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भावेन परिणमति तदा अन्ये योगद्वारेण प्रविशन्तः कर्मपुद्गलाः स्वयमेव समुपात्तवैचित्र्यै-
र्ज्ञानावरणादिभावैः परिणमन्ते
प्राप्त हरियाली, कुकुरमुत्ता (छत्ता), और इन्द्रगोप (चातुर्मासमें उत्पन्न लाल कीड़ा) आदिरूप
परिणमित होता है, इसीप्रकार जब यह आत्मा रागद्वेषके वशीभूत होता हुआ शुभाशुभभावरूप
परिणमित होता है, तब अन्य, योगद्वारोंमें प्रविष्ट होते हुए कर्मपुद्गल स्वयमेव विचित्रताको प्राप्त
ज्ञानावरणादि भावरूप परिणमित होते हैं
संबंध पामी कर्मरजनो, बंधरूप कथाय छे. १८८
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विषय शुद्ध द्रव्य है
अर्हंतदेवे योगीने; व्यवहार अन्य रीते कह्यो. १८९
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मञ्जीष्ठस्थानीयकर्मपुद्गलैः संश्लिष्टः संबद्धः सन् भेदेऽप्यभेदोपचारलक्षणेनासद्भूतव्यवहारेण बन्ध
इत्यभिधीयते
[निर्दिष्टः ] कहा है; [व्यवहारः ] व्यवहार [अन्यथा ] अन्यप्रकारसे [भणितः ] कहा
है
और व्यवहारनय परद्रव्यके परिणामको आत्मपरिणाम बतलाता है इसलिये उसे अशुद्धद्रव्यका कथन
करनेवाला कहा है
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किन्तु अशुद्धत्वका द्योतक व्यवहारनय साधकतम नहीं है
है, वह जीव परद्रव्यसे संयुक्त नहीं होता, और द्रव्यसामान्यके भीतर पर्यायोंको डुबाकर, सुविशुद्ध होता
है
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न जहाति स खलु शुद्धात्मपरिणतिरूपं श्रामण्याख्यं मार्गं दूरादपहायाशुद्धात्मपरिणति-
रूपमुन्मार्गमेव प्रतिपद्यते
शुद्धात्मानं भावयति
भण्यते इत्यभिप्रायः
विभागेन बन्धसमर्थनमुख्यतयैकोनविंशतिगाथाभिः स्थलषट्केन तृतीयविशेषान्तराघिकारः समाप्तः
[श्रामण्यं त्यक्त्वा ] श्रमणताको छोड़कर [उन्मार्ग प्रतिपन्नः भवति ] उन्मार्गका आश्रय लेता
है
यह हूँ और यह मेरा है’ इसप्रकार
अशुद्धात्मपरिणतिरूप उन्मार्गका ही आश्रय लेता है
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स्वपरयोः परस्परस्वस्वामिसम्बन्धमुद्धूय, शुद्धज्ञानमेवैकमहमित्यनात्मानमुत्सृज्यात्मानमेवात्म-
समुदायपातनिका
[सः ध्याता ] वह ध्याता [ध्याने ] ध्यानकालमें [आत्मा भवति ] आत्मा होता है
निरूपणस्वरूप निश्चयनयके द्वारा जिसने मोहको दूर किया है ऐसा होता हुआ, ‘मैं परका नहीं
हूँ, पर मेरे नहीं हैं’ इसप्रकार स्व
जे एम ध्यावे, ध्यानकाळे तेह शुद्धात्मा बने. १९१
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निरोधक स्तस्मिन्नेकाग्रचिन्तानिरोधसमये शुद्धात्मा स्यात
भिन्नत्वके कारण आत्मारूप ही एक
[अचलम् ] अचल, [अनालम्बं ] निरालम्ब और [शुद्धम् ] शुद्ध [मन्ये ] मानता हूँ
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स्यैकस्य सतो महतोऽर्थस्येन्द्रियात्मकपरद्रव्यविभागेन स्पर्शादिग्रहणात्मकस्वधर्माविभागेन
पदार्थपनेके कारण, (४) अचलपनेके कारण, और (५) निरालम्बपनेके कारण है
समस्त स्पर्श
(ज्ञानस्वरूप) स्वधर्मसे अविभाग है, इसलिये उसके एकत्व है, (४) और क्षणविनाशरूपसे
प्रवर्तमान ज्ञेयपर्यायोंको (प्रतिक्षण नष्ट होनेवाली ज्ञातव्य पर्यायोंको) ग्रहण करने और छोड़नेका
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चास्त्येकत्वम्
ऐसे आत्माका ज्ञेय परद्रव्योंसे विभाग है और तन्निमित्तक ज्ञानस्वरूप स्वधर्मसे अविभाग है,
इसलिये उसके एकत्व है
(-अन्य जो अध्रुव पदार्थ) उनसे क्या प्रयोजन है ?
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दूसरा कोई भी ध्रुव नहीं है, क्योंकि वह
जीवने नथी कंई ध्रुव, ध्रुव उपयोग
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गाथाचतुष्टयं गतम्
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ग्रथनं स्यात
जीव परिणमे श्रामण्यमां, ते सौख्य अक्षयने लहे. १९५
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अनाकुलता जिसका लक्षण है ऐसे अक्षय सुखकी प्राप्ति होती है
आत्मस्वभावे स्थित छे, ते आत्मने ध्यानार छे. १९६
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निरोधः स्यात
समवस्थितः ] स्वभावमें समवस्थित है, [सः ] वह [आत्मानं ] आत्माका [ध्याता भवति ]
ध्यान करनेवाला है
जहाजका, वृक्षका या भूमि इत्यादिका आधार न होनेसे दूसरा कोई शरण नहीं है, इसलिये उसका
उड़ना बन्द हो जाता है, उसी प्रकार विषयविरक्तता होनेसे मनको आत्मद्रव्यके अतिरिक्त किन्हीं
अन्यद्रव्योंका आधार नहीं रहता इसलिये दूसरा कोई शरण न रहनेसे मन निरोधको प्राप्त होता
है ); और इसलिये (अर्थात् मनका निरोध होनेसे), मन जिसका मूल है ऐसी चंचलताका विलय
होनेके कारण अनन्तसहज
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तत्त्वचिन्तेति प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानवदन्तर्मुहूर्तेऽन्तर्मुहूर्ते गते सति परावर्तनमस्ति स
भण्यते
ध्यानचिन्ता भण्यते
पारको प्राप्त हैं, [असंदेहः श्रमणः ] ऐसे संदेह रहित श्रमण [कम् अर्थं ] किस पदार्थको
[ध्यायति ] ध्याते हैं ?
प्रत्यक्ष सर्व पदार्थ ने ज्ञेयान्तप्रान्त, निःशंक छे.
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निहतघनघातिकर्मतया मोहाभावे ज्ञानशक्तिप्रतिबन्धकाभावे च निरस्ततृष्णत्वात्प्रत्यक्षसर्वभाव-
तत्त्वज्ञेयान्तगतत्वाभ्यां च नाभिलषति, न जिज्ञासति, न सन्दिह्यति च; कुतोऽभिलषितो
जिज्ञासितः सन्दिग्धश्चार्थः
तृतीया चेत्यात्मोपलम्भफलकथनरूपेण द्वितीयस्थले गाथात्रयं गतम्
अभाव होनेसे, (१) तृष्णा नष्ट की गई है तथा (२) समस्त पदार्थोंका स्वरूप प्रत्यक्ष है तथा
ज्ञेयोंका पार पा लिया है, इसलिये भगवान सर्वज्ञदेव अभिलाषा नहीं करते, जिज्ञासा नहीं करते
और संदेह नहीं करते; तब फि र (उनके) अभिलषित, जिज्ञासित और संदिग्ध पदार्थ कहाँसे
हो सकता है ? ऐसा है तब फि र वे क्या ध्याते हैं ?
कर्मका सद्भाव होनेसे वह बहुतसे पदार्थोंको तो जानता ही नहीं है तथा जिस पदार्थको जानता
है उसे भी पृथक्करण पूर्वक
होता है
हैं तथा प्रत्येक पदार्थको अत्यन्त स्पष्टतापूर्वक
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तदाराधनाध्यानं न करोति, तथायं भगवानपि केवलज्ञानविद्यानिमित्तं तत्फलभूतानन्तसुखनिमित्तं च पूर्वं
छद्मस्थावस्थायां शुद्धात्मभावनारूपं ध्यानं कृतवान्, इदानीं तद्धयानेन केवलज्ञानविद्या सिद्धा
तत्फलभूतमनन्तसुखं च सिद्धम्; किमर्थं ध्यानं करोतीति प्रश्नः आक्षेपो वा; द्वितीयं च कारणं
समंत (सर्वप्रकारके, परिपूर्ण) सौख्य तथा ज्ञानसे समृद्ध वर्तता हुआ [परं सौख्यं ] परम
सौख्यका [ध्यायति ] ध्यान करता है
इन्द्रिय
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सहजसौख्यज्ञानत्वात
‘इन्द्रियातीत’ (इन्द्रियअगोचर) वर्तता हुआ, निराबाध सहजसुख और ज्ञानवाला होनेसे
‘सर्वबाधा रहित’ तथा सकल आत्मामें सर्वप्रकारके (परिपूर्ण) सुख और ज्ञानसे परिपूर्ण
होनेसे ‘समस्त आत्मामें संमत सौख्य और ज्ञानसे समृद्ध’ होता है
परमसौख्यका ध्यान करता है; अर्थात् अनाकुलत्वसंगत एक ‘अग्र’के संचेतनमात्ररूपसे
अवस्थित रहता है, (अर्थात् अनाकुलताके साथ रहनेवाले एक आत्मारूपी विषयके
अनुभवनरूप ही मात्र स्थित रहता है ) और ऐसा अवस्थान सहजज्ञानानन्दस्वभाव सिद्धत्वकी
सिद्धि ही है (अर्थात् इसप्रकार स्थित रहना, सहजज्ञान और आनन्द जिसका स्वभाव है ऐसे
सिद्धत्वकी प्राप्ति ही है
करते हैं ? उसका उत्तर इस गाथामें इसप्रकार दिया गया है कि :
परमानन्दका ध्यान है, अर्थात् वे परमसौख्यका ध्यान करते हैं
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पुनरन्यथापि, ततोऽवधार्यते केवलमयमेक एव मोक्षस्य मार्गो, न द्वितीय इति
सूत्राभिप्रायः
गतम्
मार्गमें आरूढ़ होते हुए [सिद्धाः जाताः ] सिद्ध हुए [नमोऽस्तु ] नमस्कार हो [तेभ्यः ] उन्हें
[च ] और [तस्मै निर्वाणमार्गाय ] उस निर्वाणमार्गको
मोक्षमार्गको प्राप्त करके सिद्ध हुए; किन्तु ऐसा नहीं है कि किसी दूसरी विधिसे भी सिद्ध हुए
सिद्धि वर्या; नमुं तेमने, निर्वाणना ते मार्गने. १९९
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निर्ममपणे रही स्थित आ परिवर्जुं छुं हुं ममत्वने. २००
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मोक्षमार्गको, जिसमेंसे
[ज्ञात्वा ] जानकर [निर्ममत्वे उपस्थितः ] मैं निर्ममत्वमें स्थित रहता हुआ [ममतां
परिवर्जयामि ] ममताका परित्याग करता हूँ