Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 5-13.

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१२
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
द्वयणुकपुद्गलस्कन्धानामपि तथाविधत्वम्। अणवश्च महान्तश्च व्यक्तिशक्तिरूपाभ्यामिति परमाणु–
नामेकप्रदेशात्मकत्वेऽपि तत्सिद्धिः। व्यक्तयपेक्षया शक्तयपेक्षया च प्रदेश प्रचयात्मकस्य
महत्त्वस्याभावात्कालाणूनामस्तित्वनियतत्वेऽप्यकायत्वमनेनैव साधितम्। अत एव तेषामस्तिकाय–
प्रकरणे सतामप्यनुपादानमिति।। ४।।
-----------------------------------------------------------------------------

उनके कायपना भी है क्योंकि वे अणुमहान हैं। यहाँ अणु अर्थात् प्रदेश–मूर्त और अमूर्त
निर्विभाग [छोटेसे छोटे] अंश; ‘उनके द्वारा [–बहु प्रदेशों द्वारा] महान हो’ वह अणुमहान; अर्थात्
प्रदेशप्रचयात्मक [–प्रदेशोंके समूहमय] हो वह अणुमहान है। इसप्रकार उन्हें [उपर्युक्त पाँच
द्रव्योंको] कायत्व सिद्ध हुआ। [उपर जो अणुमहानकी व्युत्पत्ति की उसमें अणुओंके अर्थात् प्रदेशोंके
लिये बहुवचनका उपयोग किया है और संस्कृत भाषाके नियमानुसार बहुवचनमें द्विवचनका समावेश
नहीं होता इसलिये अब व्युत्पत्तिमें किंचित् भाषाका परिवर्तन करके द्वि–अणुक स्कंधोंको भी अणुमहान
बतलाकर उनका कायत्व सिद्ध किया जाता हैः] ‘दो अणुओं [–दो प्रदेशों] द्वारा महान हो’ वह
अणुमहान– ऐसी व्युत्पत्तिसे द्वि–अणुक पुद्गलस्कंधोंको भी [अणुमहानपना होनेसे] कायत्व है।
[अब, परमाणुओंको अणुमहानपना किसप्रकार है वह बतलाकर परमाणुओंको भी कायत्व सिद्ध किया
जाता है;] व्यक्ति और शक्तिरूपसे ‘अणु तथा महान’ होनेसे [अर्थात् परमाणु व्यक्तिरूपसे एक प्रदेशी
तथा शक्तिरूपसे अनेक प्रदेशी होनेके कारण] परमाणुओंको भी , उनके एक प्रदेशात्मकपना होने
पर भी [अणुमहानपना सिद्ध होनेसे] कायत्व सिद्ध होता है। कालाणुओंको व्यक्ति–अपेक्षासे तथा
शक्ति–अपेक्षासे प्रदेशप्रचयात्मक महानपनेका अभाव होनेसे, यद्यपि वे अस्तित्वमें नियत है तथापि,
उनके अकायत्व है ––ऐसा इसीसे [–इस कथनसे ही] सिद्ध हुआ। इसलिये, यद्यपि वे सत्
[विद्यमान] हैं तथापि, उन्हें अस्तिकायके प्रकरणमें नहीं लिया है।
भावार्थः– पाँच अस्तिकायोंके नाम जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश हैं। वे नाम उनके
अर्थानुसार हैं ।

ये पाँचों द्रव्य पर्यायार्थिक नयसे अपनेसे कथंचित भिन्न ऐसे अस्तित्वमें विद्यमान हैं और
द्रव्यार्थिक नयसे अस्तित्वसे अनन्य हैं।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१३
जेसिं अत्थि सहाओ गुणेहिं सह पज्जएहिं विविहेहिं।
ते होंति अत्थिकाया णिप्पिण्णं जेहिं तइल्लुक्कं।। ५।।
येषामस्ति स्वभावः गुणैः सह णर्ययैर्विविधैः।
ते भवन्त्यस्तिकायाः निष्पन्नं यैस्त्रैलोक्यम्।। ५।।
-----------------------------------------------------------------------------
पुनश्च, यह पाँचों द्रव्य कायत्ववाले हैं कारण क्योंकि वे अणुमहान है। वे अणुमहान
किसप्रकार हैं सो बतलाते हैंः––‘अणुमहान्तः’ की व्युत्पत्ति तीन प्रकारसे हैः [१] अणुभिः महान्तः
अणुमहान्तः अर्थात जो बहु प्रदेशों द्वारा [– दो से अधिक प्रदेशों द्वारा] बडे़ हों वे अणुमहान हैं।
इस व्युत्पत्तिके अनुसार जीव, धर्म और अधर्म असंख्यप्रदेशी होनेसे अणुमहान हैं; आकाश अनंतप्रदेशी
होनेसे अणुमहान है; और त्रि–अणुक स्कंधसे लेकर अनन्ताणुक स्कंध तकके सर्व स्कन्ध बहुप्रदेशी
होनेसे अणुमहान है। [२] अणुभ्याम् महान्तः अणुमहान्तः अर्थात जो दो प्रदेशों द्वारा बडे़ हों वे
अणुमहान हैं। इस व्युत्पत्तिके अनुसार द्वि–अणुक स्कंध अणुमहान हैं। [३] अणवश्च महान्तश्च
अणुमहान्तः अर्थात् जो अणुरूप [–एक प्रदेशी] भी हों और महान [अनेक प्रदेशी] भी हों वे
अणुमहान हैं। इस व्युत्पत्तिके अनुसार परमाणु अणुमहान है, क्योंकि व्यक्ति–अपेक्षासे वे एकप्रदेशी हैं
और शक्ति–अपेक्षासे अनेकप्रदेशी भी [उपचारसे] हैं। इसप्रकार उपर्युक्त पाँचों द्रव्य अणुमहान
होनेसे कायत्ववाले हैं ऐसा सिद्ध हुआ।

कालाणुको अस्तित्व है किन्तु किसी प्रकार भी कायत्व नहीं है, इसलिये वह द्रव्य है किन्तु
अस्तिकाय नहीं है।। ४।।
गाथा ५
अन्वयार्थः– [येषाम्] जिन्हें [विविधैः] विविध [गुणैः] गुणों और [पर्ययैः] पर्यायोंके [–
प्रवाहक्रमनके तथा विस्तारक्रमके अंशोंके] [सह] साथ [स्वभावः] अपनत्व [अस्ति] है [ते] वे
[अस्तिकायाः भवन्ति] अस्तिकाय है [यैः] कि जिनसे [त्रैलोक्यम्] तीन लोक [निष्पन्नम्] निष्पन्न
है।
--------------------------------------------------------------------------
पर्यायें = [प्रवाहक्रमके तथा विस्तारक्रमके] निर्विभाग अंश। [प्रवाहक्रमके अंश तो प्रत्येक द्रव्यके होते हैं,
किन्तु विस्तारक्रमके अंश अस्तिकायके ही होते हैं।]
विधविध गुणो ने पर्ययो सह जे अन्नयपणुं धरे
ते अस्तिकायो जाणवा, त्रैलोक्यरचना जे वडे। ५।

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१४
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
अत्र पञ्चास्तिकायानामस्तित्वसंभवप्रकारः कायत्वसंभवप्रकारश्चोक्तः।
अस्ति ह्यस्तिकायानां गुणैः पर्यायैश्च विविधैः सह स्वभावो आत्मभावोऽ नन्यत्वम्। वस्तुनो
विशेषा हि व्यतिरेकिणः पर्याया गुणास्तु त एवान्वयिनः। तत ऐकेन पर्यायेण
प्रलीयमानस्यान्येनोपजायमानस्यान्वयिना गुणेन ध्रौव्यं बिभ्राणस्यैकस्याऽपि वस्तुनः
समुच्छेदोत्पादध्रौव्यलक्षणमस्तित्वमुपपद्यत एव। गुणपर्यायैः सह सर्वथान्यत्वे त्वन्यो विनश्यत्यन्यः
प्रादुर्भवत्यन्यो ध्रवुत्वमालम्बत इति सर्वं विप्लवते। ततः साध्वस्तित्वसंभव–प्रकारकथनम्।
कायत्वसंभवप्रकारस्त्वयमुपदिश्यते। अवयविनो हि जीवपुद्गलधर्माधर्माकाश–पदार्थास्तेषामवयवा अपि
प्रदेशाख्याः परस्परव्यतिरेकित्वात्पर्यायाः उच्यन्ते। तेषां तैः सहानन्यत्वे कायत्वसिद्धिरूपपत्तिमती।
निरवयवस्यापि परमाणोः सावयवत्वशक्तिसद्भावात् कायत्वसिद्धिरनपवादा। न चैतदाङ्कयम्
-----------------------------------------------------------------------------
टीकाः– यहाँ, पाँच अस्तिकायोंको अस्तित्व किस प्रकार हैे और कायत्व किस प्रकार है वह
कहा है।
वास्तवमें अस्तिकायोंको विविध गुणों और पर्यायोंके साथ स्वपना–अपनापन–अनन्यपना है।
वस्तुके व्यतिरेकी विशेष वे पर्यायें हैं और अन्वयी विशेषो वे गुण हैं। इसलिये एक पर्यायसे
प्रलयको प्राप्त होनेवाली, अन्य पर्यायसे उत्पन्न होनेवाली और अन्वयी गुणसे ध्रुव रहनेवाली एक ही
वस्तुको
व्यय–उत्पाद–धौव्यलक्षण अस्तित्व घटित होता ही है। और यदि गुणों तथा पर्यायोंके साथ
[वस्तुको] सर्वथा अन्यत्व हो तब तो अन्य कोई विनाशको प्राप्त होगा, अन्य कोई प्रादुर्भावको
[उत्पादको] प्राप्त होगा और अन्य कोई ध्रुव रहेगा – इसप्रकार सब
विप्लव प्राप्त हो जायेगा।
इसलिये [पाँच अस्तिकायोंको] अस्तित्व किस प्रकार है तत्सम्बन्धी यह [उपर्युक्त] कथन सत्य–
योग्य–न्याययुक्त हैे।
--------------------------------------------------------------------------
१। व्यतिरेक=भेद; एकका दुसरेरूप नहीं होना; ‘यह वह नहीं है’ ऐसे ज्ञानके निमित्तभूत भिन्नरूपता। [एक पर्याय
दूसरी पयार्यरूप न होनेसे पर्यायोंमें परस्पर व्यतिरेक है; इसलिये पर्यायें द्रव्यके व्यतिरेकी [व्यतिरेकवाले]
विशेष हैं।]
२। अन्वय=एकरूपता; सद्रशता; ‘यह वही है’ ऐसे ज्ञानके कारणभूत एकरूपता। [गुणोंमें सदैव सद्रशता रहती
होनेसे उनमें सदैव अन्वय है, इसलिये गुण द्रव्यके अन्वयी विशेष [अन्वयवाले भेद] हैं।
३। अस्तित्वका लक्षण अथवा स्वरूप व्यय–उत्पाद–ध्रौव्य है।
४। विप्लव=अंधाधू्रन्धी; उथलपुथल; गड़़बड़़ी; विरोध।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१५
न चैतदाङ्कयम् पुद्गलादन्येषाममूर्तर्र्त्वादविभाज्यानां सावयवत्वकल्पनमन्याय्यम्। द्रश्यत
एवाविभाज्येऽपि विहाय–सीदं घटाकाशमिदमघटाकाशमिति विभागकल्पनम्। यदि तत्र विभागो न
कल्पेत तदा यदेव घटाकाशं तदेवाघटाकाशं स्यात्। न च तदिष्टम्। ततः कालाणुभ्योऽन्यत्र सर्वेषां
कायत्वाख्यं सावयवत्वमवसेयम्। त्रैलोक्यरूपेण निष्पन्नत्वमपि तेषामस्तिकायत्वसाधनपरमुपन्यस्तम्।
तथा च–त्रयाणामूर्ध्वाऽधोमध्यलोकानामुत्पादव्ययध्रौव्यवन्तस्तद्विशेषात्मका भावा भवन्तस्तेषां मूल–
-----------------------------------------------------------------------------

अब, [उन्हें] कायत्व किस प्रकार है उसका उपदेश किया जाता हैः– जीव, पुद्गल, धर्म,
अधर्म, और आकाश यह पदार्थ अवयवी हैं। प्रदेश नामके उनके जो अवयव हैं वे भी परस्पर
व्यतिरेकवाले होनेसे पर्यायें कहलाती है। उनके साथ उन [पाँच] पदार्थोंको अनन्यपना होनेसे
कायत्वसिद्धि घटित होती है। परमाणु [व्यक्ति–अपेक्षासे] निरवयव होनेपर भी उनको सावयवपनेकी
शक्तिका सद्भाव होनेसे कायत्वसिद्धि निरपवाद है। वहाँ ऐसी आशंका करना योग्य नहीं है कि
पुद्गलके अतिरिक्त अन्य पदार्थ अमूर्तपनेके कारण अविभाज्य होनेसे उनके सावयवपनेकी कल्पना
न्याय विरुद्ध [अनुचित] है। आकाश अविभाज्य होनेपर भी उसमें ‘यह घटाकाश है, यह अघटाकाश
[ पटाकाश] है’ ऐसी विभागकल्पना द्रष्टिगोचर होती ही है। यदि वहाँ [कथंचित्] विभागकी
कल्पना न की जाये तो जो घटाकाश हैे वही [सर्वथा] अघटाकाश हो जायेगा; और वह तो ईष्ट
[मान्य] नहीं है। इसलिये कालाणुओंके अतिरिक्त अन्य सर्वमें कायत्व नामका सावयवपना निश्चित
करना चाहिये।
--------------------------------------------------------------------------
१। अवयवी=अवयववाला; अंशवाला; अंशी; जिनकेे अवयव [अर्थात्] एकसे अधिक प्रदेश] हों ऐसे।
२। पर्यायका लक्षण परस्पर व्यतिरेक है। वह लक्षण प्रदेशोंमें भी व्याप्त है, क्योंकि एक प्रदेश दूसरे प्रदेशरूप न
होनेसे प्रदेशोंमें परस्पर व्यतिरेक हैे; इसलिये प्रदेश भी पर्याय कहलाती है।
३। निरवयव=अवयव रहित; अंश रहित ; निरंश; एकसे अधिक प्रदेश रहित।
४। निरपवाद=अपवाद रहित। [पाँच अस्तिकायोंको कायपना होनेमें एक भी अपवाद नहीं है, क्योंकि [उपचारसे]
परमाणुको भी शक्ति–अपेक्षासे अवयव–प्रदेश हैं।]
५। अविभाज्य=जिनके विभाग न किये जा सकें ऐसे।

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१६
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
पदार्थानां गुणपर्याययोगपूर्वकमस्तित्वं साधयन्ति। अनुमीयते च धर्माधर्माकाशानां प्रत्येकमूर्ध्वाऽ–
धोमध्यलोकविभागरूपेण परिणमनात्कायत्वाख्यं सावयवत्वम्। झविानामपि
प्रत्येकमूर्ध्वाधोमध्यलोकविभागरूपेण परिणमनाल्लोकपूरणावस्थाव्यवस्थितव्यक्तेस्सदा सन्निहित–
शक्तेस्तदनुमीयत एव। पुद्गलानामप्यूर्ध्वाधोमध्यलोकविभागरूपपरिणतमहास्कन्धत्वप्राप्तिव्यक्ति–
शक्तियोगित्वात्तथाविधा सावयवत्वसिद्धिरस्त्येवेति।। ५।।
-----------------------------------------------------------------------------
उनकी जो तीन लोकरूप निष्पन्नता [–रचना] कही वह भी उनका अस्तिकायपना
[अस्तिपना तथा कायपना] सिद्ध करनेके साधन रूपसे कही है। वह इसप्रकार हैः–
[१] ऊर्ध्व–अधो–मध्य तीन लोकके उत्पाद–व्यय–ध्रौव्यवाले भाव– कि जो तीन लोकके
विशेषस्वरूप हैं वे–भवते हुए [परिणमत होते हुए] अपने मूलपदार्थोंका गुणपर्याययुक्त अस्तित्व सिद्ध
करते हैं। [तीन लोकके भाव सदैव कथंचित् सद्रश रहते हैं और कथंचित् बदलते रहते हैं वे ऐसा
सिद्ध करते है कि तीन लोकके मूल पदार्थ कथंचित् सद्रश रहते हैं और कथंचित् परिवर्तित होते
रहते हैं अर्थात् उन मूल पदार्थोंका उत्पाद–व्यय–धौव्यवाला अथवा गुणपर्यायवाला अस्तित्व है।]
[२] पुनश्च, धर्म, अधर्म और आकाश यह प्रत्येक पदार्थ ऊर्ध्व–अधो–मध्य ऐसे लोकके
[तीन] विभागरूपसे परिणमित होनेसे उनकेे कायत्व नामका सावयवपना है ऐसा अनुमान किया जा
सकता है। प्रत्येक जीवके भी ऊर्ध्व–अधो–मध्य ऐसे तीन लोकके [तीन] विभागरूपसे परिणमित
--------------------------------------------------------------------------

१। यदि लोकके ऊर्ध्व, अधः और मध्य ऐसे तीन भाग हैं तो फिर ‘यह ऊर्ध्वलोकका आकाशभाग है, यह
अधोलोकका आकाशभाग है और यह मध्यलोकका आकाशभाग हैे’ – इसप्रकार आकाशके भी विभाग किये जा
सकते हैं और इसलिये यह सावयव अर्थात् कायत्ववाला है ऐसा सिद्ध होता है। इसीप्रकार धर्म और अधर्म भी
सावयव अर्थात कायत्ववाले हैं।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१७
ते चेव अत्थिकाया तेकालियभावपरिणदा णिच्चा।
गच्छंति दवियभावं परियट्टणलिंगसंजुता।। ६।।
ते चैवास्तिकायाः त्रैकालिकभावपरिणता नित्याः।
गच्छंति द्रव्यभावं परिवर्तनलिङ्गसंयुक्ताः।। ६।।
अत्र पञ्चास्तिकायानां कालस्य च द्रव्यत्वमुक्तम्।
-----------------------------------------------------------------------------

लोकपूरण अवस्थारूप व्यक्तिकी शक्तिका सदैव सद्भाव होनेसे जीवोंको भी कायत्व नामका
सावयवपना है ऐसा अनुमान किया ही जा सकता है। पुद्गलो भी ऊर्ध्व अधो–मध्य ऐसे लोकके
[तीन] विभागरूप परिणत महास्कंधपनेकी प्राप्तिकी व्यक्तिवाले अथवा शक्तिवाले होनेसे उन्हें भी
वैसी [कायत्व नामकी] सावयवपनेकी सिद्धि है ही।। ५।।
गाथा ६
अन्वयार्थः– [त्रैकालिकभावपरिणताः] जो तीन कालके भावोंरूप परिणमित होते हैं तथा
[नित्याः] नित्य हैं [ते च एव अस्तिकायाः] ऐसे वे ही अस्तिकाय, [परिवर्तनलिङ्गसंयुक्ताः]
परिवर्तनलिंग [काल] सहित, [द्रव्यभावं गच्छन्ति] द्रव्यत्वको प्राप्त होते हैं [अर्थात् वे छहों द्रव्य
हैं।]
टीकाः– यहाँ पाँच अस्तिकायोंको तथा कालको द्रव्यपना कहा है।
--------------------------------------------------------------------------
लोकपूरण=लोकव्यापी। [केवलसमुद्द्यात के समय जीवकी त्रिलोकव्यापी दशा होती है। उस समय ‘यह
ऊर्ध्वलोकका जीवभाग है, यह अधोलोकका जीवभाग है और यह मध्यलोकका जीवभाग हैे’ ऐसे विभाग किये
जा सकते है। ऐसी त्रिलोकव्यापी दशा [अवस्था] की शक्ति तो जीवोंमें सदैव है इसलिये जीव सदैव
सावयव अर्थात् कायत्ववाले हैंऐसा सिद्ध होता है।]
ते अस्तिकाय त्रिकालभावे परिणमे छे, नित्य छे;
ए पाँच तेम ज काल वर्तनलिंग सर्वे द्रव्य छे। ६।

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१८
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
अत्र पञ्चास्तिकायानां कालस्य च द्रव्यत्वमुक्तम्।
द्रव्याणि हि सहक्रमभुवां गुणपर्यायाणामनन्यतयाधारभूतानि भवन्ति। ततो
वृत्तवर्तमानवर्तिष्यमाणानां भावानां पर्यायाणा स्वरूपेण परिणतत्वादस्तिकायानां परिवर्तनलिङ्गस्य
कालस्य चास्ति द्रव्यत्वम्। न च तेषां भूतभवद्भविष्यद्भावात्मना परिणममानानामनित्यत्वम्, यतस्ते
भूतभवद्भविष्यद्भावावस्थास्वपि प्रतिनियतस्वरूपापरित्यागा–न्नित्या एव। अत्र कालः
पुद्गलादिपरिवर्तनहेतुत्वात्पुद्गलादिपरिवर्तनगम्यमानपर्यायत्वा–च्चास्तिकायेष्वन्तर्भावार्थ स परिवर्तन–
लिङ्ग इत्युक्त इति।। ६।।
-----------------------------------------------------------------------------
द्रव्य वास्तवमें सहभावी गुणोंको तथा क्रमभावी पर्यायोंको अनन्यरूपसे आधारभूत है। इसलिये
जो वर्त चूके हैं, वर्त रहे हैं और भविष्यमें वर्तेंगे उन भावों–पर्यायोंरूप परिणमित होनेके कारण
[पाँच] अस्तिकाय और
परिवर्तनलिंग काल [वे छहों] द्रव्य हैं। भूत, वर्तमान और भावी भावस्वरूप
परिणमित होनेसे वे कहीं अनित्य नहीं है, क्योंकि भूत, वर्तमान और भावी भावरूप अवस्थाओंमें भी
प्रतिनियत [–अपने–अपने निश्वित] स्वरूपको नहीं छोड़ते इसलिये वे नित्य ही है।
यहाँ काल पुद्गलादिके परिवर्तनका हेतु होनेसे तथा पुद्गलादिके परिवर्तन द्वारा उसकी
पर्याय गम्य [ज्ञात] होती हैं इसलिये उसका अस्तिकायोंमें समावेश करनेके हेतु उसे
परिवर्तनलिंग’ कहा है। [पुद्गलादि अस्तिकायोंका वर्णन करते हुए उनके परिवर्तन (परिणमन)
का वर्णन करना चाहिये। और उनके परिवर्तनका वर्णन करते हुए उन परिवर्तनमें निमित्तभूत
पदार्थका [कालका] अथवा उस परिवर्तन द्वारा जिनकी पर्यायें व्यक्त होती हैं उस पदार्थका
[कालका] वर्णन करना अनुचित नहीं कहा जा सकता। इसप्रकार पंचास्तिकायके वर्णनमें कालके
वर्णनका समावेश करना अनुचित नहीं है ऐसा दर्शानेके हेतु इस गाथासूत्रमें कालके लिये
‘परिवर्तनलिंग’ शब्दका उपयोग किया है।]।। ६।।
--------------------------------------------------------------------------
१। अनन्यरूप=अभिन्नरूप [जिसप्रकार अग्नि आधार है और उष्णता आधेय है तथापि वे अभिन्न हैं, उसीप्रकार द्रव्य
आधार है और गुण–पर्याय आधेय हैं तथापि वे अभिन्न हैं।]
२। परिवर्तनलिंग=पुद्गलादिका परिवर्तन जिसका लिंग है; वह पुद्गलादिके परिणमन द्वारा जो ज्ञान होता है
वह। [लिंग=चिह्न; सूचक; गमक; गम्य करानेवाला; बतलानेवाला; पहिचान करानेवाला।]
३। [१] यदि पुद्गलादिका परिवर्तन होता है तो उसका कोई निमित्त होना चाहिये–इसप्रकार परिवर्तनरूपी चिह्न
द्वारा कालका अनुमान होता है [जिसप्रकार धुआँरूपी चिह्न द्वारा अग्निका अनुमान होता है उसीप्रकार],
इसलिये काल ‘परिवर्तनलिंग’ है। [२] और पुद्गलादिके परिवर्तन द्वारा कालकी पर्यायें [–‘कर्म समय’,
‘अधिक समय ऐसी कालकी अवस्थाएँ] गम्य होती हैं इसलिये भी काल ‘परिवर्तनलिंग’ है।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
१९
अण्णोण्णं पविसंता दिंता ओगासमण्णमण्णस्स।
म्ेलंता वि य णिच्चं सगं सभावं ण विजहंति।। ७।।
अनयोऽन्यं प्रविशन्ति ददन्त्यवकाशमन्योऽन्यस्य।
मिलन्त्यपि च नित्यं स्वकं स्वभावं न विजहन्ति।। ७।।
अत्र षण्णां द्रव्याणां परस्परमत्यन्तसंकरेऽपि प्रतिनियतस्वरूपादप्रच्यवनमुक्तम्।
अत एव तेषां परिणामवत्त्वेऽपि प्राग्नित्यत्वमुक्तम्। अत एव च न तेषामेकत्वापत्तिर्न च
जीवकर्मणोर्व्यवहारनयादेशादेकत्वेऽपि परस्परस्वरूपोपादानमिति।। ७।।
----------------------------------------------------------------------------
गाथा ७
अन्वयार्थઃ– [अन्योन्यं प्रविशन्ति] वे एक–दूसरेमें प्रवेश करते हैं, [अन्योन्यस्य] अन्योन्य
[अवकाशम् ददन्ति] अवकाश देते हैं, [मिलन्ति] परस्पर [क्षीर–नीरवत्] मिल जाते हैं। [अपि
च] तथापि [नित्यं] सदा [स्वकं स्वभावं] अपने–अपने स्वभावको [न विजहन्ति] नहीं छोड़ते।
टीकाः– यहाँ छह द्रव्योंको परस्पर अत्यन्त संकर होने पर भी वे प्रतिनियत [–अपने–अपने
निश्वित] स्वरूपसे च्युत नहीं होते ऐसा कहा है। इसलिये [–अपने–अपने स्वभावसे च्युत नहीं होते
इसलिये], परिणामवाले होने पर भी वे नित्य हैं–– ऐसा पहले [छठवी गाथामें] कहा था; और
इसलिये वे एकत्वको प्राप्त नहीं होते; और यद्यपि जीव तथा कर्मको व्यवहारनयके कथनसे
एकत्व [कहा जाता] है तथापि वे [जीव तथा कर्म] एक–दूसरेके स्वरूपको ग्रहण नहीं करते।।
७।।

--------------------------------------------------------------------------

संकर=मिलन; मिलाप; [अन्योन्य–अवगाहरूप] मिश्रितपना।
अन्योन्य थाय प्रवेश, ए अन्योन्य दे अवकाशने,
अन्योन्य मिलन, छतां कदी छोडे़ न आपस्वभावने। ७।

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२०
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरुवा अणंतपज्जाया।
मंगुप्पादधुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि
ऐक्का।। ८।।
सत्ता सर्वपदार्था सविश्वरूपा अनन्तपर्याया।
भङ्गोत्पादध्रौव्यात्मिका सप्रतिपक्षा मवत्येका।। ८।।
अत्रास्तित्वस्वरूपमुक्तम्।
अस्तित्वं हि सत्ता नाम सतो भावः सत्त्वम्। न सर्वथा नित्यतया सर्वथा क्षणिकतया वा
विद्यमानमात्रं वस्तु। सर्वथा नित्यस्य वस्तुनस्तत्त्वतः क्रमभुवां भावानामभावात्कुतो विकारवत्त्वम्।
सर्वथा क्षणिकस्य च तत्त्वतः प्रत्यभिज्ञानाभावात् कुत एकसंतानत्वम्। ततः प्रत्यभिज्ञानहेतुभूतेन
केनचित्स्वरूपेण ध्रौव्यमालम्ब्यमानं काभ्यांचित्क्रमप्रवृत्ताभ्यां स्वरूपाभ्यां प्रलीयमानमुपजायमानं
चैककालमेव परमार्थतस्त्रितयीमवस्थां बिभ्राणं वस्तु सदवबोध्यम्। अत एव
सत्ताप्युत्पादव्ययध्रौव्यात्मिकाऽवबोद्धव्या, भावभाववतोः कथंचिदेकस्वरूपत्वात्। सा च त्रिलक्षणस्य
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ८
अन्वयार्थः– [सत्ता] सत्ता [भङ्गोत्पादध्रौव्यात्मिका] उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक, [एका] एक,
[सर्वपदार्था] सर्वपदार्थस्थित, [सविश्वरूपा] सविश्वरूप, [अनन्तपर्याया] अनन्तपर्यायमय और
[सप्रतिपक्षा] सप्रतिपक्ष [भवति] है।
टीकाः– यहाँ अस्तित्वका स्वरूप कहा है।
अस्तित्व अर्थात सत्ता नामक सत्का भाव अर्थात सत्त्व।
विद्यमानमात्र वस्तु न तो सर्वथा नित्यरूप होती है और न सर्वथा क्षणिकरूप होती है। सर्वथा
नित्य वस्तुको वास्तवमें क्रमभावी भावोंका अभाव होनेसे विकार [–परिवर्तन, परिणाम] कहाँसे
होगा? और सर्वथा क्षणिक वस्तुमें वास्तवमें
प्रत्यभिज्ञानका अभाव होनेसे एकप्रवाहपना कहाँसे
रहेगा? इसलियेे प्रत्यभिज्ञानके हेतुभूत किसी स्वरूपसे ध्रुव रहती हुई और किन्हीं दो क्रमवर्ती
स्वरूपोंसे नष्ट होती हुई तथा उत्पन्न होती हुई – इसप्रकार परमार्थतः एक ही कालमें तिगुनी [तीन
अंशवाली] अवस्थाको धारण करती हुई वस्तु सत् जानना। इसलिये ‘सत्ता’ भी
--------------------------------------------------------------------------
१। सत्त्व=सत्पनां; अस्तित्वपना; विद्यमानपना; अस्तित्वका भाव; ‘है’ ऐसा भाव।
२। वस्तु सर्वथा क्षणिक हो तो ‘जो पहले देखनेमें [–जाननेमें] आई थी वही यह वस्तु है’ ऐसा ज्ञान नहीं हो
सकता।

सर्वार्थप्राप्त, सविश्वरूप, अनंतपर्ययवंत छे,
सत्ता जनम–लय–ध्रौव्यमय छे, एक छे, सविपक्ष छे। ८।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
२१
समस्तस्यापि वस्तुविस्तारस्य साद्रश्यसूचकत्वादेका। सर्वपदार्थस्थिता च त्रिलक्षणस्य
सदित्यभिधानस्य सदिति प्रत्ययस्य च सर्वपदार्थेषु तन्मूलस्यैवोपलम्भात्। सविश्वरूपा च विश्वस्य
समस्तवस्तुविस्तारस्यापि रूपैस्त्रिलक्षणैः स्वभावैः सह वर्तमानत्वात्। अनन्तपर्याया
चानन्ताभिर्द्रव्यपर्यायव्यक्तिभिस्त्रिलक्षणाभिः परिगम्यमानत्वात् एवंभूतापि सा न खलु निरकुशा किन्तु
सप्रतिपक्षा। प्रतिपक्षो ह्यसत्ता सत्तायाः अत्रिलक्षणत्वं त्रिलक्षणायाः, अनेकत्वमेकस्याः,
एकपदार्थस्थितत्वं सर्वपदार्थस्थितायाः, एकरूपत्वं सविश्वरूपायाः, एकपर्यायत्वमनन्तपर्यायाया
इति।
-----------------------------------------------------------------------------

‘उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक’ [त्रिलक्षणा] जानना; क्योंकि
भाव और भाववानका कथंचित् एक स्वरूप
होता है। और वह [सत्ता] ‘एक’ है, क्योंकि वह त्रिलक्षणवाले समस्त वस्तुविस्तारका साद्रश्य
सूचित करती है। और वह [सत्ता] ‘सर्वपदार्थस्थित’ है; क्योंकि उसके कारण ही [–सत्ताके कारण
ही] सर्व पदार्थोमें त्रिलक्षणकी [–उत्पादव्ययध्रौव्यकी], ‘सत्’ ऐसे कथनकी तथा ‘सत’ ऐसी
प्रतीतिकी उपलब्धि होती है। और वह [सत्ता] ‘सविश्वरूप’ है, क्योंकि वह विश्वके रूपों सहित
अर्थात् समस्त वस्तुविस्तारके त्रिलक्षणवाले स्वभावों सहित वर्तती है। और वह [सत्ता]
‘अनंतपर्यायमय’ है। क्योंकि वह त्रिलक्षणवाली अनन्त द्रव्यपर्यायरूप व्यक्तियोंसे व्याप्त है। [इसप्रकार
सामान्य–विशेषात्मक सत्ताका उसके सामान्य पक्षकी अपेक्षासे अर्थात् महासत्तारूप पक्षकी अपेक्षासे
वर्णन हुआ।]
ऐसी होने पर भी वह वास्तवमें निरंकुश नहीं है किन्तु सप्रतिपक्ष है। [१] सत्ताको असत्ता
प्रतिपक्ष है; [२] त्रिलक्षणाको अत्रिलक्षणपना प्रतिपक्ष है; [३] एकको अनेकपना प्रतिपक्ष है; [४]
सर्वपदार्थस्थितको एकपदार्थस्थितपना प्रतिपक्ष है; [५] सविश्वरूपको एकरूपपना प्रतिपक्ष है;
[६]अनन्तपर्यायमयको एकपर्यायमयपना प्रतिपक्ष है।
--------------------------------------------------------------------------
१। सत्ता भाव है और वस्तु भाववान है।

२। यहाँ ‘सामान्यात्मक’का अर्थ ‘महा’ समझना चाहिये और ‘विशेषात्मक’ का अर्थ ‘अवान्तर’ समझना चाहिये।
सामान्य विशेषके दूसरे अर्थ यहाँ नहीं समझना।

३। निरंकुश=अंकुश रहित; विरुद्ध पक्ष रहित ; निःप्रतिपक्ष। [सामान्यविशेषात्मक सत्ताका ऊपर जो वर्णन किया
है वैसी होने पर भी सर्वथा वैसी नहीं है; कथंचित् [सामान्य–अपेक्षासे] वैसी है। और कथंचित् [विशेष–
अपेक्षासे] विरुद्ध प्रकारकी हैे।]

४। सप्रतिपक्ष=प्रतिपक्ष सहित; विपक्ष सहित; विरुद्ध पक्ष सहित।

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२२
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
द्विविधा हि सत्ता– महासत्ता–वान्तरसत्ता च। तत्र सवपदार्थसार्थव्यापिनी साद्रश्यास्तित्वसूचिका
महासत्ता प्रोक्तैव। अन्या तु प्रतिनियतवस्तुवर्तिनी स्वरूपास्तित्वसूचिकाऽवान्तरसत्ता। तत्र
महासत्ताऽवान्तरसत्तारूपेणाऽ–सत्ताऽवान्तरसत्ता च महासत्तारूपेणाऽसत्तेत्यसत्ता सत्तायाः। येन
स्वरूपेणोत्त्पादस्तत्तथो–त्पादैकलक्षणमेव, येन स्वरूपेणोच्छेदस्तत्तथोच्छेुदैकलक्षणमेव, येन स्वरूपेण
ध्रोव्यं तत्तथा ध्रौव्यैकलक्षणमेव, तत उत्पद्यमानोच्छिद्यमानावतिष्ठमानानां वस्तुनः स्वरूपाणां प्रत्येकं
त्रैलक्षण्याभावादत्रिलक्षणत्वंः त्रिलक्षणायाः। एकस्य वस्तुनः स्वरूपसत्ता नान्यस्य वस्तुनः स्वरूपसत्ता
भवतीत्यनेकत्वमेकस्याः। प्रतिनियतपदार्थस्थिताभिरेव सत्ताभिः पदार्थानां प्रतिनियमो
-----------------------------------------------------------------------------

[उपर्युक्त सप्रतिपक्षपना स्पष्ट समझाया जाता हैः–]

सत्ता द्विविध हैः महासत्ता और अवान्तरसत्ता । उनमें सर्व पदार्थसमूहमें व्याप्त होनेवाली,
साद्रश्य अस्तित्वको सूचित करनेवाली महासत्ता [सामान्यसत्ता] तो कही जा चुकी है। दूसरी,
प्रतिनिश्चित [–एक–एक निश्चित] वस्तुमें रहेनेवाली, स्वरूप–अस्तित्वको सूचित करनेवाली
अवान्तरसत्ता [विशेषसत्ता] है। [१] वहाँ महासत्ता अवान्तरसत्तारूपसे असत्ता हैे और अवान्तरसत्ता
महासत्तारूपसे असत्ता है इसलिये सत्ताको असत्ता है [अर्थात् जो सामान्यविशेषात्मक सत्ता
महासत्तारूप होनेसे ‘सत्ता’ है वही अवान्तरसत्तारूप भी होनेसे ‘असत्ता’ भी है]। [२] जिस
स्वरूपसे उत्पाद है उसका [–उस स्वरूपका] उसप्रकारसे उत्पाद एक ही लक्षण है, जिस
स्वरूपसे व्यय हैे उसका [–उस स्वरूपका] उसप्रकारसे व्यय एक ही लक्षण है और जिस स्वरूपसे
ध्रौव्य है उसका [–उस स्वरूपका] उसप्रकारसे ध्रौव्य एक ही लक्षण है इसलिये वस्तुके उत्पन्न
होेनेवाले, नष्ट होेनेवाले और ध्रुव रहनेतवाले स्वरूपोंमेंसे प्रत्येकको त्रिलक्षणका अभाव होनेसे
त्रिलक्षणा [सत्ता] को अत्रिलक्षणपना है। [अर्थात् जो सामान्यविशेषात्मक सत्ता महासत्तारूप होनेसे
‘त्रिलक्षणा’ है वही यहाँ कही हुई अवान्तरसत्तारूप भी होनेसे ‘अत्रिलक्षणा’ भी है]। [३] एक
वस्तुकी स्वरूपसत्ता अन्य वस्तुकी स्वरूपसत्ता नहीं है इसलिये एक [सत्ता] को अनेकपना है।
[अर्थात् जो सामान्यविशेषात्मक सत्ता महासत्तारूप होनेसे ‘एक’ है वही यहाँ कही हुई
अवान्तरसत्तारूप भी होनेसे ‘अनेक’ भी है]। [४] प्रतिनिश्चित [व्यक्तिगत निश्चित] पदार्थमें स्थित
सत्ताओं द्वारा ही पदार्थोंका प्रतिनिश्चितपना [–भिन्न–भिन्न निश्चित व्यक्तित्व] होता है इसलिये
सर्वपदार्थस्थित [सत्ता] को एकपदार्थस्थितपना है। [अर्थात् जो सामान्यविशेषात्मक सत्ता
महासत्तारूप होनेसे

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
२३
भवतीत्येकपदार्थस्थितत्वं सर्वपदार्थ स्थितायाः। प्रतिनियतैकरूपाभिरेव सत्ताभिः प्रतिनियतैकरूपत्वं
वस्तूनां भवतीत्येकरूपत्वं सविश्वरूपायाः प्रतिपर्यायनियताभिरेव सत्ताभिः
प्रतिनियतैकपर्यायाणामानन्त्यं भवतीत्येकपर्याय–त्वमनन्तपर्यायायाः। इति सर्वमनवद्यं
सामान्यविशेषप्ररूपणप्रवणनयद्वयायत्तत्वात्तद्देशनायाः।। ८।।
-----------------------------------------------------------------------------

‘सर्वपदार्थस्थित’ है वही यहाँ कही हुई अवान्तरसत्तारूप भी होनेसे ‘एकपदार्थस्थित’ भी है।] [५]
प्रतिनिश्चित एक–एक रूपवाली सत्ताओं द्वारा ही वस्तुओंका प्रतिनिश्चित एक एकरूप होता है इसलिये
सविश्वरूप [सत्ता] को एकरूपपना है [अर्थात् जो सामान्यविशेषात्मक सत्ता महासत्तारूप होनेसे
‘सविश्वरूप’ है वही यहाँ कही हुई अवान्तरसत्तारूप भी होनेसे ‘एकरूप’ भी है]। [६] प्रत्येक
पर्यायमें स्थित [व्यक्तिगत भिन्न–भिन्न] सत्ताओं द्वारा ही प्रतिनिश्वित एक–एक पर्यायोंका अनन्तपना
होता है इसलिये अनंतपर्यायमय [सत्ता] को एकपर्यायमयपना है [अर्थात् जो सामान्यविशेषात्मक
सत्ता महासत्तारूप होनेसे ‘अनंतपर्यायमय’ है वही यहाँ कही हुई अवान्तरसत्तारूप भी होनेसे
‘एकपर्यायमय’ भी है]।
इसप्रकार सब निरवद्य है [अर्थात् ऊपर कहा हुआ सर्व स्वरूप निर्दोष है, निर्बाध है, किंचित
विरोधवाला नहीं है] क्योंकि उसका [–सत्ताके स्वरूपका] कथन सामान्य और विशेषके प्ररूपण की
ओर ढलते हुए दो नयोंके आधीन है।

भावार्थः– सामान्यविशेषात्मक सत्ताके दो पक्ष हैंः–– एक पक्ष वह महासत्ता और दूसरा पक्ष
वह अवान्तरसत्ता। [१] महासत्ता अवान्तरसत्तारूपसे असत्ता हैे और अवान्तरसत्ता महासत्तारूपसे
असत्ता हैे; इसलिये यदि महासत्ताको ‘सत्ता’ कहे तो अवान्तरसत्ताको ‘असत्ता’ कहा जायगा।
[२] महासत्ता उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ऐसे तीन लक्षणवाली है इसलिये वह ‘त्रिलक्षणा’ है। वस्तुके
उत्पन्न होनेवाले स्वरूपका उत्पाद ही एक लक्षण है, नष्ट होनेवाले स्वरूपका व्यय ही एक लक्षण है
और ध्रुव रहनेवाले स्वरूपका ध्रौव्य ही एक लक्षण है इसलिये उन तीन स्वरूपोंमेंसे प्रत्येककी
अवान्तरसत्ता एक ही लक्षणवाली होनेसे ‘अत्रिलक्षणा’ है। [३] महासत्ता समस्त पदार्थसमूहमें ‘सत्,
सत्, सत्’ ऐसा समानपना दर्शाती है इसलिये एक हैे। एक वस्तुकी स्वरूपसत्ता अन्य किसी वस्तुकी
स्वरूपसत्ता नहीं है, इसलिये जितनी वस्तुएँ उतनी स्वरूपसत्ताएँ; इसलिये ऐसी स्वरूपसत्ताएँ अथवा
अवान्तरसत्ताएँ ‘अनेक’ हैं।

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२४
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
दवियदि गच्छदि ताइं ताइं सब्भावपञ्जयाइं जं।
दवियं
तं भण्णंते अणण्णभूदं तु सत्तादो।। ९।।
द्रवति गच्छति तांस्तान् सद्भावपर्यायान् यत्।
द्रव्य तत् भणन्ति अनन्यभूतं तु सत्तातः।। ९।।
-----------------------------------------------------------------------------

[४] सर्व पदार्थ सत् है इसलिये महासत्ता ‘सर्व पदार्थोंमें स्थित’ है। व्यक्तिगत पदार्थोंमें स्थित
भिन्न–भिन्न व्यक्तिगत सत्ताओं द्वारा ही पदार्थोंका भिन्न–भिन्न निश्चित व्यक्तित्व रह सकता है, इसलिये
उस–उस पदार्थकी अवान्तरसत्ता उस–उस ‘एक पदार्थमें ही स्थित’ है। [५] महासत्ता समस्त
वस्तुसमूहके रूपों [स्वभावों] सहित है इसलिये वह ‘सविश्वरूप’ [सर्वरूपवाली] है। वस्तुकी
सत्ताका [कथंचित्] एक रूप हो तभी उस वस्तुका निश्चित एक रूप [–निश्चित एक स्वभाव] रह
सकता है, इसलिये प्रत्येक वस्तुकी अवान्तरसत्ता निश्चित ‘एक रूपवाली’ ही है। [६] महासत्ता
सर्व पर्यायोंमें स्थित है इसलिये वह ‘अनन्तपर्यायमय’ है। भिन्न–भिन्न पर्यायोंमें [कथंचित्] भिन्न–भिन्न
सत्ताएँ हों तभी प्रत्येक पर्याय भिन्न–भिन्न रहकर अनन्त पर्यायें सिद्ध होंगी, नहीं तो पर्यायोंका
अनन्तपना ही नहीं रहेगा–एकपना हो जायगा; इसलिये प्रत्येक पर्यायकी अवान्तरसत्ता उस–उस
‘एक पर्यायमय’ ही है।
इस प्रकार सामान्यविशेषात्मक सत्ता, महासत्तारूप तथा अवान्तरसत्तारूप होनेसे, [१] सत्ता
भी है और असत्ता भी है, [२] त्रिलक्षणा भी है और अत्रिलक्षणा भी है, [३] एक भी है और अनेक
भी है, [४] सर्वपदार्थस्थित भी है और एकपदार्थस्थित भी है। [५] सविश्वरूप भी है और एकरूप
भी है, [६] अनंतपर्यायमय भी है और एकपर्यायमय भी है।। ८।।
--------------------------------------------------------------------------
ते ते विविध सद्भावपर्ययने द्रवे–व्यापे–लहे
तेने कहे छे द्रव्य, जे सत्ता थकी नहि अन्य छे। ९।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
२५
अत्र सत्ताद्रव्ययोरर्थान्तरत्वं प्रत्याख्यातम्।

द्रवति गच्छति सामान्यरूपेण स्वरूपेण व्याप्नोति तांस्तान् क्रमभुवः सहभुवश्वसद्भावपर्यायान्
स्वभावविशेषानित्यनुगतार्थया निरुक्तया द्रव्यं व्याख्यातम्। द्रव्यं च लक्ष्य–लक्षणभावादिभ्यः
कथञ्चिद्भेदेऽपि वस्तुतः सत्ताया अपृथग्भूतमेवेति मन्तव्यम्। ततो यत्पूर्वं सत्त्वमसत्त्वं
त्रिलक्षणत्वमत्रिलक्षणत्वमेकत्वमनेकत्वं सर्वपदार्थस्थितत्वमेकपदार्थस्थितत्वं विश्व–
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा ९
अन्वयार्थः– [तान् तान् सद्भावपर्यायान्] उन–उन सद्भावपर्यायोको [यत्] जो [द्रवति]
द्रवित होता है – [गच्छति] प्राप्त होता है, [तत्] उसे [द्रव्यं भणन्ति] [सर्वज्ञ] द्रव्य कहते हैं
– [सत्तातः अनन्यभूतं तु] जो कि सत्तासे अनन्यभूत है।
टीकाः– यहाँ सत्ताने और द्रव्यको अर्थान्तरपना [भिन्नपदार्थपना, अन्यपदार्थपना] होनेका
खण्डन किया है।
‘ उन–उन क्रमभावी और सहभावी सद्भावपर्यायोंको अर्थात स्वभावविशेषोंको जो द्रवित
होता है – प्राप्त होता है – सामान्यरूप स्वरूपसेे व्याप्त होता है वह द्रव्य है’ – इस प्रकार
अनुगत अर्थवाली निरुक्तिसे द्रव्यकी व्याख्या की गई। और यद्यपिलक्ष्यलक्षणभावादिक द्वारा द्रव्यको
सत्तासे कथंचित् भेद है तथापि वस्तुतः [परमार्थेतः] द्रव्य सत्तासे अपृथक् ही है ऐसा मानना।
इसलिये
पहले [८वीं गाथामें] सत्ताको जो सत्पना, असत्पना, त्रिलक्षणपना, अत्रिलक्षणपना,
एकपना,
--------------------------------------------------------------------------
१। श्री जयसेनाचार्यदेवकी टीकामें भी यहाँकी भाँति ही ‘द्रवति गच्छति’ का एक अर्थ तो ‘द्रवित होता है अर्थात्
प्राप्त होता है ’ ऐसा किया गया है; तदुपरान्त ‘द्रवति’ अर्थात स्वभावपर्यायोंको द्रवित होता है और गच्छति
अर्थात विभावपर्यायोंको प्राप्त होता है ’ ऐसा दूसरा अर्थ भी यहाँ किया गया है।
२। यहाँ द्रव्यकी जो निरुक्ति की गई है वह ‘द्रु’ धातुका अनुसरण करते हुए [–मिलते हुए] अर्थवाली हैं।
३। सत्ता लक्षण है और द्रव्य लक्ष्य है।

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२६
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
रूपत्वमेकरूपत्वमनन्तपर्यायत्वमेकपर्यायत्वं च प्रतिपादितं सत्तायास्तत्सर्वं तदनर्थान्तरभूतस्य
द्रव्यास्यैव द्रष्टव्यम्। ततो न कश्चिदपि तेषु सत्ता विशेषोऽवशिष्येत यः सत्तां वस्तुतो द्रव्यात्पृथक्
व्यवस्थापयेदिति।। ९।।
दव्वं सल्लक्खणयं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुतें
गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हु।। १०।।
द्रव्यं सल्लक्षणकं उत्पादव्ययध्रुवत्वसंयुक्तम्।
गुणपयायाश्रयं वा यत्तद्भणन्ति सर्वज्ञा।। १०।।
अत्र त्रेधा द्रव्यलक्षणमुक्तम्।
सद्र्रव्यलक्षणम् उक्तलक्षणायाः सत्ताया अविशेषाद्र्रव्यस्य सत्स्वरूपमेव लक्षणम्। न
चानेकान्तात्मकस्य द्रव्यस्य सन्मात्रमेव स्वं रूपं यतो लक्ष्यलक्षणविभागाभाव इति। उत्पाद–
-----------------------------------------------------------------------------

अनेकपना, सर्वपदार्थस्थितपना, एकपदार्थस्थितपना, विश्वरूपपना, एकरूपपना, अनन्तपर्यायमयपना
और एकपर्यायमयपना कहा गया वह सर्व सत्तासे अनर्थांतरभूत [अभिन्नपदार्थभूत, अनन्यपदार्थभूत]
द्रव्यको ही देखना [अर्थात् सत्पना, असत्पना, त्रिलक्षणपना, अत्रिलक्षणपना आदि समस्त सत्ताके
विशेष द्रव्यके ही है ऐसा मानना]। इसलिये उनमें [–उन सत्ताके विशेषोमें] कोई सत्ताविशेष शेष
नहीं रहता जो कि सत्ताको वस्तुतः [परमार्थतः] द्रव्यसे पृथक् स्थापित करे ।। ९।।
गाथा १०
अन्वयार्थः– [यत्] जो [सल्लक्षणकम्] ‘सत्’ लक्षणवाला है, [उत्पादव्ययध्रुवत्वसंयुक्तम्] जो
उत्पादव्ययध्रौव्यसंयुक्त है [वा] अथवा [गुणपर्यायाश्रयम्] जो गुणपर्यायोंका आश्रय है, [तद्] उसेे
[सर्वज्ञाः] सर्वज्ञ [द्रव्यं] द्रव्य [भणन्ति] कहते हैं।
टीकाः– यहाँ तीन प्रकारसे द्रव्यका लक्षण कहा है।
‘सत्’ द्रव्यका लक्षण है। पुर्वोक्त लक्षणवाली सत्तासे द्रव्य अभिन्न होनेके कारण ‘सत्’ स्वरूप
ही द्रव्यका लक्षण है। और अनेकान्तात्मक द्रव्यका सत्मात्र ही स्वरूप नहीं है कि जिससे
लक्ष्यलक्षणके विभागका अभाव हो। [सत्तासे द्रव्य अभिन्न है इसलिये द्रव्यका जो सत्तारूप स्वरूप वही
--------------------------------------------------------------------------

छे सत्त्व लक्षण जेहनुं, उत्पादव्ययध्रुवयुक्त जे,
गुणपर्ययाश्रय जेह, तेने द्रव्य सर्वज्ञो कहे। १०।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
२७
व्ययध्रौव्याणि वा द्रव्यलक्षणम्। एकजात्यविरोधिनि क्रमभुवां भावानां संताने पूर्वभावविनाशः
सुमच्छेदः, उत्तरभावप्रादुर्भावश्च समुत्पादः, पूर्वोतरभावोच्छेदोत्पादयोरपि स्वजातेरपरित्यागो ध्रौव्यम्।
तानि सामान्यादेशाद–भिन्नानि विशेषादेशाद्भिन्नानि युगपद्भावीनि स्वभावभूतानि द्रव्यस्य लक्षणं
भवन्तीति। गुणपर्याया वा द्रव्यलक्षणम्। अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनोऽन्वयिनो विशेषा गुणा व्यतिरेकिणः
पर्यायास्ते द्रव्ये यौगपद्येन क्रमेण च प्रवर्तमानाः कथञ्चिद्भिन्नाः कथञ्चिदभिन्नाः स्वभावभूताः
द्रव्यलक्षणतामा–
-----------------------------------------------------------------------------
द्रव्यका लक्षण है। प्रश्नः–– यदि सत्ता और द्रव्य अभिन्न है – सत्ता द्रव्यका स्वरूप ही है, तो
‘सत्ता लक्षण है और द्रव्य लक्ष्य है’ – ऐसा विभाग किसप्रकार घटित होता है? उत्तरः––
अनेकान्तात्मक द्रव्यके अनन्त स्वरूप हैें, उनमेंसे सत्ता भी उसका एक स्वरूप है; इसलिये
अनन्तस्वरूपवाला द्रव्य लक्ष्य है और उसका सत्ता नामका स्वरूप लक्षण है – ऐसा लक्ष्यलक्षणविभाग
अवश्य घटित होता है। इसप्रकार अबाधितरूपसे सत् द्रव्यका लक्षण है।]

अथवा, उत्पादव्ययध्रौव्य द्रव्यका लक्षण है।
एक जातिका अविरोधक ऐसा जो क्रमभावी
भावोंका प्रवाह उसमें पूर्व भावका विनाश सो व्यय है, उत्तर भावका प्रादुर्भाव [–बादके भावकी
अर्थात वर्तमान भावकी उत्पत्ति] सो उत्पाद है और पूर्व–उत्तर भावोंके व्यय–उत्पाद होने पर भी
स्वजातिका अत्याग सो ध्रौव्य है। वे उत्पाद–व्यय–ध्रौव्य –– जो–कि सामान्य आदेशसे अभिन्न हैं
[अर्थात सामान्य कथनसे द्रव्यसे अभिन्न हैं], विशेष आदेशसे [द्रव्यसे] भिन्न हैं, युगपद् वर्तते हैें
और स्वभावभूत हैं वे – द्रव्यका लक्षण हैं।
अथवा, गुणपर्यायें द्रव्यका लक्षण हैं। अनेकान्तात्मक वस्तुके अन्वयी विशेष वे गुण हैं और
व्यतिरेकी विशेष वे पर्यायें हैं। वे गुणपर्यायें [गुण और पर्यायें] – जो कि द्रव्यमें एक ही साथ तथा
क्रमशः प्रवर्तते हैं, [द्रव्यसे] कथंचित भिन्न और कथंचित अभिन्न हैं तथा स्वभावभूत हैं वे – द्रव्यका
लक्षण हैं।
--------------------------------------------------------------------------
१। द्रव्यमें क्रमभावी भावोंका प्रवाह एक जातिको खंडित नहीं करता–तोड़ता नहीं है अर्थात् जाति–अपेक्षासे
सदैव एकत्व ही रखता है।
२। अन्वय और व्यतिरेकके लिये पृष्ठ १४ पर टिप्पणी देखिये।

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२८
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
पद्यन्ते। त्रयाणामप्यमीषां द्रव्यलक्षणानामेकस्मिन्नभिहितेऽन्यदुभयमर्थादेवापद्यते। सच्चेदुत्पाद–
व्ययध्रौव्यवच्च गुणपर्यायवच्च। उत्पादव्ययध्रौव्यवच्चेत्सच्च गुणपर्यायवच्च। गुणपर्यायवच्चेत्स–
च्चोत्पादव्ययध्रौव्यवच्चेति। सद्धि निन्यानित्यस्वभावत्वाद्ध्रुवत्वमुत्पादव्ययात्मकताञ्च प्रथयति,
ध्रुवत्वात्मकैर्गुणैरुत्पादव्ययात्मकैः पर्यायैश्च सहैकत्वञ्चाख्याति। उत्पादव्ययध्रौव्याणि तु
नित्या–नित्यस्वरूपं
परमार्थं सदावेदयन्ति, गुणपर्यायांश्चात्मलाभनिबन्धनभूतान प्रथयन्ति।
-----------------------------------------------------------------------------
द्रव्यके इन तीनों लक्षणोंमेंसे [–सत्, उत्पादव्ययध्रौव्य और गुणपर्यायें इन तीन लक्षणोंमेंसे]
एक का कथन करने पर शेष दोनों [बिना कथन किये] अर्थसे ही आजाते हैं। यदि द्रव्य सत् हो,
तो वह [१] उत्पादव्ययध्रौव्यवाला और [२] गुणपर्यायवाला होगा; यदि उत्पादव्ययध्रौव्यवाला हो,
तो वह [१] सत् और [२] गुणपर्यायवाला होगा; गुणपर्यायवाला हो, तो वह [१] सत् और [२]
उत्पादव्ययध्रौव्यवाला होगा। वह इसप्रकारः– सत् नित्यानित्यस्वभाववाला होनेसे [१] ध्रौव्यकोे और
उत्पादव्ययात्मकताको प्रकट करता है तथा [२] ध्रौव्यात्मक गुणों और उत्पादव्ययात्मक पर्यायोंके
साथ एकत्व दर्शाता है। उत्पादव्ययध्रौव्य [१] नित्यानित्यस्वरूप
पारमार्थिक सत्को बतलाते हैं तथा
[२] अपने स्वरूपकी प्राप्तिके कारणभूत गुणपर्यायोंको प्रकट करते हैं, गुणपर्यायें अन्वय और
--------------------------------------------------------------------------
१। पारमार्थिक=वास्तविक; यथार्थ; सच्चा । [वास्तविक सत् नित्यानित्यस्वरूप होता है। उत्पादव्यय अनित्यताको
और ध्रौव्य नित्यताको बतलाता है इसलिये उत्पादव्ययध्रौव्य नित्यानित्यस्वरूप वास्तविक सत्को बतलाते है।
इसप्रकार ‘द्रव्य उत्पादव्ययध्रौव्यवाला है ’ ऐसा कहनेसे ‘वह सत् है’ ऐसा भी बिना कहे ही आजाता है।]
२। अपने= उत्पादव्ययध्रौव्यके। [यदि गुण हो तभी ध्रौव्य होता है और यदि पर्यायें हों तभी उत्पादव्यय होता
है; इसलिये यदि गुणपर्यायें न हों तो उत्पादव्ययध्रौव्य अपने स्वरूपको प्राप्त हो ही नहीं सकते। इसप्रकार
‘द्रव्य उत्पादव्ययध्रौव्यवाला है’ –ऐसा कहनेसे वह गुणपर्यायवाला भी सिद्ध हो जाता है।]
३। प्रथम तो, गुणपर्यायें अन्वय द्वारा ध्राव्यको सिूचत करते हैं और व्यतिरेक द्वारा उत्पादव्ययने सिूचत करते हैं ;
इसप्रकार वे उत्पादव्ययध्रौव्यको सिूचत करते हैं। दूसरे, गुणपर्यायें अन्वय द्वारा नित्यताको बतलाते हैं और
व्यतिरेक द्वारा अनित्यतको बतलाते हैं ; –इसप्रकार वे नित्यानित्यस्वरूप सत्को बतलाते हैं।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
२९
गुणपर्यायास्त्वन्वयव्य–तिरेकित्वाद्ध्रौव्योत्पत्तिविनाशान् सुचयन्ति, नित्यानित्यस्वभावं परमार्थं
सच्चोपलक्षयन्तीति।।१०।।
उप्पत्ती व विणासो दव्वस्स य णत्थि अत्थि सब्भावो।
विगमुप्पादधवत्तं करेंति तस्सेव पज्जाया।। ११।।
उत्पत्तिर्वो विनाशो द्रव्यस्य च नास्त्यस्ति सद्भावः।
विगमोत्पादधुव्रत्वं कुर्वन्ति तस्यैव पर्यायाः।। ११।।
अत्रोभयनयाभ्यां द्रव्यलक्षणं प्रविभक्तम्।
-----------------------------------------------------------------------------

व्यतिरेकवाली होनेसे [१] ध्रौव्यको और उत्पादव्ययको सूचित करते हैं तथा [२]
नित्यानित्यस्वभाववाले पारमार्थिक सत्को बतलाते हैं।
भावार्थः– द्रव्यके तीन लक्षण हैंः सत् उत्पादव्ययध्रौव्य और गुणपर्यायें। ये तीनों लक्षण परस्पर
अविनाभावी हैं; जहाँ एक हो वहाँ शेष दोनों नियमसे होते ही हैं।। १०।।
गाथा ११
अन्वयार्थः[द्रव्यस्य च] द्रव्यका [उत्पत्तिः] उत्पाद [वा] या [विनाशः] विनाश [न अस्ति]
नहीं है, [सद्भावः अस्ति] सद्भाव है। [तस्य एव पर्यायाः] उसीकी पर्यायें [विगमोत्पादध्रुवत्वं]
विनाश, उत्पाद और ध्रुवता [कुर्वन्ति] करती हैं।
टीकाः– यहाँ दोनोें नयों द्वारा द्रव्यका लक्षण विभक्त किया है [अर्थात् दो नयोंकी अपेक्षासे
द्रव्यके लक्षणके दो विभाग किये गये हैं]।
सहवर्ती गुणों और क्रमवर्ती पर्यायोंके सद्भावरूप, त्रिकाल–अवस्थायी [ त्रिकाल स्थित
रहनेवाले], अनादि–अनन्त द्रव्यके विनाश और उत्पाद उचित नहीं है। परन्तु उसीकी पर्यायोंके–
--------------------------------------------------------------------------
नहि द्रव्यनो उत्पाद अथवा नाश नहि, सद्भाव छे;
तेना ज जे पर्याय ते उत्पाद–लय–ध्रुवता करे। ११।

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३०
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
द्रव्यस्य हि सहक्रमप्रवृत्तगुणपर्यायसद्भावरूपस्य त्रिकालावस्थायिनोऽनादिनिधनस्य न
समुच्छेदसमुदयौ युक्तौ। अथ तस्यैव पर्यायाणां सहप्रवृत्तिभाजां केषांचित् ध्रौव्यसंभवेऽप्यरेषां
क्रमप्रवृत्तिभाजां विनाशसंभवसंभावनमुपपन्नम्। ततो द्रव्यार्थार्पणायामनुत्पादमुच्छेदं सत्स्वभावमेव
द्रव्यं, तदेव पर्यायार्थार्पणायां सोत्पादं सोच्छेदं चावबोद्धव्यम्। सर्वमिदमनवद्यञ्च
द्रव्यपर्यायाणामभेदात्।। ११।।
पज्जयविजुदं दव्वं दव्वविजुत्ता य पज्जया णत्थि।
दोण्हं अणण्णभूदं भावं समणा परुविंति।। १२।।
पर्ययवियुतं द्रव्यं द्रव्यवियुक्ताश्च पर्याया न सन्ति।
द्वयोरनन्यभूतं भावं श्रमणाः प्ररूपयन्ति।। १२।।
अत्र द्रव्यपर्यायाणामभेदो निर्दिष्ट।
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सहवर्ती कतिपय [पर्यायों] का ध्रौव्य होने पर भी अन्य क्रमवर्ती [पर्यायों] के–विनाश और उत्पाद
होना घटित होते हैं। इसलिये द्रव्य द्रव्यार्थिक आदेशसे [–कथनसे] उत्पाद रहित, विनाश रहित,
सत्स्वभाववाला ही जानना चाहिये और वही [द्रव्य] पर्यायार्थिक आदेशसे उत्पादवाला और
विनाशवाला जानना चाहिये।
–––यह सब निरवद्य [–निर्दोष, निर्बाध, अविरुद्ध] है, क्योंकि द्रव्य और पर्यायोंका अभेद
[–अभिन्नपना ] है।। ११।।
गाथा १२
अन्वयार्थः[पर्ययवियुतं] पर्यायोंसे रहित [द्रव्यं] द्रव्य [च] और [द्रव्यवियुक्ताः] द्रव्य रहित
[पर्यायाः] पर्यायें [न सन्ति] नहीं होती; [द्वयोः] दोनोंका [अनन्यभूतं भावं] अनन्यभाव [–
अनन्यपना] [श्रमणाः] श्रमण [प्ररूपयन्ति] प्ररूपित करते हैं।
टीकाः– यहाँ द्रव्य और पर्यायोंका अभेद दर्शाया है।
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पर्यायविरहित द्रव्य नहि, नहि द्रव्यहीन पर्याय छे,
पर्याय तेम ज द्रव्य केरी अनन्यता श्रमणो कहे। १२।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
३१
दुग्धदधिनवनीतधृतादिवियुतगोरसवत्पर्यायवियुतं द्रव्यं नास्ति। गोरसवियुक्तदुग्धदधि–
नवनीतधृतादिवद्र्रव्यवियुक्ताः पर्याया न सन्ति। ततो द्रव्यस्य पर्यायाणाञ्चादेशवशात्कथंचिद्भेदेऽ–
प्पेकास्तित्वनियतत्वादन्योन्याजहद्वृत्तीनां वस्तुत्वेनाभेद इति।। १२।।
देव्वेण विणा ण गुणा गुणहिं दव्वं विणा ण संभवदि।
अव्वदिरित्तो भावो
दव्वगुणाणं हवदि तम्हा।। १३।।
द्रव्येण विना न गुणा गुणैर्द्रव्यं विना न सम्भवति।
अव्यतिरिक्तो भावो द्रव्यगुणानां भवति तस्मात्।। १३।।
अत्रद्रव्यगुणानामभेदो निर्दष्टः।
पुद्गलपृथग्भूतस्पर्शरसगन्धवर्णवद्र्रव्येण विना न गुणाः संभवन्ति स्पर्शरस–
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जिसप्रकार दूध, दही, मक्खण, घी इत्यादिसे रहित गोरस नहीं होता उसीप्रकार पर्यायोंसे
रहित द्रव्य नहीं होता; जिसप्रकार गोरससे रहित दूध, दही, मक्खण, घी इत्यादि नहीं होते
उसीप्रकार द्रव्यसे रहित पर्यायें नहीं होती। इसलिये यद्यपि द्रव्य और पर्यायोंका आदेशवशात् [–
कथनके वश] कथंचित भेद है तथापि, वे एक अस्तित्वमें नियत [–द्रढ़रूपसे स्थित] होनेके कारण
अन्योन्यवृत्ति नहीं छोड़ते इसलिए वस्तुरूपसे उनका अभेद है।। १२।।
गाथा १३
अन्वयार्थः– [द्रव्येण विना] द्रव्य बिना [गुणः न] गुण नहीं होते, [गुणैः विना] गुणों बिना
[द्रव्यं न सम्भवति] द्रव्य नहीं होता; [तस्मात्] इसलिये [द्रव्यगुणानाम्] द्रव्य और गुणोंका
[अव्यतिरिक्तः भावः] अव्यतिरिक्तभाव [–अभिन्नपणुं] [भवति] है।
टीकाः– यहाँ द्रव्य और गुणोंका अभेद दर्शाया है ।
जिसप्रकार पुद्गलसे पृथक् स्पर्श–रस–गंध–वर्ण नहीं होते उसीप्रकार द्रव्यके बिना गुण नहीं
होते; जिसप्रकार स्पर्श–रस–गंध–वर्णसे पृथक् पुद्गल नहीं होता उसीप्रकार गुणोंके बिना द्रव्य
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अन्योन्यवृत्ति=एक–दूसरेके आश्रयसे निर्वाह करना; एक–दूसरेके आधारसे स्थित रहना; एक–दूसरेके बना
रहना।
नहि द्रव्य विण गुण होय, गुण विण द्रव्य पण नहि होय छे;
तेथी गुणो ने द्रव्य केरी अभिन्नता निर्दिष्ट छे। १३।