Panchastikay Sangrah (Hindi). Description of NischayVyavhaarAabhasi; Contents; Swadhyay Mangalacharan; Shlok: 1-6 ; Shatdravya-panchastikayki samanya vyakhyanroop pithika; Gatha: 1-4.

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प्रश्नः– व्यवहारनय परको उपदेश करनेमें ही कार्यकारी है या स्वयंका भी प्रयोजन साधता है?
उत्तरः– स्वयं भी जब तक निश्चयनयसे प्ररूपति वस्तुको नहीं जानता तबतक व्यवहारमार्ग द्वारा
वस्तुका निश्चय करता है। इसलिये नीचली दशामें स्वयंको भी व्यवहारनय कार्यकारी है। परन्तु
व्यवहारको उपचारमात्र मानकर उसके द्वारा वस्तुका श्रद्धान बराबर किया जावे तो वह कार्यकारी
हो, और यदि निश्चयकी भाँति व्यवहार भी सत्यभूत मानकर ‘वस्तु ऐसी ही है’ ऐसा श्रद्धान किया
जावे तो वह उल्टा अकार्यकारी हो जाये। यही पुरुषार्थसिद्धयुपायमें कहा हैः–
अबुधस्य बोधनांर्थ मुनीश्वरा देशयन्त्तत्यभूतार्थम्।
व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति।।
माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य।
व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य।।
अर्थः– मुनिराज, अज्ञानीको समझानेके लिये असत्यार्थ जो व्यवहारनय उसको उपदेश देते हैं।
जो केवळ व्यवहारको ही समझाता है, उसे तो उपदेश ही देना योग्य नहीं है। जिस प्रकार जो
सच्चे सिंहको न समझता उसे तो बिलाव ही सिंह है, उसी प्रकार जो निश्चयको नहीं समझता
उसके तो व्यवहार ही निश्चयपनेको प्राप्त होता है।
–श्री मोक्षमार्गप्रकाशक

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निश्चयव्यवहाराभास–अवलम्बियोंका निरूपण
अब, निश्चय–व्यवहार दोनों नयोंके आभासका अवलम्बन लेते हैं ऐसे मिथ्याद्रष्टियोंका
निरूपण करते हैंः––
कोई ऐसा मानते हैं कि जिनमतमें निश्चय और व्यवहार दो नय कहे हैं इसलिये हमें उन
दोनोंका अंगीकार करना चाहिये। ऐसा विचारकर, जिस प्रकार केवळनिश्चयभासके अवलिम्बयोंका
कथन किया था तदनुसार तो वे निश्चयका अंगीकार करते हैं और जिस प्रकार केवलव्यवहाराभासके
अवलिम्बयोंका कथन किया था तदनुसार व्यवहारका अंगीकार करते हैं। यद्यपि इस प्रकार अंगीकार
करनेमें दोनों नयोंमें विरोध है, तथापि करें क्या? दोनों नयोंका सच्चा स्वरूप तो भासित हुआ नहीं
है और जिनमतमें दो नय कहे हैं उनमेंसे किसीको छोड़ा भी नहीं जाता। इसलिये भ्रमपूर्वक दोनों
नयोकां साधन साधते हैं। उन जीवोंको भी मिथ्याद्रष्टि जानना।
अब उनकी प्रवृत्तिकी विशेषता दर्शाते हैंः–
अंतरंगमें स्वयंको तो निर्धार करके यथावत् निश्चय–व्यवहार मोक्षमार्गको पहिचाना नहीं है
परन्तु जिन–आज्ञा मानकर निश्चय–व्यवहाररूप दो प्रकारके मोक्षमार्ग मानते हैं। अब मोक्षमार्ग तो
कहीं दो हैं नहीं, मोक्षमार्गका निरूपण दो प्रकारसे है। जहाँं सच्चे मोक्षमार्गको मोक्षमार्ग निरूपण
किया है वह निश्चयमोक्षमार्ग है, और जहाँंं मोक्षमार्ग तो है नहीं किन्तु मोक्षमार्गका निमित्त हैे अथवा
सहचारी है, उसे उपचारसे मोक्षमार्ग कहें वह व्यवहारमोक्षमार्ग है; क्योंकि निश्चय–व्यवहारका सर्वत्र
ऐसा ही लक्षण है। सच्चा निरूपण सो निश्चय, उपचार निरूपण सो व्यवहार। इसलिये निरूपणकी
अपेक्षासे दो प्रकासे मोक्षमार्ग जानना। परंतु एक निश्चयमोक्षमार्ग है तथा एक व्यवहारमोक्षमार्ग है इस
प्रकार दो मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है।
पुनश्च, वे निश्चय–व्यवहार दोनोंको उपादेय मानते हैं। वह भी भ्रम है, क्योंकि निश्चय और
व्यवहारका स्वरूप तो परस्पर विरोध सहित है –
–श्री मोक्षमार्गप्रकाशक

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विषयानुक्रमणिका
विषय
गाथा
विषय
गाथा
दोनों नयों द्वारा द्रव्यके लक्षणका विभाग
११
१ षड्द्रव्यपंचास्तिकायवर्णन
द्रव्य और पर्यायोंके अभेदपनेका कथन
१२
षड्द्रव्यपंचास्तिकायके सामान्य
द्रव्य और गुणोंके अभेदपनेका कथन
१३
व्याख्यानरूप पीठिका
द्रव्यके आदेशके पक्ष सप्तभंगी
१४
उत्पादमें असत्का प्रादुर्भाव और व्ययमें
शास्त्रके आदिमें भावनमस्काररूप
सत् का विनाश होनेका निषेध
१५
असाधारण मंगल
द्रव्यों,गुणों तथा पर्यायोंका प्रज्ञापन
१६
समय अर्थात आगमको प्रणाम करके
उसका कथन करने सम्बन्धी
भावका का नाश नहीं होता और
अभाव
का उत्पाद नहीं होता उसका
श्रीमद्कुन्दकुन्दाचार्य देवकी प्रतिज्ञा
उदाहरण
१७
शब्दरूपसे, ज्ञानरूपसे और अर्थरूपसे
द्रव्य कथंचित व्यय और उत्पादयुक्त
होने
ऐसे तीन प्रकारका ‘समय’ शब्दका
पर भी उसका सदैव अविनष्टपना
अर्थ तथा लोक–अलोकरूप
विभाग
एवं अनुत्पन्नपना
१८
पाँच अस्तिकायोंकी विशेष संज्ञा,
सामान्य
ध्रुवता के पक्षसे सत्का अविनाश और
–विशेष अस्तित्व तथा कायत्वका
कथन
असत्का अनुत्पाद
१९
पाँच अस्तिकायोंका अस्तित्व किस
प्रकार
सिद्धको अत्यंत असत्–उत्पादका निषेध
२०
से है और कायत्व किस प्रकारसे है
जीवको उत्पाद, व्यय, सत्–विनाश एवं
उसका कथन
असत्–उत्पादका कर्तापना होनेकी
पाँच अस्तिकायोंको तथा कालको
द्रव्य–
सिद्धिरूप उपसंहार
२१
पनेका का कथन
छह द्रव्योंमेंसे पाँचको अस्तिकायपनेका
छह द्रव्योंका परस्पर अत्यंत संकर
होनेपर
स्थापन
२२
भी वे अपने अपने निश्चित स्वरूपसे
काल अस्तिकायरूपसे अनुक्त होने पर
च्युत नहीं होते ऐसा कथन
भी उसका अर्थपना
२३
अस्तित्व का स्वरूप
निश्चयकालका स्वरूप
२४
सत्ता और द्रव्यका अर्थान्तरपना
होनेका
व्यवहारकालका कथंचित पराश्रितपना
२५
खण्डन
व्यवहारकालके कथंचित पराश्रितपने
तीन प्रकारसे द्रव्यका लक्षण
१०
संम्बन्धी सत्य युक्ति
२६

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विषय
गाथा
विषय
गाथा
जीवद्रव्यास्तिकायका व्याख्यान
व्यपदेश आदि एकान्तसे द्रव्यगुणोंके
स्ांसारदशावाले आत्माका सौपाधि और
अन्यपनेका कारण होनेका खण्डन
४६
निरुपाधि स्वरूप
२७
वस्तुरूपसे भेद और [वस्तुरूपसे]
मुक्तदशावाले आत्माका निरुपाधि स्वरूप
२८
अभेदका उदाहरण
४७
सिद्धके निरुपाधि ज्ञान दर्शन और
द्रव्य और गुणोंका अर्थान्तरपना होनेसे
सुखका समर्थन
२९
दोष
४८
जीवत्वगुणकी व्याख्या
३०
ज्ञान और ज्ञानीको समवाय सम्बन्ध
जीवोंका स्वाभाविक प्रमाण तथा उनका
होंने का निराकरण
४९
मुक्त और अमुक्त ऐसा विभाग
३१–३२
समवायमे पदार्थनतरपना होंने का
जीवके देहप्रमाणपनेके द्रष्टान्तका कथन
३३
निराकरण
५०
जीवका देहसे देहान्तरमें अस्तित्व, देह
से पृथकत्व तथा देहान्तरमें गमन का
द्रष्टांतरूप तथा द्रार्ष्टांतरूप पदार्थ
पूर्वक, द्रव्य और गुणोंके अभिन्न–
कारण
३४
पदार्थपनेके व्याख्यानका उपसंहार
५१–५२
सिद्ध भगवन्तोंके जीवत्व एवं देह–
प्रमाणत्वकी व्यवस्था
३५
सिद्धभगवानको कार्यपना और
अपने भावोंको करते हुए, क्या जीव
कारणपना होनेका निराकरण
३६
अनादि अनन्त है? क्या सादि सान्त
‘जीवका अभाव सो मुक्ति’ –इस बात
है? क्या सादि अनंत है? क्या
का खण्डन
३७
तदाकाररूप परिणत है? क्या
चेतयितृत्व गुणकी व्याख्या
३८
तदाकाररूप अपरिणत है? ––इन
किस जीवको कौनसी चेतना होती है
आशंकाओंका समाधान
५३
उसका कथन
३९
जीवको भाववशात् सादि–सांतपना और
उपयोग गुणके व्याख्यानका प्रारम्भ
४०
अनादि–अनन्तपना होनेमें विरोधका
ज्ञानोपयोगके भेदोंके नाम और
परिहार
५४
स्वरूपका कथन
४१
जीवको सत्भावके उच्छेद और असत्–
दर्शनोपयोगके भेदोंके नाम और
भावके उत्पादमें निमित्तभूत उपाधि
स्वरूपका कथन
४२
का प्रतिपादन
५५
एक आत्मा अनेक ज्ञानात्मक होनेका
जीवोंको पाँच भावोंकी प्रगटताका वर्णन
५६
समर्थन
४३
जीवके औदयिकादि भावोंका अकर्तृत्व–
द्रव्यका गुणोंसे भिन्नत्व और गुणोंका
प्रकारका कथन
५७
द्रव्यसे भिन्नत्व होनेमें दोष
४४
निमित्तमात्ररूपसे द्रव्यकर्मोंका
द्रव्य और गुणोंका स्वोचित अनन्यपना
४५
औदयिकादि भावोंका कर्तापना
५८

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विषय
गाथा
विषय
गाथा
कर्मको जीवभावका कर्तापना होनेके
कर्मविमुक्तपनेकी मुख्यतासे प्रभुत्व–
सम्बन्धमेंं पूर्वपक्ष
५९
गुणका व्याख्यान
७०
५९ वीं गाथामें कहे हुए पूर्वपक्षके
जीवके भेदोंका कथन
७१–७२
समाधानरूप सिद्धान्त
६०
बद्ध जीवको कर्मनिमित्तक षड्विधि
निश्चनय से जीव को अपने भावों का
गमन और मुक्त जीवको स्वाभाविक
कर्तापना और पुद्गलकर्मोंका
अकर्तापना
६१
ऐसा एक ऊर्ध्वगमन
७३
निश्चनयसे अभिन्न कारक होनेसे कर्म
पुद्गलद्रव्यास्तिकायका व्याख्यान
और जीव स्वयं अपने–अपने रूपके
पुद्गलद्रव्यके भेद
७४
कर्ता हैं– तत्सम्बन्धी निरूपण
६२
पुद्गलद्रव्यके भेदोंका वर्णन
७५
यदि कर्म जीवको अनयोन्य अकर्तापना
स्कन्धोंमें ‘पुद्गल’ ऐसा जो व्यवहार
हो, तो अन्यका दिया हुआ फल अन्य
है उसका समर्थन
७६
भोगे, ऐसा प्रसंग आयेगा, –ऐसा दोष
परमाणु की व्याख्या
७७
बतलाकर पूर्वपक्षका निरूपण
६३
परमाणु भिन्न– भिन्न जातिके होनेका
कर्मयोग्य पुद्गल समस्त लोकमें व्याप्त
खण्डन
७८
हैं; इसलिये जहाँ आत्मा है वहाँ, बिना
शद्ब पुद्गलस्कन्धपर्याय होनेका कथन
७९
लाये ही, वे विद्यमान हैं–––तत्सम्बन्धी
परमाणुके एक प्रदेशीपनेका कथन
८०
कथन
६४
परमाणुद्रव्यमें गुण–पर्याय वर्तनेका
अन्य द्वारा किये बिना कर्म की उत्त्पत्ति
कथन
८१
किस प्रकार होती है उसका कथन
६५
सर्व पुद्गलभेदोंका उपसंहार
८२
कर्मोंकी विचित्रता अन्य द्वारा नहीं की
धर्मद्रव्यास्तिकाय और अधर्म–
जाती ––––तत्सम्बन्धी कथन
६६ द्रव्यास्तिकायका व्याख्यान
निश्चयसे जीव और कर्मको निज–निज
धर्मास्तिकायका स्वरूप
८३
रूपका ही कर्तापना होने पर भी,
धर्मास्तिकायका शेष स्वरूप
८४
व्यवहारसे जीवको कर्म द्वारा दिये गये
धर्मास्तिकायके गतिहेतुत्व सम्बन्धी
फल का उपभोग विरोधको प्राप्त नहीं
द्रष्टान्त
८५
होता––– तत्सम्बन्धी कथन
६७
अधर्मास्तिकायका स्वरूप
८६
कर्तृत्व और भोक्तृत्वकी व्याख्यान का
धर्म और अधर्मके सद्भावकी सिद्धिके
उपसंहार
६८
लिये हेतु
८७
कर्मसंयुक्तपने की मुख्यता से प्रभुत्वगुण
धर्म और अधर्म गति और स्थितिके
का व्याख्यान
६९
हेतु होने पर भी उनकी अत्यन्त
उदासीनता
८८

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विषय
गाथा
विषय
गाथा
धर्म और अधर्मके उदासीनपने
सम्बन्धी
दुःखसे विमुक्त होनेका क्रमका कथन
१०४
हेतु
८९
२, नवपदार्थपुर्वक मोक्षमार्गप्रपंच वर्णन
आकाशद्रव्यास्तिकाय व्याख्यान
आप्तकी स्तुतिपूर्वक प्रतिज्ञा
१०५
आकाशका स्वरूप
९०
मोक्षमार्गकी सूचना
१०६
लेाकके बाहर भी आकाश होनेकी
सूचना
९१
स्म्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रकी सूचना
१०७
आकाशमें गतिहेतुत्व होनेमें
पदार्थोंके नाम और स्वरूपका कथन
१०८
दोषका निरूपण
९२ जीवपदार्थका व्याख्यान
९२ वीं गाथा में गतिपक्षसम्बन्धी कथन
जीवके स्वरूपका कथन
१०९
करनेके पश्चात स्थितिपक्षसम्बन्धी
कथन
९३
संसारी जीवोंके भेदोंमेंसे पृथ्वीकायिक
आकाशको गतिस्थितिहेतुत्वका
अभाव
आदि पाँच भेदोंका कथन
११०
होनेके सम्बन्धमें हेतु
९४
पृथ्वीकायिक आदि पंचविध जीवोंके
आकाशको गतिस्थितिहेतुत्व होनेके
स्थावरत्रसपने सम्बन्धी कथन
१११
खण्डन सम्बन्धी कथनका उपसंहार
९५
पृथ्वीकायिक आदि पंचविध जीवोंके
धर्म, अ धर्म और लोकाकाशका
एकेन्द्रियपनेका नियम
११२
अवगाहकी अपेक्षासे एकत्व होनेपर भी
एकेन्द्रियोंको चेतन्यका अस्तित्व
वस्तुरूपसे अन्यत्व
९६
होने सम्बन्धी द्रष्टान्त
११३
चूलिका
द्वीन्द्रिय जीवोंके प्रकारकी सूचना
११४
द्रव्योंका मूर्तामूर्तपना और
त्रीन्द्रिय जीवोंके प्रकारकी सूचना
११५
चेतनाचेतनपना
९७
चतुरिन्द्रिय जीवोंके प्रकारकी सूचना
११६
द्रव्योंका सक्रिय– निष्क्रियपना
९८
प्ांचेन्द्रिय जीवोंके प्रकारकी सूचना
११७
मूर्त और अमूर्तके लक्षण
९९
एकेन्द्रियादि जीवोंका चतुर्गतिसम्बन्ध
कालद्रव्यका व्याख्यान
दर्शाकर उन जीवभेदोंका उपसंहार
११८
व्यवहारकाल तथा निश्चयकालका
स्वरूप
१००
गतिनामकर्म और आयुकर्मके उदतसे
कालके ‘नित्य’ और ‘क्षणिक’ ऐसे
निष्पन्न होनेके कारण देवत्वादिका
दो विभाग
१०१
अनात्मस्वभावपना
११९
कालको द्रव्यपनेका विधान और
पूर्वोक्त जीवविस्तारका उपसंहार
१२०
अस्तिकायपनेका निषेध
१०२
व्यवहार जीवत्वके एकान्तकी
उपसंहार
प्रतिपत्तीका खण्डन
१२१
पंचास्तिकातके अवबोधका फल
कहकर
अन्यसे असाधारण ऐसे जीवकार्योंका
उसके व्याख्यानका उपसंहार
१०३
कथन
१२२

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विषय
गाथा
विषय
गाथा
जीवव्याख्यानके उपसंहारकी तथा
सामान्यरूपसे संवरका स्वरूप
१४२
अजीवव्याख्यानके प्रारंभकी सूचना
१२३
विशेषरूपसे संवरका स्वरूप
१४३
अजीवपदार्थका व्याख्यान
निर्जरा पदार्थका व्याख्यान
आकाशादिका अजीवपना दर्शानेके
निर्जराका स्वरूप
१४४
हेतु
१२४
निर्जराका मुख्य कारण
१४५
आकाशादिका अचेतनत्वसामान्य
ध्यानका स्वरूप
१४६
निश्चित करनेके लिये अनुमान
१२५ बन्धपदार्थका व्याख्यान
जीव–पुद्गलके संयोगमें भी, उनके
बन्धका स्वरूप
१४७
भेदके कारणभूत स्वरूपका कथन
१२६–
२७
बंधका बहिरंग और अंतरंग कारण
१४८
जीव–पुद्गलके संयोगसे निष्पन्न
मिथ्यात्वादि द्रव्यपर्यायोंके भी बंधके
होनेवाले अन्य सात पदार्थोंके
बहिरंग कारणपनेका प्रकाशन
१४९
उपोद्घात हेतु जीवकर्म और
मोक्षपदार्थका व्याख्यान
पुद्कर्मके चक्रका वर्णन
१२८–
३०
द्रव्यकर्ममोक्षके हेतुभूत परम–संवर
पुण्य–पापपदार्थका व्याख्यान
रूपसे भावमोक्षके स्वरूपका
पुण्य–पापको योग्य भावके
कथन
१५०–५१
स्वभावका कथन
१३१
द्रव्यकर्ममोक्षके हेतुभूत ऐसी परम
पुण्य–पापका स्वरूप
१३२
निर्जराके कारणभूत ध्यान
१५२
मूर्तकर्मका समर्थन
१३३
द्रव्यमोक्षका स्वरूप
१५३
मूर्तकर्मका मूर्तकर्मके साथ जो बन्ध–
मोक्षमार्गप्रपंचसूचक
चूलिका
प्रकार तथा अमूर्त जीवका मूर्त–कर्मके
मोक्षमार्गका स्वरूप
१५४
साथ जो बन्ध प्रकार उसकी
सूचना
१३४
स्वसमयके ग्रहण और परसमयके
आस्त्रवपदार्थका व्याख्यान
त्यागपूर्वक कर्मक्षय होता है––
पुण्यास्त्रवका स्वरूप
१३५
ऐसे प्रतिपादन द्वारा ’जीवस्वभावमें
प्रशस्त रागका स्वरूप
१३६
नियत चारित्र वह मोक्षमार्ग है’
अनुकम्पाका स्वरूप
१३७
–ऐसा निरूपण
१५५
चित्तकी कलुशताका स्वरूप
१३८
परचारित्रमें प्रवर्तन करनेवालेका
पापास्त्रवका स्वरूप
१३९
स्वरूप
१५६
पापास्त्रवभूत भावोंका विस्तार
१४०
परचारित्रप्रवृत्ति बंधहेतु भूत होनेसे
संवरपदार्थका व्याख्यान
उसे मोक्षमार्गपनेका निषेध
१५७
पपके संवरका कथन
१४१

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विषय
गाथा
विषय
गाथा
स्वचारित्रमें प्रवर्तन करनेवालेका
स्वसमयकी उपलब्धिमें राग ही एक हेतु
१६७
स्वरूप
१५८
रागलवमूलक दोषपरम्पराका निरूपण
१६८
शुद्ध स्वचारित्रप्रवृत्तिका मार्ग
१५९
रागरूप क्लेशका निःशेष नाश करने–
निश्चयमोक्षमार्गके साधनरूपसे,
योग्य होनेका निरूपण
१६९
पूर्वोदिष्ट व्यवहारमोक्षमार्गका निर्देश
१६०
अर्हंतादिकी भक्तिरूप परसमय–
व्यवहारमोक्षमार्गके साध्यरूपसे,
प्रवृत्तिमें साक्षात मोक्षहेतुपनेका
निश्चयमोक्षमार्गका कथन
१६१
अभाव होनेपर भी परम्परासे
आत्माके चारित्र–ज्ञान–दर्शनपनेका
मोक्षहेतुपनेका सद्भाव
१७०
प्रकाशन
१६२
मात्र अर्हंतादिकी भक्ति जितने रागसे
सर्व संसारी आत्मा मोक्षमार्गके योग्य
उत्पन्न होनेवाला साक्षात मोक्षका
होनेका निराकरण
१६३
अंतराय
१७१
दर्शन–ज्ञान चारित्रका कथंचित्
साक्षात मोक्षमार्गके सार–सूचन द्वारा
बंधहेतुपना और जीवस्वभावमें
नियत
शास्त्रतात्पर्यरूप उपसंहार
१७२
चारित्रका साक्षात मोक्षहेतुपना
१६४
शास्त्रकर्ताकी प्रतिज्ञाकी पूर्णता सूचित
सूक्ष्म परसमयका स्वरूप
१६५
करनेवाली समाप्ति
१७३
शुद्धसम्प्रयोगको कथंचित बंधहेतुपना
होनेसे उसे मोक्षमार्गपनेका निषेध
१६६

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नमः श्री सर्वज्ञवीतरागाय
शास्त्रस्वाध्यायका मंगलाचरण
ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः।
कामदं मोक्षदं चैव
काराय नमो नमः।। १ ।।
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलङ्का।
मुनिभिरुपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान्।। २ ।।
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।। ३ ।।
।। श्रीपरमगुरवे नमः, परम्पराचार्यगुरवे नमः ।।
सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं,
भव्यजीवमनःप्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं
श्री पंचास्तिकायनामधेयं, अस्य मूलग्रन्थकर्तारः
श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तारः श्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां
वचनानुसारमासाद्य आचार्यश्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवविरचितं, श्रोतारः
सावधानतया श्रृणवन्तु।।
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्।। ९ ।।
सर्वमङ्गलमांगल्यं सर्वकल्याणकारकं।
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम्।। २ ।।

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श्री सर्वज्ञवीतरागाय नमः
श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत
श्री
पंचास्तिकायसंग्रह
––१––
षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
श्रीमद्मृतचन्द्राचार्यदेवविरचिता समयव्याख्या
सहजानन्द चैतन्यप्रकाशाय महीयसे।
नमोऽनेकान्तविश्रान्तमहिम्ने परमात्मने।। १।।
------------------------------------------------------------------------------------------------
मूल गाथाओं एवं समयव्याख्या नामक टीकाके गुजराती अनुवादका
हिन्दी रूपान्तर
[प्रथम, ग्रन्थके आदिमें श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत प्राकृतगाथाबद्ध इस
‘पंचास्तिकायसंग्रह’ नामक शास्त्रकी ‘समयव्याख्या’ नामक संस्कृत टीका रचनेवाले आचार्य श्री
अमृतचन्द्राचार्यदेव श्लोक द्वारा मंगलके हेतु परमात्माको नमस्कार करते हैंः––

[श्लोकार्थः––] सहज आनन्द एवं सहज चैतन्यप्रकाशमय होनेसे जो अति महान है तथा
अनेकान्तमें स्थित जिसकी महिमा है, उस परमात्माको नमस्कार हो। [१]

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
दुर्निवारनयानीकविरोधध्वंसनौषधिः।
स्यात्कारजीविता जीयाज्जैनी सिद्धान्तपद्धतिः।। २।।
सम्यग्ज्ञानामलज्योतिर्जननी द्विनयाश्रया।
अथातः समयव्याख्या संक्षेपेणाऽभिधीयते।। ३।।
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
[अब टीकाकार आचार्यदेव श्लोक द्वारा जिनवाणीकी स्तुति करते हैंः––]
[श्लोकार्थः–] स्यात्कार जिसका जीवन है ऐसी जैनी [–जिनभगवानकी] सिद्धांतपद्धति –
जो कि दुर्निवार नयसमूहके विरोधका नाश करनेवाली औषधि है वह– जयवंत हो। [२]
[अब टीकाकार आचार्यदेव श्लोक द्वारा इस पंचास्तिकायसंग्रह नामक शास्त्रकी टीका रचने की
प्रतिज्ञा करते हैं]
[श्लोकार्थः–] अब यहाँसे, जो सम्यग्ज्ञानरूपी निर्मल ज्योतिकी जननी है ऐसी द्विनयाश्रित
[दो नयोंका आश्रय करनारी] समयव्याख्या [पंचास्तिकायसंग्रह नामक शास्त्रकी समयव्याख्या नामक
टीका] संक्षेपसे कही जाती है। [३]
[अब, तीन श्लोकों द्वारा टीकाकार आचार्यदेव अत्यन्त संक्षेपमें यह बतलाते हैं कि इस
पंचास्तिकायसंग्रह नामक शास्त्रमें किन–किन विषयोंका निरूपण हैः–––]
-------------------------------------------------------
१ ़ ‘स्यात्’ पद जिनदेवकी सिद्धान्तपद्धतिका जीवन है। [स्यात् = कथंचित; किसी अपेक्षासे; किसी प्रकारसे।]

२ ़ दुर्निवार = निवारण करना कठिन; टालना कठिन।

३ ़ प्रत्येक वस्तु नित्यत्व, अनित्यत्व आदि अनेक अन्तमय [धर्ममय] है। वस्तुकी सर्वथा नित्यता तथा सर्वथा
अनित्यता माननेमें पूर्ण विरोध आनेपर भी, कथंचित [अर्थात् द्रव्य–अपेक्षासे] नित्यता और कथंचित [अर्थात्
पर्याय– अपेक्षासे] अनित्यता माननेमें किंचित विरोध नहींं आता–ऐसा जिनवाणी स्पष्ट समझाती है। इसप्रकार
जिनभगवानकी वाणी स्याद्वाद द्वारा [अपेक्षा–कथनसे] वस्तुका परम यथार्थ निरूपण करके, नित्यत्व–
अनित्यत्वादि धर्मोंमें [तथा उन–उन धर्मोंको बतलानेवाले नयोंमें] अविरोध [सुमेल] अबाधितरूपसे सिद्ध
करती है और उन धर्मोंके बिना वस्तुकी निष्पत्ति ही नहीं हो सकती ऐसा निर्बाधरूपसे स्थापित करती है।

४ ़ समयव्याख्या = समयकी व्याख्या; पंचास्तिकायकी व्याख्या; द्रव्यकी व्याख्या; पदार्थकी व्याख्या।
[व्याख्या = व्याख्यान; स्पष्ट कथन; विवरण; स्पष्टीकरण।]

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
पञ्चास्तिकायषड्द्रव्यप्रकारेण प्ररूपणम्।
पूर्वं मूलपदार्थानामिह सूत्रकृता कृतम्।। ४।।
जीवाजीवद्विपर्यायरूपाणां चित्रवर्त्मनाम्।
ततोनवपदार्थानां व्यवस्था प्रतिपादिता।। ५।।
ततस्तत्त्वपरिज्ञानपूर्वेण त्रितयात्मना।
प्रोक्ता मार्गेण कल्याणी मोक्षप्राप्तिरपश्चिमा।। ६।।
----------------------------------------------------------------------------------------------------------
[श्लोकार्थः–] यहाँ प्रथम सुत्रकर्ताने मूल पदार्थोंका पंचास्तिकाय एवें षड्द्रव्यके प्रकारसे
प्ररूपण किया है [अर्थात् इस शास्त्रके प्रथम अधिकारमें श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवने विश्वके मूल
पदार्थोंका पाँच अस्तिकाय और छह द्रव्यकी पद्धतिसे निरूपण किया है]। [४]
[श्लोकार्थः–] पश्चात् [दूसरे अधिकारमें], जीव और अजीव– इन दो की पर्यायोंरूप नव
पदार्थोंकी–कि जिनके मार्ग अर्थात् कार्य भिन्न–भिन्न प्रकारके हैं उनकी–व्यवस्था प्रतिपादित की है।
[५]
[श्लोकार्थः–] पश्चात् [दूसरे अधिकारके अन्तमें] , तत्त्वके परिज्ञानपूर्वक [पंचास्तिकाय,
षड्द्रव्य तथा नव पदार्थोंके यथार्थ ज्ञानपूर्वक] त्रयात्मक मार्गसे [सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रात्मक
मार्गसे] कल्याणस्वरूप उत्तम मोक्षप्राप्ति कही है। [६]
--------------------------------------------------------------------------
इस शास्त्रके कर्ता श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव हैं। उनके दूसरे नाम पद्मनंदी, वक्रग्रीवाचार्य,
एलाचार्य और गृद्धपिच्छाचार्य हैं। श्री जयसेनाचार्यदेव इस शास्त्रकी तात्पर्यवृत्ति नामक टीका प्रारम्भ
करते हुए लिखते हैं किः–– ‘अब श्री कुमारनंदी–सिद्धांतिदेवके शिष्य श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवने–
जिनके दूसरे नाम पद्मनंदी आदि थे उन्होंने – प्रसिद्धकथान्यायसे पूर्वविदेहमें जाकर वीतराग–
सर्वज्ञ सीमंधरस्वामी तीर्थंकरपरमदेवके दर्शन करके, उनके मुखकमलसे नीकली हुई दिव्य वाणीके
श्रवणसे अवधारित पदार्थ द्वारा शुद्धात्मतत्त्वादि सारभूत अर्थ ग्रहण करके, वहाँसे लौटकर
अंतःतत्त्व एवं बहिःतत्त्वके गौण–मुख्य प्रतिपादनके हेतु अथवा शिवकुमारमहाराजादि संक्षेपरुचि
शिष्योंके प्रतिबोधनार्थ रचे हुए पंचास्तिकायप्राभृतशास्त्रका यथाक्रमसे अधिकारशुद्धिपूर्वक
तात्पर्यार्थरूप व्याख्यान किया जाता है।

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
अथ सूत्रावतारः–
ईदसदवंदियाणं तिहुअणहिदमधुरविसदवक्काणं।
अंतातीदगुणाणं णमो जिणाणं जिदभवाणं।। १।।
इन्द्रशतवन्दितेभ्यस्त्रिभुवनहितमुधरविशदवाक्येभ्यः।
अन्तातीतगुणेभ्यो नमो जिनेभ्यो जितभवेभ्यः।। १।।
अथात्र ‘नमो जिनेभ्यः’ इत्यनेन जिनभावनमस्काररूपमसाधारणं शास्त्रस्यादौ मङ्गलमुपात्तम्।
अनादिना संतानेन प्रवर्त्तमाना अनादिनैव संतानेन प्रवर्त्तमानैरिन्द्राणां शतैर्वन्दिता ये इत्यनेन सर्वदैव
---------------------------------------------------------------------------------------------------------
अब [श्रीमद्भगत्वकुन्दकुन्दाचार्यदेवविरचित] गाथासूत्रका अवतरण किया जाता हैः–––
गाथा १
अन्वयार्थः– [इन्द्रशतवन्दितेभ्यः] जो सो इन्द्रोंसे वन्दित हैं, [त्रिभुवनहितमधुरविशदवाक्येभ्यः]
तीन लोकको हितकर, मधुर एवं विशद [निर्मल, स्पष्ट] जिनकी वाणी है, [अन्तातीतगुणेभ्यः]
[चैतन्यके अनन्त विलासस्वरूप] अनन्त गुण जिनको वर्तता है और [जितभवेभ्यः] जिन्होंने भव पर
विजय प्राप्त की है, [जिनेभ्यः] उन जिनोंको [नमः] नमस्कार हो।
टीकाः– यहाँ [इस गाथामें] ‘जिनोंको नमस्कार हो’ ऐसा कहकर शास्त्रके आदिमें जिनको
भावनमस्काररूप असाधारण मंगल कहा। ‘जो अनादि प्रवाहसे प्रवर्तते [–चले आरहे ] हुए अनादि
प्रवाहसे ही प्रवर्तमान [–चले आरहे] सौ सौ इन्द्रोंसेंवन्दित हैं’ ऐसा कहकर सदैव
देवाधिदेवपनेके कारण वे ही [जिनदेव ही] असाधारण नमस्कारके योग्य हैं ऐसा कहा।
--------------------------------------------------------------------------
१। मलको अर्थात पापको गाले––नष्ट करे वह मंगल है, अथवा सुखको प्राप्त करे––लाये वह मंगल हैे।
२। भवनवासी देवोंके ४० इन्द्र, व्यन्तर देवोंके ३२, कल्पवासी देवोंके र४, ज्योतिष्क देवोंके २, मनुष्योंका १
और तिर्यंचोंका १– इसप्रकार कुल १०० इन्द्र अनादि प्रवाहरूपसें चले आरहे हैं ।
शत–इन्द्रवंदित, त्रिजगहित–निर्मल–मधुर वदनारने,
निःसीम गुण धरनारने, जितभव नमुं जिनराजने। १।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
देवधिदेवत्वात्तेषामेवासाधारणनमस्कारार्हत्वमुक्तम्। त्रिभुवनमुर्ध्वाधोमध्यलोकवर्ती समस्त एव
जीवलोकस्तस्मै निर्व्योबाधविशुद्धात्मतत्त्वोपलम्भो–पायाभिधायित्वाद्धितं
परमार्थरसिकजनमनोहारित्वान्मधुरं, निरस्तसमस्तशंकादिदोषास्पदत्वाद्वि–शदं वाक्यं दिव्यो
ध्वनिर्येषामित्यनेन समस्तवस्तुयाथात्म्योपदेशित्वात्प्रेक्षावत्प्रतीक्ष्यत्वमाख्यातम्। अन्तमतीतः
क्षेत्रानवच्छिन्नः कालानवच्छिन्नश्च परमचैतन्यशक्तिविलासलक्षणो गुणो येषामित्यनेन तु
परमाद्भुतज्ञानातिशयप्रकाशनादवाप्तज्ञानातिशयानामपि योगीन्द्राणां वन्धत्वमुदितम्। जितो भव
आजवंजवो यैरित्यनेन तु कुतकृत्यत्वप्रकटनात्त एवान्येषामकृतकृत्यानां शरणमित्युपदिष्टम्। इति
सर्वपदानां तात्पर्यम्।। १।।
---------------------------------------------------------------------------------------------

‘जिनकी वाणी अर्थात दिव्यध्वनि तीन लोकको –ऊर्ध्व–अधो–मध्य लोकवर्ती समस्त जीवसमुहको–
निर्बाध विशुद्ध आत्मतत्त्वकी उपलब्धिका उपाय कहनेवाली होनेसे हितकर है, परमार्थरसिक जनोंके
मनको हरनेवाली होनेसे मधुर है और समस्त शंकादि दोषोंके स्थान दूर कर देनेसे विशद [निर्मल,
स्पष्ट] है’ ––– ऐसा कहकर [जिनदेव] समस्त वस्तुके यथार्थ स्वरूपके उपदेशक होनेसे
विचारवंत बुद्धिमान पुरुषोंके बहुमानके योग्य हैं [अर्थात् जिनका उपदेश विचारवंत बुद्धिमान पुरुषोंको
बहुमानपूर्वक विचारना चाहिये ऐसे हैं] ऐसा कहा। ‘अनन्त–क्षेत्रसे अन्त रहित और कालसे अन्त
रहित–––परमचैतन्यशक्तिके विलासस्वरूप गुण जिनको वर्तता है’ ऐसा कहकर [जिनोंको] परम
अदभुत ज्ञानातिशय प्रगट होनेके कारण ज्ञानातिशयको प्राप्त योगन्द्रोंसे भी वंद्य है ऐसा कहा। ‘भव
अर्थात् संसार पर जिन्होंने विजय प्राप्त की है’ ऐसा कहकर कृतकृत्यपना प्रगट हो जानेसे वे
ही [जिन ही] अन्य अकृतकृत्य जीवोंको शरणभूत हैं ऐसा उपदेश दिया।– ऐसा सर्व पदोंका तात्पर्य
है।
भावार्थः– यहाँ जिनभगवन्तोंके चार विशेषणोंका वर्णन करके उन्हें भावनमस्कार किया है। [१]
प्रथम तो, जिनभगवन्त सौ इन्द्रोंसे वंद्य हैं। ऐसे असाधारण नमस्कारके योग्य अन्य कोई नहीं है,
क्योंकि देवों तथा असुरोंमें युद्ध होता है इसलिए [देवाधिदेव जिनभगवानके अतिरिक्त] अन्य कोई भी
देव सौ इन्द्रोंसे वन्दित नहीं है। [२] दूसरे, जिनभगवानकी वाणी तीनलोकको शुद्ध आत्मस्वरूपकी
प्राप्तिका उपाय दर्शाती है इसलिए हितकर है; वीतराग निर्विकल्प समाधिसे उत्पन्न सहज –अपूर्व
परमानन्दरूप पारमार्थिक सुखरसास्वादके रसिक जनोंके मनको हरती है इसलिए [अर्थात् परम
समरसीभावके रसिक जीवोंको मुदित करती है इसलिए] मधुर है;

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
शुद्ध जीवास्तिकायादि सात तत्त्व, नव पदार्थ, छह द्रव्य और पाँच अस्तिकायका संशय–विमोह–
विभ्रम रहित निरूपण क्रती है इसलिए अथवा पूर्वापरविरोधादि दोष रहित होनेसे अथवा युगपद् सर्व
जीवोंको अपनी–अपनी भाषामें स्पष्ट अर्थका प्रतिपादन करती है इसलिए विशद–स्पष्ट– व्यक्त है।
इसप्रकार जिनभगवानकी वाणी ही प्रमाणभूत है; एकान्तरूप अपौरुषेय वचन या विचित्र कथारूप
कल्पित पुराणवचन प्रमाणभूत नहीं है। [३] तीसरे, अनन्त द्रव्य–क्षेत्र–काल–भावका जाननेवाला
अनन्त केवलज्ञानगुण जिनभगवन्तोंको वर्तता है। इसप्रकार बुद्धि आदि सात ऋद्धियाँ तथा
मतिज्ञानादि चतुर्विध ज्ञानसे सम्पन्न गणधरदेवादि योगन्द्रोंसे भी वे वंद्य हैं। [४] चौथे, पाँच प्रकारके
संसारको जिनभगवन्तोंने जीता है। इसप्रकार कृतकृत्यपनेके कारण वे ही अन्य अकृतकृत्य जीवोंको
शरणभूत है, दूसरा कोई नहीं।–
इसप्रकार चार विशेषणोंसे युक्त जिनभगवन्तोंको ग्रंथके आदिमें
भावनमस्कार करके मंगल किया।
प्रश्नः– जो शास्त्र स्वयं ही मंगल हैं, उसका मंगल किसलिए किया जाता है?
उत्तरः– भक्तिके हेतुसे मंगलका भी मंगल किया जाता है। सूर्यकी दीपकसे , महासागरकी
जलसे, वागीश्वरीकी [सरस्वती] की वाणीसे और मंगलकी मंगलसे अर्चना की जाती है ।। १।।
--------------------------------------------------------------------------
इस गाथाकी श्रीजयसेनाचार्यदेवकृत टीकामें, शास्त्रका मंगल शास्त्रका निमित्त, शास्त्रका हेतु [फल], शास्त्रका
परिमाण, शास्त्रका नाम तथा शास्त्रके कर्ता– इन छह विषयोंका विस्तृत विवेचन किया है।
पुनश्च, श्री जयसेनाचार्यदेवने इस गाथाके शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ एवं भावार्थ समझाकर,
‘इसप्रकार व्याख्यानकालमे सर्वत्र शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ और भावार्थ प्रयुक्त करने योग्य हैं’ –––
ऐसा कहा है।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
समणमुहुग्गदमट्ठं चदुग्गदिणिवारणं सणिव्वाणं।
एसो पणमिय सिरसा समयमियं सणह वोच्छामि।। २।।
श्रमणमुखोद्गतार्थं चतुर्गतिनिवारणं सनिर्वाणम्।
एष प्रणम्य शिरसा समयमिमं शृणुत वक्ष्यामि।। २।।
समयो ह्यागमः। तस्य प्रणामपूर्वकमात्मनाभिधानमत्र प्रतिज्ञातम्। युज्यते हि स प्रणन्तुमभिधातुं
चाप्तोपदिष्ठत्वे सति सफलत्वात्। तत्राप्तोपदिष्टत्वमस्य श्रमणमुखोद्गतार्थत्त्वात्। श्रमणा हि महाश्रमणाः
सर्वज्ञवीतरागाः। अर्थः पुनरनेकशब्दसंबन्धेनाभिधीयमानो वस्तुतयैकोऽभिधेय। सफलत्वं तु चतसृणां
---------------------------------------------------------------------------------------------
गाथा २
अन्वयार्थः– [श्रमणमुखोद्गतार्थे] श्रमणके मुखसे निकले हुए अर्थमय [–सर्वज्ञ महामुनिके
मुखसे कहे गये पदार्थोंका कथन करनेवाले], [चतुर्गतिनिवारणं] चार गतिका निवारण करनेवाले
और [सनिर्वाणम्] निर्वाण सहित [–निर्वाणके कारणभूत] – [इमं समयं] ऐसे इस समयको
[शिरसा प्रणम्य] शिरसा नमन करके [एषवक्ष्यामि] मैं उसका कथन करता हूँ; [श्रृणुत] वह
श्रवण करो।
टीकाः– समय अर्थात आगम; उसे प्रणाम करके स्वयं उसका कथन करेंगे ऐसी यहाँ
[श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवने] प्रतिज्ञा की है। वह [समय] प्रणाम करने एवं कथन करने योग्य
है, क्योंकि वह
आप्त द्वारा उपदिष्ट होनेसे सफल है। वहाँ, उसका आप्त द्वारा उपदिष्टपना इसलिए
है कि जिससे वह ‘श्रमणके मुखसे निकला हुआ अर्थमय’ है। ‘श्रमण’ अर्थात् महाश्रमण–
सर्वज्ञवीतरागदेव; और ‘अर्थ’ अर्थात् अनेक शब्दोंके सम्बन्धसे कहा जानेवाला, वस्तुरूपसे एक ऐसा
पदार्थ। पुनश्च उसकी [–समयकी] सफलता इसलिए है कि जिससे वह समय
--------------------------------------------------------------------------
आप्त = विश्वासपात्र; प्रमाणभूत; यथार्थ वक्ता। [सर्वज्ञदेव समस्त विश्वको प्रति समय संपूर्णरूपसे जान रहे
हैं और वे वीतराग [मोहरागद्वेषरहित] होनेके कारण उन्हें असत्य कहनेका लेशमात्र प्रयोजन नहीं रहा है;
इसलिए वीतराग–सर्वज्ञदेव सचमुच आप्त हैं। ऐसे आप्त द्वारा आगम उपदिष्ट होनेसे वह [आगम] सफल
हैं।]
आ समयने शिरनमनपूर्वक भाखुं छुं सूणजो तमे;
जिनवदननिर्गत–अर्थमय, चउगतिहरण, शिवहेतु छे। २।

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
नारकतिर्यग्मनुष्यदेवत्वलक्षणानां गतीनां निवारणत्वात् पारतंक्र्यनिवृत्तिलक्षणस्य निर्वाणस्य
शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भरूपस्य परम्परया कारणत्वात् स्वातंक्र्यप्राप्तिलक्षणस्य च फलस्य सद्भावादिति।।
२।।
समवाओ पंचण्हं समउ त्ति जिणुत्तमेहिं पण्णत्तं।
सो चेव हवदि लोओ तत्तो अमिओ अलोओ खं।। ३।।
समवादः समवायो वा पंचानां समय इति जिनोत्तमैः प्रज्ञप्तम्।
स च एव भवति लोकस्ततोऽमितोऽलोकः खम्।। ३।।
---------------------------------------------------------------------------------------------
[१] ‘नारकत्व’ तिर्यचत्व, मनुष्यत्व तथा देवत्वस्वरूप चार गतियोंका निवारण’ करने के
कारण और [२] शुद्धात्मतत्त्वकी उपलब्धिरूप ‘निर्वाणका परम्परासे कारण’ होनेके कारण [१]
परतंत्रतानिवृति जिसका लक्षण है और [२] स्वतंत्रताप्राप्ति जिसका लक्षण है –– ऐसे
फल
सहित है।

भावार्थः– वीतरागसर्वज्ञ महाश्रमणके मुखसे नीकले हुए शब्दसमयको कोई आसन्नभव्य पुरुष
सुनकर, उस शब्दसमयके वाच्यभूत पंचास्तिकायस्वरूप अर्थ समयको जानता है और उसमें आजाने
वाले शुद्धजीवास्तिकायस्वरूप अर्थमें [पदार्थमें] वीतराग निर्विकल्प समाधि द्वारा स्थित रहकर चार
गतिका निवारण करके, निर्वाण प्राप्त करके, स्वात्मोत्पन्न, अनाकुलतालक्षण, अनन्त सुखको प्राप्त
करता है। इस कारणसे द्रव्यागमरूप शब्दसमय नमस्कार करने तथा व्याख्यान करने योग्य है।।२।।
गाथा ३
अन्वयार्थः– [पंचानां समवादः] पाँच अस्तिकायका समभावपूर्वक निरूपण [वा] अथवा [समवायः]
--------------------------------------------------------------------------
मूल गाथामें ‘समवाओ’ शब्द हैे; संस्कृत भाषामें उसका अर्थ ‘समवादः’ भी होता है और ‘ समवायः’ भी
होता है।
१। चार गतिका निवारण [अर्थात् परतन्त्रताकी निवृति] और निर्वाणकी उत्पत्ति [अर्थात् स्वतन्त्रताकी प्राप्ति]
वह समयका फल है।
समवाद वा समवाय पांच तणो समय– भाख्युं जिने;
ते लोक छे, आगळ अमाप अलोक आभस्वरूप छे। ३।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
तत्र च पञ्चानामस्तिकायानां समो मध्यस्थो रागद्वेषाभ्यामनुपहतो वर्णपदवाक्य–सन्निवेशविशिष्टः
पाठो वादः शब्दसमयः शब्दागम इति यावत्। तेषामेव मिथ्यादर्शनोदयोच्छेदे सति सम्यग्वायः
परिच्छेदो ज्ञानसमयो ज्ञानगम इति यावत्। तेषामेवाभिधानप्रत्ययपरिच्छिन्नानां वस्तुरूपेण समवायः
संधातोऽर्थसमयः सर्वपदार्थसार्थ इति यावत्। तदत्र ज्ञानसमयप्रसिद्धयर्थ शब्दसमयसम्बन्धेनार्थसमय
ोऽभिधातुमभिप्रेतः। अथ तस्यैवार्थसमयस्य द्वैविध्यं लोकालोक–विकल्पात्।
---------------------------------------------------------------------------------------------
उनका समवाय [–पंचास्तिकायका सम्यक् बोध अथवा समूह] [समयः] वह समय है [इति] ऐसा
[जिनोत्तमैः प्रज्ञप्तम्] जिनवरोंने कहा है। [सः च एव लोकः भवति] वही लोक है। [–पाँच
अस्तिकायके समूह जितना ही लोक है।]; [ततः] उससे आगे [अमितः अलोकः] अमाप अलोक
[खम्] आकाशस्वरूप है।
टीकाः– यहाँ [इस गाथामें शब्दरूपसे, ज्ञानरूपसे और अर्थरूपसे [–शब्दसमय, ज्ञानसमय
और अर्थसमय]– ऐसे तीन प्रकारसे ‘समय’ शब्दका अर्थ कहा है तथा लोक–अलोकरूप विभाग
कहा है।
वहाँ, [१] ‘सम’ अर्थात् मध्यस्थ यानी जो रागद्वेषसे विकृत नहीं हुआ; ‘वाद’ अर्थात् वर्ण
[अक्षर], पद [शब्द] और वाक्यके समूहवाला पाठ। पाँच अस्तिकायका ‘समवाद’ अर्थात मध्यस्थ
[–रागद्वेषसे विकृत नहीं हुआ] पाठ [–मौखिक या शास्त्रारूढ़ निरूपण] वह शब्दसमय है, अर्थात्
शब्दागम वह शब्दसमय है। [२] मिथ्यादर्शनके उदयका नाश होने पर, उस पंचास्तिकायका ही
सम्यक् अवाय अर्थात् सम्यक् ज्ञान वह ज्ञानसमय है, अर्थात् ज्ञानागम वह ज्ञानसमय है। [३]
कथनके निमित्तसे ज्ञात हुए उस पंचास्तिकायका ही वस्तुरूपसे समवाय अर्थात् समूह वह अर्थसमय
है, अर्थात् सर्वपदार्थसमूह वह अर्थसमय है। उसमें यहाँ ज्ञान समयकी प्रसिद्धिके हेतु शब्दसमयके
सम्बन्धसे अर्थसमयका कथन [श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव] करना चाहते हैं।
--------------------------------------------------------------------------
समवाय =[१] सम्+अवाय; सम्यक् अवाय; सम्यक् ज्ञान। [२] समूह। [इस पंचास्तिकायसंग्रह शास्त्रमें यहाँ
कालद्वव्यको–– कि जो द्रव्य होने पर भी अस्तिकाय नहीं है उसे ––विवक्षामें गौण करके ‘पंचास्तिकायका
समवाय वह समय है।’ ऐसा कहा है; इसलिये ‘छह द्रव्यका समवाय वह समय है’ ऐसे कथनके भावके साथ
इस कथनके भावका विरोध नहीं समझना चाहिये, मात्र विवक्षाभेद है ऐसा समझना चाहिये। और इसी प्रकार
अन्य स्थान पर भी विवक्षा समझकर अविरुद्ध अर्थ समझ लेना चाहिये]

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१०
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
स एव पञ्चास्तिकायसमवायो यावांस्तावाँल्लोकस्ततः परममितोऽनन्तो ह्यलोकः, स तु नाभावमात्रं
किन्तु
तत्समवायातिरिक्तपरिमाणमनन्तक्षेत्रं खमाकाशमिति।। ३।।
जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा तहेव आवासं।
अत्थित्तम्हि य णियदा अणण्णमइया अुणमहंता।। ४।।
जीवाः पुद्गलकाया धर्मो धर्मौ तथैव आकाशम्।
अस्तित्वे च नियता अनन्यमया अणुमहान्तः।। ४।।
---------------------------------------------------------------------------------------------
अब, उसी अर्थसमयका, लोक और अलोकके भेदके कारण द्विविधपना है। वही पंचास्तिकायसमूह
जितना है, उतना लोक है। उससे आगे अमाप अर्थात अनन्त अलोक है। वह अलोक अभावमात्र
नहीं है किन्तु पंचास्तिकायसमूह जितना क्षेत्र छोड़ कर शेष अनन्त क्षेत्रवाला आकाश है [अर्थात
अलोक शून्यरूप नहीं है किन्ंतु शुद्ध आकाशद्रव्यरूप है।। ३।।
गाथा ४
अन्वयार्थः– [जीवाः] जीव, [पुद्गलकायाः] पुद्गलकाय, [धर्माधर्मौ] धर्म, अधर्म [तथा एव]
तथा [आकाशम्] आकाश [अस्तित्वे नियताः] अस्तित्वमें नियत, [अनन्यमयाः] [अस्तित्वसे]
अनन्यमय [च] और [अणुमहान्तः]
अणुमहान [प्रदेशसे बडे़] हैं।

--------------------------------------------------------------------------

१। ‘लोक्यन्ते द्रश्यन्ते जीवादिपदार्था यत्र स लोकः’ अर्थात् जहाँ जीवादिपदार्थ दिखाई देते हैं, वह लोक है।
अणुमहान=[१] प्रदेशमें बडे़ अर्थात् अनेकप्रदेशी; [२] एकप्रदेशी [व्यक्ति–अपेक्षासे] तथा अनेकप्रदेशी
[शक्ति–अपेक्षासे]।
जीवद्रव्य, पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म ने आकाश ए
अस्तित्वनियत, अनन्यमय ने अणुमहान पदार्थ छे। ४।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
११
अत्र पञ्चास्तिकायानां विशेषसंज्ञा सामान्यविशेषास्तित्वं कायत्वं चोक्तम्।
तत्र जीवाः पुद्गलाः धर्माधर्मौ आकाशमिति तेषां विशेषसंज्ञा अन्वर्थाः प्रत्येयाः।
सामान्यविशेषास्तित्वञ्च तेषामुत्पादव्ययध्रौव्यमय्यां सामान्यविशेषसत्तायां नियतत्वाद्वय
वस्थितत्वादवसेयम्। अस्तित्वे नियतानामपि न तेषामन्यमयत्वम्, यतस्ते सर्वदैवानन्य–मया
आत्मनिर्वृत्ताः। अनन्यमयत्वेऽपि तेषामस्तित्वनियतत्वं नयप्रयोगात्। द्वौ हि नयौ भगवता प्रणीतौ–
द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च। तत्र न खल्वेकनयायत्तादेशना किन्तु तदुभयायता। ततः
पर्यायार्थादेशादस्तित्वे स्वतः कथंचिद्भिन्नऽपि व्यवस्थिताः द्रव्यार्थादेशात्स्वयमेव सन्तः सतोऽनन्यमया
भवन्तीति। कायत्वमपि तेषामणुमहत्त्वात्। अणवोऽत्र प्रदेशा मूर्तोऽमूर्ताश्च निर्विभागांशास्तैः
महान्तोऽणुमहान्तः प्रदेशप्रचयात्मका इति सिद्धं तेषां कायत्वम्। अणुभ्यां। महान्त इतिः व्यत्पत्त्या
---------------------------------------------------------------------------------------------

टीकाः–
यहाँ [इस गाथामें] पाँच अस्तिकायोंकी विशेषसंज्ञा, सामान्य विशेष–अस्तित्व तथा
कायत्व कहा है।
वहाँ जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश–यह उनकी विशेषसंज्ञाएँ अन्वर्थ जानना।
वे उत्पाद–व्यय–ध्रौव्यमयी सामान्यविशेषसत्तामें नियत– व्यवस्थित [निश्चित विद्यमान] होनेसे
उनके सामान्यविशेष–अस्तित्व भी है ऐसा निश्चित करना चाहिये। वे अस्तित्वमें नियत होने पर भी
[जिसप्रकार बर्तनमें रहनेवाला घी बर्तनसे अन्यमय है उसीप्रकार] अस्तित्वसे अन्यमय नहीं है;
क्योंकि वे सदैव अपनेसे निष्पन्न [अर्थात् अपनेसे सत्] होनेके कारण [अस्तित्वसे] अनन्यमय है
[जिसप्रकार अग्नि उष्णतासे अनन्यमय है उसीप्रकार]। ‘अस्तित्वसे अनन्यमय’ होने पर भी उनका
‘अस्तित्वमें नियतपना’ नयप्रयोगसे है। भगवानने दो नय कहे है – द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। वहाँ
कथन एक नयके आधीन नहीं होता किन्तु उन दोनों नयोंके आधीन होता है। इसलिये वे
पर्यायार्थिक कथनसे जो अपनेसे कथंचित् भिन्न भी है ऐसे अस्तित्वमें व्यवस्थित [निश्चित स्थित] हैं
और द्रव्यार्थिक कथनसे स्वयमेव सत् [–विद्यमान] होनेके कारण अस्तित्वसे अनन्यमय हैं।
---------------------------------------------------------------------------

अन्वर्थ=अर्थका अनुसरण करती हुई; अर्थानुसार। [पाँच अस्तिकायोंके नाम उनके अर्थानुसार हैं।]