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एव जानीते, नत्वितरः
उसमें
तसु जाणनारो जीव, प्राणचतुष्कथी संयुक्त जे. १४५
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प्रवाहप्रवृत्तपुद्गलसंश्लेषदूषितात्मतया प्राणचतुष्काभिसंबद्धत्वं व्यवहारजीवत्वहेतुर्विभक्त-
व्योऽस्ति
युराद्यशुद्धप्राणचतुष्केनापि संबद्धः सन् जीवति
संश्लेषके द्वारा स्वयं दूषित होनेसे उसके चार प्राणोंसे संयुक्तपना है
ज्ञेय है
दूषित होनेसे चार प्राणोंसे संयुक्त है, और इसलिये उसके व्यवहारजीवत्व भी है
चाहिये
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च्छुद्धात्मतत्त्वात्प्रतिपक्षभूत आनपानप्राणः
श्वासोच्छ्वास प्राण है
कहते हैं ) :
वळी प्राण श्वासोच्छ्वास
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रूपैश्चतुर्भिरशुद्धप्राणैर्जीवति
(रचित) हैं
ते जीव छे; पण प्राण तो पुद्गलदरवनिष्पन्न छे. १४७
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इति
निर्मित हैं
भोगता हुआ [अन्यैः कर्मभिः ] अन्य कर्मोंसे [बध्यते ] बँधता है
जीव कर्मफ ळ
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तथायमज्ञानी जीवोऽपि तप्तलोहपिण्डस्थानीयमोहादिपरिणामेन परिणतः सन् पूर्वं निर्विकारस्वसंवेदन-
पौद्गलिक ही निश्चित होते हैं
हैं, [सः हि ] तो पूर्वकथित [ज्ञानावरणादिकर्मभिः बंधः ] ज्ञानावरणादिक कर्मोंके द्वारा बंध
[भवति ] होता है
तो बंध ज्ञानावरण
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प्राणोंको) बाधा न पहुँचाकर, अपने भावप्राणोंको तो
हाथको जलाता है ) फि र दूसरा जले या न जले
ही हानि पहुँचाता है, फि र दूसरेके द्रव्यप्राणोंकी हानि हो या न हो
ममता शरीरप्रधान विषये ज्यां लगी छोडे नहीं. १५०
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मलिन आत्मा [पुनः पुनः ] पुनः
कर्म है
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रिवात्यन्तविशुद्धमुपयोगमात्रमात्मानं सुनिश्चलं केवलमधिवसतः स्यात
कर्मोंके द्वारा [न रज्यते ] रंजित नहीं होता; [तं ] उसे [प्राणाः ] प्राण [कथं ] कैसे
[अनुचरंति ] अनुसरेंगे ? (अर्थात् उसके प्राणोंका सम्बन्ध नहीं होता
वर्णोवाले)
होता है
अभाव है, उसीप्रकार अनेकप्रकारके कर्म व इन्द्रियादिके अनुसार जो (आत्माका) अनेक
प्रकारका विकारी परिणमन है उससे सर्वथा व्यावृत्त हुये आत्माके (
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गाथात्रयम्
पर्यायः ] वह पर्याय है
जे अर्थ ते पर्याय छे, ज्यां भेद संस्थानादिनो. १५२
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स्खलितस्यान्तरवभासनात
इत्थंभूतपर्यायो जीवस्य
अनेकद्रव्यात्मक पर्याय वास्तवमें, जैसे पुद्गलकी अन्य पुद्गलमें (अनेकद्रव्यात्मक उत्पन्न
होती हुई देखी जाती है उसीप्रकार, जीवकी पुद्गलमें संस्थानादिसे विशिष्टतया (-संस्थान
इत्यादिके भेद सहित) उत्पन्न होती हुई अनुभवमें अवश्य आती है
एकद्रव्यपर्याय ही अनेक द्रव्योंके संयोगात्मकरूपसे भीतर अवभासित होती है
जीवकी पुद्गलोंके संबंधसे देवादिक पर्याय होती है
जीव कहीं पुद्गलोंके साथ एकरूप पर्याय नहीं करता, परन्तु वहाँ भी मात्र जीवकी
(-पुद्गलपर्यायसे भिन्न-) अस्खलित (-अपनेसे च्युत न होनेवाली) एकद्रव्यपर्याय ही सदा
प्रवर्तमान रहती है
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पर्यायें हैं
तृषकी अग्नि और अंगार इत्यादि अग्निकी पर्यायें चूरा और डली इत्यादि आकारोंसे अन्य-
अन्य प्रकारकी होती हैं, उसीप्रकार जीवकी वे नारकादि पर्यायें संस्थानादिके द्वारा अन्य-
अन्य प्रकारकी ही होती हैं
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[द्रव्यस्वभावं ] द्रव्यस्वभावको [जानाति ] जानता है, [सः ] वह [अन्यद्रव्ये ] अन्य द्रव्यमें
[न मुह्यति ] मोहको प्राप्त नहीं होता
बना हुआ) है
जे जाणतो, ते आतमा नहि मोह परद्रव्ये लहे. १५४
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पूर्वोत्तरव्यतिरेकस्पर्शिना चेतनत्वेन स्थितिर्यावुत्तरपूर्वव्यतिरेकत्वेन चेतनस्योत्पादव्ययौ
तत्त्रयात्मकं च स्वरूपास्तित्वं यस्य नु स्वभावोऽहं स खल्वयमन्यः
पूर्वोत्तरव्यतिरेकस्पर्शिनाचेतनत्वेन स्थितिर्यावुत्तरपूर्वव्यतिरेकत्वेनाचेतनस्योत्पादव्ययौ तत्त्रयात्मकं
च स्वरूपास्तित्वं यस्य तु स्वभावः पुद्गलस्य स खल्वयमन्यः
शुद्धोत्पादव्ययध्रौव्यत्रयात्मकं च यत्पूर्वोक्तं स्वरूपास्तित्वं तेन कृत्वा त्रिधा सम्यगाख्यातं कथितं
प्रतिपादितम्
लक्षण है ऐसी जो पर्याय
है ऐसा जो गुण और (३) अचेतनत्वका व्यतिरेक जिसका लक्षण है ऐसी जो पर्याय
अचेतनत्वरूपसे जो ध्रौव्य और (२
अपेक्षासे व्यय है
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कथ्यते
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तीव्रकषायरूप ऐसा दो प्रकारका है )
ने पापसंचय अशुभथी; ज्यां उभय नहि संचय नहीं. १५६
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यति
यदि अशुभ हो [पापं ] तो पाप संचय होता है
पुण्य और पापरूपसे द्विविधताको प्राप्त होता है ऐसा जो परद्रव्य उसके संयोगके कारणरूपसे
काम करता है
होता है
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[पश्यति ] श्रद्धा करता है, [जीवेषु सानुकम्पः ] और जीवोंके प्रति अनुकम्पायुक्त है, [तस्य ]
उसके [सः ] वह [शुभः उपयोगः ] शुभ उपयोग है
श्रद्धा करनेमें तथा समस्त जीवसमूहकी अनुकम्पाका आचरण करनेमें प्रवृत्त है, वह शुभोपयोग
है
जे सानुकंप जीवो प्रति, उपयोग छे शुभ तेहने. १५७
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दुःश्रवणदुराशयदुष्टसेवनोग्रताचरणे च प्रवृत्तोऽशुभोपयोगः
कामभोगचिन्तापरिणतं रागाद्यपध्यानं वा; परमचैतन्यपरिणतेर्विनाशिका दुष्टगोष्ठी, तत्प्रतिपक्षभूत-
कुशीलपुरुषगोष्ठी वा
कुसंगतिमें लगा हुआ है, [उग्रः ] उग्र है तथा [उन्मार्गपरः ] उन्मार्गमें लगा हुआ है, [सः
अशुभः ] उसका वह अशुभोपयोग है
भट्टारक, महा देवाधिदेव, परमेश्वर ऐसे अर्हंत, सिद्ध और साधुके अतिरिक्त अन्य
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शुभोपयुक्त नहीं होता हुआ [ज्ञानात्मकम् ] ज्ञानात्मक [आत्मकं ] आत्माको [ध्यायामि ]
ध्याता हूँ
शुभमां अयुक्त, हुँ ध्याउँ छुं निज आत्मने ज्ञानात्मने. १५९