Page 208 of 513
PDF/HTML Page 241 of 546
single page version
विस्तार्यते, तथैकस्य द्रव्यस्य सत्तागुणः सद्द्रव्यं सद्गुणः सत्पर्याय इति त्रेधा विस्तार्यते
यश्च हारः सूत्रं मुक्ताफलं वा स न शुक्लो गुण इतीतरेतरस्य यस्तस्याभावः स तदभाव-
लक्षणोऽतद्भावोऽन्यत्वनिबन्धनभूतः, तथैकस्मिन् द्रव्ये यः सत्तागुणस्तन्न द्रव्यं नान्यो गुणो
भण्यत इति तद्भावस्य लक्षणमिदम्
अतद्भाव है
Page 209 of 513
PDF/HTML Page 242 of 546
single page version
स तदभावलक्षणोऽतद्भावोऽन्यत्वनिबन्धनभूतः
वाच्यो न भवति
‘अतद्भाव’ है, जो कि अन्यत्वका कारण है
ज्ञानादिगुण है या सिद्धत्वादि पर्याय है वह अस्तित्व गुण नहीं है
Page 210 of 513
PDF/HTML Page 243 of 546
single page version
शुद्धसत्तागुणो वाच्यो न भवति
और सिद्धत्वादि पर्यायको अतद्भाव है, जो कि उनमें अन्यत्वका कारण है
[इति निर्दिष्टः ] ऐसा (जिनेन्द्रदेव द्वारा) दरशाया गया है
Page 211 of 513
PDF/HTML Page 244 of 546
single page version
गुणस्याभावो द्रव्यमित्येकस्यापि द्रव्यस्यानेकत्वं स्यात
अतद्भाव है; क्योंकि इतनेसे ही अन्यत्वव्यवहार (-अन्यत्वरूप व्यवहार) सिद्ध होता है
अभाव होने पर द्रव्यका अभाव हो जायगा;
Page 212 of 513
PDF/HTML Page 245 of 546
single page version
मित्यत्राप्यपोहरूपत्वं स्यात
सत्तागुणाद्भिन्नं सत्पृथग्द्रव्यान्तरं प्राप्नोति
‘द्रव्यो स्वभावे स्थित सत् छे’
Page 213 of 513
PDF/HTML Page 246 of 546
single page version
प्रदेशेभ्यो भिन्नस्य मुक्तजीवद्रव्यस्याभावस्तथैव मुक्तजीवद्रव्यप्रदेशेभ्यो भिन्नस्य सत्तागुणस्याप्यभावः
इत्युभयशून्यत्वं प्राप्नोति
प्रयोजनादिभेदरूपस्यातद्भावस्य विवरणरूपेण तृतीया, तस्यैव दृढीकरणार्थं च चतुर्थीति द्रव्यगुण-
योरभेदविषये युक्तिकथनमुख्यतया गाथाचतुष्टयेन पञ्चमस्थलं गतम्
से अविशिष्ट (-सत्तासे अभिन्न है ऐसा) गुण है
परिणाम है; क्योंकि द्रव्यकी
Page 214 of 513
PDF/HTML Page 247 of 546
single page version
र्गुणगुणिभावः सिद्धयति
नन्दैकानुभूतिरूपः स्वस्थभावस्तस्योत्पादः, पूर्वोक्तविकल्पजालविनाशो व्ययः, तदुभयाधारभूतजीवत्वं
ध्रौव्यमित्युक्तलक्षणोत्पादव्ययध्रौव्यात्मकजीवद्रव्यस्य स्वभावभूतो योऽसौ परिणामः
तदेवेदं व्याख्यानम्, गुणकथनं पुनरधिकमिति तात्पर्यम्
द्रव्यविधायक (-द्रव्यका रचयिता) गुण ही है
Page 215 of 513
PDF/HTML Page 248 of 546
single page version
द्रव्यात्पृथग्भूतत्वेन वर्तते
[द्रव्यत्वं पुनः भावः ] और द्रव्यत्व वह भाव है (अर्थात् अस्तित्व गुण है); [तस्मात् ] इसलिये
[द्रव्यं स्वयं सत्ता ] द्रव्य स्वयं सत्ता (अस्तित्व) है
वर्तता है ? नहीं ही वर्तता
Page 216 of 513
PDF/HTML Page 249 of 546
single page version
न विद्यते
सहावे इति पाठान्तरम्
सद्भावसंबद्ध और असद्भावसंबद्ध उत्पादको [सदा लभते ] सदा प्राप्त करता है
Page 217 of 513
PDF/HTML Page 250 of 546
single page version
हेमवत
पर्यायनिष्पादिका व्यतिरेकव्यक्तीस्तास्ताः संक्रामतो हेम्नः सद्भावनिबद्ध एव प्रादुर्भावः
पर्यायनिष्पादिकाभिर्व्यतिरेकव्यक्तिभिस्ताभिस्ताभिः प्रभवावसानवर्जिता यौगपद्यप्रवृत्ता द्रव्य-
सद्भावसंबद्ध उत्पाद (सत् -उत्पाद, विद्यमानका उत्पाद) है
बाजूबंध इत्यादि पर्याय जितने स्थायी, क्रमशः प्रवर्तमान, बाजूबंध इत्यादि पर्यायोंकी उत्पादक
उन -उन व्यतिरेकव्यक्तियोंको प्राप्त होनेवाले सुवर्णका सद्भावसंबद्ध ही उत्पाद है
उत्पत्तिविनाश रहित, युगपत् प्रवर्तमान, द्रव्यकी उत्पादक अन्वयशक्तियोंको प्राप्त होनेवाले
Page 218 of 513
PDF/HTML Page 251 of 546
single page version
यौगपद्यप्रवृत्ता हेमनिष्पादिका अन्वयशक्तिः संक्रामतो हेम्नोऽसद्भावनिबद्ध एव प्रादुर्भावः
मासाद्यान्वयशक्तित्वमापन्नाः पर्यायान् द्रवीकुर्युः, तथांगदादिपर्यायनिष्पादिकाभिस्ताभि-
स्ताभिर्व्यतिरेकव्यक्तिभिर्यौगपद्यप्रवृत्तिमासाद्यान्वयशक्तित्वमापन्नाभिरंगदादिपर्याया अपि हेमी-
क्रियेरन्
जितनी टिकनेवाली, युगपत् प्रवर्तमान, सुवर्णकी उत्पादक अन्वयशक्तियोंको प्राप्त सुवर्णके
असद्भावयुक्त ही उत्पाद है
पर्यायोंको द्रव्य करता है (-पर्यायोंकी विवक्षाके समय भी व्यतिरेकव्यक्तियाँ अन्वयशक्तिरूप
बनती हुई पर्यायोंको द्रव्यरूप करती हैं ); जैसे बाजूबंध आदि पर्यायोंको उत्पन्न करनेवाली वे-
वे व्यतिरेकव्यक्तियाँ युगपत् प्रवृत्ति प्राप्त करके अन्वयशक्तिपनेको प्राप्त करती हुई बाजुबंध
इत्यादि पर्यायोंको सुवर्ण करता है तद्नुसार
होती हुई, द्रव्यको पर्यायें (-पर्यायरूप) करती हैं; जैसे सुवर्णकी उत्पादक अन्वयशक्तियाँ
उत्पाद (असत् -उत्पाद, अविद्यमानका उत्पाद) है
Page 219 of 513
PDF/HTML Page 252 of 546
single page version
पर्यायमात्र (-पर्यायमात्ररूप) करती हैं
द्रव्य तो तीनों कालमें विद्यमान है); इसलिये द्रव्यार्थिक नयसे तो द्रव्यको सत् -उत्पाद है; और
जब द्रव्यको गौण करके पर्यायोंका मुख्यतया कथन किया जाता है तब जो विद्यमान नहीं था
वह उत्पन्न होता है (क्योंकि वर्तमान पर्याय भूतकालमें विद्यमान नहीं थी), इसलिये पर्यायार्थिक
नयसे द्रव्यके असत् -उत्पाद है
विवक्षाके समय भी सत् -उत्पादमें, जो द्रव्य है वे ही पर्यायें ही हैं
Page 220 of 513
PDF/HTML Page 253 of 546
single page version
वश्यमेव भविष्यति
[पुनः ] परन्तु [भूत्वा ] मनुष्य देवादि होकर [किं ] क्या वह [द्रव्यत्वं प्रजहाति ] द्रव्यत्वको
छोड़ देता है ? [न जहत् ] नहीं छोड़ता हुआ वह [अन्यः कथं भवति ] अन्य कैसे हो सकता
है ? (अर्थात् वह अन्य नहीं, वहका वही है
अन्वयशक्ति तो अपतित -अविनष्ट -निश्चल होनेसे द्रव्य वहका वही है, अन्य नहीं
द्रव्यापेक्षासे अनन्यपना होनेसे, उसके सत् -उत्पाद है,
Page 221 of 513
PDF/HTML Page 254 of 546
single page version
यद्यपि निश्चयेन मनुष्यपर्याये देवपर्याये च समानं तथापि मनुजो देवो न भवति
प्रकारकी सत्ता) जिसके प्रगट है ऐसा वह (जीव), वही न हो ?
पूर्वभवमें मनुष्य था और अमुक भवमें तिर्यंच था’ ऐसा ज्ञान हो सकता है
जाता,
होता हुआ [अनन्य भावं कथं लभते ] अनन्यभावको कैसे प्राप्त हो सकता है ?
छोड़ता होनेसे अनन्य
Page 222 of 513
PDF/HTML Page 255 of 546
single page version
द्रव्यस्यासदुत्पादः
मन्यन्न स्यात
उत्पाद होता है उसमें पर्यायभूत स्वव्यतिरेकव्यक्तिका पहले असत्पना होनेसे, पर्यायें अन्य ही
हैं
मनुष्यादि पर्यायें उत्पन्न होती हैं ऐसा जीव द्रव्य भी
उन पर्यायोंका कर्ता सुवर्ण भी अन्य है, इसीप्रकार मनुष्य, देव इत्यादि पर्यायें अन्य हैं, इसलिये
उन पर्यायोंका कर्ता जीवद्रव्य भी पर्यायापेक्षासे अन्य है
वे पर्यायें अन्य अन्य हैं
Page 223 of 513
PDF/HTML Page 256 of 546
single page version
अन्य है, [तत्काले तन्मयत्वात् ] क्योंकि उस समय तन्मय होनेसे [अनन्यत् ] (द्रव्य पर्यायोंसे)
अनन्य है
छे अन्य, जेथी ते समय तद्रूप होई अनन्य छे. ११४
Page 224 of 513
PDF/HTML Page 257 of 546
single page version
मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मकेषु विशेषेषु व्यवस्थितं जीवसामान्यमेकमवलोकयतामनव-
लोकितविशेषाणां तत्सर्वं जीवद्रव्यमिति प्रतिभाति
सिद्धत्वपर्यायात्मकान् विशेषाननेकानवलोकयतामनवलोकितसामान्यानामन्यदन्यत्प्रतिभाति,
द्रव्यस्य तत्तद्विशेषकाले तत्तद्विशेषेभ्यस्तन्मयत्वेनानन्यत्वात
तदा नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायेषु व्यवस्थितं जीवसामान्यं जीवसामान्ये च व्यवस्थिता
नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मका विशेषाश्च तुल्यकालमेवावलोक्यन्ते
जीवोंको ‘वह सब जीव द्रव्य है’ ऐसा भासित होता है
नारकपना, तिर्यंचपना, मनुष्यपना, देवपना और सिद्धपना
है, क्योंकि द्रव्य उन -उन विशेषोंके समय तन्मय होनेसे उन -उन विशेषोंसे अनन्य है
उन पर्यायरूप विशेषोंके समय तन्मय होनेसे उनसे अनन्य है
(-द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक चक्षुओंके) देखा जाता है तब नारकपना, तिर्यंचपना, मनुष्यपना,
देवपना और सिद्धपना पर्यायोंमें रहनेवाला जीवसामान्य तथा जीवसामान्यमें रहनेवाला
नारकपना -तिर्यंचपना -मनुष्यपना -देवपना और सिद्धत्वपर्यायस्वरूप विशेष तुल्यकालमें ही
(एक ही साथ) दिखाई देते हैं
Page 225 of 513
PDF/HTML Page 258 of 546
single page version
प्रतिपादनेन चतुर्थीति सदुत्पादासदुत्पादव्याख्यानमुख्यतया गाथाचतुष्टयेन सप्तमस्थलं गतम्
प्रकारका विरोध नहीं है
चक्षुसे देखने पर द्रव्यके पर्यायरूप विशेष ज्ञात होते हैं, इसलिये द्रव्य अन्य -अन्य भासित
होता है
Page 226 of 513
PDF/HTML Page 259 of 546
single page version
पररूपेण २, स्वपररूपयौगपद्येन ३, स्वपररूपक्र मेण ४, स्वरूपस्वपररूपयौगपद्याभ्यां ५,
पररूपस्वपररूपयौगपद्याभ्यां ६, स्वरूपपररूपस्वपररूपयौगपद्यैः ७, आदिश्यमानस्य स्वरूपेण
शुद्धचैतन्यं भावश्चेत्युक्तलक्षणद्रव्यादिचतुष्टय इति प्रथमभङ्गः १
पर्यायसे ‘अवक्तव्य’ है, [केनचित् पर्यायेण तु तदुभयं ] और किसी पर्यायसे ‘अस्ति-
नास्ति’ [वा ] अथवा [अन्यत् आदिष्टम् ] किसी पर्यायसे अन्य तीन भंगरूप कहा
गया है
स्वरूप -पररूपकी युगपत् अपेक्षासे ‘स्यात् अस्ति -अवक्तव्य’; (६) पररूपकी और
स्वरूप -पररूपकी युगपत् अपेक्षासे ‘स्यात् नास्ति’, अवक्तव्य; और (७) स्वरूपकी,
पररूपकी तथा स्वरूप -पररूपकी युगपत् अपेक्षासे ‘स्यात् अस्ति -नास्ति -अवक्तव्य’ है
पर्यायरूपसे परिणत वर्तमान समय वह काल है, और शुद्ध चैतन्य वह भाव है
Page 227 of 513
PDF/HTML Page 260 of 546
single page version
स्वरूपस्वपररूपयौगपद्याभ्यां सतो वक्तुमशक्यस्य च, पररूपस्वपररूपयौगपद्याभ्यामसतो वक्तुम-
शक्यस्य च, स्वरूपपररूपस्वपररूपयौगपद्यैः सतोऽसतो वक्तुमशक्यस्य चानन्तधर्मणो द्रव्यस्यै-
कैकं धर्ममाश्रित्य विवक्षिताविवक्षितविधिप्रतिषेधाभ्यामवतरन्ती सप्तभंगिकैवकारविश्रान्तम-
स्यादस्तिनास्त्येवावक्तव्यम्
तन्नयसप्तभङ्गीज्ञापनार्थमिति भावार्थः
और पररूपसे क्रमशः ‘सत् और असत्’ है; (५) जो स्वरूपसे, और स्वरूप -पररूपसे
युगपत् ‘सत् और अवक्तव्य’ है; (६) जो पररूपसे, और स्वरूप -पररूपसे युगपत्
‘असत् और अवक्तव्य’ है; तथा (७) जो स्वरूपसे पर -रूप और स्वरूप -पररूपसे
युगपत् ‘सत्’, ‘असत्’ और ‘अवक्तव्य’ है