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चेतयंते। अन्ये तु प्रकृष्टतरमोहमलीमसेनापि प्रकृष्टज्ञानावरणमुद्रितानुभावेन चेतक–स्वभावेन
मनाग्वीर्यांतरायक्षयोपशमासादितकार्यकारणसामर्थ्याः सुखदुःखरूपकर्मफलानुभवन–संवलितमपि
कार्यमेव प्राधान्येन चेतयंते। अन्यतरे
वीर्या अपि निर्जीर्णकर्मफलत्वादत्यंत–
ही प्रधानतः चेतते हैं, क्योंकि उनका अति प्रकृष्ट वीर्यान्तरायसे कार्य करनेका [–कर्मचेतनारूप
परिणमित होनेका] सामर्थ्य नष्ट गया है।
मिश्रितरूपसेे भी – ‘कार्य’ को ही प्रधानतः चेतते हैं, क्योंकि उन्होंने अल्प वीर्यांतरायके क्षयोपशमसे
१। चेतयितृत्व = चेतयितापना; चेतनेवालापना ; चेतकपना।
२। कर्मचेतनावाले जीवको ज्ञानावरण ‘प्रकृष्ट’ होता है और कर्मफलचेतनावालेको ‘अति प्रकृष्ट’ होता है।
३। कार्य = [जीव द्वारा] किया जाता हो वह; इच्छापूर्वक इष्टानिष्ट विकल्परूप कर्म। [जिन जीवोंको वीर्यका
कर्मचेतनारूपसे परिणमित होते हैं। वह कर्मचेतना कर्मफलचेतनासे मिश्रित होती है।]
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पाणित्तमदिक्कंता
प्राणित्वमतिक्रांताः ज्ञानं विंदन्ति ते जीवाः।। ३९।।
द्वारा ‘ज्ञान’ को ही – कि जो ज्ञान अपनेसे
सुखदुःखरूप] कर्मफल निर्जरित हो गया है और अत्यन्त
और [प्राणित्वम् अतिक्रांताः] जो प्राणित्वका [–प्राणोंका] अतिक्रम कर गये हैं [ते जीवाः] वे जीव
[ज्ञानं] ज्ञानको [विंदन्ति] वेदते हैं।
२। कृतकृत्य = कृतकार्य। [परिपूर्ण ज्ञानवाले आत्मा अत्यन्त कृतकार्य हैं इसलिये, यद्यपि उन्हें अनंत वीर्य प्रगट
हुआ है तथापि, उनका वीर्य कार्यचेतनाको [कर्मचेतनाको] नहीं रचता, [और विकारी सुखदुःख विनष्ट हो गये
हैं इसलिये उनका वीर्य कर्मफल चेतनेाको भी नहीं रचता,] ज्ञानचेतनाको ही रचता है।]
प्राणित्वथी अतिक्रान्त जे ते जीव वेदे ज्ञानने। ३९।
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चेतयंते अनुभवन्ति उपलभंते विंदंतीत्येकार्थाश्चेतनानुभूत्युपलब्धिवेदनानामेकार्थत्वात्। तत्र स्थावराः
कर्मफलं चेतयंते, त्रसाः कार्यं चेतयंते, केवलज्ञानिनोज्ञानं चेतयंत इति।। ३९।।
जीवस्स सव्वकालं अणण्णभूदं वियाणीहि।। ४०।।
जीवस्य सर्वकालमनन्यभूतं विजानीहि।। ४०।।
कर्मफलको चेतते हैं, त्रस कार्यको चेतते हैं, केवलज्ञानी ज्ञानको चेतते हैं।
सकती हैे; उनका यहाँ निषेध नहीं समझना, मात्र विवक्षाभेद है ऐसा समझना चाहिये।
जीवद्रव्यने ते सर्व काळ अनन्यरूपे जाणवो। ४०
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विशेषग्राहि ज्ञानं, सामान्यग्राहि दर्शनम्। उपयोगश्च सर्वदा जीवादपृथग्भूत एव,
एकास्तित्वनिर्वृत्तत्वादिति।। ४०।।
आभिणिसुदोधिमणकेवलाणि णाणाणि पंचभेयाणि।
कुमतिश्रुतविभङ्गानि च त्रीण्यपि ज्ञानैः संयुक्तानि।। ४१।।
अनन्यरूपसे [विजानीहि] जानो।
ज्ञान है और सामान्यको ग्रहण करनेवाला दर्शन है [अर्थात् विशेष जिसमें प्रतिभासित हो वह ज्ञान
है और सामान्य जिसमें प्रतिभासित हो वह दर्शन है]। और उपयोग सर्वदा जीवसे
और कुमति, कुश्रुत और विभंग–[त्रीणि अपि] यह तीन [अज्ञान] भी [ज्ञानैः] [पाँच] ज्ञानके साथ
[संयुक्तानि] संयुक्त किये गये हैं। [इस प्रकार ज्ञानोपयोगके आठ भेद हैं।]
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खल्वनादिज्ञानावरणकर्मावच्छन्नप्रदेशः सन्, यत्तदावरणक्षयोपशमादिन्द्रि–यानिन्द्रियावलम्बाच्च
मूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तदाभिनिबोधिकज्ञानम्, यत्तदा–
वरणक्षयोपशमादनिन्द्रियावलंबाच्च मूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तत् श्रुतज्ञानम्,
यत्तदावरणक्षयोपशमादेव मूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तदवधिज्ञानम्, यत्तदा–वरणक्षयोपशमादेव
भेदोंके] नामका कथन है।
प्रदेशवाला वर्तता हुआ, [१] उस प्रकारके [अर्थात् मतिज्ञानके] आवरणके क्षयोपशमसे और
इन्द्रिय–मनके अवलम्बनसे मूर्त–अमूर्त द्रव्यका
अवलम्बनसे मूर्त–अमूर्त द्रव्यका विकलरूपसे विशेषतः अवबोधन करता है वह श्रुतज्ञान है, [३] उस
प्रकारके आवरणके क्षयोपशमसे ही मूर्त द्रव्यका विकलरूपसे विशेषतः अवबोधन करता है वह
अवधिज्ञान है, [४] उस प्रकारके आवरणके क्षयोपशमसे ही परमनोगत [–दूसरोंके मनके साथ
सम्बन्धवाले] मूर्त द्रव्यका विकलरूपसे विशेषतः अवबोधन करता है वह मनःपर्ययज्ञान है, [५]
समस्त आवरणके अत्यन्त क्षयसे, केवल ही [–आत्मा अकेला ही], मूर्त–अमूर्त द्रव्यका सकलरूपसे
२। विशेषतः अवबोधन करना = जानना। [विशेष अवबोध अर्थात् विशेष प्रतिभास सो ज्ञान है।]
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श्रुतज्ञानमेव कुश्रुतज्ञानम्, मिथ्यादर्शनोदयसहचरितमवधिज्ञानमेव विभङ्गज्ञानमिति स्वरूपाभिधानम्।
इत्थं मतिज्ञानादिज्ञानोपयोगाष्टकं व्याख्यातम्।। ४१।।
आभिनिबोधिकज्ञान ही कुमतिज्ञान है, [७] मिथ्यादर्शनके उदयके साथका श्रुतज्ञान ही कुश्रुतज्ञान है,
[८] मिथ्यादर्शनके उदयके साथका अवधिज्ञान ही विभंगज्ञान है। – इस प्रकार [ज्ञानोपयोगके
भेदोंके] स्वरूपका कथन है।
निश्चयनयसे अखण्ड–एक–विशुद्धज्ञानमय ऐसा यह आत्मा व्यवहारनयसे संसारावस्थामें कर्मावृत्त
विकल्परूपसे जो जानता है वह मतिज्ञान है। वह तीन प्रकारका हैः उपलब्धिरूप, भावनारूप और
उपयोगरूप। मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमसे जनित अर्थग्रहणशक्ति [–पदार्थको जाननेकी शक्ति] वह
उपलब्धि है, जाने हुए पदार्थका पुनः पुनः चिंतन वह भावना है और ‘यह काला है,’ ‘यह पीला है
’ इत्यादिरूपसे अर्थग्रहणव्यापार [–पदार्थको जाननेका व्यापार] वह उपयोग है। उसी प्रकार वह
[मतिज्ञान] अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप भेदों द्वारा अथवा कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि,
पदानुसारीबुद्धि तथा संभिन्नश्रोतृताबुद्धि ऐसे भेदों द्वारा चार प्रकारका है। [यहाँ, ऐसा तात्पर्य ग्रहण
करना चाहिये कि निर्विकार शुद्ध अनुभूतिके प्रति अभिमुख जो मतिज्ञान वही उपादेयभूत अनन्त
सुखका साधक होनेसे निश्चयसे उपादेय है, उसके साधनभूत बहिरंग मतिज्ञान तो व्यवहारसे उपादेय
है।]
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नयरूप है। ‘उपयोग’ शब्दसे यहाँ वस्तुको ग्रहण करनेवाला प्रमाण समझना चाहिये अर्थात् सम्पूर्ण
वस्तुको जाननेवाला ज्ञान समझना चाहिये और ‘नय’ शब्दसे वस्तुके [गुणपर्यायरूप] एक देशको
ग्रहण करनेवाला ऐसा ज्ञाताका अभिप्राय समझना चाहिये। [यहाँ ऐसा तात्पर्य ग्रहण करना चाहिये
कि विशुद्धज्ञानदर्शन जिसका स्वभाव है ऐसे शुद्ध आत्मतत्त्वके सम्यक् श्रद्धान–ज्ञान–अनुचरणरूप
अभेदरत्नत्रयात्मक जो भावश्रुत वही उपादेयभूत परमात्मतत्त्वका साधक होनेसे निश्चयसे उपादेय है
किन्तु उसके साधनभूत बहिरंग श्रुतज्ञान तो व्यवहारसे उपादेय है।]
अवधिज्ञान देशावधि, परमावधि और सर्वावधि ऐसे भेदों द्वारा तीन प्रकारसे है। उसमें, परमावधि और
सर्वावधि चैतन्यके उछलनेसे भरपूर आनन्दरूप परमसुखामृतके रसास्वादरूप समरसीभावसे परिणत
चरमदेही तपोधनोंको होता है। तीनों प्रकारके अवधिज्ञान निश्चयसे विशिष्ट सम्यक्त्वादि गुणसे होते
हैं। देवों और नारकोंके होनेवाले भवप्रत्ययी जो अवधिज्ञान वह नियमसे देशावधि ही होता है।
यह आत्मा, मनःपर्ययज्ञानावरणका क्षयोपशम होने पर, परमनोगत मूर्त वस्तुको जो
दो प्रकारका है। वहाँ, विपुलमति मनःपर्ययज्ञान परके मनवचनकाय सम्बन्धी पदार्थोंको, वक्र तथा
अवक्र दोनोंको, जानता है और ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान तो ऋजुको [अवक्रको] ही जानता है।
निर्विकार आत्माकी उपलब्धि और भावना सहित चरमदेही मुनियोंको विपुलमति मनःपर्ययज्ञान होता
है। यह दोनों मनःपर्ययज्ञान वीतराग आत्मतत्त्वके सम्यक् श्रद्धान–ज्ञान–अनुष्ठानकी भावना सहित,
पन्द्रह प्रमाद रहित अप्रमत्त मुनिको उपयोगमें–विशुद्ध परिणाममें–उत्पन्न होते हैं। यहाँ मनःपर्ययज्ञानके
उत्पादकालमें ही अप्रमत्तपनेका नियम है, फिर प्रमत्तपनेमें भी वह संभवित होता है।
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अणिधणमणंतविसयं केवलियं चावि पण्णत्तं।। ४२।।
परिणमित होता है तथापि वह श्रुतज्ञान गणधरदेव आदिको ही होता है, केवलीभगवन्तोंको तो
केवलज्ञान ही होता है। पुनश्च, केवलीभगवन्तोंको श्रुतज्ञान नहीं है इतना ही नहीं, किन्तु उन्हें
ज्ञान–अज्ञान भी नहीं है अर्थात् उन्हें किसी विषयका ज्ञान तथा किसी विषयका अज्ञान हो ऐसा भी
नहीं है – सर्व विषयोंका ज्ञान ही होता है; अथवा, उन्हें मति–ज्ञानादि अनेक भेदवाला ज्ञान नहीं
है – एक केवलज्ञान ही है।
करनेसे] उस–उस काल दुःनय और दुःप्रमाण होते हैं। [मिथ्यादर्शनके सद्भावमें वर्तता हुआ
मतिज्ञान वह कुमतिज्ञान है, श्रुतज्ञान वह कुश्रुतज्ञान है, अवधिज्ञान वह विभंगज्ञान है; उसके
सद्भावमें वर्तते हुए नय वे दुःनय हैं और प्रमाण वह दुःप्रमाण है।] इसलिये ऐसा भावार्थ समझना
चाहिये कि निर्विकार शुद्ध आत्माकी अनुभूतिस्वरूप निश्चय सम्यक्त्व उपादेयहै।
निःसीमविषय अनिधन केवळरूप भेद कहेल छे। ४२।
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अनिधनमनंतविषयं कैवल्यं चापि प्रज्ञप्तम्।। ४२।।
यत्तदावरणक्षयोपशमाच्चक्षुरिन्द्रियावलम्बाच्च मूर्तद्रव्यं विकलं सामान्ये
है ऐसा [अनिधनम्] अविनाशी [कैवल्यं] केवलदर्शन [प्रज्ञप्तम्] – ऐसे चार भेदवाला कहा है।
प्रदेशोंवाला वर्तता हुआ, [१] उस प्रकारके [अर्थात् चक्षुदर्शनके] आवरणके क्षयोपशमसे और चक्षु–
इन्द्रियके अवलम्बनसे मूर्त द्रव्यको विकलरूपसे
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मूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तदचक्षुर्दर्शनम्, यत्तदावरणक्षयोपशमादेव मूर्तद्रव्यं विकलं
सामान्येनावबुध्यते तदवधिदर्शनम्, यत्सकलावरणात्यंतक्षये केवल एव मूर्तामूर्तद्रव्यं सकलं
सामान्येनावबुध्यते तत्स्वाभाविकं केवलदर्शनमिति स्वरूपाभिधानम्।। ४२।।
तम्हा दु विस्सरूवं भणियं दवियत्ति णाणीहिं।। ४३।।
तस्मात्तु विश्वरूपं भणितं द्रव्यमिति ज्ञानिभिः।। ४३।।
वह चक्षुदर्शन है, [२] उस प्रकारके आवरणके क्षयोपशमसे तथा चक्षुके अतिरिक्त शेष चार इन्द्रयोंंं
और मनके अवलम्बनसे मूर्त–अमूर्त द्रव्यको विकरूपसे सामान्यतः अवबोधन करता है वह अचक्षुदर्शन
हैे, [३] उस प्रकारके आवरणके क्षयोपशमसे ही मूर्त द्रव्यको विकरूपसे सामान्यतः अवबोधन करता
है वह अवधिदर्शन है, [४] समस्त आवरणके अत्यन्त क्षयसे, केवल ही [–आत्मा अकेला ही],
मूर्त–अमूर्त द्रव्यको सकलरूपसेे सामान्यतः अवबोधन करता है वह स्वाभाविक केवलदर्शन है। –इस
प्रकार [दर्शनोपयोगके भेदोंके] स्वरूपका कथन है।। ४२।।
ज्ञानियोंने [द्रव्यं] द्रव्यको [विश्वरूपम् इति भणितम्] विश्वरूप [–अनेकरूप] कहा है।
ते कारणे तो विश्वरूप कह्युं दरवने ज्ञानीए। ४३।
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त्वेनैकभावत्वात्। न चैवमुच्यमानेप्येकस्मिन्नात्मन्याभिनिबोधिकादीन्यनेकानि ज्ञानानि विरुध्यंते,
द्रव्यस्य विश्वरूपत्वात्। द्रव्यं हि सहक्रमप्रवृत्तानंतगुणपर्यायाधारतयानंतरूपत्वादेकमपि विश्व–
रूपमभिधीयत इति।। ४३।।
दव्वाणंतियमधवा
द्रव्यानंत्यमथवा द्रव्याभावं प्रकृर्वन्ति।। ४४।।
दोनोंको एकद्रव्यपना है, दोनोंके अभिन्न प्रदेश होनेसे दोनोंको एकक्षेत्रपना है, दोनों एक समयमेें रचे
जाते होनेसे दोनोंको एककालपना है, दोनोंका एक स्वभाव होनेसे दोनोंको एकभावपना है। किन्तु
ऐसा कहा जाने पर भी, एक आत्मामें आभिनिबोधिक [–मति] आदि अनेक ज्ञान विरोध नहीं पाते,
क्योंकि द्रव्य विश्वरूप है। द्रव्य वास्तवमें सहवर्ती और क्रमवर्ती ऐसे अनन्त गुणों तथा पर्यायोंका
आधार होनेके कारण अनन्तरूपवाला होनेसे, एक होने पर भी,
[अथवा] अथवा [द्रव्याभावं] द्रव्यका अभाव [प्रकुर्वन्ति] हो।
अनेक ज्ञानात्मक होनेमें विरोध नहीं है।]
तो थाय द्रव्य–अनन्तता वा थाय नास्ति द्रव्यनी। ४४।
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यत्राश्रितास्तद्र्रव्यम्। तदपि अन्यच्चेद्गुणेभ्यः। पुनरपि गुणाः क्वचिदाश्रिताः। यत्राश्रिताः तद्र्रव्यम्।
तदप्यन्यदेव गुणेभ्यः। एवं द्रव्यस्य गुणेभ्यो भेदे भवति द्रव्या नंत्यम्। द्रव्यं हि गुणानां समुदायः।
गुणाश्चेदन्ये समुदायात्, को नाम समुदायः। एव गुणानां द्रव्याद्भेदे भवति द्रव्याभाव इति।। ४४।।
नेच्छन्ति निश्चयज्ञास्तद्विपरीतं हि वा तेषाम्।। ४५।।
आश्रित हों वह द्रव्य होता है। वह यदि गुणोंसे अन्य हो तो– फिर भी गुण किसीके आश्रित होंगे;
[वे] जिसके आश्रित हों वह द्रव्य होता है। वह भी गुणोसे अन्य ही हो।–– इस प्रकार, यदि
द्रव्यका गुणोंसे भिन्नत्व हो तो, द्रव्यकी अनन्तता हो।
कहाँसे घटित होगा?] इस प्रकार, यदि गुणोंका द्रव्यसे भिन्नत्व हो तो, द्रव्यका अभाव हो।। ४४।।
अन्यपना [वा] या [तद्विपरीतं] [विभक्तपनेरूप] अनन्यपना [न इच्छन्ति] नहीं मानते।
पण त्यां विभक्त अनन्यता वा अन्यता नहि मान्य छे। ४५।
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तथैकस्य परमाणोस्तद्वर्तिनां स्पर्शरसगंधवर्णादिगुणानां चाविभक्तप्रदेशत्वादनन्यत्वम्। यथा
त्वत्यंतविप्रकृष्टयोः सह्यविंध्ययोरत्यंतसन्निकृष्टयोश्च मिश्रितयोस्तोयपयसोर्विभक्तप्रदेशत्वलक्षण–
मन्यत्वमनन्यत्वं च, न तथा द्रव्यगुणानां विभक्तप्रदेशत्वाभावादन्यत्वमनन्यत्वं चेति।। ४५।।
वह स्पष्ट समझाया जाता हैः– जिस प्रकार एक परमाणुको एक स्वप्रदेशके साथ अविभक्तपना होनेसे
अनन्यपना है, उसी प्रकार एक परमाणुको तथा उसमें रहनेवाले स्पर्श–रस–गंध–वर्ण आदि गुणोंको
अविभक्त प्रदेश होनेसे [अविभक्त–प्रदेशत्वस्वरूप] अनन्यपना है; परन्तु जिस प्रकार अत्यन्त दूर ऐसे
[विभक्तप्रदेशत्वस्वरूप] अन्यपना तथा [विभक्तप्रदेशत्वस्वरूप] अनन्यपना नहीं है।। ४५।।
२। अत्यन्त दूर स्थित सह्य और विंध्य नामके पर्वतोंको भिन्नप्रदेशत्वस्वरूप अन्यपना है।
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ते तेसिमणण्णत्ते अण्णत्ते चावि
ते तेषामनन्यत्वे अन्यत्वे चापि विद्यंते।। ४६।।
यथा देवदत्तस्य गौरित्यन्यत्वे षष्ठीव्यपदेशः, तथा वृक्षस्य शाखा द्रव्यस्य गुणा इत्यनन्यत्वेऽपि।
घटभावं स्वयं स्वेन स्वस्मै स्वस्मात् स्वस्मिन् करोतीत्यात्मात्मानमात्मनात्मने आत्मन आत्मनि
गुणोंके [अन्यत्वे] अन्यपनेमें [अनन्यत्वे च अपि] तथा अनन्यपनेमें भी [विद्यंते] हो सकते हैं।
टीकाः–
जिस प्रकार‘देवदत्त फलको अंकुश द्वारा धनदत्तके लियेे वृक्ष परसे बगीचेमें तोड़ता है’ ऐसे अन्यपनेमें
कारकव्यपदेश होता हैे, उसी प्रकार
आत्मामें जानता है’ ऐसे अनन्यपनेमें भी [कारकव्यपदेश] होता हैे। जिस प्रकार ‘ऊँचे देवदत्तकी
ऊँची गाय’ ऐसा अन्यपनेमें संस्थान होता हैे, उसी प्रकार ‘विशाल वृक्षका विशाल शाखासमुदाय’,
मूर्त द्रव्यके मूर्त गुण’ ऐसे अनन्यपनेमें भी [संस्थान] होता हैे। जिस प्रकार ‘एक देवदत्तकी दस
ऐसा कुछ नहीं है; जहाँ अभेद हो वहाँ भी वे घटित होते हैं। इसलिये द्रव्य–गुणोंमें जो व्यपदेश आदि होते हैं वे
कहीं एकान्तसे द्रव्य–गुणोंके भेदको सिद्ध नहीं करते।]
व्यपदेश ने संस्थान, संख्या, विषय बहु ये होय छे;
ते तेमना अन्यत्व तेम अनन्यतामां पण घटे। ४६।
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जानातीत्यनन्यत्वेऽपि। यथा प्रांशोर्देवदत्तस्य प्रांशुर्गौरित्यन्यत्वे संस्थानं, तथा प्रांशोर्वृक्षस्य प्रांशुः
शाखाभरो मूर्तद्रव्यस्य मूर्ता गुणा इत्यनन्यत्वेऽपि। यथैकस्य देवदत्तस्य दश गाव इत्यन्यत्वे संख्या,
तथैकस्य वृक्षस्य दश शाखाः एकस्य द्रव्यस्यानंता गुणा इत्यनन्यत्वेऽपि। यथा गोष्ठे गाव इत्यन्यत्वे
विषयः, तथा वृक्षे शाखाः द्रव्ये गुणा इत्यनन्यत्वेऽपि। ततो न व्यपदेशादयो द्रव्यगुणानां वस्तुत्वेन भेदं
साधयंतीति।। ४६।।
भण्णंति तह पुधत्तं एयत्तं चावि तच्चण्हू।। ४७।।
भणंति तथा पृथक्त्वमेकत्वं चापि तत्त्वज्ञाः।। ४७।।
गुण’ ऐसे अनन्यपनेमें भी [संख्या] होती है। जिस प्रकार ‘बाड़ेे में गायें’ ऐसे अन्यपनेमें विषय [–
आधार] होता है, उसी प्रकार ‘वृक्षमें शाखायें’, ‘द्रव्यमें गुण’ ऐसे अनन्यपनेमें भी [विषय] होता
है। इसलिये [ऐसा समझना चाहिये कि] व्यपदेश आदि, द्रव्य–गुणोंमें वस्तुरूपसे भेद सिद्ध नहीं
करते।। ४६।।
कहा जाता है, [तथा] उसी प्रकार [तत्त्वज्ञाः] तत्त्वज्ञ [पृथक्त्वम्] पृथक्त्व [च अपि] तथा
[एकत्वम्] एकत्वको कहते हैं।
ते रीत तत्त्वज्ञो कहे एकत्व तेम पृथक्त्वने। ४७।
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व्यपदेशं पृथक्त्वप्रकारेण कुरुते, यथा च ज्ञानमभिन्नास्तित्वनिर्वृत्तमभिन्नास्तित्वनिर्वृत्तस्याभिन्न–
संस्थानमभिन्नसंस्थानस्याभिन्नसंख्यमभिन्नसंख्यस्याभिन्नविषयलब्धवृत्तिकमभिन्नविषयलब्धवृत्तिकस्य
पुरुषस्य ज्ञानीति व्यपदेशमेकत्वप्रकारेण कुरुते; तथान्यत्रापि। यत्र द्रव्यस्य भेदेन व्यपदेशादिः तत्र
पृथक्त्वं, यत्राभेदेन तत्रैकत्वमिति।। ४७।।
दोण्हं अचेदणत्तं पसजदि सम्मं जिणावमदं।। ४८।।
द्वयोरचेतनत्वं प्रसजति सम्यग् जिनावमतम्।। ४८।।
संख्यावाले और [४] भिन्न विषयमें स्थित ऐसे पुरुषको ‘धनी’ ऐसा व्यपदेश पृथक्त्वप्रकारसे करता
हैं, तथा जिस प्रकार [१] अभिन्न अस्तित्वसे रचित, [२] अभिन्न संस्थानवाला, [३] अभिन्न
संख्यावाला और [४] अभिन्न विषयमें स्थित ऐसा ज्ञान [१] अभिन्न अस्तित्वसे रचित, [२] अभिन्न
संस्थानवाले, [३] अभिन्न संख्यावाले और [४] अभिन्न विषयमें स्थित ऐसे पुरुषको ‘ज्ञानी’ ऐसा
व्यपदेश एकत्वप्रकारसे करता है, उसी प्रकार अन्यत्र भी समझना चाहिये। जहाँ द्रव्यके भेदसे
व्यपदेश आदि हों वहाँ पृथक्त्व है, जहाँ [द्रव्यके] अभेदसे [व्यपदेश आदि] हों वहाँ एकत्व है।।
४७।।
[अचेतनत्वं प्रसजति] अचेतनपनेका प्रसंग आये– [सम्यग् जिनावमतम्] जो कि जिनोंको सम्यक्
प्रकारसे असंमत है।
बन्ने अचेतनता लहे–जिनदेवने नहि मान्य जे। ४८।
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देवदत्तरहितपरशुवत्तत्कर्तृत्वव्यापारासमर्थत्वादचेतयमानमचेतनमेव स्यात्। न च ज्ञानज्ञानिनो–
र्युतसिद्धयोस्संयोगेन चेतनत्वं द्रव्यस्य निर्विशेषस्य गुणानां निराश्रयाणां शून्यत्वादिति।। ४८।।
बिना, देवदत्त रहित कुल्हाड़ीकी भाँति, अपने
होते हैं।। ४८।।
अचेतनत्व आ जायेगा।]
अचेतनपना आ जावेगा।]
ज्ञानके साथ युक्त होकर आत्मा ‘ज्ञानवाला [–ज्ञानी]’ होता है ऐसा भी नहीं है। लकड़ी और मनुष्यकी
भाँति ज्ञान और आत्मा कभी पृथक् होंगे ही कैसे? विशेषरहित द्रव्य हो ही नहीं सकता, इसलिये ज्ञान रहित
आत्मा कैसा? और आश्रय बिना गुण हो ही नहीं सकता, इसलिये आत्माके बिना ज्ञान कैसा? इसलिये
‘लकड़ी’ और ‘लकड़ीवाले’की भाँति ‘ज्ञान’ और ‘ज्ञानी’का युतसिद्धपना घटित नहीं होता।]
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अण्णाणीति च वयणं एगत्तप्पसाधगं होदि।। ४९।।
अज्ञानीति च वचनमेकत्वप्रसाधकं भवति।। ४९।।
किमज्ञानसमवायात्, किमज्ञानेन सहैकत्वात्? न तावदज्ञानसमवायात्; अज्ञानिनो ह्यज्ञानसमवायो
निष्फलः, ज्ञानित्वं तु ज्ञानसमवायाभावान्नास्त्येव। ततोऽज्ञानीति वचनमज्ञानेन सहैकत्वमवश्यं
‘अज्ञानी’ [इति च वचनम्] ऐसा वचन [एकत्वप्रसाधकं भवति] [गुण–गुणीके] एकत्वको सिद्ध
करता है।
ज्ञानसे अर्थान्तरभूत आत्मा ज्ञानके समवायसे ज्ञानी होता है ऐसा मानना वास्तवमें योग्य नहीं है।
[आत्माको ज्ञानके समवायसे ज्ञानी होना माना जाये तो हम पूछते हैं कि] वह [–आत्मा] ज्ञानका
समवाय होनेसे पहले वास्तवमें ज्ञानी है कि अज्ञानी? यदि ज्ञानी है [ऐसा कहा जाये] तो ज्ञानका
समवाय निष्फल है। अब यदि अज्ञानी है [ऐसा कहा जाये] तो [पूछते हैं कि] अज्ञानके समवायसे
अज्ञानी है कि अज्ञानके साथ एकत्वसे अज्ञानी है? प्रथम, अज्ञानके समवायसे अज्ञानी हो नहीं
सकता; क्योंकि अज्ञानीको अज्ञानका समवाय निष्फल है और ज्ञानीपना तो ज्ञानके समवायका अभाव
होनेसे है ही नहींं। इसलिये ‘अज्ञानी’ ऐसा वचन अज्ञानके साथ एकत्वको अवश्य सिद्ध करता ही
है। और इस प्रकार अज्ञानके साथ एकत्व सिद्ध होनेसे ज्ञानके साथ भी एकत्व अवश्य सिद्ध होता
है।
‘अज्ञानी’ एवुं वचन ते एकत्वनी सिद्धि करे। ४९।
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तम्हा दव्वगुणाणं अजुदा सिद्धि त्ति णिद्दिठ्ठा।। ५०।।
तस्माद्र्रव्यगुणानां अयुता सिद्धिरिति निर्दिष्टा।। ५०।।
हुआ न?
ज्ञानगुणमें शक्तिरूपसे स्थित केवलज्ञान व्यक्त होता है; केवलज्ञान कहीं बाहरसे आकर
केवलीभगवानके आत्माके साथ समवायको प्राप्त होता हो ऐसा नहीं है। छद्मस्थदशामें और
केवलीदशामें जो ज्ञानका अन्तर दिखाई देता है वह मात्र शक्ति–व्यक्तिरूप अन्तर समझना चाहिये।।
४९।।
द्रव्य और गुणोंकी [अयुता सिद्धिः इति] अयुतसिद्धि [निर्दिष्टा] [जिनोंने] कही है।
ते कारणे भाखी अयुतसिद्धि गुणो ने द्रव्यने। ५०।
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निबंधनस्यास्तित्वान्तरस्याभावादयुतसिद्धत्वम्। ततो द्रव्यगुणानां समवर्तित्वलक्षणसमवायभाजाम–
युतसिद्धिरेव, न पृथग्भूतत्वमिति।। ५०।।
दव्वादो य अणण्णा अण्णत्तपगासगा
ववदेसदो पुधत्तं कुव्वंति हि णो
द्रव्य और गुण एक अस्तित्वसे रचित हैं उनकी जो अनादि–अनन्त सहवृत्ति [–एक साथ
[–द्रव्य और गुणोंको संज्ञा– लक्षण–प्रयोजन आदिकी अपेक्षासे भेद होने पर भी] वस्तुरूपसे अभेद
होनेसे अपृथक्पना है; वही, युतसिद्धिके कारणभूत
२। समवायका स्वरूप समवर्तीपना अर्थात् अनादि–अनन्त सहवृत्ति है। द्रव्य और गुणोेंको ऐसा समवाय [अनादि–
परमाणुमां प्ररूपित वरण, रस, गंध तेम ज स्पर्श जे,
अणुथी अभिन्न रही विशेष वडे प्रकाशे भेदने; ५१।
त्यम ज्ञानदर्शन जीवनियत अनन्य रहीने जीवथी,
अन्यत्वना कर्ता बने व्यपदेशथी–न स्वभावथी। ५२।