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य एव हि पूर्वपरिणामोच्छेदात्मकः प्रवाहसीमान्तः स एव हि तदुत्तरोत्पादात्मकः, स एव च परस्परानुस्यूतिसूत्रितैकप्रवाहतयातदुभयात्मक इति । एवमस्य स्वभावत एव त्रिलक्षणायां परिणामपद्धतौ दुर्ललितस्य स्वभावानतिक्रमात्त्रिलक्षणमेव सत्त्वमनुमोदनीयम्; मुक्ताफलदाम- वत् । यथैव हि परिगृहीतद्राघिम्नि प्रलम्बमाने मुक्ताफलदामनि समस्तेष्वपि स्वधामसूच्चकासत्सु मुक्ताफलेषूत्तरोत्तरेषु धामसूत्तरोत्तरमुक्ताफलानामुदयनात्पूर्वपूर्वमुक्ताफलानामनुदयनात् सर्वत्रापि परस्परानुस्यूतिसूत्रकस्य सूत्रकस्यावस्थानात्त्रैलक्षण्यं प्रसिद्धिमवतरति, तथैव हि परिगृहीत- नित्यवृत्तिनिवर्तमाने द्रव्ये समस्तेष्वपि स्वावसरेषूच्चकासत्सु परिणामेषूत्तरोत्तरेष्ववसरेषूत्तरोत्तर- परिणामानामुदयनात्पूर्वपूर्वपरिणामानामनुदयनात् सर्वत्रापि परस्परानुस्यूतिसूत्रकस्य प्रवाहस्या- वस्थानात्त्रैलक्षण्यं प्रसिद्धिमवतरति ।।९९।। समस्तरागादिविकल्पोपाधिरहितस्वसंवेदनज्ञानपर्यायस्य नाशस्तस्मिन्नेव समये तदुभयाधारभूतपरमात्म- द्रव्यस्य स्थितिरित्युक्तलक्षणोत्पादव्ययध्रौव्यत्रयेण संबन्धो भवतीति । एवमुत्पादव्ययध्रौव्यत्रयेणैकसमये बादके परिणामके उत्पादस्वरूप है, तथा वही परस्पर अनुस्यूतिसे रचित एकप्रवाहपने द्वारा अनुभयस्वरूप है ।
इसप्रकार स्वभावसे ही त्रिलक्षण परिणामपद्धतिमें (परिणामोंकी परम्परामें) प्रवर्तमान द्रव्य स्वभावका १अतिक्रम नहीं करता इसलिये २सत्त्वको ३त्रिलक्षण ही ४अनुमोदना चाहिये – मोतियोंके हारकी भाँति ।
जैसे – जिसने (अमुक) लम्बाई ग्रहण की है ऐसे लटकते हुये मोतियोंके हारमें, अपने- अपने स्थानोंमें प्रकाशित होते हुये समस्त मोतियोंमें, पीछे -पीछेके स्थानोंमें पीछे -पीछेके मोती प्रगट होते हैं इसलिये, और पहले -पहलेके मोती प्रगट नहीं होते इसलिये, तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूतिका रचयिता सूत्र अवस्थित होनेसे त्रिलक्षणत्व प्रसिद्धिको प्राप्त होता है । इसीप्रकार जिसने ५नित्यवृत्ति ग्रहण की है ऐसे रचित (परिणमित) द्रव्यमें अपने अपने अवसरोंमें प्रकाशित (प्रगट) होते हुये समस्त परिणामोंमें पीछे -पीछेके अवसरों पर पीछे पीछेके परिणाम प्रगट होते हैं इसलिये, और पहले -पहलेके परिमाम नहीं प्रगट होते हैं इसलिये, तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति रचनेवाला प्रवाह अवस्थित होनेसे त्रिलक्षणपना प्रसिद्धिको प्राप्त होता है । १. अतिक्रम = उल्लंघन; त्याग । २. सत्त्व = सत्पना; (अभेदनयसे) द्रव्य । ३. त्रिलक्षण = उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों लक्षणवाला; त्रिस्वरूप; त्रयात्मक । ४. अनुमोदना = आनंदमें सम्मत करना । ५. नित्यवृत्ति = नित्यस्थायित्व; नित्य अस्तित्व; सदा वर्तना ।
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कथनेन तृतीया, उत्पादव्ययध्रौव्यत्वेऽपि सत्तैव द्रव्यं भण्यत इति कथनेन चतुर्थीति गाथाचतुष्टयेन
भावार्थ : — प्रत्येक द्रव्य सदा स्वभावमें रहता है इसलिये ‘सत्’ है । वह स्वभाव उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यस्वरूप परिणाम है । जैसे द्रव्यके विस्तारका छोटेसे छोटा अंश वह प्रदेश है, उसीप्रकार द्रव्यके प्रवाहका छोटेसे छोटा अंश वह परिणाम है । प्रत्येक परिणाम स्व -कालमें अपने रूपसे उत्पन्न होता है, पूर्वरूपसे नष्ट होता है और सर्व परिणामोंमें एकप्रवाहपना होनेसे प्रत्येक परिणाम उत्पाद -विनाशसे रहित एकरूप – ध्रुव रहता है । और उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यमें समयभेद नहीं है, तीनों ही एक ही समयमें हैं । ऐसे उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यात्मक परिणामोंकी परम्परामें द्रव्य स्वभावसे ही सदा रहता है, इसलिये द्रव्य स्वयं भी, मोतियोंके हारकी भाँति, उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यात्मक है ।।९९।।
अन्वयार्थ : — [भवः ] उत्पाद [भङ्गविहीनः ] २भंग रहित [न ] नहीं होता, [वा ] और [भङ्गः ] भंग [संभवविहीनः ] विना उत्पादके [नास्ति ] नहीं होता; [उत्पादः ] उत्पाद [अपि च ] तथा [भङ्गः ] भंग [ध्रौव्येण अर्थेन विना ] ध्रौव्य पदार्थके बिना [न ] नहीं होते ।।१००।। १. अविनाभाव = एकके बिना दूसरेका नहीं होना वह; एक -दूसरे बिना हो ही नहीं सके ऐसा भाव । २. भंग = व्यय; नाश ।
उत्पाद भंग विना नहीं, संहार सर्ग विना नहीं; उत्पाद तेम ज भंग, ध्रौव्य -पदार्थ विण वर्ते नहीं. १००.
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न खलु सर्गः संहारमन्तरेण, न संहारो वा सर्गमन्तरेण, न सृष्टिसंहारौ स्थिति- मन्तरेण, न स्थितिः सर्गसंहारमन्तरेण । य एव हि सर्गः स एव संहारः, य एव संहारः स एव सर्गः, यावेव सर्गसंहारौ सैव स्थितिः, यैव स्थितिस्तावेव सर्गसंहाराविति । तथा हि — य एव कुम्भस्य सर्गः स एव मृत्पिण्डस्य संहारः, भावस्य भावान्तराभावस्वभावेनावभासनात् । य एव च मृत्पिण्डस्य संहारः स एव कुम्भस्य सर्गः, अभावस्य भावान्तरभावस्वभावेनाव- भासनात् । यौ च कुम्भपिण्डयोः सर्गसंहारौ सैव मृत्तिकायाः स्थितिः, ❃व्यतिरेकाणामन्वया- सत्तालक्षणविवरणमुख्यतया द्वितीयस्थलं गतम् । अथोत्पादव्ययध्रौव्याणां परस्परसापेक्षत्वं दर्शयति — ण भवो भंगविहीणो निर्दोषपरमात्मरुचिरूपसम्यक्त्वपर्यायस्य भव उत्पादः तद्विपरीतमिथ्यात्वपर्यायस्य भङ्गं विना न भवति । कस्मात् । उपादानकारणाभावात्, मृत्पिण्डभङ्गाभावे घटोत्पाद इव । द्वितीयं च कारणं मिथ्यात्वपर्यायभङ्गस्य सम्यक्त्वपर्यायरूपेण प्रतिभासनात् । तदपि कस्मात् । ‘‘भावान्तर- स्वभावरूपो भवत्यभाव’’ इति वचनात् । घटोत्पादरूपेण मृत्पिण्डभङ्ग इव । यदि पुनर्मिथ्यात्वपर्याय- भङ्गस्य सम्यक्त्वोपादानकारणभूतस्याभावेऽपि शुद्धात्मानुभूतिरुचिरूपसम्यक्त्वस्योत्पादो भवति, तर्ह्युपादानकारणरहितानां खपुष्पादीनामप्युत्पादो भवतु । न च तथा । भंगो वा णत्थि संभवविहीणो
टीका : — वास्तवमें १सर्ग २संहारके बिना नहीं होता और संहार सर्गके बिना नहीं होता; ३सृष्टि और संहार ४स्थिति (ध्रौव्य) के बिना नहीं होते, स्थिति सर्ग और संहारके बिना नहीं होती ।
जो सर्ग है वही संहार है, जो संहार है वही सर्ग है; जो सर्ग और संहार है वही स्थिति है; जो स्थिति है वही सर्ग और संहार है । वह इसप्रकार : — जो कुम्भका सर्ग है वही ५मृतिकापिण्डका संहार है; क्योंकि भावका भावान्तरके अभावस्वभावसे अवभासन है । (अर्थात् भाव अन्यभावके अभावरूप स्वभावसे प्रकाशित है – दिखाई देता है ।) और जो मृत्तिकापिण्डका संहार है वही कुम्भका सर्ग है, क्योंकि अभावका भावान्तरके भावस्वभावसे अवभासन है; (अर्थात् नाश अन्यभावके उत्पादरूप स्वभावसे प्रकाशित है ।)
और जो कुम्भका सर्ग और पिण्डका संहार है वही मृत्तिकाकी स्थिति है, क्योंकि ❃‘व्यतिरेकमुखेन.....क्रमणात्’ के स्थान पर निम्न प्रकार पाठ चाहिये ऐसा लगता है, ‘‘व्यतिरेकाणामन्वयानतिक्रमणात् । यैव च मृत्तिकायाः स्थितिस्तावेव कुम्भपिण्डयोः सर्गसंहारौ,
व्यतिरेकमुखेनैवान्वयस्य प्रकाशनात् ।’’ हिन्दी अनुवाद इस संशोधित पाठानुसार किया है । १. सर्ग = उत्पाद, उत्पत्ति । २. संहार = व्यय, नाश । ३. सृष्टि = उत्पत्ति । ४. स्थिति = स्थित रहना; ध्रुव रहना, ध्रौव्य । ५. मृत्तिकापिण्ड = मिट्टीका पिण्ड ।
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नतिक्रमणात् । यैव च मृत्तिकायाः स्थितिस्तावेव कुम्भपिण्डयोः सर्गसंहारौ, व्यतिरेक - मुखेनैवान्वयस्य प्रकाशनात् । यदि पुनर्नेदमेवमिष्येत तदान्यः सर्गोऽन्यः संहारः अन्या स्थितिरित्यायाति । तथा सति हि केवलं सर्गं मृगयमाणस्य कुम्भस्योत्पादनकारणाभावाद- भवनिरेव भवेत्, असदुत्पाद एव वा । तत्र कुम्भस्याभवनौ सर्वेषामेव भावानामभवनिरेव भवेत्; असदुत्पादे वा व्योमप्रसवादीनामप्युत्पादः स्यात् । तथा के वलं संहारमारभमाणस्य मृत्पिण्डस्य संहारकारणाभावादसंहरणिरेव भवेत्, सदुच्छेद एव वा । तत्र मृत्पिण्डस्यासंहरणौ परद्रव्योपादेयरुचिरूपमिथ्यात्वस्य भङ्गो नास्ति । कथंभूतः । पूर्वोक्तसम्यक्त्वपर्यायसंभवरहितः । कस्मादिति चेत् । भङ्गकारणाभावात्, घटोत्पादाभावे मृत्पिण्डस्येव । द्वितीयं च कारणं सम्यक्त्वपर्यायोत्पादस्य मिथ्यात्वपर्यायाभावरूपेण दर्शनात् । तदपि कस्मात् । पर्यायस्य पर्यायान्तराभावरूपत्वात्, घटपर्यायस्य मृत्पिण्डाभावरूपेणेव । यदि पुनः सम्यक्त्वोत्पादनिरपेक्षो भवति मिथ्यात्वपर्यायाभावस्तर्ह्यभाव एव न स्यात् । कस्मात् । अभावकारणाभावादिति, घटोत्पादाभावे १व्यतिरेक अन्वयका अतिक्रमण (उल्लंघन) नहीं करते, और जो मृत्तिकाकी स्थिति है वही कुम्भका सर्ग और पिण्डका संहार है, क्योंकि व्यतिरेकोंके द्वारा २अन्वय प्रकाशित होता है । और यदि ऐसा ही (ऊ पर समझाया तदनुसार) न माना जाय तो ऐसा सिद्ध होगा कि ‘सर्ग अन्य है, संहार अन्य है, स्थिति अन्य है ।’ (अर्थात् तीनों पृथक् हैं ऐसा माननेका प्रसंग आ जायगा ।) ऐसा होने पर (क्या दोष आता है, सो समझाते हैं) : —
केवल सर्ग -शोधक कुम्भकी (-व्यय और ध्रौव्यसे भिन्न मात्र उत्पाद करनेको जानेवाले कुम्भकी) ३उत्पादन कारणका अभाव होनेसे उत्पत्ति ही नहीं होगी; अथवा तो असत्का ही उत्पाद होगा । और वहाँ, (१) यदि कुम्भकी उत्पत्ति न होगी तो समस्त ही भावोंकी उत्पत्ति ही नहीं होगी । (अर्थात् जैसे कुम्भकी उत्पत्ति नहीं होगी उसीप्रकार विश्वके किसी भी द्रव्यमें किसी भी भावका उत्पाद ही नहीं होगा, – यह दोष आयगा); अथवा (२) यदि असत्का उत्पाद हो तो ४व्योम -पुष्प इत्यादिका भी उत्पाद होगा, (अर्थात् शून्यमेंसे भी पदार्थ उत्पन्न होने लगेंगे, – यह दोष आयगा ।)
और केवल व्ययारम्भक (उत्पाद और ध्रौव्यसे रहित केवल व्यय करनेको उद्यत मृत्तिकापिण्डका) संहारकारणका अभाव होनेसे संहार ही नहीं होगा; अथवा तो सत्का ही उच्छेद होगा । वहाँ, (१) यदि मृत्तिकापिण्डका व्यय न होगा तो समस्त ही भावोंका संहार १. व्यतिरेक = भेद; एक दूसरेरूप न होना वह; ‘यह वह नहीं है’ ऐसे ज्ञानका निमित्तभूत भिन्नरूपत्व । २. अन्वय = एकरूपता; सादृश्यता; ‘यह वही है’ ऐसे ज्ञानका कारणभूत एकरूपत्व । ३. उत्पादनकारण = उत्पत्तिका कारण । ४. व्योमपुष्प = आकाशके फू ल ।
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सर्वेषामेव भावानामसंहरणिरेव भवेत्; सदुच्छेदे वा संविदादीनामप्युच्छेदः स्यात् । तथा केवलां स्थितिमुपगच्छन्त्या मृत्तिकाया व्यतिरेकाक्रान्तस्थित्यन्वयाभावादस्थानिरेव भवेत्, क्षणिक- नित्यत्वमेव वा । तत्र मृत्तिकाया अस्थानौ सर्वेषामेव भावानामस्थानिरेव भवेत्; क्षणिकनित्यत्वे वा चित्तक्षणानामपि नित्यत्वं स्यात् । तत उत्तरोत्तरव्यतिरेकाणां सर्गेण पूर्वपूर्वव्यतिरेकाणां संहारेणान्वयस्यावस्थानेनाविनाभूतमुद्योतमाननिर्विघ्नत्रैलक्षण्यलांछनं द्रव्य- मवश्यमनुमन्तव्यम् ।।१००।। मृत्पिण्डाभावस्य इव । उप्पादो वि य भंगो ण विणा दव्वेण अत्थेण परमात्मरुचिरूपसम्यक्त्व- स्योत्पादस्तद्विपरीतमिथ्यात्वस्य भङ्गो वा नास्ति । कं विना । तदुभयाधारभूतपरमात्मरूपद्रव्यपदार्थं विना । कस्मात् । द्रव्याभावे व्ययोत्पादाभावान्मृत्तिकाद्रव्याभावे घटोत्पादमृत्पिण्डभङ्गाभाववदिति । यथा सम्यक्त्वमिथ्यात्वपर्यायद्वये परस्परसापेक्षमुत्पादादित्रयं दर्शितं तथा सर्वद्रव्यपर्यायेषु द्रष्टव्य- ही न होगा, (अर्थात् जैसे मृत्तिकापिण्डका संहार नहीं होगा उसीप्रकार विश्वके किसी भी द्रव्यमें किसी भावका संहार ही नहीं होगा, – यह दोष आयगा); अथवा (२) यदि सत्का उच्छेद होगा तो चैतन्य इत्यादिका भी उच्छेद हो जायगा, (अर्थात् समस्त द्रव्योंका सम्पूर्ण विनाश हो जायगा – यह दोष आयगा ।)
और १केवल स्थिति प्राप्त करनेको जानेवाली मृत्तिकाकी, व्यतिरेकों सहित स्थितिका — अन्वयका — उससे अभाव होनेसे, स्थिति ही नहीं होगी; अथवा तो क्षणिकको ही नित्यत्व आ जायगा । वहाँ (१) यदि मृत्तिकाकी स्थिति न हो तो समस्त ही भावोंकी स्थिति नहीं होगी, (अर्थात् यदि मिट्टी ध्रुव न रहे तो मिट्टीकी ही भाँति विश्वका कोई भी द्रव्य ध्रुव नहीं रहेगा, – टिकेगा ही नहीं यह दोष आयगा ।) अथवा (२) यदि क्षणिकका नित्यत्व हो तो चित्तके क्षणिक -भावोंका भी नित्यत्व होगा; (अर्थात् मनका प्रत्येक विकल्प भी त्रैकालिक ध्रुव हो जाय, – यह दोष आयगा ।)
इसलिये द्रव्यको २उत्तर उत्तर व्यतिरेकोंके सर्गके साथ, पूर्व पूर्वके व्यतिरेकोंके संहारके साथ और अन्वयके अवस्थान (ध्रौव्य)के साथ अविनाभाववाला, जिसको निर्विघ्न (अबाधित) त्रिलक्षणतारूप २लांछन प्रकाशमान है ऐसा अवश्य सम्मत करना ।।१००।। १. केवल स्थिति = (उत्पाद और व्यय रहित) अकेला ध्रुवपना, केवल स्थितिपना; अकेला अवस्थान ।
सकता । जैसे उत्पाद (या व्यय) द्रव्यका अंश है – समग्र द्रव्य नहीं, इसप्रकार ध्रौव्य भी द्रव्यका अंश
है; – समग्र द्रव्य नहीं । ] २. उत्तर उत्तर = बाद बादके । ३. लांछन = चिह्न ।
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उत्पादव्ययध्रौव्याणि हि पर्यायानालम्बन्ते, ते पुनः पर्याया द्रव्यमालम्बन्ते । ततः समस्तमप्येतदेकमेव द्रव्यं, न पुनर्द्रव्यान्तरम् । द्रव्यं हि तावत्पर्यायैरालम्ब्यते, समुदायिनः समुदायात्मकत्वात्; पादपवत् । यथा हि समुदायी पादपः स्कन्धमूलशाखासमुदायात्मकः मित्यर्थंः ।।१००।। अथोत्पादव्ययध्रौव्याणि द्रव्येण सह परस्पराधाराधेयभावत्वादन्वयद्रव्यार्थिकनयेन द्रव्यमेव भवतीत्युपदिशति — उप्पादट्ठिदिभंगा विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावात्मतत्त्वनिर्विकारस्वसंवेदनज्ञान- रूपेणोत्पादस्तस्मिन्नेव क्षणे स्वसंवेदनज्ञानविलक्षणाज्ञानपर्यायरूपेण भङ्ग, तदुभयाधारात्मद्रव्यत्वा- वस्थारूपेण स्थितिरित्युक्तलक्षणास्त्रयो भङ्गाः कर्तारः । विज्जंते विद्यन्ते तिष्ठन्ति । केषु । पज्जएसु
अब, उत्पादादिका द्रव्यसे अर्थान्तरत्वको नष्ट करते हैं; (अर्थात् यह सिद्ध करते हैं कि उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य द्रव्यसे पृथक् पदार्थ नहीं हैं) : —
अन्वयार्थ : — [उत्पादस्थितिभङ्गाः ] उत्पाद, ध्रौव्य और व्यय [पर्यायेषु ] पर्यायोंमें [विद्यन्ते ] वर्तते हैं; [पर्यायाः ] पर्यायें [नियतं ] नियमसे [द्रव्ये हि सन्ति ] द्रव्यमें होती हैं, [तस्मात् ] इसलिये [सर्वं ] वह सब [द्रव्यं भवति ] द्रव्य है ।।१०१।।
टीका : — उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य वास्तवमें पर्यायों का आलम्बन करते हैं, और वे पर्यायें द्रव्यका आलम्बन करती हैं, (अर्थात् उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य पर्यायोंके आश्रयसे हैं और पर्यायें द्रव्यके आश्रयसे हैं); इसलिये यह सब एक ही द्रव्य है, द्रव्यान्तर नहीं ।
प्रथम तो द्रव्य पर्यायोंके द्वारा आलम्बित है (अर्थात् पर्यायें द्रव्याश्रित हैं), क्योंकि १समुदायी समुदायस्वरूप होता है; वृक्षकी भाँति । जैसे समुदायी वृक्ष स्कंध, मूल और १. समुदायी = समुदायवान समुदाय (समूह) का बना हुआ । (द्रव्य समुदायी है क्योंकि पर्यायोंके
ने पर्ययो द्रव्ये नियमथी, सर्व तेथी द्रव्य छे. १०१.
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स्कन्धमूलशाखाभिरालम्बित एव प्रतिभाति, तथा समुदायि द्रव्यं पर्यायसमुदायात्मकं पर्यायैरालम्बितमेव प्रतिभाति । पर्यायास्तूत्पादव्ययध्रौव्यैरालम्ब्यन्ते, उत्पादव्ययध्रौव्याणामंश- धर्मत्वात्; बीजांकुरपादपत्ववत् । यथा किलांशिनः पादपस्य बीजांकुरपादपत्व- लक्षणास्त्रयोंऽशा भंगोत्पादध्रौव्यलक्षणैरात्मधर्मैरालम्बिताः सममेव प्रतिभान्ति, तथांशिनो द्रव्यस्योच्छिद्यमानोत्पद्यमानावतिष्ठमानभावलक्षणास्त्रयोंऽशा भंगोत्पादध्रौव्यलक्षणैरात्मधर्मैरा- लम्बिताः सममेव प्रतिभान्ति । यदि पुनभंगोत्पादध्रौव्याणि द्रव्यस्यैवेष्यन्ते तदा समग्रमेव विप्लवते । तथा हि — भंगे तावत् क्षणभंगकटाक्षितानामेकक्षण एव सर्वद्रव्याणां संहरणाद् द्रव्यशून्यतावतारः सदुच्छेदो वा । उत्पादे तु प्रतिसमयोत्पादमुद्रितानां प्रत्येकं द्रव्याणा- सम्यक्त्वपूर्वकनिर्विकारस्वसंवेदनज्ञानपर्याये तावदुत्पादस्तिष्ठति स्वसंवेदनज्ञानविलक्षणाज्ञानपर्यायरूपेण भङ्गस्तदुभयाधारात्मद्रव्यत्वावस्थारूपपर्यायेण ध्रौव्यं चेत्युक्तलक्षणस्वकीयस्वकीयपर्यायेषु । पज्जाया दव्वम्हि संति ते चोक्तलक्षणज्ञानाज्ञानतदुभयाधारात्मद्रव्यत्वावस्थारूपपर्याया हि स्फु टं द्रव्यं सन्ति । णियदं शाखाओंका समुदायस्वरूप होनेसे स्कंध, मूल और शाखाओंसे आलम्बित ही (भासित) दिखाई देता है, इसीप्रकार समुदायी द्रव्य पर्यायोंका समुदायस्वरूप होनेसे पर्यायोंके द्वारा आलम्बित ही भासित होता है । (अर्थात् जैसे स्कंध, मूल शाखायें वृक्षाश्रित ही हैं — वृक्षसे भिन्न पदार्थरूप नहीं हैं, उसीप्रकार पर्यायें द्रव्याश्रित ही हैं, — द्रव्यसे भिन्न पदार्थरूप नहीं हैं ।)
और पर्यायें उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यके द्वारा आलम्बित हैं (अर्थात् उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य पर्यायाश्रित हैं ) क्योंकि उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य अंशोंके धर्म हैं (-१अंशीके नहीं); बीज, अंकुर और वृक्षत्वकी भाँति । जैसे अंशी -वृक्षके बीज अंकुर -वृक्षत्वस्वरूप तीन अंश, व्यय -उत्पाद- ध्रौव्यस्वरूप निज धर्मोंसे आलम्बित एक साथ ही भासित होते हैं, उसीप्रकार अंशी -द्रव्यके, नष्ट होता हुआ भाव, उत्पन्न होता हुआ भाव, और अवस्थित रहनेवाला भाव; — यह तीनों अंश व्यय -उत्पाद -ध्रौव्यस्वरूप निजधर्मोंके द्वारा आलम्बित एक साथ ही भासित होते हैं । किन्तु यदि (१) भंग, (२) उत्पाद और (३) ध्रौव्यको (अंशीका न मानकर) द्रव्यका ही माना जाय तो सारा २विप्लव को प्राप्त होगा । यथा – (१) पहले, यदि द्रव्यका ही भंग माना जाय तो ३क्षणभंगसे लक्षित समस्त द्रव्योंका एक क्षणमें ही संहार हो जानेसे द्रव्यशून्यता आ जायगी, अथवा सत्का उच्छेद हो जायगा । (२) यदि द्रव्यका उत्पाद माना जाय तो समय -समय पर होनेवाले उत्पादके द्वारा चिह्नित ऐसे द्रव्योंको प्रत्येकको अनन्तता आ जायगी । (अर्थात् समय- १. अंशी = अंशोंवाला; अंशोंंका बना हुआ । (द्रव्य अंशी है ।) २. विप्लव = अंधाधुंधी = उथलपुथल; घोटाला; विरोध । ३. क्षण = विनाश जिनका लक्षण हो ऐसे ।
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मानन्त्यमसदुत्पादो वा । ध्रौव्ये तु क्रमभुवां भावानामभावाद् द्रव्यस्याभावः क्षणिकत्वं वा । अत उत्पादव्ययध्रौव्यैरालम्ब्यन्तां पर्यायाः पर्यायैश्च द्रव्यमालम्ब्यन्तां, येन समस्तमप्येतदेकमेव द्रव्यं भवति ।।१०१।।
निश्चितं प्रदेशाभेदेऽपि स्वकीयस्वकीयसंज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेन । तम्हा दव्वं हवदि सव्वं यतो निश्चयाधाराधेयभावेन तिष्ठन्त्युत्पादादयस्तस्मात्कारणादुत्पादादित्रयं स्वसंवेदनज्ञानादिपर्यायत्रयं चान्वय- समय पर होनेवाला उत्पाद जिसका चिह्न हो ऐसा प्रत्येक द्रव्य अनंत द्रव्यत्वको प्राप्त हो जायगा) अथवा असत्का उत्पाद हो जायगा; (३) यदि द्रव्यका ही ध्रौव्य माना जाय तो क्रमशः होनेवाले भावोंके अभावके कारण द्रव्यका अभाव आयगा, अथवा क्षणिकपना होगा ।
इसलिये उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यके द्वारा पर्यायें आलम्बित हों, और पर्यायोंके द्वारा द्रव्य आलम्बित हो, कि जिससे यह सब एक ही द्रव्य है ।
भावार्थ : — बीज, अंकुर और वृक्षत्व, यह वृक्षके अंश हैं । बीजका नाश, अंकुरका उत्पाद और वृक्षत्वका ध्रौव्य – तीनों एक ही साथ होते हैं । इसप्रकार नाश बीजके आश्रित है, उत्पाद अंकुरके आश्रित है, और ध्रौव्य वृक्षत्वके आश्रित है; नाश, उत्पाद और ध्रौव्य बीज अंकुर और वृक्षत्वसे भिन्न पदार्थरूप नहीं है । तथा बीज, अंकुर और वृक्षत्व भी वृक्षसे भिन्न पदार्थरूप नहीं हैं । इसलिये यह सब एक वृक्ष ही हैं । इसीप्रकार नष्ट होता हुआ भाव, उत्पन्न होता हुआ भाव और ध्रौव्य भाव सब द्रव्यके अंश हैं । नष्ट होते हुये भावका नाश, उत्पन्न होते हुये भावका उत्पाद और स्थायी भावका ध्रौव्य एक ही साथ है । इसप्रकार नाश नष्ट होते भावके आश्रित है, उत्पाद उत्पन्न होते भावके आश्रित है और ध्रौव्य स्थायी भावके आश्रित है । नाश, उत्पाद और ध्रौव्य उन भावोंसे भिन्न पदार्थरूप नहीं हैं । और वे भाव भी द्रव्यसे भिन्न पदार्थरूप नहीं हैं । इसलिये यह सब, एक द्रव्य ही हैं ।।१०१।।
अब, उत्पादादिका क्षणभेद १निरस्त करके वे द्रव्य हैं यह समझाते हैं : — १. निरस्त करके = दूर करके; नष्ट करके; खण्डित करके; निराकृत करके ।
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इह हि यो नाम वस्तुनो जन्मक्षणः स जन्मनैव व्याप्तत्वात् स्थितिक्षणो नाशक्षणश्च न भवति; यश्च स्थितिक्षणः स खलूभयोरन्तरालदुर्ललितत्वाज्जन्मक्षणो नाशक्षणश्च न भवति; यश्च नाशक्षणः स तूत्पद्यावस्थाय च नश्यतो जन्मक्षणः स्थितिक्षणश्च न भवति; — इत्युत्पादादीनां वितर्क्यमाणः क्षणभेदो हृदयभूमिमवतरति । अवतरत्येवं यदि द्रव्यमात्म- नैवोत्पद्यते आत्मनैवावतिष्ठते आत्मनैव नश्यतीत्यभ्युपगम्यते । तत्तु नाभ्युपगतम् । पर्यायाणा- द्रव्यार्थिकनयेन सर्वं द्रव्यं भवति । पूर्वोक्तोत्पादादित्रयस्य तथैव स्वसंवेदनज्ञानादिपर्यायत्रयस्य चानुगताकारेणान्वयरूपेण यदाधारभूतं तदन्वयद्रव्यं भण्यते, तद्विषयो यस्य स भवत्यन्वयद्रव्यार्थिकनयः । यथेदं ज्ञानाज्ञानपर्यायद्वये भङ्गत्रयं व्याख्यातं तथापि सर्वद्रव्यपर्यायेषु यथासंभवं ज्ञातव्यमित्य- भिप्रायः ।।१०१।। अथोत्पादादीनां पुनरपि प्रकारान्तरेण द्रव्येण सहाभेदं समर्थयति समयभेदं च निराकरोति — समवेदं खलु दव्वं समवेतमेकीभूतमभिन्नं भवति खलु स्फु टम् । किम् । आत्मद्रव्यम् । कैः सह । संभवठिदिणाससण्णिदट्ठेहिं सम्यक्त्वज्ञानपूर्वकनिश्चलनिर्विकारनिजात्मानुभूतिलक्षणवीतरागचारित्र- पर्यायेणोत्पादः तथैव रागादिपरद्रव्यैकत्वपरिणतिरूपचारित्रपर्यायेण नाशस्तदुभयाधारात्मद्रव्यत्वावस्था-
अन्वयार्थ : — [द्रव्यं ] द्रव्य [एकस्मिन् च एव समये ] एक ही समयमें [संभवस्थितिनाशसंज्ञितार्थैः ] उत्पाद, स्थिति और नाश नामक १अर्थोंके साथ [खलु ] वास्तवमें [समवेतं ] २समवेत (एकमेक) है; [तस्मात् ] इसलिये [तत् त्रितयं ] यह ३त्रितय [खलु ] वास्तवमें [द्रव्यं ] द्रव्य है ।।१०२।।
टीका : — (प्रथम शंका उपस्थित की जाती है : — ) यहाँ, (विश्वमें) वस्तुका जो जन्मक्षण है वह जन्मसे ही व्याप्त होनेसे स्थितिक्षण और नाशक्षण नहीं है, (-वह पृथक् ही होता है); जो स्थितिक्षण हो वह दोनोंके अन्तरालमें (उत्पादक्षण और नाशक्षणके बीच) दृढ़तया रहता है, इसलिये (वह) जन्मक्षण और नाशक्षण नहीं है; और जो नाशक्षण है वह, – वस्तु उत्पन्न होकर और स्थिर रहकर फि र नाशको प्राप्त होती है इसलिये, – जन्मक्षण और स्थितिक्षण नहीं है; — इसप्रकार तर्क पूर्वक विचार करने पर उत्पादादिका क्षणभेद हृदयभूमिमें उतरता है (अर्थात् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यका समय १. अर्थ = पदार्थ (८७ वीं गाथामें समझाया गया है, तद्नुसार पर्याय भी अर्थ है ।) २. समवेत = समवायवाला, तादात्म्यसहित जुड़ा हुवा, एकमेक । ३. त्रितय = तीनका समुदाय । (उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य, इन तीनोंका समुदाय वास्तवमें द्रव्य ही है ।)
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मेवोत्पादादयः, कुतः क्षणभेदः । तथा हि — यथा कुलालदण्डचक्रचीवरारोप्यमाणसंस्कार- सन्निधौ य एव वर्धमानस्य जन्मक्षणः, स एव मृत्पिण्डस्य नाशक्षणः, स एव च कोटिद्वयाधि- रूढस्य मृत्तिकात्वस्य स्थितिक्षणः, तथा अन्तरंगबहिरंगसाधनारोप्यमाणसंस्कारसन्निधौ य एवोत्तरपर्यायस्य जन्मक्षणः, स एव प्राक्तनपर्यायस्य नाशक्षणः, स एव च कोटिद्वयाधिरूढस्य द्रव्यत्वस्य स्थितिक्षणः । यथा च वर्धमानमृत्पिण्डमृत्तिकात्वेषु प्रत्येकवर्तीन्युत्पादव्ययध्रौव्याणि त्रिस्वभावस्पर्शिन्यां मृत्तिकायां सामस्त्येनैकसमय एवावलोक्यन्ते, तथा उत्तरप्राक्तन- रूपपर्यायेण स्थितिरित्युक्तलक्षणसंज्ञित्वोत्पादव्ययध्रौव्यैः सह । तर्हि किं बौद्धमतवद्भिन्नभिन्नसमये त्रयं भविष्यति । नैवम् । एक्कम्मि चेव समये अङ्गुलिद्रव्यस्य वक्रपर्यायवत्संसारिजीवस्य मरणकाले ऋजुगतिवत् क्षीणकषायचरमसमये केवलज्ञानोत्पत्तिवदयोगिचरमसमये मोक्षवच्चेत्येकस्मिन्समय एव । तम्हा दव्वं खु तत्तिदयं यस्मात्पूर्वोक्तप्रकारेणैकसमये भङ्गत्रयेण परिणमति तस्मात्संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेऽपि प्रदेशा- नामभेदात्त्रयमपि खु स्फु टं द्रव्यं भवति । यथेदं चारित्राचारित्रपर्यायद्वये भङ्गत्रयमभेदेन दर्शितं तथा भिन्न -भिन्न होता है, एक नहीं होता, — ऐसी बात हृदयमें जमती है ।)
(यहाँ उपरोक्त शंकाका समाधान किया जाता है : — इसप्रकार उत्पादादिका क्षणभेद हृदयभूमिमें तभी उतर सकता है जब यह माना जाय कि ‘द्रव्य स्वयं ही उत्पन्न होता है, स्वयं ही ध्रुव रहता है और स्वयं ही नाशको प्राप्त होता है !’ किन्तु ऐसा तो माना नहीं गया है; (क्योंकि यह स्वीकार और सिद्ध किया गया है कि) पर्यायोंके ही उत्पादादि हैं; (तब फि र) वहाँ क्षणभेद -कहाँसे हो सकता है ? यह समझते हैं : —
जैसे कुम्हार, दण्ड, चक्र और डोरी द्वारा आरोपित किये जानेवाले संस्कारकी उपस्थितिमें जो रामपात्रका जन्मक्षण होता है वही मृत्तिकापिण्डका नाशक्षण होता है, और वही दोनों १कोटियोंमें रहनेवाला मिट्टीपनका स्थितिक्षण होता है; इसीप्रकार अन्तरंग और बहिरंग साधनों द्वारा किये जानेवाले संस्कारोंकी उपस्थितिमें, जो उत्तर पर्यायका जन्मक्षण होता है वही पूर्व पर्यायका नाश क्षण होता है, और वही दोनों कोटियोंमें रहनेवाले द्रव्यत्वका स्थितिक्षण होता है ।
और जैसे रामपात्रमें, मृत्तिकापिण्डमें और मिट्टीपनमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य प्रत्येक रूपमें (प्रत्येक पृथक् पृथक्) वर्तते होने पर भी त्रिस्वभावस्पर्शी मृत्तिकामें वे सम्पूर्णतया (सभी एक साथ) एक समयमें ही देखे जाते हैं; इसीप्रकार उत्तर पर्यायमें, पूर्व पर्यायमें और द्रव्यत्वमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य प्रत्येकतया (एक -एक) प्रवर्तमान होने पर भी १. कोटि = प्रकार (मिट्टीपन तो पिण्डरूप तथा रामपात्ररूप – दोनों प्रकारोंमें विद्यमान है ।)
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पर्यायद्रव्यत्वेषु प्रत्येकवर्तीन्यप्युत्पादव्ययध्रौव्याणि त्रिस्वभावस्पर्शिनि द्रव्ये सामस्त्येनैक- समय एवावलोक्यन्ते । यथैव च वर्धमानपिण्डमृत्तिकात्ववर्तीन्युत्पादव्ययध्रौव्याणि मृत्तिकैव, न वस्त्वन्तरं; तथैवोत्तरप्राक्तनपर्यायद्रव्यत्ववर्तीन्यप्युत्पादव्ययध्रौव्याणि द्रव्यमेव, न खल्व- र्थान्तरम् ।।१०२।।
सर्वद्रव्यपर्यायेष्ववबोद्धव्यमित्यर्थः ।।१०२।। एवमुत्पादव्ययध्रौव्यरूपलक्षणव्याख्यानमुख्यतया गाथा- त्रयेण तृतीयस्थलं गतम् । अथ द्रव्यपर्यायेणोत्पादव्ययध्रौव्याणि दर्शयति — पाडुब्भवदि य प्रादुर्भवति च जायते । अण्णो अन्यः कश्चिदपूर्वानन्तज्ञानसुखादिगुणास्पदभूतः शाश्वतिकः । स कः । पज्जाओ १त्रिस्वभावस्पर्शी द्रव्यमें वे संपूर्णतया (तीनों एकसाथ) एक समयमें ही देखे जाते हैं ।
और जैसे रामपात्र, मृत्तिकापिण्ड तथा मिट्टीपनमें प्रवर्तमान उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य मिट्टी ही हैं, अन्य वस्तु नहीं; उसीप्रकार उत्तर पर्याय, पूर्व पर्याय, और द्रव्यत्वमें प्रवर्तमान उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य द्रव्य ही हैं, अन्य पदार्थ नहीं ।।१०२।।
अन्वयार्थ : — [द्रव्यस्य ] द्रव्यकी [अन्यः पर्यायः ] अन्य पर्याय [प्रादुर्भवति ] उत्पन्न होती है [च ] और [अन्यः पर्यायः ] कोई अन्य पर्याय [व्येति ] नष्ट होती है; [तदपि ] फि र भी [द्रव्यं ] द्रव्य [प्रणष्टं न एव ] न तो नष्ट है, [उत्पन्नं न ] न उत्पन्न है (- वह ध्रुव है ।)।।१०३।। १. त्रिस्वभावस्पर्शी = तीनों स्वभावोंको स्पर्श करनेवाला । (द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य – इन तीनों
स्वभावोंको धारण करता है ।) २. अनेकद्रव्यपर्याय = एकसे अधिक द्रव्योंके संयोगसे होनेवाली पर्याय ।
उपजे दरवनो अन्य पर्यय, अन्य को विणसे वळी, पण द्रव्य तो नथी नष्ट के उत्पन्न द्रव्य नथी तहीं. १०३.
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इह हि यथा किलैकस्त्र्यणुकः समानजातीयोऽनेकद्रव्यपर्यायो विनश्यत्यन्यश्चतुरणुकः प्रजायते, ते तु त्रयश्चत्वारो वा पुद्गला अविनष्टानुत्पन्ना एवावतिष्ठन्ते, तथा सर्वेऽपि समानजातीया द्रव्यपर्याया विनश्यन्ति प्रजायन्ते च, समानजातीनि द्रव्याणि त्वविनष्टानु- त्पन्नान्येवावतिष्ठन्ते । यथा चैको मनुष्यत्वलक्षणोऽसमानजातीयो द्रव्यपर्यायो विनश्यत्यन्य- स्त्रिदशत्वलक्षणः प्रजायते, तौ च जीवपुद्गलौ अविनष्टानुत्पन्नावेवावतिष्ठेते, तथा सर्वेऽप्यसमानजातीया द्रव्यपर्याया विनश्यन्ति प्रजायन्ते च, असमानजातीनि द्रव्याणि त्वविनष्टानुत्पन्नान्येवावतिष्ठन्ते । एवमात्मना ध्रुवाणि द्रव्यपर्यायद्वारेणोत्पादव्ययीभूतान्युत्पाद- व्ययध्रौव्याणि द्रव्याणि भवन्ति ।।१०३।। परमात्मावाप्तिरूपः स्वभावद्रव्यपर्यायः । पज्जओ वयदि अण्णो पर्यायो व्येति विनश्यति । कथंभूतः । अन्यः पूर्वोक्तमोक्षपर्यायाद्भिन्नो निश्चयरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिरूपस्यैव मोक्षपर्यायस्योपादानकारणभूतः । कस्य संबन्धी पर्यायः । दव्वस्स परमात्मद्रव्यस्य । तं पि दव्वं तदपि परमात्मद्रव्यं णेव पणट्ठं ण उप्पण्णं शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन नैव नष्टं न चोत्पन्नम् । अथवा संसारिजीवापेक्षया देवादिरूपो विभावद्रव्यपर्यायो जायते मनुष्यादिरूपो विनश्यति तदेव जीवद्रव्यं निश्चयेन न चोत्पन्नं न च विनष्टं, पुद्गलद्रव्यं वा द्वयणुकादिस्क न्धरूपस्वजातीयविभावद्रव्यपर्यायाणां विनाशोत्पादेऽपि निश्चयेन न चोत्पन्नं न च विनष्टमिति । ततः स्थितं यतः कारणादुत्पादव्ययध्रौव्यरूपेण द्रव्यपर्यायाणां विनाशोत्पादेऽपि द्रव्यस्य
टीका : — यहाँ (विश्वमें) जैसे एक त्रि -अणुक समानजातीय अनेक द्रव्यपर्याय विनष्ट होती है और दूसरी १चतुरणुक (समानजातीय अनेक द्रव्यपर्याय) उत्पन्न होती है; परन्तु वे तीन या चार पुद्गल (परमाणु) तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं ( – ध्रुव हैं ); इसीप्रकार सभी समानजातीय द्रव्यपर्यायें विनष्ट होती हैं और उत्पन्न होती हैं, किन्तु समानजातीय द्रव्य तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं (-ध्रुव हैं ) ।
और, जैसे एक मनुष्यत्वस्वरूप असमानजातीय द्रव्य -पर्याय विनष्ट होती है और दूसरी देवत्वस्वरूप (असमानजातीय द्रव्यपर्याय) उत्पन्न होती है, परन्तु वह जीव और पुद्गल तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं, इसीप्रकार सभी असमानजातीय द्रव्य -पर्यायें विनष्ट हो जाती हैं और उत्पन्न होती हैं, परन्तु असमानजातीय द्रव्य तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं ।
इस प्रकार अपनेसे (२द्रव्यरूपसे) ध्रुव और द्रव्यपर्यायों द्वारा उत्पाद -व्ययरूप ऐसे द्रव्य उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य हैं ।।१०३।। १. चतुरणुक = चार अणुओंका (परमाणुओंका) बना हुआ स्कंध । २. ‘द्रव्य’ शब्द मुख्यतया दो अर्थोंमें प्रयुक्त होता है : (१) एक तो सामान्य – विशेषके पिण्डको अर्थात्
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एकद्रव्यपर्याया हि गुणपर्यायाः, गुणपर्यायाणामेकद्रव्यत्वात् । एकद्रव्यत्वं हि तेषां सहकारफलवत् । यथा किल सहकारफलं स्वयमेव हरितभावात् पाण्डुभावं परिणम- त्पूर्वोत्तरप्रवृत्तहरितापाण्डुभावाभ्यामनुभूतात्मसत्ताकं हरितपाण्डुभावाभ्यां सममविशिष्टसत्ताक- विनाशो नास्ति, ततः कारणाद्द्रव्यपर्याया अपि द्रव्यलक्षणं भवन्तीत्यभिप्रायः ।।१०३।। अथ द्रव्यस्योत्पादव्ययध्रौव्याणि गुणपर्यायमुख्यत्वेन प्रतिपादयति — परिणमदि सयं दव्वं परिणमति स्वयं स्वयमेवोपादानकारणभूतं जीवद्रव्यं कर्तृ । कं परिणमति । गुणदो य गुणंतरं निरुपरागस्वसंवेदनज्ञान-
अन्वयार्थ : — [सदविशिष्टं ] सत्तापेक्षासे अविशिष्टरूपसे, [द्रव्यं स्वयं ] द्रव्य स्वयं ही [गुणतः च गुणान्तरं ] गुणसे गुणान्तररूप [परिणमते ] परिणमित होता है, अर्थात् द्रव्य स्वयं ही एक गुणपर्यायमेंसे अन्य गुणपर्यायरूप परिणमित होता है, और उसकी सत्ता गुणपर्यायोंकी सत्ताके साथ अविशिष्ट — अभिन्न — एक ही रहती है), [तस्मात् पुनः ] और उनसे [गुणपर्यायाः] गुणपर्यायें [द्रव्यम् एव इति भणिताः ] द्रव्य ही कही गई हैं ।।१०४।।
टीका : — गुणपर्यायें एक द्रव्यपर्यायें हैं, क्योंकि गुणपर्यायोंको एक द्रव्यपना है, (अर्थात् गुणपर्यायें एकद्रव्यकी पर्यायें हैं, क्योंकि वे एक ही द्रव्य हैं — भिन्न -भिन्न द्रव्य नहीं ।) उनका एकद्रव्यत्व आम्रफलकी भाँति है । जैसे – आम्रफल स्वयं ही हरितभावमेंसे पीतभावरूप परिणमित होता हुआ, प्रथम और पश्चात् प्रवर्तमान हरितभाव और पीतभावके द्वारा अपनी सत्ताका अनुभव करता है, इसलिये हरितभाव और पीतभावके साथ १अविशिष्ट १. अविशिष्ट सत्तावाला = अभिन्न सत्तावाला; एक सत्तावाला; (आमकी सत्ता हरे और पीले भावकी सत्तासे
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तयैकमेव वस्तु, न वस्त्वन्तरं, तथा द्रव्यं स्वयमेव पूर्वावस्थावस्थितगुणादुत्तरावस्थावस्थित- गुणं परिणमत्पूर्वोत्तरावस्थावस्थितगुणाभ्यां ताभ्यामनुभूतात्मसत्ताकं पूर्वोत्तरावस्थावस्थित- गुणाभ्यां सममविशिष्टसत्ताकतयैकमेव द्रव्यं, न द्रव्यान्तरम् । यथैव चोत्पद्यमानं पाण्डुभावेन व्ययमानं हरितभावेनावतिष्ठमानं सहकारफलत्वेनोत्पादव्ययध्रौव्याण्येकवस्तुपर्यायद्वारेण सहकारफलं, तथैवोत्पद्यमानमुत्तरावस्थावस्थितगुणेन व्ययमानं पूर्वावस्थावस्थितगुणेनावतिष्ठमानं द्रव्यत्वगुणेनोत्पादव्ययध्रौव्याण्येकद्रव्यपर्यायद्वारेण द्रव्यं भवति ।।१०४।। गुणात् केवलज्ञानोत्पत्तिबीजभूतात्सकाशात्सकलविमलकेवलज्ञानगुणान्तरम् । कथंभूतं सत्परिणमति । सदविसिट्ठं स्वकीयस्वरूपत्वाच्चिद्रूपास्तित्वादविशिष्टमभिन्नम् । तम्हा गुणपज्जाया भणिया पुण दव्वमेव त्ति तस्मात् कारणान्न केवलं पूर्वसूत्रोदिताः द्रव्यपर्यायाः द्रव्यं भवन्ति, गुणरूपपर्याया गुणपर्याया भण्यन्ते तेऽपि द्रव्यमेव भवन्ति । अथवा संसारिजीवद्रव्यं मतिस्मृत्यादिविभावगुणं त्यक्त्वा श्रुतज्ञानादि- सत्तावाला होनेसे एक ही वस्तु है, अन्य वस्तु नहीं; इसीप्रकार द्रव्य स्वयं ही १पूर्व अवस्थामें अवस्थित गुणमेंसे उत्तर अवस्थामें अवस्थित गुणरूप परिणमित होता हुआ, पूर्व और उत्तर अवस्थामें अवस्थित उन गुणोंके द्वारा अपनी सत्ताका अनुभव करता है, इसलिये पूर्व और उत्तर अवस्थामें अवस्थित गुणोंके साथ अवशिष्ट सत्तावाला होनेसे एक ही द्रव्य है, द्रव्यान्तर नहीं ।
(आमके दृष्टान्तकी भाँति, द्रव्य स्वयं ही गुणकी पूर्व पर्यायमेंसे उत्तरपर्यायरूप परिणमित होता हुआ, पूर्व और उत्तर गुणपर्यायोंके द्वारा अपने अस्तित्वका अनुभव करता है, इसलिये पूर्व और उत्तर गुणपर्यायोंके साथ अभिन्न अस्तित्व होनेसे एक ही द्रव्य है द्रव्यान्तर नहीं; अर्थात् वे वे गुणपर्यायें और द्रव्य एक ही द्रव्यरूप हैं, भिन्न -भिन्न द्रव्य नहीं हैं ।)
और, जैसे पीतभावसे उत्पन्न होता हरितभावसे नष्ट होता और आम्रफलरूपसे स्थिर रहता होनेसे आम्रफल एक वस्तुकी पर्यायों द्वारा उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य है, उसीप्रकार उत्तर अवस्थामें अवस्थित गुणसे उत्पन्न, पूर्व अवस्थामें अवस्थित गुणसे नष्ट और द्रव्यत्व गुणसे स्थिर होनेसे, द्रव्य एकद्रव्यपर्यायके द्वारा उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य है ।
भावार्थ : — इससे पूर्वकी गाथामें द्रव्यपर्यायके द्वारा (अनेक द्रव्यपर्यायोंके द्वारा) द्रव्यके उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य बताये गये थे । इस गाथामें गुणपर्यायके द्वारा (एक- द्रव्यपर्यायके द्वारा) द्रव्यके उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य बताये गये हैं ।।१०४।। १. पूर्व अवस्थामें अवास्थित गुण = पहलेकी अवस्थामें रहा हुआ गुण; गुणकी पूर्व पर्याय; पूर्व गुणपर्याय। प्र. २६
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यदि हि द्रव्यं स्वरूपत एव सन्न स्यात्तदा द्वितयी गतिः असद्वा भवति, सत्तातः पृथग्वा भवति । तत्रासद्भवद् ध्र्रौव्यस्यासंभवादात्मानमधारयद् द्रव्यमेवास्तं गच्छेत्; सत्तातः विभावगुणान्तरं परिणमति, पुद्गलद्रव्यं वा पूर्वोक्तशुक्लवर्णादिगुणं त्यक्त्वा रक्तादिगुणान्तरं परिणमति, हरितगुणं त्यक्त्वा पाण्डुरगुणान्तरमाम्रफलमिवेति भावार्थः ।।१०४।। एवं स्वभावविभावरूपा द्रव्यपर्याया गुणपर्यायाश्च नयविभागेन द्रव्यलक्षणं भवन्ति इति कथनमुख्यतया गाथाद्वयेन चतुर्थस्थलं गतम् । अथ
अब, सत्ता और द्रव्य अर्थान्तर (भिन्न पदार्थ, अन्य पदार्थ) नहीं होनेके सम्बन्धमें युक्ति उपस्थित करते हैं : —
अन्वयार्थ : — [यदि ] यदि [द्रव्यं ] द्रव्य [सत् न भवति ] (स्वरूपसे ही) सत् न हो तो — (१) [ध्रुवं असत् भवति ] निश्चयसे वह असत् होगा; [तत् कथं द्रव्यं ] (जो असत् होगा) वह द्रव्य कैसे हो सकता है ? [पुनः वा ] अथवा (यदि असत् न हो) तो (२) [अन्यत् भवति ] वह सत्तासे अन्य (पृथक्) हो ! (सो भी कैसे हो सकता है ?) [तस्मात् ] इसलिये [द्रव्यं स्वयं ] द्रव्य स्वयं ही [सत्ता ] है ।।१०५।।
टीका : — यदि द्रव्य स्वरूपसे ही १सत् न हो तो दूसरी गति यह हो कि वह — (१) २असत् होगा, अथवा (२) सत्तासे पृथक् होगा । वहाँ, (१) यदि वह असत् होगा तो, ध्रौव्यके असंभवके कारण स्वयं स्थिर न होता हुआ द्रव्यका ही ३अस्त हो जायगा; और १. सत् = मौजूद । २. असत् = नहीं मौजूद ऐसा । ३. अस्त = नष्ट । [जो असत् हो उसका टिकना -मौजूद रहना कैसा ? इसलिये द्रव्यको असत् माननेसे,
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पृथग्भवत्सत्तामन्तरेणात्मानं धारयत्तावन्मात्रप्रयोजनां सत्तामेवास्तं गमयेत् । स्वरूपतस्तु- सद्भवद् ध्र्रौव्यस्य संभवादात्मानं धारयद्द्रव्यमुद्गच्छेत्; सत्तातोऽपृथग्भूत्वा चात्मानं धारयत्ता- वन्मात्रप्रयोजनां सत्तामुद्गमयेत् । ततः स्वयमेव द्रव्यं सत्त्वेनाभ्युपगन्तव्यं, भावभाव- वतोरपृथक्त्वेनानन्यत्वात् ।।१०५।। सत्ताद्रव्ययोरभेदविषये पुनरपि प्रकारान्तरेण युक्तिं दर्शयति — ण हवदि जदि सद्दव्वं परमचैतन्यप्रकाशरूपेण स्वरूपेण स्वरूपसत्तास्तित्वगुणेन यदि चेत् सन्न भवति । किं कर्तृ । परमात्मद्रव्यं । तदा असद्धुवं होदि असदविद्यमानं भवति ध्रुवं निश्चितम् । अविद्यमानं सत् तं कधं दव्वं तत्परमात्मद्रव्यं कथं भवति, किंतु नैव । स च प्रत्यक्षविरोधः । कस्मात् । स्वसंवेदनज्ञानेन गम्यमानत्वात् । अथाविचारितरमणीयन्यायेन सत्तागुणाभावेऽप्यस्तीति चेत्, तत्र विचार्यते – यदि केवलज्ञानदर्शनगुणाविनाभूतस्वकीयस्वरूपास्ति- त्वात्पृथग्भूता तिष्ठति तदा स्वरूपास्तित्वं नास्ति, स्वरूपास्तित्वाभावे द्रव्यमपि नास्ति । अथवा स्वकीयस्वरूपास्तित्वात्संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेऽपि प्रदेशरूपेणाभिन्नं तिष्ठति तदा संमतमेव । अत्रावसरे सौगतमतानुसारी कश्चिदाह – सिद्धपर्यायसत्तारूपेण शुद्धात्मद्रव्यमुपचारेणास्ति, न च मुख्यवृत्त्येति । परिहारमाह — सिद्धपर्यायोपादानकारणभूतपरमात्मद्रव्याभावे सिद्धपर्यायसत्तैव न संभवति, वृक्षाभावे फलमिव । अत्र प्रस्तावे नैयायिकमतानुसारी कश्चिदाह — हवदि पुणो अण्णं वा तत्परमात्मद्रव्यं भवति पुनः किंतु सत्तायाः सकाशादन्यद्भिन्नं भवति पश्चात्सत्तासमवायात्सद्भवति । आचार्याः परिहारमाहुः — सत्तासमवायात्पूर्वं द्रव्यं सदसद्वा, यदि सत्तदा सत्तासमवायो वृथा, पूर्वमेवास्तित्वं तिष्ठति; अथासत्तर्हि (२) यदि सत्तासे पृथक् हो तो सत्ताके बिना भी स्वयं रहता हुआ, इतना ही मात्र जिसका प्रयोजन है ऐसी १सत्ताको ही अस्त कर देगा ।
किन्तु यदि द्रव्य स्वरूपसे ही सत् हो तो — (१) ध्रौव्यके सद्भावके कारण स्वयं स्थिर रहता हुआ, द्रव्य उदित होता है, (अर्थात् सिद्ध होता है); और (२) सत्तासे अपृथक् रहकर स्वयं स्थिर (-विद्यमान) रहता हुआ, इतना ही मात्र जिसका प्रयोजन है ऐसी सत्ताको उदित (सिद्ध) करता है ।
इसलिये द्रव्य स्वयं ही सत्त्व (सत्ता) है ऐसा स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि भाव और २भाववान्का अपृथक्त्व द्वारा अनन्यत्व है ।।१०५।। १. सत्ताका कार्य इतना ही है कि वह द्रव्यको विद्यमान रखे । यदि द्रव्य सत्तासे भिन्न रहकर भी
२. भाववान् = भाववाला । [द्रव्य भाववाला है और सत्ता उसका भाव है । वे अपृथक् हैं, इस अपेक्षासे
समझना चाहिये । ]
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प्रविभक्तप्रदेशत्वं हि पृथक्त्वस्य लक्षणम् । तत्तु सत्ताद्रव्ययोर्न संभाव्यते, गुणगुणिनोः प्रविभक्तप्रदेशत्वाभावात्, शुक्लोत्तरीयवत् । तथा हि — यथा य एव शुक्लस्य गुणस्य प्रदेशास्त खपुष्पवदविद्यमानद्रव्येण सह कथं सत्ता समवायं करोति, करोतीति चेत्तर्हि खपुष्पेणापि सह सत्ता कर्तृ समवायं करोतु, न च तथा । तम्हा दव्वं सयं सत्ता तस्मादभेदनयेन शुद्धचैतन्यस्वरूपसत्तैव परमात्मद्रव्यं भवतीति । यथेदं परमात्मद्रव्येण सह शुद्धचेतनासत्ताया अभेदव्याख्यानं कृतं तथा सर्वेषां चेतनाचेतनद्रव्याणां स्वकीयस्वकीयसत्तया सहाभेदव्याख्यानं कर्तव्यमित्यभिप्रायः ।।१०५।।
अथ पृथक्त्वलक्षणं किमन्यत्वलक्षणं च किमिति पृष्टे प्रत्युत्तरं ददाति — पविभत्तपदेसत्तं पुधत्तं पृथक्त्वं भवति पृथक्त्वाभिधानो भेदो भवति । किंविशिष्टम् । प्रकर्षेण विभक्तप्रदेशत्वं भिन्नप्रदेशत्वम् । किंवत् । दण्डदण्डिवत् । इत्थंभूतं पृथक्त्वं शुद्धात्मद्रव्यशुद्धसत्तागुणयोर्न घटते ।
अन्वयार्थ : — [प्रविभक्तप्रदेशत्वं ] विभक्तप्रदेशत्व वह [पृथक्त्वं ] पृथक्त्व है, [इति हि ] ऐसा [वीरस्य शासनं ] वीरका उपदेश है । [अतद्भावः ] अतद्भाव (उसरूप न होना) वह [अन्यत्व ] अन्यत्व है । [न तत् भवत् ] जो उसरूप न हो [कथं एकम् भवति ] वह एक कैसे हो सकता है ? (कथंचित् सत्ता द्रव्यरूप नहीं है और द्रव्य सत्तारूप नहीं है, इसलिये वे एक नहीं हैं ।)।।१०६।।
टीका : — विभक्त प्रदेशत्व (भिन्न प्रदेशत्व) पृथक्त्वका लक्षण है । वह तो सत्ता और द्रव्यमें सम्भव नहीं है, क्योंकि गुण और गुणीमें विभक्तप्रदेशत्वका अभाव होता है — शुक्लत्व और वस्त्रकी भाँति । वह इसप्रकार है कि जैसे – जो शुक्लत्वके – गुणके – प्रदेश हैं वे
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एवोत्तरीयस्य गुणिन इति तयोर्न प्रदेशविभागः, तथा य एव सत्ताया गुणस्य प्रदेशास्त एव द्रव्यस्य गुणिन इति तयोर्न प्रदेशविभागः । एवमपि तयोरन्यत्वमस्ति तल्लक्षणसद्भावात् । अतद्भावो ह्यन्यत्वस्य लक्षणं, तत्तु सत्ताद्रव्ययोर्विद्यत एव, गुणगुणिनोस्तद्भावस्याभावात्, शुक्लोत्तरीयवदेव । तथा हि — यथा यः किलैकचक्षुरिन्द्रियविषयमापद्यमानः समस्तेतरेन्द्रिय- ग्रामगोचरमतिक्रान्तः शुक्लो गुणो भवति, न खलु तदखिलेन्द्रियग्रामगोचरीभूतमुत्तरीयं भवति, यच्च किलाखिलेन्द्रियग्रामगोचरीभूतमुत्तरीयं भवति, न खलु स एकचक्षुरिन्द्रियविषयमापद्यमानः समस्तेतरेन्द्रियग्रामगोचरमतिक्रान्तः शुक्लो गुणो भवतीति तयोस्तद्भावस्याभावः; तथा या कस्माद्धेतोः । भिन्नप्रदेशाभावात् । क योरिव । शुक्लवस्त्रशुक्लगुणयोरिव । इदि सासणं हि वीरस्स इति शासनमुपदेश आज्ञेति । कस्य । वीरस्य वीराभिधानान्तिमतीर्थंकरपरमदेवस्य । अण्णत्तं तथापि प्रदेशाभेदेऽपि मुक्तात्मद्रव्यशुद्धसत्तागुणयोरन्यत्वं भिन्नत्वं भवति । कथंभूतम् । अतब्भावो अतद्भावरूपं संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदस्वभावम् । यथा प्रदेशरूपेणाभेदस्तथा संज्ञादिलक्षणरूपेणाप्यभेदो भवतु, को दोष इति चेत् । नैवम् । ण तब्भवं होदि तन्मुक्तात्मद्रव्यं शुद्धात्मसत्तागुणेन सह प्रदेशाभेदेऽपि ही वस्त्रके – गुणीके – हैं, इसलिये उनमें प्रदेशभेद नहीं है; इसीप्रकार जो सत्ताके – गुणके – प्रदेश हैं वे ही द्रव्यके – गुणीके – हैं, इसलिये उनमें प्रदेशभेद नहीं है ।
ऐसा होने पर भी उनमें (-सत्ता और द्रव्यमें) अन्यत्व है, क्योंकि (उनमें) अन्यत्वके लक्षणका सद्भाव है । १अतद्भाव अन्यत्वका लक्षण है । वह तो सत्ता और द्रव्यके है ही, क्योंकि गुण और गुणीके २तद्भावका अभाव होता है — शुक्लत्व और वस्त्रकी भाँति । वह इस प्रकार है कि : — जैसे एक चक्षुइन्द्रियके विषयमें आनेवाला और अन्य सब इन्द्रियोंके समूहको गोचर न होनेवाला शुक्लत्व गुण है वह समस्त इन्द्रिय समूहको गोचर होनेवाला ऐसा वस्त्र नहीं है; और जो समस्त इन्द्रियसमूहको गोचर होनेवाला वस्त्र है वह एक चक्षुइन्द्रियके विषयमें आनेवाला तथा अन्य समस्त इन्द्रियोंके समूहको गोचर न होनेवाला ऐसा शुक्लत्व गुण नहीं है, इसलिये उनके तद्भावका अभाव है; इसीप्रकार, ३किसीके आश्रय रहनेवाली, १. अतद्भाव = (कथंचित्) उसका न होना; (कथंचित्) उसरूप न होना (कथंचित्) अतद्रूपता । द्रव्य
कथंचित् सत्तास्वरूपसे नहीं है और सत्ता कथंचित् द्रव्यरूपसे नहीं है, इसलिये उनके अतद्भाव है । २. तद्भाव = उसका होना, उसरूप होना, तद्रूपता । ३. सत्ता द्रव्यके आश्रयसे रहती है, द्रव्यको किसीका आश्रय नहीं है । [जैसे घड़ेमें घी रहता है, उसीप्रकार
उसीप्रकार द्रव्यमें सत्ता है । ]
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किलाश्रित्य वर्तिनी निर्गुणैकगुणसमुदिता विशेषणं विधायिका वृत्तिस्वरूपा च सत्ता भवति, न खलु तदनाश्रित्य वर्ति गुणवदनेकगुणसमुदितं विशेष्यं विधीयमानं वृत्तिमत्स्वरूपं च द्रव्यं भवति; यत्तु किलानाश्रित्य वर्ति गुणवदनेकगुणसमुदितं विशेष्यं विधीयमानं वृत्तिमत्स्वरूपं च द्रव्यं भवति, न खलु साश्रित्य वर्तिनी निर्गुणैकगुणसमुदिता विशेषणं विधायिका वृत्तिस्वरूपा च सत्ता भवतीति तयोस्तद्भावस्याभावः । अत एव च सत्ताद्रव्ययोः कथंचिदनर्थान्तरत्वेऽपि संज्ञादिरूपेण तन्मयं न भवति । कधमेगं तन्मयत्वं हि किलैकत्वलक्षणं । संज्ञादिरूपेण तन्मयत्वाभावे कथमेकत्वं, किंतु नानात्वमेव । यथेदं मुक्तात्मद्रव्ये प्रदेशाभेदेऽपि संज्ञादिरूपेण नानात्वं कथितं तथैव १निर्गुण, एक गुणकी बनी हुई, २विशेषण ३विधायक और ४वृत्तिस्वरूप जो सत्ता है वह किसीके आश्रयके बिना रहनेवाला, गुणवाला, अनेक गुणोंसे निर्मित, ५विशेष्य, ६विधीयमान और ७वृत्तिमानस्वरूप ऐसा द्रव्य नहीं है, तथा जो किसीके आश्रयके बिना रहनेवाला, गुणवाला, अनेक गुणोंसे निर्मित, विशेष्य, विधीयमान और वृत्तिमानस्वरूप ऐसा द्रव्य है वह किसीके आश्रित रहनेवाली, निर्गुण, एक गुणसे निर्मित, विशेषण, विधायक और वृत्तिस्वरूप ऐसी सत्ता नहीं है, इसलिये उनके तद्भावका अभाव है । ऐसा होनेसे ही, यद्यपि, सत्ता और द्रव्यके कथंचित् अनर्थान्तरत्व (-अभिन्नपदार्थत्व, अनन्यपदार्थत्व) है तथापि उनके सर्वथा १. निर्गुण = गुणरहित [सत्ता निर्गुण है, द्रव्य गुणवाला है । जैसे आम वर्ण, गंध स्पर्शादि गुणयुक्त है, किन्तु
स्पर्श किया जाता है । और जैसे आत्मा ज्ञानगुणवाला, वीर्यगुणवाला इत्यादि है, परन्तु ज्ञानगुण कहीं
नहीं है । (यहाँ, जैसे दण्डी दण्डवाला है उसीप्रकार द्रव्यको गुणवाला नहीं समझना चाहिये; क्योंकि दण्डी
और दण्डमें प्रदेशभेद है, किन्तु द्रव्य और गुण अभिन्नप्रदेशी हैं । ] २. विशेषण = विशेषता; लक्षण; भेदक धर्म ।३. विधायक = विधान करनेवाला; रचयिता । ४. वृत्ति = होना, अस्तित्व, उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य । ५. विशेष्य = विशेषताको धारण करनेवाला पदार्थ; लक्ष्य; भेद्य पदार्थ — धर्मी । [जैसे मिठास, सफे दी,
विशेषताओंसे ज्ञात होती हुई, उन भेदोंसे भेदित होती हुई एक पदार्थ है; और जैसे ज्ञान, दर्शन, चारित्र,
वीर्य इत्यादि आत्माके विशेषण है और आत्मा उन विशेषणोंसे विशेषित होता हुआ (लक्षित, भेदित,
पहचाना जाता हुआ) पदार्थ है, उसीप्रकार सत्ता विशेषण है और द्रव्य विशेष्य है । (यहाँ यह नहीं भूलना
चाहिये कि विशेष्य और विशेषणोंके प्रदेशभेद नहीं हैं ।) ६. विधीयमान = रचित होनेवाला । (सत्ता इत्यादि गुण द्रव्यके रचयिता है और द्रव्य उनके द्वारा रचा जानेवाला
पदार्थ है ।) ७. वृत्तिमान = वृत्तिवाला, अस्तित्ववाला, स्थिर रहनेवाला । (सत्ता वृत्तिस्वरूप अर्थात् अस्तिस्वरूप है और
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सर्वथैकत्वं न शंक नीयं; तद्भावो ह्येकत्वस्य लक्षणम् । यत्तु न तद्भवद्विभाव्यते तत्कथमेकं स्यात् । अपि तु गुणगुणिरूपेणानेकमेवेत्यर्थः ।।१०६।।
सर्वद्रव्याणां स्वकीयस्वकीयस्वरूपास्तित्वगुणेन सह ज्ञातव्यमित्यर्थः ।।१०६।। अथातद्भावं विशेषेण विस्तार्य कथयति — सद्दव्वं सच्च गुणो सच्चेव य पज्जओ त्ति वित्थारो सद्द्रव्यं संश्च गुणः संश्चैव पर्याय इति सत्तागुणस्य द्रव्यगुणपर्यायेषु विस्तारः । तथाहि — यथा मुक्ताफलहारे सत्तागुण- एकत्व होगा ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि तद्भाव एकत्वका लक्षण है । जो उसरूप ज्ञात नहीं होता वह (सर्वथा) एक कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता; परन्तु गुण- गुणी -रूपसे अनेक ही है, ऐसा अर्थ है ।
भावार्थ : — भिन्नप्रदेशत्व वह पृथक्त्वका लक्षण है, और अतद्भाव वह अन्यत्वका लक्षण है । द्रव्यमें और गुणमें पृथक्त्व नहीं है फि र भी अन्यत्व है ।
और उसकी शुभ्रताके प्रदेश भिन्न नहीं हैं, इसलिये उनमें पृथक्त्व नहीं है । ऐसा होने पर भी शुभ्रता तो मात्र आँखोंसे ही दिखाई देती है, जीभ, नाक आदि शेष चार इन्द्रियोंसे ज्ञात नहीं होती । और वस्त्र पाँचों इन्द्रियोंसे ज्ञात होता है । इसलिये (कथंचित्) वस्त्र वह शुभ्रता नहीं है और शुभ्रता वह वस्त्र नहीं है । यदि ऐसा न हो तो वस्त्रकी भाँति शुभ्रता भी जीभ, नाक इत्यादि सर्व इन्द्रियोंसे ज्ञात होना चाहिये । किन्तु ऐसा नहीं होता । इसलिये वस्त्र और शुभ्रतामें अपृथक्त्व होने पर भी अन्यत्व है यह सिद्ध होता है ।
इसीप्रकार द्रव्यमें और सत्तादि गुणोंमें अपृथक्त्व होने पर भी अन्यत्व है; क्योंकि द्रव्यके और गुणके प्रदेश अभिन्न होने पर भी द्रव्यमें और गुणमें संज्ञा -संख्या -लक्षणादि भेद होनेसे (कथंचित्) द्रव्य गुणरूप नहीं है और गुण वह द्रव्यरूप नहीं है ।।१०६।।