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आकाश प्रदेशवान् है
आश्रय लेकर [कालः ] काल है, [पुनः ] और [शेषौ ] शेष दो द्रव्य [जीवाः पुद्गलाः ]
जीव और पुद्गल हैं
छे शेष -आश्रित काळ, ने जीव -पुद्गलो ते शेष छे. १३६.
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गमनस्थानासंभवात
सिद्धावस्था
तिष्ठन्ति तथापि व्यवहारेण
गति या स्थिति लोकसे बाहर नहीं होती, और न लोकके एक देशमें होती है, (अर्थात्
लोकमें सर्वत्र होती है )
ही है क्योंकि वह अप्रदेशी है
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संख्येयप्रदेशेऽपि लोकेऽवस्थानं न विरुध्यते
डिबियाके न्यायानुसार समस्त लोकमें ही हैं
प्रदेशोद्भव कहा है
अप्रदेश परमाणु वडे उद्भव प्रदेश तणो बने. १३७.
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जीवानामसंख्येयांशत्वात
बहुत्वाभावादसंख्येयप्रदेशत्वमेव
लक्षण है ); और यहाँ (इस सूत्र या गाथामें) ‘जिस प्रकार आकाशके प्रदेश हैं उसीप्रकार शेष
द्रव्योंके प्रदेश हैं’ इसप्रकार प्रदेशके लक्षणकी एकप्रकारता कही जाती है
(
शरीरमें, तथा बालक और कुमारके शरीरमें व्याप्त होता है
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अनेकप्रदेशीपनेका भी संभव होनेसे पुद्गलको द्विप्रदेशीपनेसे लेकर संख्यात, असंख्यात और
अनन्तप्रदेशीपना भी न्याययुक्त है
[व्यतिपततः ] मंद गतिसे उल्लंघन कर रहा हो तब [सः वर्तते ] वह वर्तता है अर्थात्
निमित्तभूततया परिणमित होता है
आकाशद्रव्य तणो प्रदेश अतिक्रमे, वर्ते तदा. १३८.
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संभवादेकैकमाकाशप्रदेशमभिव्याप्य तस्थुषः प्रदेशमात्रस्य परमाणोस्तदभिव्याप्तमेकमाकाशप्रदेशं
मन्दगत्या व्यतिपतत एव वृत्तिः
वर्तती है
व्याप्त करके रहनेवाले कालद्रव्यकी वृत्ति तभी होती है (अर्थात् कालाणुकी परिणति तभी
निमित्तभूत होती है ) कि जब
किये जानेवाले) प्रदेशमें रहनेवाला कालाणु उसमें निमित्तभूतरूपसे रहता है
इससे स्पष्ट होता है कि कालद्रव्य पर्यायसे भी अनेकप्रदेशी नहीं है
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सूक्ष्मवृत्तिरूपसमयः स तस्य कालपदार्थस्य पर्यायस्ततः एवंविधात्पर्यायात्पूर्वोत्तरवृत्तिवृत्तत्वेन-
जे अर्थ छे ते काळ छे, उत्पन्नध्वंसी ‘समय’ छे. १३९.
‘समय’ है; [तत्ः पूर्वः परः ] उस (समय) से पूर्व तथा पश्चात् ऐसा (नित्य) [यः
अर्थः ] जो पदार्थ है [सः कालः ] वह कालद्रव्य है; [समयः उत्पन्नप्रध्वंसी ] ‘समय
उत्पन्नध्वंसी है
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विनाशवाली है
(परमाणुके) विशिष्ट गतिपरिणाम होता है
परमाणुके अनन्त अंशोंको सिद्ध नहीं करता, क्योंकि परमाणु निरंश है; उसीप्रकार जैसे एक
कालाणुसे व्याप्त एक आकाशप्रदेशके अतिक्रमणके मापके बराबर एक ‘समय’ में परमाणु
विशिष्ट गतिपरिणामके कारण लोकके एक छोरसे दूसरे छोर तक जाता है तब (उस परमाणुके
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संख्येयाः कालाणवः समयस्यानंशत्वादसंख्येयांशत्वं न साधयन्ति
श्रद्धेयं, स्वसंवेदनज्ञानरूपेण ज्ञातव्यमाहारभयमैथुनपरिग्रहसंज्ञास्वरूपप्रभृतिसमस्तरागादिविभावत्यागेन
ध्येयमिति तात्पर्यम्
क्योंकि ‘समय’ निरंश है
कालद्रव्यकी छोटीसे छोटी निरंश पर्याय है, उसके भाग नहीं होते
होने चाहिये; किन्तु आकाशप्रदेश तो निरंश है; इसलिये ‘समय’ भी निरंश ही है
श्रेणिबद्ध जितने कालाणु हैं उन सबको स्पर्श करता है; इसलिये असंख्य कालाणुओंको स्पर्श
करनेसे ‘समय’के असंख्य अंश होना चाहिये’’ इसका समाधान यह है :
अवगाहपरिणामके कारण ही है; (परमाणुओंमें ऐसी ही कोई विशिष्ट प्रकारकी
एक छोरसे दूसरे छोर तक पहुँच जाता है, सो वह परमाणुके विशेष प्रकारके गतिपरिणामके
कारण ही है; (परमाणुमें ऐसी ही कोई विशिष्ट प्रकारकी गतिपरिणामकी शक्ति है, जिसके
कारण ऐसा होता है;) इससे कहीं ‘समय’के असंख्य अंश नहीं होते
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अवकाश देनेको समर्थ है
परमाणुओंके स्कंधोंको अवकाश देनेमें समर्थ है
परमाणुओंको अवकाश देना नहीं बन सकेगा
ते एक सौ परमाणुने अवकाशदानसमर्थ छे. १४०.
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किमेकमनेकं वा
अंशोंवाला अविभाग एक द्रव्य है, इसलिये ? (१) यदि ‘आकाश अभिन्न अंशवाला अविभाग
एक द्रव्य है इसलिये दो अंगुलियोंका एक क्षेत्र है’ ऐसा कहा जाय तो, जो अंश एक अंगुलिका
क्षेत्र है वही अंश दूसरी अंगुलिका भी क्षेत्र है, इसलिये दोमेंसे एक अंशका अभाव हो गया
प्रदेशमात्र सिद्ध हुआ ! (इसलिये यह तो घटित नहीं होता); (२) यदि यह कहा जाय कि
‘आकाश भिन्न अंशोंवाला अविभाग एक द्रव्य है’ (इसलिये दो अंगुलियोंका एक क्षेत्र है) तो
(यह योग्य ही है, क्योंकि) अविभाग एक द्रव्यमें अंश
भी दो अंगुलियोंके अनेक (एक से अधिक) क्षेत्र हैं ? (१) ‘आकाश सविभाग अनेक द्रव्य
होनेसे दो अंगलियोंके अनेक क्षेत्र हैं’ ऐसा माना जाय तो, आकाश जो कि एक द्रव्य है उसे
अनन्तद्रव्यत्व आजायगा’; (इसलिये यह तो घटित नहीं होता) (२) ‘आकाश अविभाग एक
द्रव्य होनेसे दो अंगुलियोंका अनेक क्षेत्र है’ ऐसा माना जाय तो (यह योग्य ही है क्योंकि)
अविभाग एक द्रव्यमें अंशकल्पना फलित हुई
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लोकाकाशप्रमितशुद्धासंख्येयप्रदेशानां मुक्तात्मपदार्थे योऽसौ प्रचयः समूहः समुदायो राशिः स
हि ] हैं
बहु वा असंख्य, अनंत छे; वळी होय समयो काळने. १४१
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क्रमानेकान्त इति च भण्यते
(-संख्यात, असंख्यात और अनन्त) प्रदेशवाला है, इसलिये उनके तिर्यक्प्रचय है; परन्तु
कालके (तिर्यक्प्रचय) नहीं है, क्योंकि वह शक्ति तथा व्यक्ति (की अपेक्षा) से एक
प्रदेशवाला है
है
क्योंकि शेष द्रव्योंकी वृत्ति समयसे अर्थान्तरभूत (-अन्य) होनेसे वह (वृत्ति) समय
विशिष्ट है, और कालद्रव्यकी वृत्ति तो स्वतः समयभूत है, इसलिये वह समयविशिष्ट नहीं
है
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समयः ] तो वह भी काल [स्वभावसमवस्थितः ] स्वभावमें अवस्थित अर्थात् ध्रुव
[भवति ] (सिद्ध) है
वृत्त्यंश) उत्पन्न होता है, इसलिये वह कारणपूर्वक है
उसमें किसी पदार्थके उत्पाद तथा विनाश होते होना चाहिये
जो काळने, तो काळ तेह स्वभाव
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पूर्ववृत्त्यंशविशिष्टत्वेन प्रध्वंसः
स्वभावेनाप्रध्वस्तानुत्पन्नत्वादवस्थितत्वमेव न भवेत
पूर्वर्जुपर्यायेण प्रध्वंसस्तदाधारभूताङ्गुलिद्रव्यत्वेन ध्रौव्यमिति द्रव्यसिद्धिः
परमात्मद्रव्यत्वेन ध्रौव्यमिति द्रव्यसिद्धिः
युगपत्पना घटित नहीं होता, क्योंकि एक ही समय एकके दो विरोधी धर्म नहीं होते
नहीं होते
वृत्त्यंशकी अपेक्षासे जो उत्पाद है, वही (उत्पाद) उसी वृत्तिमान्के उसी वृत्त्यंशमें पूर्व वृत्त्यंशकी
अपेक्षासे विनाश है
और उत्पादको प्राप्त होता हुआ भी स्वभावसे अविनष्ट और अनुत्पन्न होनेसे वह (काल पदार्थ)
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स्तीति निश्चिनोति
इसलिये वह निरन्वय अर्थात् खंडित नहीं है, इसलिये स्वभावतः अवश्य ध्रुव है
होते हैं
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निजशुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानसमस्तपरद्रव्येच्छानिरोधलक्षणतपश्चरणरूपा या तु निश्चयचतु-
र्विधाराधना सैव तत्रोपादानकारणं, न च कालस्तेन कारणेन स हेय इति भावार्थः
नहीं होते
पदार्थको [शून्यं जानीहि ] शून्य जानो
ते अर्थ जाणो शून्य केवळ
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क्योंकि प्रदेशके अभावमें वृत्तिमान्का अभाव होता है
है :
होते, इसलिये (उत्पाद और व्ययका) ऐक्य कहाँसे हो सकता है ? तथा नष्ट अंशके सर्वथा अस्त
होनेसे और उत्पन्न होनेवाला अंश अपने स्वरूपको प्राप्त न होनेसे (अर्थात् उत्पन्न नहीं हुआ है
है
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त्रिलक्षणता (उत्पादव्ययध्रौव्यता) नष्ट हो जाती है, क्षणभंग (बौद्धसम्मत क्षणविनाश) उल्लसित
हो उठता है, नित्य द्रव्य अस्त हो जाता है और क्षणविध्वंसी भाव उत्पन्न होते हैं
पर्यायसमय प्रसिद्ध होता है
कहा जाय तो यह ठीक नहीं है; क्योंकि (उसमें दो दोष आते हैं ) :
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इत्यादिविशेषणविशिष्टसिद्धसुखस्य भाजनं भविष्यन्ति ते सर्वेऽपि काललब्धिवशेनैव
तेन स हेय इति
वस्थापयति
करता है
करते हैं :