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ग्रहण इति
भावसे स्त्री, पुरुष तथा नपुंसक नहीं है’ इस अर्थकी प्राप्ति होती है (१७) लिंगोका अर्थात्
धर्मचिह्नोंका ग्रहण जिसके नहीं है वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार ‘आत्माके बहिरंग यतिलिंगोंका
अभाव है’ इस अर्थकी प्राप्ति होती है
आलिंगित न होनेवाला ऐसा शुद्ध द्रव्य है’ ऐसे अर्थकी प्राप्ति होती है
‘आत्मा पर्यायविशेषसे आलिंगित न होनेवाला ऐसा शुद्ध द्रव्य है’ ऐसे अर्थकी प्राप्ति होती है
नहीं है वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार ‘आत्मा द्रव्यसे नहीं आलिंगित ऐसी शुद्ध पर्याय है’ ऐसे
अर्थकी प्राप्ति होती है
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करोति
(परन्तु) [तद्विपरीतः आत्मा ] उससे विपरीत (-अमूर्त) ऐसा आत्मा [पौद्गलिकं कर्म ]
पौद्गलिक कर्मको [कथं ] कैसे [बध्नाति ] बाँधता है ?
किन्तु आत्मा और कर्मपुद्गलका बंध होना कैसे समझा जा सकता है ? क्योंकि मूर्त ऐसा
कर्मपुद्गल रूपादिगुणयुक्त है, इसलिये उसके यथोक्त स्निग्धरूक्षत्वरूप स्पर्शविशेषका संभव
होने पर भी अमूर्त ऐसे आत्माको रूपादिगुणयुक्तता नहीं है इसलिये उसके यथोक्त
स्निग्धरूक्षत्वरूप स्पर्शविशेषका असंभव होनेसे एक अंग विकल है
पण जीव मूर्तिरहित बांधे केम पुद्गलकर्मने ? १७३
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संबन्धेन पश्यति जानाति
क्योंकि यदि ऐसा न हो तो यहाँ भी (देखने
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भावावस्थितबलीवर्दनिमित्तोपयोगाधिरूढबलीवर्दाकारदर्शनज्ञानसंबन्धो बलीवर्दसंबन्धव्यवहार-
साधकस्त्वस्त्येव, तथा किलात्मनो नीरूपत्वेन स्पर्शशून्यत्वान्न कर्मपुद्गलैः सहास्ति संबन्धः,
एकावगाहभावावस्थितकर्मपुद्गलनिमित्तोपयोगाधिरूढरागद्वेषादिभावसंबन्धः कर्मपुद्गलबन्ध-
व्यवहारसाधकस्त्वस्त्येव
लक्षणसंबन्धोऽस्ति
विकल्परूपं भावबन्धोपयोगं करोति
(ज्ञात) हो जाय इसलिये दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है
नहीं है तथापि विषयरूपसे रहनेवाला बैल जिनका निमित्त है ऐसे उपयोगारूढ़ वृषभाकार
दर्शन
संबंध नहीं है, तथापि एकावगाहरूपसे रहनेवाले कर्मपुद्गल जिनके निमित्त हैं ऐसे
उपयोगारूढ़ रागद्वेषादिकभावोंके साथका संबंध कर्मपुद्गलोंके साथके बंधरूप व्यवहारका
साधक अवश्य है
उसीप्रकार मूर्तिक कर्मपुद्गलोंके साथ बँधता है
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साथ कोई संबंध नहीं है; उसका तो मात्र उस मूर्तिक पदार्थके आकाररूप होनेवाले ज्ञानके
साथ ही संबंध है और उस पदार्थाकार ज्ञानके साथके संबंधके कारण ही ‘अमूर्तिक आत्मा
मूर्तिक पदार्थको जानता है’ ऐसा अमूर्तिक
वहाँ परमार्थतः अमूर्तिक आत्माका मूर्तिक कर्मपुद्गलोंके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है; आत्माका
तो कर्मपुद्गल जिसमें निमित्त हैं ऐसे रागद्वेषादिभावोंके साथ ही सम्बन्ध (बंध) है और उन
कर्मनिमित्तक रागद्वेषादि भावोंके साथ सम्बन्ध होनेसे ही ‘इस आत्माका मूर्तिक कर्मपुद्गलोंके
साथ बंध है’ ऐसा अमूर्तिकमूर्तिकका बन्धरूप व्यवहार सिद्ध होता है
रागद्वेषादि भाव करनेवाले आत्माको रागद्वेषादि भावोंका बन्धन होनेसे और उन भावोंमें
कर्मपुद्गल निमित्त होनेसे व्यवहारसे ऐसा अवश्य कहा जा सकता है कि ‘इस आत्माको
कर्मपुद्गलोंका बन्धन है’
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परप्रत्ययैरपि मोहरागद्वेषैरुपरक्तात्मस्वभावत्वान्नीलपीतरक्तोपाश्रयप्रत्ययनीलपीतरक्तत्वैरुपरक्त-
स्वभावः स्फ टिकमणिरिव स्वयमेक एव तद्भावद्वितीयत्वाद्बन्धो भवति
भवतीति
करता है, [वा ] अथवा [प्रद्वेष्टि ] द्वेष करता है, [सः ] वह जीव [तैः ] उनके द्वारा (मोह
(बंधरूप) है, क्योंकि मोहरागद्वेषादिभाव उसका
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सन् समस्तरागादिविकल्पपरिहारेणाभावयंश्च तेनैव पूर्वोक्तज्ञानदर्शनोपयोगेन रज्यते रागं करोति
इति भावबन्धयुक्तिः
होता है; [पुनः ] और उसीसे [कर्म बध्यते ] कर्म बँधता है;
रागरूप या द्वेषरूप भावसे देखता है और जानता है, उसीसे उपरक्त होता है
तेनाथी छे उपरक्तता; वळी कर्मबंधन ते वडे. १७६
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द्रव्यकर्मणा सह चेति त्रिविधबन्धस्वरूपं प्रज्ञापयति ---
स्पर्शसंयोगेन योऽसौ बन्धः स पुद्गलबन्धः
अवगाहः ] अन्योन्य अवगाह वह [पुद्गलजीवात्मकः भणितः ] पुद्गलजीवात्मक बंध कहा
गया है
अन्योन्य जे अवगाह तेने बंध उभयात्मक कह्यो. १७७
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बन्धः
पुद्गलस्य च योऽसौ परस्परावगाहलक्षणः स इत्थंभूतबन्धो जीवपुद्गलबन्ध इति त्रिविधबन्धलक्षणं
ज्ञातव्यम्
यथायोग्य रहते हैं, [यान्ति ] जाते हैं, [च ] और [बध्यन्ते ] बंधते हैं
पुद्गलसमूह रहे यथोचित, जाय छे, बंधाय छे. १७८
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रूपेण बध्यन्ते च
करते हैं, रहते भी हैं, और जाते भी हैं; और यदि जीवके मोह
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द्रव्यकर्मणा चिरसंचितेन पुराणेन च, न मुच्यते रागपरिणतः; मुच्यत एव संस्पृशतैवाभिनवेन
द्रव्यकर्मणा चिरसंचितेन पुराणेन च वैराग्यपरिणतो न बध्यते; ततोऽवधार्यते द्रव्यबन्धस्य
साधकतमत्वाद्रागपरिणाम एव निश्चयेन बन्धः
जीव संस्पर्श करने (-सम्बन्धमें आने) वाले नवीन द्रव्यकर्मसे, और चिरसंचित (दीर्घकालसे
संचित ऐसे) पुराने द्रव्यकर्मसे बँधता ही है, मुक्त नहीं होता; वैराग्यपरिणत जीव संस्पर्श करने
(सम्बन्धमें आने) वाले नवीन द्रव्यकर्मसे और चिरसंचित ऐसे पुराने द्रव्यकर्मसे मुक्त ही होता
है, बँधता नहीं है; इससे निश्चित होता है कि
करते हैं ) :
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निजात्मद्रव्ये भावना कर्तव्येति तात्पर्यम्
निजद्रव्यगत परिणाम समये दुःखक्षयनो हेतु छे. १८१
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देशविरतप्रमत्तसंयतसंज्ञगुणस्थानत्रये तारतम्येन शुभपरिणामश्च भणितः, अप्रमत्तादिक्षीणकषायान्तगुण-
स्थानेषु तारतम्येन शुद्धोपयोगोऽपि भणितः
[अनन्यगतः परिणामः ] जो दूसरेके प्रति प्रवर्तमान नहीं है ऐसा परिणाम [समये ] समय पर
[दुःखक्षयकारणम् ] दुःखक्षयका कारण है
न होनेसे अविशिष्ट परिणाम है
कर्मपुद्गलका क्षयस्वरूप मोक्ष ही है
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शुद्धोपयोगपरिणामो लभ्यत इति नयलक्षणमुपयोगलक्षणं च यथासंभवं सर्वत्र ज्ञातव्यम्
लक्षणाद्धयेयभूताच्छुद्धपारिणामिकभावादभेदप्रधानद्रव्यार्थिकनयेनाभिन्नोऽपि भेदप्रधानपर्यायार्थिकनयेन
भिन्नः
अनाद्यनन्तत्वेनाविनश्वरः
शुभपरिणाम वह पुण्य है और अशुभ परिणाम वह पाप
वह मोक्ष है
हैं, [ते ] वे [जीवात् अन्ये ] जीवसे अन्य हैं, [च ] और [जीवः अपि ] जीव भी [तेभ्यः
ते जीवथी छे अन्य तेम ज जीव तेथी अन्य छे. १८२
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जीवनिकायाः शुद्धचैतन्यस्वभावजीवाद्भिन्नाः
अन्य है
ते ‘आ हुं, आ मुज’ एम अध्यवसान मोह थकी करे. १८३
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विना भी) सामर्थ्यसे (यह निश्चित हुआ कि) स्वद्रव्यमें प्रवृत्तिका निमित्त
पण ते नथी कर्ता सकल पुद्गलदरवमय भावनो. १८४
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कार्यत्वात
परिणामोऽप्यशुद्धनिश्चयेन स्वभावो भण्यते
[पुद्गलद्रव्यमयानां सर्वभावानां ] पुद्गलद्रव्यमय सर्व भावोंका [कर्ता न ] कर्ता नहीं है
(भाव) अवश्यमेव आत्माका कार्य है
द्वारा प्राप्य होनेसे अवश्य ही आत्माका कर्म है
हुए उसका कर्म नहीं हैं
पण नव ग्रहे, न तजे, करे नहि जीव पुद्गलकर्मने. १८५
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वास्तवमें [गृह्णाति न एव ] न तो ग्रहण करता है, [न मुचंति ] न छोड़ता है, और [न करोति ]
न करता है
निरूपण करते हैं :
तेथी ग्रहाय अने कदापि मुकाय छे कर्मो वडे. १८६
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स्वपरिणामं निमित्तमात्रीकृत्योपात्तकर्मपरिणामाभिः पुद्गलधूलीभिर्विशिष्टावगाहरूपेणोपादीयते
कदाचिन्मुच्यते च
जीवोऽपीति भावार्थः
कर्ता होता हुआ [कर्मधूलिभिः ] कर्मरजसे [आदीयते ] ग्रहण किया जाता है और [कदाचित्
विमुच्यते ] कदाचित् छोड़ा जाता है
ग्रहण किया जाता है और कदाचित् छोड़ा जाता है
है ), परद्रव्यका कर्ता नहीं होता
अवगाहरूपसे जीवको ग्रहण
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अप्पा परिणमति यदात्मा
[ज्ञानावरणादिभावैः ] ज्ञानावरणादिरूपसे [तं ] उसमें [प्रविशति ] प्रवेश करती है