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तृतीया, द्रव्यस्य सत्तादिलक्षणत्रयसूचनरूपेण चतुर्थीति स्वतन्त्रगाथाचतुष्टयेन पीठिकास्थलम्
सत्तागुणोऽपीति कथनरूपेण तृतीया, उत्पादव्ययध्रौव्यत्वेऽपि सत्तैव द्रव्यं भवतीति कथनेन चतुर्थीति
गाथाचतुष्टयेन सत्तालक्षणविवरणमुख्यता
बदलती रहती हैं, इसप्रकार) प्रकाशित करते हैं :
निषेध किया है
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स्यातद्भावस्य विवरणरूपेण तृतीया, तस्यैव दृढीकरणार्थं चतुर्थीति गाथाचतुष्टयेन सत्ताद्रव्ययोर-
भेदविषये युक्तिकथनमुख्यता
स्वभावनिष्पन्न क्रिया नहीं हो सो बात नहीं है; (अर्थात् विभावस्वभावसे उत्पन्न होनेवाली राग-
द्वेषमय क्रिया अवश्य है
मनुष्यादिपर्यायरूप फल उत्पन्न नहीं करती; राग -द्वेषमय क्रिया तो अवश्य वह फल उत्पन्न
करती है
टंकोत्कीर्ण नहीं है; क्योंकि वे पर्यायें पूर्व -पूर्व पर्यायोंके नाशमें प्रवर्तमान क्रिया फलरूप होनेसे
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सूत्रगाथैका
रागादिपरिणाम एव द्रव्यकर्मकारणत्वाद्भावकर्म भण्यत इति परिणाममुख्यत्वेन ‘आदा कम्ममलिमसो’
इत्यादिसूत्रद्वयं, तदनन्तरं क र्मफलचेतना क र्मचेतना ज्ञानचेतनेति त्रिविधचेतनाप्रतिपादनरूपेण
‘परिणमदि चेदणाए’ इत्यादिसूत्रत्रयं, तदनन्तरं शुद्धात्मभेदभावनाफलं कथयन् सन् ‘कत्ताकरणं’
इत्याद्येकसूत्रेणोपसंहरति
कथयति
निष्फला तथापि नानादुःखदायकस्वकीयकार्यभूतमनुष्यादिपर्यायनिर्वर्तकत्वात्सफलेति मनुष्यादि-
पर्यायनिष्पत्तिरेवास्याः फलम्
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धर्मः, स केवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयव्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारस्योत्पादकत्वात्सफलोऽपि नरनारकादि-
पर्यायकारणभूतं ज्ञानावरणादिकर्मबन्धं नोत्पादयति, ततः कारणान्निष्फलः
नष्ट हो गया है ऐसे अणुकी परिणति द्विअणुक कार्यकी निष्पादक नहीं है उसीप्रकार, मोहके
साथ मिलनका नाश होने पर वही क्रिया
अभिभूत करी तिर्यंच, देव, मनुष्य वा नारक करे. ११७.
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[नरं तिर्यञ्चं नैरयिकं वा सुरं ] मनुष्य, तिर्यंच, नारक अथवा देव (-इन पर्यायोंको) [करोति ]
करता है
कर्म है
होनेसे उस (-पुद्गलकर्म) की कार्यभूत मनुष्यादिपर्यायोंका अभाव होता है
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तिरस्कृत्य वर्तिस्थानीयशरीराधारेण दीपशिखास्थानीयनरनारकादिपर्यायरूपेण परिणमयति
पराभव करके की जानेवाली मनुष्यादिपर्यायें कर्मके कार्य हैं
मनुष्यादिपर्यायोंको उत्पन्न करते हैं
[ते न लब्धस्वभावाः ] उन्हें स्वभावकी उपलब्धि नहीं है
निज कर्मरूप परिणमनथी ज स्वभावलब्धि न तेमने. ११८.
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कर्मपरिणमनान्नामूर्तत्वनिरुपरागविशुद्धिमत्त्वस्वभावमुपलभते
माणिकके स्वभावका पराभव नहीं होता तदनुसार
वृक्षोंकी लम्बी पंक्तिरूप) परिणमित होता हुआ ( अपने
(अपने) अमूर्तत्व और
इसलिये उसे अपने स्वभावकी उपलब्धि नहीं है
करता, और स्वादकी अपेक्षासे वृक्षरूप परिणमित होता हुआ अपने स्वादिष्टपनेरूप स्वभावको
उपलब्ध नहीं करता, उसीप्रकार आत्मा भी प्रदेशकी अपेक्षासे स्वकर्मानुसार परिणमित होता
हुआ अपने अमूर्तस्वरूप स्वभावको उपलब्ध नहीं करता और भावकी अपेक्षासे स्वकर्मरूप
परिणमित होता हुआ उपरागसे रहित विशुद्धिवालापनारूप अपने स्वभावको उपलब्ध नहीं
करता
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लक्षणसुखामृतास्वादनैर्मल्यादिस्वकीयगुणसमूहं न लभत इति
होता है; [हि ] क्योंकि [यः भवः सः विलयः ] जो उत्पाद है वही विनाश है;
[संभव -विलयौ इति तौ नाना ] और उत्पाद तथा विनाश, इसप्रकार वे अनेक (भिन्न) भी
हैं
कारण जनम ते नाश छे; वळी जन्म नाश विभिन्न छे. ११९.
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स्वरूपयोरेकत्वासंभवात्तदुभयाधारभूतं ध्रौव्यं संभवति; ततो देवादिपर्याये संभवति मनुष्यादि-
पर्याये विलीयमाने च य एव संभवः स एव विलय इति कृत्वा तदुभयाधारभूतं
ध्रौव्यवज्जीवद्रव्यं संभाव्यत एव
जगति कश्चिदपि, तस्मान्नैव जायते न चोत्पद्यत इति हेतुं वदति
और उत्पादका पक्ष फलित होता है
है वही विनाश है’ ऐसा कहा जाने पर उत्पाद और विनाशके स्वरूपका एकपना असम्भव होनेसे
उन दोनोंका आधारभूत ध्रौव्य प्रगट होता है; इसलिये देवादिपर्यायके उत्पन्न होने और
मनुष्यादिपर्यायके नष्ट होने पर, ‘जो उत्पाद है वही विलय है’ ऐसा माननेसे (इस अपेक्षासे)
उन दोनोंका आधारभूत ध्रौव्यवान् जीवद्रव्य प्रगट होता है (-लक्षमें आता है ) इसलिये सर्वदा
द्रव्यपनेसे जीव टंकोत्कीर्ण रहता है
(-दोनोंका भिन्न -भिन्न) स्वरूप प्रगट होता है, उसीप्रकार ‘अन्य उत्पाद है और अन्य व्यय
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चान्यः संभवोऽन्यो विलय इति कृत्वा संभवविलयवन्तौ देवादिमनुष्यादिपर्यायौ संभाव्येते एव
ततः प्रतिक्षणं पर्यायैर्जीवोऽनवस्थितः
और व्ययका स्वरूप प्रगट होता है; इसलिये देवादिपर्यायके उत्पन्न होने पर और
मनुष्यादिपर्यायके नष्ट होने पर, ‘अन्य उत्पाद है और अन्य व्यय है’ ऐसा माननेसे (इस
अपेक्षासे) उत्पाद और व्ययवाली देवादिपर्याय और मनुष्यादिपर्याय प्रगट होती है (-लक्षमें
आती है ); इसलिये जीव प्रतिक्षण पर्यायोंसे अनवस्थित है
किसीका स्वभाव केवल एकरूप रहनेवाला नहीं है ); [संसारः पुनः ] और संसार तो
[संसरतः ] संसरण करते हुये (गोल फि रते हुये, परिवर्तित होते हुये) [द्रव्यस्य ] द्रव्यकी
[क्रिया ] क्रिया है
संसार तो संसरण करता द्रव्य केरी छे क्रिया. १२०.
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स्वभाव केवल अविचल
ही वैसा है, (अर्थात् संसारका स्वरूप ही ऐसा है ) उसमें परिणमन करते हुये द्रव्यका
पूर्वोत्तरदशाका त्यागग्रहणात्मक ऐसा जो क्रिया नामका परिणाम है वह संसारका स्वरूप
है
तेथी करम बंधाय छे; परिणाम तेथी कर्म छे. १२१.
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करता है
दोष आता है
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ही है, और आत्मा भी अपने परिणामका कर्त्ता होनेसे द्रव्यकर्मका कर्त्ता भी उपचारसे
है
इति मता ] कर्म माना गया है; [तस्मात् ] इसलिये आत्मा [कर्मणः कर्ता तु न ] द्रव्यकर्मका
कर्त्ता तो नहीं है
किरिया गणी छे कर्म; तेथी कर्मनो कर्ता नथी. १२२.
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परिणामादनन्यत्वात
पातनिकाद्वयं मनसि संप्रधार्य सूत्रमिदं निरूपयति
तथाविध परिणाम है वह जीवमयी ही क्रिया है, क्योंकि सर्व द्रव्योंकी परिणामलक्षणक्रिया
आत्ममयता (निजमयता) से स्वीकार की गई है; और फि र, जो (जीवमयी) क्रिया है वह
आत्माके द्वारा स्वतंत्रतया
अनन्य है; और जो उसका (-पुद्गलका) तथाविधि परिणाम है वह पुद्गलमयी ही क्रिया
है, क्योंकि सर्व द्रव्योंकी परिणामस्वरूप क्रिया निजमय होती है, ऐसा स्वीकार किया गया
है; और फि र, जो (पुद्गलमयी) क्रिया है वह पुद्गलके द्वारा स्वतंत्रतया प्राप्य होनेसे कर्म
है
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कर्मफल संबंधी
ते ज्ञानविषयक, कर्मविषयक, कर्मफ ळविषयक कही. १२३.
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भी परिणाम चेतनाको किंचित्मात्र भी नहीं छोड़ता
कर्मफलपरिणति वह कर्मफलचेतना है
रहा हो [कर्म ] वह कर्म है, [तद् अनेकविधं ] वह अनेक प्रकारका है; [सौख्यं वा दुःखं वा ]
सुख अथवा दुःख [फलं इति भणितम् ] वह कर्मफल कहा गया है
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द्रव्यकर्मोपाधिसान्निध्यसद्भावात्कर्म तस्य फलं सौख्यलक्षणाभावाद्विकृतिभूतं दुःखम्
एक ही साथ प्रकाशित होते हैं, उसीप्रकार) जिसमें एक ही साथ स्व -पराकार अवभासित होते
हैं, ऐसा अर्थविकल्प वह ज्ञान है
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रागरूपं शुभोपयोगलक्षणं कर्म तस्य फलं चक्रवर्त्यादिपञ्चेन्द्रियभोगानुभवरूपं, तच्चाशुद्धनिश्चयेन
सुखमप्याकुलोत्पादकत्वात् शुद्धनिश्चयेन दुःखमेव
कर्म
जिसका लक्षण है ऐसा स्वभावभूत सुख है; और द्रव्यकर्मरूप उपाधिमें युक्त होनेसे जो
औपाधिक शुभाशुभभावरूप कर्म होता है, उसका फल विकारभूत दुःख है, क्योंकि उसमें
अनाकुलता नहीं, किन्तु आकुलता है
तेथी करमफ ळ, कर्म तेम ज ज्ञान आत्मा जाणजे. १२५.
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चेतनास्वरूप होनेसे ज्ञान, कर्म और कर्मफलरूप होनेके स्वभाववाला है, क्योंकि चेतना तन्मय
(ज्ञानमय, कर्ममय अथवा कर्मफलमय) होती है
हुए (अर्थात् आत्माकी शुद्धताके निर्णयकी प्रशंसा करते हुए
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हुआ [अन्यत् ] अन्यरूप [न एव परिणमति ] परिणमित ही नहीं हो, [शुद्धं आत्मानं ] तो वह
शुद्ध आत्माको [लभते ] उपलब्ध करता है
करता है; परन्तु अन्य कोई (पुरुष) ऐसे शुद्ध आत्माको उपलब्ध नहीं करता
दूसरी
मुनि अन्यरूप नव परिणमे, प्राप्ति करे शुद्धात्मनी. १२६.