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द्रव्याच्च अनन्याः अन्यत्वप्रकाशका भवन्ति।। ५१।।
दर्शनज्ञाने तथा जीवनिबद्धे अनन्यभूते।
व्यपदेशतः पृथक्त्वं कुरुते हि नो स्वभावात्।। ५२।।
द्रव्यादविभक्तप्रदेशत्वेनानन्येऽपि संज्ञादिव्यपदेशनिबंधनैर्विशेषैः पृथक्त्वमासादयतः, स्वभावतस्तु
नित्यमपृथक्त्वमेव बिभ्रतः।। ५१–५२।।
कारणभूत] विशेषों द्वारा [अन्यत्वप्रकाशकाः भवन्ति] अन्यत्वको प्रकाशित करनेवाले होते हैं [–
स्वभावसे अन्यरूप नहीं है]; [तथा] इस प्रकार [जीवनिबद्धे] जीवमें सम्बद्ध ऐसे [दर्शनज्ञाने]
दर्शन–ज्ञान [अनन्यभूते] [जीवद्रव्यसे] अनन्य वर्तते हुए [व्यपदेशतः] व्यपदेश द्वारा [पृथक्त्वं
कुरुते हि] पृथक्त्व करते हैं। [नो स्वभावात्] स्वभावसे नहीं।
करते हैं। इस प्रकार आत्मामें सम्बद्ध ज्ञान–दर्शन भी आत्मद्रव्यसे अभिन्न प्रदेशवाले होनेके कारण
अनन्य होने पर भी, संज्ञादि व्यपदेशके कारणभूत विशेषों द्वारा पृथक्पनेको प्राप्त होते हैं, परन्तु
स्वभावसे सदैव अपृथक्पने को ही धारण करते हैं।। ५१–५२।।
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सब्भावदो अणंता पंचग्गगुणप्पधाणा य।। ५३।।
सद्भावतोऽनंताः पञ्चाग्रगुणप्रधानाः च।। ५३।।
भविष्यंतीत्याशङ्कयेदमुक्तम्।
जीवभावसे अनन्त है [अर्थात् जीवके सद्भावरूप क्षायिकभावसे सादि–अनन्त है] [सद्भावतः
अनंताः] क्योंकि सद्भावसे जीव अनन्त ही होते हैं। [पञ्चाग्रगुणप्रधानाः च] वे पाँच मुख्य गुणोंसे
प्रधानतावाले हैं।
हैं? क्या तदाकाररूप [उस–रूप] परिणत है? क्या [तदाकाररूप] अपरिणत हैं?– ऐसी आशंका
करके यह कहा गया है [अर्थात् उन आशंकाओंके समाधानरूपसे यह गाथा कही गई है]।
सद्भावथी नहि अंत होय; प्रधानता गुण पांचथी। ५३।
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त्वात्सनिधनत्वं क्षायिकभावस्याशङ्कयम्। स खलूपाधिनिवृत्तौ प्रवर्तमानः सिद्धभाव इव सद्भाव एव
जीवस्य; सद्भावेन चानंता एव जीवाः प्रतिज्ञायंते। न च तेषामनादिनिधनसहजचैतन्य–लक्षणैकभावानां
सादिसनिधनानि साद्यनिधनानि भावांतराणि नोपपद्यंत इति वक्तव्यम्; ते खल्वनादिकर्ममलीमसाः
पंकसंपृक्ततोयवत्तदाकारेण परिणतत्वात्पञ्चप्रधानगुणप्रधानत्वेनैवानुभूयंत इति।। ५३।।
सद्भाव ही है [अर्थात् कर्मोपाधिके क्षयमें प्रवर्तता है इसलिये क्षायिक भाव जीवका सद्भाव ही है];
और सद्भावसे तो जीव अनन्त ही स्वीकार किये जाते हैं। [इसलिये क्षायिक भावसे जीव अनन्त ही
अर्थात् विनाशरहित ही है।]
होते]’ ऐसा कहना योग्य नहीं है; [क्योंकि] वे वास्तवमें अनादि कर्मसे मलिन वर्तते हुए कादवसे
१। कादवसे संपृक्त = कादवका सम्पर्क प्राप्त; कादवके संसर्गवाला। [यद्यपि जीव द्रव्यस्वभावसे शुद्ध है तथापि
२। औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और पारिणामिक इन पाँच भावोंको जीवके पाँच प्रधान गुण
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इदि जिणवरेहिं भणिदं
एवं सतो विनाशोऽसतो जीवस्य भवत्युत्पादः।
इति जिनवरैर्भणितमन्योऽन्यविरुद्धमविरुद्धम्।। ५४।।
सतो विनाशो नासत उत्पाद’ इति पूर्वोक्तसूत्रेण सह विरुद्धमपि न विरुद्धम्; यतो जीवस्य
द्रव्यार्थिकनयादेशेन न सत्प्रणाशो नासदुत्पादः, तस्यैव पर्यायार्थिकनयादेशेन सत्प्रणाशोऽसदुत्पादश्च।
न चैतदनुपपन्नम्, नित्ये जले कल्लोलानाम–नित्यत्वदर्शनादिति।। ५४।।
कहा है, [अन्योन्यविरुद्धम्] जो कि अन्योन्य विरुद्ध [१९ वीं गाथाके कथनके साथ विरोधवाला]
तथापि [अविरुद्धम्] अविरुद्ध है।
देवत्वादिस्वरूप भावकी अपेक्षासे असत्का उत्पाद होता ही है। और यह [कथन] ‘सत्का विनाश
नहीं है तथा असत्का उत्पाद नहीं है’ ऐसे पूर्वोक्त सूत्रके [–१९वीं गाथाके] साथ विरोधवाला होने
पर भी [वास्तवमें] विरोधवाला नहीं है; क्योंकि जीवको द्रव्यार्थिकनयके कथनसे सत्का नाश नहीं
है और असत्का उत्पाद नहीं है तथा उसीको पर्यायार्थिकनयके कथनसे सत्का नाश है और
असत्का उत्पाद है। और यह
–भाख्युं जिने, जे पूर्व–अपर विरुद्ध पण अविरुद्ध छे। ५४।
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कुव्वंति सदो णासं असदो भावस्स
कुर्वन्ति सतो नाशमसतो भावस्योत्पादम्।। ५५।।
एकसाथ जीवको कैसे घटित होते हैं? उसका समाधान इस प्रकार हैः जीव द्रव्य–पर्यायात्मक वस्तु
है। उसे सादि–सान्तपना और अनादि–अनन्तपना दोनों एक ही अपेक्षासे नहीं कहे गये हैं, भिन्न–
भिन्न अपेक्षासे कहे गये हैं; सादि–सान्तपना कहा गया है वह पर्याय–अपेक्षासे है और अनादि–
अनन्तपना द्रव्य–अपेक्षासे है। इसलिये इस प्रकार जीवको सादि–सान्तपना तथा अनादि–अनन्तपना
एकसाथ बराबर घटित होता है।
नित्यानन्दस्वरूप जीवद्रव्य उसीका आश्रय करने योग्य है]।। ५४।।
भावस्य उत्पादम्] असत् भावका उत्पाद [कुर्वन्ति] करती हैं।
ते व्यय करे सत् भावनो, उत्पाद असत तणो करे। ५५।
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सदुच्छेदमसदुत्पत्तिं चाननुभवतः क्रमेणोदीयमानाः नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवनामप्रकृतयः
सदुच्छेदमसदुत्पादं च कुर्वंतीति।। ५५।।
जुत्ता ते जीवगुणा बहुसु य अत्थेसु विच्छिण्णा।। ५६।।
युक्तास्ते जीवगुणा बहुषु चार्थेषु विस्तीर्णाः।। ५६।।
जिस प्रकार समुद्ररूपसे असत्के उत्पाद और सत्के उच्छेदका अनुभव न करनेवाले ऐसे
उच्छेद करती हैं [अर्थात् अविद्यमान तरंगके उत्पादमें और विद्यमान तरंगके नाशमें निमित्त बनती
है], उसी प्रकार जीवरूपसे सत्के उच्छेद और असत्के उत्पाद अनुभव न करनेवाले ऐसे जीवको
क्रमशः उदयको प्राप्त होने वाली नारक–तिर्यंच–मनुष्य–देव नामकी [नामकर्मकी] प्रकृतियाँ
[भावोंसम्बन्धी, पर्यायोंसम्बन्धी] सत्का उच्छेद तथा असत्का उत्पाद करती हैं [अर्थात् विद्यमान
पर्यायके नाशमें और अविद्यमान पर्यायके उत्पादमें निमित्त बनती हैं]।। ५५।।
[जीवगुणाः] [पाँच] जीवगुण [–जीवके भाव] हैं; [च] और [बहुषु अर्थेषु विस्तीर्णाः] उन्हें
अनेक प्रकारोंमें विस्तृत किया जाता है।
ते पांच जीवगुण जाणवा; बहु भेदमां विस्तीर्ण छे। ५६।
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कर्मणां फलदानसमर्थतयोद्भूतिरुदयः, अनुद्भूतिरुपशमः, उद्भूत्यनुद्भूती क्षयोपशमः,
औपशमिकः, क्षयोपशमेन युक्तः क्षायोपशमिकः, क्षयेण युक्तः क्षायिकः, परिणामेन युक्तः पारिणामिकः।
त एते पञ्च जीवगुणाः। तत्रोपाधिचतुर्विधत्वनिबंधनाश्चत्वारः, स्वभावनिबंधन एकः। एते
चोपाधिभेदात्स्वरूपभेदाच्च भिद्यमाना बहुष्वर्थेषु विस्तार्यंत इति।। ५६।।
कर्मोका
है, क्षयोपशमसे युक्त वह ‘क्षायोपशमिक’ है,
और स्वरूपके भेदसे भेद करने पर, उन्हें अनेक प्रकारोंमें विस्तृत किया जाता है।। ५६।।
२। अत्यन्त विश्लेष = अत्यन्त वियोग; आत्यंतिक निवृत्ति।
३। आत्मलाभ = स्वरूपप्राप्ति; स्वरूपको धारण कर रखना; अपनेको धारण कर रखना; अस्तित्व। [द्रव्य अपनेको
४। क्षयसे युक्त = क्षय सहित; क्षयके साथ सम्बन्धवाला। [व्यवहारसे कर्मोके क्षयकी अपेक्षा जीवके जिस भावमें
५। परिणामसे युक्त = परिणाममय; परिणामात्मक; परिणामस्वरूप।
६। कर्मोपाधिकी चार प्रकारकी दशा [–उदय, उपशम, क्षयोपशम और क्षय] जिनका निमित्त है ऐसे चार भाव
भाव हैे।
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सो तस्स तेण कत्ता हवदि त्ति य सासणे पढिदं।। ५७।।
कर्म वेदयमानो जीवो भावं करोति याद्रशकम्।
स तस्य तेन कर्ता भवतीति च शासने पठितम्।। ५७।।
भावः क्रियते, स जीवस्तस्य भावस्य तेन प्रकारेण कर्ता भवतीति।। ५७।।
कर्ता है–[इति च] ऐसा [शासने पठितम्] शासनमें कहा है।
अपना कर्मरूप [कार्यरूप] भाव किया जाता है। इसलिये जो भाव जिस प्रकारसे जीव द्वारा किया
जाता है, उस भावका उस प्रकारसे वह जीव कर्ता है।। ५७।।
ते भावनो ते जीव छे कर्ता–कह्युं जिनशासने। ५७।
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खइयं खओवसमियं तम्हा भावं तु कम्मकदं।। ५८।।
क्षायिकः क्षायोपशमिकस्तस्माद्भावस्तु कर्मकृतः।। ५८।।
द्रव्यकर्मणां निमित्तमात्रत्वेनौदयिकादिभावकर्तृत्वमत्रोक्तम्।
न खलु कर्मणा विना जीवस्योदयोपशमौ क्षयक्षायोपशमावपि विद्येते; ततः
[तस्मात् तु] इसलिये [भावः] भाव [–चतुर्विध जीवभाव] [कर्मकृतः] कर्मकृत हैं।
क्षायोपशमिक, औदयिक या औपशमिक भाव कर्मकृत संमत करना। पारिणामिक भाव तो अनादि–
अनन्त,
औपशमिक भावोंके सम्बन्धमें निम्नोक्तानुसार स्पष्टता की जाती हैः] क्षायिक भाव, यद्यपि स्वभावकी
व्यक्तिरूप [–प्रगटतारूप] होनेसे अनन्त [–अन्त रहित] है तथापि, कर्मक्षय द्वारा उत्पन्न होनेके
पुद्गलकरम विण जीवने उपशम, उदय, क्षायिक अने
क्षायोपशमिक न होय, तेथी कर्मकृत ए भाव छे। ५८।
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समुच्छिद्यमानत्वात् कर्मकृत एवेति।
ण कुणदि अत्ता किंचि वि मुत्ता अण्णं
न करोत्यात्मा किंचिदपि मुक्त्वान्यत् स्वकं भावम्।। ५९।।
कारण सादि है इसलिये कर्मकृत ही कहा गया है। औपशमिक भाव कर्मके उपशमसे उत्पन्न होनेके
कारण तथा अनुपशमसे नष्ट होनेके कारण कर्मकृत ही है। [इस प्रकार औदयिकादि चार भावोंको
कर्मकृत संमत करना।]
उदय आदि अवस्थाएँ द्रव्यकर्मकी ही हैं, ‘परिणाम’ जिसका स्वरूप है ऐसी एक अवस्थारूपसे
अवस्थित जीवकी–पारिणामिक भावरूप स्थित जीवकी –वे चार अवस्थाएँ नहीं हैं]; इसलिये
उदयादिक द्वारा उत्पन्न होनेवाले आत्माके भावोंको निमित्तमात्रभूत ऐसी उस प्रकारकी अवस्थाओंंरूप
[द्रव्यकर्म] स्वयं परिणमित होनेके कारण द्रव्यकर्म भी व्यवहारनयसे आत्माके भावोंके कतृत्वको प्राप्त
होता है।। ५८।।
है? [आत्मा] क्योंकि आत्मा तो [स्वकं भावं मुक्त्वा] अपने भावको छोड़कर [अन्यत् किंचित् अपि]
अन्य कुछ भी [न करोति] नहीं करता।
जीव तो कदी करतो नथी निज भाव विण कंई अन्यने। ५९।
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जीवस्तस्य कर्ता न भवति। न च जीवस्याकर्तृत्वामिष्यते। ततः पारिशेष्येण द्रव्यकर्मणः कर्तापद्यते।
तत्तु कथम्? यतो निश्चयनयेनात्मा स्वं भावमुज्झित्वा नान्यत्किमपि करोतीति।। ५९।।
ण दु तेसिं खलु कत्ता ण विणा भूदा दु
न तु तेषां खलु कर्ता न विना भूतास्तु कर्तारम्।। ६०।।
मान्य] नहीं है। इसलिये, शेष यह रहा कि जीव द्रव्यकर्मका कर्ता होना चाहिये। लेकिन वह तो
कैसे हो सकता है? क्योंकि निश्चयनयसे आत्मा अपने भावको छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं करता।
[इस प्रकार पूर्वपक्ष उपस्थित किया गया] ।। ५९।।
है; [न तु कर्तारम् विना भूताः] कर्ताके बिना होते हैं ऐसा भी नहीं है।
रे! भाव कर्मनिमित्त छे ने कर्म भावनिमित्त छे,
अन्योन्य नहि कर्ता खरे; कर्ता विना नहि थाय छे। ६०।
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जीवपरिणामानां जीवः कर्ता, कर्मपरिणामानां कर्म कर्तृ इति।। ६०।।
न हि पुद्गलकर्मणामिति जिनवचनं ज्ञातव्यम्।। ६१।।
कर्मका जीवभाव कर्ता है। वे [जीवभाव और द्रव्यकर्म] कर्ताके बिना होते हैं ऐसा भी नहीं है;
क्योंकि निश्चयसे जीवपरिणामोंका जीव कर्ता है और कर्मपरिणामोंका कर्म [–पुद्गल] कर्ता है।।
६०।।
नहीं; [इति] ऐसा [जिनवचनं] जिनवचन [ज्ञातव्यम्] जानना।
कर्ता न पुद्गलकर्मनो; –उपदेश जिननो जाणवो। ६१।
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जीवो वि य तारिसओ कम्मसहावेण
जीवोऽपि च ताद्रशकः कर्मस्वभावेन भावेन।। ६२।।
लंबनादुपात्तापादानत्वम्, उपजायमानपरिणामरूपकर्मणाश्रीयमाणत्वादुपोढसंप्रदानत्वम्, आधीय–
मानपरिणामाधारत्वाद्गृहीताधिकरणत्वं, स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानं न कारकांतरम–
पेक्षते।
[–औदयिकादि भावसे] [सम्यक् आत्मानम्] बराबर अपनेको करता है।
कर्मत्वपरिणामरूपसे कर्मपनेका अनुभव करता हुआ, [४] पूर्व भावका नाश हो जाने पर भी ध्रुवत्वको
अवलम्बन करनेसे जिसने अपादानपनेको प्राप्त किया है ऐसा, [५] उत्पन्न होने वाले परिणामरूप
कर्म द्वारा समाश्रित होनेसे [अर्थात् उत्पन्न होने वाले परिणामरूप कार्य अपनेको
आत्माय कर्मस्वभावरूप निज भावथी निजने करे। ६२।
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ध्रुवत्वालंबनादुपात्तापादानत्वम्, उपजायमानभावपर्यायरूपकर्मणाश्रीयमाणत्वादुपोढ–संप्रदानत्व;,
आधीयमानभावपर्यायाधारत्वाद्गृहीताधिकरणत्वः, स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानो न
कारकांतरमपेक्षते। अतः कर्मणः कर्तुर्नास्ति जीवः कर्ता, जीवस्य कर्तुर्नास्ति कर्म कर्तृ निश्चयेनेति।।
६२।।
ग्रहण किया है ऐसा – स्वयमेव षट्कारकरूपसे वर्तता हुआ अन्य कारककी अपेक्षा नहीं रखता।
भावपर्यायरूपसे कर्मपनेका अनुभव करता हुआ, [४] पूर्व भावपर्यायका नाश होने पर ध्रुवत्वका
अवलम्बन करनेसे जिसने अपादानपनेको प्राप्त किया है ऐसा, [५] उत्पन्न होने वाले भावपर्यायरूप
कर्म द्वारा समाश्रित होनेसे [अर्थात् उत्पन्न होने वाला भावपर्यायरूप कार्य अपनेको दिया जानेसे]
सम्प्रदानपनेको प्राप्त और [६] धारण की हुई भावपर्यायका आधार होनेसे जिसने अधिकरणपनेको
ग्रहण किया है ऐसा – स्वयमेव षट्कारकरूपसे वर्तता हुआ अन्य कारककी अपेक्षा नहीं रखता।
प्राप्त करता – पहुँचता होनेसे द्रव्यकर्म कर्म है, अथवा द्रव्यकर्मसे स्वयं अभिन्न होनेसे पुद्गल स्वयं
ही कर्म [–कार्य] है; [४] अपनेमेसे पूर्व परिणामका व्यय करके द्रव्यकर्मरूप परिणाम करता होनेसे
और पुद्गलद्रव्यरूपसे ध्रुव रहता होनेसे पुद्गल स्वयं ही अपादान है; [५] अपनेको द्रव्यकर्मरूप
परिणाम देता होनेसे पुद्गल स्वयं ही सम्प्रदान है; [६] अपनेमें अर्थात् अपने आधारसे द्रव्यकर्म
करता होनेसे पुद्गल स्वयं ही अधिकरण है।
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किध तस्स फलं भुजदि अप्पा कम्मं च देदि
कंथ तस्य फलं भुड्क्ते आत्मा कर्म च ददाति फलम्।। ६३।।
प्राप्त करता– पहुँचता होनेसे जीवभाव कर्म है, अथवा जीवभावसे स्वयं अभिन्न होनेसे जीव स्वयं ही
कर्म है; [४] अपनेमेंसे पूर्व भावका व्यय करके [नवीन] जीवभाव करता होनेसे और जीवद्रव्यरूपसे
ध्रुव रहनेसे जीव स्वयं ही अपादान है; [५] अपनेको जीवभाव देता होनेसे जीव स्वयं ही सम्प्रदान
है; [६] अपनेमें अर्थात् अपने आधारसे जीवभाव करता होनेसे जीव स्वयं ही अधिकरण है।
तथा जीवकी औदयिकादि भावरूपसे परिणमित होनेकी क्रियामें वास्तवमें जीव स्वयं ही छह
कारकरूपसे वर्तता है इसलिये उसे अन्य कारकोंकी अपेक्षा नहीं है। पुद्गलकी और जीवकी उपरोक्त
क्रियाएँ एक ही कालमें वर्तती है तथापि पौद्गलिक क्रियामें वर्तते हुए पुद्गलके छह कारक
जीवकारकोंसे बिलकुल भिन्न और निरपेक्ष हैं तथा जीवभावरूप क्रियामें वर्तते हुए जीवके छह कारक
पुद्गलकारकोंसे बिलकुल भिन्न और निरपेक्ष हैं। वास्तवमें किसी द्रव्यके कारकोंको किसी अन्य द्रव्यके
कारकोंकी अपेक्षा नहीं होती।। ६२।।
क्यम कर्म फळ दे जीवने? क्यम जीव ते फळ भोगवे? ६३।
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अथ सिद्धांतसुत्राणि–
[च] और [आत्मा] आत्मा [तस्य फलं भुड्क्ते] उसका फल क्यों भोगेगा?
जीवको फल क्यों देगा और जीव अपनेसे नहीं किये गये कर्मके फलकोे क्यों भोगेगा? जीवसे नहीं
किया कर्म जीवको फल दे और जीव उस फलको भोगे यह किसी प्रकार न्याययुक्त नहीं है।
अवगाढ गाढ भरेल छे सर्वत्र पुद्गलकायथी
आ लोक बादर–सुक्ष्मथी, विधविध अनंतानंतथी। ६४।
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सुक्ष्मैर्बादरैश्चानंतानंतैर्विविधैः।। ६४।।
गच्छंति कम्मभावं अण्णोण्णागाहमवगाढा।। ६५।।
गच्छन्ति कर्मभावमन्योन्यावगाहावगाढा।। ६५।।
इस प्रकार, ‘कर्म’ कर्मको ही करता है और आत्मा आत्माको ही करता है’ इस बातमें पूर्वोक्त दोष
आनेसे यह बात घटित नहीं होती – इस प्रकार यहाँ पूर्वपक्ष उपस्थित किया गया है।। ६३।।
[अवगाढगाढनिचितः] [विशिष्ट रीतिसे] अवगाहित होकर गाढ़ भरा हुआ है।
जहाँ आत्मा है वहाँ, बिना लाये ही [कहींसे लाये बिना ही], वे स्थित हैं।। ६४।।
कर्मत्वरूपे परिणमे अन्योन्य–अवगाहित थई। ६५।
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आत्मा हि संसारावस्थायां पारिणामिकचैतन्यस्वभावमपरित्यजन्नेवानादिबंधनबद्धत्वाद–
भावमारभते, तत्र तदा तमेव निमित्तीकृत्य जीवप्रदेशेषु परस्परावगाहेनानुप्रविष्टा स्वभावैरेव पुद्गलाः
कर्मभावमापद्यंत इति।। ६५।।
अकदा परेहिं दिट्ठा तह कम्माणं
अकृता परैर्द्रष्टा तथा कर्मणां विजानीहि।। ६६।।
[अन्योन्यावगाहावगाढाः] जीवमें [विशिष्ट प्रकारसे] अन्योन्य–अवगाहरूपसे प्रविष्ट हुए [कर्मभावम्
गच्छन्ति] कर्मभावको प्राप्त होते हैं।
रागरूप या द्वेषरूप ऐसे अपने भावको करता है। वहाँ और उस समय उसी भावको निमित्त बनाकर
पुद्गल अपने भावोंसे ही जीवके प्रदेशोंमें [विशिष्टतापूर्वक] परस्पर अवगाहरूपसे प्रविष्ट हुए
कर्मभावको प्राप्त होते हैं।
प्रकारसे परस्पर– अवगाहरूपसे प्रविष्ट हुए कर्मपनेको प्राप्त होते हैं।
परथी अकृत, ते रीत जाणो विविधता कर्मो तणी। ६६।
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भिर्बहुभिः प्रकारैः कर्माण्यपि कंर्त्रतरनिरपेक्षाण्येवोत्पद्यंते इति।। ६६।।
काले विजुज्जमाणा सहदुक्खं दिंति भुंजंति।। ६७।।
काले वियुज्यमानाः सुखदुःखं ददति भुञ्जन्ति।। ६७।।
[तथा] उसी प्रकार [कर्मणां] कर्मोंकी बहुप्रकारता [विजानीहि] परसे अकृत जानो।
होते हैं, उसी प्रकार अपनेको योग्य जीव–परिणामकी उपलब्धि होने पर, ज्ञानावरणादि अनेक
प्रकारके कर्म भी अन्य कर्ताकी अपेक्षाके बिना ही उत्पन्न होते हैं।
काळे वियोग लहे तदा सुखदुःख आपे–भोगवे। ६७।
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पृथक होने पर [सुखदुःखं ददति भुञ्जन्ति] सुखदुःख देते हैं और भोगते हैं [अर्थात् पुद्गलकाय
सुखदुःख देते हैं और जीव भोगते हैं]।
जीवकोे फल देता है और जीव उसे भोगता है’ यह बात भी व्यवहारसे घटित होती है] ऐसा यहाँ
कहा है।
जीव उसे भोगते हैं]– उदय पाकर खिर जानेवाले पुद्गलकाय सुखदुःखरूप आत्मपरिणामोंके