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निर्मल करके [श्रीयोगीन्द्रजिन: ] श्रीयोगीन्द्रदेवसे [विज्ञापित: ] शुद्धात्मतत्त्वके जाननेके लिये
महाभक्तिकर विनती करते हैं
सुखं ] कुछ भी सुख [न प्राप्तं ] नहीं पाया, उल्टा [महत् दुखं एव प्राप्तं ] महान् दुःख ही
पाया है
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अजरामरपदविपरीतजातिजरामरणरूपेण मकरादिजलचरसमूहेन संकीर्णे अनाकुलत्वलक्षण-
पारमार्थिकसुखविपरीतनानामानसादिदुःखरूपवडवानलशिखासंदीपिताभ्यन्तरे वीतरागनिर्विकल्प-
समाधिविपरीतसंकल्पविकल्पजालरूपेण कल्लोलमालासमूहेन विराजिते संसारसागरे वसतां तिष्ठतां
हे स्वामिन्ननन्तकालो गतः
जलसे पूर्ण (भरा हुआ), अजर अमर पदसे उलटा जन्म जरा (बुढ़ापा) मरणरूपी
जलचरोंके समूहसे भरा हुआ, अनाकुलता स्वरूप निश्चय सुखसे विपरीत, अनेक प्रकार
आधि व्याधि दुःखरूपी बड़वानलकी शिखाकर प्रज्वलित, वीतराग निर्विकल्पसमाधिकर
रहित, महान संकल्प विकल्पोंके जालरूपी कल्लोलोंकी मालाओंकर विराजमान, ऐसे
संसाररूपी समुद्रमें रहते हुए मुझे हे स्वामी, अनंतकाल बीत गया
पंचेन्द्री, सैनी, छह पर्याप्तियोंकी संपूर्णता होना दुर्लभ है, उसमें भी मनुष्य होना अत्यंत
दुर्लभ, उसमें आर्यक्षेत्र दुर्लभ, उसमेंसे उत्तम कुल ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्ण पाना कठिन
है, उसमें भी सुन्दर रूप, समस्त पाँचों इन्द्रियोंकी प्रवीणता, दीर्घ आयु, बल, शरीर
અમર પદથી વિપરીત જન્મ, જરા, મરણરૂપ મગરાદિ જળચરસમૂહથી સંકીર્ણ અનાકુલત્વ
જેનું લક્ષણ છે એવા પારમાર્થિક સુખથી વિપરીત અનેક પ્રકારના માનસાદિ દુઃખરૂપ
વડવાનળશિખાથી અંદરમાં પ્રજ્વલિત, વીતરાગ નિર્વિકલ્પ સમાધિથી વિપરીત
સંકલ્પવિકલ્પજાળરૂપ કલ્લોલોના પંક્તિસમૂહથી વિરાજિત એવા સંસારસાગરમાં વસતાં રહેતાં
હે સ્વામી! અનંતકાળ ગયો, કારણ કે એકેન્દ્રિય, વિકલેન્દ્રિય, પંચેન્દ્રિય, સંજ્ઞી, પર્યાપ્ત,
મનુષ્યત્વ, આર્યક્ષેત્ર, ઉત્તમકુળ, સુંદરરૂપ, ઇન્દ્રિયપટુતા, નિર્વ્યાધિ આયુષ્ય, ઉત્તમબુદ્ધિ,
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નિવર્તન આ સર્વ ઉત્તરોત્તર એકબીજાથી દુર્લભ છે.
વિભાવપરિણામોની પ્રબળતા છે તેથી સમ્યગ્દર્શન, સમ્યગ્જ્ઞાન અને સમ્યક્ચારિત્રની પ્રાપ્તિ થતી
નથી. તેમનું પામવું તે બોધિ છે અને તેમનું જ નિર્વિઘ્નપણે ભવાન્તરમાં ધારી રાખવું તે સમાધિ
છે. આ પ્રમાણે બોધિ અને સમાધિનું લક્ષણ યથાસંભવ સર્વત્ર જાણવું.
निवृत्ति, क्रोधादि कषायोंका अभाव होना अत्यंत दुर्लभ है और इन सबोंसे उत्कृष्ट
शुद्धात्मभावनारूप वीतरागनिर्विकल्प समाधिका होना बहुत मुश्किल है, क्योंकि उस
समाधिके शत्रु जो मिथ्यात्व, विषय, कषाय, आदिका विभाव परिणाम हैं, उनकी प्रबलता
है
आकुलताके उत्पन्न करनेवाला नाना प्रकारका शरीरका तथा मनका दुःख ही चारों गतियोंमें
भ्रमण करते हुए पाया
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વિવિધ શારીરિક અને માનસિક ચાર ગતિના ભ્રમણમાં થતાં દુઃખો જ પ્રાપ્ત કર્યા.
किमपि न प्राप्तं किंतु तद्विपरीतमाकुलत्वोत्पादकं विविधशारीरमानसरूपं चतुर्गतिभ्रमणसंभवं
दुःखमेव प्राप्तमिति
कालतक संसाररूपी भयानक वनमें भटकता है
सुख ही आदर करने योग्य है
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પરમ આત્માથી ઉત્પન્ન એક (કેવળ) સહજાનંદરૂપ સુખામૃતથી સંતુષ્ટ જીવોનાં ચારગતિનાં
દુઃખના વિનાશક, ચિદાનંદ જેનો એક સ્વભાવ છે એવા જે કોઈ પરમાત્મા છે, તે જ પરમાત્માને
હે ભગવાન! કૃપા કરીને કહો. અહીં જે પરમસમાધિમાં રત જીવોનાં ચાર ગતિનાં દુઃખનો
વિનાશક છે તે જ પરમાત્મસ્વભાવ સર્વ પ્રકારે ઉપાદેય છે. ૧૦.
सहजानन्दैकसुखामृतसंतुष्टानां जीवानां चतुर्गतिदुःखविनाशकः कहहु पसाएं सो वि हे भगवन्
तमेव परमात्मानं महाप्रसादेन कथयति
गतियोंके दुःखोंका विनाश करनेवाला [य: कश्चित् ] जो कोई [परमात्मा ] चिदानंद परमात्मा
है, [तमपि ] उसको [प्रसादेन ] कृपा करके [कथय ] हे श्रीगुरू, तुम कहो
बलसे निज स्वभावकर उत्पन्न हुए परमानंद सुखामृतकर संतुष्ट हुआ है हृदय जिनका, ऐसे
निकट संसारी
देनेवाला है, वही सब तरह ध्यान करने योग्य है, सो ऐसे परमात्माका स्वरूप आपके
प्रसादसे सुनना चाहता हूँ
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मैं [त्रिविधं ] तीन प्रकारके [आत्मानं ] आत्माको [कथयामि ] कहता हूँ, सो [हे प्रभाकर
भट्ट ] हे प्रभाकरभट्ट, [त्वं ] तू [निशृणु ] निश्चयसे सुन
ભેદાભેદરત્નત્રયની ભાવના જેમને પ્રિય છે એવા, પરમાત્માની ભાવનાથી ઉત્પન્ન વીતરાગ
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निर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नसुखामृतविपरीतनारकादिदुःखभयभीता भव्यवरपुण्डरीका भरत-सगर-राम
-पाण्डव-श्रेणिकादयोऽपि वीतरागसर्वज्ञतीर्थंकरपरमदेवानां समवसरणे सपरिवारा भक्ति -
भरनमितोत्तमाङ्गाः सन्तः सर्वागमप्रश्नानन्तरं सर्वप्रकारोपादेयं शुद्धात्मानं पृच्छन्तीति
નારકાદિ દુઃખથી ભયભીત, ભવ્યોમાં મહા શ્રેષ્ઠ ભરત, સગર, રામચંદ્ર, પાંડવ, શ્રેણિક, વગેરે
પણ પરિવાર સહિત, વીતરાગ સર્વજ્ઞ તીર્થંકર પરમદેવના સમવસરણમાં અત્યંત ભક્તિભાવથી
મસ્તક નમાવતા સર્વ આગમોના પ્રશ્નો કર્યા પછી, સર્વ પ્રકારે ઉપાદેયભૂત શુદ્ધ આત્માનું સ્વરૂપ
જ પૂછતાં હતાં.
मस्तक हो गये हैं, महा विनयवाले परिवारसहित समोसरणमें आके, वीतराग सर्वज्ञ परमदेवसे
सर्व आगमका प्रश्नकर, उसके बाद सब तरहसे ध्यान करने योग्य शुद्धात्माका ही स्वरूप पूछते
थे
अजितनाथसे, रामचंद्र बलभद्रने देशभूषण कुलभूषण केवलीसे तथा सकलभूषण केवलीसे,
पांडवोंने श्रीनेमिनाथभगवान्से और राजा श्रेणिकने श्रीमहावीरस्वामीसे पूछा
वीतराग परमानंदरूप अमृतरसके प्यासे हैं, और वीतराग निर्विकल्पसमाधिकर उत्पन्न हुआ जो
सुखरूपी अमृत उससे विपरीत जो नारकादि चारों गतियोंके दुःख, उनसे भयभीत हैं
ही मैं जिनवाणीके अनुसार तुझे कहता हूँ
ज्ञान और स्वरूपका ही आचरण यह तो निश्चयरत्नत्रय है, इसीका दूसरा नाम अभेद भी है,
और देव-गुरु-धर्मकी श्रद्धा, नवतत्वोंकी श्रद्धा, आगमका ज्ञान तथा संयम भाव ये
व्यवहाररत्नत्रय हैं, इसीका नाम भेदरत्नत्रय है
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जो [परमात्मस्वभावः ] परमात्माका स्वभाव है, उसे [स्वज्ञानेन ] स्वसंवेदनज्ञानसे अंतरात्मा
होता हुआ [मन्यस्व ] जान
विशेषण क्यों कहा ? क्योंकि जो स्वसंवेदन ज्ञान होवेगा, वह तो रागरहित होवेगा ही
यथार्थ ज्ञान होता है, आकुलता रहित होता है
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स्वसंवेदन ज्ञान अर्थात् सम्यक्ज्ञान सर्वथा ही नहीं है, व्रत और चतुर्थ गुणस्थानमें सम्यग्दृष्टिके
मिथ्यात्व तथा अनंतानुबंधीके अभाव होनेसे सम्यग्ज्ञान तो हो गया, परंतु कषायकी तीन चौकड़ी
बाकी रहनेसे द्वितीयाके चंद्रमाके समान विशेष प्रकाश नहीं होता, और श्रावकके पाँचवें
गुणस्थानमें दो चौकड़ीका अभाव है, इसलिये रागभाव कुछ कम हुआ, वीतरागभाव बढ़ गया,
इस कारण स्वसंवेदनज्ञान भी प्रबल हुआ, परंतु दो चौकड़ीके रहनेसे मुनिके समान प्रकाश नहीं
हुआ
इसलिये छट्ठे गुणस्थानवाले मुनिराज सरागसंयमी हैं
आरूढ़ रहते हैं, सातवेंसे छठे गुणस्थानमें आवें, तब वहाँपर आहारादि क्रिया है, इसी प्रकार
छट्ठा सातवाँ करते रहते हैं, वहाँपर अंतर्मुहूर्तकाल है
स्वसंवेदनज्ञानका विशेष प्रकाश होता है, श्रेणी माँडनेसे शुक्लध्यान उत्पन्न होता है
जाते हैं, और उपशमवाले आठवें नवमें दशवेंसे ग्यारहवाँ स्पर्शकर पीछे पड़ जाते हैं, सो कुछ
कषायोंका सर्वथा नाश होता है, एक संज्वलनलोभ रह जाता है, अन्य सबका अभाव होनेसे
वीतराग भाव अति प्रबल हो जाता है, इसलिये स्वसंवेदनज्ञानका बहुत ज्यादा प्रकाश होता है,
परंतु एक संज्वलनलोभ बाकी रहनेसे वहाँ सरागचरित्र ही कहा जाता है
सिद्धि हो जाती है
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पहले ही हो चुका था, तब चारों घातिकर्मोंके नष्ट हो जानेसे तेरहवें गुणस्थानमें केवलज्ञान प्रगट
होता है, वहाँपर ही शुद्ध परमात्मा होता है, अर्थात् उसके ज्ञानका पूर्ण प्रकाश हो जाता है,
निःकषाय है
-बुद्ध स्वभाव परमात्मा अर्थात् रागादि रहित, अनंत ज्ञानादि सहित, भावद्रव्य कर्म नोकर्म रहित
आत्मा इसप्रकार [आत्मा ] आत्मा [त्रिविधो भवति ] तीन तरहका है, अर्थात् बहिरात्मा, अंतरात्मा,
परमात्मा, ये तीन भेद हैं
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-બ્રહ્મ-શુદ્ધબુદ્ધ-એક સ્વભાવી પરમાત્મા છે. શુદ્ધ, બુદ્ધ સ્વભાવનું સ્વરૂપ કહેવામાં આવે છે.
શુદ્ધ અર્થાત્ રાગાદિથી રહિત, બુદ્ધ અર્થાત્ અનંતજ્ઞાનાદિ ચતુષ્ટય સહિત, એ પ્રમાણે શુદ્ધ,
બુદ્ધ, સ્વભાવનું સ્વરૂપ સર્વત્ર જાણવું. એ રીતે આત્મા ત્રણ પ્રકારે છે.
તાત્પર્યાર્થ છે. ૧૩.
जानाति स जनो लोको मूढात्मा भवति इति
अपेक्षा वह अंतरात्मा हेय ही है, शुद्ध परमात्मा ही ध्यान करने योग्य है, ऐसा जानना
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દેહથી અભિન્ન અને નિશ્ચયનયથી દેહથી ભિન્ન, જ્ઞાનમય કેવળજ્ઞાનથી રચાયેલ પરમાત્માને જાણે
છે, તે જ પંડિત-વિવેકી અન્તરાત્મા છે
पंडिउ सो जि हवेइ वीतरागनिर्विकल्पसहजानन्दैकशुद्धात्मानुभूतिलक्षणपरमसमाधिस्थितः सन्
पण्डितोऽन्तरात्मा विवेकी स एव भवति
परमसमाधिमें तिष्ठता हुआ [पण्डितः ] अन्तरात्मा अर्थात् विवेकी [भवति ] है
देहादिकसे भिन्न है, और केवलज्ञानमयी है, ऐसा निज शुद्धात्माको वीतरागनिर्विकल्प सहजानंद
शुद्धात्माकी अनुभूतिरूप परमसमाधिमें स्थित होता हुआ जानता है, वही विवेकी अंतरात्मा
कहलाता है
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સમસ્તવિભાવપરિણામ રહિત મન વડે જાણ. અહીં ઉક્તલક્ષણયુક્ત પરમાત્મા ઉપાદેય છે, અને
केवलज्ञानमयी [आत्मा ] आत्मा [लब्धः ] पाया है, [तं ] उसको [मनसा ] शुद्ध मनसे [परं ]
परमात्मा [मन्यस्व ] जानो
लिया है, ऐसे आत्माको हे प्रभाकरभट्ट, तू माया, मिथ्या, निदानरूप शल्य वगैरह समस्त विभाव
(विकार) परिणामोंसे रहित निर्मल चित्तसे परमात्मा जान, तथा केवलज्ञानादि गुणोंवाला
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समझना चाहिए
व्यक्तिरूप सिद्धपनेको प्राप्त [यं एव ] जिस परमात्माको ही [ध्यायन्ति ] ध्यावते हैं, [लक्ष्यं ]
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ત્રણ લોકથી વંદિત અને કેવળજ્ઞાનાદિ વ્યક્તિરૂપ સિદ્ધપણાને પ્રાપ્ત જે પરમાત્માને ધ્યાવે છે તે
પરમાત્માને હે પ્રભાકરભટ્ટ! તું પરમાત્મા જાણ અર્થાત્ ભાવ.
પરિણામ તે) સંકલ્પ છે, ‘હું સુખી, હું દુઃખી,’ ઇત્યાદિ ચિત્તગત હર્ષવિષાદ આદિ પરિણામ તે
વિકલ્પ છે. એ પ્રમાણે સંકલ્પવિકલ્પનું સ્વરૂપ સર્વત્ર જાણવું.
करके [तमेव ] उसीको हे प्रभाकरभट्ट, तू [परमात्मानं ] परमात्मा [मन्यस्व ] जान कर
चिंतवन कर
तथा चांदी, सोना, रत्न, मणिके आभूषण आदि अचेतन पदार्थ हैं, इन सबको अपने समझे, कि
ये मेरे हैं, ऐसे ममत्व परिणामको संकल्प जानना
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આનંદરૂપે પરિણમેલા હોવાથી પરમાનંદસ્વભાવી
છે. તેવા એક (કેવળ) શુદ્ધબુદ્ધ સ્વભાવને તું જાણ અર્થાત્ શુદ્ધબુદ્ધ સ્વભાવને જાણ એ
અભિપ્રાય છે. ૧૭.
वीतरागानन्दपरिणतत्वात्परमानन्दस्वभावः जो एहउ सो संतु सिउ य इत्थंभूतः स शान्तः शिवो
भवति हे प्रभाकरभट्ट तासु मुणिज्जहि भाउ तस्य वीतरागत्वात् शान्तस्य परमानन्दसुखमयत्वात्
शिवस्वरूपस्य त्वं जानीहि भावय
[परमानंदस्वभावः ] शुद्धात्म भावना कर उत्पन्न हुए वीतराग परमानंदकर परिणत है, [यः
ई
कर
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છે, માત્ર જાણે છે એટલું જ નહિ પણ દ્રવ્યાર્થિકનયથી નિત્ય જ અથવા નિત્ય સર્વકાળને જ
નિયમથી જાણે છે તે શિવ છે અને શાંત છે.
सर्वकालमेव जानाति परं नियमेन
लाति ] कभी ग्रहण नहीं करता है, [सकलमपि ] तीन लोक तीन कालकी सब चीजोंको
[परं ] केवल [नित्यं ] हमेशा [जानाति ] जानता है, [सः ] वही [शिवः ] शिवस्वरूप तथा
[शांतः ] शांतस्वरूप [भवति ] है
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છે’’ એમ અન્ય કોઈપણ માને છે, પણ એમ નથી.
शिव है, अन्य कोई, एक जगत्कर्ता सर्वव्यापी सदा मुक्त शांत नैयायिकोंका तथा वैशेषिक
आदिका माना हुआ नहीं है
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[न ] नहीं है, मधुर, आम्ल (खट्टा), तिक्त, कटु, कषाय (क्षार) रूप पाँच रस नहीं हैं
[यस्य ] जिसके [शब्दः न ] भाषा अभाषारूप शब्द नहीं है, अर्थात् सचित्त अचित्त मिश्ररूप
कोई शब्द नहीं है, सात स्वर नहीं हैं, [स्पर्शःन ] शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, गुरु, लघु, मृदु,
कठिनरूप आठ तरहका स्पर्श नहीं है, [यस्य ] और जिसके [जन्म न ] जन्म, जरा नहीं है,
[मरणं नापि ] तथा मरण भी नहीं है [तस्य ] उसी चिदानंद शुद्धस्वभाव परमात्माकी
[निरंजनं नाम ] निरंजन संज्ञा है, अर्थात् ऐसे परमात्माको ही निरंजनदेव कहते हैं
जिसके माया व मान कषाय नहीं है, और [यस्य ] जिसके [स्थानं न ] ध्यानके स्थान
नाभि, हृदय, मस्तक, आदि नहीं है [ध्यानं न ] चित्तके रोकनेरूप ध्यान नहीं है, अर्थात् जब
चित्त ही नहीं है तो रोकना किसका हो, [स एव ] ऐसे निजशुद्धात्माको हे जीव, तू जान
सुने भोग इनकी इच्छारूप सब विभाव परिणामोंको छोड़कर अपने शुद्धात्माकी
अनुभूतिस्वरूप निर्विकल्पसमाधिमें ठहरकर उस शुद्धात्माका अनुभव कर
अपि दोषः ] क्षुधा (भूख) आदि दोषोंमेंसे एक भी दोष नहीं है [स एव ] वही शुद्धात्मा
[निरंजनः ] निरंजन है, ऐसा तू [भावय ] जान
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भाषात्मकाभाषात्मकादिभेदभिन्नः शब्दो नास्ति, शीतोष्णस्निग्धरूक्षगुरुलघुमृदुकठिनरूपोऽष्ट-
प्रकारः स्पर्शो नास्ति, पुनश्च यस्य जन्म मरणमपि नैवास्ति तस्य चिदानन्दैकस्वभावपरमात्मनो
निरञ्जनसंज्ञां लभते
ललाटादिध्यानस्थानानि चित्तनिरोधलक्षणध्यानमपि यस्य न तमित्थंभूतं स्वशुद्धात्मानं हे जीव
निरञ्जनं जानीहि