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वेदानां ग्रहणं यस्येति स्त्रीपुन्नपुंसकद्रव्यभावाभावस्य । न लिंगानां धर्मध्वजानां ग्रहणं यस्येति बहिरंगयतिलिंगाभावस्य । न लिंगं गुणो ग्रहणमर्थावबोधो यस्येति गुणविशेषानालीढ- शुद्धद्रव्यत्वस्य । न लिंगं पर्यायो ग्रहणमर्थावबोधविशेषो यस्येति पर्यायविशेषानालीढ- शुद्धद्रव्यत्वस्य । न लिंगं प्रत्यभिज्ञानहेतुर्ग्रहणमर्थावबोधसामान्यं यस्येति द्रव्यानालीढशुद्ध- पर्यायत्वस्य ।।१७२।।
अथ कथममूर्तस्यात्मनः स्निग्धरूक्षत्वाभावाद्बन्धो भवतीति पूर्वपक्षयति — च । अलिङ्गग्राह्यमिति वक्तव्ये यदलिङ्गग्रहणमित्युक्तं तत्किमर्थमिति चेत्, बहुतरार्थप्रतिपत्त्यर्थम् । तथाहि — लिङ्गमिन्द्रियं तेनार्थानां ग्रहणं परिच्छेदनं न करोति तेनालिङ्गग्रहणो भवति । तदपि कस्मात् । स्वयमेवातीन्द्रियाखण्डज्ञानसहितत्वात् । तेनैव लिङ्गशब्दवाच्येन चक्षुरादीन्द्रियेणान्यजीवानां यस्य ग्रहणं परिच्छेदनं कर्तुं नायाति तेनालिङ्गग्रहण उच्यते । तदपि कस्मात् । निर्विकारातीन्द्रिय- स्वसंवेदनप्रत्यक्षज्ञानगम्यत्वात् । लिङ्गं धूमादि तेन धूमलिङ्गोद्भवानुमानेनाग्निवदनुमेयभूतपरपदार्थानां ग्रहणं न करोति तेनालिङ्गग्रहण इति । तदपि कस्मात् । स्वयमेवालिङ्गोद्भवातीन्द्रियज्ञानसहितत्वात् । तेनैव लिङ्गोद्भवानुमानेनाग्निग्रहणवत् परपुरुषाणां यस्यात्मनो ग्रहणं परिज्ञानं कर्तुं नायाति तेनालिङ्ग- ग्रहण इति । तदपि कस्मात् । अलिङ्गोद्भवातीन्द्रियज्ञानगम्यत्वात् । अथवा लिङ्गं चिह्नं लाञ्छनं शिखाजटाधारणादि तेनार्थानां ग्रहणं परिच्छेदनं न क रोति तेनालिङ्गग्रहण इति । तदपि क स्मात् । स्वाभाविकाचिह्नोद्भवातीन्द्रियज्ञानसहितत्वात् । तेनैव चिह्नोद्भवज्ञानेन परपुरुषाणां यस्यात्मनो ग्रहणं परिज्ञानं कर्तृं नायाति तेनालिङ्गग्रहण इति । तदपि कस्मात् । निरुपरागस्वसंवेदनज्ञानगम्यत्वादिति । पुरुष और नपुंसक वेदोंका ग्रहण नहीं है वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार ‘आत्मा द्रव्यसे तथा भावसे स्त्री, पुरुष तथा नपुंसक नहीं है’ इस अर्थकी प्राप्ति होती है (१७) लिंगोका अर्थात् धर्मचिह्नोंका ग्रहण जिसके नहीं है वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार ‘आत्माके बहिरंग यतिलिंगोंका अभाव है’ इस अर्थकी प्राप्ति होती है । (१८) लिंग अर्थात् गुण ऐसा जो ग्रहण अर्थात् अर्थावबोध (पदार्थज्ञान) जिसके नहीं है सो अलिंगग्रहण है; इसप्रकार ‘आत्मा गुणविशेषसे आलिंगित न होनेवाला ऐसा शुद्ध द्रव्य है’ ऐसे अर्थकी प्राप्ति होती है । (१९) लिंग अर्थात् पर्याय ऐसा जो ग्रहण, अर्थात् अर्थावबोधविशेष जिसके नहीं है सो अलिंगग्रहण है; इसप्रकार ‘आत्मा पर्यायविशेषसे आलिंगित न होनेवाला ऐसा शुद्ध द्रव्य है’ ऐसे अर्थकी प्राप्ति होती है । (२०) लिंग अर्थात् प्रत्यभिज्ञानका कारण ऐसा जो ग्रहण अर्थात् अर्थावबोध सामान्य जिसके नहीं है वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार ‘आत्मा द्रव्यसे नहीं आलिंगित ऐसी शुद्ध पर्याय है’ ऐसे अर्थकी प्राप्ति होती है ।।१७२।।
अब, अमूर्त ऐसे आत्माके, स्निग्ध – रूक्षत्वका अभाव होनेसे बंध कैसे हो सकता है ? ऐसा पूर्व पक्ष उपस्थित करते हैं : —
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मूर्तयोर्हि तावत्पुद्गलयो रूपादिगुणयुक्तत्वेन यथोदितस्निग्धरूक्षत्वस्पर्शविशेषादन्योन्य- बन्धोऽवधार्यते एव । आत्मकर्मपुद्गलयोस्तु स कथमवधार्यते; मूर्तस्य कर्मपुद्गलस्य रूपादि- गुणयुक्तत्वेन यथोदितस्निग्धरूक्षत्वस्पर्शविशेषसंभवेऽप्यमूर्तस्यात्मनो रूपादिगुणयुक्तत्वाभावेन एवमलिङ्गग्रहणशब्दस्य व्याख्यानक्रमेण शुद्धजीवस्वरूपं ज्ञातव्यमित्यभिप्रायः ।।१७२।। अथामूर्त- शुद्धात्मनो व्याख्याने कृते सत्यमूर्तजीवस्य मूर्तपुद्गलकर्मणा सह कथं बन्धो भवतीति पूर्वपक्षं करोति — मुत्तो रूवादिगुणो मूर्तो रूपरसगन्धस्पर्शत्वात् पुद्गलद्रव्यगुणः बज्झदि अन्योन्यसंश्लेषेण बध्यते बन्धमनुभवति, तत्र दोषो नास्ति । कैः कृत्वा । फासेहिं अण्णमण्णेहिं स्निग्धरूक्षगुणलक्षण- स्पर्शसंयोगैः । किंविशिष्टैः । अन्योन्यैः परस्परनिमित्तैः । तव्विवरीदो अप्पा बज्झदि किध पोग्गलं कम्मं तद्विपरीतात्मा बध्नाति कथं पौद्गलं कर्मेति । अयं परमात्मा निर्विकारपरमचैतन्य- चमत्कारपरिणतत्वेन बन्धकारणभूतस्निग्धरूक्षगुणस्थानीयरागद्वेषादिविभावपरिणामरहितत्वादमूर्तत्वाच्च
गाथा : १७३ अन्वयार्थ : — [मूर्तः ] मूर्त (ऐसे पुद्गल) तो [रूपादिगुणः ] रूपादिगुणयुक्त होनेसे [अन्योन्यैः स्पर्शैः ] परस्पर (बंधयोग्य) स्पर्शोंसे [बध्यते ] बँधते हैं; (परन्तु) [तद्विपरीतः आत्मा ] उससे विपरीत (-अमूर्त) ऐसा आत्मा [पौद्गलिकं कर्म ] पौद्गलिक कर्मको [कथं ] कैसे [बध्नाति ] बाँधता है ? ।।१७३।।
टीका : — मूर्त ऐसे दो पुद्गल तो रूपादिगुणयुक्त होनेसे यथोक्त स्निग्धरूक्षत्वरूप स्पर्शविशेष (बंधयोग्य स्पर्श)के कारण उनका पारस्परिक बंध अवश्य समझा जा सकता है; किन्तु आत्मा और कर्मपुद्गलका बंध होना कैसे समझा जा सकता है ? क्योंकि मूर्त ऐसा कर्मपुद्गल रूपादिगुणयुक्त है, इसलिये उसके यथोक्त स्निग्धरूक्षत्वरूप स्पर्शविशेषका संभव होने पर भी अमूर्त ऐसे आत्माको रूपादिगुणयुक्तता नहीं है इसलिये उसके यथोक्त स्निग्धरूक्षत्वरूप स्पर्शविशेषका असंभव होनेसे एक अंग विकल है । (अर्थात् बंधयोग्य दो
पण जीव मूर्तिरहित बांधे केम पुद्गलकर्मने ? १७३.
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यथोदितस्निग्धरूक्षत्वस्पर्शविशेषासंभावनया चैकांगविकलत्वात् ।।१७३।।
येन प्रकारेण रूपादिरहितो रूपीणि द्रव्याणि तद्गुणांश्च पश्यति जानाति च, तेनैव प्रकारेण रूपादिरहितो रूपिभिः कर्मपुद्गलैः किल बध्यते; अन्यथा कथममूर्तो मूर्तं पश्यति पौद्गलं कर्म कथं बध्नाति, न कथमपीति पूर्वपक्षः ।।१७३।। अथैवममूर्तस्याप्यात्मनो नयविभागेन बन्धो भवतीति प्रत्युत्तरं ददाति ---रूवादिएहिं रहिदो अमूर्तपरमचिज्ज्योतिःपरिणतत्वेन तावदयमात्मा रूपादिरहितः । तथाविधः सन् किं करोति । पेच्छदि जाणादि मुक्तावस्थायां युगपत्परिच्छित्तिरूप- सामान्यविशेषग्राहककेवलदर्शनज्ञानोपयोगेन यद्यपि तादात्म्यसंबन्धो नास्ति तथापि ग्राह्यग्राहकलक्षण- संबन्धेन पश्यति जानाति । कानि कर्मतापन्नानि । रूवमादीणि दव्वाणि रूपरसगन्धस्पर्शसहितानि मूर्तद्रव्याणि । न केवलं द्रव्याणि गुणे य जधा तद्गुणांश्च यथा । अथवा यथा कश्चित्संसारी अंगोंमेंसे एक अंग अयोग्य है — स्पर्शगुणरहित होनेसे बंधकी योग्यतावाला नहीं है ।) ।।१७३।।
अब ऐसा सिद्धान्त निश्चित करते हैं कि आत्मा अमूर्त होने पर भी उसको इसप्रकार बंध होता है : —
अन्वयार्थ : — [यथा ] जैसे [रूपादिकैः रहितः ] रूपादिरहित (जीव) [रूपादीनि ] रूपादिको – [द्रव्याणि गुणान् च ] द्रव्योंको तथा गुणोंको (रूपी द्रव्योंको और उनके गुणोंको) — [पश्यति जानाति ] देखता है और जानता है [तथा ] उसीप्रकार [तेन ] उसके साथ (-अरूपीका रूपीके साथ) [बंधः जानीहि ] बंध जानो ।।१७४।।
टीका : — जैसे रूपादिरहित (जीव) रूपी द्रव्योंको तथा उनके गुणोंको देखता है तथा जानता है उसीप्रकार रूपादिरहित (जीव) रूपी कर्मपुद्गलोंके साथ बँधता है; क्योंकि यदि ऐसा न हो तो यहाँ भी (देखने – जाननेके संबंधमें भी) वह प्रश्न अनिवार्य
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जानाति चेत्यत्रापि पर्यनुयोगस्यानिवार्यत्वात् । न चैतदत्यन्तदुर्घटत्वाद्दार्ष्टान्तिकीकृ तं, किं तु दृष्टान्तद्वारेणाबालगोपालप्रक टितम् । तथा हि — यथा बालकस्य गोपालकस्य वा पृथगवस्थितं मृद्बलीवर्दं बलीवर्दं वा पश्यतो जानतश्च न बलीवर्देन सहास्ति संबन्धः, विषय- भावावस्थितबलीवर्दनिमित्तोपयोगाधिरूढबलीवर्दाकारदर्शनज्ञानसंबन्धो बलीवर्दसंबन्धव्यवहार- साधकस्त्वस्त्येव, तथा किलात्मनो नीरूपत्वेन स्पर्शशून्यत्वान्न कर्मपुद्गलैः सहास्ति संबन्धः, एकावगाहभावावस्थितकर्मपुद्गलनिमित्तोपयोगाधिरूढरागद्वेषादिभावसंबन्धः कर्मपुद्गलबन्ध- व्यवहारसाधकस्त्वस्त्येव ।।१७४।। जीवो विशेषभेदज्ञानरहितः सन् काष्ठपाषाणाद्यचेतनजिनप्रतिमां दृष्टवा मदीयाराध्योऽयमिति मन्यते । यद्यपि तत्र सत्तावलोकदर्शनेन सह प्रतिमायास्तादात्म्यसंबन्धो नास्ति तथापि परिच्छेद्यपरिच्छेदक- लक्षणसंबन्धोऽस्ति । यथा वा समवसरणे प्रत्यक्षजिनेश्वरं दृष्टवा विशेषभेदज्ञानी मन्यते मदीयाराध्योऽयमिति । तत्रापि यद्यप्यवलोक नज्ञानस्य जिनेश्वरेण सह तादात्म्यसंबन्धो नास्ति तथाप्या- राध्याराधकसंबन्धोऽस्ति । तह बंधो तेण जाणीहि तथा बन्धं तेनैव दृष्टान्तेन जानीहि । अयमत्रार्थः — यद्यप्ययमात्मा निश्चयेनामूर्तस्तथाप्यनादिकर्मबन्धवशाद्व्यवहारेण मूर्तः सन् द्रव्यबन्धनिमित्तभूतं रागादि- विकल्परूपं भावबन्धोपयोगं करोति । तस्मिन्सति मूर्तद्रव्यकर्मणा सह यद्यपि तादात्म्यसंबन्धो नास्ति है कि अमूर्त मूर्तको कैसे देखता – जानता है ?
और ऐसा भी नहीं है कि यह (अरूपीका रूपोके साथ बंध होनेकी) बात अत्यन्त दुर्घट है इसलिये उसे दार्ष्टान्तरूप बनाया है, परन्तु दृष्टांत द्वारा आबालगोपाल सभीको प्रगट (ज्ञात) हो जाय इसलिये दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है । यथा : — बालगोपालका पृथक् रहनेवाले मिट्टीके बैलको अथवा (सच्चे) बैलको देखने और जानने पर बैलके साथ संबंध नहीं है तथापि विषयरूपसे रहनेवाला बैल जिनका निमित्त है ऐसे उपयोगारूढ़ वृषभाकार दर्शन – ज्ञानके साथका संबंध बैलके साथके संबंधरूप व्यवहारका साधक अवश्य है; इसीप्रकार आत्मा अरूपीपनेके कारण स्पर्शशून्य है, इसलिये उसका कर्मपुद्गलोंके साथ संबंध नहीं है, तथापि एकावगाहरूपसे रहनेवाले कर्मपुद्गल जिनके निमित्त हैं ऐसे उपयोगारूढ़ रागद्वेषादिकभावोंके साथका संबंध कर्मपुद्गलोंके साथके बंधरूप व्यवहारका साधक अवश्य है ।
भावार्थ : — ‘आत्मा अमूर्तिक होने पर भी वह मूर्तिककर्मपुद्गलोंके साथ कैसे बँधता है ?’ इस प्रश्नका उत्तर देते हुए आचार्यदेवने कहा है कि — आत्माके अमूर्तिक होने पर भी वह मूर्तिक पदार्थोंको कैसे जानता है ? जैसे वह मूर्तिक पदार्थोंको जानता है उसीप्रकार मूर्तिक कर्मपुद्गलोंके साथ बँधता है ।
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तथापि पूर्वोक्तदृष्टान्तेन संश्लेषसंबन्धोऽस्तीति नास्ति दोषः ।।१७४।। एवं शुद्धबुद्धैकस्वभाव- जीवकथनमुख्यत्वेन प्रथमगाथा, मूर्तिरहितजीवस्य मूर्तकर्मणा सह कथं बन्धो भवतीति पूर्वपक्षरूपेण
वास्तवमें अरूपी आत्माका रूपी पदार्थोंके साथ कोई संबंध न होने पर भी अरूपीका रूपीके साथ संबंध होनेका व्यवहार भी विरोधको प्राप्त नहीं होता । जहाँ ऐसा कहा जाता है कि ‘आत्मा मूर्तिक पदार्थको जानता है’ वहाँ परमार्थतः अमूर्तिक आत्माका मूर्तिक पदार्थके साथ कोई संबंध नहीं है; उसका तो मात्र उस मूर्तिक पदार्थके आकाररूप होनेवाले ज्ञानके साथ ही संबंध है और उस पदार्थाकार ज्ञानके साथके संबंधके कारण ही ‘अमूर्तिक आत्मा मूर्तिक पदार्थको जानता है’ ऐसा अमूर्तिक – मूर्तिकका संबंधरूप व्यवहार सिद्ध होता है । इसीप्रकार जहाँ ऐसा कहा जाता है कि ‘अमुक आत्माका मूर्तिक कर्मपुद्गलोंके साथ बंध है’ वहाँ परमार्थतः अमूर्तिक आत्माका मूर्तिक कर्मपुद्गलोंके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है; आत्माका तो कर्मपुद्गल जिसमें निमित्त हैं ऐसे रागद्वेषादिभावोंके साथ ही सम्बन्ध (बंध) है और उन कर्मनिमित्तक रागद्वेषादि भावोंके साथ सम्बन्ध होनेसे ही ‘इस आत्माका मूर्तिक कर्मपुद्गलोंके साथ बंध है’ ऐसा अमूर्तिकमूर्तिकका बन्धरूप व्यवहार सिद्ध होता है
यद्यपि मनुष्यको स्त्री – पुत्र – धनादिके साथ वास्तवमें कोई सम्बन्ध नहीं है, वे उस मनुष्यसे सर्वथा भिन्न हैं, तथापि स्त्री – पुत्र – धनादिके प्रति राग करनेवाले मनुष्यको रागका बन्धन होनेसे और उस रागमें स्त्री – पुत्र – धनादिके निमित्त होनेसे व्यवहारसे ऐसा अवश्य कहा जाता है कि ‘इस मनुष्यको स्त्री – पुत्र – धनादिका बन्धन है; इसीप्रकार, यद्यपि आत्माका कर्मपुद्गलोंके साथ वास्तवमें कोई सम्बन्ध नहीं है, वे आत्मासे सर्वथा भिन्न हैं, तथापि रागद्वेषादि भाव करनेवाले आत्माको रागद्वेषादि भावोंका बन्धन होनेसे और उन भावोंमें कर्मपुद्गल निमित्त होनेसे व्यवहारसे ऐसा अवश्य कहा जा सकता है कि ‘इस आत्माको कर्मपुद्गलोंका बन्धन है’ ।।१७४।।
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अयमात्मा सर्व एव तावत्सविकल्पनिर्विकल्पपरिच्छेदात्मकत्वादुपयोगमयः । तत्र यो हि नाम नानाकारान् परिच्छेद्यानर्थानासाद्य मोहं वा रागं वा द्वेषं वा समुपैति स नाम तैः परप्रत्ययैरपि मोहरागद्वेषैरुपरक्तात्मस्वभावत्वान्नीलपीतरक्तोपाश्रयप्रत्ययनीलपीतरक्तत्वैरुपरक्त- स्वभावः स्फ टिकमणिरिव स्वयमेक एव तद्भावद्वितीयत्वाद्बन्धो भवति ।।१७५।। द्वितीया, तत्परिहाररूपेण तृतीया चेति गाथात्रयेण प्रथमस्थलं गतम् । अथ रागद्वेषमोहलक्षणं भावबन्ध- स्वरूपमाख्याति — उवओगमओ जीवो उपयोगमयो जीवः, अयं जीवो निश्चयनयेन विशुद्धज्ञान- दर्शनोपयोगमयस्तावत्तथाभूतोऽप्यनादिबन्धवशात्सोपाधिस्फ टिकवत् परोपाधिभावेन परिणतः सन् । किं करोति । मुज्झदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि मुह्यति रज्यति वा प्रद्वेष्टि द्वेषं करोति । किं कृत्वा पूर्वं । पप्पा प्राप्य । कान् । विविधे विसये निर्विषयपरमात्मस्वरूपभावनाविपक्षभूतान्विविधपञ्चेन्द्रियविषयान् । जो हि पुणो यः पुनरित्थंभूतोऽस्ति जीवो हि स्फु टं, तेहिं संबंधो तैः संबद्धो भवति, तैः पूर्वोक्तराग- द्वेषमोहैः कर्तृभूतैर्मोहरागद्वेषरहितजीवस्य शुद्धपरिणामलक्षणं परमधर्ममलभमानः सन् स जीवो बद्धो भवतीति । अत्र योऽसौ रागद्वेषमोहपरिणामः स एव भावबन्ध इत्यर्थः ।।१७५।। अथ भावबन्ध-
अन्वयार्थ : — [यः हि पुनः ] जो [उपयोगमयः जीवः ] उपयोगमय जीव [विविधान् विषयान् ] विविध विषयोंको [प्राप्य ] प्राप्त करके [मुह्यति ] मोह करता है, [रज्यति ] राग करता है, [वा ] अथवा [प्रद्वेष्टि ] द्वेष करता है, [सः ] वह जीव [तैः ] उनके द्वारा (मोह – राग – द्वेषके द्वारा) [बन्धः ] बन्धरूप है ।।१७५।।
टीका : — प्रथम तो यह आत्मा सर्व ही उपयोगमय है, क्योंकि वह सविकल्प और निर्विकल्प प्रतिभासस्वरूप है (अर्थात् ज्ञान – दर्शनस्वरूप है ।) उसमें जो आत्मा विविधाकार प्रतिभासित होनेवाले पदार्थोंको प्राप्त करके मोह, राग अथवा द्वेष करता है, वह आत्मा — काला, पीला, और लाल १आश्रय जिनका निमित्त है ऐसे कालेपन, पीलेपन और लालपनके द्वारा उपरक्त स्वभाववाले स्फ टिकमणिकी भाँति — पर जिनका निमित्त है ऐसे मोह, राग और द्वेषके द्वारा उपरक्त (विकारी, मलिन, कलुषित,) आत्मस्वभाववाला होनेसे, स्वयं अकेला ही बंध (बंधरूप) है, क्योंकि मोहरागद्वेषादिभाव उसका २द्वितीय है ।।१७५।। १. आश्रय = जिसमें स्फ टिकमणि रखा हो वह पात्र । २. द्वितीय = दूसरा [‘बन्ध तो दोके बीच होता है, अकेला आत्मा बंधस्वरूप कैसे हो सकता है ?’ इस
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अयमात्मा साकारनिराकारपरिच्छेदात्मकत्वात्परिच्छेद्यतामापद्यमानमर्थजातं येनैव मोहरूपेण रागरूपेण द्वेषरूपेण वा भावेन पश्यति जानाति च तेनैवोपरज्यत एव । योऽयमुपरागः स खलु स्निग्धरूक्षत्वस्थानीयो भावबन्धः । अथ पुनस्तेनैव पौद्गलिकं कर्म युक्तिं द्रव्यबन्धस्वरूपं च प्रतिपादयति — भावेण जेण भावेन परिणामेन येन जीवो जीवः कर्ता पेच्छदि जाणादि निर्विकल्पदर्शनपरिणामेन पश्यति सविकल्पज्ञानपरिणामेन जानाति । किं कर्मतापन्नं, आगदं विसये आगतं प्राप्तं किमपीष्टानिष्टं वस्तु पञ्चेन्द्रियविषये । रज्जदि तेणेव पुणो रज्यते तेनैव पुनः आदिमध्यान्तवर्जितं रागादिदोषरहितं चिज्ज्योतिःस्वरूपं निजात्मद्रव्यमरोचमानस्तथैवाजानन् सन् समस्तरागादिविकल्पपरिहारेणाभावयंश्च तेनैव पूर्वोक्तज्ञानदर्शनोपयोगेन रज्यते रागं करोति इति भावबन्धयुक्तिः । बज्झदि कम्म त्ति उवदेसो तेन भावबन्धेन नवतरद्रव्यकर्म बध्नातीति
अन्वयार्थ : — [जीवः ] जीव [येन भावेन ] जिस भावसे [विषये आगतं ] विषयागत पदार्थको [पश्यति जानाति ] देखता है और जानता है, [तेन एव ] उसीसे [रज्यति ] उपरक्त होता है; [पुनः ] और उसीसे [कर्म बध्यते ] कर्म बँधता है; — (इति) ऐसा (उपदेशः) उपदेश है ।।१७६।।
टीका : — यह आत्मा साकार और निराकार प्रतिभासस्वरूप (-ज्ञान और दर्शनस्वरूप) होनेसे प्रतिभास्य (प्रतिभासित होने योग्य) पदार्थसमूहको जिस मोहरूप, रागरूप या द्वेषरूप भावसे देखता है और जानता है, उसीसे उपरक्त होता है । जो यह उपराग (विकार) है वह वास्तवमें १स्निग्धरूक्षत्वस्थानीय भावबंध है । और उसीसे अवश्य १. स्निग्धरूक्षत्वस्थानीय = स्निग्धता और रूक्षताके समान । (जैसे पुद्गलमें विशिष्ट स्निग्धतारूक्षता वह बन्ध
तेनाथी छे उपरक्तता; वळी कर्मबंधन ते वडे. १७६.
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बध्यत एव । इत्येष भावबन्धप्रत्ययो द्रव्यबन्धः ।।१७६।।
यस्तावदत्र कर्मणां स्निग्धरूक्षत्वस्पर्शविशेषैरेकत्वपरिणामः स केवलपुद्गलबन्धः । यस्तु जीवस्यौपाधिकमोहरागद्वेषपर्यायैरेकत्वपरिणामः स केवलजीवबन्धः । यः पुनः जीव- द्रव्यबन्धस्वरूपं चेत्युपदेशः ।।१७६।। एवं भावबन्धकथनमुख्यतया गाथाद्वयेन द्वितीयस्थलं गतम् । अथ पूर्वनवतरपुद्गलद्रव्यकर्मणोः परस्परबन्धो, जीवस्य तु रागादिभावेन सह बन्धो, जीवस्यैव नवतर- द्रव्यकर्मणा सह चेति त्रिविधबन्धस्वरूपं प्रज्ञापयति ---फासेहिं पोग्गलाणं बंधो स्पर्शैः पुद्गलानां बन्धः । पूर्वनवतरपुद्गलद्रव्यकर्मणोर्जीवगतरागादिभावनिमित्तेन स्वकीयस्निग्धरूक्षोपादानकारणेन च परस्पर- स्पर्शसंयोगेन योऽसौ बन्धः स पुद्गलबन्धः । जीवस्स रागमादीहिं जीवस्य रागादिभिः । निरुपराग- परमचैतन्यरूपनिजात्मतत्त्वभावनाच्युतस्य जीवस्य यद्रागादिभिः सह परिणमनं स जीवबन्ध इति । अण्णोण्णस्सवगाहो पुग्गलजीवप्पगो भणिदो अन्योन्यस्यावगाहः पुद्गलजीवात्मको भणितः । निर्विकार- पौद्गलिक कर्म बँधता है । इसप्रकार यह द्रव्यबंधका निमित्त भावबंध है ।।१७६।।
गाथा : १७७ अन्वयार्थ : — [स्पर्शैः ] स्पर्शोंके साथ [पुद्गलानां बंधः ] पुद्गलोंका बंध, [रागादिभिः जीवस्य ] रागादिके साथ जीवका बंध और [अन्योन्यम् अवगाहः ] अन्योन्य अवगाह वह [पुद्गलजीवात्मकः भणितः ] पुद्गलजीवात्मक बंध कहा गया है ।।१७७।।
टीका : — प्रथम तो यहाँ, कर्मोंका जो स्निग्धता – रूक्षतारूप स्पर्शविशेषोंके साथ एकत्वपरिणाम है सो केवल पुद्गलबंध है; और जीवका औपाधिक मोह – राग – द्वेषरूप पर्यायोंके साथ जो एकत्व परिणाम है सो केवल जीवबंध है; और जीव तथा कर्मपुद्गलके
अन्योन्य जे अवगाह तेने बंध उभयात्मक कह्यो. १७७.
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कर्मपुद्गलयोः परस्परपरिणामनिमित्तमात्रत्वेन विशिष्टतरः परस्परमवगाहः स तदुभय- बन्धः ।।१७७।।
अयमात्मा लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशत्वात्सप्रदेशः । अथ तेषु तस्य प्रदेशेषु कायवाङ्मनोवर्गणालम्बनः परिस्पन्दो यथा भवति तथा कर्मपुद्गलकायाः स्वयमेव परिस्पन्द- स्वसंवेदनज्ञानरहितत्वेन स्निग्धरूक्षस्थानीयरागद्वेषपरिणतजीवस्य बन्धयोग्यस्निग्धरूक्षपरिणामपरिणत- पुद्गलस्य च योऽसौ परस्परावगाहलक्षणः स इत्थंभूतबन्धो जीवपुद्गलबन्ध इति त्रिविधबन्धलक्षणं ज्ञातव्यम् ।।१७७।। अथ ‘बन्धो जीवस्स रागमादीहिं’ पूर्वसूत्रे यदुक्तं तदेव रागत्वं द्रव्यबन्धस्य कारणमिति विशेषेण समर्थयति — सपदेसो सो अप्पा स प्रसिद्धात्मा लोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेश- त्वात्तावत्सप्रदेशः । तेसु पदेसेसु पोग्गला काया तेषु प्रदेशेषु कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलकायाः कर्तारः पविसंति प्रविशन्ति । कथम् । जहाजोग्गं मनोवचनकायवर्गणालम्बनवीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितात्मप्रदेशपरिस्पन्द- परस्पर परिणामके निमित्तमात्रसे जो विशिष्टतर परस्पर अवगाह है सो उभयबंध है । [अर्थात् जीव और कर्मपुद्गल एक दूसरेके परिणाममें निमित्तमात्र होवें, ऐसा (विशिष्टप्रकारका – खासप्रकारका) जो उनका एकक्षेत्रावगाहसंबंध है सो वह पुद्गलजीवात्मक बंध है । ] ।।१७७।।
अन्वयार्थ : — [सः आत्मा ] वह आत्मा [सप्रदेशः ] सप्रदेश है; [तेषु प्रदेशेषु ] उन प्रदेशोंमें [पुद्गलाः कायाः ] पुद्गलसमूह [प्रविशन्ति ] प्रवेश करते हैं, [यथायोग्यं तिष्ठन्ति ] यथायोग्य रहते हैं, [यान्ति ] जाते हैं, [च ] और [बध्यन्ते ] बंधते हैं ।।१७८।।
टीका : — यह आत्मा लोकाकाशतुल्य असंख्यप्रदेशी होनेसे सप्रदेश है । उसके इन प्रदेशोंमें कायवर्गणा, वचनवर्गणा और मनोवर्गणाका आलम्बनवाला परिस्पन्द (कम्पन) जिस
पुद्गलसमूह रहे यथोचित, जाय छे, बंधाय छे. १७८.
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वन्तः प्रविशन्त्यपि तिष्ठन्त्यपि गच्छन्त्यपि च । अस्ति चेज्जीवस्य मोहरागद्वेषरूपो भावो बध्यन्तेऽपि च । ततोऽवधार्यते द्रव्यबन्धस्य भावबन्धो हेतुः ।।१७८।।
यतो रागपरिणत एवाभिनवेन द्रव्यकर्मणा बध्यते, न वैराग्यपरिणतः; अभिनवेन लक्षणयोगानुसारेण यथायोग्यम् । न केवलं प्रविशन्ति चिट्ठंति हि प्रवेशानन्तरं स्वकीयस्थितिकालपर्यन्तं तिष्ठन्ति हि स्फु टम् । न केवलं तिष्ठन्ति जंति स्वकीयोदयकालं प्राप्य फलं दत्वा गच्छन्ति, बज्झंति केवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयव्यक्तिरूपमोक्षप्रतिपक्षभूतबन्धस्य कारणं रागादिकं लब्ध्वा पुनरपि द्रव्यबन्ध- रूपेण बध्यन्ते च । अत एतदायातं रागादिपरिणाम एव द्रव्यबन्धकारणमिति । अथवा द्वितीय- व्याख्यानम् — प्रविशन्ति प्रदेशबन्धास्तिष्ठन्ति स्थितिबन्धाः फलं दत्वा गच्छन्त्यनुभागबन्धा बध्यन्ते प्रकृ तिबन्धा इति ।।१७८।। एवं त्रिविधबन्धमुख्यतया सूत्रद्वयेन तृतीयस्थलं गतम् । अथ द्रव्य- बन्धकारणत्वान्निश्चयेन रागादिविकल्परूपो भावबन्ध एव बन्ध इति प्रज्ञापयति — रत्तो बंधदि कम्मं रक्तो प्रकारसे होता है, उस प्रकारसे कर्मपुद्गलके समूह स्वयमेव परिस्पन्दवाले होते हुए प्रवेश भी करते हैं, रहते भी हैं, और जाते भी हैं; और यदि जीवके मोह – राग – द्वेषरूप भाव हों तो बंधते भी हैं । इसलिये निश्चित होता है कि द्रव्यबंधका हेतु भावबंध है ।।१७८।।
अब, ऐसा सिद्ध करते हैं कि — राग परिणाममात्र जो भावबंध है सो द्रव्यबन्धका हेतु होनेसे वही निश्चयबन्ध है : —
अन्वयार्थ : — [रक्तः ] रागी आत्मा [कर्म बध्नाति ] कर्म बाँधता है, [रागरहितात्मा ] रागरहित आत्मा [कर्मभिः मुच्यते ] कर्मोंसे मुक्त होता है; — [एषः ] यह [जीवानां ] जीवोंके [बंधसमासः ] बन्धका संक्षेप [निश्चयतः ] निश्चयसे [जानीहि ] जानो ।।१७९।।
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द्रव्यकर्मणा रागपरिणतो न मुच्यते, वैराग्यपरिणत एव; बध्यत एव संस्पृशतैवाभिनवेन द्रव्यकर्मणा चिरसंचितेन पुराणेन च, न मुच्यते रागपरिणतः; मुच्यत एव संस्पृशतैवाभिनवेन द्रव्यकर्मणा चिरसंचितेन पुराणेन च वैराग्यपरिणतो न बध्यते; ततोऽवधार्यते द्रव्यबन्धस्य साधकतमत्वाद्रागपरिणाम एव निश्चयेन बन्धः ।।१७९।।
जीव संस्पर्श करने (-सम्बन्धमें आने) वाले नवीन द्रव्यकर्मसे, और चिरसंचित (दीर्घकालसे
संचित ऐसे) पुराने द्रव्यकर्मसे बँधता ही है, मुक्त नहीं होता; वैराग्यपरिणत जीव संस्पर्श करने
(सम्बन्धमें आने) वाले नवीन द्रव्यकर्मसे और चिरसंचित ऐसे पुराने द्रव्यकर्मसे मुक्त ही होता
है, बँधता नहीं है; इससे निश्चित होता है कि — द्रव्यबन्धका साधकतम (-उत्कृष्ट हेतु) होनेसे
अब, परिणामका द्रव्यबन्धके साधकतम रागसे विशिष्टपना सविशेष प्रगट करते हैं (अर्थात् परिणाम द्रव्यबन्धके उत्कृष्ट हेतुभूत रागसे विशेषतावाला होता है ऐसा भेद सहित प्रगट करते हैं ) : —
अन्वयार्थ : — [परिणामात् बंधः ] परिणामसे बन्ध है, [परिणामः रागद्वेषमोहयुतः ] (जो) परिणाम राग – द्वेष – मोहयुक्त है । [मोहप्रद्वेषौ अशुभौ ] (उनमेंसे) मोह और द्वेष अशुभ
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द्रव्यबन्धोऽस्ति तावद्विशिष्टपरिणामात् । विशिष्टत्वं तु परिणामस्य रागद्वेषमोहमय- त्वेन । तच्च शुभाशुभत्वेन द्वैतानुवर्ति । तत्र मोहद्वेषमयत्वेनाशुभत्वं, रागमयत्वेन तु शुभत्वं चाशुभत्वं च । विशुद्धिसंक्लेशांगत्वेन रागस्य द्वैविध्यात् भवति ।।१८०।।
अथ विशिष्टपरिणामविशेषमविशिष्टपरिणामं च कारणे कार्यमुपचर्य कार्यत्वेन निर्दिशति —
द्रव्यबन्धसाधकं रागाद्युपाधिजनितभेदं दर्शयति — परिणामादो बंधो परिणामात्सकाशाद्बन्धो भवति । स च परिणामः किंविशिष्टः । परिणामो रागदोसमोहजुदो वीतरागपरमात्मनो विलक्षणत्वेन परिणामो रागद्वेष- मोहोपाधित्रयेण संयुक्तः । असुहो मोहपदोसो अशुभौ मोहप्रद्वेषौ । परोपाधिजनितपरिणामत्रयमध्ये मोह- प्रद्वेषद्वयमशुभम् । सुहो व असुहो हवदि रागो शुभोऽशुभो वा भवति रागः । पञ्चपरमेष्ठयादिभक्तिरूपः शुभराग उच्यते, विषयकषायरूपश्चाशुभ इति । अयं परिणामः सर्वोऽपि सोपाधित्वात् बन्धहेतुरिति ज्ञात्व बन्धे शुभाशुभसमस्तरागद्वेषविनाशार्थं समस्तरागाद्युपाधिरहिते सहजानन्दैकलक्षणसुखामृतस्वभावे निजात्मद्रव्ये भावना कर्तव्येति तात्पर्यम् ।।१८०।। अथ द्रव्यरूपपुण्यपापबन्धकारणत्वाच्छुभाशुभपरिणामयोः पुण्यपापसंज्ञां शुभाशुभरहितशुद्धोपयोगपरिणामस्य मोक्षकारणत्वं च कथयति — सुहपरिणामो पुण्णं है, [रागः ] राग [शुभः वा अशुभः ] शुभ अथवा अशुभ [भवति ] होता है ।।१८०।।
टीका : — प्रथम तो द्रव्यबन्ध विशिष्ट परिणामसे होता है । परिणामकी विशिष्टता राग – द्वेष – मोहमयपनेके कारण है । वह शुभ और अशुभपनेके कारण द्वैतका अनुसरण करता है । (अर्थात् दो प्रकारका है ); उसमेंसे १मोह – द्वेषमयपनेसे अशुभपना होता है, और रागमयपनेसे शुभपना तथा अशुभपना होता है क्योंकि २राग – विशुद्धि तथा संक्लेशयुक्त होनेसे दो प्रकारका होता है ।।१८०।।
अब विशिष्ट परिणामके भेदको तथा अविशिष्ट परिणामको, कारणमें कार्यका उपचार करके कार्यरूपसे बतलाते हैं : — १. मोहमय परिणाम और द्वेषमय परिणाम अशुभ हैं । २. धर्मानुराग विशुद्धिवाला होनेसे धर्मानुरागमय परिणाम शुभ है; विषयानुराग संक्लेशमय होनेसे विषयानुरागमय
निजद्रव्यगत परिणाम समये दुःखक्षयनो हेतु छे. १८१.
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द्विविधस्तावत्परिणामः, परद्रव्यप्रवृत्तः स्वद्रव्यप्रवृत्तश्च । तत्र परद्रव्यप्रवृत्तः परोप- रक्तत्वाद्विशिष्टपरिणामः, स्वद्रव्यप्रवृत्तस्तु परानुपरक्तत्वादविशिष्टपरिणामः । तत्रोक्तौ द्वौ विशिष्टपरिणामस्य विशेषौ, शुभपरिणामोऽशुभपरिणामश्च । तत्र पुण्यपुद्गलबन्धकारणात्वात् शुभपरिणामः पुण्यं, पापपुद्गलबन्धकारणत्वादशुभपरिणामः पापम् । अविशिष्टपरिणामस्य तु शुद्धत्वेनैकत्वान्नास्ति विशेषः । स काले संसारदुःखहेतुकर्मपुद्गलक्षयकारणत्वात्संसार- दुःखहेतुकर्मपुद्गलक्षयात्मको मोक्ष एव ।।१८१।। द्रव्यपुण्यबन्धकारणत्वाच्छुभपरिणामः पुण्यं भण्यते । असुहो पावं ति भणिदं द्रव्यपापबन्धकारणत्वाद- शुभपरिणामः पापं भण्यते । केषु विषयेषु योऽसौ शुभाशुभपरिणामः । अण्णेसु निजशुद्धात्मनः सकाशादन्येषु शुभाशुभबहिर्द्रव्येषु । परिणामो णण्णगदो परिणामो नान्यगतोऽनन्यगतः स्वस्वरूपस्थ इत्यर्थंः । स इत्थंभूतः शुद्धोपयोगलक्षणः परिणामः दुक्खक्खयकारणं दुःखक्षयकारणं दुःखक्षयाभिधान- मोक्षस्य कारणं भणिदो भणितः । क्व भणितः । समये परमागमे लब्धिकाले वा । किंच, मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्रगुणस्थानत्रये तारतम्येनाशुभपरिणामो भवतीति पूर्वं भणितमास्ते, अविरत- देशविरतप्रमत्तसंयतसंज्ञगुणस्थानत्रये तारतम्येन शुभपरिणामश्च भणितः, अप्रमत्तादिक्षीणकषायान्तगुण- स्थानेषु तारतम्येन शुद्धोपयोगोऽपि भणितः । नयविवक्षायां मिथ्यादृष्टयादिक्षीणक षायान्तगुणस्थानेषु
अन्वयार्थ : — [अन्येषु ] परके प्रति [शुभ परिणामः ] शुभ परिणाम [पुण्यम् ] पुण्य है, और [अशुभः ] अशुभ परिणाम [पापम् ] पाप है, [इति भणितम् ] ऐसा कहा है; [अनन्यगतः परिणामः ] जो दूसरेके प्रति प्रवर्तमान नहीं है ऐसा परिणाम [समये ] समय पर [दुःखक्षयकारणम् ] दुःखक्षयका कारण है ।।१८१।।
टीका : — प्रथम तो परिणाम दो प्रकारका है — परद्रव्यप्रवृत्त (परद्रव्यके प्रति प्रवर्तमान) और स्वद्रव्यप्रवृत्त । इनमेंसे परद्रव्यप्रवृत्तपरिणाम परके द्वारा उपरक्त (-परके निमित्तसे विकारी) होनेसे विशिष्ट परिणाम है और स्वद्रव्यप्रवृत्त परिणाम परके द्वारा उपरक्त न होनेसे अविशिष्ट परिणाम है । उसमें विशिष्ट परिणामके पूर्वोक्त दो भेद हैं – शुभपरिणाम और अशुभ परिणाम । उनमें पुण्यरूप पुद्गलके बंधका कारण होनेसे शुभपरिणाम पुण्य है और पापरूप पुद्गलके बंधका कारण होनेसे अशुभ परिणाम पाप है । अविशिष्ट परिणाम तो शुद्ध होनेसे एक है इसलिये उसके भेद नहीं हैं । वह (अविशिष्ट परिणाम) यथाकाल संसारदुःखके हेतुभूत कर्मपुद्गलके क्षयका कारण होनेसे संसारदुःखका हेतुभूत कर्मपुद्गलका क्षयस्वरूप मोक्ष ही है ।
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शुद्धोपयोगपरिणामो लभ्यत इति नयलक्षणमुपयोगलक्षणं च यथासंभवं सर्वत्र ज्ञातव्यम् । अत्र योऽसौ
लक्षणाद्धयेयभूताच्छुद्धपारिणामिकभावादभेदप्रधानद्रव्यार्थिकनयेनाभिन्नोऽपि भेदप्रधानपर्यायार्थिकनयेन
भिन्नः । कस्मादिति चेत् । अयमेकदेशनिरावरणत्वेन क्षायोपशमिकखण्डज्ञानव्यक्तिरूपः, स च
अनाद्यनन्तत्वेनाविनश्वरः । यदि पुनरेकान्तेनाभेदो भवति तर्हि घटोत्पत्तौ मृत्पिण्डविनाशवत्
भावार्थ : — परके प्रति प्रवर्तमान ऐसा शुभ परिणाम वह पुणयका कारण है और अशुभ परिणाम वह पापका कारण है; इसलिये यदि कारणमें कार्यका उपचार किया जाय तो, शुभपरिणाम वह पुण्य है और अशुभ परिणाम वह पाप । स्वात्मद्रव्यमें प्रवर्तमान ऐसा शुद्ध परिणाम मोक्षका कारण है; इसलिये यदि कारणमें कार्यका उपचार किया जाय तो, शुद्ध परिणाम वह मोक्ष है ।।१८१।।
अब, जीवकी स्वद्रव्यमें प्रवृत्ति और परद्रव्यसे निवृत्तिकी सिद्धिके लिये स्व – परका विभाग बतलाते हैं : —
अन्वयार्थ : — [अथ ] अब [स्थावराः च त्रसाः ] स्थावर और त्रस ऐसे जो [पृथिवीप्रमुखाः ] पृथ्वी आदि [जीव निकायाः ] जीवनिकाय [भणिताः ] कहे गये हैं, [ते ] वे [जीवात् अन्ये ] जीवसे अन्य हैं, [च ] और [जीवः अपि ] जीव भी [तेभ्यः
ते जीवथी छे अन्य तेम ज जीव तेथी अन्य छे. १८२.
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य एते पृथिवीप्रभृतयः षड्जीवनिकायास्त्रसस्थावरभेदेनाभ्युपगम्यन्ते ते खल्व- चेतनत्वादन्ये जीवात्, जीवोऽपि च चेतनत्वादन्यस्तेभ्यः । अत्र षड्जीवनिकाया आत्मनः परद्रव्यमेक एवात्मा स्वद्रव्यम् ।।१८२।।
बन्ध इति कथनमुख्यतया गाथात्रयेण चतुर्थस्थलं गतम् । अथ जीवस्य स्वद्रव्यप्रवृत्तिपरद्रव्य- निवृत्तिनिमित्तं षड्जीवनिकायैः सह भेदविज्ञानं दर्शयति --भणिदा पुढविप्पमुहा भणिताः परमागमे कथिताः पृथिवीप्रमुखाः । ते के । जीवणिकाया जीवसमूहाः । अध अथ । कथंभूताः । थावरा य तसा स्थावराश्च त्रसाः । ते च किंविशिष्टाः । अण्णा ते अन्ये भिन्नास्ते । कस्मात् । जीवादो शुद्धबुद्धैकजीवस्वभावात् । जीवो वि य तेहिंदो अण्णो जीवोऽपि च तेभ्योऽन्य इति । तथाहि – टङ्कोत्कीर्णज्ञायकैक स्वभावपरमात्म- तत्त्वभावनारहितेन जीवेन यदुपार्जितं त्रसस्थावरनामकर्म तदुदयजनितत्वादचेतनत्वाच्च त्रसस्थावर- जीवनिकायाः शुद्धचैतन्यस्वभावजीवाद्भिन्नाः । जीवोऽपि च तेभ्यो विलक्षणत्वाद्भिन्न इति । अत्रैवं भेदविज्ञाने जाते सति मोक्षार्थी जीवः स्वद्रव्ये प्रवृत्तिं परद्रव्ये निवृत्तिं च करोतीति भावार्थः ।।१८२।। अन्यः ] उनसे अन्य है ।।१८२।।
टीका : — जो यह पृथ्वी इत्यादि षट् जीवनिकाय त्रसस्थावरके भेदपूर्वक माने जाते हैं, वे वास्तवमें अचेतनत्त्वके कारण जीवसे अन्य हैं, और जीव भी चेतनत्वके कारण उनसे अन्य है । यहाँ (यह कहा है कि) षट् जीवनिकाय आत्माको परद्रव्य है, आत्मा एक ही स्वद्रव्य है ।।१८२।।
अब, यह निश्चित करते हैं कि – जीवको स्वद्रव्यमें प्रवृत्तिका निमित्त स्व – परके विभागका ज्ञान है, और परद्रव्यमें प्रवृत्तिका निमित्त स्व – परके विभागका अज्ञान है : —
अन्वयार्थ : — [यः ] जो [एवं ] इसप्रकार [स्वभावम् आसाद्य ] स्वभावको प्राप्त करके (जीव – पुद्गलके स्वभावको निश्चित करके) [परम् आत्मानं ] परको और स्वको [न एव जानाति ] नहीं जानता, [मोहात् ] वह मोहसे ‘[अहम् ] यह मैं हूँ, [इदं मम ] यह मेरा
ते ‘आ हुं, आ मुज’ एम अध्यवसान मोह थकी करे. १८३.
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यो हि नाम नैवं प्रतिनियतचेतनाचेतनत्वस्वभावेन जीवपुद्गलयोः स्वपरविभागं पश्यति स एवाहमिदं ममेदमित्यात्मात्मीयत्वेन परद्रव्यमध्यवस्यति मोहान्नान्यः । अतो जीवस्य परद्रव्य- प्रवृत्तिनिमित्तं स्वपरपरिच्छेदाभावमात्रमेव, सामर्थ्यात्स्वद्रव्यप्रवृत्तिनिमित्तं तदभावः ।।१८३।।
टीका : — जो आत्मा इसप्रकार जीव और पुद्गलके (अपने – अपने) निश्चित चेतनत्व और अचेतनत्वरूप स्वभावके द्वारा स्व – परके विभागको नहीं देखता, वही आत्मा ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है’ इसप्रकार मोहसे परद्रव्यमें अपनेपनका अध्यवसान करता है, दूसरा नहीं । इससे (यह निश्चित हुआ कि) जीवको परद्रव्यमें प्रवृत्तिका निमित्त स्वपरके ज्ञानका अभावमात्र ही है और (कहे विना भी) सामर्थ्यसे (यह निश्चित हुआ कि) स्वद्रव्यमें प्रवृत्तिका निमित्त १उसका अभाव है ।
भावार्थ : — जिसे स्व – परका भेदविज्ञान नहीं है वही परद्रव्यमें अहंकार – ममकार करता है, भेदविज्ञानी नहीं । इसलिये परद्रव्यमें प्रवृत्तिका कारण भेदविज्ञानका अभाव ही है, और स्वद्रव्यमें प्रवृत्तिका कारण भेदविज्ञान ही है ।।१८३।।
अब यह निरूपण करते हैं कि आत्माका कर्म क्या है : — १. उसका अभाव = स्व -परके ज्ञानके अभावका अभाव; स्व – परके ज्ञानका सद्भाव ।
पण ते नथी कर्ता सकल पुद्गलदरवमय भावनो. १८४.
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आत्मा हि तावत्स्वं भावं करोति, तस्य स्वधर्मत्वादात्मनस्तथाभवनशक्ति- सम्भवेनावश्यमेव कार्यत्वात् । स तं च स्वतन्त्रः कुर्वाणस्तस्य कर्तावश्यं स्यात्, क्रियमाण- श्चात्मना स्वो भावस्तेनाप्यत्वात्तस्य कर्मावश्यं स्यात् । एवमात्मनः स्वपरिणामः कर्म । न त्वात्मा पुद्गलस्य भावान् करोति, तेषां परधर्मत्वादात्मनस्तथाभवनशक्त्यसम्भवेना- कार्यत्वात् । स तानकुर्वाणो न तेषां कर्ता स्यात्, अक्रियमाणाश्चात्मना ते न तस्य कर्म स्युः । एवमात्मनः पुद्गलपरिणामो न कर्म ।।१८४।।
निवृत्तिं करोतीति ।।१८३।। एवं भेदभावनाकथनमुख्यतया सूत्रद्वयेन पञ्चमस्थलं गतम् । अथात्मनो निश्चयेन रागादिस्वपरिणाम एव कर्म, न च द्रव्यकर्मेति प्ररूपयति — कुव्वं सभावं कुर्वन्स्वभावम् । अत्र स्वभावशब्देन यद्यपि शुद्धनिश्चयेन शुद्धबुद्धैकस्वभावो भण्यते, तथापि कर्मबन्धप्रस्तावे रागादि- परिणामोऽप्यशुद्धनिश्चयेन स्वभावो भण्यते । तं स्वभावं कुर्वन् । स कः । आदा आत्मा । हवदि हि कत्ता कर्ता भवति हि स्फु टम् । कस्य । सगस्स भावस्स स्वकीयचिद्रूपस्वभावस्य रागादिपरिणामस्य । तदेव तस्य
अन्वयार्थ : — [स्वभावं कुर्वन् ] अपने भावको करता हुआ [आत्मा ] आत्मा [हि ] वास्तवमें [स्वकस्य भावस्य ] अपने भावका [कर्ता भवति ] कर्ता है; [तु ] परन्तु [पुद्गलद्रव्यमयानां सर्वभावानां ] पुद्गलद्रव्यमय सर्व भावोंका [कर्ता न ] कर्ता नहीं है ।।१८४।।
टीका : — प्रथम तो आत्मा वास्तवमें स्व भावको करता है, क्योंकि वह (भाव) उसका स्व धर्म है, इसलिये आत्माको उसरूप होनेकी (परिणमित होनेकी) शक्तिका संभव है, अतः वह (भाव) अवश्यमेव आत्माका कार्य है । (इसप्रकार) वह (आत्मा) उसे (-स्व भावको) स्वतंत्र- तया करता हुआ उसका कर्ता अवश्य है और स्व भाव आत्माके द्वारा किया जाता हुआ आत्माके द्वारा प्राप्य होनेसे अवश्य ही आत्माका कर्म है । इसप्रकार स्व परिणाम आत्माका कर्म है ।
परन्तु, आत्मा पुद्गलके भावोंको नहीं करता, क्योंकि वे परके धर्म हैं, इसलिये आत्माके उस – रूप होनेकी शक्तिका असंभव होनेसे वे आत्माका कार्य नहीं हैं । (इसप्रकार) वह (आत्मा) उन्हें न करता हुआ उनका कर्ता नहीं होता और वे आत्माके द्वारा न किये जाते हुए उसका कर्म नहीं हैं । इसप्रकार पुद्गलपरिणाम आत्माका कर्म नहीं है ।।१८४।।
पण नव ग्रहे, न तजे, करे नहि जीव पुद्गलकर्मने. १८५.
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न खल्वात्मनः पुद्गलपरिणामः कर्म, परद्रव्योपादानहानशून्यत्वात् । यो हि यस्य परिणमयिता दृष्टः स न तदुपादानहानशून्यो दृष्टः, यथाग्निरयःपिण्डस्य । आत्मा तु तुल्यक्षेत्रवर्तित्वेऽपि परद्रव्योपादानहानशून्य एव । ततो न स पुद्गलानां कर्मभावेन परिणमयिता स्यात् ।।१८५।।
अन्वयार्थ : — [जीवः ] जीव [सर्वकालेषु ] सभी कालोंमें [पुद्गलमध्ये वर्तमानः अपि ] पुद्गलके मध्यमें रहता हुआ भी [पुद्गलानि कर्माणि ] पौद्गलिक कर्मोंको [हि ] वास्तवमें [गृह्णाति न एव ] न तो ग्रहण करता है, [न मुचंति ] न छोड़ता है, और [न करोति ] न करता है ।।१८६।।
टीका : — वास्तवमें पुद्गलपरिणाम आत्माका कर्म नहीं है, क्योंकि वह परद्रव्यके ग्रहण – त्यागसे रहित है; जो जिसका परिणमानेवाला देखा जाता है वह उसके ग्रहणत्यागसे रहित नहीं देखा जाता; जैसे — अग्नि लोहेके गोलेमें ग्रहण – त्याग रहित होती है । आत्मा तो तुल्य क्षेत्रमें वर्तता हुआ भी (-परद्रव्यके साथ एकक्षेत्रावगाही होनेपर भी) परद्रव्यके ग्रहण – त्यागसे रहित ही है । इसलिये वह पुद्गलोंको कर्मभावसे परिणमानेवाला नहीं है ।।१८५।।
तब (यदि आत्मा पुद्गलोंको कर्मरूप परिणमित नहीं करता तो फि र) आत्मा किसप्रकार पुद्गल कर्मोंके द्वारा ग्रहण किया जाता है और छोड़ा जाता है ? इसका अब निरूपण करते हैं : —
तेथी ग्रहाय अने कदापि मुकाय छे कर्मो वडे. १८६.
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सोऽयमात्मा परद्रव्योपादानहानशून्योऽपि साम्प्रतं संसारावस्थायां निमित्तमात्रीकृत- परद्रव्यपरिणामस्य स्वपरिणाममात्रस्य द्रव्यत्वभूतत्वात् केवलस्य कलयन् कर्तृत्वं, तदेव तस्य स्वपरिणामं निमित्तमात्रीकृत्योपात्तकर्मपरिणामाभिः पुद्गलधूलीभिर्विशिष्टावगाहरूपेणोपादीयते कदाचिन्मुच्यते च ।।१८६।। परभावं न गृह्णाति न मुञ्चति न च करोत्युपादानरूपेण लोहपिण्डो वाग्निं तथायमात्मा न च गृह्णाति न च मुञ्चति न च करोत्युपादानरूपेण पुद्गलकर्माणीति । किं कुर्वन्नपि । पोग्गलमज्झे वट्टण्णवि सव्वकालेसु क्षीरनीरन्यायेन पुद्गलमध्ये वर्त्तमानोऽपि सर्वकालेषु । अनेन कि मुक्तं भवति । यथा सिद्धो भगवान् पुद्गलमध्ये वर्त्तमानोऽपि परद्रव्यग्रहणमोचनकरणरहितस्तथा शुद्धनिश्चयेन शक्तिरूपेण संसारी जीवोऽपीति भावार्थः ।।१८५।। अथ यद्ययमात्मा पुद्गलकर्म न करोति न च मुञ्चति तर्हि बन्धः कथं, तर्हि मोक्षोऽपि कथमिति प्रश्ने प्रत्युत्तरं ददाति --स इदाणिं कत्ता सं स इदानीं कर्ता सन् । स पूर्वोक्तलक्षण आत्मा, इदानीं कोऽर्थः एवं पूर्वोक्त नयविभागेन, कर्ता सन् । कस्य । सगपरिणामस्स निर्विकारनित्या-
अन्वयार्थ : — [सः ] वह [इदानीं ] अभी (संसारावस्थामें) [द्रव्यजातस्य ] द्रव्यसे (आत्मद्रव्यसे) उत्पन्न होनेवाले [स्वकपरिणामस्य ] (अशुद्ध) स्वपरिणामका [कर्ता सन् ] कर्ता होता हुआ [कर्मधूलिभिः ] कर्मरजसे [आदीयते ] ग्रहण किया जाता है और [कदाचित् विमुच्यते ] कदाचित् छोड़ा जाता है ।।१८६।।
टीका : — सो यह आत्मा परद्रव्यके ग्रहण – त्यागसे रहित होता हुआ भी अभी संसारावस्थामें, परद्रव्यपरिणामको निमित्तमात्र करते हुए केवल स्वपरिणाममात्रका — उस स्वपरिणामके द्रव्यत्वभूत होनेसे — कर्तृत्वका अनुभव करता हुआ, उसके इसी स्वपरिणामको निमित्तमात्र करके कर्मपरिणामको प्राप्त होती हुई ऐसी पुद्गलरजके द्वारा विशिष्ट अवगाहरूपसे ग्रहण किया जाता है और कदाचित् छोड़ा जाता है ।
भावार्थ : — अभी संसारावस्थामें जीव पौद्गलिक कर्मपरिणामको निमित्तमात्र करके अपने अशुद्ध परिणामका ही कर्ता होता है (क्योंकि वह अशुद्ध परिणाम स्वद्रव्यसे उत्पन्न होता है ), परद्रव्यका कर्ता नहीं होता । इसप्रकार जीव अपने अशुद्ध परिणामका कर्ता होने पर जीवके उसी अशुद्ध परिणामको निमित्तमात्र करके कर्मरूप परिणमित होती हुई पुद्गलरज विशेष अवगाहरूपसे जीवको ग्रहण१ करती है, और कभी (स्थितिके अनुसार रहकर अथवा जीवके १. कर्मपरिणत पुद्गलोंका जीवके साथ विशेष अवगाहरूपसे रहनेको ही यहाँ कर्मपुद्गलोंके द्वारा जीवका
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अस्ति खल्वात्मनः शुभाशुभपरिणामकाले स्वयमेव समुपात्तवैचित्र्यकर्मपुद्गलपरिणामः, नवघनाम्बुनो भूमिसंयोगपरिणामकाले समुपात्तवैचित्र्यान्यपुद्गलपरिणामवत् । तथा हि — यथा यदा नवघनाम्बु भूमिसंयोगेन परिणमति तदान्ये पुद्गलाः स्वयमेव समुपात्तवैचित्र्यैः नन्दैकलक्षणपरमसुखामृतव्यक्तिरूपकार्यसमयसारसाधकनिश्चयरत्नत्रयात्मककारणसमयसारविलक्षणस्य मिथ्यात्वरागादिविभावरूपस्य स्वकीयपरिणामस्य । पुनरपि किंविशिष्टस्य । दव्वजादस्स स्वकीयात्म- द्रव्योपादानकारणजातस्य । आदीयदे कदाई कम्मधूलीहिं आदीयते बध्यते । काभिः । कर्मधूलीभिः कर्तृ- भूताभिः कदाचित्पूर्वोक्तविभावपरिणामकाले । न केवलमादीयते, विमुच्चदे विशेषेण मुच्यते त्यज्यते ताभिः कर्मधूलीभिः कदाचित्पूर्वोक्तकारणसमयसारपरिणतिकाले । एतावता किमुक्तं भवति । अशुद्ध- परिणामेन बध्यते शुद्धपरिणामेन मुच्यत इति ।।१८६।। अथ यथा द्रव्यकर्माणि निश्चयेन स्वयमेवोत्पद्यन्ते तथा ज्ञानावरणादिविचित्रभेदरूपेणापि स्वयमेव परिणमन्तीति कथयति ---परिणमदि जदा अप्पा परिणमति यदात्मा । समस्तशुभाशुभपरद्रव्यविषये परमोपेक्षालक्षणं शुद्धोपयोगपरिणामं मुक्त्वा यदायमात्मा परिणमति । क्व । सुहम्हि असुहम्हि शुभेऽशुभे वा परिणामे । कथंभूतः सन् । रागदोसजुदो शुद्ध परिणामको निमित्तमात्र करके) छोड़ती है ।।१८६।।
अब पुद्गल कर्मोंकी विचित्रता (ज्ञानावरण, दर्शनावरणादिरूप अनेकप्रकारता) को कौन करता है ? इसका निरूपण करते हैं : —
अन्वयार्थ : — [यदा ] जब [आत्मा ] आत्मा [रागद्वेषयुतः ] रागद्वेषयुक्त होता हुआ [शुभे अशुभे ] शुभ और अशुभमें [परिणमित ] परिणमित होता है, तब [कर्मरजः ] कर्मरज [ज्ञानावरणादिभावैः ] ज्ञानावरणादिरूपसे [तं ] उसमें [प्रविशति ] प्रवेश करती है ।।१८७।।
टीका : — जैसे नये मेघजलके भूमिसंयोगरूप परिणामके समय अन्य पुद्गलपरिणाम स्वयमेव वैचित्र्यको प्राप्त होते हैं, उसीप्रकार आत्माके शुभाशुभ परिणामके समय