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विकारोऽहमासं संसारी, तदापि न नाम मम कोऽप्यासीत
रूपमहमेक एव फलं चास्मि
ऐसे स्फ टिक मणिकी भाँति
स्वभावके द्वारा साधकतम (-उत्कृष्टसाधन) था; मैं अकेला ही कर्म था, क्योंकि मैं अकेला
ही उपरक्त चैतन्यरूप परिणमित होनेके स्वभावके कारण आत्मासे प्राप्य (-प्राप्त होने योग्य)
था; और मैं अकेला ही सुखसे विपरीत लक्षणवाला, ‘दुःख’ नामक कर्मफल था
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विस्फु रितसुविशुद्धसहजात्मवृत्तिः स्फ टिकमणिरिव विश्रान्तपरारोपितविकारोऽहमेकान्तेनास्मि
मुमुक्षुः
एव च सुविशुद्धचित्परिणमनस्वभावेनात्मना प्राप्यः कर्मास्मि; अहमेक एव च सुविशुद्ध-
चित्परिणमनस्वभावस्य निष्पाद्यमनाकुलत्वलक्षणं सौख्याख्यं कर्मफलमस्मि
भाँति
भी नहीं है
हूँ, क्योंकि मैं अकेला ही सुविशुद्ध चैतन्यरूप स्वभावसे साधकतम हूँ; मैं अकेला ही कर्म
हूँ, क्योंकि मैं अकेला ही सुविशुद्ध चैतन्यरूप परिणमित होनेके स्वभावके कारण आत्मासे
प्राप्य हूँ और मैं अकेला ही अनाकुलता लक्षणवाला, ‘सुख’ नामक कर्मफल हूँ
होनेसे), उसे परद्रव्यरूप परिणति किंचित् नहीं होती; और परमाणुकी भाँति (जैसे
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लुण्टाक उत्कटविवेकविविक्ततत्त्वः
संकीर्ण न होनेसे सुविशुद्ध होता है
है (अर्थात् समस्त पर्यायोंको द्रव्यके भीतर डूबा हुआ दिखाया है )
द्वारा तत्त्वको (आत्मस्वरूपको)
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भ्रान्तिध्वंसादपि च सुचिराल्लब्धशुद्धात्मतत्त्वः
स्थास्यत्युद्यत्सहजमहिमा सर्वदा मुक्त एव
द्वितीया चेति ‘लोगालोगेसु’ इत्यादिसूत्रद्वयेन पञ्चमस्थलम्
अप्पदेसो’ इत्यादिगाथाद्वयेन षष्ठस्थलम्
किया है
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[पुद्गलद्रव्यप्रमुखः अचेतनः ] पुद्गलद्रव्यादिक अचेतन द्रव्य वे [अजीवः भवति ] अजीव
हैं
जीवत्वरूप और अजीवत्वरूप विशेषको प्राप्त होता है
पुद्गलप्रमुख जे छे अचेतन द्रव्य, तेह अजीव छे. १२७.
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द्रव्यवृत्तिरूपेणोपयोगेन च निर्वृत्तत्वमवतीर्णं प्रतिभाति स जीवः
त्वादुपयोगमयः
तथा चेतनापरिणामलक्षण,
रहनेवाली,
चेतनारहित होनेसे अचेतन है वह अजीव है
जीव -पुद्गलोथी युक्त छे, ते सर्वकाळे लोक छे. १२८.
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तद्गतिस्थितिनिबन्धनभूतौ च धर्माऽधर्मावभिव्याप्यावस्थितौ, सर्वद्रव्यवर्तनानिमित्तभूतश्च कालो
नित्यदुर्ललितस्तत्तावदाकाशं शेषाण्यशेषाणि द्रव्याणि चेत्यमीषां समवाय आत्मत्वेन स्वलक्षणं
जीवाश्चेत्थंभूतजीवपुद्गलैर्निबद्धः संबद्धो भृतः पुद्गलजीवनिबद्धः
और कालसे समृद्ध है, [सः ] वह [सर्वकाले तु ] सर्वकालमें [लोकः ] लोक है
आकाशस्वरूपपना) है
उन्हें, गति -स्थितिमें निमित्तभूत धर्म तथा अधर्म व्याप्त होकर रहते हैं और (जहाँ जितनेमें) सर्व
द्रव्योंको वर्तनामें निमित्तभूत काल सदा वर्तता है, वह उतना आकाश तथा शेष समस्त
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सोऽलोकः
नहीं वर्तता, उतना केवल आकाश जिसका स्व -पनेसे स्वलक्षण है, वह अलोक है
से [उत्पादस्थितिभंगाः ] उत्पाद, ध्रौव्य और व्यय [जायन्ते ] होते हैं
परिणाम द्वारा, भेद वा संघात द्वारा थाय छे. १२९
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तिष्ठमानभज्यमानाः क्रियावन्तश्च भवन्ति
भवान्तरसंक्रमणात्सक्रियत्वं भण्यते
रूपेण विनाशे सति केवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयव्यक्तिलक्षणेन परमकार्यसमयसाररूपेण स्वभावव्यञ्जन-
पर्यायेण कृत्वा योऽसावुत्पादः स भेदादेव भवति, न संघातात्
उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं
परिस्पंदके द्वारा
होते हैं
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तिष्ठमानभज्यमानाः क्रियावन्तश्च भवन्ति
भूतेन
विशिष्ट (-द्रव्यसे अतद्भावके द्वारा भिन्न ऐसे) [मूर्तामूर्ताः ] मूर्त -अमूर्त [गुणाः ] गुण
[ज्ञेयाः ] जानने चाहिये
ते जाण मूर्त -अमूर्त गुण, अतत्पणाथी विशिष्ट जे. १३०.
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विशिष्टाः सन्तो लिंगलिंगिप्रसिद्धौ तलिंगत्वमुपढौकन्ते
इमे अमूर्ता इति तेषां विशेषो निश्चेयः
गुणानां तैः प्रदेशैः सह यदा संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदः क्रियते तदा पुनरतद्भावो भण्यते, तेनातद्भावेन
संज्ञादिभेदरूपेण स्वकीयस्वकीयद्रव्येण सह विशिष्टा भिन्ना इति, द्वितीयव्याख्यानेन पुनः स्वकीय-
द्रव्येण सह तद्भावेन तन्मयत्वेनान्यद्रव्याद्विशिष्टा भिन्ना इत्यभिप्रायः
२. लिंगी = लिंगवाला, (विशेषगुण वह लिंग
विशेष (-भेद) हैं; और इसीलिये मूर्त तथा अमूर्त द्रव्योंका मूर्तत्व -अमूर्तत्वरूप तद्भावके द्वारा
विशिष्टत्व होनेसे उनमें इस प्रकारके भेद निश्चित करना चाहिये कि ‘यह मूर्त गुण हैं और यह
अमूर्तगुण हैं’
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लक्षणमुक्तम्
[गुणाः ] गुण [अमूर्ताः ज्ञातव्याः ] अमूर्त जानना चाहिये
शेष सभी द्रव्य अमूर्त हैं
द्रव्यो अमूर्तिक जेह तेना गुण अमूर्तिक जाणजे. १३१.
छे वर्ण तेम ज गंध वळी रस -स्पर्श पुद्गलद्रव्यने,
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होते हैं; [चित्रः शब्दः ] जो विविध प्रकारका शब्द है [सः ] वह [पुद्गल ] पुद्गल अर्थात्
पौद्गलिक पर्याय है
स्थूलपर्यायरूप पृथ्वीस्कंध तकके समस्त पुद्गलके, अविशेषतया विशेष गुणोंके रूपमें होते
हैं; और उनके मूर्त होनेके कारण ही, (पुद्गलके अतिरिक्त) शेष द्रव्योंके न होनेसे वे
पुद्गलको बतलाते हैं
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लक्षणभूतं यथासंभवं सर्वपुद्गलेषु साधारणम्
गम्यमागमगम्यं च
स्निग्धगुणाभावे बन्धनेऽसति परमाणुपुद्गलावस्थायां शुद्धत्वमिति
कभी ही होता है, और नित्य नहीं है, इसलिये) शब्द वह गुण नहीं है
शब्दपर्यायका नहीं
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व्यक्तगन्धरसवर्णानामप्ज्योतिरुदरमरुतामारम्भदर्शनात
होती है उसीप्रकार शब्दरूप पुद्गलपर्याय भी सभी इन्द्रियोंसे ज्ञात होनी चाहिये’’ (ऐसा तर्क
किया जाय तो) ऐसा भी नहीं है; क्योंकि पानी (पुद्गलकी पर्याय होने पर भी) घ्राणेन्द्रियका
विषय नहीं है; अग्नि (पुद्गलकी पर्याय होने पर भी) घ्राणेन्द्रिय तथा रसनेन्द्रियका विषय नहीं
है और वायु (पुद्गलकी पर्याय होने परभी) घ्राण, रसना तथा चक्षुइन्द्रियका विषय नहीं है
रस रहित है (इसलिये नाक, जीभसे अग्राह्य है ) और वायु गंध, रस तथा वर्ण रहित है
(इसलिये नाक, जीभ तथा आँखोंसे अग्राह्य है ); क्योंकि सभी पुद्गल स्पर्शादि
(२) अरणिको और (३) जौ को जो पुद्गल उत्पन्न करते हैं उन्हीं के द्वारा (१) जिसकी गंध
अव्यक्त है ऐसे पानीकी, (२) जिसकी गंध तथा रस अव्यक्त है ऐसी अग्निकी और
(३) जिसकी गंध, रस तथा वर्ण अव्यक्त है ऐसी उदरवायुकी उत्पत्ति होती देखी जाती है
और (३) जौ में रहनेवाले चारों गुण (१) पानीमें, (२) अग्निमें और (३) वायुमें होने चाहिये
हैं
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कहीं विरोधको प्राप्त नहीं होती
वळी स्थानकारणतारूपी गुण जाण द्रव्य अधर्मनो. १३३.
छे काळनो गुण वर्तना उपयोग भाख्यो जीवमां,
ए रीत मूर्तिविहीनना गुण जाणवा संक्षेपमां. १३४.
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जीवपुद्गलानां स्थानहेतुत्वमधर्मस्य, अशेषशेषद्रव्याणां प्रतिपर्यायं समयवृत्तिहेतुत्वं कालस्य,
चैतन्यपरिणामो जीवस्य
धर्मद्रव्यं निश्चिनोति
गुण [स्थानकारणता ] स्थानकारणता है
चाहिये
है
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तादन्यत्र लोकासंख्येयभागमात्रत्वाज्जीवस्य, लोकालोक सीम्नोऽचलितत्वादाकाशस्य, विरुद्ध-
कार्यहेतुत्वादधर्मस्यासंभवद्धर्ममधिगमयति
ज्जीवस्य, लोकालोकसीम्नोऽचलितत्वादाकाशस्य, विरुद्धकार्यहेतुत्वाद्धर्मस्य चासंभवदधर्ममधि-
मनुष्ठानं च कर्तव्यमिति
(सर्वव्यापक) न होनेसे उनके वह संभव नहीं है
हैं इसलिये उनके वह संभव नहीं है; जीव समुद्घातको छोड़कर अन्यत्र लोकके असंख्यातवें
भाग मात्र है, इसलिये उसके वह संभव नहीं है, लोक -अलोककी सीमा अचलित होनेसे
आकाशको वह संभव नहीं है और विरुद्ध कार्यका हेतु होनेसे अधर्मको वह संभव नहीं है
समुद्घातको छोड़कर अन्य कालमें लोकके असंख्यातवें भागमें ही रहता है, इसलिये वह भी
लोक तक गमनमें निमित्त नहीं हो सकता; यदि आकाश गतिमें निमित्त हो तो जीव और
पुद्गलोंकी गति अलोकमें भी होने लगे, जिससे लोकाकाशकी मर्यादा ही न रहेगी; इसलिये
गतिहेतुत्व आकाशका भी गुण नहीं है; अधर्म द्रव्य तो गतिसे विरुद्ध स्थितिकार्यमें निमित्तभूत
है, इसलिये वह भी गतिमें निमित्त नहीं हो सकता
है; जीव समुद्घातको छोड़कर अन्यत्र लोकके असंख्यातवें भाग मात्र है, इसलिये उसके वह
संभव नहीं है; लोक और अलोककी सीमा अचलित होनेसे आकाशके वह संभव नहीं है, और
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वह (समयवृत्तिहेतुपना) संभवित नहीं है
जीव और पुद्गलोंको गति करनेमें निमित्तभूत कोई द्रव्य होना चाहिये; वह द्रव्य लोकव्यापी
धर्मद्रव्य है
परिणमनमें निमित्तभूत कोई द्रव्य होना चाहिये; वह द्रव्य असंख्यात कालाणु हैं
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प्रदेशत्वात्पुद्गलस्य, सकललोकव्याप्यसंख्येयप्रदेशप्रस्ताररूपत्वाद
[असंख्याताः ] असंख्यात अर्थात् अनेक हैं; [कालस्य ] कालके [प्रदेशाः इति ] प्रदेश [न
सन्ति ] नहीं हैं
प्रदेशमात्र (-एकप्रदेशी) होनेसे अप्रदेशी है तथापि, दो प्रदेशोंसे लेकर संख्यात, असंख्यात,
और अनन्तप्रदेशोंवाली पर्यायोंकी अपेक्षासे अनिश्चित प्रदेशवाला होनेसे प्रदेशवान् है; सकल
लोकव्यापी असंख्य प्रदेशोंके
छे स्वप्रदेश अनेक, नहि वर्ते प्रदेशो काळने. १३५.