Pravachansar (Hindi). Gatha: 17-28 ; Gnan adhikar.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 4 of 28

 

Page 28 of 513
PDF/HTML Page 61 of 546
single page version

अथ स्वायंभुवस्यास्य शुद्धात्मस्वभावलाभस्यात्यन्तमनपायित्वं कथंचिदुत्पाद-
व्ययध्रौव्ययुक्तत्वं चालोचयति
भंगविहूणो य भवो संभवपरिवज्जिदो विणासो हि
विज्जदि तस्सेव पुणो ठिदिसंभवणाससमवाओ ।।१७।।
केवलज्ञानोत्पत्तिप्रस्तावे यतो भिन्नकारकं नापेक्षते ततः स्वयंभूर्भवतीति भावार्थः ।।१६।। एवं
सर्वज्ञमुख्यत्वेन प्रथमगाथा स्वयंभूमुख्यत्वेन द्वितीया चेति प्रथमस्थले गाथाद्वयं गतम् ।। अथास्य
भगवतो द्रव्यार्थिकनयेन नित्यत्वेऽपि पर्यायार्थिकनयेनानित्यत्वमुपदिशतिभंगविहूणो य भवो भङ्ग-
विहीनश्च भवः जीवितमरणादिसमताभावलक्षणपरमोपेक्षासंयमरूपशुद्धोपयोगेनोत्पन्नो योऽसौ भवः
केवलज्ञानोत्पादः
स किंविशिष्टः भङ्गविहिनो विनाशरहितः संभवपरिवज्जिदो विणासो त्ति
संभवपरिवर्जितो विनाश इति योऽसौ मिथ्यात्वरागादिसंसरणरूपसंसारपर्यायस्य विनाशः
सहायता नहीं कर सकती इसलिये केवलज्ञान प्राप्तिके इच्छुक आत्माको बाह्य सामग्रीकी
अपेक्षा रखकर परतंत्र होना निरर्थक है शुद्धोपयोगमें लीन आत्मा स्वयं ही छह कारकरूप
होकर केवलज्ञान प्राप्त करता है वह आत्मा स्वयं अनन्तशक्तिवान ज्ञायकस्वभावसे स्वतन्त्र
है इसलिए स्वयं ही कर्ता है; स्वयं अनन्तशक्तिवाले केवलज्ञानको प्राप्त करनेसे केवलज्ञान कर्म
है, अथवा केवलज्ञानसे स्वयं अभिन्न होनेसे आत्मा स्वयं ही कर्म है; अपने अनन्त शक्तिवाले
परिणमन स्वभावरूप उत्कृष्ट साधनसे केवलज्ञानको प्रगट करता है, इसलिये आत्मा स्वयं ही
करण है; अपनेको ही केवलज्ञान देता है, इसलिये आत्मा स्वयं ही सम्प्रदान है; अपनेमेंसे मति
श्रुतादि अपूर्ण ज्ञान दूर करके केवलज्ञान प्रगट करता है, इसलिये और स्वयं सहज ज्ञान
स्वभावके द्वारा ध्रुव रहता है इसलिये स्वयं ही अपादान है, अपनेमें ही अर्थात् अपने ही आधारसे
केवलज्ञान प्रगट करता है, इसलिये स्वयं ही अधिकरण है
इसप्रकार स्वयं छह कारकरूप
होता है, इसलिये वह ‘स्वयंभू’ कहलाता है अथवा, अनादिकालसे अति दृढ़ बँधे हुए
(ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतरायरूप) द्रव्य तथा भाव घातिकर्मोंको नष्ट करके
स्वयमेव आविर्भूत हुआ अर्थात् किसीकी सहायताके बिना अपने आप ही स्वयं प्रगट हुआ
इसलिये ‘स्वयंभू’ कहलाता है
।।१६।।
अब इस स्वयंभूके शुद्धात्मस्वभावकी प्राप्तिके अत्यन्त अविनाशीपना और कथंचित्
(कोई प्रकारसे) उत्पाद -व्यय -ध्रौव्ययुक्तताका विचार करते हैं :
व्ययहीन छे उत्पाद ने उत्पादहीन विनाश छे,
तेने ज वळी उत्पादध्रौव्यविनाशनो समवाय छे
.१७.

Page 29 of 513
PDF/HTML Page 62 of 546
single page version

भङ्गविहीनश्च भवः संभवपरिवर्जितो विनाशो हि
विद्यते तस्यैव पुनः स्थितिसंभवनाशसमवायः ।।१७।।
अस्य खल्वात्मनः शुद्धोपयोगप्रसादात् शुद्धात्मस्वभावेन यो भवः स पुनस्तेन रूपेण
प्रलयाभावाद्भंगविहीनः यस्त्वशुद्धात्मस्वभावेन विनाशः स पुनरुत्पादाभावात्संभवपरिवर्जितः
अतोऽस्य सिद्धत्वेनानपायित्वम् एवमपि स्थितिसंभवनाशसमवायोऽस्य न विप्रतिषिध्यते,
भंगरहितोत्पादेन संभववर्जितविनाशेन तद्द्वयाधारभूतद्रव्येण च समवेतत्वात।।१७।।
किंविशिष्टः संभवविहीनः निर्विकारात्मतत्त्वविलक्षणरागादिपरिणामाभावादुत्पत्तिरहितः तस्माज्ज्ञायते
तस्यैव भगवतः सिद्धस्वरूपतो द्रव्यार्थिकनयेन विनाशो नास्ति विज्जदि तस्सेव पुणो ठिदिसंभव-
णाससमवाओ विद्यते तस्यैव पुनः स्थितिसंभवनाशसमवायः तस्यैव भगवतः पर्यायार्थिकनयेन
अन्वयार्थ :[भङ्गविहिनः च भवः ] उसके (शुद्धात्मस्वभावको प्राप्त आत्माके)
विनाश रहित उत्पाद है, और [संभवपरिवर्जितः विनाशः हि ] उत्पाद रहित विनाश है [तस्य
एव पुनः ] उसके ही फि र [स्थितिसंभवनाशसमवायः विद्यते ] स्थिति, उत्पाद और विनाशका
समवाय मिलाप, एकत्रपना विद्यमान है
।।१७।।
टीका :वास्तवमें इस (शुद्धात्मस्वभावको प्राप्त) आत्माके शुद्धोपयोगके प्रसादसे
हुआ जो शुद्धात्मस्वभावसे (शुद्धात्मस्वभावरूपसे) उत्पाद है वह, पुनः उसरूपसे प्रलयका
अभाव होनेसे विनाश रहित है; और (उस आत्माके शुद्धोपयोगके प्रसादसे हुआ) जो
अशुद्धात्मस्वभावसे विनाश है वह पुनः उत्पत्तिका अभाव होनेसे, उत्पाद रहित है
इससे (यह
कहा है कि) उस आत्माके सिद्धरूपसे अविनाशीपन है ऐसा होने पर भी आत्माके उत्पाद,
व्यय और ध्रौव्यका समवाय विरोधको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि वह विनाश रहित उत्पादके साथ,
उत्पाद रहित विनाशके साथ और उन दोनोंके आधारभूत द्रव्यके साथ समवेत (तन्मयतासे युक्त
-एकमेक) है
भावार्थ :स्वयंभू सर्वज्ञ भगवानके जो शुद्धात्म स्वभाव उत्पन्न हुआ वह कभी नष्ट
नहीं होता, इसलिये उनके विनाशरहित उत्पाद है; और अनादि अविद्या जनित विभाव परिणाम
एक बार सर्वथा नाशको प्राप्त होनेके बाद फि र कभी उत्पन्न नहीं होते, इसलिये उनके उत्पाद
रहित विनाश है
इसप्रकार यहाँ यह कहा है कि वे सिद्धरूपसे अविनाशी है इसप्रकार
अविनाशी होनेपर भी वे उत्पाद -व्यय -ध्रौव्ययुक्त हैं; क्योंकि शुद्ध पर्यायकी अपेक्षासे उनके
उत्पाद है, अशुद्ध पर्यायकी अपेक्षासे व्यय है और उन दोनोंके आधारभूत आत्मत्वकी अपेक्षासे
ध्रौव्य है
।।१७।।

Page 30 of 513
PDF/HTML Page 63 of 546
single page version

अथोत्पादादित्रयं सर्वद्रव्यसाधारणत्वेन शुद्धात्मनोऽप्यवश्यंभावीति विभावयति
उप्पादो य विणासो विज्जदि सव्वस्स अट्ठजादस्स
पज्जाएण दु केणवि अट्ठो खलु होदि सब्भूदो ।।१८।।
उत्पादश्च विनाशो विद्यते सर्वस्यार्थजातस्य
पर्यायेण तु केनाप्यर्थः खलु भवति सद्भूतः ।।१८।।
यथा हि जात्यजाम्बूनदस्यांगदपर्यायेणोत्पत्तिद्रर्ष्टा, पूर्वव्यवस्थितांगुलीयकादिपर्यायेण च
विनाशः, पीततादिपर्यायेण तूभयत्राप्युत्पत्तिविनाशावनासादयतः ध्रुवत्वम्; एवमखिलद्रव्याणां
शुद्धव्यञ्जनपर्यायापेक्षया सिद्धपर्यायेणोत्पादः, संसारपर्यायेण विनाशः, केवलज्ञानादिगुणाधारद्रव्यत्वेन
ध्रौव्यमिति
ततः स्थितं द्रव्यार्थिकनयेन नित्यत्वेऽपि पर्यायार्थिकनयेनोत्पादव्ययध्रौव्यत्रयं
संभवतीति ।।१७।। अथोत्पादादित्रयं यथा सुवर्णादिमूर्तपदार्थेषु दृश्यते तथैवामूर्तेऽपि सिद्धस्वरूपे
विज्ञेयं पदार्थत्वादिति निरूपयतिउप्पादो य विणासो विज्जदि सव्वस्स अट्ठजादस्स उत्पादश्च विनाशश्च
विद्यते तावत्सर्वस्यार्थजातस्य पदार्थसमूहस्य केन कृत्वा पज्जाएण दु केणवि पर्यायेण तु केनापि
विवक्षितेनार्थव्यञ्जनरूपेण स्वभावविभावरूपेण वा स चार्थः किंविशिष्टः अट्ठो खलु होदि सब्भूदो
अर्थः खलु स्फु टं सत्ताभूतः सत्ताया अभिन्नो भवतीति तथाहिसुवर्णगोरसमृत्तिकापुरुषादिमूर्त-
पदार्थेषु यथोत्पादादित्रयं लोके प्रसिद्धं तथैवामूर्तेऽपि मुक्तजीवे यद्यपि शुद्धात्मरुचिपरिच्छित्ति-
१. अवश्यम्भावी = जरूर होनेवाला; अपरिहार्य्य
उत्पाद तेम विनाश छे सौ कोई वस्तुमात्रने,
वळी कोई पर्ययथी दरेक पदार्थ छे सद्भूत खरे
.१८.
अब, उत्पाद आदि तीनों (उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य) सर्व द्रव्योंके साधारण है इसलिये
शुद्ध आत्मा (केवली भगवान और सिद्ध भगवान) के भी अवश्यम्भावी है ऐसा व्यक्त
करते हैं :
अन्वयार्थ :[उत्पादः ] किसी पर्यायसे उत्पाद [विनाशः च ] और किसी पर्यायसे
विनाश [सर्वस्य ] सर्व [अर्थजातस्य ] पदार्थमात्रके [विद्यते ] होता है; [केन अपि पर्यायेण
तु ]
और किसी पर्यायसे [अर्थः ] पदार्थ [सद्भूतः खलु भवति ] वास्तवमें ध्रुव है
।।१८।।
टीका :जैसे उत्तम स्वर्णकी बाजूबन्दरूप पर्यायसे उत्पत्ति दिखाई देती है, पूर्व
अवस्थारूपसे वर्तनेवाली अँगूठी इत्यादिक पर्यायसे विनाश देखा जाता है और पीलापन इत्यादि

Page 31 of 513
PDF/HTML Page 64 of 546
single page version

निश्चलानुभूतिलक्षणस्य संसारावसानोत्पन्नकारणसमयसारपर्यायस्य विनाशो भवति तथैव केवल-
ज्ञानादिव्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारपर्यायस्योत्पादश्च भवति, तथाप्युभयपर्यायपरिणतात्मद्रव्यत्वेन

ध्रौव्यत्वं पदार्थत्वादिति
अथवा यथा ज्ञेयपदार्थाः प्रतिक्षणं भङ्गत्रयेण परिणमन्ति तथा ज्ञानमपि
परिच्छित्त्यपेक्षया भङ्गत्रयेण परिणमति षट्स्थानगतागुरुलघुकगुणवृद्धिहान्यपेक्षया वा भङ्गत्रयमव-
बोद्धव्यमिति सूत्रतात्पर्यम् ।।१८।। एवं सिद्धजीवे द्रव्यार्थिकनयेन नित्यत्वेऽपि विवक्षितपर्यायेणोत्पाद-
व्ययध्रौव्यस्थापनरूपेण द्वितीयस्थले गाथाद्वयं गतम् अथ तं पूर्वोक्तसर्वज्ञं ये मन्यन्ते ते सम्यग्दृष्टयो
भवन्ति, परम्परया मोक्षं च लभन्त इति प्रतिपादयति
तं सव्वट्ठवरिट्ठं इट्ठं अमरासुरप्पहाणेहिं
ये सद्दहंति जीवा तेसिं दुक्खाणि खीयंति ।।“१।।
तं सव्वट्ठवरिट्ठं तं सर्वार्थवरिष्ठं इट्ठं इष्टमभिमतं कैः अमरासुरप्पहाणेहिं अमरासुरप्रधानैः ये
सद्दहंति ये श्रद्दधति रोचन्ते जीवा भव्यजीवाः तेसिं तेषाम् दुक्खाणि वीतरागपारमार्थिक-
सुखविलक्षणानि दुःखानि खीयंति विनाशं गच्छन्ति, इति सूत्रार्थः ।।



।। एवं
केनचित्पर्यायेणोत्पादः केनचिद्विनाशः केनचिद्ध्र्रौव्यमित्यवबोद्धव्यम् अतः शुद्धात्मनोऽप्युत्पा-
दादित्रयरूपं द्रव्यलक्षणभूतमस्तित्वमवश्यंभावि ।।१८।।
पर्यायसे दोनोंमें (बाजूबन्द और अँगूठी में) उत्पत्ति -विनाशको प्राप्त न होनेसे ध्रौव्यत्व दिखाई
देता है
इसप्रकार सर्व द्रव्योंके किसी पर्यायसे उत्पाद, किसी पर्यायसे विनाश और किसी
पर्यायसे ध्रौव्य होता है, ऐसा जानना चाहिए इससे (यह कहा गया है कि) शुद्ध आत्माके
भी द्रव्यका लक्षणभूत उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप अस्तित्व अवश्यम्भावी है
भावार्थ :द्रव्यका लक्षण अस्तित्व है और अस्तित्व उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यरूप है
इसलिये किसी पर्यायसे उत्पाद, किसी पर्यायसे विनाश और किसी पर्यायसे ध्रौव्यत्व प्रत्येक
पदार्थके होता है
प्रश्न :‘द्रव्यका अस्तित्व उत्पादादिक तीनोंसे क्यों कहा है ? एकमात्र ध्रौव्यसे ही
कहना चाहिये; क्योंकि जो ध्रुव रहता है वह सदा बना रह सकता है ?’
उत्तर :यदि पदार्थ ध्रुव ही हो तो मिट्टी, सोना, दूध इत्यादि समस्त पदार्थ एक ही
सामान्य आकारसे रहना चाहिये; और घड़ा, कुंडल, दही इत्यादि भेद कभी न होना चाहिये
किन्तु ऐसा नहीं होता अर्थात् भेद तो अवश्य दिखाई देते हैं इसलिये पदार्थ सर्वथा ध्रुव न
रहकर किसी पर्यायसे उत्पन्न और किसी पर्यायसे नष्ट भी होते हैं यदि ऐसा न माना जाये
तो संसारका ही लोप हो जाये
१. ऐसी जो जो गाथायें श्री अमृतचंद्राचार्यविरचित तत्त्वप्रदीपिका टीकामें नहीं लेकिन श्री जयसेनाचार्यदेव
विरचित तात्पर्यवृत्ति टीकामें है उन गाथाओंके अंतमें () करके उन गाथाओंको अलग नंबर दिये है।

Page 32 of 513
PDF/HTML Page 65 of 546
single page version

अथास्यात्मनः शुद्धोपयोगानुभावात्स्वयंभुवो भूतस्य कथमिन्द्रियैर्विना ज्ञानानन्दाविति
संदेहमुदस्यति
पक्खीणघादिकम्मो अणंतवरवीरिओ अहियतेजो
जादो अदिंदिओ सो णाणं सोक्खं च परिणमदि ।।१९।।
निर्दोषिपरमात्मश्रद्धानान्मोक्षो भवतीति कथनरूपेण तृतीयस्थले गाथा गता ।। अथास्यात्मनो
निर्विकारस्वसंवेदनलक्षणशुद्धोपयोगप्रभावात्सर्वज्ञत्वे सतीन्द्रियैर्विना कथं ज्ञानानन्दाविति पृष्टे प्रत्युत्तरं
ददाति
पक्खीणघादिकम्मो ज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयस्वरूपपरमात्मद्रव्यभावनालक्षणशुद्धोपयोगबलेन प्रक्षीण-
घातिकर्मा सन् अणंतवरवीरिओ अनन्तवरवीर्यः पुनरपि किंविशिष्टः अहियतेजो अधिकतेजाः अत्र
तेजः शब्देन केवलज्ञानदर्शनद्वयं ग्राह्यम् जादो सो स पूर्वोक्तलक्षण आत्मा जातः संजातः कथंभूतः
अणिंदियो अनिन्द्रिय इन्द्रियविषयव्यापाररहितः अनिन्द्रियः सन् किं करोति णाणं सोक्खं च परिणमदि
केवलज्ञानमनन्तसौख्यं च परिणमतीति तथाहिअनेन व्याख्यानेन किमुक्तं भवति आत्मा
इसप्रकार प्रत्येक द्रव्य उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यमय है, इसलिये मुक्त आत्माके भी
उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य अवश्य होते हैं यदि स्थूलतासे देखा जाये तो सिद्ध पर्यायका उत्पाद
और संसार पर्यायका व्यय हुआ तथा आत्मत्व ध्रुव बना रहा इस अपेक्षासे मुक्त
आत्माके भी उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य होता है अथवा मुक्त आत्माका ज्ञान ज्ञेय पदार्थोंके
आकाररूप हुआ करता है इसलिये समस्त ज्ञेय पदार्थोमें जिस जिस प्रकारसे उत्पादादिक
होता है उस -उस प्रकारसे ज्ञानमें उत्पादादिक होता रहता है, इसलिये मुक्त आत्माके समय
समय पर उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य होता है
अथवा अधिक सूक्ष्मतासे देखा जाये तो,
अगुरुलघुगुणमें होनेवाली षटगुनी हानी वृद्धिके कारण मुक्त आत्माको समय समय पर
उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यमय वर्तता है
यहाँ जैसे सिद्धभगवानके उत्पादादि कहे हैं उसीप्रकार
केवली भगवानके भी यथायोग्य समझ लेना चाहिये ।।१८।।
अब, शुद्धोपयोगके प्रभावसे स्वयंभू हुए इस (पूर्वोक्त) आत्माके इन्द्रियोंके बिना
ज्ञान और आनन्द कैसे होता है ? ऐसे संदेहका निवारण करते हैं :
प्रक्षीणघातिकर्म, अनहदवीर्य, अधिकप्रकाश ने
इन्द्रिय -अतीत थयेल आत्मा ज्ञानसौख्ये परिणमे
.१९.

Page 33 of 513
PDF/HTML Page 66 of 546
single page version

प्रक्षीणघातिकर्मा अनन्तवरवीर्योऽधिकतेजाः
जातोऽतीन्द्रियः स ज्ञानं सौख्यं च परिणमति ।।१९।।
अयं खल्वात्मा शुद्धोपयोगसामर्थ्यात् प्रक्षीणघातिकर्मा, क्षायोपशमिकज्ञान-
दर्शनासंपृक्तत्वादतीन्द्रियो भूतः सन्निखिलान्तरायक्षयादनन्तवरवीर्यः, कृत्स्नज्ञानदर्शनावरण-
प्रलयादधिक के वलज्ञानदर्शनाभिधानतेजाः, समस्तमोहनीयाभावादत्यन्तनिर्विकारशुद्धचैतन्य-
स्वभावमात्मानमासादयन् स्वयमेव स्वपरप्रकाशकत्वलक्षणं ज्ञानमनाकु लत्वलक्षणं सौख्यं च
भूत्वा परिणमते
एवमात्मनो ज्ञानानन्दौ स्वभाव एव स्वभावस्य तु परानपेक्षत्वादिन्द्रियै-
र्विनाप्यात्मनो ज्ञानानन्दौ संभवतः ।।१९।।
तावन्निश्चयेनानन्तज्ञानसुखस्वभावोऽपि व्यवहारेण संसारावस्थायां कर्मप्रच्छादितज्ञानसुखः सन्
पश्चादिन्द्रियाधारेण किमप्यल्पज्ञानं सुखं च परिणमति
यदा पुनर्निर्विकल्पस्वसंवित्तिबलेन कर्माभावो
भवति तदा क्षयोपशमाभावादिन्द्रियाणि न सन्ति स्वकीयातीन्द्रियज्ञानं सुखं चानुभवति ततः स्थितं
इन्द्रियाभावेऽपि स्वकीयानन्तज्ञानं सुखं चानुभवति तदपि कस्मात् स्वभावस्य परापेक्षा
नास्तीत्यभिप्रायः ।।१९।। अथातीन्द्रियत्वादेव केवलिनः शरीराधारोद्भूतं भोजनादिसुखं क्षुधादिदुःखं च
नास्तीति विचारयतिसोक्खं वा पुण दुक्खं केवलणाणिस्स णत्थि सुखं वा पुनर्दुःखं वा केवलज्ञानिनो
१. अधिक = उत्कृष्ट; असाधारण; अत्यन्त २. अनपेक्ष = स्वतंत्र; उदासीन; अपेक्षा रहित
પ્ર. ૫
अन्वयार्थ :[प्रक्षीणघातिकर्मा ] जिसके घातिकर्म क्षय हो चुके हैं, [अतीन्द्रियः
जातः ] जो अतीन्द्रिय हो गया है, [अनन्तवरवीर्यः ] अनन्त जिसका उत्तम वीर्य है और
[अधिकतेजाः ]
अधिक जिसका (केवलज्ञान और केवलदर्शनरूप) तेज है [सः ] ऐसा वह
(स्वयंभू आत्मा) [ज्ञानं सौख्यं च ] ज्ञान और सुखरूप [परिणमति ] परिणमन करता है ।।१९।।
टीका :शुद्धोपयोगके सामर्थ्यसे जिसके घातिकर्म क्षयको प्राप्त हुए हैं,
क्षायोपशमिक ज्ञान -दर्शनके साथ असंपृक्त (संपर्क रहित) होनेसे जो अतीन्द्रिय हो गया है,
समस्त अन्तरायका क्षय होनेसे अनन्त जिसका उत्तम वीर्य है, समस्त ज्ञानावरण और
दर्शनावरणका प्रलय हो जानेसे अधिक जिसका केवलज्ञान और केवलदर्शन नामक तेज है
ऐसा यह (स्वयंभू) आत्मा, समस्त मोहनीयके अभावके कारण अत्यंत निर्विकार शुद्ध चैतन्य
स्वभाववाले आत्माका (अत्यन्त निर्विकार शुद्ध चैतन्य जिसका स्वभाव है ऐसे आत्माका )
अनुभव करता हुआ स्वयमेव स्वपरप्रकाशकता लक्षण ज्ञान और अनाकुलता लक्षण सुख होकर
परिणमित होता है
इस प्रकार आत्माका, ज्ञान और आनन्द स्वभाव ही है और स्वभाव परसे
अनपेक्ष होनेके कारण इन्द्रियोंके बिना भी आत्माके ज्ञान और आनन्द होता है

Page 34 of 513
PDF/HTML Page 67 of 546
single page version

अथातीन्द्रियत्वादेव शुद्धात्मनः शारीरं सुखदुःखं नास्तीति विभावयति
सोक्खं वा पुण दुक्खं केवलणाणिस्स णत्थि देहगदं
जम्हा अदिंदियत्तं जादं तम्हा दु तं णेयं ।।२०।।
नास्ति कथंभूतम् देहगदं देहगतं देहाधारजिह्वेन्द्रियादिसमुत्पन्नं कवलाहारादिसुखम्, असातोदयजनितं
क्षुधादिदुःखं च कस्मान्नास्ति जम्हा अदिंदियत्तं जादं यस्मान्मोहादिघातिकर्माभावे पञ्चेन्द्रिय-
विषयव्यापाररहितत्वं जातम् तम्हा दु तं णेयं तस्मादतीन्द्रियत्वाद्धेतोरतीन्द्रियमेव तज्ज्ञानं सुखं च
ज्ञेयमिति तद्यथालोहपिण्डसंसर्गाभावादग्निर्यथा घनघातपिट्टनं न लभते तथायमात्मापि लोहपिण्ड-
स्थानीयेन्द्रियग्रामाभावात् सांसारिकसुखदुःखं नानुभवतीत्यर्थः कश्चिदाहकेवलिनां भुक्तिरस्ति,
औदारिकशरीरसद्भावात् असद्वेद्यकर्मोदयसद्भावाद्वा अस्मदादिवत् परिहारमाहतद्भगवतः शरीर-
मौदारिकं न भवति किंतु परमौदारिकम् तथा चोक्तं‘‘शुद्धस्फ टिकसंकाशं तेजोमूर्तिमयं वपुः जायते
क्षीणदोषस्य सप्तधातुविवर्जितम्’’ ।। यच्चोक्तमसद्वेद्योदयसद्भावात्तत्र परिहारमाहयथा व्रीह्यादिबीजं
जलसहकारिकारणसहितमङ्कककककुुुुुरादिकार्यं जनयति तथैवासद्वेद्यकर्म मोहनीयसहकारिकारणसहितं क्षुधादि-
कार्यमुत्पादयति क स्मात् ‘मोहस्स बलेण घाददे जीवं’ इति वचनात् यदि पुनर्मोहाभावेऽपि
क्षुधादिपरीषहं जनयति तर्हि वधरोगादिपरीषहमपि जनयतु, न च तथा तदपि कस्मात्
‘भुक्त्युपसर्गाभावात्’ इति वचनात् अन्यदपि दूषणमस्ति यदि क्षुधाबाधास्ति तर्हि
क्षुधाक्षीणशक्तेरनन्तवीर्यं नास्ति तथैव क्षुधादुःखितस्यानन्तसुखमपि नास्ति जिह्वेन्द्रियपरिच्छित्ति-
रूपमतिज्ञानपरिणतस्य केवलज्ञानमपि न संभवति अथवा अन्यदपि कारणमस्ति असद्वेद्योदयापेक्षया
सद्वेद्योदयोऽनन्तगुणोऽस्ति ततः कारणात् शर्कराराशिमध्ये निम्बकणिकावदसद्वेद्योदयो विद्यमानोऽपि
न ज्ञायते तथैवान्यदपि बाधकमस्तियथा प्रमत्तसंयतादितपोधनानां वेदोदये विद्यमानेऽपि
मन्दमोहोदयत्वादखण्डब्रह्मचारिणां स्त्रीपरीषहबाधा नास्ति, यथैव च नवग्रैवेयकाद्यहमिन्द्रदेवानां
भावार्थ :आत्माको ज्ञान और सुखरूप परिणमित होनेमें इन्द्रियादिक पर निमित्तोंकी
आवश्यक ता नहीं है; क्योंकि जिसका लक्षण अर्थात् स्वरूप स्वपरप्रकाशकता है ऐसा ज्ञान और
जिसका लक्षण अनाकुलता है ऐसा सुख आत्माका स्वभाव ही है
।।१९।।
अब अतीन्द्रियताके कारण ही शुद्ध आत्माके (केवली भगवानके) शारीरिक सुख दुःख
नहीं है यह व्यक्त करते हैं :
कँई देहगत नथी सुख के नथी दुःख केवळज्ञानीने,
जेथी अतीन्द्रियता थई ते कारणे ए जाणजे
.२०.

Page 35 of 513
PDF/HTML Page 68 of 546
single page version

सौख्यं वा पुनर्दुःखं केवलज्ञानिनो नास्ति देहगतम्
यस्मादतीन्द्रियत्वं जातं तस्मात्तु तज्ज्ञेयम् ।।२०।।
वेदोदये विद्यमानेऽपि मन्दमोहोदयेन स्त्रीविषयबाधा नास्ति, तथा भगवत्यसद्वेद्योदये विद्यमानेऽपि
निरवशेषमोहाभावात् क्षुधाबाधा नास्ति
यदि पुनरुच्यते भवद्भि :::::मिथ्यादृष्टयादिसयोग-
केवलिपर्यन्तास्त्रयोदशगुणस्थानवर्तिनो जीवा आहारका भवन्तीत्याहारकमार्गणायामागमे भणितमास्ते,
ततः कारणात् केवलिनामाहारोऽस्तीति
तदप्ययुक्तम् ‘‘णोकम्म -कम्महारो कवलाहारो य
लेप्पमाहारो ओजमणो वि य कमसो आहारो छव्विहो णेयो’’ ।। इति गाथाकथितक्रमेण यद्यपि
षट्प्रकार आहारो भवति तथापि नोकर्माहारापेक्षया केवलिनामाहारकत्वमवबोद्धव्यम् न च
कवलाहारापेक्षया तथाहिसूक्ष्माः सुरसाः सुगन्धा अन्यमनुजानामसंभविनः कवलाहारं विनापि
किञ्चिदूनपूर्वकोटिपर्यन्तं शरीरस्थितिहेतवः सप्तधातुरहितपरमौदारिकशरीरनोकर्माहारयोग्या लाभान्त-
रायकर्मनिरवशेषक्षयात् प्रतिक्षणं पुद्गला आस्रवन्तीति नवकेवललब्धिव्याख्यानकाले भणितं तिष्ठति
ततो ज्ञायते नोकर्माहारापेक्षया केवलिनामाहारकत्वम् अथ मतम्भवदीयकल्पनया आहारानाहारकत्वं
नोकर्माहारापेक्षया, न च कवलाहारापेक्षया चेति कथं ज्ञायते नैवम् ‘‘एकं द्वौ त्रीन् वानाहारकः’’
इति तत्त्वार्थे कथितमास्ते अस्य सूत्रस्यार्थः कथ्यतेभवान्तरगमनकाले विग्रहगतौ शरीराभावे सति
नूतनशरीरधारणार्थं त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्यपुद्गलपिण्डग्रहणं नोकर्माहार उच्यते
च विग्रहगतौ कर्माहारे विद्यमानेऽप्येकद्वित्रिसमयपर्यन्तं नास्ति ततो नोकर्माहारापेक्षयाऽऽहारा-
नाहारकत्वमागमे ज्ञायते यदि पुनः कवलाहारापेक्षया तर्हि भोजनकालं विहाय सर्वदैवानाहारक एव,
समयत्रयनियमो न घटते अथ मतम्केवलिनां कवलाहारोऽस्ति मनुष्यत्वात् वर्तमानमनुष्यवत्
तदप्ययुक्त म् तर्हि पूर्वकालपुरुषाणां सर्वज्ञत्वं नास्ति, रामरावणादिपुरुषाणां च विशेषसामर्थ्यं नास्ति
वर्तमानमनुष्यवत् न च तथा किंच छद्मस्थतपोधना अपि सप्तधातुरहितपरमौदारिकशरीराभावे ‘छट्ठो
त्ति पढमसण्णा’ इति वचनात् प्रमत्तसंयतषष्ठगुणस्थानवर्तिनो यद्यप्याहारं गृह्णन्ति तथापि ज्ञानसंयम-
ध्यानसिद्धयर्थं, न च देहममत्वार्थम्
उक्तं च‘‘कायस्थित्यर्थमाहारः कायो ज्ञानार्थमिष्यते ज्ञानं
कर्मविनाशाय तन्नाशे परमं सुखम्’’ ।। ‘‘ण बलाउसाहणट्ठं ण सरीरस्स य चयट्ठ तेजट्ठं णाणट्ठ
संजमट्ठं झाणट्ठं चेव भुंजंति ।।’’ तस्य भगवतो ज्ञानसंयमध्यानादिगुणाः स्वभावेनैव तिष्ठन्ति न
चाहारबलेन यदि पुनर्देहममत्वेनाहारं गृह्णाति तर्हि छद्मस्थेभ्योऽप्यसौ हीनः प्राप्नोति अथोच्यते
तस्यातिशयविशेषात्प्रकटा भुक्तिर्नास्ति प्रच्छन्ना विद्यते तर्हि परमौदारिकशरीरत्वाद्भुक्तिरेव
नास्त्ययमेवातिशयः किं न भवति तत्र तु प्रच्छन्नभुक्तौ मायास्थानं दैन्यवृत्तिः, अन्येऽपि
पिण्डशुद्धिकथिता दोषा बहवो भवन्ति ते चान्यत्र तर्कशास्त्रे ज्ञातव्याः अत्र
अन्वयार्थ :[केवलज्ञानिनः ] केवलज्ञानीके [देहगतं ] शरीरसम्बन्धी [सौख्यं ]
सुख [वा पुनः दुःखं ] या दुःख [नास्ति ] नहीं है, [यस्मात् ] क्योंकि [अतीन्द्रियत्वं जातं ]
अतीन्द्रियता उत्पन्न हुई है [तस्मात् तु तत् ज्ञेयम् ] इसलिये ऐसा जानना चाहिये
।।२०।।

Page 36 of 513
PDF/HTML Page 69 of 546
single page version

यत एव शुद्धात्मनो जातवेदस इव कालायसगोलोत्कूलितपुद्गलाशेषविलासकल्पो
नास्तीन्द्रियग्रामस्तत एव घोरघनघाताभिघातपरम्परास्थानीयं शरीरगतं सुखदुःखं न
स्यात
।।२०।।
अथ ज्ञानस्वरूपप्रपंच सौख्यस्वरूपप्रपंच च क्रमप्रवृत्तप्रबन्धद्वयेनाभिदधाति तत्र
केवलिनोऽतीन्द्रियज्ञानपरिणतत्वात्सर्वं प्रत्यक्षं भवतीति विभावयति
परिणमदो खलु णाणं पच्चक्खा सव्वदव्वपज्जाया
सो णेव ते विजाणदि उग्गहपुव्वाहिं किरियाहिं ।।२१।।
चाध्यात्मग्रन्थत्वान्नोच्यन्त इति अयमत्र भावार्थःइदं वस्तुस्वरूपमेव ज्ञातव्यमत्राग्रहो न कर्तव्यः
कस्मात् दुराग्रहे सति रागद्वेषोत्पत्तिर्भवति ततश्च निर्विकारचिदानन्दैकस्वभावपरमात्मभावनाविघातो
भवतीति ।।२०।। एवमनन्तज्ञानसुखस्थापने प्रथमगाथा केवलिभुक्तिनिराकरणे द्वितीया चेति गाथाद्वयं
गतम्
इति सप्तगाथाभिः स्थलचतुष्टयेन सामान्येन सर्वज्ञसिद्धिनामा द्वितीयोऽन्तराधिकारः समाप्तः ।।
अथ ज्ञानप्रपञ्चाभिधानान्तराधिकारे त्रयस्त्रिंशद्गाथा भवन्ति तत्राष्टौ स्थलानि तेष्वादौ
टीका :जैसे अग्निको लोहपिण्डके तप्त पुद्गलोंका समस्त विलास नहीं है (अर्थात्
अग्नि लोहेके गोलेके पुद्गलोंके विलाससेउनकी क्रियासेभिन्न है) उसीप्रकार शुद्ध
आत्माके (अर्थात् केवलज्ञानी भगवानके) इन्द्रिय -समूह नहीं है; इसीलिये जैसे अग्निको
घनके घोर आघातोंकी परम्परा नहीं है (लोहेके गोलेके संसर्गका अभाव होने पर घनके
लगातार आघातों की भयंकर मार अग्निपर नहीं पड़ती) इसीप्रकार शुद्ध आत्माके शरीर
सम्बन्धी सुख दुःख नहीं हैं
भावार्थ :केवली भगवानके शरीर सम्बन्धी क्षुधादिका दुःख या भोजनादिका सुख
नहीं होता इसलिये उनके कवलाहार नहीं होता ।।२०।।
अब, ज्ञानके स्वरूपका विस्तार और सुखके स्वरूपका विस्तार क्रमशः प्रवर्तमान दो
अधिकारोंके द्वारा कहते हैं इनमेंसे (प्रथम) अतीन्द्रिय ज्ञानरूप परिणमित होनेसे केवली
भगवानके सब प्रत्यक्ष है यह प्रगट करते हैं :
प्रत्यक्ष छे सौ द्रव्यपर्यय ज्ञानपरिणमनारने;
जाणे नहीं ते तेमने अवग्रहइहादि क्रिया वडे.२१.

Page 37 of 513
PDF/HTML Page 70 of 546
single page version

परिणममानस्य खलु ज्ञानं प्रत्यक्षाः सर्वद्रव्यपर्यायाः
स नैव तान् विजानात्यवग्रहपूर्वाभिः क्रियाभिः ।।२१।।
यतो न खल्विन्द्रियाण्यालम्ब्यावग्रहेहावायपूर्वकप्रक्रमेण केवली विजानाति, स्वयमेव
समस्तावरणक्षयक्षण एवानाद्यनन्ताहेतुकासाधारणभूतज्ञानस्वभावमेव कारणत्वेनोपादाय तदुपरि
प्रविक सत्केवलज्ञानोपयोगीभूय विपरिणमते, ततोऽस्याक्रमसमाक्रान्तसमस्तद्रव्यक्षेत्रकाल-
भावतया समक्षसंवेदनालम्बनभूताः सर्वद्रव्यपर्यायाः प्रत्यक्षा एव भवन्ति
।।२१।।
केवलज्ञानस्य सर्वं प्रत्यक्षं भवतीति कथनमुख्यत्वेन ‘परिणमदो खलु’ इत्यादिगाथाद्वयम्,
अथात्मज्ञानयोर्निश्चयेनासंख्यातप्रदेशत्वेऽपि व्यवहारेण सर्वगतत्वं भवतीत्यादिकथनमुख्यत्वेन ‘आदा

णाणपमाणं’ इत्यादिगाथापञ्चकम्, ततः परं ज्ञानज्ञेययोः परस्परगमननिराकरणमुख्यतया ‘णाणी

णाणसहावो’ इत्यादिगाथापञ्चकम्, अथ निश्चयव्यवहारकेवलिप्रतिपादनादिमुख्यत्वेन ‘जो हि सुदेण’

इत्यादिसूत्रचतुष्टयम्, अथ वर्तमानज्ञाने कालत्रयपर्यायपरिच्छित्तिकथनादिरूपेण ‘तक्कालिगेव सव्वे’

इत्यादिसूत्रपञ्चकम्, अथ केवलज्ञानं बन्धकारणं न भवति रागादिविकल्परहितं छद्मस्थज्ञानमपि, किंतु

रागादयो बन्धकारणमित्यादिनिरूपणमुख्यतया ‘परिणमदि णेयं’ इत्यादिसूत्रपञ्चकम्, अथ केवलज्ञानं

सर्वज्ञानं सर्वज्ञत्वेन प्रतिपादयतीत्यादिव्याख्यानमुख्यत्वेन ‘जं तक्कालियमिदरं’ इत्यादिगाथापञ्चकम्,

अथ ज्ञानप्रपञ्चोपसंहारमुख्यत्वेन प्रथमगाथा, नमस्कारकथनेन द्वितीया चेति ‘णवि परिणमदि’ इत्यादि

गाथाद्वयम्
एवं ज्ञानप्रपञ्चाभिधानतृतीयान्तराधिकारे त्रयस्त्रिंशद्गाथाभिः स्थलाष्टकेन समुदाय-
अन्वयार्थ :[खलु ] वास्तवमें [ज्ञानं परिणममानस्य ] ज्ञानरूपसे
(केवलज्ञानरूपसे)परिणमित होते हुए केवलीभगवानके [सर्वद्रव्यपर्यायाः ] सर्व द्रव्य -पर्यायें
[प्रत्यक्षाः ] प्रत्यक्ष हैं; [सः ] वे [तान् ] उन्हें [अवग्रहपूर्वाभिः क्रियाभिः ] अवग्रहादि
क्रियाओंसे [नैव विजानाति ] नहीं जानते
।।२१।।
टीका : केवलीभगवान इन्द्रियोंके आलम्बनसे अवग्रह -ईहा -अवाय पूर्वक क्रमसे
नहीं जानते, (किन्तु) स्वयमेव समस्त आवरणके क्षयके क्षण ही, अनादि अनन्त, अहेतुक और
असाधारण ज्ञानस्वभावको ही कारणरूप ग्रहण करनेसे तत्काल ही प्रगट होनेवाले
केवलज्ञानोपयोगरूप होकर परिणमित होते हैं; इसलिये उनके समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और
भावका अक्रमिक ग्रहण होनेसे समक्ष संवेदनकी (
प्रत्यक्ष ज्ञानकी) आलम्बनभूत समस्त
द्रव्य -पर्यायें प्रत्यक्ष ही हैं
भावार्थ :जिसका न आदि है और न अंत है, तथा जिसका कोई कारण नहीं
और जो अन्य किसी द्रव्यमें नहीं है, ऐसे ज्ञान स्वभावको ही उपादेय करके, केवलज्ञानकी
उत्पत्तिके बीजभूत शुक्लध्यान नामक स्वसंवेदनज्ञानरूपसे जब आत्मा परिणमित होता है तब

Page 38 of 513
PDF/HTML Page 71 of 546
single page version

अथास्य भगवतोऽतीन्द्रियज्ञानपरिणतत्वादेव न किंचित्परोक्षं भवतीत्यभिप्रैति
णत्थि परोक्खं किंचि वि समंत सव्वक्खगुणसमिद्धस्स
अक्खातीदस्स सदा सयमेव हि णाणजादस्स ।।२२।।
नास्ति परोक्षं किंचिदपि समन्ततः सर्वाक्षगुणसमृद्धस्य
अक्षातीतस्य सदा स्वयमेव हि ज्ञानजातस्य ।।२२।।
पातनिका तद्यथाअथातीन्द्रियज्ञानपरिणतत्वात्केवलिनः सर्वं प्रत्यक्षं भवतीति प्रतिपादयतिपच्चक्खा
सव्वदव्वपज्जाया सर्वद्रव्यपर्यायाः प्रत्यक्षा भवन्ति कस्य केवलिनः किं कुर्वतः परिणमदो
परिणममानस्य खलु स्फु टम् किम् णाणं अनन्तपदार्थपरिच्छित्तिसमर्थं केवलज्ञानम् तर्हि किं क्रमेण
जानाति सो णेव ते विजाणदि उग्गहपुव्वाहिं किरियाहिं स च भगवान्नैव तान् जानात्यवग्रहपूर्वाभिः
क्रियाभिः, किंतु युगपदित्यर्थः इतो विस्तर :अनाद्यनन्तमहेतुकं चिदानन्दैकस्वभावं निज-
शुद्धात्मानमुपादेयं कृत्वा केवलज्ञानोत्पत्तेर्बीजभूतेनागमभाषया शुक्लध्यानसंज्ञेन रागादिविकल्प-
जालरहितस्वसंवेदनज्ञानेन यदायमात्मा परिणमति, तदा स्वसंवेदनज्ञानफलभूतकेवलज्ञान-

परिच्छित्त्याकारपरिणतस्य तस्मिन्नेव क्षणे क्रमप्रवृत्तक्षायोपशमिकज्ञानाभावादक्रमसमाक्रान्तसमस्त-

द्रव्यक्षेत्रकालभावतया सर्वद्रव्यगुणपर्याया अस्यात्मनः प्रत्यक्षा भवन्तीत्यभिप्रायः
।।२१।। अथ सर्वं
उसके निमित्तसे सर्व घातिकर्मोंका क्षय हो जाता है और उस क्षय होनेके समय ही आत्मा
स्वयमेव केवलज्ञानरूप परिणमित होने लगता है
वे केवलज्ञानी भगवान क्षायोपशमिक
ज्ञानवाले जीवोंकी भाँति अवग्रह -इहा -अवाय और धारणारूप क्रमसे नहीं जानते किन्तु सर्व
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावको युगपत् जानते हैं
इसप्रकार उनके सब कुछ प्रत्यक्ष होता
है ।।२१।।
अब अतीन्द्रिय ज्ञानरूप परिणमित होनेसे ही इन भगवानको कुछ भी परोक्ष नहीं है,
ऐसा अभिप्राय प्रगट करते हैं :
अन्वयार्थ :[सदा अक्षातीतस्य ] जो सदा इन्द्रियातीत हैं, [समन्ततः सर्वाक्षगुण-
समृद्धस्य ] जो सर्व ओरसे (सर्व आत्मप्रदेशोंसे) सर्व इन्द्रिय गुणोंसे समृद्ध हैं [स्वयमेव हि
ज्ञानजातस्य ] और जो स्वयमेव ज्ञानरूप हुए हैं, उन केवली भगवानको [किंचित् अपि ] कुछ
भी [परोक्षं नास्ति ] परोक्ष नहीं है
।।२२।।
न परोक्ष कँई पण सर्वतः सर्वाक्षगुण समृद्धने,
इन्द्रिय -अतीत सदैव ने स्वयमेव ज्ञान थयेलने
.२२.

Page 39 of 513
PDF/HTML Page 72 of 546
single page version

अस्य खलु भगवतः समस्तावरणक्षयक्षण एव सांसारिकपरिच्छित्तिनिष्पत्तिबलाधान-
हेतुभूतानि प्रतिनियतविषयग्राहीण्यक्षाणि तैरतीतस्य, स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दपरिच्छेदरूपैः
समरसतया समन्ततः सर्वै̄रेवेन्द्रियगुणैः समृद्धस्य, स्वयमेव सामस्त्येन स्वपरप्रकाशनक्षममनश्वरं
लोकोत्तरज्ञानं जातस्य, अक्रमसमाक्रान्तसमस्तद्रव्यक्षेत्रकालभावतया न किंचनापि परोक्षमेव
स्यात
।।२२।।
प्रत्यक्षं भवतीत्यन्वयरूपेण पूर्वसूत्रे भणितमिदानीं तु परोक्षं किमपि नास्तीति तमेवार्थं व्यतिरेकेण
दृढयति
णत्थि परोक्खं किंचि वि अस्य भगवतः परोक्षं किमपि नास्ति किंविशिष्टस्य समंत
सव्वक्खगुणसमिद्धस्स समन्ततः सर्वात्मप्रदेशैः सामस्त्येन वा स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दपरिच्छित्तिरूप-
सर्वेन्द्रियगुणसमृद्धस्य तर्हि किमक्षसहितस्य नैवम् अक्खातीदस्स अक्षातीतस्येन्द्रियव्यापाररहितस्य,
अथवा द्वितीयव्याख्यानम्अक्ष्णोति ज्ञानेन व्याप्नोतीत्यक्ष आत्मा तद्गुणसमृद्धस्य सदा सर्वदा
सर्वकालम् पुनरपि किंरूपस्य सयमेव हि णाणजादस्स स्वयमेव हि स्फु टं केवलज्ञानरूपेण जातस्य
परिणतस्येति तद्यथाअतीन्द्रियस्वभावपरमात्मनो विपरीतानि क्रमप्रवृत्तिहेतुभूतानीन्द्रियाण्यतिक्रान्तस्य
जगत्त्रयकालत्रयवर्तिसमस्तपदार्थयुगपत्प्रत्यक्षप्रतीतिसमर्थमविनश्वरमखण्डैकप्रतिभासमयं केवलज्ञानं
परिणतस्यास्य भगवतः परोक्षं किमपि नास्तीति भावार्थः
।।२२।। एवं केवलिनां समस्तं प्रत्यक्षं
भवतीति कथनरूपेण प्रथमस्थले गाथाद्वयं गतम् अथात्मा ज्ञानप्रमाणो भवतीति ज्ञानं च
टीका :समस्त आवरणके क्षयके क्षण ही जो (भगवान) सांसारिक ज्ञानको उत्पन्न
करनेके बलको कार्यरूप देनेमें हेतुभूत ऐसी अपने अपने निश्चित् विषयोंको ग्रहण करनेवाली
इन्द्रियोंसे अतीत हुए हैं, जो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्दके ज्ञानरूप सर्व इन्द्रिय
गुणोंके
द्वारा सर्व ओरसे समरसरूपसे समृद्ध हैं (अर्थात् जो भगवान स्पर्श, रस, गंध, वर्ण तथा शब्दको
सर्व आत्मप्रदेशोंसे समानरूपसे जानते हैं) और जो स्वयमेव समस्तरूपसे स्वपरका प्रकाशन
करनेमें समर्थ अविनाशी लोकोत्तर ज्ञानरूप हुए हैं, ऐसे इन (केवली) भगवानको समस्त द्रव्य-
क्षेत्र -काल -भावका अक्रमिक ग्रहण होनेसे कुछ भी परोक्ष नहीं है
भावार्थ :इन्द्रियका गुण तो स्पर्शादिक एक -एक गुणको ही जानना है जैसे
चक्षुइन्द्रियका गुण रूपको ही जानना है अर्थात् रूपको ही जाननेमें निमित्त होना है और
इन्द्रियज्ञान क्रमिक है केवलीभगवान इन्द्रियोंके निमित्तके बिना समस्त आत्मप्रदेशोंसे स्पर्शादि
सर्व विषयोंको जानते हैं, और जो समस्तरूपसे स्व -पर प्रकाशक है ऐसे लोकोत्तर ज्ञानरूप
(
लौकिकज्ञानसे भिन्न केवलज्ञानरूप) स्वयमेव परिणमित हुआ करते हैं; इसलिये समस्त
द्रव्य -क्षेत्र -काल और भावको अवग्रहादि क्रम रहित जानते हैं इसलिये केवली भगवानके कुछ
भी परोक्ष नहीं है
।।२२।।

Page 40 of 513
PDF/HTML Page 73 of 546
single page version

अथात्मनो ज्ञानप्रमाणत्वं ज्ञानस्य सर्वगतत्वं चोद्योतयति
आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिट्ठं
णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं ।।२३।।
आत्मा ज्ञानप्रमाणं ज्ञानं ज्ञेयप्रमाणमुद्दिष्टम्
ज्ञेयं लोकालोकं तस्माज्ज्ञानं तु सर्वगतम।।२३।।
आत्मा हि ‘समगुणपर्यायं द्रव्यम्’ इति वचनात् ज्ञानेन सह हीनाधिकत्वरहितत्वेन
परिणतत्वात्तत्परिमाणः, ज्ञानं तु ज्ञेयनिष्ठत्वाद्दाह्यनिष्ठदहनवत्तत्परिमाणं; ज्ञेयं तु
लोकालोकविभागविभक्तानन्तपर्यायमालिकालीढस्वरूपसूचिता विच्छेदोत्पादध्रौव्या षड्द्रव्यी
व्यवहारेण सर्वगतमित्युपदिशतिआदा णाणपमाणं ज्ञानेन सह हीनाधिकत्वाभावादात्मा ज्ञानप्रमाणो
भवति तथाहि‘समगुणपर्यायं द्रव्यं भवति’ इति वचनाद्वर्तमानमनुष्यभवे वर्तमानमनुष्य-
पर्यायप्रमाणः, तथैव मनुष्यपर्यायप्रदेशवर्तिज्ञानगुणप्रमाणश्च प्रत्यक्षेण दृश्यते यथायमात्मा, तथा
निश्चयतः सर्वदैवाव्याबाधाक्षयसुखाद्यनन्तगुणाधारभूतो योऽसौ केवलज्ञानगुणस्तत्प्रमाणोऽयमात्मा
णाणं णेयप्पमाणमुद्दिट्ठं दाह्यनिष्ठदहनवत् ज्ञानं ज्ञेयप्रमाणमुद्दिष्टं कथितम् णेयं लोयालोयं ज्ञेयं लोका-
१. ज्ञेयनिष्ठ = ज्ञेयोंका अवलम्बन करनेवाला; ज्ञेयोमें तत्पर २. दहन = जलाना; अग्नि
३. विभक्त = विभागवाला (षट्द्रव्योंके समूहमें लोक -अलोकरूप दो विभाग हैं)
४. अनन्त पर्यायें द्रव्यको आलिंगित करती है (द्रव्यमें होती हैं) ऐसे स्वरूपवाला द्रव्य ज्ञात होता है
जीवद्रव्य ज्ञानप्रमाण भाख्युं, ज्ञान ज्ञेयप्रमाण छे;
ने ज्ञेय लोकालोक, तेथी सर्वगत ए ज्ञान छे
.२३.
अब, आत्माका ज्ञानप्रमाणपना और ज्ञानका सर्वगतपना उद्योत करते हैं :
अन्वयार्थ :[आत्मा ] आत्मा [ज्ञानप्रमाणं ] ज्ञान प्रमाण है; [ज्ञानं ] ज्ञान
[ज्ञेयप्रमाणं ] ज्ञेय प्रमाण [उद्दिष्टं ] कहा गया है [ज्ञेयं लोकालोकं ] ज्ञेय लोकालोक है
[तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानं तु ] ज्ञान [सर्वगतं ] सर्वगतसर्व व्यापक है ।।२३।।
टीका :‘समगुणपर्यायं द्रव्यं (गुण -पर्यायें अर्थात् युगपद् सर्वगुण और पर्यायें ही
द्रव्य है)’ इस वचनके अनुसार आत्मा ज्ञानसे हीनाधिकतारहितरूपसे परिणमित होनेके कारण
ज्ञानप्रमाण है, और ज्ञान
ज्ञेयनिष्ठ होनेसे, दाह्यनिष्ठ दहनकी भाँति, ज्ञेय प्रमाण है ज्ञेय तो लोक
और अलोकके विभागसे विभक्त, अनन्त पर्यायमालासे आलिंगित स्वरूपसे सूचित (प्रगट,
ज्ञान), नाशवान दिखाई देता हुआ भी ध्रुव ऐसा षट्द्रव्य -समूह, अर्थात् सब कुछ है

Page 41 of 513
PDF/HTML Page 74 of 546
single page version

लोकं भवति शुद्धबुद्धैकस्वभावसर्वप्रकारोपादेयभूतपरमात्मद्रव्यादिषड्द्रव्यात्मको लोकः, लोकाद्बहि-
र्भागे शुद्धाकाशमलोकः, तच्च लोकालोकद्वयं स्वकीयस्वकीयानन्तपर्यायपरिणतिरूपेणानित्यमपि
द्रव्यार्थिकनयेन नित्यम्
तम्हा णाणं तु सव्वगयं यस्मान्निश्चयरत्नत्रयात्मकशुद्धोपयोगभावनाबलेनोत्पन्नं
यत्केवलज्ञानं तट्टङ्कोत्कीर्णाकारन्यायेन निरन्तरं पूर्वोक्तज्ञेयं जानाति, तस्माद्वयवहारेण तु ज्ञानं सर्वगतं
भण्यते
ततः स्थितमेतदात्मा ज्ञानप्रमाणं ज्ञानं सर्वगतमिति ।।२३।। अथात्मानं ज्ञानप्रमाणं ये न मन्यन्ते
तत्र हीनाधिकत्वे दूषणं ददातिणाणप्पमाणमादा ण हवदि जस्सेह ज्ञानप्रमाणमात्मा न भवति
सर्वमिति यावत ततो निःशेषावरणक्षयक्षण एव लोकालोकविभागविभक्तसमस्तवस्त्वाकार-
पारमुपगम्य तथैवाप्रच्युतत्वेन व्यवस्थितत्वात् ज्ञानं सर्वगतम् ।।२३।।
अथात्मनो ज्ञानप्रमाणत्वानभ्युपगमे द्वौ पक्षावुपन्यस्य दूषयति
णाणप्पमाणमादा ण हवदि जस्सेह तस्स सो आदा
हीणो वा अहिओ वा णाणादो हवदि धुवमेव ।।२४।।
हीणो जदि सो आदा तण्णाणमचेदणं ण जाणादि
अहिओ वा णाणादो णाणेण विणा कहं णादि ।।२५।। जुगलं
પ્ર. ૬
(ज्ञेय छहों द्रव्योंका समूह अर्थात् सब कुछ है) इसलिये निःशेष आवरणके क्षयके समय ही
लोक और अलोकके विभागसे विभक्त समस्त वस्तुओंके आकारोंके पारको प्राप्त करके
इसीप्रकार अच्युतरूप रहने से ज्ञान सर्वगत है
भावार्थ :गुण -पर्यायसे द्रव्य अनन्य है इसलिये आत्मा ज्ञानसे हीनाधिक न होनेसे ज्ञान
जितना ही है; और जैसे दाह्य (जलने योग्य पदार्थ) का अवलम्बन करनेवाला दहन दाह्यके बराबर
ही है उसी प्रकार ज्ञेयका अवलम्बन करनेवाला ज्ञान ज्ञेयके बराबर ही है
ज्ञेय तो समस्त
लोकालोक अर्थात् सब ही है इसलिये, सर्व आवरणका क्षय होते ही (ज्ञान) सबको जानता है
और फि र कभी भी सबके जाननेसे च्युत नहीं होता इसलिये ज्ञान सर्वव्यापक है ।।२३।।
अब आत्माको ज्ञान प्रमाण न माननेमें दो पक्ष उपस्थित करके दोष बतलाते हैं :
जीवद्रव्य ज्ञानप्रमाण नहिए मान्यता छे जेहने,
तेना मते जीव ज्ञानथी हीन के अधिक अवश्य छे.२४.
जो हीन आत्मा होय, नव जाणे अचेतन ज्ञान ए,
ने अधिक ज्ञानथी होय तो वण ज्ञान क्यम जाणे अरे
?२५.

Page 42 of 513
PDF/HTML Page 75 of 546
single page version

ज्ञानप्रमाणमात्मा न भवति यस्येह तस्य स आत्मा
हीनो वा अधिको वा ज्ञानाद्भवति ध्रुवमेव ।।२४।।
हीनो यदि स आत्मा तत् ज्ञानमचेतनं न जानाति
अधिको वा ज्ञानात् ज्ञानेन विना कथं जानाति ।।२५।। युगलम्
यदि खल्वयमात्मा हीनो ज्ञानादित्यभ्युपगम्यते तदात्मनोऽतिरिच्यमानं ज्ञानं स्वाश्रय-
भूतचेतनद्रव्यसमवायाभावादचेतनं भवद्रूपादिगुणकल्पतामापन्नं न जानाति यदि पुनर्ज्ञाना-
दधिक इति पक्षः कक्षीक्रियते तदावश्यं ज्ञानादतिरिक्तत्वात् पृथग्भूतो भवन् घटपटादि-
स्थानीयतामापन्नो ज्ञानमन्तरेण न जानाति ततो ज्ञानप्रमाण एवायमात्माभ्युप-
गन्तव्यः ।। २४ २५ ।।
यस्य वादिनो मतेऽत्र जगति तस्स सो आदा तस्य मते स आत्मा हीणो वा अहिओ वा णाणादो हवदि
धुवमेव हीनो वा अधिको वा ज्ञानात्सकाशाद् भवति निश्चितमेवेति ।।२४।। हीणो जदि सो आदा तं
णाणमचेदणं ण जाणादि हीनो यदि स आत्मा तदाग्नेरभावे सति उष्णगुणो यथा शीतलो भवति तथा
स्वाश्रयभूतचेतनात्मकद्रव्यसमवायाभावात्तस्यात्मनो ज्ञानमचेतनं भवत्सत् किमपि न जानाति अहिओ
अन्वयार्थ :[इह ] इस जगतमें [यस्य ] जिसके मतमें [आत्मा ] आत्मा
[ज्ञानप्रमाणं ] ज्ञानप्रमाण [न भवति ] नहीं है, [तस्य ] उसके मतमें [ सः आत्मा ] वह आत्मा
[ध्रुवम् एव ] अवश्य [ज्ञानात् हीनः वा ] ज्ञानसे हीन [अधिकः वा भवति ] अथवा अधिक
होना चाहिये
[यदि ] यदि [सः आत्मा ] वह आत्मा [हीनः ] ज्ञानसे हीन हो [तत् ] तो वह [ज्ञानं ]
ज्ञान [अचेतनं ] अचेतन होनेसे [न जानाति ] नहीं जानेगा, [ज्ञानात् अधिकः वा ] और यदि
(आत्मा) ज्ञानसे अधिक हो तो (वह आत्मा) [ज्ञानेन विना ] ज्ञानके बिना [कथं जानाति ]
कैसे जानेगा ?
।।२४ -२५।।
टीका : यदि यह स्वीकार किया जाये कि यह आत्मा ज्ञानसे हीन है तो आत्मासे
आगे बढ़ जानेवाला ज्ञान (आत्माके क्षेत्रसे आगे बढ़कर उससे बाहर व्याप्त होनेवाला ज्ञान)
अपने आश्रयभूत चेतनद्रव्यका समवाय (सम्बन्ध) न रहनेसे अचेतन होता हुआ रूपादि गुण
जैसा होनेसे नहीं जानेगा; और यदि ऐसा पक्ष स्वीकार किया जाये कि यह आत्मा ज्ञानसे अधिक
है तो अवश्य (आत्मा) ज्ञानसे आगे बढ़ जानेसे (
ज्ञानके क्षेत्रसे बाहर व्याप्त होनेसे) ज्ञानसे
पृथक् होता हुआ घटपटादि जैसा होनेसे ज्ञानके बिना नहीं जानेगा इसलिये यह आत्मा
ज्ञानप्रमाण ही मानना योग्य है

Page 43 of 513
PDF/HTML Page 76 of 546
single page version

अथात्मनोऽपि ज्ञानवत् सर्वगतत्वं न्यायायातमभिनन्दति
सव्वगदो जिणवसहो सव्वे वि य तग्गया जगदि अट्ठा
णाणमयादो य जिणो विसयादो तस्स ते भणिदा ।।२६।।
सर्वगतो जिनवृषभः सर्वेऽपि च तद्गता जगत्यर्थाः
ज्ञानमयत्वाच्च जिनो विषयत्वात्तस्य ते भणिताः ।।२६।।
वा णाणादो णाणेण विणा कहं णादि अधिको वा ज्ञानात्सकाशात्तर्हि यथोष्णगुणाभावेऽग्निः शीतलो
भवन्सन् दहनक्रियां प्रत्यसमर्थो भवति तथा ज्ञानगुणाभावे सत्यात्माप्यचेतनो भवन्सन् कथं जानाति,
न कथमपीति
अयमत्र भावार्थः ---ये केचनात्मानमङ्गुष्ठपर्वमात्रं, श्यामाकतण्डुलमात्रं,
वटककणिकादिमात्रं वा मन्यन्ते ते निषिद्धाः येऽपि समुद्घातसप्तकं विहाय देहादधिकं मन्यन्ते
तेऽपि निराकृता इति ।।२५।। अथ यथा ज्ञानं पूर्वं सर्वगतमुक्तं तथैव सर्वगतज्ञानापेक्षया भगवानपि
सर्वगतो भवतीत्यावेदयति ---सव्वगदो सर्वगतो भवति स कः कर्ता जिणवसहो जिनवृषभः
भावार्थ :आत्माका क्षेत्र ज्ञानके क्षेत्रसे कम माना जाये तो आत्माके क्षेत्रसे बाहर
वर्तनेवाला ज्ञान चेतनद्रव्यके साथ सम्बन्ध न होनेसे अचेतन गुण जैसा ही होगा, इसलिये
वह जाननेका काम नहीं कर सकेगा, जैसे कि वर्ण, गंध, रस, स्पर्श इत्यादि अचेतन गुण
जाननेका काम नहीं कर सकते
यदि आत्माका क्षेत्र ज्ञानके क्षेत्र से अधिक माना जाये तो
ज्ञानके क्षेत्रसे बाहर वर्तनेवाला ज्ञानशून्य आत्मा ज्ञानके बिना जाननेका काम नहीं क र
सकेगा, जैसे ज्ञानशून्य घट, पट इत्यादि पदार्थ जाननेका काम नहीं कर सकते
इसलिये
आत्मा न तो ज्ञानसे हीन है और न अधिक है, किन्तु ज्ञान जितना ही है ।।२४ -२५।।
अब, ज्ञानकी भाँति आत्माका भी सर्वगतत्व न्यायसिद्ध है ऐसा कहते हैं :
अन्वयार्थ :[जिनवृषभः ] जिनवर [सर्वगतः ] सर्वगत हैं [च ] और [जगति ]
जगतके [सर्वे अपि अर्थाः ] सर्व पदार्थ [तद्गताः ] जिनवरगत (जिनवरमें प्राप्त) हैं;
[जिनः ज्ञानमयत्वात् ] क्योंकि जिन ज्ञानमय हैं [च ] और [ते ] वे सब पदार्थ
[विषयत्वात् ] ज्ञानके विषय होनेसे [तस्य ] जिनके विषय [भणिताः ] कहे गये हैं
।।२६।।
छे सर्वगत जिनवर अने सौ अर्थ जिनवरप्राप्त छे,
जिन ज्ञानमय ने सर्व अर्थो विषय जिनना होइने
.२६.

Page 44 of 513
PDF/HTML Page 77 of 546
single page version

ज्ञानं हि त्रिसमयावच्छिन्नसर्वद्रव्यपर्यायरूपव्यवस्थितविश्वज्ञेयाकारानाक्रामत् सर्वगतमुक्तं,
तथाभूतज्ञानमयीभूय व्यवस्थितत्वाद्भगवानपि सर्वगत एव एवं सर्वगतज्ञानविषयत्वात्सर्वेऽर्था
अपि सर्वगतज्ञानाव्यतिरिक्तस्य भगवतस्तस्य ते विषया इति भणितत्वात्तद्गता एव भवन्ति
तत्र निश्चयनयेनानाकुलत्वलक्षणसौख्यसंवेदनत्वाधिष्ठानत्वावच्छिन्नात्मप्रमाणज्ञानस्व-
तत्त्वापरित्यागेन विश्वज्ञेयाकाराननुपगम्यावबुध्यमानोऽपि व्यवहारनयेन भगवान् सर्वगत इति
व्यपदिश्यते
तथा नैमित्तिकभूतज्ञेयाकारानात्मस्थानवलोक्य सर्वेऽर्थास्तद्गता इत्युपचर्यन्ते
च तेषां परमार्थतोऽन्योन्यगमनमस्ति, सर्वद्रव्याणां स्वरूपनिष्ठत्वात अयं क्रमो ज्ञानेऽपि
निश्चेयः ।।२६।।
सर्वज्ञः कस्मात् सर्वगतो भवति जिणो जिनः णाणमयादो य ज्ञानमयत्वाद्धेतोः सव्वे वि य तग्गया जगदि
अट्ठा सर्वेऽपि च ये जगत्यर्थास्ते दर्पणे बिम्बवद् व्यवहारेण तत्र भगवति गता भवन्ति कस्मात्
ते भणिदा तेऽर्थास्तत्र गता भणिताः विसयादो विषयत्वात्परिच्छेद्यत्वात् ज्ञेयत्वात् कस्य तस्स तस्य
भगवत इति तथाहि ---यदनन्तज्ञानमनाकुलत्वलक्षणानन्तसुखं च तदाधारभूतस्तावदात्मा इत्थं-
भूतात्मप्रमाणं ज्ञानमात्मनः स्वस्वरूपं भवति इत्थंभूतं स्वस्वरूपं देहगतमपरित्यजन्नेव लोकालोकं
परिच्छिनत्ति ततः कारणाद्वयवहारेण सर्वगतो भण्यते भगवान् येन च कारणेन नीलपीतादिबहिः-
पदार्था आदर्शे बिम्बवत् परिच्छित्त्याकारेण ज्ञाने प्रतिफलन्ति ततः कारणादुपचारेणार्थकार्यभूता
१. अधिष्ठान = आधार, रहनेका स्थान (आत्मा सुखसंवेदनका आधार है जितनेमें सुखका वेदन होता है
उतना ही आत्मा है )
२. ज्ञेयाकारों = पर पदार्थोंके द्रव्य -गुण -पर्याय जो कि ज्ञेय हैं (यह ज्ञेयाकार परमार्थतः आत्मासे सर्वथा भिन्न
है )
टीका :ज्ञान त्रिकालके सर्व द्रव्यपर्यायरूप प्रवर्तमान समस्त ज्ञेयाकारोंको पहुँच
जानेसे (जानता होनेसे) सर्वगत कहा गया है; और ऐसे (सर्वगत) ज्ञानमय होकर रहनेसे
भगवान भी सर्वगत ही हैं इसप्रकार सर्व पदार्थ भी सर्वगत ज्ञानके विषय होनेसे, सर्वगत ज्ञानसे
अभिन्न उन भगवानके वे विषय हैं ऐसा (शास्त्रमें) कहा है; इसलिये सर्व पदार्थ भगवानगत
ही (
भगवानमें प्राप्त ही) हैं
वहाँ (ऐसा समझना कि)निश्चयनयसे अनाकुलतालक्षण सुखका जो संवेदन उस
सुखसंवेदनके अधिष्ठानता जितना ही आत्मा है और उस आत्माके बराबर ही ज्ञान स्वतत्त्व
है; उस निजस्वरूप आत्मप्रमाण ज्ञानको छोड़े बिना, समस्त ज्ञेयाकारोंके निकट गये बिना,
भगवान (सर्व पदार्थोंको) जानते हैं निश्चयनयसे ऐसा होने पर भी व्यवहारनयसे यह कहा

Page 45 of 513
PDF/HTML Page 78 of 546
single page version

अथात्मज्ञानयोरेकत्वान्यत्वं चिन्तयति
णाणं अप्प त्ति मदं वट्टदि णाणं विणा ण अप्पाणं
तम्हा णाणं अप्पा अप्पा णाणं व अण्णं वा ।।२७।।
ज्ञानमात्मेति मतं वर्तते ज्ञानं विना नात्मानम्
तस्मात् ज्ञानमात्मा आत्मा ज्ञानं वा अन्यद्वा ।।२७।।
अर्थाकारा अप्यर्था भण्यन्ते ते च ज्ञाने तिष्ठन्तीत्युच्यमाने दोषो नास्तीत्यभिप्रायः ।।२६।। अथ
ज्ञानमात्मा भवति, आत्मा तु ज्ञानं सुखादिकं वा भवतीति प्रतिपादयतिणाणं अप्प त्ति मदं ज्ञानमात्मा
भवतीति मतं सम्मतम् कस्मात् वट्टदि णाणं विणा ण अप्पाणं ज्ञानं कर्तृ विनात्मानं जीवमन्यत्र
१. नैमित्तिकभूत ज्ञेयाकारों = ज्ञानमें होनेवाले (ज्ञानकी अवस्थारूप) ज्ञेयाकारों (इन ज्ञेयाकारोंको ज्ञानाकार भी
कहा जाता है, क्योंकि ज्ञान इन ज्ञेयाकाररूप परिणमित होते हैं यह ज्ञेयाकार नैमित्तिक हैं और पर पदार्थोंके
द्रव्य -गुण -पर्याय उनके निमित्त हैं इन ज्ञेयाकारोंको आत्मामें देखकर ‘समस्त पर पदार्थ आत्मामें हैं,
इसप्रकार उपचार किया जाता है यह बात ३१ वीं गाथामें दर्पणका दृष्टान्त देकर समझाई गई है )
छे ज्ञान आत्मा जिनमते; आत्मा विना नहि ज्ञान छे ,
ते कारणे छे ज्ञान जीव, जीव ज्ञान छे वा अन्य छे .२७.
जाता है कि भगवान सर्वगत हैं और नैमित्तिकभूत ज्ञेयाकारोंको आत्मस्थ (आत्मामें रहे हुए)
देखकर ऐसा उपचारसे कहा जाता है; कि ‘सर्व पदार्थ आत्मगत (आत्मामें) हैं ’; परन्तु
परमार्थतः उनका एक दूसरेमें गमन नहीं होता, क्योंकि सर्व द्रव्य स्वरूपनिष्ठ (अर्थात् अपने-
अपने स्वरूपमें निश्चल अवस्थित) हैं
यही क्रम ज्ञानमें भी निश्चित करना चाहिये (अर्थात् आत्मा और ज्ञेयोंके सम्बन्धमें
निश्चय -व्यवहारसे कहा गया है, उसीप्रकार ज्ञान और ज्ञेयोंके सम्बन्धमें भी समझना
चाहिए)
।।२६।।
अब, आत्मा और ज्ञानके एकत्व -अन्यत्वका विचार करते हैं :
गाथा : २७ अन्वयार्थ :[ज्ञानं आत्मा ] ज्ञान आत्मा है [इति मतं ] ऐसा
जिनदेवका मत है [आत्मानं विना ] आत्माके बिना (अन्य किसी द्रव्यमें) [ज्ञानं न वर्तते ]
ज्ञान नहीं होता, [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानं आत्मा ] ज्ञान आत्मा है; [आत्मा ] और आत्मा [ज्ञानं
वा ]
(ज्ञान गुण द्वारा) ज्ञान है [अन्यत् वा ] अथवा (सुखादि अन्य गुण द्वारा) अन्य है
।।२७।।

Page 46 of 513
PDF/HTML Page 79 of 546
single page version

यतः शेषसमस्तचेतनाचेतनवस्तुसमवायसंबन्धनिरुत्सुक तयाऽनाद्यनन्तस्वभावसिद्ध-
समवायसंबन्धमेक मात्मानमाभिमुख्येनावलम्ब्य प्रवृत्तत्वात् तं विना आत्मानं ज्ञानं न धारयति,
ततो ज्ञानमात्मैव स्यात आत्मा त्वनन्तधर्माधिष्ठानत्वात् ज्ञानधर्मद्वारेण ज्ञानमन्यधर्म-
द्वारेणान्यदपि स्यात
किं चानेकान्तोऽत्र बलवान् एकान्तेन ज्ञानमात्मेति ज्ञानस्या -भावोऽचेतनत्वमात्मनो
विशेषगुणाभावादभावो वा स्यात सर्वथात्मा ज्ञानमिति निराश्रयत्वात् ज्ञानस्याभाव आत्मनः
शेषपर्यायाभावस्तदविनाभाविनस्तस्याप्यभावः स्यात।।२७।।
घटपटादौ न वर्तते तम्हा णाणं अप्पा तस्मात् ज्ञायते कथंचिज्ज्ञानमात्मैव स्यात् इति गाथापादत्रयेण
ज्ञानस्य कथंचिदात्मत्वं स्थापितम् अप्पा णाणं व अण्णं वा आत्मा तु ज्ञानधर्मद्वारेण ज्ञानं भवति,
सुखवीर्यादिधर्मद्वारेणान्यद्वा नियमो नास्तीति तद्यथायदि पुनरेकान्तेन ज्ञानमात्मेति भण्यते तदा
ज्ञानगुणमात्र एवात्मा प्राप्तः सुखादिधर्माणामवकाशो नास्ति तथा सुखवीर्यादिधर्मसमूहाभावादात्मा-
भावः, आत्मन आधारभूतस्याभावादाधेयभूतस्य ज्ञानगुणस्याप्यभावः, इत्येकान्ते सति द्वयोरप्यभावः
तस्मात्कथंचिज्ज्ञानमात्मा न सर्वथेति अयमत्राभिप्रायःआत्मा व्यापको ज्ञानं व्याप्यं ततो
ज्ञानमात्मा स्यात्, आत्मा तु ज्ञानमन्यद्वा भवतीति तथा चोक्तम्‘व्यापकं तदतन्निष्ठं व्याप्यं
१. समवाय सम्बन्ध = जहाँ गुण होते हैं वहाँ गुणी होता है और जहाँ गुणी होता है वहाँ गुण होते हैं, जहाँ
गुण नहीं होते वहाँ गुणी नहीं होता और जहाँ गुणी नहीं होता वहाँ गुण नहीं होतेइस प्रकार गुण-
गुणीका अभिन्न -प्रदेशरूप सम्बन्ध; तादात्म्यसम्बन्ध है
टीका :क्योंकि शेष समस्त चेतन तथा अचेतन वस्तुओंके साथ समवायसम्बन्ध
नहीं है, इसलिये जिसके साथ अनादि अनन्त स्वभावसिद्ध समवायसम्बन्ध है ऐसे एक आत्माका
अति निकटतया (अभिन्न प्रदेशरूपसे) अवलम्बन करके प्रवर्तमान होनेसे ज्ञान आत्माके बिना
अपना अस्तित्व नहीं रख सकता; इसलिये ज्ञान आत्मा ही है
और आत्मा तो अनन्त धर्मोंका
अधिष्ठान (-आधार) होनेसे ज्ञानधर्मके द्वारा ज्ञान है और अन्य धर्मके द्वारा अन्य भी है
और फि र, इसके अतिरिक्त (विशेष समझना कि) यहाँ अनेकान्त बलवान है यदि
यह माना जाय कि एकान्तसे ज्ञान आत्मा है तो, (ज्ञानगुण आत्मद्रव्य हो जानेसे) ज्ञानका
अभाव हो जायेगा, (और ज्ञानगुणका अभाव होनेसे) आत्माके अचेतनता आ जायेगी अथवा
विशेषगुणका अभाव होनेसे आत्माका अभाव हो जायेगा
यदि यह माना जाये कि सर्वथा
आत्मा ज्ञान है तो, (आत्मद्रव्य एक ज्ञानगुणरूप हो जानेपर ज्ञानका कोई आधारभूत द्रव्य नहीं
रहनेसे) निराश्रयताके कारण ज्ञानका अभाव हो जायेगा अथवा (आत्मद्रव्यके एक ज्ञानगुणरूप
हो जानेसे) आत्माकी शेष पर्यायोंका (
सुख, वीर्यादि गुणोंका) अभाव हो जायेगा और उनके

Page 47 of 513
PDF/HTML Page 80 of 546
single page version

अथ ज्ञानज्ञेययोः परस्परगमनं प्रतिहन्ति
णाणी णाणसहावो अट्ठा णेयप्पगा हि णाणिस्स
रूवाणि व चक्खूणं णेवण्णोण्णेसु वट्टंति ।।२८।।
ज्ञानी ज्ञानस्वभावोऽर्था ज्ञेयात्मका हि ज्ञानिनः
रूपाणीव चक्षुषोः नैवान्योन्येषु वर्तन्ते ।।२८।।
ज्ञानी चार्थाश्च स्वलक्षणभूतपृथक्त्वतो न मिथो वृत्तिमासादयन्ति किंतु तेषां
ज्ञानज्ञेयस्वभावसंबन्धसाधितमन्योन्यवृत्तिमात्रमस्ति चक्षुरूपवत यथा हि चक्षूंषि तद्विषय-
तन्निष्ठमेव च’ ।।२७।। इत्यात्मज्ञानयोरेकत्वं, ज्ञानस्य व्यवहारेण सर्वगतत्वमित्यादिकथनरूपेण
द्वितीयस्थले गाथापञ्चकं गतम् अथ ज्ञानं ज्ञेयसमीपे न गच्छतीति निश्चिनोति --णाणी णाणसहावो ज्ञानी
सर्वज्ञः केवलज्ञानस्वभाव एव अट्ठा णेयप्पगा हि णाणिस्स जगत्त्रयकालत्रयवर्तिपदार्था ज्ञेयात्मका एव
भवन्ति न च ज्ञानात्मकाः कस्य ज्ञानिनः रूवाणि व चक्खूणं णेवण्णोण्णेसु वट्टंति ज्ञानी
पदार्थाश्चान्योन्यं परस्परमेकत्वेन न वर्तन्ते कानीव, केषां संबंधित्वेन रूपाणीव चक्षुषामिति
साथ ही अविनाभावी सम्बन्धवाले आत्माका भी अभाव हो जायेगा (क्योंकि सुख, वीर्य
इत्यादि गुण न हों तो आत्मा भी नहीं हो सकता) ।।२७।।
अब, ज्ञान और ज्ञेयके परस्पर गमनका निषेध करते हैं ( अर्थात् ज्ञान और ज्ञेय एक-
दूसरेमें प्रवेश नहीं करते ऐसा कहते हैं ) :
अन्वयार्थ :[ज्ञानी ] आत्मा [ज्ञानस्वभावः ] ज्ञान स्वभाव है [अर्थाः हि ] और पदार्थ
[ज्ञानिनः ] आत्माके [ज्ञेयात्मकाः ] ज्ञेय स्वरूप हैं, [रूपाणि इव चक्षुषोः ] जैसे कि रूप (रूपी
पदार्थ) नेत्रोंका ज्ञेय है वैसे [अन्योन्येषु ] वे एक -दूसरे में [न एव वर्तन्ते ] नहीं वर्तते ।।२८।।
टीका :आत्मा और पदार्थ स्वलक्षणभूत पृथक्त्वके कारण एक दूसरेमें नहीं वर्तते
परन्तु उनके मात्र नेत्र और रूपी पदार्थकी भाँति ज्ञानज्ञेयस्वभाव -सम्बन्धसे होनेवाली एक
दूसरेमें प्रवृत्ति पाई जाती है
(प्रत्येक द्रव्यका लक्षण अन्य द्रव्योंसे भिन्नत्व होनेसे आत्मा
और पदार्थ एक दूसरेमें नहीं वर्तते, किन्तु आत्माका ज्ञानस्वभाव है और पदार्थोंका ज्ञेय
स्वभाव है, ऐसे ज्ञानज्ञेयभावरूप सम्बन्धके कारण ही मात्र उनका एक दूसरेमें होना नेत्र
छे ‘ज्ञानी’ ज्ञानस्वभाव, अर्थो ज्ञेयरूप छे ‘ज्ञानी’ना,
ज्यम रूप छे नेत्रो तणां, नहि वर्तता अन्योन्यमां
.२८.