Pravachansar (Hindi). Gatha: 136-144.

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संख्येयप्रदेशप्रस्ताररूपत्वादधर्मस्य, सर्वव्याप्यनन्तप्रदेशप्रस्ताररूपत्वादाकाशस्य च प्रदेशवत्त्वम्
कालाणोस्तु द्रव्येण प्रदेशमात्रत्वात्पर्यायेण तु परस्परसंपर्कासंभवादप्रदेशत्वमेवास्ति ततः
कालद्रव्यमप्रदेशं, शेषद्रव्याणि प्रदेशवन्ति ।।१३५।।
अथ क्वामी प्रदेशिनोऽप्रदेशाश्चावस्थिता इति प्रज्ञापयति
लोगालोगेसु णभो धम्माधम्मेहिं आददो लोगो
सेसे पडुच्च कालो जीवा पुण पोग्गला सेसा ।।१३६।।
लोकालोकयोर्नभो धर्माधर्माभ्यामाततो लोकः
शेषौ प्रतीत्य कालो जीवाः पुनः पुद्गलाः शेषौ ।।१३६।।
धर्माधर्मयोः पुनरवस्थितरूपेण लोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशत्वम् स्कन्धाकारपरिणतपुद्गलानां तु
संख्येयासंख्येयानन्तप्रदेशत्वम् किंतु पुद्गलव्याख्याने प्रदेशशब्देन परमाणवो ग्राह्या, न च क्षेत्र-
प्रदेशाः कस्मात् पुद्गलानामनन्तप्रदेशक्षेत्रेऽवस्थानाभावादिति परमाणोर्व्यक्तिरूपेणैकप्रदेशत्वं
शक्तिरूपेणोपचारेण बहुप्रदेशत्वं च आकाशस्यानन्ता इति णत्थि पदेस त्ति कालस्स न सन्ति प्रदेशा
इति कालस्य कस्मात् द्रव्यरूपेणैकप्रदेशत्वात्, परस्परबन्धाभावात्पर्यायरूपेणापीति ।।१३५।। अथ
तमेवार्थं द्रढयति
एदाणि पंचदव्वाणि उज्झियकालं तु अत्थिकाय त्ति ।।।
भण्णंते काया पुण बहुप्पदेसाण पचयत्तं ।।११।।
प्रदेशोंके प्रस्ताररूप होनेसे अधर्म प्रदेशवान् है; और सर्वव्यापी अनन्तप्रदेशोंके प्रस्ताररूप होनेसे
आकाश प्रदेशवान् है
कालाणु तो द्रव्यसे प्रदेशमात्र होनेसे और पर्यायसे परस्पर संपर्क न होनेसे
अप्रदेशी ही है
इसलिये कालद्रव्य अप्रदेशी है और शेष द्रव्य प्रदेशवान् हैं ।।१३५।।
अब, यह बतलाते हैं कि प्रदेशी और अप्रदेशी द्रव्य कहाँ रहते हैं :
अन्वयार्थ :[नभः ] आकाश [लोकालोकयोः ] लोकालोकमें है, [लोकः ]
लोक [धर्माधर्माभ्याम् आततः ] धर्म और अधर्मसे व्याप्त है, [शेषौ प्रतीत्य ] शेष दो द्रव्योंका
आश्रय लेकर [कालः ] काल है, [पुनः ] और [शेषौ ] शेष दो द्रव्य [जीवाः पुद्गलाः ]
जीव और पुद्गल हैं
।।१३६।।
लोके अलोके आभ, लोक अधर्म -धर्मथी व्याप्त छे,
छे शेष -आश्रित काळ, ने जीव -पुद्गलो ते शेष छे. १३६.

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आकाशं हि तावत् लोकालोकयोरपि, षड्द्रव्यसमवायासमवाययोरविभागेन वृत्तत्वात
धर्माधर्मौ सर्वत्र लोके, तन्निमित्तगमनस्थानानां जीवपुद्गलानां लोकाद्बहिस्तदेकदेशे च
गमनस्थानासंभवात
कालोऽपि लोके, जीवपुद्गलपरिणामव्यज्यमानसमयादिपर्यायत्वात्; स
तु लोकैकप्रदेश एवाप्रदेशत्वात जीवपुद्गलौ तु युक्तित एव लोके, षड्द्रव्यसमवायात्मक-
त्वाल्लोकस्य किंतु जीवस्य प्रदेशसंवर्तविस्तारधर्मत्वात्, पुद्गलस्य बन्धहेतुभूतस्निग्धरूक्षगुण-
एदाणि पंचदव्वाणि एतानि पूर्वसूत्रोक्तानि जीवादिषड्द्रव्याण्येव उज्झिय कालं तु कालद्रव्यं
विहाय अत्थिकाय त्ति भण्णंते अस्तिकायाः पञ्चास्तिकाया इति भण्यन्ते काया पुण कायाः कायशब्देन
पुनः किं भण्यते बहुप्पदेसाण पचयत्तं बहुप्रदेशानां संबन्धि प्रचयत्वं समूह इति अत्र पञ्चास्ति-
कायमध्ये जीवास्तिकाय उपादेयस्तत्रापि पञ्चपरमेष्ठिपर्यायावस्था, तस्यामप्यर्हत्सिद्धावस्था, तत्रापि
सिद्धावस्था
वस्तुतस्तु रागादिसमस्तविकल्पजालपरिहारकाले सिद्धजीवसदृशा स्वकीयशुद्धात्मावस्थेति
भावार्थः ।।११।। एवं पञ्चास्तिकायसंक्षेपसूचनरूपेण चतुर्थस्थले गाथाद्वयं गतम् अथ द्रव्याणां
लोकाकाशेऽवस्थानमाख्यातिलोगालोगेसु णभो लोकालोकयोरधिकरणभूतयोर्णभ आकाशं तिष्ठति
धम्माधम्मेहिं आददो लोगो धर्माधर्मास्तिकायाभ्यामाततो व्याप्तो भृतो लोकः किं कृत्वा सेसे पडुच्च
शेषौ जीवपुद्गलौ प्रतीत्याश्रित्य अयमत्रार्थःजीवपुद्गलौ तावल्लोके तिष्ठतस्तयोर्गतिस्थित्योः
कारणभूतौ धर्माधर्मावपि लोके कालो कालोऽपि शेषौ जीवपुद्गलौ प्रतीत्य लोके क स्मादिति चेत्
जीवपुद्गलाभ्यां नवजीर्णपरिणत्या व्यज्यमानसमयघटिकादिपर्यायत्वात् शेषशब्देन किं भण्यते जीवा
पुण पोग्गला सेसा जीवाः पुद्गलाश्च पुनः शेषा भण्यन्त इति अयमत्र भावःयथा सिद्धा भगवन्तो
यद्यपि निश्चयेन लोकाकाशप्रमितशुद्धासंख्येयप्रदेशे केवलज्ञानादिगुणाधारभूते स्वकीयस्वकीयभावे
तिष्ठन्ति तथापि व्यवहारेण
मोक्षशिलायां तिष्ठन्तीति भण्यन्ते तथा सर्वे पदार्था यद्यपि निश्चयेन
टीका :प्रथम तो आकाश लोक तथा अलोकमें है, क्योंकि छह द्रव्योंके
समवाय और असमवायमें बिना विभागके रहता है धर्म और अधर्म द्रव्य सर्वत्र लोकमें
है, क्योंकि उनके निमित्तसे जिनकी गति और स्थिति होती है ऐसे जीव और पुद्गलोंकी
गति या स्थिति लोकसे बाहर नहीं होती, और न लोकके एक देशमें होती है, (अर्थात्
लोकमें सर्वत्र होती है )
काल भी लोकमें है, क्योंकि जीव और पुद्गलोंके परिणामोंके
द्वारा (कालकी) समयादि पर्यायें व्यक्त होती हैं; और वह काल लोकके एक प्रदेशमें
ही है क्योंकि वह अप्रदेशी है
जीव और पुद्गल तो युक्तिसे ही लोकमें हैं, क्योंकि
लोक छह द्रव्योंका समवायस्वरूप है
और इसके अतिरिक्त (इतना विशेष जानना चाहिये कि), प्रदेशोंका संकोच-
विस्तार होना वह जीवका धर्म है, और बंधके हेतुभूत स्निग्ध -रुक्ष (चिकने -रूखे) गुण
पुद्गलका धर्म होनेसे जीव और पुद्गलका समस्त लोकमें या उसके एकदेशमें रहनेका

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धर्मत्वाच्च तदेकदेशसर्वलोकनियमो नास्ति कालजीवपुद्गलानामित्येकद्रव्यापेक्षया एकदेश
अनेकद्रव्यापेक्षया पुनरंजनचूर्णपूर्णसमुद्गकन्यायेन सर्वलोक एवेति ।।१३६।।
अथ प्रदेशवत्त्वाप्रदेशवत्त्वसंभवप्रकारमासूत्रयति
जध ते णभप्पदेसा तधप्पदेसा हवंति सेसाणं
अपदेसो परमाणू तेण पदेसुब्भवो भणिदो ।।१३७।।
यथा ते नभःप्रदेशास्तथा प्रदेशा भवन्ति शेषाणाम्
अप्रदेशः परमाणुस्तेन प्रदेशोद्भवो भणितः ।।१३७।।
स्वकीयस्वकीयस्वरूपे तिष्ठन्ति तथापि व्यवहारेण लोकाकाशे तिष्ठन्तीति अत्र यद्यप्यनन्तजीव-
द्रव्येभ्योऽनन्तगुणपुद्गलास्तिष्ठन्ति तथाप्येकदीपप्रकाशे बहुदीपप्रकाशवद्विशिष्टावगाहशक्तियोगेना-
संख्येयप्रदेशेऽपि लोकेऽवस्थानं न विरुध्यते
।।१३६।। अथ यदेवाकाशस्य परमाणुव्याप्तक्षेत्रं प्रदेश-
लक्षणमुक्तं शेषद्रव्यप्रदेशानां तदेवेति सूचयतिजध ते णभप्पदेसा यथा ते प्रसिद्धाः परमाणु-
व्याप्तक्षेत्रप्रमाणाकाशप्रदेशाः तधप्पदेसा हवंति सेसाणं तेनैवाकाशप्रदेशप्रमाणेन प्रदेशा भवन्ति केषाम्
शुद्धबुद्धैकस्वभावं यत्परमात्मद्रव्यं तत्प्रभृतिशेषद्रव्याणाम् अपदेसो परमाणू अप्रदेशो द्वितीयादि-
प्रदेशरहितो योऽसौ पुद्गलपरमाणुः तेण पदेसुब्भवो भणिदो तेन परमाणुना प्रदेशस्योद्भव
नियम नहीं है (और) काल, जीव तथा पुद्गल एक द्रव्यकी अपेक्षासे लोकके
एकदेशमें रहते हैं और अनेक द्रव्योंकी अपेक्षासे अंजनचूर्ण (काजल) से भरी हुई
डिबियाके न्यायानुसार समस्त लोकमें ही हैं
।।१३६।।
अब, यह कहते हैं कि प्रदेशवत्त्व और अप्रदेशवत्त्व किस प्रकारसे संभव है :
अन्वयार्थ :[यथा ] जैसे [ते नभः प्रदेशाः ] वे आकाशप्रदेश हैं, [तथा ]
उसीप्रकार [शेषाणां ] शेष द्रव्योंके [प्रदेशाः भवन्ति ] प्रदेश हैं (अर्थात् जैसेआकाशके प्रदेश
परमाणुरूपी गजसे नापे जाते है उसीप्रकार शेष द्रव्योंके प्रदेश भी इसीप्रकार नापे जाते हैं )
[परमाणुः ] परमाणु [अप्रदेशः ] अप्रदेशी है; [तेन ] उसके द्वारा [प्रदेशोद्भवः भणितः ]
प्रदेशोद्भव कहा है
।।१३७।।
जे रीत आभ -प्रदेश, ते रीत शेष द्रव्य -प्रदेश छे;
अप्रदेश परमाणु वडे उद्भव प्रदेश तणो बने. १३७.

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सूत्रयिष्यते हि स्वयमाकाशस्य प्रदेशलक्षणमेकाणुव्याप्यत्वमिति इह तु यथाकाशस्य
प्रदेशास्तथा शेषद्रव्याणामिति प्रदेशलक्षणप्रकारैकत्वमासूत्र्यते ततो यथैकाणुव्याप्येनांशेन
गण्यमानस्याकाशस्यानन्तांशत्वादनन्तप्रदेशत्वं तथैकाणुव्याप्येनांशेन गण्यमानानां धर्माधर्मैक-
जीवानामसंख्येयांशत्वात
् प्रत्येकमसंख्येयप्रदेशत्वम् यथा चावस्थितप्रमाणयोर्धर्माधर्मयोस्तथा
संवर्तविस्ताराभ्यामनवस्थितप्रमाणस्यापि शुष्कार्द्रत्वाभ्यां चर्मण इव जीवस्य स्वांशाल्प-
बहुत्वाभावादसंख्येयप्रदेशत्वमेव
अमूर्तसंवर्तविस्तारसिद्धिश्च स्थूलकृशशिशुकुमारशरीरव्यापि-
त्वादस्ति स्वसंवेदनसाध्यैव पुद्गलस्य तु द्रव्येणैकप्रदेशमात्रत्वादप्रदेशत्वे यथोदिते सत्यपि
उत्पत्तिर्भणिता परमाणुव्याप्तक्षेत्रं प्रदेशो भवति तदग्रे विस्तरेण कथयति इह तु सूचितमेव ।।१३७।।
एवं पञ्चमस्थले स्वतन्त्रगाथाद्वयं गतम् अथ कालद्रव्यस्य द्वितीयादिप्रदेशरहितत्वेनाप्रदेशत्वं
व्यवस्थापयतिसमओ समयपर्यायस्योपादानकारणत्वात्समयः कालाणुः दु पुनः स च कथंभूतः
१. अवस्थित प्रमाण = नियत परिमाण, निश्चित माप; (धर्म तथा अधर्म द्रव्यका माप लोक जितना नियत है )
२. अनवस्थित = अनियत; अनिश्चित; (सूखे -गीले चर्मकी भाँति जीव परक्षेत्रकी अपेक्षासे संकोच विस्तारको
प्राप्त होनेसे अनिश्चित मापवाला है ऐसा होने पर भी, जैसे चमड़ेके निज -अंश कम -बढ़ नहीं होते,
उसीप्रकार जीवके निज -अंश कम -बढ़ नहीं होते; इसलिये वह सदा नियत असंख्यप्रदेशी ही है )
टीका :(भगवत् कुन्दकुन्दाचार्य) स्वयं ही (१४० वें) सूत्र द्वारा कहेंगे कि
आकाशके प्रदेशका लक्षण एकाणुव्याप्यत्व है (अर्थात् एक परमाणुसे व्याप्त होना वह प्रदेशका
लक्षण है ); और यहाँ (इस सूत्र या गाथामें) ‘जिस प्रकार आकाशके प्रदेश हैं उसीप्रकार शेष
द्रव्योंके प्रदेश हैं’ इसप्रकार प्रदेशके लक्षणकी एकप्रकारता कही जाती है
इसलिये, जैसे एकाणुव्याप्य (-एक परमाणुसे व्याप्त हो ऐसे) अंशके द्वारा गिने जाने
पर आकाशके अनन्त अंश होनेसे आकाश अनन्तप्रदेशी है, उसीप्रकार एकाणुव्याप्य
(
एक परमाणुसे व्याप्त होने योग्य) अंशके द्वारा गिने जाने पर धर्म, अधर्म और एक जीवके
असंख्यात अंश होनेसे वेप्रत्येक असंख्यातप्रदेशी है और जैसे अवस्थित प्रमाणवाले धर्म
तथा अधर्म असंख्यातप्रदेशी हैं, उसीप्रकार संकोचविस्तारके कारण अनवस्थित प्रमाणवाले
जीवकेसूखे -गीले चमड़ेकी भाँतिनिज अंशोंका अल्पबहुत्व नहीं होता इसलिये
असंख्यातप्रदेशीपना ही है (यहाँ यह प्रश्न होता है कि अमूर्त ऐसे जीवका संकोचविस्तार कैसे
संभव है ? उसका समाधान किया जाता है :) अमूर्तके संकोचविस्तारकी सिद्धि तो अपने
अनुभवसे ही साध्य है, क्योंकि (सबको स्वानुभवसे स्पष्ट है कि) जीव स्थूल तथा कृश
शरीरमें, तथा बालक और कुमारके शरीरमें व्याप्त होता है
पुद्गल तो द्रव्यतः एकप्रदेशमात्र होनेसे यथोक्त (पूर्वकथित) प्रकारसे अप्रदेशी है

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द्विप्रदेशाद्युद्भवहेतुभूततथाविधस्निग्धरूक्षगुणपरिणामशक्तिस्वभावात्प्रदेशोद्भवत्वमस्ति ततः
पर्यायेणानेकप्रदेशत्वस्यापि संभवात् द्वयादिसंख्येयासंख्येयानन्तप्रदेशत्वमपि न्याय्यं
पुद्गलस्य ।।१३७।।
अथ कालाणोरप्रदेशत्वमेवेति नियमयति
समओ दु अप्पदेसो पदेसमेत्तस्स दव्वजादस्स
वदिवददो सो वट्टदि पदेसमागासदव्वस्स ।।१३८।।
समयस्त्वप्रदेशः प्रदेशमात्रस्य द्रव्यजातस्य
व्यतिपततः स वर्तते प्रदेशमाकाशद्रव्यस्य ।।१३८।।
अप्पदेसो अप्रदेशो द्वितीयादिप्रदेशरहितो भवति च किं करोति सो वट्टदि स पूर्वोक्तकालाणुः
परमाणोर्गतिपरिणतेः सहकारित्वेन वर्तते कस्य संबन्धी योऽसौ परमाणुः पदेसमेत्तस्स दव्वजादस्स
प्रदेशमात्रपुद्गलजातिरूपपरमाणुद्रव्यस्य किं कुर्वतः वदिवददो व्यतिपततो मन्दगत्या गच्छतः कं
प्रति पदेसं कालाणुव्याप्तमेकप्रदेशम् कस्य संबन्धिनम् आगासदव्वस्स आकाशद्रव्यस्येति तथाहि
कालाणुरप्रदेशो भवति कस्मात् द्रव्येणैकप्रदेशत्वात् अथवा यथा स्नेहगुणेन पुद्गलानां
तथापि दो प्रदेशादिके उद्भवके हेतुभूत तथाविध (उस प्रकारके) स्निग्ध -रूक्षगुणरूप
परिणमित होनेकी शक्तिरूप स्वभावके कारण उसके प्रदेशोंका उद्भव है; इसलिये पर्यायसे
अनेकप्रदेशीपनेका भी संभव होनेसे पुद्गलको द्विप्रदेशीपनेसे लेकर संख्यात, असंख्यात और
अनन्तप्रदेशीपना भी न्याययुक्त है
।।१३७।।
अब, ‘कालाणु अप्रदेशी ही है’ ऐसा नियम करते हैं (अर्थात् दरशाते हैं :)
अन्वयार्थ :[समयः तु ] काल तो [अप्रदेशः ] अप्रदेशी है, [प्रदेशमात्रस्य
द्रव्यजातस्य ] प्रदेशमात्र पुद्गल -परमाणु [आकाशद्रव्यस्य प्रदेशं ] आकाश द्रव्यके प्रदेशको
[व्यतिपततः ] मंद गतिसे उल्लंघन कर रहा हो तब [सः वर्तते ] वह वर्तता है अर्थात्
निमित्तभूततया परिणमित होता है
।।१३८।।
१. द्विप्रदेशी इत्यादि स्कन्धोंकी उत्पत्तिके कारणभूत जो स्निग्ध -रूक्ष गुण हैं उनरूप परिणमित होनेकी शक्ति
पुद्गलका स्वभाव है
छे काळ तो अप्रदेश; एकप्रदेश परमाणु यदा
आकाशद्रव्य तणो प्रदेश अतिक्रमे, वर्ते तदा. १३८.

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अप्रदेश एव समयो, द्रव्येण प्रदेशमात्रत्वात न च तस्य पुद्गलस्येव पर्यायेणाप्य-
नेकप्रदेशत्वं, यतस्तस्य निरन्तरं प्रस्तारविस्तृतप्रदेशमात्रासंख्येयद्रव्यत्वेऽपि परस्परसंपर्का-
संभवादेकैकमाकाशप्रदेशमभिव्याप्य तस्थुषः प्रदेशमात्रस्य परमाणोस्तदभिव्याप्तमेकमाकाशप्रदेशं
मन्दगत्या व्यतिपतत एव वृत्तिः
।।१३८।।
अथ कालपदार्थस्य द्रव्यपर्यायौ प्रज्ञापयति
परस्परबन्धो भवति तथाविधबन्धाभावात्पर्यायेणापि अयमत्रार्थःयस्मात्पुद्गलपरमाणोरेकप्रदेश-
गमनपर्यन्तं सहकारित्वं क रोति न चाधिकं तस्मादेव ज्ञायते सोऽप्येकप्रदेश इति ।।१३८।। अथ
पूर्वोक्तकालपदार्थस्य पर्यायस्वरूपं द्रव्यस्वरूपं च प्रतिपादयतिवदिवददो तस्य पूर्वसूत्रोदित-
१. प्रस्तार = विस्तार (असंख्यात कालद्रव्य समस्त लोकाकाशमें फै ले हुए हैं उनके परस्पर अन्तर नहीं
है, क्योंकि प्रत्येक आकाशप्रदेशमें एक -एक कालद्रव्य रह रहा है )
२. प्रदेशमात्र = एकप्रदेशी (जब एकप्रदेशी ऐसा परमाणु किसी एक आकाशप्रदेशको मन्दगतिसे
उल्लंघन कर रहा हो तभी उस आकाशप्रदेशमें रहनेवाले कालद्रव्यकी परिणति उसमें निमित्तभूतरूपसे
वर्तती है
)
प्र. ३५
टीका :काल, द्रव्यसे प्रदेशमात्र होनेसे, अप्रदेशी ही है और उसे पुद्गलकी भाँति
पर्यायसे भी अनेकप्रदेशीपना नहीं है; क्योंकि परस्पर अन्तरके बिना प्रस्ताररूप विस्तृत
प्रदेशमात्र असंख्यात कालद्रव्य होने पर भी परस्पर संपर्क न होनेसे एक -एक आकाशप्रदेशको
व्याप्त करके रहनेवाले कालद्रव्यकी वृत्ति तभी होती है (अर्थात् कालाणुकी परिणति तभी
निमित्तभूत होती है ) कि जब
प्रदेशमात्र परमाणु उस (कालाणु) से व्याप्त एक
आकाशप्रदेशको मन्दगतिसे उल्लंघन करता हो
भावार्थ :लोकाकाशके असंख्यातप्रदेश हैं एक -एक प्रदेशमें एक -एक कालाणु
रहा हुआ है वे कालाणु स्निग्ध -रूक्षगुणके अभावके कारण रत्नोंकी राशिकी भाँति पृथक्-
पृथक् ही रहते हैं; पुद्गल -परमाणुओंकी भाँति परस्पर मिलते नहीं हैं
जब पुद्गलपरमाणु आकाशके एक प्रदेशको मन्द गतिसे उल्लंघन करता है (अर्थात्
एक प्रदेशसे दूसरे अनन्तर -निकटतम प्रदेश पर मन्द गतिसे जाता है ) तब उस (उल्लंघित
किये जानेवाले) प्रदेशमें रहनेवाला कालाणु उसमें निमित्तभूतरूपसे रहता है
इसप्रकार प्रत्येक
कालाणु पुद्गलपरमाणुके एकप्रदेश तकके गमन पर्यंत ही सहकारीरूपसे रहता है, अधिक नहीं;
इससे स्पष्ट होता है कि कालद्रव्य पर्यायसे भी अनेकप्रदेशी नहीं है
।।१३८।।
अब, कालपदार्थके द्रव्य और पर्यायको बतलाते हैं :

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वदिवददो तं देसं तस्सम समओ तदो परो पुव्वो
जो अत्थो सो कालो समओ उप्पण्णपद्धंसी ।।१३९।।
व्यतिपततस्तं देशं तत्समः समयस्ततः परः पूर्वः
योऽर्थः स कालः समय उत्पन्नप्रध्वंसी ।।१३९।।
यो हि येन प्रदेशमात्रेण कालपदार्थेनाकाशस्य प्रदेशोऽभिव्याप्तस्तं प्रदेशं मन्द-
गत्यातिक्रमतः परमाणोस्तत्प्रदेशमात्रातिक्रमणपरिमाणेन तेन समो यः कालपदार्थ-
सूक्ष्मवृत्तिरूपसमयः स तस्य कालपदार्थस्य पर्यायस्ततः एवंविधात्पर्यायात्पूर्वोत्तरवृत्तिवृत्तत्वेन-
पुद्गलपरमाणोर्व्यतिपततो मन्दगत्या गच्छतः कं कर्मतापन्नम् तं देसं तं पूर्वगाथोदितं
कालाणुव्याप्तमाकाशप्रदेशम् तस्सम तेन कालाणुव्याप्तैकप्रदेशपुद्गलपरमाणुमन्दगतिगमनेन समः
समानः सदृशस्तत्समः समओ कालाणुद्रव्यस्य सूक्ष्मपर्यायभूतः समयो व्यवहारकालो भवतीति
पर्यायव्याख्यानं गतम् तदो परो पुव्वो तस्मात्पूर्वोक्तसमयरूपकालपर्यायात्परो भाविकाले पूर्वमतीतकाले
जो अत्थो यः पूर्वापरपर्यायेष्वन्वयरूपेण दत्तपदार्थो द्रव्यं सो कालो स कालः कालपदार्थो भवतीति
द्रव्यव्याख्यानम् समओ उप्पण्णपद्धंसी स पूर्वोक्तसमयपर्यायो यद्यपि पूर्वापरसमयसन्तानापेक्षया
१. अतिक्रमण = उल्लंघन करना २. परिमाण = माप
३. वृत्ति = वर्तना सो परिणति है (काल पदार्थ वर्तमान समयसे पूर्वकी परिणतिरूप तथा उसके बादकी
परिणतिरूपसे परिणमित होता है, इसलिये उसका नित्यत्व प्रगट है )
ते देशना अतिक्रमण सम छे ‘समय’, तत्पूर्वापरे
जे अर्थ छे ते काळ छे, उत्पन्नध्वंसी ‘समय’ छे. १३९.
अन्वयार्थ :[तं देशं व्यतिपततः ] परमाणु एक आकाशप्रदेशका (मन्दगतिसे)
उल्लंघन करता है तब [तत्समः ] उसके बराबर जो काल (लगता है ) वह [समयः ]
‘समय’ है; [तत्ः पूर्वः परः ] उस (समय) से पूर्व तथा पश्चात् ऐसा (नित्य) [यः
अर्थः ]
जो पदार्थ है [सः कालः ] वह कालद्रव्य है; [समयः उत्पन्नप्रध्वंसी ] ‘समय
उत्पन्नध्वंसी है
।।१३९।।
टीका :किसी प्रदेशमात्र कालपदार्थके द्वारा आकाशका जो प्रदेश व्याप्त हो उस
प्रदेशको जब परमाणु मन्द गतिसे अतिक्रम (उल्लंघन) करता है तब उस प्रदेशमात्र
अतिक्रमणके परिमाणके बराबर जो कालपदार्थकी सूक्ष्मवृत्तिरूप ‘समय’ है वह, उस काल
पदार्थकी पर्याय है; और ऐसी उस पर्यायसे पूर्वकी तथा बादकी वृत्तिरूपसे प्रवर्तमान होनेसे

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व्यंजितनित्यत्वे योऽर्थः तत्तु द्रव्यम् एवमनुत्पन्नाविध्वस्तो द्रव्यसमयः, उत्पन्नप्रध्वंसी पर्याय-
समयः अनंशः समयोऽयमाकाशप्रदेशस्यानंशत्वान्यथानुपपत्तेः न चैकसमयेन परमाणोरा-
लोकान्तगमनेऽपि समयस्य सांशत्वं, विशिष्टगतिपरिणामाद्विशिष्टावगाहपरिणामवत तथा
हियथा विशिष्टावगाहपरिणामादेकपरमाणुपरिमाणोऽनन्तपरमाणुस्कन्धः परमाणोरनंशत्वात
पुनरप्यनन्तांशत्वं न साधयति, तथा विशिष्टगतिपरिणामादेककालाणुव्याप्तैकाकाशप्रदेशाति-
संख्येयासंख्येयानन्तसमयो भवति, तथापि वर्तमानसमयं प्रत्युत्पन्नप्रध्वंसी यस्तु पूर्वोक्तद्रव्यकालः स
त्रिकालस्थायित्वेन नित्य इति एवं कालस्य पर्यायस्वरूपं द्रव्यस्वरूपं च ज्ञातव्यम् ।। अथवानेन
गाथाद्वयेन समयरूपव्यवहारकालव्याख्यानं क्रियते निश्चयकालव्याख्यानं तु ‘उप्पादो पद्धंसो’ इत्यादि
गाथात्रयेणाग्रे करोति तद्यथासमओ परमार्थकालस्य पर्यायभूतसमयः अवप्पदेसो अपगतप्रदेशो
द्वितीयादिप्रदेशरहितो निरंश इत्यर्थः कथं निरंश इति चेत् पदेसमेत्तस्स दवियजादस्स
प्रदेशमात्रपुद्गलद्रव्यस्य संबन्धी योऽसौ परमाणुः वदिवादादो वट्टदि व्यतिपातात् मन्दगति-
गमनात्सकाशात्स परमाणुस्तावद्गमनरूपेण वर्तते कं प्रति पदेसमागासदवियस्स विवक्षितै-
काकाशप्रदेशं प्रति इति प्रथमगाथाव्याख्यानम् वदिवददो तं देसं स परमाणुस्तमाकाशप्रदेशं यदा
व्यतिपतितोऽतिक्रान्तो भवति तस्सम समओ तेन पुद्गलपरमाणुमन्दगतिगमनेन समः समानः समयो
भवतीति निरंशत्वमिति वर्तमानसमयो व्याख्यातः इदानीं पूर्वापरसमयौ कथयतितदो परो पुव्वो
तस्मात्पूर्वोक्तवर्तमानसमयात्परो भावी कोऽपि समयो भविष्यति पूर्वमपि कोऽपि गतः अत्थो जो एवं
यः समयत्रयरूपोर्थः सो कालो सोऽतीतानागतवर्तमानरूपेण त्रिविधव्यवहारकालो भण्यते समओ
उप्पण्णपद्धंसी तेषु त्रिषु मध्ये योऽसौ वर्तमानः स उत्पन्नप्रध्वंसी अतीतानागतौ तु संख्येयासंख्ये-
जिसका नित्यत्व प्रगट होता है ऐसा पदार्थ वह द्रव्य है इसप्रकार द्रव्यसमय (कालद्रव्य)
अनुत्पन्न -अविनष्ट है और पर्यायसमय उत्पन्नध्वंसी है (अर्थात् ‘समय’ पर्याय उत्पत्ति-
विनाशवाली है
) यह ‘समय’ निरंश है, क्योंकि यदि ऐसा न हो तो आकाशके प्रदेशका
निरंशत्व न बने
और एक समयमें परमाणु लोकके अन्त तक जाता है फि र भी ‘समय’ के अंश नहीं
होते; क्योंकि जैसे (परमाणुके ) विशिष्ट (खास प्रकारका) अवगाहपरिणाम होता है उसीप्रकार
(परमाणुके) विशिष्ट गतिपरिणाम होता है
इसे समझाते हैं :जैसे विशिष्ट अवगाहपरिणामके
कारण एक परमाणुके परिमाणके बराबर अनन्त परमाणुओंका स्कंध बनता है तथापि वह स्कंध
परमाणुके अनन्त अंशोंको सिद्ध नहीं करता, क्योंकि परमाणु निरंश है; उसीप्रकार जैसे एक
कालाणुसे व्याप्त एक आकाशप्रदेशके अतिक्रमणके मापके बराबर एक ‘समय’ में परमाणु
विशिष्ट गतिपरिणामके कारण लोकके एक छोरसे दूसरे छोर तक जाता है तब (उस परमाणुके

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क्रमणपरिमाणावच्छिन्नेनैकसमयेनैकस्माल्लोकान्ताद् द्वितीयं लोकान्तमाक्रामतः परमाणोर-
संख्येयाः कालाणवः समयस्यानंशत्वादसंख्येयांशत्वं न साधयन्ति
।।१३९।।
यानन्तसमयावित्यर्थः एवमुक्तलक्षणे काले विद्यमानेऽपि परमात्मतत्त्वमलभमानोऽतीतानन्तकाले
संसारसागरे भ्रमितोऽयं जीवो यतस्ततः कारणात्तदेव निजपरमात्मतत्त्वं सर्वप्रकारोपादेयरूपेण
श्रद्धेयं, स्वसंवेदनज्ञानरूपेण ज्ञातव्यमाहारभयमैथुनपरिग्रहसंज्ञास्वरूपप्रभृतिसमस्तरागादिविभावत्यागेन

ध्येयमिति तात्पर्यम्
।।१३९।। एवं कालव्याख्यानमुख्यत्वेन षष्ठस्थले गाथाद्वयं गतम् अथ पूर्वं
द्वारा उल्लंघित होनेवाले) असंख्य कालाणु ‘समय’ के असंख्य अंशोंको सिद्ध नहीं करते,
क्योंकि ‘समय’ निरंश है
भावार्थ :परमाणुको एक आकाशप्रदेशसे दूसरे अनंतर (अन्तररहित) आकाशप्रदेश
पर मन्द गतिसे जानेमें जितना काल लगता है उसे ‘समय’ कहते हैं वह समय कालद्रव्यकी
सूक्ष्मातिसूक्ष्म पर्याय है कालद्रव्य नित्य है; ‘समय’ उत्पन्न होता है और नष्ट होता है जैसे
आकाशप्रदेश आकाश द्रव्यका छोटेसे छोटा अंश है, उसके भाग नहीं होते, उसीप्रकार ‘समय’
कालद्रव्यकी छोटीसे छोटी निरंश पर्याय है, उसके भाग नहीं होते
यदि ‘समय’ के भाग हों
तो परमाणुके द्वारा एक ‘समय’ में उल्लंघन किये जानेवाले आकाशप्रदेशके भी उतने ही भाग
होने चाहिये; किन्तु आकाशप्रदेश तो निरंश है; इसलिये ‘समय’ भी निरंश ही है
यहाँ प्रश्न होता है कि ‘‘जब पुद्गल -परमाणु शीघ्र गतिके द्वारा एक ‘समय’ में
लोकके एक छोरसे दूसरे छोर तक पहुँच जाता है तब वह चौदह राजू तक आकाशप्रदेशोंमें
श्रेणिबद्ध जितने कालाणु हैं उन सबको स्पर्श करता है; इसलिये असंख्य कालाणुओंको स्पर्श
करनेसे ‘समय’के असंख्य अंश होना चाहिये’’ इसका समाधान यह है :
जैसे अनन्त परमाणुओंका कोई स्कंध आकाशके एक प्रदेशमें समाकर परिमाणमें
(कदमें) एक परमाणु जितना ही होता है, सो वह परमाणुओंके विशेष (खास) प्रकारके
अवगाहपरिणामके कारण ही है; (परमाणुओंमें ऐसी ही कोई विशिष्ट प्रकारकी
अवगाहपरिणामकी शक्ति है, जिसके कारण ऐसा होता है,) इससे कहीं परमाणुके अनन्त अंश
नहीं होते; इसीप्रकार कोई परमाणु एक समयमें असंख्य कालाणुओंको उल्लंघन करके लोकके
एक छोरसे दूसरे छोर तक पहुँच जाता है, सो वह परमाणुके विशेष प्रकारके गतिपरिणामके
कारण ही है; (परमाणुमें ऐसी ही कोई विशिष्ट प्रकारकी गतिपरिणामकी शक्ति है, जिसके
कारण ऐसा होता है;) इससे कहीं ‘समय’के असंख्य अंश नहीं होते
।।१३९।।
१. आकाशमें अवगाहहेतुत्वके कारण ऐसी शक्ति है कि उसका एक प्रदेश भी अनन्त परमाणुओंको अवकाश
देनेमें समर्थ है

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अथाकाशस्य प्रदेशलक्षणं सूत्रयति
आगासमणुणिविट्ठं आगासपदेससण्णया भणिदं
सव्वेसिं च अणूणं सक्कदि तं देदुमवगासं ।।१४०।।
आकाशमणुनिविष्टमाकाशप्रदेशसंज्ञया भणितम्
सर्वेषां चाणूनां शक्नोति तद्दातुमवकाशम् ।।१४०।।
आकाशस्यैकाणुव्याप्योंऽशः किलाकाशप्रदेशः, स खल्वेकोऽपि शेषपंचद्रव्यप्रदेशानां
परमसौक्ष्म्यपरिणतानन्तपरमाणुस्कन्धानां चावकाशदानसमर्थः अस्ति चाविभागैकद्रव्यत्वेऽप्यंश-
कल्पनमाकाशस्य, सर्वेषामणूनामवकाशदानस्यान्यथानुपपत्तेः यदि पुनराकाशस्यांशा न
स्युरिति मतिस्तदाङ्गुलीयुगलं नभसि प्रसार्य निरूप्यतां किमेकं क्षेत्रं किमनेकम् एकं
यत्सूचितं प्रदेशस्वरूपं तदिदानीं विवृणोतिआगासमणुणिविट्ठं आकाशं अणुनिविष्टं पुद्गल-
परमाणुव्याप्तम् आगासपदेससण्णया भणिदं आकाशप्रदेशसंज्ञया भणितं कथितम् सव्वेसिं च अणूणं
अब, आकाशके प्रदेशका लक्षण सूत्र द्वारा कहते हैं :
अन्वयार्थ :[अणुनिविष्टं आकाशं ] एक परमाणु जितने आकाशमें रहता है उतने
आकाशको [आकाशप्रदेशसंज्ञया ] ‘आकाशप्रदेश’ ऐसे नामसे [भणितम् ] कहा गया है
[च ] और [तत् ] वह [सर्वेषां अणूनां ] समस्त परमाणुओंको [अवकाशं दातुं शक्नोति ]
अवकाश देनेको समर्थ है
।।१४०।।
टीका :आकाशका एक परमाणुसे व्याप्य अंश वह आकाशप्रदेश है; और वह एक
(आकाशप्रदेश) भी शेष पाँच द्रव्योंके प्रदेशोंको तथा परम सूक्ष्मतारूपसे परिणमित अनन्त
परमाणुओंके स्कंधोंको अवकाश देनेमें समर्थ है
आकाश अविभाग (अखंड) एक द्रव्य है,
फि र भी उसमें (प्रदेशरूप) अंशकल्पना हो सकती है, क्योंकि यदि ऐसा न हो तो सर्व
परमाणुओंको अवकाश देना नहीं बन सकेगा
ऐसा होने पर भी यदि ‘आकाशके अंश नहीं होते’ (अर्थात् अंशकल्पना नहीं की जाती),
ऐसी (किसीकी) मान्यता हो, तो आकाशमें दो अंगुलियाँ फै लाकर बताइये कि ‘दो अंगुलियोंका
आकाश जे अणुव्याप्य, ‘आभप्रदेश’ संज्ञा तेहने;
ते एक सौ परमाणुने अवकाशदानसमर्थ छे. १४०.

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चेत्किमभिन्नांशाविभागैकद्रव्यत्वेन किं वा भिन्नांशाविभागैकद्रव्यत्वेन अभिन्नांशा-
विभागैकद्रव्यत्वेन चेत् येनांशेनैकस्या अंगुलेः क्षेत्रं तेनांशेनेतरस्या इत्यन्यतरांशाभावः एवं
द्वयाद्यंशानामभावादाकाशस्य परमाणोरिव प्रदेशमात्रत्वम् भिन्नांशाविभागैकद्रव्यत्वेन चेत
अविभागैकद्रव्यस्यांशकल्पनमायातम् अनेकं चेत् किं सविभागानेकद्रव्यत्वेन किं वाऽविभागै-
कद्रव्यत्वेन सविभागानेकद्रव्यत्वेन चेत् एकद्रव्यस्याकाशस्यानन्तद्रव्यत्वं, अविभागैकद्रव्यत्वेन
चेत् अविभागैकद्रव्यस्यांशकल्पनमायातम् ।।१४०।।
सर्वेषामणूनां चकारात्सूक्ष्मस्कन्धानां च सक्कदि तं देदुमवगासं शक्नोति स आकाशप्रदेशो दातुम-
वकाशम् तस्याकाशप्रदेशस्य यदीत्थंभूतमवकाशदानसामर्थ्यं न भवति तदानन्तानन्तो जीवराशिस्त-
स्मादप्यनन्तगुणपुद्गलराशिश्चासंख्येयप्रदेशलोके कथमवकाशं लभते तच्च विस्तरेण पूर्वं भणितमेव
अथ मतम्अखण्डाकाशद्रव्यस्य प्रदेशविभागः कथं घटते परिहारमाहचिदानन्दैकस्वभावनिजात्म-
तत्त्वपरमैकाग्रयलक्षणसमाधिसंजातनिर्विकाराह्लादैकरूपसुखसुधारसास्वादतृप्तमुनियुगलस्यावस्थितक्षेत्रं
किमेकमनेकं वा
यद्येकं तर्हि द्वयोरप्येकत्वं प्राप्नोति न च तथा भिन्नं चेत्तदा अखण्डस्या-
प्याकाशद्रव्यस्य प्रदेशविभागो न विरुध्यत इत्यर्थः ।।१४०।। अथ तिर्यक्प्रचयोर्ध्वप्रचयौ
एक क्षेत्र है या अनेक ?’ यदि एक है तो (प्रश्न होता है कि :), (१) आकाश अभिन्न
अंशोवाला अविभाग एक द्रव्य है, इसलिये दो अंगुलियोंका एक क्षेत्र है या (२) भिन्न
अंशोंवाला अविभाग एक द्रव्य है, इसलिये ? (१) यदि ‘आकाश अभिन्न अंशवाला अविभाग
एक द्रव्य है इसलिये दो अंगुलियोंका एक क्षेत्र है’ ऐसा कहा जाय तो, जो अंश एक अंगुलिका
क्षेत्र है वही अंश दूसरी अंगुलिका भी क्षेत्र है, इसलिये दोमेंसे एक अंशका अभाव हो गया
इस प्रकार दो इत्यादि (एकसे अधिक) अंशोंका अभाव होनेसे आकाश परमाणुकी भाँति
प्रदेशमात्र सिद्ध हुआ ! (इसलिये यह तो घटित नहीं होता); (२) यदि यह कहा जाय कि
‘आकाश भिन्न अंशोंवाला अविभाग एक द्रव्य है’ (इसलिये दो अंगुलियोंका एक क्षेत्र है) तो
(यह योग्य ही है, क्योंकि) अविभाग एक द्रव्यमें अंश
कल्पना फलित हुई
यदि ऐसा कहा जाय कि (दो अंगुलियोंके) ‘अनेक क्षेत्र हैं ’ (अर्थात् एकसे अधिक
क्षेत्र हैं, एक नहीं) तो (प्रश्न होता है कि), (१) ‘आकाश सविभाग (खंडखंडरूप) अनेक
द्रव्य है इसलिये दो अंगुलियोंके अनेक क्षेत्र हैं या (२) ‘आकाश अविभाग एक द्रव्य’ होनेपर
भी दो अंगुलियोंके अनेक (एक से अधिक) क्षेत्र हैं ? (१) ‘आकाश सविभाग अनेक द्रव्य
होनेसे दो अंगलियोंके अनेक क्षेत्र हैं’ ऐसा माना जाय तो, आकाश जो कि एक द्रव्य है उसे
अनन्तद्रव्यत्व आजायगा’; (इसलिये यह तो घटित नहीं होता) (२) ‘आकाश अविभाग एक
द्रव्य होनेसे दो अंगुलियोंका अनेक क्षेत्र है’ ऐसा माना जाय तो (यह योग्य ही है क्योंकि)
अविभाग एक द्रव्यमें अंशकल्पना फलित हुई
।।१४०।।

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अथ तिर्यगूर्ध्वप्रचयावावेदयति
एक्को व दुगे बहुगा संखातीदा तदो अणंता य
दव्वाणं च पदेसा संति हि समय त्ति कालस्स ।।१४१।।
एको वा द्वौ बहवः संख्यातीतास्ततोऽनन्ताश्च
द्रव्याणां च प्रदेशाः सन्ति हि समया इति कालस्य ।।१४१।।
प्रदेशप्रचयो हि तिर्यक्प्रचयः समयविशिष्टवृत्तिप्रचयस्तदूर्ध्वप्रचयः तत्राकाशस्या-
वस्थितानन्तप्रदेशत्वाद्धर्माधर्मयोरवस्थितासंख्येयप्रदेशत्वाज्जीवस्यानवस्थितासंख्येयप्रदेशत्वात्पुद्गलस्य
निरूपयतिएक्को व दुगे बहुगा संखातीदा तदो अणंता य एको वा द्वौ बहवः संख्यातीतास्ततोऽनन्ताश्च
दव्वाणं च पदेसा संति हि कालद्रव्यं विहाय पञ्चद्रव्याणां संबन्धिन एते प्रदेशा यथासंभवं सन्ति हि
स्फु टम् समय त्ति कालस्स कालस्य पुनः पूर्वोक्तसंख्योपेताः समयाः सन्तीति तद्यथाएकाकारपरम-
समरसीभावपरिणतपरमानन्दैकलक्षणसुखामृतभरितावस्थानां केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपानन्तगुणाधारभूतानां
लोकाकाशप्रमितशुद्धासंख्येयप्रदेशानां मुक्तात्मपदार्थे योऽसौ प्रचयः समूहः समुदायो राशिः स
किं
किं भण्यते तिर्यक्प्रचय इति तिर्यक्सामान्यमिति विस्तारसामान्यमिति अक्रमानेकान्त इति च
अब, तिर्यक्प्रचय तथा ऊ र्ध्वप्रचय बतलाते हैं :
अन्वयार्थ :[द्रव्याणां च ] द्रव्योंके [एकः ] एक, [द्वौ ] दो, [बहवः ] बहुतसे,
[संख्यातीताः ] असंख्य, [वा ] अथवा [ततः अनन्ताः च ] अनन्त [प्रदेशाः ] प्रदेश [सन्ति
हि ]
हैं
[कालस्य ] कालसे [समयाः इति ] ‘समय’ हैं ।।१४१।।
टीका :प्रदेशोंका प्रचय (समूह) तिर्यक्प्रचय और समयविशिष्ट वृत्तियोंका समूह
वह ऊ र्ध्वप्रचय है
वहाँ आकाश अवस्थित (-निश्चल, स्थिर) अनन्त प्रदेशी होनेसे धर्म तथा अधर्म
अवस्थित असंख्य प्रदेशी होनेसे जीव अनवस्थित (अस्थिर) असंख्यप्रदेशी है और पुद्गल
१. तिर्यक् = तिरछा; आडा; क्षेत्र - अपेक्षित (प्रदेशोंका फै लाव)
२. ऊ र्ध्व = ऊँचा; काल - अपेक्षित
३. वृत्ति = वर्तना; परिणति; पर्याय; उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य; अस्तित्व
वर्ते प्रदेशो द्रव्यने, जे एक अथवा बे अने
बहु वा असंख्य, अनंत छे; वळी होय समयो काळने. १४१
.

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द्रव्येणानेकप्रदेशत्वशक्तियुक्तैकप्रदेशत्वात्पर्यायेण द्विबहुप्रदेशत्वाच्चास्ति तिर्यक्प्रचयः न पुनः
कालस्य, शक्त्या व्यक्त्या चैकप्रदेशत्वात ऊर्ध्वप्रचयस्तु त्रिकोटिस्पर्शित्वेन सांशत्वाद् द्रव्यवृत्तेः
सर्वद्रव्याणामनिवारित एव अयं तु विशेषःसमयविशिष्टवृत्तिप्रचयः शेषद्रव्याणामूर्ध्वप्रचयः,
समयप्रचय एव कालस्योर्ध्वप्रचयः शेषद्रव्याणां वृत्तेर्हि समयादर्थान्तरभूतत्वादस्ति समय-
विशिष्टत्वम् कालवृत्तेस्तु स्वतः समयभूतत्वात्तन्नास्ति ।।१४१।।
अथ कालपदार्थोर्ध्वप्रचयनिरन्वयत्वमुपहन्ति
भण्यते स च प्रदेशप्रचयलक्षणस्तिर्यक्प्रचयो यथा मुक्तात्मद्रव्ये भणितस्तथा कालं विहाय स्वकीय-
स्वकीयप्रदेशसंख्यानुसारेण शेषद्रव्याणां स भवतीति तिर्यक्प्रचयो व्याख्यातः प्रतिसमयवर्तिनां
पूर्वोत्तरपर्यायाणां मुक्ताफलमालावत्सन्तान ऊर्द्ध्वप्रचय इत्यूर्ध्वसामान्यमित्यायतसामान्यमिति
क्रमानेकान्त इति च भण्यते
स च सर्वद्रव्याणां भवति किंतु पञ्चद्रव्याणां संबन्धी
पूर्वापरपर्यायसन्तानरूपो योऽसावूर्ध्वताप्रचयस्तस्य स्वकीयस्वकीयद्रव्यमुपादानकारणम् कालस्तु
प्रतिसमयं सहकारिकारणं भवति यस्तु कालस्य समयसन्तानरूप ऊर्ध्वताप्रचयस्तस्य काल
एवोपादानकारणं सहकारिकारणं च कस्मात् कालस्य भिन्नसमयाभावात्पर्याया एव समया
द्रव्यसे अनेक प्रदेशीपनेकी शक्तिसे युक्त एकप्रदेशवाला है तथा पर्यायसे दो अथवा बहुत
(-संख्यात, असंख्यात और अनन्त) प्रदेशवाला है, इसलिये उनके तिर्यक्प्रचय है; परन्तु
कालके (तिर्यक्प्रचय) नहीं है, क्योंकि वह शक्ति तथा व्यक्ति (की अपेक्षा) से एक
प्रदेशवाला है
ऊ र्ध्वप्रचय तो सर्व द्रव्योंके अनिवार्य ही है, क्योंकि द्रव्यकी वृत्ति तीन कोटियोंको
(-भूत, वर्तमान, और भविष्य ऐसे तीनों कालोंको) स्पर्श करती है, इसलिये अंशोंसे युक्त
है
परन्तु इतना अन्तर है कि समयविशिष्ट वृत्तियोंका प्रचय वह (कालको छोड़कर)
शेष द्रव्योंका ऊ र्ध्वप्रचय है, और समयोंका प्रचय वही कालद्रव्यका ऊ र्ध्वप्रचय है;
क्योंकि शेष द्रव्योंकी वृत्ति समयसे अर्थान्तरभूत (-अन्य) होनेसे वह (वृत्ति) समय
विशिष्ट है, और कालद्रव्यकी वृत्ति तो स्वतः समयभूत है, इसलिये वह समयविशिष्ट नहीं
है
।।१४१।।
अब, कालपदार्थका ऊ र्ध्वप्रचय निरन्वय है, इस बातका खंडन करते हैं :
१.* समयविशिष्ट = समयसे विशिष्ट; समयके निमित्तभूत होनेसे व्यवहारसे जिसमें समयकी अपेक्षा
होती है
२. निरन्वय = अन्वय रहित, एक प्रवाहरूप न होनेवाला, खंडित; एकरूपता -सदृशतासे रहित

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उप्पादो पद्धंसो विज्जदि जदि जस्स एगसमयम्हि
समयस्स सो वि समओ सभावसमवट्ठिदो हवदि ।।१४२।।
उत्पादः प्रध्वंसो विद्यते यदि यस्यैकसमये
समयस्य सोऽपि समयः स्वभावसमवस्थितो भवति ।।१४२।।
समयो हि समयपदार्थस्य वृत्त्यंशः तस्मिन् कस्याप्यवश्यमुत्पादप्रध्वंसौ संभवतः,
परमाणोर्व्यतिपातोत्पद्यमानत्वेन कारणपूर्वत्वात तौ यदि वृत्त्यंशस्यैव, किं यौगपद्येन किं
भवन्तीत्यभिप्रायः ।।१४१।। एवं सप्तमस्थले स्वतन्त्रगाथाद्वयं गतम् अथ समयसन्तानरूपस्योर्ध्व-
प्रचयस्यान्वयिरूपेणाधारभूतं कालद्रव्यं व्यवस्थापयतिउप्पादो पद्धंसो विज्जदि जदि उत्पादः प्रध्वंसो
विद्यते यदि चेत् कस्य जस्स यस्य कालाणोः क्व एगसमयम्हि एकसमये वर्तमानसमये समयस्स
समयोत्पादकत्वात्समयः कालाणुस्तस्य सो वि समओ सोऽपि कालाणुः सभावसमवट्ठिदो हवदि
स्वभावसमवस्थितो भवति पूर्वोक्तमुत्पादप्रध्वंसद्वयं तदाधारभूतं कालाणुद्रव्यरूपं ध्रौव्यमिति
प्र. ३६
अन्वयार्थ :[यदि यस्य समयस्य ] यदि कालका [एक समये ] एक
समयमें [उत्पादः प्रध्वंसः ] उत्पाद और विनाश [विद्यते ] पाया जाता है, [सः अपि
समयः ]
तो वह भी काल [स्वभावसमवस्थितः ] स्वभावमें अवस्थित अर्थात् ध्रुव
[भवति ] (सिद्ध) है
टीका :समय कालपदार्थका वृत्त्यंश है; उसमें (-उस वृत्त्यंशमें) किसीके भी
अवश्य उत्पाद तथा विनाश संभवित हैं; क्योंकि परमाणुके अतिक्रमणके द्वारा (समयरूपी
वृत्त्यंश) उत्पन्न होता है, इसलिये वह कारणपूर्वक है
(परमाणुके द्वारा एक आकाशप्रदेशका
मंदगतिसे उल्लंघन करना वह कारण है और समयरूपी वृत्त्यंश उस कारणका कार्य है, इसलिये
उसमें किसी पदार्थके उत्पाद तथा विनाश होते होना चाहिये
) ।।१४२।।
(‘किसी पदार्थके उत्पादविनाश होनेकी क्या आवश्यकता है ? उसके स्थान पर उस
वृत्त्यंशको ही उत्पादविनाश होते मान लें तो क्या आपत्ति है ?’ इस तर्कका समाधान करते
हैं)
यदि उत्पाद और विनाश वृत्त्यंशके ही माने जायें तो, (प्रश्न होता है कि) (१) वे
१. वृत्त्यंश = वृत्तिका अंश; सूक्ष्मातिसूक्ष्म परिणति अर्थात् पर्याय
एक ज समयमां ध्वंस ने उत्पादनो सद्भाव छे
जो काळने, तो काळ तेह स्वभाव
समवस्थित छे. १४२.

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क्रमेण यौगपद्येन चेत्, नास्ति यौगपद्यं, सममेकस्य विरुद्धधर्मयोरनवतारात क्रमेण चेत्,
नास्ति क्रमः, वृत्त्यंशस्य सूक्ष्मत्वेन विभागाभावात ततो वृत्तिमान् कोऽप्यवश्यमनुसर्तव्यः
स च समयपदार्थ एव तस्य खल्वेकस्मिन्नपि वृत्त्यंशे समुत्पादप्रध्वंसौ संभवतः यो हि यस्य
वृत्तिमतो यस्मिन् वृत्त्यंशे तद्वृत्यंशविशिष्टत्वेनोत्पादः, स एव तस्यैव वृत्तिमतस्तस्मिन्नेव वृत्त्यंशे
पूर्ववृत्त्यंशविशिष्टत्वेन प्रध्वंसः
यद्येवमुत्पादव्ययावेकस्मिन्नपि वृत्त्यंशे संभवतः समयपदार्थस्य
कथं नाम निरन्वयत्वं, यतः पूर्वोत्तरवृत्त्यंशविशिष्टत्वाभ्यां युगपदुपात्तप्रध्वंसोत्पादस्यापि
स्वभावेनाप्रध्वस्तानुत्पन्नत्वादवस्थितत्वमेव न भवेत
एवमेकस्मिन् वृत्त्यंशे समयपदार्थ-
त्रयात्मकः स्वभावः सत्तास्तित्वमिति यावत् तत्र सम्यगवस्थितः स्वभावसमवस्थितो भवति तथाहितथाहि
यथाङ्गुलिद्रव्ये यस्मिन्नेव वर्तमानक्षणे वक्रपर्यायस्योत्पादस्तस्मिन्नेव क्षणे तस्यैवाङ्गुलिद्रव्यस्य
पूर्वर्जुपर्यायेण प्रध्वंसस्तदाधारभूताङ्गुलिद्रव्यत्वेन ध्रौव्यमिति द्रव्यसिद्धिः
अथवा स्वस्वभावरूप-
सुखेनोत्पादस्तस्मिन्नेव क्षणे तस्यैवात्मद्रव्यस्य पूर्वानुभूताकुलत्वदुःखरूपेण प्रध्वंसस्तदुभयाधारभूत-
परमात्मद्रव्यत्वेन ध्रौव्यमिति द्रव्यसिद्धिः
अथवा मोक्षपर्यायरूपेणोत्पादस्तस्मिन्नेव क्षणे रत्नत्रयात्मक-
निश्चयमोक्षमार्गपर्यायरूपेण प्रध्वंसस्तदुभयाधारपरमात्मद्रव्यत्वेन ध्रौव्यमिति द्रव्यसिद्धिः तथा
वर्तमानसमयरूपपर्यायेणोत्पादस्तस्मिन्नेव क्षणे तस्यैव कालाणुद्रव्यस्य पूर्वसमयरूपपर्यायेण प्रध्वंसस्त-
(उत्पाद तथा विनाश) युगपद् हैं या (२) क्रमशः ? (१) यदि ‘युगपत्’ कहा जाय तो
युगपत्पना घटित नहीं होता, क्योंकि एक ही समय एकके दो विरोधी धर्म नहीं होते
(एक
ही समय एक वृत्त्यंशके प्रकाश और अन्धकारकी भाँति उत्पाद और विनाश दो विरुद्ध धर्म
नहीं होते
) (२) यदि ‘क्रमशः है’ ऐसा कहा जाय तो, क्रम नहीं बनता, (अर्थात् क्रम भी
घटता नहीं) क्योंकि वृत्त्यंशके सूक्ष्म होनेसे उसमें विभागका अभाव है इसलिये (समयरूपी
वृत्त्यंशके उत्पाद तथा विनाश होना अशक्य होनेसे) कोई वृत्तिमान् अवश्य ढूँढ़ना चाहिये
और वह (वृत्तिमान्) काल पदार्थ ही है उसको (-उस कालपदार्थको) वास्तवमें एक
वृत्त्यंशमें भी उत्पाद और विनाश संभव है; क्योंकि जिस वृत्तिमान्के जिस वृत्त्यंशमें उस
वृत्त्यंशकी अपेक्षासे जो उत्पाद है, वही (उत्पाद) उसी वृत्तिमान्के उसी वृत्त्यंशमें पूर्व वृत्त्यंशकी
अपेक्षासे विनाश है
(अर्थात् कालपदार्थको जिस वर्तमान पर्यायकी अपेक्षासे उत्पाद है, वही
पूर्व पर्यायकी अपेक्षासे विनाश है )
यदि इसप्रकार उत्पाद और विनाश एक वृत्त्यंशमें भी संभवित है, तो कालपदार्थ
निरन्वय कैसे हो सकता है, कि जिससे पूर्व और पश्चात् वृत्त्यंशकी अपेक्षासे युगपत् विनाश
और उत्पादको प्राप्त होता हुआ भी स्वभावसे अविनष्ट और अनुत्पन्न होनेसे वह (काल पदार्थ)
१. वृत्तिमान् = वृत्तिवाला; वृत्तिको धारण करनेवाला पदार्थ

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स्योत्पादव्ययध्रौव्यवत्त्वं सिद्धम् ।।१४२।।
अथ सर्ववृत्त्यंशेषु समयपदार्थस्योत्पादव्ययध्रौव्यवत्त्वं साधयति
एगम्हि संति समये संभवठिदिणाससण्णिदा अट्ठा
समयस्स सव्वकालं एस हि कालाणुसब्भावो ।।१४३।।
एकस्मिन् सन्ति समये संभवस्थितिनाशसंज्ञिता अर्थाः
समयस्य सर्वकालं एष हि कालाणुसद्भावः ।।१४३।।
अस्ति हि समस्तेष्वपि वृत्त्यंशेषु समयपदार्थस्योत्पादव्ययध्रौव्यत्वमेकस्मिन् वृत्त्यंशे तस्य
दर्शनात उपपत्तिमच्चैतत्, विशेषास्तित्वस्य सामान्यास्तित्वमन्तरेणानुपपत्तेः अयमेव च
दुभयाधारभूताङ्गुलिद्रव्यस्थानीयेन कालाणुद्रव्यरूपेण ध्रौव्यमिति कालद्रव्यसिद्धिरित्यर्थः ।।१४२।।
अथ पूर्वोक्तप्रकारेण यथा वर्तमानसमये कालद्रव्यस्योत्पादव्ययध्रौव्यत्वं स्थापितं तथा सर्वसमयेष्व-
स्तीति निश्चिनोति
एगम्हि संति समये संभवठिदिणाससण्णिदा अट्ठा एकस्मिन्समये सन्ति विद्यन्ते के
अवस्थित न हो ? (काल पदार्थके एक वृत्त्यंशमें भी उत्पाद और विनाश युगपत् होते हैं,
इसलिये वह निरन्वय अर्थात् खंडित नहीं है, इसलिये स्वभावतः अवश्य ध्रुव है
)
इसप्रकार एक वृत्त्यंशमें कालपदार्थ उत्पादव्ययध्रौव्यवाला है, ऐसा सिद्ध
हुआ ।।१४२।।
अब, (जैसे एक वृत्त्यंशमें कालपदार्थ उत्पादव्ययध्रौव्यवाला सिद्ध किया है
उसीप्रकार) सर्व वृत्त्यंशोंमें कालपदार्थ उत्पादव्ययध्रौव्यवाला है ऐसा सिद्ध करते हैं :
अन्वयार्थ :[एकस्मिन् समये ] एकएक समयमें [संभवस्थितिनाशसंज्ञिताः
अर्थाः ] उत्पाद, ध्रौव्य और व्यय नामक अर्थ [समयस्य ] कालके [सर्वकालं ] सदा [संति ]
होते हैं
[एषः हि ] यही [कालाणुसद्भावः ] कालाणुका सद्भाव है; (यही कालाणुके
अस्तित्वकी सिद्धि है )१४३।।
टीका :कालपदार्थके सभी वृत्त्यंशोमें उत्पादव्ययध्रौव्य होते हैं, क्योंकि
(१४२वीं गाथामें जैसा सिद्ध हुआ है तदनुसार) एक वृत्त्यंशमें वे (उत्पादव्ययध्रौव्य) देखे
जाते हैं और यह योग्य ही है, क्योंकि विशेष अस्तित्व सामान्य अस्तित्वके बिना नहीं हो
प्रत्येक समये जन्मध्रौव्यविनाश अर्थो काळने
वर्ते सरवदा; आ ज बस काळाणुनो सद्भाव छे. १४३.

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समयपदार्थस्य सिद्धयति सद्भावः यदि विशेषसामान्यास्तित्वे सिद्धयतस्तदा त अस्तित्व-
मन्तरेण न सिद्धयतः कथंचिदपि ।।१४३।।
अथ कालपदार्थस्यास्तित्वान्यथानुपपत्त्या प्रदेशमात्रत्वं साधयति
जस्स ण संति पदेसा पदेसमेत्तं व तच्चदो णादुं
सुण्णं जाण तमत्थं अत्थंतरभूदमत्थीदो ।।१४४।।
यस्य न सन्ति प्रदेशाः प्रदेशमात्रं वा तत्त्वतो ज्ञातुम्
शून्यं जानीहि तमर्थमर्थान्तरभूतमस्तित्वात।।१४४।।
संभवस्थितिनाशसंज्ञिता अर्थाः धर्माः स्वभावा इति यावत् कस्य संबन्धिनः समयस्स
समयरूपपर्यायस्योत्पादकत्वात् समयः कालाणुस्तस्य सव्वकालं यद्येकस्मिन् वर्तमानसमये सर्वदा
तथैव एस हि कालाणुसब्भावो एषः प्रत्यक्षीभूतो हि स्फु टमुत्पादव्ययध्रौव्यात्मककालाणुसद्भाव इति
तद्यथायथा पूर्वमेकसमयोत्पादप्रध्वंसाधारेणाङ्गुलिद्रव्यादिदृष्टान्तेन वर्तमानसमये कालद्रव्यस्यो-
त्पादव्ययध्रौव्यत्वं स्थापितं तथा सर्वसमयेषु ज्ञातव्यमिति अत्र यद्यप्यतीतानन्तकाले दुर्लभायाः
सर्वप्रकारोपादेयभूतायाः सिद्धगतेः काललब्धिरूपेण बहिरङ्गसहकारी भवति कालस्तथापि निश्चयनयेन
निजशुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानसमस्तपरद्रव्येच्छानिरोधलक्षणतपश्चरणरूपा या तु निश्चयचतु-

र्विधाराधना सैव तत्रोपादानकारणं, न च कालस्तेन कारणेन स हेय इति भावार्थः
।।१४३।।
सकता यही कालपदार्थके सद्भावकी (अस्तित्वकी) सिद्धि है; (क्योंकि) यदि विशेष
अस्तित्व और सामान्य अस्तित्व सिद्ध होते हैं तो वे अस्तित्वके बिना किसी भी प्रकारसे सिद्ध
नहीं होते
।।१४३।।
अब, कालपदार्थके अस्तित्वकी अन्यथा अनुपपत्ति होनेसे (अर्थात् काल पदार्थका
अस्तित्व अन्य किसी प्रकार नहीं बन सकनेके कारण) उसका प्रदेशमात्रपना सिद्ध करते हैं :
अन्वयार्थ :[यस्य ] जिस पदार्थके [प्रदेशाः ] प्रदेश [प्रदेशमात्रं वा ] अथवा
एकप्रदेश भी [तत्त्वतः ] परमार्थतः [ज्ञातुम् न संति ] ज्ञात नहीं होते, [तम् अर्थम् ] उस
पदार्थको [शून्यं जानीहि ] शून्य जानो
[अस्तित्वात् अर्थान्तरभूतम् ] जो कि अस्तित्वसे
अर्थान्तरभूत (-अन्य) है ।।१४४।।
जे अर्थने न बहु प्रदेश, न एक वा परमार्थथी,
ते अर्थ जाणो शून्य केवळ
अन्य जे अस्तित्वथी. १४४.

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अथोत्पादव्ययध्रौव्यात्मकास्तित्वावष्टम्भेन कालस्यैकप्रदेशत्वं साधयतिजस्स ण संति यस्य पदार्थस्य
न सन्ति न विद्यन्ते के पदेसा प्रदेशाः पदेसमेत्तं तु प्रदेशमात्रमेकप्रदेशप्रमाणं पुनस्तद्वस्तु तच्चदो णादुं
तत्त्वतः परमार्थतो ज्ञातुं शक्यते सुण्णं जाण तमत्थं यस्यैकोऽपि प्रदेशो नास्ति तमर्थं पदार्थं शून्यं
अस्तित्वं हि तावदुत्पादव्ययध्रौव्यैक्यात्मिका वृत्तिः न खलु सा प्रदेशमन्तरेण
सूत्र्यमाणा कालस्य संभवति, यतः प्रदेशाभावे वृत्तिमदभावः स तु शून्य एव,
अस्तित्वसंज्ञाया वृत्तेरर्थान्तरभूतत्वात न च वृत्तिरेव केवला कालो भवितुमर्हति, वृत्तेर्हि
वृत्तिमन्तमन्तरेणानुपपत्तेः उपपत्तौ वा कथमुत्पादव्ययध्रौव्यैक्यात्मकत्वम् अनाद्यन्त-
निरन्तरानेकांशवशीकृतैकात्मकत्वेन पूर्वपूर्वांशप्रध्वंसादुत्तरोत्तरांशोत्पादादेकात्मध्रौव्यादिति चेत्;
नैवम् यस्मिन्नंशे प्रध्वंसो यस्मिंश्चोत्पादस्तयोः सहप्रवृत्त्यभावात् कुतस्त्यमैक्यम् तथा
प्रध्वस्तांशस्य सर्वथास्तमितत्वादुत्पद्यमानांशस्य वासम्भवितात्मलाभत्वात्प्रध्वंसोत्पादैक्य-
टीका :प्रथम तो अस्तित्व वह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यकी ऐक्यस्वरूपवृत्ति है
वह (वृत्ति अर्थात् विद्यमानता) कालके प्रदेश बिना ही होती है यह कथन संभवित नहीं है,
क्योंकि प्रदेशके अभावमें वृत्तिमान्का अभाव होता है
वह तो शून्य ही है, क्योंकि अस्तित्व
नामक वृत्तिसे अर्थान्तरभूत हैअन्य है
और (यदि यहाँ यह तर्क किया जाय कि ‘मात्र समयपर्यायरूपवृत्ति ही माननी चाहिये;
वृत्तिमान् कालाणु पदार्थकी क्या आवश्यकता है ?’ तो उसका समाधान किया जाता
है :
) मात्र वृत्ति (समयरूप परिणति) ही काल नहीं हो सकती, क्योंकि वृत्ति वृत्तिमान्के
बिना नहीं हो सकती यदि यह कहा जाय कि वृत्तिमान् के बिना भी वृत्ति हो सकती है तो,
(पूछते हैं किवृत्ति तो उत्पादव्ययध्रौव्यकी एकतास्वरूप होनी चाहिये;) अकेली वृत्ति
उत्पादव्ययध्रौव्यकी एकतारूप कैसे हो सकती है ? यदि यह कहा जाय कि‘अनादि
अनन्त, अनन्तर (परस्पर अन्तर हुए बिना एकके बाद एक प्रवर्तमान) अनेक अंशोंके कारण
एकात्मकता होती है इसलिये, पूर्वपूर्वके अंशोंका नाश होता है और उत्तरउत्तरके अंशोंका
उत्पाद होता है तथा एकात्मकतारूप ध्रौव्य रहता है,इसप्रकार मात्र (अकेली) वृत्ति भी
उत्पादव्ययध्रौव्यकी एकतास्वरूप हो सकती है’ तो ऐसा नहीं है (क्योंकि उस अकेली
वृत्तिमें तो) जिस अंशमें नाश है और जिस अंशमें उत्पाद है वे दो अंश एक साथ प्रवृत्त नहीं
होते, इसलिये (उत्पाद और व्ययका) ऐक्य कहाँसे हो सकता है ? तथा नष्ट अंशके सर्वथा अस्त
होनेसे और उत्पन्न होनेवाला अंश अपने स्वरूपको प्राप्त न होनेसे (अर्थात् उत्पन्न नहीं हुआ है
१. एकात्मकता = एकस्वरूपता (कालद्रव्यके बिना भी अनादि कालसे अनन्त काल तक समय एकके बाद
एक परस्पर अन्तरके बिना ही प्रवर्तित होते हैं, इसलिये एकप्रवाहरूप बन जानेसे उसमें एकरूपत्व आता
है
इसप्रकार शंकाकारका तर्क है )

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जानीहि हे शिष्य कस्माच्छून्यमिति चेत् अत्थंतरभूदं एकप्रदेशाभावे सत्यर्थान्तरभूतं भिन्नं भवति
यतः कारणात् कस्याः सकाशाद्भिन्नम् अत्थीदो उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकसत्ताया इति तथाहिकाल-
पदार्थस्य तावत्पूर्वसूत्रोदितप्रकारेणोत्पादव्ययध्रौव्यात्मकमस्तित्वं विद्यते; तच्चास्तित्वं प्रदेशं विना न
वर्तिध्रौव्यमेव कुतस्त्यम् एवं सति नश्यति त्रैलक्षण्यं, उल्लसति क्षणभंगः, अस्तमुपैति नित्यं
द्रव्यं, उदीयन्ते क्षणक्षयिणो भावाः ततस्तत्त्वविप्लवभयात्कश्चिदवश्यमाश्रयभूतो वृत्तेर्वृत्ति-
माननुसर्तव्यः स तु प्रदेश एवाप्रदेशस्यान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वासिद्धेः एवं सप्रदेशत्वे हि
कालस्य कुत एकद्रव्यनिबन्धनं लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशत्वं नाभ्युपगम्येत पर्याय-
समयाप्रसिद्धेः प्रदेशमात्रं हि द्रव्यसमयमतिक्रामतः परमाणोः पर्यायसमयः प्रसिद्धयति
लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशत्वे तु द्रव्यसमयस्य कुतस्त्या तत्सिद्धिः लोकाकाशतुल्या-
संख्येयप्रदेशैकद्रव्यत्वेऽपि तस्यैकं प्रदेशमतिक्रामतः परमाणोस्तत्सिद्धिरिति चेन्नैवं; एकदेशवृत्तेः
इसलिये) नाश और उत्पादकी एकतामें प्रवर्तमान ध्रौव्य कहाँसे हो सकता है ? ऐसा होनेपर
त्रिलक्षणता (उत्पादव्ययध्रौव्यता) नष्ट हो जाती है, क्षणभंग (बौद्धसम्मत क्षणविनाश) उल्लसित
हो उठता है, नित्य द्रव्य अस्त हो जाता है और क्षणविध्वंसी भाव उत्पन्न होते हैं
इसलिये
तत्त्वविप्लवके भयसे अवश्य ही वृत्तिका आश्रयभूत कोई वृत्तिमान् ढूँढ़नास्वीकार करना योग्य
है वह तो प्रदेश ही है (अर्थात् वह वृत्तिमान् सप्रदेश ही होता है ), क्योंकि अप्रदेशके अन्वय
तथा व्यतिरेकका अनुविधायित्व असिद्ध है (जो अप्रदेश होता है वह अन्वय तथा व्यतिरेकोंका
अनुसरण नहीं कर सकता, अर्थात् उसमें ध्रौव्य तथा उत्पादव्यय नहीं हो सकते )
(प्रश्न :) इसप्रकार काल सप्रदेश है तो उसके एकद्रव्यके कारणभूत लोकाकाश
तुल्य असंख्यप्रदेश क्यों न मानने चाहिये ?
(उत्तर :) ऐसा हो तो पर्यायसमय प्रसिद्ध नहीं होता, इसलिये असंख्य प्रदेश मानना
योग्य नहीं है परमाणुके द्वारा प्रदेशमात्र द्रव्यसमयका उल्लंघन करने पर (अर्थात्परमाणुके
द्वारा एकप्रदेशमात्र कालाणुसे निकटके दूसरे प्रदेशमात्र कालाणु तक मंदगतिसे गमन करने पर)
पर्यायसमय प्रसिद्ध होता है
यदि द्रव्यसमय लोकाकाशतुल्य असंख्यप्रदेशी हो तो
पर्यायसमयकी सिद्धि कहाँसे होगी ?
‘यदि द्रव्यसमय अर्थात् कालपदार्थ लोकाकाश जितने असंख्य प्रदेशवाला एक द्रव्य
हो तो भी परमाणुके द्वारा उसका एक प्रदेश उल्लंघित होनेपर पर्यायसमयकी सिद्धि हो’ ऐसा
कहा जाय तो यह ठीक नहीं है; क्योंकि (उसमें दो दोष आते हैं ) :
१. तत्त्वविप्लव = वस्तुस्वरूपमें अंधाधुन्धी

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घटते यश्च प्रदेशवान् स कालपदार्थ इति अथ मतं कालद्रव्याभावेऽप्युत्पादव्ययध्रौव्यत्वं घटते
नैवम् अङ्गुलिद्रव्याभावे वर्तमानवक्रपर्यायोत्पादो भूतर्जुपर्यायस्य विनाशस्तदुभयाधारभूतं ध्रौव्यं
कस्य भविष्यति न कस्यापि तथा कालद्रव्याभावे वर्तमानसमयरूपोत्पादो भूतसमयरूपो
विनाशस्तदुभयाधारभूतं ध्रौव्यं क स्य भविष्यति न क स्यापि एवं सत्येतदायातिअन्यस्य भङ्गोऽन्य-
स्योत्पादोऽन्यस्य ध्रौव्यमिति सर्वं वस्तुस्वरूपं विप्लवते तस्माद्वस्तुविप्लवभयादुत्पादव्ययध्रौव्याणां
कोऽप्येक आधारभूतोऽस्तीत्यभ्युपगन्तव्यम् स चैकप्रदेशरूपः कालाणुपदार्थ एवेति अत्रातीता-
नन्तकाले ये केचन सिद्धसुखभाजनं जाताः, भाविकाले च ‘आत्मोपादानसिद्धं स्वयमतिशयवद्’
इत्यादिविशेषणविशिष्टसिद्धसुखस्य भाजनं भविष्यन्ति ते सर्वेऽपि काललब्धिवशेनैव
तथापि तत्र
निजपरमात्मोपादेयरुचिरूपं वीतरागचारित्राविनाभूतं यन्निश्चयसम्यक्त्वं तस्यैव मुख्यत्वं, न च कालस्य,
तेन स हेय इति
तथा चोक्तम्‘‘किं पलविएण बहुणा जे सिद्धा णरवरा गये काले सिज्झहहि जे
सर्ववृत्तित्वविरोधात सर्वस्यापि हि कालपदार्थस्य यः सूक्ष्मो वृत्त्यंशः स समयो, न
तु तदेकदेशस्य तिर्यक्प्रचयस्योर्ध्वप्रचयत्वप्रसंगाच्च तथा हिप्रथममेकेन प्रदेशेन
वर्तते, ततोऽन्येन, ततोऽप्यन्यतरेणेति तिर्यक्प्रचयोऽप्यूर्ध्वप्रचयीभूय प्रदेशमात्रं द्रव्यम-
वस्थापयति
ततस्तिर्यक्प्रचयस्योर्ध्वप्रचयत्वमनिच्छता प्रथममेव प्रदेशमात्रं कालद्रव्यं
व्यवस्थापयितव्यम् ।।१४४।।
अथैवं ज्ञेयतत्त्वमुक्त्वा ज्ञानज्ञेयविभागेनात्मानं निश्चिन्वन्नात्मनोऽत्यन्तविभक्तत्वाय
व्यवहारजीवत्वहेतुमालोचयति
(१) [द्रव्यके एक देशकी परिणतिको सम्पूर्ण द्रव्यकी परिणति माननेका प्रसंग आता
है ] एक देशकी वृत्तिको सम्पूर्ण द्रव्यकी वृत्ति माननेमें विरोध है सम्पूर्ण काल पदार्थका
जो सूक्ष्म वृत्त्यंश है वह समय है, परन्तु उसके एक देशका वृत्त्यंश वह समय नहीं
तथा, (२) तिर्यक्प्रचयको ऊ र्ध्वप्रचयपनेका प्रसंग आता है वह इसप्रकार है कि
:प्रथम, कालद्रव्य एक प्रदेशसे वर्ते, फि र दूसरे प्रदेशसे वर्ते और फि र अन्यप्रदेशसे वर्ते
(ऐसा प्रसंग आता है ) इसप्रकार तिर्यक्प्रचय ऊ र्ध्वप्रचय बनकर द्रव्यको प्रदेशमात्र स्थापित
करता है
(अर्थात् तिर्यक्प्रचय ही ऊ र्ध्वप्रचय है, ऐसा माननेका प्रसंग आता है, इसलिये
द्रव्यप्रदेशमात्र ही सिद्ध होता है ) इसलिये तिर्यक्प्रचयको ऊ र्ध्वप्रचयपना न मानने
(चाहने)वालेको प्रथम ही कालद्रव्यको प्रदेशमात्र निश्चित करना चाहिये ।।१४४।।
(इसप्रकार ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापनमें द्रव्यविशेषप्रज्ञापन समाप्त हुआ )
अब, इसप्रकार ज्ञेयतत्त्व कहकर, ज्ञान और ज्ञेयके विभाग द्वारा आत्माको निश्चित करते
हुए, आत्माको अत्यन्त विभक्त (भिन्न) करनेके लिये व्यवहारजीवत्वके हेतुका विचार
करते हैं :