Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 53-67.

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९२
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
वर्णरसगंधस्पर्शाः परमाणुप्ररूपिता विशेषैः।
द्रव्याच्च अनन्याः अन्यत्वप्रकाशका भवन्ति।। ५१।।
दर्शनज्ञाने तथा जीवनिबद्धे अनन्यभूते।
व्यपदेशतः पृथक्त्वं कुरुते हि नो स्वभावात्।। ५२।।
द्रष्टांतदार्ष्टान्तिकार्थपुरस्सरो द्रव्यगुणानामनर्थांन्तरत्वव्याख्योपसंहारोऽयम्।
वर्णरसगंधस्पर्शा हि परमाणोः प्ररूप्यंते; ते च परमाणोरविभक्तप्रदेशत्वेनानन्येऽपि
संज्ञादिव्यपदेशनिबंधनैर्विशेषैरन्यत्वं प्रकाशयन्ति। एवं ज्ञानदर्शने अप्यात्मनि संबद्धे आत्म–
द्रव्यादविभक्तप्रदेशत्वेनानन्येऽपि संज्ञादिव्यपदेशनिबंधनैर्विशेषैः पृथक्त्वमासादयतः, स्वभावतस्तु
नित्यमपृथक्त्वमेव बिभ्रतः।। ५१–५२।।
–इतिउपयोगगुणव्याख्यानं समाप्तम्।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ५१–५२
अन्वयार्थः– [परमाणुप्ररूपिताः] परमाणुमें प्ररूपित किये जाने वाले ऐसे [वर्णरसगंधस्पर्शाः]
वर्ण–रस–गंध–स्पर्श [द्रव्यात् अनन्याः च] द्रव्यसे अनन्य वर्तते हुए [विशेषैः] [व्यपदेशके
कारणभूत] विशेषों द्वारा [अन्यत्वप्रकाशकाः भवन्ति] अन्यत्वको प्रकाशित करनेवाले होते हैं [–
स्वभावसे अन्यरूप नहीं है]; [तथा] इस प्रकार [जीवनिबद्धे] जीवमें सम्बद्ध ऐसे [दर्शनज्ञाने]
दर्शन–ज्ञान [अनन्यभूते] [जीवद्रव्यसे] अनन्य वर्तते हुए [व्यपदेशतः] व्यपदेश द्वारा [पृथक्त्वं
कुरुते हि] पृथक्त्व करते हैं। [नो स्वभावात्] स्वभावसे नहीं।
टीकाः– द्रष्टान्तरूप और द्रार्ष्टान्तरूप पदार्थपूर्वक, द्रव्य तथा गुणोंके अभिन्न–पदार्थपनेके
व्याख्यानका यह उपसंहार है।
वर्ण–रस–गंध–स्पर्श वास्तवमें परमाणुमें प्ररूपित किये जाते हैं; वे परमाणुसे अभिन्न प्रदेशवाले
होनेके कारण अनन्य होने पर भी, संज्ञादि व्यपदेशके कारणभूत विशेषों द्वारा अन्यत्वको प्रकाशित
करते हैं। इस प्रकार आत्मामें सम्बद्ध ज्ञान–दर्शन भी आत्मद्रव्यसे अभिन्न प्रदेशवाले होनेके कारण
अनन्य होने पर भी, संज्ञादि व्यपदेशके कारणभूत विशेषों द्वारा पृथक्पनेको प्राप्त होते हैं, परन्तु
स्वभावसे सदैव अपृथक्पने को ही धारण करते हैं।। ५१–५२।।
इस प्रकार उपयोगगुणका व्याख्यान समाप्त हुआ।
--------------------------------------------------------------------------
द्रार्ष्टान्त = द्रष्टान्त द्वारा समझाान हो वह बात; उपमेय। [यहाँ परमाणु और वर्णादिक द्रष्टान्तरूप पदार्थ हैं तथा
जीव और ज्ञानादिक द्रार्ष्टांन्तरूप पदार्थ हैं।]

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
९३
अथ कर्तृत्वगुणव्याख्यानम्। तत्रादिगाथात्रयेण तदुपोद्धातः–
जीवा अणाइणिहणा संता णंता य जीवभावादो।
सब्भावदो अणंता पंचग्गगुणप्पधाणा य।। ५३।।
जीवा अनादिनिधनाः सांता अनंताश्च जीवभावात्।
सद्भावतोऽनंताः पञ्चाग्रगुणप्रधानाः च।। ५३।।
जीवा हि निश्चयेन परभावानामकरणात्स्वभावानां कर्तारो भविष्यन्ति। तांश्च कुर्वाणाः
किमनादिनिधनाः, किं सादिसनिधनाः, किं साद्यनिधमाः, किं तदाकारेण परिणताः, किमपरिणताः
भविष्यंतीत्याशङ्कयेदमुक्तम्।
-----------------------------------------------------------------------------
अब कर्तृत्वगुणका व्याख्यान है। उसमें, प्रारम्भकी तीन गाथाओंसे उसका उपोद्घात किया
जाता है।
गाथा ५३
अन्वयार्थः– [जीवाः] जीव [अनादिनिधनाः] [पारिणामिकभावसे] अनादि–अनन्त है,
[सांताः] [तीन भावोंंसे] सांत [अर्थात् सादि–सांत] है [च] और [जीवभावात् अनंताः]
जीवभावसे अनन्त है [अर्थात् जीवके सद्भावरूप क्षायिकभावसे सादि–अनन्त है] [सद्भावतः
अनंताः] क्योंकि सद्भावसे जीव अनन्त ही होते हैं। [पञ्चाग्रगुणप्रधानाः च] वे पाँच मुख्य गुणोंसे
प्रधानतावाले हैं।
टीकाः– निश्चयसे पर–भावोंका कतृत्व न होनेसे जीव स्व–भावोंके कर्ता होते हैं ; और उन्हें
[–अपने भावोंको] करते हुए, क्या वे अनादि–अनन्त हैं? क्या सादि–सांत हैं? क्या सादि–अनन्त
हैं? क्या तदाकाररूप [उस–रूप] परिणत है? क्या [तदाकाररूप] अपरिणत हैं?– ऐसी आशंका
करके यह कहा गया है [अर्थात् उन आशंकाओंके समाधानरूपसे यह गाथा कही गई है]।
--------------------------------------------------------------------------
जीवो अनादि–अनंत, सांत, अनंत छे जीवभावथी,
सद्भावथी नहि अंत होय; प्रधानता गुण पांचथी। ५३।

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९४
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
जीवा हि सहजचैतन्यलक्षणपारिणामिकभावेनानादिनिधनाः। त एवौदयिक–
क्षायोपशमिकौपशमिकभावैः सादिसनिधनाः। त एव क्षायिकभावेन साद्यनिधनाः। न च सादि–
त्वात्सनिधनत्वं क्षायिकभावस्याशङ्कयम्। स खलूपाधिनिवृत्तौ प्रवर्तमानः सिद्धभाव इव सद्भाव एव
जीवस्य; सद्भावेन चानंता एव जीवाः प्रतिज्ञायंते। न च तेषामनादिनिधनसहजचैतन्य–लक्षणैकभावानां
सादिसनिधनानि साद्यनिधनानि भावांतराणि नोपपद्यंत इति वक्तव्यम्; ते खल्वनादिकर्ममलीमसाः
पंकसंपृक्ततोयवत्तदाकारेण परिणतत्वात्पञ्चप्रधानगुणप्रधानत्वेनैवानुभूयंत इति।। ५३।।
-----------------------------------------------------------------------------
जीव वास्तवमें सहजचैतन्यलक्षण पारिणामिक भावसे अनादि–अनन्त है। वे ही औदयिक,
क्षायोपशमिक और औपशमिक भावोंसे सादि–सान्त हैं। वे ही क्षायिक भावसे सादि–अनन्त हैं।
‘क्षायिक भाव सादि होनेसे वह सांत होगा’ ऐसी आशंका करना योग्य नहीं है। [कारण इस
प्रकार हैः–] वह वास्तवमें उपाधिकी निवृत्ति होने पर प्रवर्तता हुआ, सिद्धभावकी भाँति, जीवका
सद्भाव ही है [अर्थात् कर्मोपाधिके क्षयमें प्रवर्तता है इसलिये क्षायिक भाव जीवका सद्भाव ही है];
और सद्भावसे तो जीव अनन्त ही स्वीकार किये जाते हैं। [इसलिये क्षायिक भावसे जीव अनन्त ही
अर्थात् विनाशरहित ही है।]
पुनश्च, ‘अनादि–अनन्त सहजचैतन्यलक्षण एक भाववाले उन्हें सादि–सांत और सादि–अनन्त
भावान्तर घटित नहीं होते [अर्थात् जीवोंको एक पारिणामिक भावके अतिरिक्त अन्य भाव घटित नहीं
होते]’ ऐसा कहना योग्य नहीं है; [क्योंकि] वे वास्तवमें अनादि कर्मसे मलिन वर्तते हुए कादवसे
संपृक्त जलकी भाँति तदाकाररूप परिणत होनेके कारण, पाँच प्रधान गुणोंसे प्रधानतावाले ही
अनुभवमें आते हैं।। ५३।।
--------------------------------------------------------------------------
जीवके पारिणामिक भावका लक्षण अर्थात् स्वरूप सहज–चैतन्य है। यह पारिणामिक भाव अनादि अनन्त
होनेसे इस भावकी अपेक्षासे जीव अनादि अनन्त है।

१। कादवसे संपृक्त = कादवका सम्पर्क प्राप्त; कादवके संसर्गवाला। [यद्यपि जीव द्रव्यस्वभावसे शुद्ध है तथापि
व्यवहारसे अनादि कर्मबंधनके वश, कादववाले जलकी भाँति, औदयिक आदि भावरूप परिणत हैं।]

२। औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और पारिणामिक इन पाँच भावोंको जीवके पाँच प्रधान गुण
कहा गया है।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
९५
एवं सदो विणासो असदो जीवस्स होइ उप्पादो।
इदि जिणवरेहिं भणिदं
अण्णोण्णविरुद्धमविरुद्धं।। ५४।।

एवं सतो विनाशोऽसतो जीवस्य भवत्युत्पादः।
इति जिनवरैर्भणितमन्योऽन्यविरुद्धमविरुद्धम्।। ५४।।
जीवस्य भाववशात्सादिसनिधनत्वे साद्यनिधनत्वे च विरोधपरिहारोऽयम्।
एवं हि पञ्चभिर्भावैः स्वयं परिणममानस्यास्य जीवस्य कदाचिदौदयिकेनैकेन मनुष्यत्वादिलक्षणेन
भावेन सतो विनाशस्तथापरेणौदयिकेनैव देवत्वादिलक्षणेन भावेन असत उत्पादो भवत्येव। एतच्च ‘न
सतो विनाशो नासत उत्पाद’ इति पूर्वोक्तसूत्रेण सह विरुद्धमपि न विरुद्धम्; यतो जीवस्य
द्रव्यार्थिकनयादेशेन न सत्प्रणाशो नासदुत्पादः, तस्यैव पर्यायार्थिकनयादेशेन सत्प्रणाशोऽसदुत्पादश्च।
न चैतदनुपपन्नम्, नित्ये जले कल्लोलानाम–नित्यत्वदर्शनादिति।। ५४।।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ५४
अन्वयार्थः– [एवं] इस प्रकार [जीवस्य] जीवको [सतः विनाशः] सत्का विनाश और
[असतः उत्पादः] असत्का उत्पाद [भवति] होता है– [इति] ऐसा [जिनवरैः भणितम्] जिनवरोंने
कहा है, [अन्योन्यविरुद्धम्] जो कि अन्योन्य विरुद्ध [१९ वीं गाथाके कथनके साथ विरोधवाला]
तथापि [अविरुद्धम्] अविरुद्ध है।
टीकाः– यह, जीवको भाववशात् [औदयिक आदि भावोंके कारण] सादि–सांतपना और
अनादि–अनन्तपना होनेमें विरोधका परिहार है।
इस प्रकार वास्तवमें पाँच भावरूपसे स्वयं परिणमित होनेवाले इस जीवको कदाचित् औदयिक
ऐसे एक मनुष्यत्वादिस्वरूप भावकी अपेक्षासे सत्का विनाश और औदयिक ही ऐसे दूसरे
देवत्वादिस्वरूप भावकी अपेक्षासे असत्का उत्पाद होता ही है। और यह [कथन] ‘सत्का विनाश
नहीं है तथा असत्का उत्पाद नहीं है’ ऐसे पूर्वोक्त सूत्रके [–१९वीं गाथाके] साथ विरोधवाला होने
पर भी [वास्तवमें] विरोधवाला नहीं है; क्योंकि जीवको द्रव्यार्थिकनयके कथनसे सत्का नाश नहीं
है और असत्का उत्पाद नहीं है तथा उसीको पर्यायार्थिकनयके कथनसे सत्का नाश है और
असत्का उत्पाद है। और यह
अनुपपन्न नहीं है, क्योंकि नित्य ऐसे जलमें कल्लोलोंका अनित्यपना
दिखाई देता है।
--------------------------------------------------------------------------
यहाँ ‘सादि’के बदले ‘अनादि’ होना चाहिये ऐसा लगता है; इसलिये गुजरातीमें ‘अनादि’ ऐसा अनुवाद
किया है।
१।अनुपपन्न = अयुक्त; असंगत; अघटित; न हो सके ऐसा।
ए रीत सत्–व्यय ने असत्–उत्पाद जीवने होय छे
–भाख्युं जिने, जे पूर्व–अपर विरुद्ध पण अविरुद्ध छे। ५४।

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९६
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
णेरइयतिरियमणुआ देवा इदि णामसंजुदा पयडी।
कुव्वंति सदो णासं असदो भावस्स
उप्पादं।। ५५।।
नारकतिर्यङ्मनुष्या देवा इति नामसंयुताः प्रकृतयः।
कुर्वन्ति सतो नाशमसतो भावस्योत्पादम्।। ५५।।
जीवस्य सदसद्भावोच्छित्त्युत्पत्तिनिमित्तोपाधिप्रतिपादनमेतत्।
-----------------------------------------------------------------------------
भावार्थः– ५३ वीं गाथामें जीवको सादि–सान्तपना तथा अनादि–अनन्तपना कहा गया है। वहाँ
प्रश्न सम्भव है कि–सादि–सांतपना और अनादि–अनंतपना परस्पर विरुद्ध है; परस्पर विरुद्ध भाव
एकसाथ जीवको कैसे घटित होते हैं? उसका समाधान इस प्रकार हैः जीव द्रव्य–पर्यायात्मक वस्तु
है। उसे सादि–सान्तपना और अनादि–अनन्तपना दोनों एक ही अपेक्षासे नहीं कहे गये हैं, भिन्न–
भिन्न अपेक्षासे कहे गये हैं; सादि–सान्तपना कहा गया है वह पर्याय–अपेक्षासे है और अनादि–
अनन्तपना द्रव्य–अपेक्षासे है। इसलिये इस प्रकार जीवको सादि–सान्तपना तथा अनादि–अनन्तपना
एकसाथ बराबर घटित होता है।
[यहाँ यद्यपि जीवको अनादि–अनन्त तथा सादि–सान्त कहा गया है, तथापि ऐसा तात्पर्य
ग्रहण करना चाहिये कि पर्यायार्थिकनयके विषयभूत सादि–सान्त जीवका आश्रय करनेयोग्य नहीं है
किन्तु द्रव्यार्थिकनयके विषयभूत ऐसा जो अनादि–अनन्त, टंकोत्कीर्णज्ञायकस्वभावी, निर्विकार,
नित्यानन्दस्वरूप जीवद्रव्य उसीका आश्रय करने योग्य है]।। ५४।।
गाथा ५५
अन्वयार्थः– [नारकतिर्यंङ्मनुष्याः देवाः] नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव [इति नामसंयुताः]
ऐसे नामोंवाली [प्रकृतयः] [नामकर्मकी] प्रकृतियाँ [सतः नाशम्] सत् भावका नाश और [असतः
भावस्य उत्पादम्] असत् भावका उत्पाद [कुर्वन्ति] करती हैं।
--------------------------------------------------------------------------
तिर्यंच–नारक–देव–मानव नामनी छे प्रकृति जे,
ते व्यय करे सत् भावनो, उत्पाद असत तणो करे। ५५।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
९७
यथा हि जलराशेर्जलराशित्वेनासदुत्पादं सदुच्छेदं चाननुभवतश्चतुर्भ्यः ककुब्विभागेभ्यः क्रमेण
वहमानाः पवमानाः कल्लोलानामसदुत्पादं सदुच्छेदं च कुर्वन्ति, तथा जीवस्यापि जीवत्वेन
सदुच्छेदमसदुत्पत्तिं चाननुभवतः क्रमेणोदीयमानाः नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवनामप्रकृतयः
सदुच्छेदमसदुत्पादं च कुर्वंतीति।। ५५।।
उदयेण उवसमेण य खयेण दुहिं मिस्सिदेहिं परिणामे।
जुत्ता ते जीवगुणा बहुसु य अत्थेसु विच्छिण्णा।। ५६।।
उदयेनोपशमेन च क्षयेण द्वाभ्यां मिश्रिताभ्यां परिणामेन।
युक्तास्ते जीवगुणा बहुषु चार्थेषु विस्तीर्णाः।। ५६।।
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– जीवको सत् भावके उच्छेद और असत् भावके उत्पादमें निमित्तभूत उपाधिका यह
प्रतिपादन है।

जिस प्रकार समुद्ररूपसे असत्के उत्पाद और सत्के उच्छेदका अनुभव न करनेवाले ऐसे
समुद्रको चारों दिशाओंमेंसे क्रमशः बहती हुई हवाएँ कल्लोलोंसम्बन्धी असत्का उत्पाद और सत्का
उच्छेद करती हैं [अर्थात् अविद्यमान तरंगके उत्पादमें और विद्यमान तरंगके नाशमें निमित्त बनती
है], उसी प्रकार जीवरूपसे सत्के उच्छेद और असत्के उत्पाद अनुभव न करनेवाले ऐसे जीवको
क्रमशः उदयको प्राप्त होने वाली नारक–तिर्यंच–मनुष्य–देव नामकी [नामकर्मकी] प्रकृतियाँ
[भावोंसम्बन्धी, पर्यायोंसम्बन्धी] सत्का उच्छेद तथा असत्का उत्पाद करती हैं [अर्थात् विद्यमान
पर्यायके नाशमें और अविद्यमान पर्यायके उत्पादमें निमित्त बनती हैं]।। ५५।।
गाथा ५६
अन्वयार्थः– [उदयेन] उदयसे युक्त, [उपशमेन] उपशमसे युक्त, [क्षयेण] क्षयसे युक्त,
[द्वाभ्यां मिश्रिताभ्यां] क्षयोपशमसे युक्त [च] और [परिणामेन युक्ताः] परिणामसे युक्त–[ते] ऐसे
[जीवगुणाः] [पाँच] जीवगुण [–जीवके भाव] हैं; [च] और [बहुषु अर्थेषु विस्तीर्णाः] उन्हें
अनेक प्रकारोंमें विस्तृत किया जाता है।
--------------------------------------------------------------------------
परिणाम, उदय, क्षयोपशम, उपशम, क्षये संयुक्त जे,
ते पांच जीवगुण जाणवा; बहु भेदमां विस्तीर्ण छे। ५६।

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९८
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
जीवस्य भावोदयवर्णनमेतत्।
कर्मणां फलदानसमर्थतयोद्भूतिरुदयः, अनुद्भूतिरुपशमः, उद्भूत्यनुद्भूती क्षयोपशमः,
अत्यंतविश्लेषः क्षयः, द्रव्यात्मलाभहेतुकः परिणामः। तत्रोदयेन युक्त औदयिकः, उपशमेन युक्त
औपशमिकः, क्षयोपशमेन युक्तः क्षायोपशमिकः, क्षयेण युक्तः क्षायिकः, परिणामेन युक्तः पारिणामिकः।
त एते पञ्च जीवगुणाः। तत्रोपाधिचतुर्विधत्वनिबंधनाश्चत्वारः, स्वभावनिबंधन एकः। एते
चोपाधिभेदात्स्वरूपभेदाच्च भिद्यमाना बहुष्वर्थेषु विस्तार्यंत इति।। ५६।।
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– जीवको भावोंके उदयका [–पाँच भावोंकी प्रगटताका] यह वर्णन है।

कर्मोका
फलदानसमर्थरूपसे उद्भव सो ‘उदय’ है, अनुद्भव सो ‘उपशम’ है, उद्भव तथा
अनुद्भव सो ‘क्षयोपशम’ है, अत्यन्त विश्लेष सो ‘क्षय’ है, द्रव्यका आत्मलाभ [अस्तित्व] जिसका
हेतु है वह ‘परिणाम’ है। वहाँ, उदयसे युक्त वह ‘औदयिक’ है, उपशमसे युक्त वह ‘औपशमिक’
है, क्षयोपशमसे युक्त वह ‘क्षायोपशमिक’ है,
क्षयसे युक्त वह ‘क्षायिक’ है, परिणामसे युक्त वह
‘पारिणामिक’ है।– ऐसे यह पाँच जीवगुण हैं। उनमें [–इन पाँच गुणोंमें] उपाधिका चतुर्विधपना
जिनका कारण [निमित्त] है ऐसे चार हैं, स्वभाव जिसका कारण है ऐसा एक है। उपाधिके भेदसे
और स्वरूपके भेदसे भेद करने पर, उन्हें अनेक प्रकारोंमें विस्तृत किया जाता है।। ५६।।
--------------------------------------------------------------------------
१। फलदानसमर्थ = फल देनेमें समर्थ।

२। अत्यन्त विश्लेष = अत्यन्त वियोग; आत्यंतिक निवृत्ति।

३। आत्मलाभ = स्वरूपप्राप्ति; स्वरूपको धारण कर रखना; अपनेको धारण कर रखना; अस्तित्व। [द्रव्य अपनेको
धारण कर रखता है अर्थात् स्वयं बना रहता है इसलिये उसे ‘परिणाम’ है।]

४। क्षयसे युक्त = क्षय सहित; क्षयके साथ सम्बन्धवाला। [व्यवहारसे कर्मोके क्षयकी अपेक्षा जीवके जिस भावमें
आये वह ‘क्षायिक’ भाव है।]

५। परिणामसे युक्त = परिणाममय; परिणामात्मक; परिणामस्वरूप।

६। कर्मोपाधिकी चार प्रकारकी दशा [–उदय, उपशम, क्षयोपशम और क्षय] जिनका निमित्त है ऐसे चार भाव
हैं; जिनमें कर्मोपाधिरूप निमित्त बिलकुल नहीं है, मात्र द्रव्यस्वभाव ही जिसका कारण है ऐसा एक पारिणामिक
भाव हैे।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
९९
कम्मं वेदयमाणो जीवो भावं करेदि जारिसयं।
सो तस्स तेण कत्ता हवदि त्ति य सासणे पढिदं।। ५७।।

कर्म वेदयमानो जीवो भावं करोति याद्रशकम्।
स तस्य तेन कर्ता भवतीति च शासने पठितम्।। ५७।।
जीवस्यौदयिकादिभावानां कर्तृत्वप्रकारोक्तिरियम्।
जीवेन हि द्रव्यकर्म व्यवहारनयेनानुभूयते; तच्चानुभूयमानं जीवभावानां निमित्तमात्रमुपवर्ण्यते।
तस्मिन्निमित्तमात्रभूते जीवेन कर्तृभूतेनात्मनः कर्मभूतो भावः क्रियते। अमुना यो येन प्रकारेण जीवेन
भावः क्रियते, स जीवस्तस्य भावस्य तेन प्रकारेण कर्ता भवतीति।। ५७।।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ५७
अन्वयार्थः– [कर्म वेदयमानः] कर्मको वेदता हआ [जीवः] जीव [याद्रश–कम् भावं] जैसे
भावको [करोति] करता है, [तस्य] उस भावका [तेन] उस प्रकारसे [सः] वह [कर्ता भवति]
कर्ता है–[इति च] ऐसा [शासने पठितम्] शासनमें कहा है।
टीकाः– यह, जीवके औदयिकादि भावोंके कर्तृत्वप्रकारका कथन है।
जीव द्वारा द्रव्यकर्म व्यवहारनयसे अनुभवमें आता है; और वह अनुभवमें आता हुआ
जीवभावोंका निमित्तमात्र कहलाता है। वह [द्रव्यकर्म] निमित्तमात्र होनेसे, जीव द्वारा कर्तारूपसे
अपना कर्मरूप [कार्यरूप] भाव किया जाता है। इसलिये जो भाव जिस प्रकारसे जीव द्वारा किया
जाता है, उस भावका उस प्रकारसे वह जीव कर्ता है।। ५७।।
--------------------------------------------------------------------------
पुद्गलकरमने वेदतां आत्मा करे जे भावने,
ते भावनो ते जीव छे कर्ता–कह्युं जिनशासने। ५७।

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१००
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
कम्मेण विणा उदयं जीवस्स ण विज्जदे उवसमं वा।
खइयं खओवसमियं तम्हा भावं तु कम्मकदं।। ५८।।
कर्मणा विनोदयो जीवस्य न विद्यत उपशमो वा।
क्षायिकः क्षायोपशमिकस्तस्माद्भावस्तु कर्मकृतः।। ५८।।

द्रव्यकर्मणां निमित्तमात्रत्वेनौदयिकादिभावकर्तृत्वमत्रोक्तम्।
न खलु कर्मणा विना जीवस्योदयोपशमौ क्षयक्षायोपशमावपि विद्येते; ततः
क्षायिकक्षायोपशमिकश्चौदयिकौपशमिकश्च भावः कर्मकृतोऽनुमंतव्यः। पारिणामिकस्त्वनादिनिधनो
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ५८
अन्वयार्थः– [कर्मणा विना] कर्म बिना [जीवस्य] जीवको [उदयः] उदय, [उपशमः]
उपशम, [क्षायिकः] क्षायिक [वा] अथवा [क्षायोपशमिकः] क्षायोपशमिक [न विद्यते] नहीं होता,
[तस्मात् तु] इसलिये [भावः] भाव [–चतुर्विध जीवभाव] [कर्मकृतः] कर्मकृत हैं।
टीकाः– यहाँ, [औदयिकादि भावोंके] निमित्तमात्र रूपसे द्रव्यकर्मोको औदयिकादि भावोंका
कर्तापना कहा है।
[एक प्रकारसे व्याख्या करने पर–] कर्मके बिना जीवको उदय–उपशम तथा क्षय–क्षयोपशम
नहीं होते [अर्थात् द्रव्यकर्मके बिना जीवको औदयिकादि चार भाव नहीं होते]; इसलिये क्षायिक,
क्षायोपशमिक, औदयिक या औपशमिक भाव कर्मकृत संमत करना। पारिणामिक भाव तो अनादि–
अनन्त,
निरुपाधि, स्वाभाविक ही हैं। [औदयिक और क्षायोपशमिक भाव कर्मके बिना नहीं होते
इसलिये कर्मकृत कहे जा सकते हैं– यह बात तो स्पष्ट समझमें आ सकती है; क्षायिक और
औपशमिक भावोंके सम्बन्धमें निम्नोक्तानुसार स्पष्टता की जाती हैः] क्षायिक भाव, यद्यपि स्वभावकी
व्यक्तिरूप [–प्रगटतारूप] होनेसे अनन्त [–अन्त रहित] है तथापि, कर्मक्षय द्वारा उत्पन्न होनेके
--------------------------------------------------------------------------
निरुपाधि = उपाधि रहित; औपाधिक न हो ऐसा। [जीवका पारिणामिक भाव सर्व कर्मोपाधिसे निरपेक्ष होनेके
कारण निरुपाधि है।]

पुद्गलकरम विण जीवने उपशम, उदय, क्षायिक अने
क्षायोपशमिक न होय, तेथी कर्मकृत ए भाव छे। ५८।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१०१
निरुपाधिः स्वाभाविक एव। क्षायिकस्तु स्वभावव्यक्तिरूपत्वादनंतोऽपि कर्मणः क्षयेणोत्पद्य–
मानत्वात्सादिरिति कर्मकृत एवोक्तः। औपशमिकस्तु कर्मणामुपशमे समुत्पद्यमानत्वादनुपशमे
समुच्छिद्यमानत्वात् कर्मकृत एवेति।
अथवा उदयोपशमक्षयक्षयोपशमलक्षणाश्चतस्रो द्रव्यकर्मणामेवावस्थाः, न पुनः परिणाम–
लक्षणैकावस्थस्य जीवस्य; तत उदयादिसंजातानामात्मनो भावानां निमित्त–
भावो जदि कम्मकदो अत्ता कम्मस्स होदि किध कत्ता।
ण कुणदि अत्ता किंचि वि मुत्ता अण्णं
सगं भावं।। ५९।।
भावो यदि कर्मकृत आत्मा कर्मणो भवति कथं कर्ता।
न करोत्यात्मा किंचिदपि मुक्त्वान्यत् स्वकं भावम्।। ५९।।
-----------------------------------------------------------------------------

कारण सादि है इसलिये कर्मकृत ही कहा गया है। औपशमिक भाव कर्मके उपशमसे उत्पन्न होनेके
कारण तथा अनुपशमसे नष्ट होनेके कारण कर्मकृत ही है। [इस प्रकार औदयिकादि चार भावोंको
कर्मकृत संमत करना।]
अथवा [दूसरे प्रकारसे व्याख्या करने पर]– उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमस्वरूप चार
[अवस्थाएँ] द्रव्यकर्मकी ही अवस्थाएँ हैं, परिणामस्वरूप एक अवस्थावाले जीवकी नहीं है [अर्थात्
उदय आदि अवस्थाएँ द्रव्यकर्मकी ही हैं, ‘परिणाम’ जिसका स्वरूप है ऐसी एक अवस्थारूपसे
अवस्थित जीवकी–पारिणामिक भावरूप स्थित जीवकी –वे चार अवस्थाएँ नहीं हैं]; इसलिये
उदयादिक द्वारा उत्पन्न होनेवाले आत्माके भावोंको निमित्तमात्रभूत ऐसी उस प्रकारकी अवस्थाओंंरूप
[द्रव्यकर्म] स्वयं परिणमित होनेके कारण द्रव्यकर्म भी व्यवहारनयसे आत्माके भावोंके कतृत्वको प्राप्त
होता है।। ५८।।
गाथा ५९
अन्वयार्थः– [यदि भावः कर्मकृतः] यदि भाव [–जीवभाव] कर्मकृत हों तो [आत्मा कर्मणाः
कर्ता भवति] आत्मा कर्मका [–द्रव्यकर्मका] कर्ता होना चाहिये। [कथं] वह तो कैसे हो सकता
है? [आत्मा] क्योंकि आत्मा तो [स्वकं भावं मुक्त्वा] अपने भावको छोड़कर [अन्यत् किंचित् अपि]
अन्य कुछ भी [न करोति] नहीं करता।
--------------------------------------------------------------------------
जो भावकर्ता कर्म, तो शुं कर्मकर्ता जीव छे?
जीव तो कदी करतो नथी निज भाव विण कंई अन्यने। ५९।

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१०२
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
जीवभावस्य कर्मकर्तृत्वे पूर्वपक्षोऽयम्। यदि खल्वौदयिकादिरूपो जीवस्य भावः कर्मणा क्रियते, तदा
जीवस्तस्य कर्ता न भवति। न च जीवस्याकर्तृत्वामिष्यते। ततः पारिशेष्येण द्रव्यकर्मणः कर्तापद्यते।
तत्तु कथम्? यतो निश्चयनयेनात्मा स्वं भावमुज्झित्वा नान्यत्किमपि करोतीति।। ५९।।
भावो कम्मणिमित्तो कम्मं पुण भावकारणं हवदि।
ण दु तेसिं खलु कत्ता ण विणा भूदा दु
कत्तारं।। ६०।।
भावः कर्मनिमित्तः कर्म पुनर्भावकारणं भवति।
न तु तेषां खलु कर्ता न विना भूतास्तु कर्तारम्।। ६०।।
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– कर्मकी जीवभावका कतृत्व होनेके सम्बन्धमें यह पूर्वपक्ष है।
यदि औदयिकादिरूप जीवका भाव कर्म द्वारा किया जाता हो, तो जीव उसका [–
औदयिकादिरूप जीवभावका] कर्ता नहीं है ऐसा सिद्ध होता है। और जीवका अकतृत्व तो इष्ट [–
मान्य] नहीं है। इसलिये, शेष यह रहा कि जीव द्रव्यकर्मका कर्ता होना चाहिये। लेकिन वह तो
कैसे हो सकता है? क्योंकि निश्चयनयसे आत्मा अपने भावको छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं करता।

[इस प्रकार पूर्वपक्ष उपस्थित किया गया] ।। ५९।।
गाथा ६०
अन्वयार्थः– [भावः कर्मनिमित्तः] जीवभावका कर्म निमित्त है [पुनः] और [कर्म भावकारणं
भवति] कर्मका जीवभाव निमित्त है, [न तु तेषां खलु कर्ता] परन्तु वास्तवमें एक दूसरेके कर्ता नहीं
है; [न तु कर्तारम् विना भूताः] कर्ताके बिना होते हैं ऐसा भी नहीं है।
--------------------------------------------------------------------------
पूर्वपक्ष = चर्चा या निर्णयके लिये किसी शास्त्रीय विषयके सम्बन्धमें उपस्थित किया हुआ पक्ष ता प्रश्न।

रे! भाव कर्मनिमित्त छे ने कर्म भावनिमित्त छे,
अन्योन्य नहि कर्ता खरे; कर्ता विना नहि थाय छे। ६०।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१०३
पूर्वसूत्रोदितपूर्वपक्षसिद्धांतोऽयम्।
व्यवहारेण निमित्तमात्रत्वाज्जीवभावस्य कर्म कर्तृ, कर्मणोऽपि जीवभावः कर्ता; निश्चयेन तु न
जीवभावानां कर्म कर्तृ, न कर्मणो जीवभावः। न च ते कर्तारमंतरेण संभूयेते; यतो निश्चयेन
जीवपरिणामानां जीवः कर्ता, कर्मपरिणामानां कर्म कर्तृ इति।। ६०।।
कुव्वं सगं सहावं अत्ता कत्ता सगस्स भावस्स।
ण हि पोग्गलकम्माणं इति जिणवयणं मुणेयव्वं।। ६१।।
कुर्वन् स्वकं स्वभावं आत्मा कर्ता स्वकस्य भावस्य।
न हि पुद्गलकर्मणामिति जिनवचनं ज्ञातव्यम्।। ६१।।
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– यह, पूर्व सूत्रमें [५९ वीं गाथामें] कहे हुए पूर्वपक्षके समाधानरूप सिद्धान्त है।
व्यवहारसे निमित्तमात्रपनेके कारण जीवभावका कर्म कर्ता है [–औदयिकादि जीवभावका कर्ता
द्रव्यकर्म है], कर्मका भी जीवभाव कर्ता है; निश्चयसे तो जीवभावोंका न तो कर्म कर्ता है और न
कर्मका जीवभाव कर्ता है। वे [जीवभाव और द्रव्यकर्म] कर्ताके बिना होते हैं ऐसा भी नहीं है;
क्योंकि निश्चयसे जीवपरिणामोंका जीव कर्ता है और कर्मपरिणामोंका कर्म [–पुद्गल] कर्ता है।।
६०।।
गाथा ६१
अन्वयार्थः– [स्वकं स्वभावं] अपने स्वभावको [कुर्वन्] करता हुआ [आत्मा] आत्मा [हि]
वास्तवमें [स्वकस्य भावस्य] अपने भावका [कर्ता] कर्ता है, [न पुद्गलकर्मणाम्] पुद्गलकर्मोका
नहीं; [इति] ऐसा [जिनवचनं] जिनवचन [ज्ञातव्यम्] जानना।
--------------------------------------------------------------------------
यद्यपि शुद्धनिश्चयसे केवज्ञानादि शुद्धभाव ‘स्वभाव’ कहलाते हैं तथापि अशुद्धनिश्चयसे रागादिक भी ‘स्वभाव’
कहलाते हैं।
निज भाव करतो आतमा कर्ता खरे निज भावनो,
कर्ता न पुद्गलकर्मनो; –उपदेश जिननो जाणवो। ६१।

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१०४
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
निश्चयेन जीवस्य स्वभावानां कर्तृत्वं पुद्गलकर्मणामकर्तृत्वं चागमेनोपदर्शितमत्र इति।।६१।।
कम्मं पि सगं कुव्वदि सेण सहावेण सम्ममप्पाणं।
जीवो वि य तारिसओ कम्मसहावेण
भावेण।। ६२।।
कर्मापि स्वकं करोति स्वेन स्वभावेन सम्यगात्मानम्।
जीवोऽपि च ताद्रशकः कर्मस्वभावेन भावेन।। ६२।।
अत्र निश्चयनयेनाभिन्नकारकत्वात्कर्मणो जीवस्य च स्वयं स्वरूपकर्तृत्वमुक्तम्।
कर्म खलु कर्मत्वप्रवर्तमानपुद्गलस्कंधरूपेण कर्तृतामनुबिभ्राणं, कर्मत्वगमनशक्तिरूपेण
करणतामात्मसात्कुर्वत्, प्राप्यकर्मत्वपरिणामरूपेण कर्मतां कलयत्, पूर्वभावव्यपायेऽपि ध्रुवत्वा–
लंबनादुपात्तापादानत्वम्, उपजायमानपरिणामरूपकर्मणाश्रीयमाणत्वादुपोढसंप्रदानत्वम्, आधीय–
मानपरिणामाधारत्वाद्गृहीताधिकरणत्वं, स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानं न कारकांतरम–
पेक्षते।
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– निश्चयसे जीवको अपने भावोंका कर्तृत्व है और पुद्गलकर्मोंका अकर्तृत्व है ऐसा यहाँ
आगम द्वारा दर्शाया गया है।। ६१।।
गाथा ६२
अन्वयार्थः– [कर्म अपि] कर्म भी [स्वेन स्वभावेन] अपने स्वभावसे [स्वकं करोति] अपनेको
करते हैं [च] और [ताद्रशकः जीवः अपि] वैसा जीव भी [कर्मस्वभावेन भावेन] कर्मस्वभाव भावसे
[–औदयिकादि भावसे] [सम्यक् आत्मानम्] बराबर अपनेको करता है।
टीकाः– निश्चयनयसे अभिन्न कारक होनेसे कर्म और जीव स्वयं स्वरूपके [–अपने–अपने
रूपके] कर्ता है ऐसा यहाँ कहा है।
कर्म वास्तवमें [१] कर्मरूपसे प्रवर्तमान पुद्गलस्कंधरूपसे कर्तृत्वको धारण करता हुआ, [२]
कर्मपना प्राप्त करनेकी शक्तिरूप करणपनेको अंगीकृत करता हुआ, [३] प्राप्य ऐसे
कर्मत्वपरिणामरूपसे कर्मपनेका अनुभव करता हुआ, [४] पूर्व भावका नाश हो जाने पर भी ध्रुवत्वको
अवलम्बन करनेसे जिसने अपादानपनेको प्राप्त किया है ऐसा, [५] उत्पन्न होने वाले परिणामरूप
कर्म द्वारा समाश्रित होनेसे [अर्थात् उत्पन्न होने वाले परिणामरूप कार्य अपनेको
दिया जानेसे]
--------------------------------------------------------------------------
रे! कर्म आपस्वभावथी निज कर्मपर्ययने करे,
आत्माय कर्मस्वभावरूप निज भावथी निजने करे। ६२।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१०५
एवं जीवोऽपि भावपर्यायेण प्रवर्तमानात्मद्रव्यरूपेण कर्तृतामनुबिभ्राणो, भावपर्यायगमन–
शक्तिरूपेण करणतामात्मसात्कुर्वन्, प्राप्यभावपर्यायरूपेण कर्मतां कलयन्, पूर्वभावपर्याय–व्यपायेऽपि
ध्रुवत्वालंबनादुपात्तापादानत्वम्, उपजायमानभावपर्यायरूपकर्मणाश्रीयमाणत्वादुपोढ–संप्रदानत्व;,

आधीयमानभावपर्यायाधारत्वाद्गृहीताधिकरणत्वः, स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानो न
कारकांतरमपेक्षते। अतः कर्मणः कर्तुर्नास्ति जीवः कर्ता, जीवस्य कर्तुर्नास्ति कर्म कर्तृ निश्चयेनेति।।
६२।।
-----------------------------------------------------------------------------
संप्रदानपनेको प्राप्त और [६] धारण किये हुए परिणामका आधार होनेसे जिसने अधिकरणपनेको
ग्रहण किया है ऐसा – स्वयमेव षट्कारकरूपसे वर्तता हुआ अन्य कारककी अपेक्षा नहीं रखता।
इस प्रकार जीव भी [१] भावपर्यायरूपसे प्रवर्तमान आत्मद्रव्यरूपसे कर्तृत्वको धारण करता
हुआ, [२] भावपर्याय प्राप्त करनेकी शक्तिरूपसे करणपनेको अंगीकृत करता हुआ, [३] प्राप्य ऐसी
भावपर्यायरूपसे कर्मपनेका अनुभव करता हुआ, [४] पूर्व भावपर्यायका नाश होने पर ध्रुवत्वका
अवलम्बन करनेसे जिसने अपादानपनेको प्राप्त किया है ऐसा, [५] उत्पन्न होने वाले भावपर्यायरूप
कर्म द्वारा समाश्रित होनेसे [अर्थात् उत्पन्न होने वाला भावपर्यायरूप कार्य अपनेको दिया जानेसे]
सम्प्रदानपनेको प्राप्त और [६] धारण की हुई भावपर्यायका आधार होनेसे जिसने अधिकरणपनेको
ग्रहण किया है ऐसा – स्वयमेव षट्कारकरूपसे वर्तता हुआ अन्य कारककी अपेक्षा नहीं रखता।
इसलिये निश्चयसे कर्मरूप कर्ताको जीव कर्ता नहीं है और जीवरूप कर्ताको कर्म कर्ता नहीं
है। [जहाँ कर्म कर्ता है वहाँ जीव कर्ता नहीं है और जहाँ जीव कर्ता है वहाँ कर्म कर्ता नहीं है।]
भावार्थः– [१] पुद्गल स्वतंत्ररूपसे द्रव्यकर्मको करता होनेसे पुद्गल स्वयं ही कर्ता है; [२]
स्वयं द्रव्यकर्मरूपसे परिणमित होनेकी शक्तिवाला होनेसे पुद्गल स्वयं ही करण है; [३] द्रव्यकर्मको
प्राप्त करता – पहुँचता होनेसे द्रव्यकर्म कर्म है, अथवा द्रव्यकर्मसे स्वयं अभिन्न होनेसे पुद्गल स्वयं
ही कर्म [–कार्य] है; [४] अपनेमेसे पूर्व परिणामका व्यय करके द्रव्यकर्मरूप परिणाम करता होनेसे
और पुद्गलद्रव्यरूपसे ध्रुव रहता होनेसे पुद्गल स्वयं ही अपादान है; [५] अपनेको द्रव्यकर्मरूप
परिणाम देता होनेसे पुद्गल स्वयं ही सम्प्रदान है; [६] अपनेमें अर्थात् अपने आधारसे द्रव्यकर्म
करता होनेसे पुद्गल स्वयं ही अधिकरण है।

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१०६
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
कम्मं कम्मं कुव्वदि जदि सो अप्पा करेदि अप्पाणं।
किध तस्स फलं भुजदि अप्पा कम्मं च देदि
फलं।। ६३।।
कर्म कर्म करोति यदि स आत्मा करोत्यात्मानम्।
कंथ तस्य फलं भुड्क्ते आत्मा कर्म च ददाति फलम्।। ६३।।
-----------------------------------------------------------------------------
इसी प्रकार [१] जीव स्वतंत्ररूपसे जीवभावको करता होनेसे जीव स्वयं ही कर्ता है; [२]
स्वयं जीवभावरूपसे परिणमित होनकी शक्तिवाला होनेसे जीव स्वयं ही करण है; [३] जीवभावको
प्राप्त करता– पहुँचता होनेसे जीवभाव कर्म है, अथवा जीवभावसे स्वयं अभिन्न होनेसे जीव स्वयं ही
कर्म है; [४] अपनेमेंसे पूर्व भावका व्यय करके [नवीन] जीवभाव करता होनेसे और जीवद्रव्यरूपसे
ध्रुव रहनेसे जीव स्वयं ही अपादान है; [५] अपनेको जीवभाव देता होनेसे जीव स्वयं ही सम्प्रदान
है; [६] अपनेमें अर्थात् अपने आधारसे जीवभाव करता होनेसे जीव स्वयं ही अधिकरण है।
इस प्रकार, पुद्गलकी कर्मोदयादिरूपसे या कर्मबंधादिरूपसे परिणमित होनेकी क्रियामेंं
वास्तवमें पुद्गल ही स्वयमेव छह कारकरूपसे वर्तता है इसलिये उसे अन्य कारकोकी अपेक्षा नहीं है
तथा जीवकी औदयिकादि भावरूपसे परिणमित होनेकी क्रियामें वास्तवमें जीव स्वयं ही छह
कारकरूपसे वर्तता है इसलिये उसे अन्य कारकोंकी अपेक्षा नहीं है। पुद्गलकी और जीवकी उपरोक्त
क्रियाएँ एक ही कालमें वर्तती है तथापि पौद्गलिक क्रियामें वर्तते हुए पुद्गलके छह कारक
जीवकारकोंसे बिलकुल भिन्न और निरपेक्ष हैं तथा जीवभावरूप क्रियामें वर्तते हुए जीवके छह कारक
पुद्गलकारकोंसे बिलकुल भिन्न और निरपेक्ष हैं। वास्तवमें किसी द्रव्यके कारकोंको किसी अन्य द्रव्यके
कारकोंकी अपेक्षा नहीं होती।। ६२।।
--------------------------------------------------------------------------
जो कर्म कर्म करे अने आत्मा करे बस आत्मने,
क्यम कर्म फळ दे जीवने? क्यम जीव ते फळ भोगवे? ६३।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१०७
कर्मजीवयोरन्योन्याकर्तृत्वेऽन्यदत्तफलान्योपभोगलक्षणदूषणपुरःसरः पूर्वपक्षोऽयम्।।६३।।
अथ सिद्धांतसुत्राणि–
ओगाढगाढणिचिदो पोग्गलकायेहि सव्वदो लोगो।
सुहमेहिं बादरेहिं य णंताणंतेहिं विविधेहिं।। ६४।।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ६३
अन्वयार्थः– [यदि] यदि [कर्म] कर्म [कर्म करोति] कर्मको करे और [सः आत्मा] आत्मा
[आत्मानम् करोति] आत्माको करे तो [कर्म] कर्म [फलम् कथं ददाति] आत्माको फल क्यों देगा
[च] और [आत्मा] आत्मा [तस्य फलं भुड्क्ते] उसका फल क्यों भोगेगा?
टीकाः– यदि कर्म और जीवको अन्योन्य अकर्तापना हो, तो ‘अन्यका दिया हुआ फल अन्य
भोगे’ ऐसा प्रसंग आयेगा; – ऐसा दोष बतलाकर यहाँ पूर्वपक्ष उपस्थित किया गया है।
भावार्थः– शास्त्रोंमें कहा है कि [पौद्गलिक] कर्म जीवको फल देते हैं और जीव [पौद्गलिक]
कर्मका फल भोगता है। अब यदि जीव कर्मको करता ही न हो तो जीवसे नहीं किया गया कर्म
जीवको फल क्यों देगा और जीव अपनेसे नहीं किये गये कर्मके फलकोे क्यों भोगेगा? जीवसे नहीं
किया कर्म जीवको फल दे और जीव उस फलको भोगे यह किसी प्रकार न्याययुक्त नहीं है।
--------------------------------------------------------------------------
श्री प्रवचनसारमें १६८ वीं गाथा इस गाथासे मिलती है।

अवगाढ गाढ भरेल छे सर्वत्र पुद्गलकायथी
आ लोक बादर–सुक्ष्मथी, विधविध अनंतानंतथी। ६४।

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१०८
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
अवगाढगाढनिचितः पुद्गलकायैः सर्वतो लोकः।
सुक्ष्मैर्बादरैश्चानंतानंतैर्विविधैः।। ६४।।
कर्मयोग्यपुद्गला अञ्जनचूर्णपूर्णसमुद्गकन्यायेन सर्वलोकव्यापित्वाद्यत्रात्मा तत्रानानीता
एवावतिष्ठंत इत्यत्रौक्तम्।। ६४।।
अत्ता कुणदि सभावं तत्थ गदा पोग्गला सभावेहिं।
गच्छंति कम्मभावं अण्णोण्णागाहमवगाढा।। ६५।।
आत्मा करोति स्वभावं तत्र गताः पुद्गलाः स्वभावैः।
गच्छन्ति कर्मभावमन्योन्यावगाहावगाढा।। ६५।।
-----------------------------------------------------------------------------

इस प्रकार, ‘कर्म’ कर्मको ही करता है और आत्मा आत्माको ही करता है’ इस बातमें पूर्वोक्त दोष
आनेसे यह बात घटित नहीं होती – इस प्रकार यहाँ पूर्वपक्ष उपस्थित किया गया है।। ६३।।
अब सिद्धान्तसूत्र है [अर्थात् अब ६३वीं गाथामें कहे गये पूर्वपक्षके निराकरणपूर्वक सिद्धान्तका
प्रतिपादन करने वाली गाथाएँ कही जाती है]।
गाथा ६४
अन्वयार्थः– [लोकः] लोक [सर्वतः] सर्वतः [विविधैः] विविध प्रकारके, [अनंतानंतैः]
अनन्तानन्त [सूक्ष्मैः बादरैः च] सूक्ष्म तथा बादर [पुद्गलकायैः] पुद्गलकायों [पुद्गलस्कंधों] द्वारा
[अवगाढगाढनिचितः] [विशिष्ट रीतिसे] अवगाहित होकर गाढ़ भरा हुआ है।
टीकाः– यहाँ ऐसा कहा है कि – कर्मयोग्य पुद्गल [कार्माणवर्गणारूप पुद्गलस्कंध]
अंजनचूर्णसे [अंजनके बारीक चूर्णसे] भरी हुई डिब्बीके न्यायसे समस्त लोकमें व्याप्त है; इसलिये
जहाँ आत्मा है वहाँ, बिना लाये ही [कहींसे लाये बिना ही], वे स्थित हैं।। ६४।।
--------------------------------------------------------------------------
आत्मा करे निज भाव ज्यां, त्यां पुद्गलो निज भावथी
कर्मत्वरूपे परिणमे अन्योन्य–अवगाहित थई। ६५।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१०९
अन्याकृतकर्मसंभूतिप्रकारोक्तिरियम्।
आत्मा हि संसारावस्थायां पारिणामिकचैतन्यस्वभावमपरित्यजन्नेवानादिबंधनबद्धत्वाद–
नादिमोहरागद्वेषस्निग्धैरविशुद्धैरेव भावैर्विवर्तते। स खलु यत्र यदा मोहरूपं रागरूपं द्वेषरूपं वा स्वस्य
भावमारभते, तत्र तदा तमेव निमित्तीकृत्य जीवप्रदेशेषु परस्परावगाहेनानुप्रविष्टा स्वभावैरेव पुद्गलाः
कर्मभावमापद्यंत इति।। ६५।।
जह पुग्गलदव्वाणं बहुप्पयारेहिं खंधणिव्वत्ती।
अकदा परेहिं दिट्ठा तह कम्माणं
वियाणाहि।। ६६।।
यथा पुद्गलदव्याणां बहुप्रकारैः स्कंधनिवृत्तिः।
अकृता परैर्द्रष्टा तथा कर्मणां विजानीहि।। ६६।।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ६५
अन्वयार्थः– [आत्मा] आत्मा [स्वभावं] [मोहरागद्वेषरूप] अपने भावको [करोति] करता है;
[तत्र गताः पुद्गलाः] [तब] वहाँ रहनेवाले पुद्गल [स्वभावैः] अपने भावोंसे
[अन्योन्यावगाहावगाढाः] जीवमें [विशिष्ट प्रकारसे] अन्योन्य–अवगाहरूपसे प्रविष्ट हुए [कर्मभावम्
गच्छन्ति] कर्मभावको प्राप्त होते हैं।
टीकाः– अन्य द्वारा किये गये बिना कर्मकी उत्पत्ति किस प्रकार होती है उसका यह कथन है।
आत्मा वास्तवमें संसार–अवस्थामें पारिणामिक चैतन्यस्वभावको छोड़े बिना ही अनादि बन्धन
द्वारा बद्ध होनेसे अनादि मोहरागद्वेष द्वारा स्निग्ध ऐसे अविशुद्ध भावोंंरूपसे ही विवर्तनको प्राप्त
होता है [– परिणमित होता है]। वह [संसारस्थ आत्मा] वास्तवमें जहाँ और जब मोहरूप,
रागरूप या द्वेषरूप ऐसे अपने भावको करता है। वहाँ और उस समय उसी भावको निमित्त बनाकर
पुद्गल अपने भावोंसे ही जीवके प्रदेशोंमें [विशिष्टतापूर्वक] परस्पर अवगाहरूपसे प्रविष्ट हुए
कर्मभावको प्राप्त होते हैं।
भावार्थः– आत्मा जिस क्षेत्रमें और जिस कालमें अशुद्ध भावरूप परिणमित होता है, उसी क्षेत्रमें
स्थित कार्माणवर्गणारूप पुद्गलस्कंध उसी कालमें स्वयं अपने भावोंसे ही जीवके प्रदेशोंमें विशेष
प्रकारसे परस्पर– अवगाहरूपसे प्रविष्ट हुए कर्मपनेको प्राप्त होते हैं।
--------------------------------------------------------------------------
स्निग्ध=चीकने; चीकनाईवाले। [मोहरागद्वेष कर्मबंधमें निमितभूत होनेके कारण उन्हें स्निग्धताकी उपमा दी
जाती है। इसलिये यहाँ अविशुद्ध भावोंको ‘मोहरागद्वेष द्वारा स्निग्ध’ कहा है।]
ज्यम स्कंधरचना बहुविधा देखाय छे पुद्गल तणी
परथी अकृत, ते रीत जाणो विविधता कर्मो तणी। ६६।

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११०
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
अनन्यकृतत्वं कर्मणां वैचिक्र्यस्यात्रोक्तम्।
यथा हि स्वयोग्यचंद्रार्कप्रभोपलंभे। संध्याभ्रेंद्रचापपरिवेषप्रभृतिभिर्बहुभिः प्रकारैः पुद्गल–
स्कंधविकल्पाः कंर्त्रतरनिरपेक्षा एवोत्पद्यंते, तथा स्वयोग्यजीवपरिणामोपलंभे ज्ञानावरणप्रभृति–
भिर्बहुभिः प्रकारैः कर्माण्यपि कंर्त्रतरनिरपेक्षाण्येवोत्पद्यंते इति।। ६६।।
जीवा पुग्गलकाया अण्णोण्णागाढगहणपडिबद्धा।
काले विजुज्जमाणा सहदुक्खं दिंति भुंजंति।। ६७।।
जीवाः पुद्गलकायाः अन्योन्यावगाढग्रहणप्रतिबद्धाः।
काले वियुज्यमानाः सुखदुःखं ददति भुञ्जन्ति।। ६७।।
-----------------------------------------------------------------------------
इस प्रकार, जीवसे किये गये बिना ही पुद्गल स्वयं कर्मरूपसे परिणमित होते हैं।। ६५।।
गाथा ६६
अन्वयार्थः– [यथाः] जिस प्रकार [पुद्गलद्रव्याणां] पुद्गलद्रव्योंंकी [बहुप्रकारैः] अनेक प्रकारकी
[स्कंधनिर्वृत्तिः] स्कन्धरचना [परैः अकृता] परसे किये गये बिना [द्रष्टा] होती दिखाई देती है,
[तथा] उसी प्रकार [कर्मणां] कर्मोंकी बहुप्रकारता [विजानीहि] परसे अकृत जानो।
टीकाः– कर्मोंकी विचित्रता [बहुप्रकारता] अन्य द्वारा नहीं की जाती ऐसा यहाँ कहा है।
जिस प्रकार अपनेको योग्य चंद्र–सूर्यके प्रकाशकी उपलब्धि होने पर, संध्या–बादल
इन्द्रधनुष–प्रभामण्डळ इत्यादि अनेक प्रकारसे पुद्गलस्कंधभेद अन्य कर्ताकी अपेक्षाके बिना ही उत्पन्न
होते हैं, उसी प्रकार अपनेको योग्य जीव–परिणामकी उपलब्धि होने पर, ज्ञानावरणादि अनेक
प्रकारके कर्म भी अन्य कर्ताकी अपेक्षाके बिना ही उत्पन्न होते हैं।
भावार्थः– कर्मोकी विविध प्रकृति–प्रदेश–स्थिति–अनुभागरूप विचित्रता भी जीवकृत नहीं है,
पुद्गलकृत ही है।। ६६।।
--------------------------------------------------------------------------
जीव–पुद्गलो अन्योन्यमां अवगाह ग्रहीने बद्ध छे;
काळे वियोग लहे तदा सुखदुःख आपे–भोगवे। ६७।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१११
निश्चयेन जीवकर्मणोश्चैककर्तृत्वेऽपि व्यवहारेण कर्मदत्तफलोपलंभो जीवस्य न विरुध्यत
इत्यत्रोक्तम्।
जीवा हि मोहरागद्वेषस्निग्धत्वात्पुद्गलस्कंधाश्च स्वभावस्निग्धत्वाद्बंधावस्थायां परमाणु–
द्वंद्वानीवान्योन्यावगाहग्रहणप्रतिबद्धत्वेनावतिष्ठंते। यदा तु ते परस्परं वियुज्यंते, तदोदित–प्रच्यवमाना
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ६७
अन्वयार्थः– [जीवाः पुद्गलकायाः] जीव और पुद्गलकाय [अन्योन्यावगाढ–ग्रहणप्रतिबद्धाः]
[विशिष्ट प्रकारसे] अन्योन्य–अवगाहके ग्रहण द्वारा [परस्पर] बद्ध हैं; [काले वियुज्यमानाः] कालमें
पृथक होने पर [सुखदुःखं ददति भुञ्जन्ति] सुखदुःख देते हैं और भोगते हैं [अर्थात् पुद्गलकाय
सुखदुःख देते हैं और जीव भोगते हैं]।
टीकाः– निश्चयसे जीव और कर्मको एकका [निज–निज रूपका ही] कर्तृत्व होने पर भी,
व्यवहारसे जीवको कर्मे द्वारा दिये गये फलका उपभोग विरोधको प्राप्त नहीं होता [अर्थात् ‘कर्म
जीवकोे फल देता है और जीव उसे भोगता है’ यह बात भी व्यवहारसे घटित होती है] ऐसा यहाँ
कहा है।
जीव मोहरागद्वेष द्वारा स्निग्ध होनेके कारण तथा पुद्गलस्कंध स्वभावसे स्निग्ध होनेके कारण,
[वे] बन्ध–अवस्थामें– परमाणुद्वंद्वोंकी भाँति–[विशिष्ट प्रकारसे] अन्योन्य–अवगाहके ग्रहण द्वारा
बद्धरूपसे रहते हैं। जब वे परस्पर पृथक होते हैं तब [पुद्गलस्कन्ध निम्नानुसार फल देते हैं और
जीव उसे भोगते हैं]– उदय पाकर खिर जानेवाले पुद्गलकाय सुखदुःखरूप आत्मपरिणामोंके
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परमाणुद्वंद्व= दो परमाणुओंका जोड़ा; दो परमाणुओंसे निर्मित स्कंध; द्वि–अणुक स्कंध।