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नमस्कारं कृत्वा
सम्यग्दर्शनज्ञानसंपन्नो भूत्वा, जीवत्कषायकणतया पुण्यबन्धसंप्राप्तिहेतुभूतं सरागचारित्रं
भक्तिभावसे स्वपरका भेदविलिन हो जानेकी अपेक्षासे उसमें अद्वैत पाया जाता है
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भी)
प्रतिज्ञाका अर्थ है
करते हैं :
वीतरागचारित्राख्यं साम्यमुपसम्पद्ये
रुचिरूपं सम्यक्त्वमित्युक्तलक्षणज्ञानदर्शनस्वभावं, मठचैत्यालयादिलक्षणव्यवहाराश्रमाद्विलक्षणं, भावा-
श्रमरूपं प्रधानाश्रमं प्राप्य, तत्पूर्वकं क्रमायातमपि सरागचारित्रं पुण्यबन्धकारणमिति ज्ञात्वा परिहृत्य
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निर्वाण [संपद्यते ] प्राप्त होता है
होती है
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धृत्वाथवास्य सूत्रस्याग्रे सूत्रमिदमुचितं भवत्येवं निश्चित्य सूत्रमिदं प्रतिपादयतीति पातनिकालक्षणं
यथासंभवं सर्वत्र ज्ञातव्यम् --
(भाव) है
निर्विकार ऐसा जीवका परिणाम है
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धर्मः
पण्णत्तं परिणमति येन पर्यायेण द्रव्यं कर्तृ तत्काले तन्मयं भवतीति प्रज्ञप्तं यतः कारणात्,
भवति
देवने) कहा है; [तस्मात् ] इसलिये [धर्मपरिणतः आत्मा ] धर्मपरिणत आत्माको [धर्मः
मन्तव्यः ] धर्म समझना चाहिये
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धर्मरूप परिणमित होने से धर्म ही है
है
अशुभः ] तब शुभ या अशुभ (स्वयं ही) होता है, [शुद्धेन ] और जब शुद्धभावरूप परिणमित
होता है [तदा शुद्धः हि भवति ] तब शुद्ध होता है
शुद्धे प्रणमतां शुद्ध, परिणाम स्वभावी होईने
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शुभाशुभशुद्धत्वम्
व्यवहारेण गृहस्थापेक्षया यथासंभवं सरागसम्यक्त्वपूर्वकदानपूजादिशुभानुष्ठानेन, तपोधनापेक्षया तु
मूलोत्तरगुणादिशुभानुष्ठानेन परिणतः शुभो ज्ञातव्य इति
कथिताः
षटके तारतम्येन शुद्धोपयोगः, तदनन्तरं सयोग्ययोगिजिनगुणस्थानद्वये शुद्धोपयोगफलमिति
परिणामस्वभाव होनेसे शुभ या अशुभ होता है (उस समय आत्मा स्वयं ही शुभ या अशुभ
है); और जब वह शुद्ध अरागभावसे परिणमित होता है तब शुद्ध अरागपरिणत (रंग रहित)
स्फ टिककी भाँति, परिणामस्वभाव होनेसे शुद्ध होता है
परिणमित होता है तब लाल या काला स्वयं ही हो जाता है
अनुष्ठानरूप शुभोपयोगमें और मुनिदशामें मूलगुण तथा उत्तरगुण इत्यादि शुभ अनुष्ठानरूप
शुभोपयोगमें परिणमित होता है तब स्वयं ही शुभ होता है, और जब मिथ्यात्वादि पाँच प्रत्ययरूप
अशुभोपयोगमें परिणमित होता है तब स्वयं ही अशुभ होता है और जैसे स्फ टिकमणि अपने
स्वाभाविक निर्मल रंगमें परिणमित होता है तब स्वयं ही शुद्ध होता है, उसी प्रकार आत्मा भी जब
निश्चय रत्नत्रयात्मक शुद्धोपयोगमें परिणमित होता है तब स्वयं ही शुद्ध होता है
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हुआ) शुभोपयोग, सातवेंसे बारहवें गुणस्थान तक तारतम्य पूर्वक शुद्धोपयोग और अन्तिम दो
गुणस्थानोंमें शुद्धोपयोगका फल कहा गया है,
[द्रव्यगुणपर्ययस्थः ] द्रव्य -गुण -पर्यायमें रहनेवाला और [अस्तित्वनिर्वृत्तः ] (उत्पाद-
व्ययध्रौव्यमय) अस्तित्वसे बना हुआ है
गुण -द्रव्य -पर्ययस्थित ने अस्तित्वसिद्ध पदार्थ छे
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निर्वृत्तिमच्च
विभावपर्यायेषु नयविभागेन यथासंभवं विज्ञेयम्, तथैव पुद्गलादिष्वपि
इत्यादि (दूध, दही वगैरह) के परिणामोंके साथ
नहीं करता, क्योंकि स्वाश्रयभूत वस्तुके अभावमें (अपने आश्रयरूप जो वस्तु है वह न हो
तो ) निराश्रय परिणामको शून्यताका प्रसंग आता है
रही हुई और उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यमय अस्तित्वसे बनी हुई है; इसलिये वस्तु परिणाम-
स्वभाववाली ही है
वस्तुरूप आश्रयके बिना परिणाम किसके आश्रयसे रहेंगे ? गोरसरूप आश्रयके बिना दूध, दही
इत्यादि परिणाम किसके आधारसे होंगे ?
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वस्तुस्वभावश्चेति गृह्यते
(परिणमन) होती ही रहती है
परिणामके त्यागके लिये) उनका फल विचारते हैं :
[प्राप्नोति ] प्राप्त करता है [शुभोपयुक्तः च ] और यदि शुभोपयोगवाला हो तो (स्वर्गसुखम् )
स्वर्गके सुखको (बन्धको) प्राप्त करता है
ते पामतो निर्वाणसुख, ने स्वर्गसुख शुभयुक्त जो
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कार्यकारिचारित्रः शिखितप्तघृतोपसिक्तपुरुषो दाहदुःखमिव स्वर्गसुखबन्धमवाप्नोति
नित्ये सहस्र दुःखे पीड़ित, संसारमां अति अति भमे
जब वह धर्मपरिणत स्वभाववाला होने पर भी शुभोपयोग परिणतिके साथ युक्त होता है तब
जो
डाल दिया जावे तो वह उसकी जलनसे दुःखी होता है, उसीप्रकार वह स्वर्ग सुखके बन्धको
प्राप्त होता है, इसलिये शुद्धोपयोग उपादेय है और शुभोपयोग हेय है
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विपरीताभिनिवेशजनकेन
दुःखितः सन् स्वस्वभावभावनाच्युतो भूत्वा संसारेऽत्यन्तं भ्रमतीति तात्पर्यार्थः
पयोगफलं प्रकाशयति
अभिद्रुतः ] सदा पीड़ित होता हुआ [अत्यंतं भ्रमति ] (संसारमें) अत्यन्त भ्रमण करता है
परिभ्रमण करता हुआ (तद्रूप) हजारों दुःखोंके बन्धनका अनुभव करता है; इसलिये चारित्रके
लेशमात्रका भी अभाव होनेसे यह अशुभोपयोग अत्यन्त हेय ही है
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विच्छेदहीन छे सुख अहो ! शुद्धोपयोगप्रसिद्धने
मनसि धृत्वा सूत्रमिदं प्रतिपादयति ---
अधिकार प्रारम्भ करते हैं
[विषयातीतं ] विषयातीत (अतीन्द्रिय) [अनौपम्यं ] अनुपम [अनन्तं ] अनन्त (अविनाशी)
[अव्युच्छिन्नं च ] और अविच्छिन्न (अटूट) है
प्रवर्तमान होनेसे ‘आत्मोत्पन्न’, (३) पराश्रयसे निरपेक्ष होनेसे (
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प्रतपनाद्विजयनात्तपःसंयुक्तः
आगामी कालमें कभी भी नाशको प्राप्त न होनेसे ‘अनन्त’ और (६) बिना ही अन्तरके प्रवर्तमान
होनेसे ‘अविच्छिन्न’ सुख शुद्धोपयोगसे निष्पन्न हुए आत्माओंके होता है, इसलिये वह (सुख)
सर्वथा प्रार्थनीय (वांछनीय) है
[विगतरागः ] जो वीतराग अर्थात् राग रहित हैं [समसुखदुःखः ] और जिन्हें सुख -दुःख
समान हैं, [श्रमणः ] ऐसे श्रमणको (मुनिवरको) [शुद्धोपयोगः इति भणितः ] ‘शुद्धोपयोगी’
कहा गया है
सुख दुःखमां सम श्रमणने शुद्धोपयोग जिनो कहे
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सुखदुःखः
संयमनात
श्रद्धान और आचरण होनेसे) जो श्रमण पदार्थोंको और (उनके प्रतिपादक) सूत्रोंको जिन्होंने
भलीभाँति जान लिया है ऐसे हैं, समस्त छह जीवनिकायके हननके विकल्पसे और पंचेन्द्रिय
सम्बन्धी अभिलाषाके विकल्पसे आत्माको
भिन्नत्वकी उत्कृष्ट भावनासे) निर्विकार आत्मस्वरूपको प्रगट किया होनेसे जो वीतराग है,
और परमकलाके अवलोकनके कारण साता वेदनीय तथा असाता वेदनीयके विपाकसे उत्पन्न
होनेवाले जो सुख -दुःख उन सुख -दुःख जनित परिणामोंकी विषमताका अनुभव नहीं होनेसे
(परम सुखरसमें लीन निर्विकार स्वसंवेदनरूप परमकलाके अनुभवके कारण इष्टानिष्ट
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पयोग इत्यभिधीयते
चेति ‘पक्खीणघाइकम्मो’ इति प्रभृति गाथाद्वयम्
स्वयमेव रहित थयो थको ज्ञेयान्तने पामे सही
मोहरूप रजसे रहित [स्वयमेव भूतः ] स्वयमेव होता हुआ [ज्ञेयभूतानां ] ज्ञेयभूत पदार्थोंके [पारं
याति ] पारको प्राप्त होता है
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निरस्तसमस्तज्ञानदर्शनावरणान्तरायतया निःप्रतिघविजृम्भितात्मशक्तिश्च स्वयमेव भूतो
ज्ञेयत्वमापन्नानामन्तमवाप्नोति
संजातसर्वज्ञस्य ज्ञानसुखादिकं विचार्य पश्चादात्मकार्यं करोतीति व्याख्याति ---
उपयोगेन शुद्धोपयोगेन परिणामेन विशुद्धो भूत्वा वर्तते यः
विगतावरणान्तरायमोहरजोभूतः सन्
लक्षणेनैकत्ववितर्कावीचारसंज्ञद्वितीयशुक्लध्यानेन क्षीणकषायगुणस्थानेऽन्तर्मुहूर्तकालं स्थित्वा तस्यै-
वान्त्यसमये ज्ञानदर्शनावरणवीर्यान्तरायाभिधानघातिकर्मत्रयं युगपद्विनाशयति, स जगत्त्रयकालत्रय-
वर्तिसमस्तवस्तुगतानन्तधर्माणां युगपत्प्रकाशकं केवलज्ञानं प्राप्नोति
जानेसे अत्यन्त निर्विकार चैतन्यवाला और समस्त ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तरायके
नष्ट हो जानेसे निर्विघ्न विकसित आत्मशक्तिवान स्वयमेव होता हुआ ज्ञेयताको प्राप्त
(पदार्थों) के अन्तको पा लेता है
शुद्धोपयोगके ही प्रसादसे प्राप्त करता है
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स्वयमेव जीव थयो थको तेने स्वयंभू जिन कहे
ज्ञानावरण; दर्शनावरण और अन्तरायका युगपद् क्षय करके समस्त ज्ञेयोंको जाननेवाले
केवलज्ञानको प्राप्त करता है
[इति निर्दिष्टः ] ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है
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शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावस्याधारभूतत्वादधिकरणत्वमात्मसात्कुर्वाणः, स्वयमेव
षट्कारकीरूपेणोपजायमानः, उत्पत्तिव्यपेक्षया द्रव्यभावभेदभिन्नघातिकर्माण्यपास्य स्वयमेवा-
विर्भूतत्वाद्वा स्वयंभूरिति निर्दिश्यते
किया है ऐसा, (२) शुद्ध अनन्तशक्तियुक्त ज्ञानरूपसे परिणमित होनेके स्वभावके कारण स्वयं
ही प्राप्य होनेसे (
होनेसे करणताको धारण करता हुआ, (४) शुद्ध अनन्तशक्तियुक्त ज्ञानरूपसे परिणमित होनेके
स्वभावके कारण स्वयं ही कर्म द्वारा समाश्रित होनेसे (अर्थात् कर्म स्वयंको ही देनेमें आता
होनेसे) सम्प्रदानताको धारण करता हुआ, (५) शुद्ध अनन्तशक्तिमय ज्ञानरूपसे परिणमित
होनेके समय पूर्वमें प्रवर्तमान
अनन्तशक्तियुक्त ज्ञानरूपसे परिणमित होनेके स्वभावका स्वयं ही आधार होने से अधिकरणता
को आत्मसात् करता हुआ
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लिये किया जाता है वह सम्प्रदान है; जिसमेंसे कर्म किया जाता है, वह ध्रुववस्तु अपादान
है, और जिसमें अर्थात् जिसके आधारसे कर्म किया जाता है वह अधिकरण है
है वहाँ निश्चयकारक हैं
सम्प्रदान है; टोकरीमेंसे मिट्टी लेकर घड़ा बनाता है, इसलिये टोकरी अपादान है, और पृथ्वीके
आधार पर घड़ा बनाता है, इसलिये पृथ्वी अधिकरण है
अधिकरण है
है; मिट्टीने घड़ारूप कर्म अपनेको ही दिया इसलिए मिट्टी स्वयं सम्प्रदान है; मिट्टीने अपनेमेंसे
पिंडरूप अवस्था नष्ट करके घटरूप कर्म किया और स्वयं ध्रुव बनी रही इसलिए वह स्वयं
ही अपादान है; मिट्टीने अपने ही आधारसे घड़ा बनाया इसलिये स्वयं ही अधिकरण है
है इसलिये निश्चय छह कारक ही परम सत्य हैं