ते अनंत अनिंद्रि सुखने अनुभवे। २८।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
५७
अत्र मुक्तावस्थस्यात्मनो निरुपाधिस्वरूपमुक्तम्।

आत्मा हि परद्रव्यत्वात्कर्मरजसा साकल्येन यस्मिन्नेव क्षणे
मुच्यते तस्मि–
न्नेवोर्ध्वगमनस्वभावत्वाल्लोकांतमधिगम्य परतो गतिहेतोरभावादवस्थितः केवलज्ञानदर्शनाभ्यां
स्वरूपभूतत्वादमुक्तोऽनंतमतीन्द्रियं सुखमनुभवति। मुक्तस्य चास्य भावप्राणधारणलक्षणं जीवत्वं,
चिद्रूपलक्षणं चेतयितृत्वं, चित्परिणामलक्षण उपयोगः, निर्वर्तितसमस्ताधिकारशक्तिमात्रं प्रभुत्वं,
समस्तवस्त्वसाधारणस्वरूपनिर्वर्तनमात्रं कर्तृत्वं, स्वरूपभूतस्वातन्क्र्यलक्षणसुखोपलम्भ–रूपं
भोक्तृत्वं, अतीतानंतरशरीरपरिमाणावगाहपरिणामरूपं
देहमात्रत्वं, उपाधिसंबंधविविक्त–
मात्यन्तिकममूर्तत्वम्। कर्मसंयुक्तत्वं तु द्रव्यभावकर्मविप्रमोक्षान्न भवत्येव। द्रव्यकर्माणि हि पुद्गलस्कंधा
भावकर्माणि तु
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– यहाँ मुक्तावस्थावाले आत्माका निरुपाधि स्वरूप कहा है।
आत्मा [कर्मरजके] परद्रव्यपनेके कारण कर्मरजसे सम्पूर्णरूपसे जिस क्षण छूटता है [–मुक्त
होता है], उसी क्षण [अपने] ऊर्ध्वगमनस्वभावके कारण लोकके अन्तको पाकर आगे गतिहेतुका
अभाव होनेसे [वहाँ] स्थिर रहता हुआ, केवलज्ञान और केवलदर्शन [निज] स्वरूपभूत होनेके
कारण उनसे न छूटता हुआ अनन्त अतीन्द्रिय सुखका अनुभव करता है। उस मुक्त आत्माको,
भावप्राणधारण जिसका लक्षण
[–स्वरूप] है ऐसा ‘जीवत्व’ होता है; चिद्रूप जिसका लक्षण [–
स्वरूप] है ऐसा ‘चेतयितृत्व’ होता है ; चित्परिणाम जिसका लक्षण [–स्वरूप] है ऐसा ‘उपयोग’
होता है; प्राप्त किये हुए समस्त [आत्मिक] अधिकारोंकी
शक्तिमात्ररूप ‘प्रभुत्व’ होता है; समस्त
वस्तुओंसे असाधारण ऐसे स्वरूपकी निष्पत्तिमात्ररूप [–निज स्वरूपको रचनेरूप] ‘कर्तृत्व’ होता है;
स्वरूपभूत स्वातंक्र्य जिसका लक्षण [–स्वरूप] है ऐसे सुखकी उपलब्धिरूप ‘भोक्तृत्व’ होता है;
अतीत अनन्तर [–अन्तिम] शरीर प्रमाण अवगाहपरिणामरूप ‘
देहप्रमाणपना’ होता है; और
उपाधिके सम्बन्धसे विविक्त ऐसा आत्यंतिक [सर्वथा] ‘अमूर्तपना’ होता है। [मुक्त आत्माको]
--------------------------------------------------------------------------
१। शक्ति = सामर्थ्य; ईशत्व। [मुक्त आत्मा समस्त आत्मिक अधिकारोंको भोगनेमें अर्थात् उनका उपयोग करनेमें
स्वयं समर्थ है इसलिये वह प्रभु है।]

२। मुक्त आत्माकी अवगाहना चरमशरीरप्रमाण होती है इसलिये उस अन्तिम शरीरकी अपेक्षा लेकर उनको
‘देहप्रमाणपना’ कहा जा सकता है।

३। विविक्त = भिन्न; रहित।

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
चिद्विवर्ताः। विवर्तते हि चिच्छक्तिरनादिज्ञानावरणादि–कर्मसंपर्ककूणितप्रचारा परिच्छेद्यस्य
विश्वस्यैकदेशेषु क्रमेण व्याप्रियमाणा। यदा तु ज्ञानावरणादिकर्मसंपर्कः प्रणश्यति तदा परिच्छेद्यस्य
विश्वस्य
सर्वदेशेषु युगपद्वयापृता कथंचित्कौटस्थ्यमवाप्य विषयांतरमनाप्नुवंती न विवर्तते। स खल्वेष
निश्चितः सर्वज्ञसर्वदर्शित्वोपलम्भः। अयमेव द्रव्यकर्मनिबंधनभूतानां भावकर्मणां कर्तृत्वोच्छेदः। अयमेव
-----------------------------------------------------------------------------
कर्मसंयुक्तपना’ तो होता ही नहीं , क्योंकि द्रव्यकर्मो और भावकर्मोसे विमुक्ति हुई है। द्रव्यकर्म वे
पुद्गलस्कंध है और भावकर्म वे चिद्विवर्त हैं। चित्शक्ति अनादि ज्ञानावरणादिकर्मोंके सम्पर्कसे
[सम्बन्धसे] संकुचित व्यापारवाली होनेके कारण ज्ञेयभूत विश्वके [–समस्त पदार्थोंके] एक–एक
देशमें क्रमशः व्यापार करती हुई विवर्तनको प्राप्त होती है। किन्तु जब ज्ञानावरणादिकर्मोंका सम्पर्क
विनष्ट होता है, तब
वह ज्ञेयभूत विश्वके सर्व देशोंमें युगपद् व्यापार करती हुई कथंचित् कूटस्थ
होकर, अन्य विषयको प्राप्त न होती हुई विवर्तन नहीं करती। वह यह [चित्शक्तिके विवर्तनका
अभाव], वास्तवमें निश्चित [–नियत, अचल] सर्वज्ञपनेकी और सर्वदर्शीपनेकी उपलब्धि है। यही,
द्रव्यकर्मोंके निमित्तभूत भावकर्मोंके कर्तृत्वका विनाश है; यही, विकारपूर्वक अनुभवके अभावके कारण
औपाधिक सुखदुःखपरिणामोंके भोक्तृत्वका विनाश है; और यही, अनादि विवर्तनके खेदके विनाशसे
--------------------------------------------------------------------------
१। पूर्व सूत्रमें कहे हुए ‘जीवत्व’ आदि नव विशेषोमेंसे प्रथम आठ विशेष मुक्तात्माको भी यथासंभव होते हैं, मात्र
एक ‘कर्मसंयुक्तपना’ नहीं होता।

२। चिद्विवर्त = चैतन्यका परिवर्तन अर्थात् चैतन्यका एक विषयको छोड़़कर अन्य विषयको जाननेरूप बदलना;
चित्शक्तिका अन्य अन्य ज्ञेयोंको जाननेरूप परिवर्तित होना।

३। कूटस्थ = सर्वकाल एक रूप रहनेवाली; अचल। [ज्ञानावरणादिकर्मोका सम्बन्ध नष्ट होने पर कहीं चित्शक्ति
सर्वथा अपरिणामी नहीं हो जाती; किन्तु वह अन्य–अन्य ज्ञेयोंको जाननेरूप परिवर्तित नहीं होती–सर्वदा तीनों
कालके समस्त ज्ञेयोंको जानती रहती है, इसलिये उसे कथंचित् कूटस्थ कहा है।]

४। औपाधिक = द्रव्यकर्मरूप उपाधिके साथ सम्बन्धवाले; जिनमें द्रव्यकर्मरूपी उपाधि निमित्त होती है ऐसे;
अस्वाभाविक; वैभाविक; विकारी।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
५९
च विकारपूर्वकानुभवाभावादौपाधिकसुखदुःखपरिणामानां भोक्तृत्वोच्छेदः। इदमेव
चानादिविवर्तखेदविच्छित्तिसुस्थितानंतचैतन्यस्यात्मनः स्वतंत्रस्वरूपानुभूतिलक्षणसुखस्य भोक्तृ–
त्वमिति।। २८।।
जादो सयं स चेदा सव्वण्हू सव्वलोगदरसी य।
पप्पोदि सुहमणंतं अव्वाबाधं सगममुत्तं।। २९।।
जातः स्वयं स चेतयिता सर्वज्ञः सर्वलोकदर्शी च।
प्राप्नोति सुखमनंतमव्याबाधं स्वकममूर्तम्।। २९।।
-----------------------------------------------------------------------------

जिसका अनन्त चैतन्य सुस्थित हुआ है ऐसे आत्माको स्वतंत्रस्वरूपानुभूतिलक्षण सुखका [–स्वतंत्र
स्वरूपकी अनुभूति जिसका लक्षण है ऐसे सुखका] भोक्तृत्व है।। २८।।
गाथा २९
अन्वयार्थः– [सः चेतयिता] वह चेतयिता [चेतनेवाला आत्मा] [सर्वज्ञः] सर्वज्ञ [च] और
[सर्वलोकदर्शी] सर्वलोकदर्शी [स्वयं जातः] स्वयं होता हुआ, [स्वकम्] स्वकीय [अमूर्तम्] अमूर्त
[अव्याबाधम्] अव्याबाध [अनंतम्] अनन्त [सुखम्] सुखको [प्राप्नोति] उपलब्ध करता है।
टीकाः– यह, सिद्धके निरुपाधि ज्ञान, दर्शन और सुखका समर्थन है।
वास्तवमें ज्ञान, दर्शन और सुख जिसका स्वभाव है ऐसा आत्मा संसारदशामें, अनादि
कर्मक्लेश द्वारा आत्मशक्ति संकुचित की गई होनेसे, परद्रव्यके सम्पर्क द्वारा [–इंद्रियादिके सम्बन्ध
द्वारा] क्रमशः कुछ–कुछ जानता है और देखता है तथा पराश्रित, मूर्त [इन्द्रियादि] के साथ
सम्बन्धवाला, सव्याबाध [–बाधा सहित] और सान्त सुखका अनुभव करता है; किन्तु जब उसके
कर्मक्लेश समस्तरूपसे विनाशको प्राप्त होते हैं तब, आत्मशक्ति अनर्गल [–निरंकुश] और
असंकुचित होनेसे, वह असहायरूपसे [–किसीकी सहायताके बिना] स्वयमेव युगपद् सब [–
सर्व द्रव्यक्षेत्रकालभाव] जानता है और देखता है तथा स्वाश्रित, मूर्त [इन्द्रियादि] के साथ सम्बन्ध
रहित, अव्याबाध और अनन्त सुखका अनुभव करता है। इसलिये सब स्वयमेव जानने और
देखनेवाले तथा स्वकीय सुखका अनुभवन करनेवाले सिद्धको परसे [कुछभी] प्रयोजन नहीं है।
--------------------------------------------------------------------------

स्वयमेव चेतक सर्वज्ञानी–सर्वदर्शी थाय छे,
ने निज अमूर्त अनंत अव्याबाध सुखने अनुभवे। २९।

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६०
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
इदं सिद्धस्य निरुपाधिज्ञानदर्शनसुखसमर्थनम्।

आत्मा हि ज्ञानदर्शनसुखस्वभावः संसारावस्थायामनादिकर्मकॢेशसंकोचितात्मशक्तिः
परद्रव्यसंपर्केण क्रमेण किंचित् किंचिज्जानाति पश्यति, परप्रत्ययं मूर्तसंबद्धं सव्याबाधं सांतं
सुखमनुभवति च। यदा त्वस्य कर्मकॢेशाः सामस्त्येन प्रणश्यन्ति, तदाऽनर्गलासंकुचितात्म–
शक्तिरसहायः स्वयमेव युगपत्समग्रं जानाति पश्यति, स्वप्रत्ययममूर्तसंबद्धमव्याबाधमनंतं सुख
मनुभवति च। ततः सिद्धस्य समस्तं स्वयमेव जानतः पश्यतः, सुखमनुभवतश्च स्वं, न परेण
प्रयोजनमिति।। २९।।
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भावार्थः– सिद्धभगवान [तथा केवलीभगवान] स्वयमेव सर्वज्ञत्वादिरूपसे परिणमित होते हैं;
उनके उस परिणमनमें लेशमात्र भी [इन्द्रियादि] परका आलम्बन नहीं है।
यहाँ कोई सर्वज्ञका निषेध करनेवाला जीव कहे कि– ‘सर्वज्ञ है ही नहीं, क्योंकि देखनेमें
नहीं आते,’ तो उसे निम्नोक्तानुसार समझाते हैंः–
हे भाई! यदि तुम कहते हो कि ‘सर्वज्ञ नहीं है,’ तो हम पूछते हैं कि सर्वज्ञ कहाँ नहीं है?
इस क्षेत्रमें और इस कालमें अथवा तीनों लोकमें और तीनों कालमें? यदि ‘इस क्षेत्रमें और इस
कालमें सर्वज्ञ नहीं है’ ऐसा कहो, तो वह संमत ही है। किन्तु यदि ‘ तीनों लोकमें और तीनों
कालमें सर्वज्ञ नहीं है ’ ऐसा कहो तो हम पूछते हैं कि वह तुमने कैसे जाना? य्दि तीनों लोकको
और तीनों कालको सर्वज्ञ रहित तुमने देख–जान लिया तो तुम्हीं सर्वज्ञ हो गये, क्योंकि जो तीन
लोक और तीन कालको जाने वही सर्वज्ञ है। और यदि सर्वज्ञ रहित तीनों लोक और तीनों कालको
तुमने नहीं देखा–जाना है तो फिर ‘ तीन लोक और तीन कालमें सर्वज्ञ नहीं है ’ ऐसा तुम कैसे
कह सकते हो? इस प्रकार सिद्ध होता है कि तुम्हारा किया हुआ सर्वज्ञका निषेध योग्य नहीं है।
हे भाई! आत्मा एक पदार्थ हैे और ज्ञान उसका स्वभाव है; इसलिये उस ज्ञानका सम्पूर्ण
विकास होने पर ऐसा कुछ नहीं रहता कि जो उस ज्ञानमें अज्ञात रहे। जिस प्रकार परिपूर्ण
उष्णतारूप परिणमित अग्नि समस्त दाह्यको जलाती है, उसी प्रकार परिपूर्ण ज्ञानरूप परिणमित

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
६१
पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीविस्सदि जो हु जीविदो पुव्वं।
सो जीवो पाणा पुण बलमिंदियमाउ उस्सासो।। ३०।।
प्राणैश्चतुर्भिर्जीवति जीविष्यति यः खलु जीवितः पूर्वम्।
स जीवः प्राणाः पुनर्बलमिन्द्रियमायुरुच्छवासः।। ३०।।
जीवत्वगुणव्याख्येयम्।
-----------------------------------------------------------------------------
आत्मा समस्त ज्ञेयको जानता है। ऐसी सर्वज्ञदशा इस क्षेत्रमें इस कालमें [अर्थात् इस क्षेत्रमें इस
कालमें जन्म लेने वाले जीवोंको ] प्राप्त नहीं होती तथापि सर्वज्ञत्वशक्तिवाले निज आत्माका स्पष्ट
अनुभव इस क्षेत्रमें इस कालमें भी हो सकता है।

यह शास्त्र अध्यात्म शास्त्र होनेसे यहाँ सर्वज्ञसिद्धिका विस्तार नहीं किया गया है; जिज्ञासुको
वह अन्य शास्त्रोमें देख लेना चाहिये।। २९।।
गाथा ३०
अन्वयार्थः– [यः खलु] जो [चतुर्भिः प्राणैः] चार प्राणोंसे [जीवति] जीता है, [जीविष्यति]
जियेगा और [जीवितः पूर्वम्] पूर्वकालमें जीता था, [सः जीवः] वह जीव है; [पुनः प्राणाः] और
प्राण [इन्द्रियम्] इन्द्रिय, [बलम्] बल, [आयुः] आयु तथा [उच्छवासः] उच्छ्वास है।
टीकाः– यह, जीवत्वगुणकी व्याख्या है।
प्राण इन्द्रिय, बल, आयु और उच्छ्वासस्वरूप है। उनमें [–प्राणोंमें], चित्सामान्यरूप
अन्वयवाले वे भावप्राण है और पुद्गलसामान्यरूप अन्वयवाले वे द्रव्यप्राण हैं। उन दोनों प्राणोंको
त्रिकाल अच्छिन्न–संतानरूपसे [अटूट धारासे] धारण करता है इसलिये संसारीको जीवत्व है।
मुक्तको [सिद्धको] तो केवल भावप्राण ही धारण होनेसे जीवत्व है ऐसा समझना।। ३०।।
--------------------------------------------------------------------------
जिन प्राणोंमें चित्सामान्यरूप अन्वय होता है वे भावप्राण हैं अर्थात् जिन प्राणोंमें सदैव ‘चित्सामान्य,
चित्सामान्य, चित्सामान्य’ ऐसी एकरूपता–सद्रशता होती है वेे भावप्राण हैं। [जिन प्राणोंमें सदैव
‘पुद्गलसामान्य, पुद्गलसामान्य, पुद्गलसामान्य ’ ऐसी एकरूपता–सद्रशता होती है वे द्रव्यप्राण हैं।]

जे चार प्राणे जीवतो पूर्वे, जीवे छे, जीवशे,
ते जीव छे; ने प्राण इन्द्रिय–आयु–बल–उच्छ्वास छे। ३०।

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६२
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
इन्द्रियबलायुरुच्छवासलक्षणा हि प्राणाः। तेषु चित्सामान्यान्वयिनो भावप्राणाः,
पुद्गलसामान्यान्वयिनो द्रव्यप्राणाः। तेषामुभयेषामपि त्रिष्वपि कालेष्वनवच्छिन्नसंतानत्वेन
धारणात्संसारिणो जीवत्वम्। मुक्तस्य तु केवलानामेव भावप्राणानां धारणात्तदवसेयमिति।। ३०।।
अगुरुलहुगा अणंता तेहिं अणंतेहिं परिणदा सव्वे।
देसेहिं असंखादा सिय लोगं सव्वमावण्णा।। ३१।।
केचित्तु अणावण्णा मिच्छादंसणकसायजोगजुदा।
विजुदा य तेहिं बहुगा
सिद्धा संसारिणो जीवा।। ३२।।
अगुरुलघुका अनंतास्तैरनंतैः परिणताः सर्वे।
देशैरसंख्याताः स्याल्लोकं सर्वमापन्नाः।। ३१।।
केचित्तु अनापन्ना मिथ्यादर्शनकषाययोगयुताः।
वियुताश्च तैर्बहवः सिद्धाः संसारिणो जीवाः।। ३२।।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ३१–३२
अन्वयार्थः– [अनंताः अगुरुलघुकाः] अनन्त ऐसे जो अगुरुलघु [गुण, अंश] [तैः अनंतैः] उन
अनन्त अगुरुलघु [गुण] रूपसे [सर्वे] सर्व जीव [परिणताः] परिणत हैं; [देशैः असंख्याताः] वे
असंख्यात प्रदेशवाले हैं। [स्यात् सर्वम् लोकम् आपन्नाः] कतिपय कथंचित् समस्त लोकको प्राप्त होते
हैं [केचित् तु] और कतिपय [अनापन्नाः] अप्राप्त होते हैं। [बहवः जीवाः] अनेक [–अनन्त] जीव
[मिथ्यादर्शनकषाययोगयुताः] मिथ्यादर्शन–कषाय–योगसहित [संसारिणः] संसारी हैं [च] और
अनेक [–अनन्त जीव] [तैः वियुताः] मिथ्यादर्शन–कषाय–योगरहित [सिद्धाः] सिद्ध हैं।
--------------------------------------------------------------------------

जे अगुरुलघुक अनन्त ते–रूप सर्व जीवो परिणमे;
सौना प्रदेश असंख्य; कतिपय लोकव्यापी होय छे; ३१।
अव्यापी छे कतिपय; वली निर्दोष सिद्ध जीवो घणा;
मिथ्यात्व–योग–कषाययुत संसारी जीव बहु जाणवा। ३२।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
६३
अत्र जीवानां स्वाभाविकं प्रमाणं मुक्तामुक्तविभागश्चोक्तः।
जीवा ह्यविभागैकद्रव्यत्वाल्लोकप्रमाणैकप्रदेशाः। अगुरुलघवो गुणास्तु तेषामगुरुलघु–
त्वाभिधानस्य स्वरूपप्रतिष्ठत्वनिबंधनस्य स्वभावस्याविभागपरिच्छेदाः प्रतिसमय–
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– यहाँ जीवोंका स्वाभाविक प्रमाण तथा उनका मुक्त और अमुक्त ऐसा विभाग कहा है।
जीव वास्तवमें अविभागी–एकद्रव्यपनेके कारण लोकप्रमाण–एकप्रदेशवाले हैं। उनके [–
जीवोंके] अगुरुलघुगुण–अगुरुलघुत्व नामका जो स्वरूपप्रतिष्ठत्वके कारणभूत स्वभाव उसका
अविभाग परिच्छेद–प्रतिसमय होने वाली षट्स्थानपतित वृद्धिहानिवाले अनन्त हैं; और [उनके
अर्थात् जीवोंके] प्रदेश– जो कि अविभाग परमाणु जितने मापवाले सूक्ष्म अंशरूप हैं वे–असंख्य हैं।
ऐसे उन जीवोंमें कतिपय कथंचित् [केवलसमुद्घातके कारण] लोकपूरण–अवस्थाके प्रकार द्वारा
समस्त लोकमें व्याप्त होते हैं और कतिपय समस्त लोकमें अव्याप्त होते हैं। और उन जीवोंमें जो
अनादि
--------------------------------------------------------------------------
१। प्रमाण = माप; परिमाण। [जीवके अगुरुलघुत्वस्वभावके छोटेसे छोटे अंश [अविभाग परिच्छेद] करने पर
स्वभावसे ही सदैव अनन्त अंश होते हैं, इसलिये जीव सदैव ऐसे [षट्गुणवृद्धिहानियुक्त] अनन्त अंशों
जितना हैं। और जीवके स्वक्षेत्रके छोटेसे छोटे अंश करने पर स्वभावसे ही सदैव असंख्य अंश होते हैं,
इसलिये जीव सदैव ऐसे असंख्य अंशों जितना है।]

२। गुण = अंश; अविभाग परिच्छेद। [जीवमें अगुरुलघुत्व नामका स्वभाव है। वह स्वभाव जीवको
स्वरूपप्रतिष्ठत्वके [अर्थात् स्वरूपमें रहनेके] कारणभूत है। उसके अविभाग परिच्छेदोंको यहाँ अगुरुलघु गुण
[–अंश] कहे हैं।]

३। किसी गुणमें [अर्थात् गुणकी पर्यायमें] अंशकल्पना की जानेपर, उसका जो छोटेसे छोटा [जघन्य मात्रारूप,
निरंश] अंश होता हैे उसे उस गुणका [अर्थात् गुणकी पर्यायका] अविभाग परिच्छेद कहा जाता है।

४। षट्स्थानपतित वृद्धिहानि = छह स्थानमें समावेश पानेवाली वृद्धिहानि; षट्गुण वृद्धिहानि।
[अगुरुलघुत्वस्वभावकेे अनन्त अंशोमें स्वभावसे ही प्रतिसमय षट्गुण वृद्धिहानि होती रहती है।]

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६४
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
संभवत्षट्स्थानपतितवृद्धिहानयोऽनंताः। प्रदेशास्तु अविभागपरमाणुपरिच्छिन्नसूक्ष्मांशरूपा
असंख्येयाः। एवंविधेषु तेषु केचित्कथंचिल्लोकपूरणावस्थाप्रकारेण सर्वलोकव्यापिनः, केचित्तु
तदव्यापिन इति। अथ ये तेषु मिथ्यादर्शनकषाययोगैरनादिसंततिप्रवृत्तैर्युक्तास्ते संसारिणः, ये
विमुक्तास्ते सिद्धाः, ते च प्रत्येकं बहव इति।। ३१–३२।।
जह पउमरायरयणं खित्तं खीरे पभासयदि खीरं।
तह देही देहत्थो सदेहमित्तं पभासयदि।। ३३।।
यथा पद्मरागरत्नं क्षिप्तं क्षीरे प्रभासयति क्षीरम्।
तथा देही देहस्थः स्वदेहमात्रं प्रभायसति।। ३३।।
एष देहमात्रत्वद्रष्टांतोपन्यासः।
-----------------------------------------------------------------------------

प्रवाहरूपसे प्रवर्तमान मिथ्यादर्शन–कषाय–योग सहित हैं वे संसारी हैं, जो उनसे विमुक्त हैं [अर्थात्
मिथ्यादर्शन–कषाय–योगसे रहित हैं] वे सिद्ध हैं; और वे हर प्रकारके जीव बहुत हैं [अर्थात्
संसारी तथा सिद्ध जीवोंमेंसे हरएक प्रकारके जीव अनन्त हैं]।। ३१–३२।।
गाथा ३३
अन्वयार्थः– [यथा] जिस प्रकार [पद्मरागरत्नं] पद्मरागरत्न [क्षीरे क्षिप्तं] दूधमें डाला जाने
पर [क्षीरम् प्रभासयति] दूधको प्रकाशित करता है, [तथा] उसी प्रकार [देही] देही [जीव]
[देहस्थः] देहमें रहता हुआ [स्वदेहमात्रं प्रभासयति] स्वदेहप्रमाण प्रकाशित होता है।
टीकाः– यह देहप्रमाणपनेके द्रष्टान्तका कथन है [अर्थात् यहाँ जीवका देहप्रमाणपना समझानेके
लिये द्रष्टान्त कहा है]।
--------------------------------------------------------------------------
यहाँ यह ध्यान रखनां चाहिये कि द्रष्टान्त और दार्ष्टांन्त अमुक अंशोमें ही एक–दूसरेके साथ मिलते हैं [–
समानतावाले] होते हैं, सर्व अंशोमें नहीं।

ज्यम दूधमां स्थित पद्मरागमणि प्रकाशे दूधने,
त्यम देहमां स्थित देही देहप्रमाण व्यापकता लहे। ३३।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
६५
यथैव हि पद्मरागरत्नं क्षीरे क्षिप्तं स्वतोऽव्यतिरिक्तप्रभास्कंधेन तद्वयाप्नोति क्षीरं, तथैव हि जीवः
अनादिकषायमलीमसत्वमूले शरीरेऽवतिष्ठमानः स्वप्रदेशैस्तदभिव्याप्नोति शरीरम्। यथैव च तत्र
क्षीरेऽग्निसंयोगादुद्वलमाने तस्य पद्मरागरत्नस्य प्रभास्कंध उद्वलते पुनर्निविशमाने निविशते च, तथैव
च तत्र शरीरे विशिष्टाहारादिवशादुत्सर्पति तस्य जीवस्य प्रदेशाः उत्सर्पन्ति पुनरपसर्पति अपसर्पन्ति
च। यथैव च तत्पद्मरागरत्नमन्यत्र प्रभूतक्षीरे क्षिप्तं स्वप्रभा–स्कंधविस्तारेण तद्वयाप्नोति प्रभूतक्षीरं,
तथैव हि जीवोऽन्यत्र महति शरीरेऽवतिष्ठमानः स्वप्रदेशविस्तारेण तद्वयाप्नोति महच्छरीरम्। यथैव च
तत्पद्मरागरत्नमन्यत्र स्तोकक्षीरे निक्षिप्तं स्वप्रभास्कंधोपसंहारेण तद्वयाप्नोति स्तोकक्षीरं, तथैव च
जीवोऽन्यत्राणुशरीरेऽवतिष्ठमानः
-----------------------------------------------------------------------------
जिस प्रकार पद्मरागरत्न दूधमें डाला जाने पर अपनेसे अव्यतिरिक्त प्रभासमूह द्वारा उस दूधमें
व्याप्त होता है, उसी प्रकार जीव अनादि कालसे कषाय द्वारा मलिनता होनेके कारण शरीरमें रहता
हुआ स्वप्रदेशों द्वारा उस शरीरमें व्याप्त होता है। और जिस प्रकार अग्निके संयोगसे उस दूधमें
उफान आने पर उस पद्मरागरत्नके प्रभासमूहमें उफान आता है [अर्थात् वह विस्तारको व्याप्त होता
है] और दूध फिर बैठ जाने पर प्रभासमूह भी बैठ जाता है, उसी प्रकार विशिष्ट आहारादिके वश
उस शरीरमें वृद्धि होने पर उस जीवके प्रदेश विस्तृत होते हैं और शरीर फिर सूख जाने पर प्रदेश
भी संकुचित हो जाते हैं। पुनश्च, जिस प्रकार वह पद्मरागरत्न दूसरे अधिक दूधमें डाला जाने पर
स्वप्रभासमूहके विस्तार द्वारा उस अधिक दूधमें व्याप्त होता है, उसी प्रकार जीव दूसरे बड़े शरीरमें
स्थितिको प्राप्त होने पर स्वप्रदेशोंके विस्तार द्वारा उस बड़े शरीरमें व्याप्त होता है। और जिस
प्रकार वह पद्मरागरत्न दूसरे कम दूधमें डालने पर स्वप्रभासमूहके संकोच द्वारा उस थोड़े दूधमें
--------------------------------------------------------------------------
अव्यतिरिक्त = अभिन्न [जिस प्रकार ‘मिश्री एक द्रव्य है और मिठास उसका गुण है’ ऐसा कहीं द्रष्टांतमें कहा
हो तो उसे सिद्धांतरूप नहीं समझना चाहिये; उसी प्रकार यहाँ भी जीवके संकोचविस्ताररूप दार्ष्टांतको
समझनेके लिये रत्न और
(दूधमें फैली हुई) उसकी प्रभाको जो अव्यतिरिक्तपना कहा है यह सिद्धांतरूप नहीं
समझना चाहिये। पुद्गलात्मक रत्नको द्रष्टांत बनाकर असंख्यप्रदेशी जीवद्रव्यके संकोचविस्तारको किसी प्रकार
समझानेके हेतु यहाँ रत्नकी प्रभाको रत्नसे अभिन्न कहा है।
(अर्थात् रत्नकी प्रभा संकोचविस्तारको प्राप्त होने
पर मानों रत्नके अंश ही–रत्न ही–संकोचविस्तारको प्राप्त हुए ऐसा समझनेको कहा है)।]

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६६
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
स्वप्रदेशोपसंहारेण तद्वयाप्नोत्यणुशरीरमिति।। ३३।।
सव्वत्थ अत्थि जीवो ण य एक्को एक्ककाय एक्कट्ठो।
अज्झवसाणविसिट्ठो चिट्ठदि
मलिणो रजमलेहिं।। ३४।।
सर्वत्रास्ति जीवो न चैक एककाये ऐक्यस्थः।
अध्यवसानविशिष्टश्चेष्टते मलिनो रजोमलैः।। ३४।।
अत्र जीवस्य देहाद्देहांतरेऽस्तित्वं, देहात्पृथग्भूतत्वं, देहांतरसंचरणकारणं चोपन्यस्तम्।
-----------------------------------------------------------------------------

व्याप्त होता है, उसी प्रकार जीव अन्य छोटे शरीरमें स्थितिको प्राप्त होने पर स्वप्रदेशोंके संकोच
द्वारा उस छोटे शरीरमें व्याप्त होता है।
भावार्थः– तीन लोक और तीन कालके समस्त द्रव्य–गुण–पर्यायोंको एक समयमें प्रकाशित
करनेमें समर्थ ऐसे विशुद्ध–दर्शनज्ञानस्वभाववाले चैतन्यचमत्कारमात्र शुद्धक्ववास्तिकायसे विलक्षण
मिथ्यात्वरागादि विकल्पों द्वारा उपार्जित जो शरीरनामकर्म उससे जनित [अर्थात् उस
शरीरनामकर्मका उदय जिसमें निमित्त है ऐसे] संकोचविस्तारके आधीनरूपसे जीव सर्वोत्कृष्ट
अवगाहरूपसे परिणमित होता हुआ सहस्रयोजनप्रमाण महामत्स्यके शरीरमें व्याप्त होता है, जघन्य
अवगाहरूपसे परिणमित होता हुआ उत्सेध घनांगुलके असंख्यातवें भाग जितने लब्ध्यपर्याप्त
सूक्ष्मनिगोदके शरीरमें व्याप्त होता है और मध्यम अवगाहरूपसे परिणमित होता हुआ मध्यम शरीरमें
व्याप्त होता है।। ३३।।
गाथा ३४

अन्वयार्थः–
[जीवः] जीव [सर्वत्र] सर्वत्र [क्रमवर्ती सर्व शरीरोमें] [अस्ति] है [च] और
[एककाये] किसी एक शरीरमें [ऐक्यस्थः] [क्षीरनीरवत्] एकरूपसे रहता है तथापि [न एकः]
उसके साथ एक नहीं है; [अध्यवसानविशिष्टः] अध्यवसायविशिष्ट वर्तता हुआ [रजोमलैः मलिनः]
रजमल [कर्ममल] द्वारा मलिन होनेसे [चेष्टते] वह भमण करता है।
टीकाः– यहाँ जीवका देहसे देहांतरमें [–एक शरीरसे अन्य शरीरमें] अस्तित्व, देहसे पृथक्त्व
तथा देहान्तरमें गमनका कारण कहा है।
--------------------------------------------------------------------------
तन तन धरे जीव, तन महीं ऐकयस्थ पण नहि एक छे,
जीव विविध अध्यवसाययुत, रजमळमलिन थईने भमे। ३४।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
६७
आत्मा हि संसारावस्थायां क्रमवर्तिन्यनवच्छिन्नशरीरसंताने यथैकस्मिन् शरीरे वृत्तः तथा
क्रमेणान्येष्वपि शरीरेषु वर्तत इति तस्य सर्वत्रास्तित्वम्। न चैकस्मिन् शरीरे नीरे क्षीरमिवैक्येन
स्थितोऽपि भिन्नस्वभावत्वात्तेन सहैक इति तस्य देहात्पृथग्भूतत्वम्। अनादि–
बंधनोपाधिविवर्तितविविधाध्यवसायविशिष्टत्वातन्मूलकर्मजालमलीमसत्वाच्च चेष्टमानस्यात्मनस्त–
थाविधाध्यवसायकर्मनिर्वर्तितेतरशरीरप्रवेशो भवतीति तस्य देहांतरसंचरणकारणोपन्यास
इति।।३४।।
जेसिं जीवसहावो णत्थि अभावो य सव्वहा तस्स।
ते होंति भिण्णदेहा सिद्धा वचिगोयरमदीदा।। ३५।।
येषां जीवस्वभावो नास्त्यभावश्च सर्वथा तस्य।
ते भवन्ति भिन्नदेहाः सिद्धा वाग्गोचरमतीताः।। ३५।।
-----------------------------------------------------------------------------
आत्मा संसार–अवस्थामें क्रमवर्ती अच्छिन्न [–अटूट] शरीरप्रवाहमें जिस प्रकार एक शरीरमें
वर्तता है उसी प्रकार क्रमसे अन्य शरीरोंमें भी वर्तता है; इस प्रकार उसे सर्वत्र [–सर्व शरीरोंमें]
अस्तित्व है। और किसी एक शरीरमें, पानीमें दूधकी भाँति एकरूपसे रहने पर भी, भिन्न स्वभावके
कारण उसके साथ एक [तद्रूप] नहीं है; इस प्रकार उसे देहसे पृथक्पना है। अनादि बंधनरूप
उपाधिसे विवर्तन [परिवर्तन] पानेवाले विविध अध्यवसायोंसे विशिष्ट होनेके कारण [–अनेक प्रकारके
अध्यवसायवाला होनेके कारण] तथा वे अध्यवसाय जिसका निमित्त हैं ऐसे कर्मसमूहसे मलिन होनेके
कारण भ्रमण करते हुए आत्माको तथाविध अध्यवसायों तथा कर्मोंसे रचे जाने वाले [–उस प्रकारके
मिथ्यात्वरागादिरूप भावकर्मों तथा द्रव्यकर्मोंसे रचे जाने वाले] अन्य शरीरमें प्रवेश होता है; इस
प्रकार उसे देहान्तरमें गमन होनेका कारण कहा गया।। ३४।।
गाथा ३५
अन्वयार्थः– [येषां] जिनके [जीवस्वभावः] जीवस्वभाव [–प्राणधारणरूप जीवत्व] [न
अस्ति] नहीं है और [सर्वथा] सर्वथा [तस्य अभावः च] उसका अभाव भी नहीं है, [ते] वे
[भिन्नदेहाः] देहरहित [वाग्गोचरम् अतीताः] वचनगोचरातीत [सिद्धाः भवन्ति] सिद्ध
[सिद्धभगवन्त] हैं।
--------------------------------------------------------------------------

जीवत्व नहि ने सर्वथा तदभाव पण नहि जेमने,
ते सिद्ध छे–जे देहविरहित वचनविषयातीत छे। ३५।

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६८
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
सिद्धानां जीवत्वदेहमात्रत्वव्यवस्थेयम्।
सिद्धानां हिं द्रव्यप्राणधारणात्मको मुख्यत्वेन जीवस्वभावो नास्ति। न च जीवस्वभावस्य
सर्वथाभावोऽस्ति भावप्राणधारणात्मकस्य जीवस्वभावस्य मुख्यत्वेन सद्भावात्। न च तेषां शरीरेण सह
नीरक्षीरयोरिवैक्येन वृत्तिः, यतस्ते तत्संपर्कहेतुभूतकषाययोगविप्रयोगादती–
तानंतरशरीरमात्रावगाहपरिणतत्वेऽप्यत्यंतभिन्नदेहाः। वाचां गोचरमतीतश्च तन्महिमा, यतस्ते
लौकिकप्राणधारणमंतरेण शरीरसंबंधमंतरेण च परिप्राप्तनिरुपाधिस्वरूपाः सततं प्रत–पंतीति।।३५।।
ण कुदोचि वि उप्पण्णो जम्हा कज्जं ण तेण सो सिद्धो।
उप्पादेदि ण किंचि वि कारणमवि तेण ण स होदि।। ३६।।
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– यह सिद्धोंके [सिद्धभगवन्तोंके] जीवत्व और देहप्रमाणत्वकी व्यवस्था है।
सिद्धोंको वास्तवमें द्रव्यप्राणके धारणस्वरूप जीवस्वभाव मुख्यरूपसे नहीं है; [उन्हें]
जीवस्वभावका सर्वथा अभाव भी नहीं है, क्योंकि भावप्राणके धारणस्वरूप जीवस्वभावका मुख्यरूपसे
सद्भाव है। और उन्हें शरीरके साथ, नीरक्षीरकी भाँति, एकरूप
वृत्ति नहीं है; क्योंकि
शरीरसंयोगसे हेतुभूत कषाय और योगका वियोग हुआ है इसलिये वे अतीत अनन्तर शरीरप्रमाण
अवगाहरूप परिणत होने पर भी अत्यंत देहरहित हैं। औरवचनगोचरातीत उनकी महिमा है; क्योंकि
लौकिक प्राणके धारण बिना और शरीरके सम्बन्ध बिना, संपूर्णरूपसे प्राप्त किये हुए निरुपाधि स्वरूप
द्वारा वे सतत प्रतपते हैं [–प्रतापवन्त वर्तते हैं]।। ३५।।
--------------------------------------------------------------------------
१। वृत्ति = वर्तन; अस्तित्व।

२। अतीत अनन्तर = भूत कालका सबसे अन्तिम; चरम। [सिद्धभगवन्तोंकी अवगाहना चरमशरीरप्रमाण होने के
कारण उस अन्तिम शरीरकी अपेक्षा लेकर उन्हें ‘देहप्रमाणपना’ कहा जा सकता है तथापि, वास्तवमें वे
अत्यन्त देहरहित हैं।]

३। वचनगोचरातीत = वचनगोचरताको अतिक्रान्त ; वचनविषयातीत; वचन–अगोचर।

ऊपजे नहीं को कारणे ते सिद्ध तेथी न कार्य छे,
उपजावता नथी कांई पण तेथी न कारण पण ठरे। ३६।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
६९
न कुतश्चिदप्युत्पन्नो यस्मात् कार्यं न तेन सः सिद्धः।
उत्पादयति न किंचिदपि कारणमपि तेन न स भवति।। ३६।।
सिद्धस्य कार्यकारणभावनिरासोऽयम्।
यथा संसारी जीवो भावकर्मरूपयात्मपरिणामसंतत्या द्रव्यकर्मरूपया च पुद्गलपरिणामसंतत्या
कारणभूतया तेन तेन देवमनुष्यतिर्यग्नारकरूपेण कार्यभूत उत्पद्यते न तथा सिद्धरूपेणापीति। सिद्धो
ह्युभयकर्मक्षये स्वयमुत्पद्यमानो नान्यतः कुतश्चिदुत्पद्यत इति। यथैव च स एव संसारी
भावकर्मरूपामात्मपरिणामसंततिं द्रव्यकर्मरूपां च पुद्गलपरिणामसंततिं कार्यभूतां कारणभूतत्वेन
निर्वर्तयन् तानि तानि देवमनुष्यतिर्यग्नारकरूपाणि कार्याण्युत्पादयत्यात्मनो न तथा सिद्धरूपमपीति।
सिद्धो ह्युभयकर्मक्षये स्वयमात्मानमुत्पादयन्नान्यत्किञ्चिदुत्पादयति।। ३६।।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ३६
अन्वयार्थः– [यस्मात् सः सिद्धः] वे सिद्ध [कुतश्चित् अपि] किसी [अन्य] कारणसे [न
उत्पन्नः] उत्पन्न नहीं होते [तेन] इसलिये [कार्यं न] कार्य नहीं हैं, और [किंचित् अपि] कुछ भी
[अन्य कार्यको] [न उत्पादयति] उत्पन्न नहीं करते [तेन] इसलिये [सः] वे [कारणम् अपि]
कारण भी [न भवति] नहीं हैं।
टीकाः– यह, सिद्धको कार्यकारणभाव होनेका निरास है [अर्थात् सिद्धभगवानको कार्यपना और
कारणपना होनेका निराकरण–खण्डन है]।
जिस प्रकार संसारी जीव कारणभूत ऐसी भावकर्मरूप आत्मपरिणामसंतति और द्रव्यकर्मरूप
पुद्गलपरिणामसंतति द्वारा उन–उन देव–मनुष्य–तिर्यंच–नारकके रूपमें कार्यभूतरूपसे उत्पन्न होता
है, उसी प्रकार सिद्धरूपसे भी उत्पन्न होता है–– ऐेसा नहीं है; [और] सिद्ध [–सिद्धभगवान]
वास्तवमें, दोनों कर्मों का क्षय होने पर, स्वयं [सिद्धरूपसे] उत्पन्न होते हुए अन्य किसी कारणसे
[–भावकर्मसे या द्रव्यकर्मसे] उत्पन्न नहीं होते।
पुनश्च, जिस प्रकार वही संसारी [जीव] कारणभूत होकर कार्यभूत ऐसी भावकर्मरूप
आत्मपरिणामसंतति और द्रव्यकर्मरूप पुद्गलपरिणामसंतति रचता हुआ कार्यभूत ऐसे वे–वे देव–
मनुष्य–तिर्यंच–नारकके रूप अपनेमें उत्पन्न करता है, उसी प्रकार सिद्धका रूप भी [अपनेमें] उत्पन्न
करता है–– ऐेसा नहीं है; [और] सिद्ध वास्तवमें, दोनों कर्मोंका क्षय होने पर, स्वयं अपनेको
[सिद्धरूपसे] उत्पन्न करते हुए अन्य कुछ भी [भावद्रव्यकर्मस्वरूप अथवा देवादिस्वरूप कार्य] उत्पन्न
नहीं करते।। ३६।।
--------------------------------------------------------------------------
आत्मपरिणामसंतति = आत्माके परिणामोंकी परम्परा।

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७०
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
सस्सदमध उच्छेदं भव्वमभव्वं च सुण्णमिदरं च।
विण्णाणमविण्णाणं ण वि जुज्जदि असदि सब्भावे।। ३७।।
शाश्वतमथोच्छेदो भव्यमभव्यं च शून्यमितरच्च।
विज्ञानमविज्ञानं नापि युज्यते असति सद्भावे।। ३७।।
अत्र जीवाभावो मुक्तिरिति निरस्तम्।
द्रव्यं द्रव्यतया शाश्वतमिति, नित्ये द्रव्ये पर्यायाणां प्रतिसमयमुच्छेद इति, द्रव्यस्य सर्वदा
अभूतपर्यायैः भाव्यमिति, द्रव्यस्य सर्वदा भूतपर्यायैरभाव्यमिति, द्रव्यमन्यद्रव्यैः सदा शून्यमिति, द्रव्यं
स्वद्रव्येण सदाऽशून्यमिति, क्वचिज्जीवद्रव्येऽनंतं ज्ञानं क्वचित्सांतं ज्ञानमिति, क्वचिज्जीवद्रव्येऽनंतं
क्वचित्सांतमज्ञानमिति–एतदन्यथा–
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गाथा ३७
अन्वयार्थः– [सद्भावे असति] यदि [मोक्षमें जीवका] सद्भाव न हो तो [शाश्वतम्] शाश्वत,
[अथ उच्छेदः] नाशवंत, [भव्यम्] भव्य [–होनेयोग्य], [अभव्यम् च] अभव्य [–न होनेयोग्य],
[शून्यम्] शून्य, [इतरत् च] अशून्य, [विज्ञानम्] विज्ञान और [अविज्ञानम्] अविज्ञान [न अपि
युज्यते] [जीवद्रव्यमें] घटित नहीं हो सकते। [इसलिये मोक्षमें जीवका सद्भाव है ही।]
टीकाः– यहाँ, ‘जीवका अभाव सो मुक्ति है’ इस बातका खण्डन किया है।
[१] द्रव्य द्रव्यरूपसे शाश्वत है, [२] नित्य द्रव्यमें पर्यायोंका प्रति समय नाश होता है, [३]
द्रव्य सर्वदा अभूत पर्यायरूसपे भाव्य [–होनेयोग्य, परिणमित होनेयोग्य] है, [४] द्रव्य सर्वदा भूत
पर्यायरूपसे अभाव्य [–न होनेयोग्य] है, [५] द्रव्य अन्य द्रव्यों से सदा शून्य है, [६] द्रव्य
स्वद्रव्यसे सदा अशून्य है, [७]
१िकसी जीवद्रव्यमें अनन्त ज्ञान और किसीमें सान्त ज्ञान है, [८]
िकसी
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१। जिसे सम्यक्त्वसे च्युत नहीं होना है ऐसे सम्यक्त्वी जीवको अनन्त ज्ञान है और जिसे सम्यक्त्वसे च्युत होना
है ऐसे सम्यक्त्वी जीवके सान्त ज्ञान है।
२। अभव्य जीवको अनन्त अज्ञान है और जिसे किसी काल भी ज्ञान होता है ऐसे अज्ञानी भव्य जीवको सान्त
अज्ञान है।
सद्भाव जो नहि होय तो ध्रुव, नाश, भव्य, अभव्य ने
विज्ञान, अणविज्ञान, शून्य, अशून्य–ए कंई नव घटे। ३७।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
७१
नुपपद्यमानं मुक्तौ जीवस्य सद्भावमावेदयतीति।। ३७।।
कम्माणं फलमेक्को एक्को कज्जं तु णाणमध एक्को।
चेदयदि जीवरासी चेदगभावेण तिविहेण।। ३८।।
कर्मणां फलमेकः एकः कार्यं तु ज्ञानमथैकः।
चेतयति जीवराशिश्चेतकभावेन त्रिविधेन।। ३८।।
चेतयितृत्वगुणव्याख्येयम्।
एके हि चेतयितारः प्रकृष्टतरमोहमलीमसेन प्रकृष्टतरज्ञानावरणमुद्रितानुभावेन
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जीवद्रव्यमें अनन्त अज्ञान और किसीमें सान्त अज्ञान है – यह सब,
अन्यथा घटित न होता हुआ,
मोक्षमें जीवके सद्भावको प्रगट करता है।। ३७।।
गाथा ३८
अन्वयार्थः– [त्रिविधेन चेतकभावेन] त्रिविध चेतकभाव द्वारा [एकः जीवराशिः] एक जीवराशि
[कर्मणां फलम्] कर्मोंके फलको, [एकः तु] एक जीवराशि [कार्यं] कार्यको [अथ] और [एकः]
एक जीवराशि [ज्ञानम्] ज्ञानको [चेतयति] चेतती [–वेदती] है।
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१। अन्यथा = अन्य प्रकारसे; दूसरी रीतिसे। [मोक्षमें जीवका अस्तित्व ही न रहता हो तो उपरोक्त आठ
भाव घटित हो ही नहीं सकते। यदि मोक्षमें जीवका अभाव ही हो जाता हो तो, [१] प्रत्येक द्रव्य
द्रव्यरूपसे शाश्वत है–यह बात कैसे घटित होगी? [२] प्रत्येक द्रव्य नित्य रहकर उसमें पर्यायका नाश
होता रहता है– यह बात कैसे घटित होगी? [३–६] प्रत्येक द्रव्य सर्वदा अनागत पर्यायसे भाव्य, सर्वदा
अतीत पर्यायसे अभाव्य, सर्वदा परसे शून्य और सर्वदा स्वसे अशून्य है– यह बातें कैसे घटित होंगी?
[७] किसी जीवद्रव्यमें अनन्त ज्ञान हैे– यह बात कैसे घटित होगी? और [८] किसी जीवद्रव्यमें सान्त
अज्ञान है [अर्थात् जीवद्रव्य नित्य रहकर उसमें अज्ञानपरिणामका अन्त आता है]– यह बात कैसे घटित
होगी? इसलिये इन आठ भावों द्वारा मोक्षमें जीवका अस्तित्व सिद्ध होता है।]
त्रणविध चेतकभावथी को जीवराशि ‘कार्य’ने,
को जीवराशि ‘कर्मफळ’ने, कोई चेते ‘ज्ञान’ने। ३८।