Page -11 of 513
PDF/HTML Page 22 of 546
single page version
कु न्द -प्रभा -प्रणयि -कीर्ति -विभूषिताशः
श्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम्
इस पृथ्वी पर किससे वन्द्य नहीं हैं ?
र्बाह्येपि संव्यञ्जयितुं यतीशः
चचार मन्ये चतुरङ्गुलं सः
Page -10 of 513
PDF/HTML Page 23 of 546
single page version
कि
तो मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते ?
शंका नहीं है
Page -9 of 513
PDF/HTML Page 24 of 546
single page version
वीतरागचरित्र उपादेय और सरागचारित्र हेय है ....६
चारित्रका स्वरूप .................................७
आत्मा ही चारित्र है .............................८
जीवका शुभ, अशुभ और शुद्धत्व................९
परिणाम वस्तुका स्वभाव है....... ............. १०
शुद्ध और शुभ -अशुभ परिणामका फल ... ११ -१२
शुद्धोपयोगपरिणत आत्माका स्वरूप .............. १४
शुद्धोपयोगसे होनेवाली शुद्धात्मस्वभावप्राप्ति ...... १५
शुद्धात्मस्वभावप्राप्ति कारकान्तरसे निरपेक्ष...... .. १६
‘स्वयंभू’के शुद्धात्मस्वभावप्राप्तिका अत्यन्त
उत्पाद
ज्ञानकी भाँति आत्माका भी सर्वगतत्त्व...... ... २६
आत्मा और ज्ञानके एकत्व
आत्मा पदार्थोंमें प्रवृत्त नहीं होता तथापि
होता है वह शक्तिवैचित्र्य...... .......... २९
बिना तथा पररूप परिणमित हुए बिना
सबको देखता
क्षय करते हैं............................. ३३
Page -8 of 513
PDF/HTML Page 25 of 546
single page version
वर्तती हैं ................................. ३७
अविद्यमान पर्यायोंकी ज्ञानप्रत्यक्षता
सबको न जाननेवाला एकको भी नहीं जानता
केवलीके ज्ञप्तिक्रियाका सद्भाव होने पर भी
उपसंहार करते हैं...... .................. ५२
विचार ................................... ५३
प्रशंसा...... ............................. ५४
प्रत्यक्षज्ञानको पारमार्थिक सुखरूप बतलाते हैं ... ५९
केवलज्ञानको भी परिणामके द्वारा खेदका
है
मुक्तात्माके सुखकी प्रसिद्धिके लिये, शरीर
Page -7 of 513
PDF/HTML Page 26 of 546
single page version
पुण्योत्पादक शुभोपयोगकी पापोत्पादक
पुण्य और पापकी अविशेषताका निश्चय
करते हैं..... ............................ ७७
अशेषदुःखक्षयका दृढ निश्चय करके
शुद्धोपयोगमें निवास...... ................ ७८
मोहकी सेना जीतनेका उपाय...... ............ ८०
चिन्तामणि प्राप्त किया होने पर भी, प्रमाद चोर
निश्चल स्थित होते हैं...... .............. ९२
स्वसमय
स्वरूप
Page -6 of 513
PDF/HTML Page 27 of 546
single page version
अतद्भावको उदाहरण द्वारा स्पष्टतया
द्रव्यके सत्
करते हैं.... .................... ११२
जीवको मनुष्यादि पर्यायें क्रियाका फल होनेसे
मनुष्यादि
वह कौनसा स्वरूप है जिसरूप आत्मा
उन (तीनों)को आत्मारूपसे निश्चित
द्रव्यके ‘क्रिया’ और ‘भाव’ रूप विशेष ..... १२९
गुणविशेषसे द्रव्यविशेष होता है...... ........ १३०
मूर्त और अमूर्त गुणोंके लक्षण
अमूर्त द्रव्योंके गुण..... ..................... १३३
द्रव्योंका प्रदेशवत्त्व और अप्रदेशवत्त्वरूप
प्रदेशवत्त्व और अप्रदेशवत्त्व किस
Page -5 of 513
PDF/HTML Page 28 of 546
single page version
आकाशके प्रदेशका लक्षण..... --------------- १४०
तिर्यक्प्रचय तथा ऊर्ध्वप्रचय...... ------------- १४१
कालपदार्थका ऊर्ध्वप्रचय निरन्वय है
अर्थनिश्चायक अस्तित्वको स्व
शरीर, वाणी और मनका परद्रव्यपना..... .. १६१
आत्माको परद्रव्यत्वका और उसके कर्तृत्वका
आत्माको शरीरपनेका अभाव..... .......... १७१
जीवका असाधारण स्वलक्षण................ १७२
अमूर्त आत्माको स्निग्ध
है ?
भावबन्धका स्वरूप.... ..................... १७५
भावबन्धकी युक्ति और द्रव्यबन्धका स्वरूप . १७६
पुद्गलबन्ध, जीवबन्ध और
भावबन्ध ही निश्चयबन्ध है.... ............. १७९
परिणामका द्रव्यबन्धके साधकतम रागसे
उपचार करके कार्यरूपसे बतलाते हैं....१८१
Page -4 of 513
PDF/HTML Page 29 of 546
single page version
जाता है ?..... ...................... १८६
अकेला ही आत्मा बन्ध है..... ............ १८८
निश्चय और व्यवहारका अविरोध ............ १८९
अशुद्धनयसे अशुद्ध आत्माकी ही प्राप्ति..... १९०
शुद्धनयसे शुद्धात्माकी ही प्राप्ति.... ......... १९१
ध्रुवत्वके कारण शुद्धात्मा ही उपलब्ध
मोहग्रंथि टूटनेसे क्या होता है.... .......... १९५
एकाग्रसंचेतनलक्षणध्यान अशुद्धता
उपरोक्त प्रश्नका उत्तर...... ............... १९८
शुद्धात्मोपलब्धिलक्षण मोक्षमार्गको निश्चित
करते हैं..... ........................ २००
छिन्न संयमके प्रतिसंधानकी विधि..... ....... २११
श्रामण्यके छेदके आयतन होनेसे परद्रव्य
उपधि अन्तरंग छेदकी भाँति त्याज्य है.... ... २१९
उपधिका निषेध वह अन्तरंग छेदका ही
Page -3 of 513
PDF/HTML Page 30 of 546
single page version
उपदेश..... ........................... २२२
‘उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है, अपवाद नहीं’ ....... २२४
अपवादके विशेष...... ...................... २२५
अनिषिद्ध शरीरमात्र
युक्ताहारका विस्तृत स्वरूप..... ............. २२९
उत्सर्ग
मोक्षमार्गियोंको आगम ही एक चक्षु..... .... २३४
आगमचक्षुसे सब कुछ दिखाई देता ही है.....२३५
आगमज्ञान, तत्पूर्वक तत्त्वार्थश्रद्धान और
मोक्षमार्गपना होनेका नियम..... ...... २३६
अकिंचित्कर.... ....................... २३९
लक्षण..... ........................... २४१
शुभोपयोगी श्रमणोंकी प्रवृत्ति..... ........... २४७
शुभोपयोगियोंके ही ऐसी प्रवृत्तियाँ
प्रवृत्तिके विषयके दो विभाग................. २५१
प्रवृत्तिके कालका विभाग...... .............. २५२
लोकसंभाषणप्रवृत्ति उसके निमित्तके विभाग
Page -2 of 513
PDF/HTML Page 31 of 546
single page version
जो श्रामण्यसे समान है उनका अनुमोदन न
करनेवालेका विनाश................... २६६
उसका विनाश..... ................... २६७
‘लौकिक’ (जन)का लक्षण .................. २६९
सत्संग करने योग्य है..... .................. २७०
मोक्षतत्त्व .................................... २७२
मोक्षतत्त्वका साधनतत्त्व ...................... २७३
मोक्षतत्त्वके साधनतत्त्वका अभिनन्दन.... .... २७४
शास्त्रकी समाप्ति ............................ २७५
आत्मद्रव्यकी प्राप्तिका प्रकार ................. ५३२
Page -1 of 513
PDF/HTML Page 32 of 546
single page version
नाथ है
स्वानुभूति प्राप्त होती है
Page 0 of 513
PDF/HTML Page 33 of 546
single page version
पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्रीप्रवचनसारनामधेयं, अस्य मूलग्रन्थकर्तारः
श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तारः श्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य
आचार्यश्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवविरचितं, श्रोतारः सावधानतया शृणवन्तु
Page 1 of 513
PDF/HTML Page 34 of 546
single page version
अमृतचंद्राचार्यदेव उपरोक्त श्लोकोंके द्वारा मङ्गलाचरण करते हुए ज्ञानानन्दस्वरूप परमात्माको
नमस्कार करते हैं :
है ) उस ज्ञानानन्दात्मक (ज्ञान और आनन्दस्वरूप) उत्कृष्ट आत्माको नमस्कार हो
Page 2 of 513
PDF/HTML Page 35 of 546
single page version
अर्थ :
र्दर्शनाधिकारः, ततश्च सप्तनवतिगाथाभिश्चारित्राधिकारश्चेति समुदायेनैकादशाधिकत्रिशतप्रमितसूत्रैः
सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूपेण महाधिकारत्रयं भवति
सिद्धिः, तदनन्तरं त्रयस्त्रिंशद्गाथापर्यन्तं ज्ञानप्रपञ्चः, ततश्चाष्टादशगाथापर्यन्तं सुखप्रपञ्चश्चेत्यन्तराधि-
कारचतुष्टयेन शुद्धोपयोगाधिकारो भवति
प्रथममहाधिकारे समुदायपातनिका ज्ञातव्या
प्रभृति गाथात्रयमथ शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयसूचनमुख्यत्वेन ‘जीवो परिणमदि’ इत्यादिगाथासूत्रद्वयमथ
तत्फलकथनमुख्यतया ‘धम्मेण परिणदप्पा’ इति प्रभृति सूत्रद्वयम्
‘अइसयमादसमुत्थं’ इत्यादि गाथाद्वयम्
Page 3 of 513
PDF/HTML Page 36 of 546
single page version
उत्थानिका करते हैं
अविद्याका
समस्त पक्षका परिग्रह (शत्रुमित्रादिका समस्त पक्षपात) त्याग देनेसे अत्यन्त मध्यस्थ होकर,
तयात्यंतमध्यस्थो भूत्वा सकलपुरुषार्थसारतया नितान्तमात्मनो हिततमां भगवत्पंचपरमेष्ठि-
प्रसादोपजन्यां परमार्थसत्यां मोक्षलक्ष्मीमक्षयामुपादेयत्वेन निश्चिन्वन् प्रवर्तमानतीर्थनायक-
पुरःसरान् भगवतः पंचपरमेष्ठिनः प्रणमनवंदनोपजनितनमस्करणेन संभाव्य सर्वारंभेण
मोक्षमार्गं संप्रतिपद्यमानः प्रतिजानीते
परित्यक्तसमस्तशत्रुमित्रादिपक्षपातेनात्यन्तमध्यस्थो भूत्वा धर्मार्थकामेभ्यः सारभूतामत्यन्तात्महिताम-
विनश्वरां पंचपरमेष्ठिप्रसादोत्पन्नां मुक्तिश्रियमुपादेयत्वेन स्वीकुर्वाणः, श्रीवर्धमानस्वामितीर्थकरपरमदेव-
प्रमुखान् भगवतः पंचपरमेष्ठिनो द्रव्यभावनमस्काराभ्यां प्रणम्य परमचारित्रमाश्रयामीति प्रतिज्ञां करोति
Page 4 of 513
PDF/HTML Page 37 of 546
single page version
वळी शेष तीर्थंकर अने सौ सिद्ध शुद्धास्तित्वने.
मुनि ज्ञान-
वंदुं वळी हुं मनुष्यक्षेत्रे वर्तता अर्हंतने. ३.
अर्हंतने, श्री सिद्धनेय नमस्करण करी ए रीते,
गणधर अने अध्यापकोने, सर्वसाधुसमूहने. ४.
रत्नत्रयात्मकप्रवर्तमानधर्मतीर्थोपदेशकं श्रीवर्धमानतीर्थकरपरमदेवम्
Page 5 of 513
PDF/HTML Page 38 of 546
single page version
भूतत्वाच्च तीर्थम्
[प्रणमामि ] नमस्कार करता हूँ
[ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारान् ] ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार युक्त
[श्रमणान् ]
प्राप्ति करूं हुं साम्यनी, जेनाथी शिवप्राप्ति बने. ५
Page 6 of 513
PDF/HTML Page 39 of 546
single page version
साधुभ्यः ] सर्व साधुओंको [नमः कृत्वा ] नमस्कार करके [तेषां ] उनके
[विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधानाश्रमं ]
घातिकर्ममलके धो डालनेसे जगत पर अनुग्रह करनेमें समर्थ अनन्तशक्तिरूप परमेश्वरता है, जो
तीर्थताके कारण योगियोंको तारनेमें समर्थ हैं, धर्मके कर्ता होनेसे जो शुद्ध स्वरूपपरिणतिके कर्ता
हैं, उन परम भट्टारक, महादेवाधिदेव, परमेश्वर, परमपूज्य, जिनका नामग्रहण भी अच्छा है ऐसे
श्री वर्धमानदेवको प्रवर्तमान तीर्थकी नायकताके कारण प्रथम ही, प्रणाम करता हूँ
त्वाच्छुद्धस्वरूपवृत्तिविधातारं, प्रवर्तमानतीर्थनायकत्वेन प्रथमत एव परमभट्टारकमहादेवाधिदेव-
परमेश्वरपरमपूज्यसुगृहीतनामश्रीवर्धमानदेवं प्रणमामि
Page 7 of 513
PDF/HTML Page 40 of 546
single page version
शेष
होनेसे मनुष्यक्षेत्रमें प्रवर्तमान तीर्थनायकयुक्त वर्तमानकालगोचर करके, (
विद्यमान हों, इसप्रकार अत्यन्त भक्तिके कारण भावना भाकर
सिद्धांश्च, ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारयुक्तत्वात्संभावितपरमशुद्धोपयोगभूमिकानाचार्योपाध्याय-
साधुत्वविशिष्टान् श्रमणांश्च प्रणमामि
स्तीर्थनायकैः सह वर्तमानकालं गोचरीकृत्य युगपद्युगपत्प्रत्येकं प्रत्येकं च मोक्षलक्ष्मीस्वयं-
वरायमाणपरमनैर्ग्रन्थ्यदीक्षाक्षणोचितमंगलाचारभूतकृतिकर्मशास्त्रोपदिष्टवन्दनाभिधानेन सम्भाव-
परिणतत्वात् सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारोपेतानिति