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नामेकप्रदेशात्मकत्वेऽपि तत्सिद्धिः। व्यक्तयपेक्षया शक्तयपेक्षया च प्रदेश प्रचयात्मकस्य
महत्त्वस्याभावात्कालाणूनामस्तित्वनियतत्वेऽप्यकायत्वमनेनैव साधितम्। अत एव तेषामस्तिकाय–
प्रकरणे सतामप्यनुपादानमिति।। ४।।
उनके कायपना भी है क्योंकि वे अणुमहान हैं। यहाँ अणु अर्थात् प्रदेश–मूर्त और अमूर्त
प्रदेशप्रचयात्मक [–प्रदेशोंके समूहमय] हो वह अणुमहान है। इसप्रकार उन्हें [उपर्युक्त पाँच
द्रव्योंको] कायत्व सिद्ध हुआ। [उपर जो अणुमहानकी व्युत्पत्ति की उसमें अणुओंके अर्थात् प्रदेशोंके
लिये बहुवचनका उपयोग किया है और संस्कृत भाषाके नियमानुसार बहुवचनमें द्विवचनका समावेश
नहीं होता इसलिये अब व्युत्पत्तिमें किंचित् भाषाका परिवर्तन करके द्वि–अणुक स्कंधोंको भी अणुमहान
बतलाकर उनका कायत्व सिद्ध किया जाता हैः] ‘दो अणुओं [–दो प्रदेशों] द्वारा महान हो’ वह
अणुमहान– ऐसी व्युत्पत्तिसे द्वि–अणुक पुद्गलस्कंधोंको भी [अणुमहानपना होनेसे] कायत्व है।
[अब, परमाणुओंको अणुमहानपना किसप्रकार है वह बतलाकर परमाणुओंको भी कायत्व सिद्ध किया
जाता है;] व्यक्ति और शक्तिरूपसे ‘अणु तथा महान’ होनेसे [अर्थात् परमाणु व्यक्तिरूपसे एक प्रदेशी
तथा शक्तिरूपसे अनेक प्रदेशी होनेके कारण] परमाणुओंको भी , उनके एक प्रदेशात्मकपना होने
पर भी [अणुमहानपना सिद्ध होनेसे] कायत्व सिद्ध होता है। कालाणुओंको व्यक्ति–अपेक्षासे तथा
शक्ति–अपेक्षासे प्रदेशप्रचयात्मक महानपनेका अभाव होनेसे, यद्यपि वे अस्तित्वमें नियत है तथापि,
उनके अकायत्व है ––ऐसा इसीसे [–इस कथनसे ही] सिद्ध हुआ। इसलिये, यद्यपि वे सत्
[विद्यमान] हैं तथापि, उन्हें अस्तिकायके प्रकरणमें नहीं लिया है।
ये पाँचों द्रव्य पर्यायार्थिक नयसे अपनेसे कथंचित भिन्न ऐसे अस्तित्वमें विद्यमान हैं और
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ते होंति अत्थिकाया णिप्पिण्णं जेहिं तइल्लुक्कं।। ५।।
ते भवन्त्यस्तिकायाः निष्पन्नं यैस्त्रैलोक्यम्।। ५।।
अणुमहान्तः अर्थात जो बहु प्रदेशों द्वारा [– दो से अधिक प्रदेशों द्वारा] बडे़ हों वे अणुमहान हैं।
इस व्युत्पत्तिके अनुसार जीव, धर्म और अधर्म असंख्यप्रदेशी होनेसे अणुमहान हैं; आकाश अनंतप्रदेशी
होनेसे अणुमहान है; और त्रि–अणुक स्कंधसे लेकर अनन्ताणुक स्कंध तकके सर्व स्कन्ध बहुप्रदेशी
होनेसे अणुमहान है। [२] अणुभ्याम् महान्तः अणुमहान्तः अर्थात जो दो प्रदेशों द्वारा बडे़ हों वे
अणुमहान हैं। इस व्युत्पत्तिके अनुसार द्वि–अणुक स्कंध अणुमहान हैं। [३] अणवश्च महान्तश्च
अणुमहान्तः अर्थात् जो अणुरूप [–एक प्रदेशी] भी हों और महान [अनेक प्रदेशी] भी हों वे
अणुमहान हैं। इस व्युत्पत्तिके अनुसार परमाणु अणुमहान है, क्योंकि व्यक्ति–अपेक्षासे वे एकप्रदेशी हैं
और शक्ति–अपेक्षासे अनेकप्रदेशी भी [उपचारसे] हैं। इसप्रकार उपर्युक्त पाँचों द्रव्य अणुमहान
होनेसे कायत्ववाले हैं ऐसा सिद्ध हुआ।
कालाणुको अस्तित्व है किन्तु किसी प्रकार भी कायत्व नहीं है, इसलिये वह द्रव्य है किन्तु
[अस्तिकायाः भवन्ति] अस्तिकाय है [यैः] कि जिनसे [त्रैलोक्यम्] तीन लोक [निष्पन्नम्] निष्पन्न
है।
किन्तु विस्तारक्रमके अंश अस्तिकायके ही होते हैं।]
ते अस्तिकायो जाणवा, त्रैलोक्यरचना जे वडे। ५।
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प्रलीयमानस्यान्येनोपजायमानस्यान्वयिना गुणेन ध्रौव्यं बिभ्राणस्यैकस्याऽपि वस्तुनः
समुच्छेदोत्पादध्रौव्यलक्षणमस्तित्वमुपपद्यत एव। गुणपर्यायैः सह सर्वथान्यत्वे त्वन्यो विनश्यत्यन्यः
प्रादुर्भवत्यन्यो ध्रवुत्वमालम्बत इति सर्वं विप्लवते। ततः साध्वस्तित्वसंभव–प्रकारकथनम्।
कायत्वसंभवप्रकारस्त्वयमुपदिश्यते। अवयविनो हि जीवपुद्गलधर्माधर्माकाश–पदार्थास्तेषामवयवा अपि
प्रदेशाख्याः परस्परव्यतिरेकित्वात्पर्यायाः उच्यन्ते। तेषां तैः सहानन्यत्वे कायत्वसिद्धिरूपपत्तिमती।
निरवयवस्यापि परमाणोः सावयवत्वशक्तिसद्भावात् कायत्वसिद्धिरनपवादा। न चैतदाङ्कयम्
वस्तुको
[उत्पादको] प्राप्त होगा और अन्य कोई ध्रुव रहेगा – इसप्रकार सब
योग्य–न्याययुक्त हैे।
विशेष हैं।]
४। विप्लव=अंधाधू्रन्धी; उथलपुथल; गड़़बड़़ी; विरोध।
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कल्पेत तदा यदेव घटाकाशं तदेवाघटाकाशं स्यात्। न च तदिष्टम्। ततः कालाणुभ्योऽन्यत्र सर्वेषां
कायत्वाख्यं सावयवत्वमवसेयम्। त्रैलोक्यरूपेण निष्पन्नत्वमपि तेषामस्तिकायत्वसाधनपरमुपन्यस्तम्।
तथा च–त्रयाणामूर्ध्वाऽधोमध्यलोकानामुत्पादव्ययध्रौव्यवन्तस्तद्विशेषात्मका भावा भवन्तस्तेषां मूल–
अब, [उन्हें] कायत्व किस प्रकार है उसका उपदेश किया जाता हैः– जीव, पुद्गल, धर्म,
[ पटाकाश] है’ ऐसी विभागकल्पना द्रष्टिगोचर होती ही है। यदि वहाँ [कथंचित्] विभागकी
कल्पना न की जाये तो जो घटाकाश हैे वही [सर्वथा] अघटाकाश हो जायेगा; और वह तो ईष्ट
[मान्य] नहीं है। इसलिये कालाणुओंके अतिरिक्त अन्य सर्वमें कायत्व नामका सावयवपना निश्चित
करना चाहिये।
२। पर्यायका लक्षण परस्पर व्यतिरेक है। वह लक्षण प्रदेशोंमें भी व्याप्त है, क्योंकि एक प्रदेश दूसरे प्रदेशरूप न
४। निरपवाद=अपवाद रहित। [पाँच अस्तिकायोंको कायपना होनेमें एक भी अपवाद नहीं है, क्योंकि [उपचारसे]
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धोमध्यलोकविभागरूपेण परिणमनात्कायत्वाख्यं सावयवत्वम्। झविानामपि
शक्तेस्तदनुमीयत एव। पुद्गलानामप्यूर्ध्वाधोमध्यलोकविभागरूपपरिणतमहास्कन्धत्वप्राप्तिव्यक्ति–
शक्तियोगित्वात्तथाविधा सावयवत्वसिद्धिरस्त्येवेति।। ५।।
करते हैं। [तीन लोकके भाव सदैव कथंचित् सद्रश रहते हैं और कथंचित् बदलते रहते हैं वे ऐसा
सिद्ध करते है कि तीन लोकके मूल पदार्थ कथंचित् सद्रश रहते हैं और कथंचित् परिवर्तित होते
रहते हैं अर्थात् उन मूल पदार्थोंका उत्पाद–व्यय–धौव्यवाला अथवा गुणपर्यायवाला अस्तित्व है।]
१। यदि लोकके ऊर्ध्व, अधः और मध्य ऐसे तीन भाग हैं तो फिर ‘यह ऊर्ध्वलोकका आकाशभाग है, यह
अधोलोकका आकाशभाग है और यह मध्यलोकका आकाशभाग हैे’ – इसप्रकार आकाशके भी विभाग किये जा
सकते हैं और इसलिये यह सावयव अर्थात् कायत्ववाला है ऐसा सिद्ध होता है। इसीप्रकार धर्म और अधर्म भी
सावयव अर्थात कायत्ववाले हैं।
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गच्छंति दवियभावं परियट्टणलिंगसंजुता।। ६।।
गच्छंति द्रव्यभावं परिवर्तनलिङ्गसंयुक्ताः।। ६।।
लोकपूरण अवस्थारूप व्यक्तिकी शक्तिका सदैव सद्भाव होनेसे जीवोंको भी कायत्व नामका
सावयवपना है ऐसा अनुमान किया ही जा सकता है। पुद्गलो भी ऊर्ध्व अधो–मध्य ऐसे लोकके
[तीन] विभागरूप परिणत महास्कंधपनेकी प्राप्तिकी व्यक्तिवाले अथवा शक्तिवाले होनेसे उन्हें भी
वैसी [कायत्व नामकी] सावयवपनेकी सिद्धि है ही।। ५।।
परिवर्तनलिंग [काल] सहित, [द्रव्यभावं गच्छन्ति] द्रव्यत्वको प्राप्त होते हैं [अर्थात् वे छहों द्रव्य
हैं।]
जा सकते है। ऐसी त्रिलोकव्यापी दशा [अवस्था] की शक्ति तो जीवोंमें सदैव है इसलिये जीव सदैव
सावयव अर्थात् कायत्ववाले हैंऐसा सिद्ध होता है।]
ए पाँच तेम ज काल वर्तनलिंग सर्वे द्रव्य छे। ६।
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कालस्य चास्ति द्रव्यत्वम्। न च तेषां भूतभवद्भविष्यद्भावात्मना परिणममानानामनित्यत्वम्, यतस्ते
भूतभवद्भविष्यद्भावावस्थास्वपि प्रतिनियतस्वरूपापरित्यागा–न्नित्या एव। अत्र कालः
पुद्गलादिपरिवर्तनहेतुत्वात्पुद्गलादिपरिवर्तनगम्यमानपर्यायत्वा–च्चास्तिकायेष्वन्तर्भावार्थ स परिवर्तन–
लिङ्ग इत्युक्त इति।। ६।।
[पाँच] अस्तिकाय और
प्रतिनियत [–अपने–अपने निश्वित] स्वरूपको नहीं छोड़ते इसलिये वे नित्य ही है।
‘
पदार्थका [कालका] अथवा उस परिवर्तन द्वारा जिनकी पर्यायें व्यक्त होती हैं उस पदार्थका
[कालका] वर्णन करना अनुचित नहीं कहा जा सकता। इसप्रकार पंचास्तिकायके वर्णनमें कालके
वर्णनका समावेश करना अनुचित नहीं है ऐसा दर्शानेके हेतु इस गाथासूत्रमें कालके लिये
‘परिवर्तनलिंग’ शब्दका उपयोग किया है।]।। ६।।
इसलिये काल ‘परिवर्तनलिंग’ है। [२] और पुद्गलादिके परिवर्तन द्वारा कालकी पर्यायें [–‘कर्म समय’,
‘अधिक समय ऐसी कालकी अवस्थाएँ] गम्य होती हैं इसलिये भी काल ‘परिवर्तनलिंग’ है।
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म्ेलंता वि य णिच्चं सगं सभावं ण विजहंति।। ७।।
मिलन्त्यपि च नित्यं स्वकं स्वभावं न विजहन्ति।। ७।।
च] तथापि [नित्यं] सदा [स्वकं स्वभावं] अपने–अपने स्वभावको [न विजहन्ति] नहीं छोड़ते।
इसलिये], परिणामवाले होने पर भी वे नित्य हैं–– ऐसा पहले [छठवी गाथामें] कहा था; और
इसलिये वे एकत्वको प्राप्त नहीं होते; और यद्यपि जीव तथा कर्मको व्यवहारनयके कथनसे
एकत्व [कहा जाता] है तथापि वे [जीव तथा कर्म] एक–दूसरेके स्वरूपको ग्रहण नहीं करते।।
७।।
संकर=मिलन; मिलाप; [अन्योन्य–अवगाहरूप] मिश्रितपना।
अन्योन्य मिलन, छतां कदी छोडे़ न आपस्वभावने। ७।
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मंगुप्पादधुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि
भङ्गोत्पादध्रौव्यात्मिका सप्रतिपक्षा मवत्येका।। ८।।
अस्तित्वं हि सत्ता नाम सतो भावः सत्त्वम्। न सर्वथा नित्यतया सर्वथा क्षणिकतया वा
सर्वथा क्षणिकस्य च तत्त्वतः प्रत्यभिज्ञानाभावात् कुत एकसंतानत्वम्। ततः प्रत्यभिज्ञानहेतुभूतेन
केनचित्स्वरूपेण ध्रौव्यमालम्ब्यमानं काभ्यांचित्क्रमप्रवृत्ताभ्यां स्वरूपाभ्यां प्रलीयमानमुपजायमानं
चैककालमेव परमार्थतस्त्रितयीमवस्थां बिभ्राणं वस्तु सदवबोध्यम्। अत एव
सत्ताप्युत्पादव्ययध्रौव्यात्मिकाऽवबोद्धव्या, भावभाववतोः कथंचिदेकस्वरूपत्वात्। सा च त्रिलक्षणस्य
[सप्रतिपक्षा] सप्रतिपक्ष [भवति] है।
होगा? और सर्वथा क्षणिक वस्तुमें वास्तवमें
स्वरूपोंसे नष्ट होती हुई तथा उत्पन्न होती हुई – इसप्रकार परमार्थतः एक ही कालमें तिगुनी [तीन
अंशवाली] अवस्थाको धारण करती हुई वस्तु सत् जानना। इसलिये ‘सत्ता’ भी
२। वस्तु सर्वथा क्षणिक हो तो ‘जो पहले देखनेमें [–जाननेमें] आई थी वही यह वस्तु है’ ऐसा ज्ञान नहीं हो
सर्वार्थप्राप्त, सविश्वरूप, अनंतपर्ययवंत छे,
सत्ता जनम–लय–ध्रौव्यमय छे, एक छे, सविपक्ष छे। ८।
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सदित्यभिधानस्य सदिति प्रत्ययस्य च सर्वपदार्थेषु तन्मूलस्यैवोपलम्भात्। सविश्वरूपा च विश्वस्य
समस्तवस्तुविस्तारस्यापि रूपैस्त्रिलक्षणैः स्वभावैः सह वर्तमानत्वात्। अनन्तपर्याया
चानन्ताभिर्द्रव्यपर्यायव्यक्तिभिस्त्रिलक्षणाभिः परिगम्यमानत्वात् एवंभूतापि सा न खलु निरकुशा किन्तु
सप्रतिपक्षा। प्रतिपक्षो ह्यसत्ता सत्तायाः अत्रिलक्षणत्वं त्रिलक्षणायाः, अनेकत्वमेकस्याः,
एकपदार्थस्थितत्वं सर्वपदार्थस्थितायाः, एकरूपत्वं सविश्वरूपायाः, एकपर्यायत्वमनन्तपर्यायाया
इति।
‘उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक’ [त्रिलक्षणा] जानना; क्योंकि
सूचित करती है। और वह [सत्ता] ‘सर्वपदार्थस्थित’ है; क्योंकि उसके कारण ही [–सत्ताके कारण
ही] सर्व पदार्थोमें त्रिलक्षणकी [–उत्पादव्ययध्रौव्यकी], ‘सत्’ ऐसे कथनकी तथा ‘सत’ ऐसी
प्रतीतिकी उपलब्धि होती है। और वह [सत्ता] ‘सविश्वरूप’ है, क्योंकि वह विश्वके रूपों सहित
अर्थात् समस्त वस्तुविस्तारके त्रिलक्षणवाले स्वभावों सहित वर्तती है। और वह [सत्ता]
‘अनंतपर्यायमय’ है। क्योंकि वह त्रिलक्षणवाली अनन्त द्रव्यपर्यायरूप व्यक्तियोंसे व्याप्त है। [इसप्रकार
सर्वपदार्थस्थितको एकपदार्थस्थितपना प्रतिपक्ष है; [५] सविश्वरूपको एकरूपपना प्रतिपक्ष है;
[६]अनन्तपर्यायमयको एकपर्यायमयपना प्रतिपक्ष है।
२। यहाँ ‘सामान्यात्मक’का अर्थ ‘महा’ समझना चाहिये और ‘विशेषात्मक’ का अर्थ ‘अवान्तर’ समझना चाहिये।
३। निरंकुश=अंकुश रहित; विरुद्ध पक्ष रहित ; निःप्रतिपक्ष। [सामान्यविशेषात्मक सत्ताका ऊपर जो वर्णन किया
अपेक्षासे] विरुद्ध प्रकारकी हैे।]
४। सप्रतिपक्ष=प्रतिपक्ष सहित; विपक्ष सहित; विरुद्ध पक्ष सहित।
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महासत्ता प्रोक्तैव। अन्या तु प्रतिनियतवस्तुवर्तिनी स्वरूपास्तित्वसूचिकाऽवान्तरसत्ता। तत्र
महासत्ताऽवान्तरसत्तारूपेणाऽ–सत्ताऽवान्तरसत्ता च महासत्तारूपेणाऽसत्तेत्यसत्ता सत्तायाः। येन
स्वरूपेणोत्त्पादस्तत्तथो–त्पादैकलक्षणमेव, येन स्वरूपेणोच्छेदस्तत्तथोच्छेुदैकलक्षणमेव, येन स्वरूपेण
ध्रोव्यं तत्तथा ध्रौव्यैकलक्षणमेव, तत उत्पद्यमानोच्छिद्यमानावतिष्ठमानानां वस्तुनः स्वरूपाणां प्रत्येकं
त्रैलक्षण्याभावादत्रिलक्षणत्वंः त्रिलक्षणायाः। एकस्य वस्तुनः स्वरूपसत्ता नान्यस्य वस्तुनः स्वरूपसत्ता
भवतीत्यनेकत्वमेकस्याः। प्रतिनियतपदार्थस्थिताभिरेव सत्ताभिः पदार्थानां प्रतिनियमो
[उपर्युक्त सप्रतिपक्षपना स्पष्ट समझाया जाता हैः–]
सत्ता द्विविध हैः महासत्ता और अवान्तरसत्ता । उनमें सर्व पदार्थसमूहमें व्याप्त होनेवाली,
प्रतिनिश्चित [–एक–एक निश्चित] वस्तुमें रहेनेवाली, स्वरूप–अस्तित्वको सूचित करनेवाली
अवान्तरसत्ता [विशेषसत्ता] है। [१] वहाँ महासत्ता अवान्तरसत्तारूपसे असत्ता हैे और अवान्तरसत्ता
महासत्तारूपसे असत्ता है इसलिये सत्ताको असत्ता है [अर्थात् जो सामान्यविशेषात्मक सत्ता
महासत्तारूप होनेसे ‘सत्ता’ है वही अवान्तरसत्तारूप भी होनेसे ‘असत्ता’ भी है]। [२] जिस
स्वरूपसे उत्पाद है उसका [–उस स्वरूपका] उसप्रकारसे उत्पाद एक ही लक्षण है, जिस
स्वरूपसे व्यय हैे उसका [–उस स्वरूपका] उसप्रकारसे व्यय एक ही लक्षण है और जिस स्वरूपसे
ध्रौव्य है उसका [–उस स्वरूपका] उसप्रकारसे ध्रौव्य एक ही लक्षण है इसलिये वस्तुके उत्पन्न
होेनेवाले, नष्ट होेनेवाले और ध्रुव रहनेतवाले स्वरूपोंमेंसे प्रत्येकको त्रिलक्षणका अभाव होनेसे
त्रिलक्षणा [सत्ता] को अत्रिलक्षणपना है। [अर्थात् जो सामान्यविशेषात्मक सत्ता महासत्तारूप होनेसे
‘त्रिलक्षणा’ है वही यहाँ कही हुई अवान्तरसत्तारूप भी होनेसे ‘अत्रिलक्षणा’ भी है]। [३] एक
वस्तुकी स्वरूपसत्ता अन्य वस्तुकी स्वरूपसत्ता नहीं है इसलिये एक [सत्ता] को अनेकपना है।
[अर्थात् जो सामान्यविशेषात्मक सत्ता महासत्तारूप होनेसे ‘एक’ है वही यहाँ कही हुई
अवान्तरसत्तारूप भी होनेसे ‘अनेक’ भी है]। [४] प्रतिनिश्चित [व्यक्तिगत निश्चित] पदार्थमें स्थित
सत्ताओं द्वारा ही पदार्थोंका प्रतिनिश्चितपना [–भिन्न–भिन्न निश्चित व्यक्तित्व] होता है इसलिये
सर्वपदार्थस्थित [सत्ता] को एकपदार्थस्थितपना है। [अर्थात् जो सामान्यविशेषात्मक सत्ता
महासत्तारूप होनेसे
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वस्तूनां भवतीत्येकरूपत्वं सविश्वरूपायाः प्रतिपर्यायनियताभिरेव सत्ताभिः
प्रतिनियतैकपर्यायाणामानन्त्यं भवतीत्येकपर्याय–त्वमनन्तपर्यायायाः। इति सर्वमनवद्यं
सामान्यविशेषप्ररूपणप्रवणनयद्वयायत्तत्वात्तद्देशनायाः।। ८।।
‘सर्वपदार्थस्थित’ है वही यहाँ कही हुई अवान्तरसत्तारूप भी होनेसे ‘एकपदार्थस्थित’ भी है।] [५]
प्रतिनिश्चित एक–एक रूपवाली सत्ताओं द्वारा ही वस्तुओंका प्रतिनिश्चित एक एकरूप होता है इसलिये
सविश्वरूप [सत्ता] को एकरूपपना है [अर्थात् जो सामान्यविशेषात्मक सत्ता महासत्तारूप होनेसे
‘सविश्वरूप’ है वही यहाँ कही हुई अवान्तरसत्तारूप भी होनेसे ‘एकरूप’ भी है]। [६] प्रत्येक
पर्यायमें स्थित [व्यक्तिगत भिन्न–भिन्न] सत्ताओं द्वारा ही प्रतिनिश्वित एक–एक पर्यायोंका अनन्तपना
होता है इसलिये अनंतपर्यायमय [सत्ता] को एकपर्यायमयपना है [अर्थात् जो सामान्यविशेषात्मक
सत्ता महासत्तारूप होनेसे ‘अनंतपर्यायमय’ है वही यहाँ कही हुई अवान्तरसत्तारूप भी होनेसे
‘एकपर्यायमय’ भी है]।
ओर ढलते हुए दो नयोंके आधीन है।
भावार्थः– सामान्यविशेषात्मक सत्ताके दो पक्ष हैंः–– एक पक्ष वह महासत्ता और दूसरा पक्ष
असत्ता हैे; इसलिये यदि महासत्ताको ‘सत्ता’ कहे तो अवान्तरसत्ताको ‘असत्ता’ कहा जायगा।
[२] महासत्ता उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ऐसे तीन लक्षणवाली है इसलिये वह ‘त्रिलक्षणा’ है। वस्तुके
उत्पन्न होनेवाले स्वरूपका उत्पाद ही एक लक्षण है, नष्ट होनेवाले स्वरूपका व्यय ही एक लक्षण है
और ध्रुव रहनेवाले स्वरूपका ध्रौव्य ही एक लक्षण है इसलिये उन तीन स्वरूपोंमेंसे प्रत्येककी
अवान्तरसत्ता एक ही लक्षणवाली होनेसे ‘अत्रिलक्षणा’ है। [३] महासत्ता समस्त पदार्थसमूहमें ‘सत्,
सत्, सत्’ ऐसा समानपना दर्शाती है इसलिये एक हैे। एक वस्तुकी स्वरूपसत्ता अन्य किसी वस्तुकी
स्वरूपसत्ता नहीं है, इसलिये जितनी वस्तुएँ उतनी स्वरूपसत्ताएँ; इसलिये ऐसी स्वरूपसत्ताएँ अथवा
अवान्तरसत्ताएँ ‘अनेक’ हैं।
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दवियं
द्रव्य तत् भणन्ति अनन्यभूतं तु सत्तातः।। ९।।
[४] सर्व पदार्थ सत् है इसलिये महासत्ता ‘सर्व पदार्थोंमें स्थित’ है। व्यक्तिगत पदार्थोंमें स्थित
भिन्न–भिन्न व्यक्तिगत सत्ताओं द्वारा ही पदार्थोंका भिन्न–भिन्न निश्चित व्यक्तित्व रह सकता है, इसलिये
उस–उस पदार्थकी अवान्तरसत्ता उस–उस ‘एक पदार्थमें ही स्थित’ है। [५] महासत्ता समस्त
वस्तुसमूहके रूपों [स्वभावों] सहित है इसलिये वह ‘सविश्वरूप’ [सर्वरूपवाली] है। वस्तुकी
सत्ताका [कथंचित्] एक रूप हो तभी उस वस्तुका निश्चित एक रूप [–निश्चित एक स्वभाव] रह
सकता है, इसलिये प्रत्येक वस्तुकी अवान्तरसत्ता निश्चित ‘एक रूपवाली’ ही है। [६] महासत्ता
सर्व पर्यायोंमें स्थित है इसलिये वह ‘अनन्तपर्यायमय’ है। भिन्न–भिन्न पर्यायोंमें [कथंचित्] भिन्न–भिन्न
सत्ताएँ हों तभी प्रत्येक पर्याय भिन्न–भिन्न रहकर अनन्त पर्यायें सिद्ध होंगी, नहीं तो पर्यायोंका
अनन्तपना ही नहीं रहेगा–एकपना हो जायगा; इसलिये प्रत्येक पर्यायकी अवान्तरसत्ता उस–उस
‘एक पर्यायमय’ ही है।
भी है, [४] सर्वपदार्थस्थित भी है और एकपदार्थस्थित भी है। [५] सविश्वरूप भी है और एकरूप
भी है, [६] अनंतपर्यायमय भी है और एकपर्यायमय भी है।। ८।।
तेने कहे छे द्रव्य, जे सत्ता थकी नहि अन्य छे। ९।
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द्रवति गच्छति सामान्यरूपेण स्वरूपेण व्याप्नोति तांस्तान् क्रमभुवः सहभुवश्वसद्भावपर्यायान्
स्वभावविशेषानित्यनुगतार्थया निरुक्तया द्रव्यं व्याख्यातम्। द्रव्यं च लक्ष्य–लक्षणभावादिभ्यः
कथञ्चिद्भेदेऽपि वस्तुतः सत्ताया अपृथग्भूतमेवेति मन्तव्यम्। ततो यत्पूर्वं सत्त्वमसत्त्वं
त्रिलक्षणत्वमत्रिलक्षणत्वमेकत्वमनेकत्वं सर्वपदार्थस्थितत्वमेकपदार्थस्थितत्वं विश्व–
– [सत्तातः अनन्यभूतं तु] जो कि सत्तासे अनन्यभूत है।
इसलिये
अर्थात विभावपर्यायोंको प्राप्त होता है ’ ऐसा दूसरा अर्थ भी यहाँ किया गया है।
३। सत्ता लक्षण है और द्रव्य लक्ष्य है।
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द्रव्यास्यैव द्रष्टव्यम्। ततो न कश्चिदपि तेषु सत्ता विशेषोऽवशिष्येत यः सत्तां वस्तुतो द्रव्यात्पृथक्
व्यवस्थापयेदिति।। ९।।
गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हु।। १०।।
गुणपयायाश्रयं वा यत्तद्भणन्ति सर्वज्ञा।। १०।।
सद्र्रव्यलक्षणम् उक्तलक्षणायाः सत्ताया अविशेषाद्र्रव्यस्य सत्स्वरूपमेव लक्षणम्। न
अनेकपना, सर्वपदार्थस्थितपना, एकपदार्थस्थितपना, विश्वरूपपना, एकरूपपना, अनन्तपर्यायमयपना
और एकपर्यायमयपना कहा गया वह सर्व सत्तासे अनर्थांतरभूत [अभिन्नपदार्थभूत, अनन्यपदार्थभूत]
द्रव्यको ही देखना [अर्थात् सत्पना, असत्पना, त्रिलक्षणपना, अत्रिलक्षणपना आदि समस्त सत्ताके
विशेष द्रव्यके ही है ऐसा मानना]। इसलिये उनमें [–उन सत्ताके विशेषोमें] कोई सत्ताविशेष शेष
नहीं रहता जो कि सत्ताको वस्तुतः [परमार्थतः] द्रव्यसे पृथक् स्थापित करे ।। ९।।
[सर्वज्ञाः] सर्वज्ञ [द्रव्यं] द्रव्य [भणन्ति] कहते हैं।
लक्ष्यलक्षणके विभागका अभाव हो। [सत्तासे द्रव्य अभिन्न है इसलिये द्रव्यका जो सत्तारूप स्वरूप वही
छे सत्त्व लक्षण जेहनुं, उत्पादव्ययध्रुवयुक्त जे,
गुणपर्ययाश्रय जेह, तेने द्रव्य सर्वज्ञो कहे। १०।
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सुमच्छेदः, उत्तरभावप्रादुर्भावश्च समुत्पादः, पूर्वोतरभावोच्छेदोत्पादयोरपि स्वजातेरपरित्यागो ध्रौव्यम्।
तानि सामान्यादेशाद–भिन्नानि विशेषादेशाद्भिन्नानि युगपद्भावीनि स्वभावभूतानि द्रव्यस्य लक्षणं
भवन्तीति। गुणपर्याया वा द्रव्यलक्षणम्। अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनोऽन्वयिनो विशेषा गुणा व्यतिरेकिणः
पर्यायास्ते द्रव्ये यौगपद्येन क्रमेण च प्रवर्तमानाः कथञ्चिद्भिन्नाः कथञ्चिदभिन्नाः स्वभावभूताः
द्रव्यलक्षणतामा–
‘सत्ता लक्षण है और द्रव्य लक्ष्य है’ – ऐसा विभाग किसप्रकार घटित होता है? उत्तरः––
अनेकान्तात्मक द्रव्यके अनन्त स्वरूप हैें, उनमेंसे सत्ता भी उसका एक स्वरूप है; इसलिये
अनन्तस्वरूपवाला द्रव्य लक्ष्य है और उसका सत्ता नामका स्वरूप लक्षण है – ऐसा लक्ष्यलक्षणविभाग
अवश्य घटित होता है। इसप्रकार अबाधितरूपसे सत् द्रव्यका लक्षण है।]
अथवा, उत्पादव्ययध्रौव्य द्रव्यका लक्षण है।
अर्थात वर्तमान भावकी उत्पत्ति] सो उत्पाद है और पूर्व–उत्तर भावोंके व्यय–उत्पाद होने पर भी
स्वजातिका अत्याग सो ध्रौव्य है। वे उत्पाद–व्यय–ध्रौव्य –– जो–कि सामान्य आदेशसे अभिन्न हैं
[अर्थात सामान्य कथनसे द्रव्यसे अभिन्न हैं], विशेष आदेशसे [द्रव्यसे] भिन्न हैं, युगपद् वर्तते हैें
और स्वभावभूत हैं वे – द्रव्यका लक्षण हैं।
क्रमशः प्रवर्तते हैं, [द्रव्यसे] कथंचित भिन्न और कथंचित अभिन्न हैं तथा स्वभावभूत हैं वे – द्रव्यका
लक्षण हैं।
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व्ययध्रौव्यवच्च गुणपर्यायवच्च। उत्पादव्ययध्रौव्यवच्चेत्सच्च गुणपर्यायवच्च। गुणपर्यायवच्चेत्स–
च्चोत्पादव्ययध्रौव्यवच्चेति। सद्धि निन्यानित्यस्वभावत्वाद्ध्रुवत्वमुत्पादव्ययात्मकताञ्च प्रथयति,
ध्रुवत्वात्मकैर्गुणैरुत्पादव्ययात्मकैः पर्यायैश्च सहैकत्वञ्चाख्याति। उत्पादव्ययध्रौव्याणि तु
नित्या–नित्यस्वरूपं
तो वह [१] उत्पादव्ययध्रौव्यवाला और [२] गुणपर्यायवाला होगा; यदि उत्पादव्ययध्रौव्यवाला हो,
तो वह [१] सत् और [२] गुणपर्यायवाला होगा; गुणपर्यायवाला हो, तो वह [१] सत् और [२]
उत्पादव्ययध्रौव्यवाला होगा। वह इसप्रकारः– सत् नित्यानित्यस्वभाववाला होनेसे [१] ध्रौव्यकोे और
उत्पादव्ययात्मकताको प्रकट करता है तथा [२] ध्रौव्यात्मक गुणों और उत्पादव्ययात्मक पर्यायोंके
साथ एकत्व दर्शाता है। उत्पादव्ययध्रौव्य [१] नित्यानित्यस्वरूप
इसप्रकार ‘द्रव्य उत्पादव्ययध्रौव्यवाला है ’ ऐसा कहनेसे ‘वह सत् है’ ऐसा भी बिना कहे ही आजाता है।]
‘द्रव्य उत्पादव्ययध्रौव्यवाला है’ –ऐसा कहनेसे वह गुणपर्यायवाला भी सिद्ध हो जाता है।]
व्यतिरेक द्वारा अनित्यतको बतलाते हैं ; –इसप्रकार वे नित्यानित्यस्वरूप सत्को बतलाते हैं।
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सच्चोपलक्षयन्तीति।।१०।।
विगमुप्पादधवत्तं करेंति तस्सेव पज्जाया।। ११।।
विगमोत्पादधुव्रत्वं कुर्वन्ति तस्यैव पर्यायाः।। ११।।
व्यतिरेकवाली होनेसे [१] ध्रौव्यको और उत्पादव्ययको सूचित करते हैं तथा [२]
नित्यानित्यस्वभाववाले पारमार्थिक सत्को बतलाते हैं।
विनाश, उत्पाद और ध्रुवता [कुर्वन्ति] करती हैं।
तेना ज जे पर्याय ते उत्पाद–लय–ध्रुवता करे। ११।
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क्रमप्रवृत्तिभाजां विनाशसंभवसंभावनमुपपन्नम्। ततो द्रव्यार्थार्पणायामनुत्पादमुच्छेदं सत्स्वभावमेव
द्रव्यं, तदेव पर्यायार्थार्पणायां सोत्पादं सोच्छेदं चावबोद्धव्यम्। सर्वमिदमनवद्यञ्च
द्रव्यपर्यायाणामभेदात्।। ११।।
दोण्हं अणण्णभूदं भावं समणा परुविंति।। १२।।
द्वयोरनन्यभूतं भावं श्रमणाः प्ररूपयन्ति।। १२।।
सहवर्ती कतिपय [पर्यायों] का ध्रौव्य होने पर भी अन्य क्रमवर्ती [पर्यायों] के–विनाश और उत्पाद
होना घटित होते हैं। इसलिये द्रव्य द्रव्यार्थिक आदेशसे [–कथनसे] उत्पाद रहित, विनाश रहित,
सत्स्वभाववाला ही जानना चाहिये और वही [द्रव्य] पर्यायार्थिक आदेशसे उत्पादवाला और
विनाशवाला जानना चाहिये।
अनन्यपना] [श्रमणाः] श्रमण [प्ररूपयन्ति] प्ररूपित करते हैं।
पर्याय तेम ज द्रव्य केरी अनन्यता श्रमणो कहे। १२।
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प्पेकास्तित्वनियतत्वादन्योन्याजहद्वृत्तीनां वस्तुत्वेनाभेद इति।। १२।।
अव्वदिरित्तो भावो
अव्यतिरिक्तो भावो द्रव्यगुणानां भवति तस्मात्।। १३।।
पुद्गलपृथग्भूतस्पर्शरसगन्धवर्णवद्र्रव्येण विना न गुणाः संभवन्ति स्पर्शरस–
उसीप्रकार द्रव्यसे रहित पर्यायें नहीं होती। इसलिये यद्यपि द्रव्य और पर्यायोंका आदेशवशात् [–
कथनके वश] कथंचित भेद है तथापि, वे एक अस्तित्वमें नियत [–द्रढ़रूपसे स्थित] होनेके कारण
[अव्यतिरिक्तः भावः] अव्यतिरिक्तभाव [–अभिन्नपणुं] [भवति] है।
तेथी गुणो ने द्रव्य केरी अभिन्नता निर्दिष्ट छे। १३।