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च परस्परानुस्यूतिसूत्रितैकप्रवाहतयातदुभयात्मक इति
वत्
नित्यवृत्तिनिवर्तमाने द्रव्ये समस्तेष्वपि स्वावसरेषूच्चकासत्सु परिणामेषूत्तरोत्तरेष्ववसरेषूत्तरोत्तर-
परिणामानामुदयनात्पूर्वपूर्वपरिणामानामनुदयनात
अनुभयस्वरूप है
प्रगट होते हैं इसलिये, और पहले -पहलेके मोती प्रगट नहीं होते इसलिये, तथा सर्वत्र परस्पर
अनुस्यूतिका रचयिता सूत्र अवस्थित होनेसे त्रिलक्षणत्व प्रसिद्धिको प्राप्त होता है
हैं इसलिये, और पहले -पहलेके परिमाम नहीं प्रगट होते हैं इसलिये, तथा सर्वत्र परस्पर
अनुस्यूति रचनेवाला प्रवाह अवस्थित होनेसे त्रिलक्षणपना प्रसिद्धिको प्राप्त होता है
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कथनेन तृतीया, उत्पादव्ययध्रौव्यत्वेऽपि सत्तैव द्रव्यं भण्यत इति कथनेन चतुर्थीति गाथाचतुष्टयेन
प्रत्येक परिणाम उत्पाद -विनाशसे रहित एकरूप
उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यात्मक है
उत्पाद [अपि च ] तथा [भङ्गः ] भंग [ध्रौव्येण अर्थेन विना ] ध्रौव्य पदार्थके बिना [न ]
नहीं होते
उत्पाद तेम ज भंग, ध्रौव्य -पदार्थ विण वर्ते नहीं. १००
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भासनात
तर्ह्युपादानकारणरहितानां खपुष्पादीनामप्युत्पादो भवतु
(अर्थात् नाश अन्यभावके उत्पादरूप स्वभावसे प्रकाशित है
‘‘व्यतिरेकाणामन्वयानतिक्रमणात्
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अन्य है, संहार अन्य है, स्थिति अन्य है
उच्छेद होगा
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मवश्यमनुमन्तव्यम्
किसी भावका संहार ही नहीं होगा,
जायगा
जाय,
त्रिलक्षणतारूप
सकता
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वस्थारूपेण स्थितिरित्युक्तलक्षणास्त्रयो भङ्गाः कर्तारः
[तस्मात् ] इसलिये [सर्वं ] वह सब [द्रव्यं भवति ] द्रव्य है
पर्यायें द्रव्यके आश्रयसे हैं); इसलिये यह सब एक ही द्रव्य है, द्रव्यान्तर नहीं
ने पर्ययो द्रव्ये नियमथी, सर्व तेथी द्रव्य छे.
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पर्यायैरालम्बितमेव प्रतिभाति
द्रव्यस्योच्छिद्यमानोत्पद्यमानावतिष्ठमानभावलक्षणास्त्रयोंऽशा भंगोत्पादध्रौव्यलक्षणैरात्मधर्मैरा-
लम्बिताः सममेव प्रतिभान्ति
भङ्गस्तदुभयाधारात्मद्रव्यत्वावस्थारूपपर्यायेण ध्रौव्यं चेत्युक्तलक्षणस्वकीयस्वकीयपर्यायेषु
देता है, इसीप्रकार समुदायी द्रव्य पर्यायोंका समुदायस्वरूप होनेसे पर्यायोंके द्वारा आलम्बित
ही भासित होता है
नष्ट होता हुआ भाव, उत्पन्न होता हुआ भाव, और अवस्थित रहनेवाला भाव;
जाय तो सारा
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द्रव्यं भवति
जायगा) अथवा असत्का उत्पाद हो जायगा; (३) यदि द्रव्यका ही ध्रौव्य माना जाय तो
क्रमशः होनेवाले भावोंके अभावके कारण द्रव्यका अभाव आयगा, अथवा क्षणिकपना होगा
अंकुर और वृक्षत्वसे भिन्न पदार्थरूप नहीं है
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यश्च नाशक्षणः स तूत्पद्यावस्थाय च नश्यतो जन्मक्षणः स्थितिक्षणश्च न भवति;
भिप्रायः
पृथक् ही होता है); जो स्थितिक्षण हो वह दोनोंके अन्तरालमें (उत्पादक्षण और
नाशक्षणके बीच) दृढ़तया रहता है, इसलिये (वह) जन्मक्षण और नाशक्षण नहीं है; और
जो नाशक्षण है वह,
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रूढस्य मृत्तिकात्वस्य स्थितिक्षणः, तथा अन्तरंगबहिरंगसाधनारोप्यमाणसंस्कारसन्निधौ य
एवोत्तरपर्यायस्य जन्मक्षणः, स एव प्राक्तनपर्यायस्य नाशक्षणः, स एव च कोटिद्वयाधिरूढस्य
द्रव्यत्वस्य स्थितिक्षणः
होता है, स्वयं ही ध्रुव रहता है और स्वयं ही नाशको प्राप्त होता है !’ किन्तु ऐसा तो
माना नहीं गया है; (क्योंकि यह स्वीकार और सिद्ध किया गया है कि) पर्यायोंके ही
उत्पादादि हैं; (तब फि र) वहाँ क्षणभेद -कहाँसे हो सकता है ? यह समझते हैं :
वही दोनों
होता है वही पूर्व पर्यायका नाश क्षण होता है, और वही दोनों कोटियोंमें रहनेवाले
द्रव्यत्वका स्थितिक्षण होता है
(सभी एक साथ) एक समयमें ही देखे जाते हैं; इसीप्रकार उत्तर पर्यायमें, पूर्व पर्यायमें
और द्रव्यत्वमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य प्रत्येकतया (एक -एक) प्रवर्तमान होने पर भी
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समय एवावलोक्यन्ते
र्थान्तरम्
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य द्रव्य ही हैं, अन्य पदार्थ नहीं
[तदपि ] फि र भी [द्रव्यं ] द्रव्य [प्रणष्टं न एव ] न तो नष्ट है, [उत्पन्नं न ] न उत्पन्न है (-
वह ध्रुव है
पण द्रव्य तो नथी नष्ट के उत्पन्न द्रव्य नथी तहीं
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समानजातीया द्रव्यपर्याया विनश्यन्ति प्रजायन्ते च, समानजातीनि द्रव्याणि त्वविनष्टानु-
त्पन्नान्येवावतिष्ठन्ते
सर्वेऽप्यसमानजातीया द्रव्यपर्याया विनश्यन्ति प्रजायन्ते च, असमानजातीनि द्रव्याणि
त्वविनष्टानुत्पन्नान्येवावतिष्ठन्ते
द्वयणुकादिस्क न्धरूपस्वजातीयविभावद्रव्यपर्यायाणां विनाशोत्पादेऽपि निश्चयेन न चोत्पन्नं न च
विनष्टमिति
अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं (-ध्रुव हैं )
अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं, इसीप्रकार सभी असमानजातीय द्रव्य -पर्यायें विनष्ट हो जाती
हैं और उत्पन्न होती हैं, परन्तु असमानजातीय द्रव्य तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं
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ही एक गुणपर्यायमेंसे अन्य गुणपर्यायरूप परिणमित होता है, और उसकी सत्ता गुणपर्यायोंकी
सत्ताके साथ अविशिष्ट
द्वारा अपनी सत्ताका अनुभव करता है, इसलिये हरितभाव और पीतभावके साथ
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गुणं परिणमत्पूर्वोत्तरावस्थावस्थितगुणाभ्यां ताभ्यामनुभूतात्मसत्ताकं पूर्वोत्तरावस्थावस्थित-
गुणाभ्यां सममविशिष्टसत्ताकतयैकमेव द्रव्यं, न द्रव्यान्तरम्
सहकारफलं, तथैवोत्पद्यमानमुत्तरावस्थावस्थितगुणेन व्ययमानं पूर्वावस्थावस्थितगुणेनावतिष्ठमानं
द्रव्यत्वगुणेनोत्पादव्ययध्रौव्याण्येकद्रव्यपर्यायद्वारेण द्रव्यं भवति
तेऽपि द्रव्यमेव भवन्ति
और उत्तर अवस्थामें अवस्थित उन गुणोंके द्वारा अपनी सत्ताका अनुभव करता है,
इसलिये पूर्व और उत्तर अवस्थामें अवस्थित गुणोंके साथ अवशिष्ट सत्तावाला होनेसे एक
ही द्रव्य है, द्रव्यान्तर नहीं
है, इसलिये पूर्व और उत्तर गुणपर्यायोंके साथ अभिन्न अस्तित्व होनेसे एक ही द्रव्य है
द्रव्यान्तर नहीं; अर्थात् वे वे गुणपर्यायें और द्रव्य एक ही द्रव्यरूप हैं, भिन्न -भिन्न द्रव्य
नहीं हैं
अवस्थामें अवस्थित गुणसे उत्पन्न, पूर्व अवस्थामें अवस्थित गुणसे नष्ट और द्रव्यत्व गुणसे
स्थिर होनेसे, द्रव्य एकद्रव्यपर्यायके द्वारा उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य है
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हरितगुणं त्यक्त्वा पाण्डुरगुणान्तरमाम्रफलमिवेति भावार्थः
भवति ] वह सत्तासे अन्य (पृथक्) हो ! (सो भी कैसे हो सकता है ?) [तस्मात् ] इसलिये
[द्रव्यं स्वयं ] द्रव्य स्वयं ही [सत्ता ] है
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प्रयोजन है ऐसी
स्वयं स्थिर (-विद्यमान) रहता हुआ, इतना ही मात्र जिसका प्रयोजन है ऐसी सत्ताको उदित
(सिद्ध) करता है
समझना चाहिये
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समवायं करोतु, न च तथा
इसलिये वे एक नहीं हैं
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द्रव्यस्य गुणिन इति तयोर्न प्रदेशविभागः
यच्च किलाखिलेन्द्रियग्रामगोचरीभूतमुत्तरीयं भवति, न खलु स एकचक्षुरिन्द्रियविषयमापद्यमानः
समस्तेतरेन्द्रियग्रामगोचरमतिक्रान्तः शुक्लो गुणो भवतीति तयोस्तद्भावस्याभावः; तथा या
उसीप्रकार द्रव्यमें सत्ता है
वस्त्र नहीं है; और जो समस्त इन्द्रियसमूहको गोचर होनेवाला वस्त्र है वह एक चक्षुइन्द्रियके
विषयमें आनेवाला तथा अन्य समस्त इन्द्रियोंके समूहको गोचर न होनेवाला ऐसा शुक्लत्व
गुण नहीं है, इसलिये उनके तद्भावका अभाव है; इसीप्रकार,
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न खलु तदनाश्रित्य वर्ति गुणवदनेकगुणसमुदितं विशेष्यं विधीयमानं वृत्तिमत्स्वरूपं च द्रव्यं
भवति; यत्तु किलानाश्रित्य वर्ति गुणवदनेकगुणसमुदितं विशेष्यं विधीयमानं वृत्तिमत्स्वरूपं च
द्रव्यं भवति, न खलु साश्रित्य वर्तिनी निर्गुणैकगुणसमुदिता विशेषणं विधायिका वृत्तिस्वरूपा
च सत्ता भवतीति तयोस्तद्भावस्याभावः
किसीके आश्रित रहनेवाली, निर्गुण, एक गुणसे निर्मित, विशेषण, विधायक और वृत्तिस्वरूप
ऐसी सत्ता नहीं है, इसलिये उनके तद्भावका अभाव है
स्पर्श किया जाता है
नहीं है
विशेषताओंसे ज्ञात होती हुई, उन भेदोंसे भेदित होती हुई एक पदार्थ है; और जैसे ज्ञान, दर्शन, चारित्र,
वीर्य इत्यादि आत्माके विशेषण है और आत्मा उन विशेषणोंसे विशेषित होता हुआ (लक्षित, भेदित,
पहचाना जाता हुआ) पदार्थ है, उसीप्रकार सत्ता विशेषण है और द्रव्य विशेष्य है
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गुणी -रूपसे अनेक ही है, ऐसा अर्थ है
होती
(कथंचित्) द्रव्य गुणरूप नहीं है और गुण वह द्रव्यरूप नहीं है