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न पुनरन्ये स्वस्वामिलक्षणादयः सम्बन्धाः
स्वभावं गम्भीरं समस्तमपि द्रव्यजातमेकक्षण एव प्रत्यक्षयन्तं ज्ञेयज्ञायकलक्षणसम्बन्धस्या-
शुद्धात्मामें प्रवृत्त होता हूँ, क्योंकि अन्य कृत्यका अभाव है
साथ भी सहज ज्ञेयज्ञायकलक्षण सम्बन्ध ही है, किन्तु अन्य स्वस्वामिलक्षणादि सम्बन्ध नहीं
हैं; इसलिये मेरा किसीके प्रति ममत्व नहीं है, सर्वत्र निर्ममत्व ही है
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मासंसारमनयैव स्थित्या स्थितं मोहेनान्यथाध्यवस्यमानं शुद्धात्मानमेष मोहमुत्खाय यथास्थित-
मेवातिनिःप्रकम्पः सम्प्रतिपद्ये
नित्यमेव तदेकपरायणत्वलक्षणो भावनमस्कारः
अनादि संसारसे इसी स्थितिमें (ज्ञायक भावरूप ही) रहा है और जो मोहके द्वारा दूसरे
रूपमें जाना
तथा तथाभूत (सिद्धभूत) परमात्माओंको,
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स्फीतं शब्दब्रह्म सम्यग्विगाह्य
नित्यं युक्तैः स्थीयतेऽस्माभिरेवम्
ज्ञानीकुर्वन् ज्ञेयमाक्रान्तभेदम्
स्फू र्जत्यात्मा ब्रह्म सम्पद्य सद्यः
युक्तास्तेभ्यः
“
“
“
“
शुद्धआत्मद्रव्यरूप एक वृत्तिसे (परिणतिसे) सदा युक्त रहते हैं
करता हुआ (अनेक प्रकारके ज्ञेयोंको ज्ञानमें जानता हुआ) और स्व
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द्रव्यं मिथो द्वयमिदं ननु सव्यपेक्षम्
द्रव्यं प्रतीत्य यदि वा चरणं प्रतीत्य
विशेषान्तराधिकारस्तदनन्तरं ‘अपदेसो परमाणू पदेसमेत्तो य’ इत्यादिगाथानवकपर्यन्तं पुद्गलानां
परस्परबन्धमुख्यत्वेन द्वितीयो विशेषान्तराधिकारस्ततः परं ‘अरसमरूवं’ इत्याद्येकोनविंशतिगाथापर्यन्तं
जीवस्य पुद्गलकर्मणा सह बन्धमुख्यत्वेन तृतीयो विशेषान्तराधिकारस्ततश्च ‘ण चयदि जो दु ममत्तिं’
इत्यादिद्वादशगाथापर्यन्तं विशेषभेदभावनाचूलिकाव्याख्यानरूपश्चतुर्थो विशेषान्तराधिकार इत्येकाधिक-
पञ्चाशद्गाथाभिर्विशेषान्तराधिकारचतुष्टयेन विशेषभेदभावनाभिधानश्चतुर्थोऽन्तराधिकारः समाप्तः
विशेषज्ञेयव्याख्यानं, ततश्च ‘सपदेसेहिं समग्गो’ इत्यादिगाथाष्टकपर्यन्तं सामान्यभेदभावना, ततः परं
‘अत्थित्तणिच्छिदस्स हि’ इत्याद्येकाधिक पञ्चाशद्गाथापर्यन्तं विशेषभेदभावना चेत्यन्तराधिकारचतुष्टयेन
त्रयोदशाधिकशतगाथाभिः
है
मुमुक्षु (ज्ञानी, मुनि) मोक्षमार्गमें आरोहण करो
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द्रव्याविरुद्धं चरणं चरन्तु
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समुदायेन तृतीयस्थले गाथात्रयम्
समुदायपातनिका
पूर्वोक्तभव्यैर्वा यथा तच्चारित्रं प्रतिपन्नं तथा प्रतिपद्यताम्
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सम्भावितसौस्थित्यं स्वयं प्रतिपन्नं, परेषामात्मापि यदि दुःखमोक्षार्थी तथा तत्प्रतिपद्यताम्
जिनवरवृषभा इति, तान् जिनवरवृषभान्
चार्योपाध्यायसाधूंश्च पुनः पुनः प्रणम्येति
जिनवरवृषभोंको (-अर्हन्तोंको) तथा [श्रमणान् ] श्रमणोंको [प्रणम्य ] प्रणाम करके, [श्रामण्यं
प्रतिपद्यताम् ] (जीव) श्रामण्यको अंगीकार करो
है उसे
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युष्माकं भवतीति निश्चयेन यूयं जानीत; तत आपृष्टा यूयं; अयमात्मा अद्योद्भिन्नज्ञानज्योतिः
पूर्वापरविरोधः
[ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारम् आसाद्य ] ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और
वीर्याचारको अंगीकार करके........
चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचारको अंगीकार करता है
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तत इममात्मानं युवां विमुंचतम्; अयमात्मा अद्योद्भिन्नज्ञानज्योतिः आत्मानमेवात्मनो-
ऽनादिजनकमुपसर्पति
स्वानुभूतिमेवात्मनोऽनादिरमणीमुपसर्पति
अद्योद्भिन्नज्ञानज्योतिः आत्मानमेवात्मनोऽनादिजन्यमुपसर्पति
परमात्मानमेव निश्चयनयेनानादिबन्धुवर्गं पितरं मातरं कलत्रं पुत्रं चाश्रयति, तेन कारणेन मां मुञ्चत
यूयमिति क्षमितव्यं करोति
निश्चयसे
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यावत्त्वत्प्रसादात
जानामि, तथापि त्वां तावदासीदामि यावत
लक्षणचारित्राचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि, तथापि त्वां तावदासीदामि
यावत्त्वत्प्रसादात
मिथ्यादृष्टिर्भवति तदा धर्मस्योपसर्गं करोतीति
पूर्वोक्त प्रकारके वचन निकलते हैं
(जिसप्रकार बंधुवर्गसे विदा ली, अपनेको बड़ोंसे, स्त्री और पुत्रसे छुड़ाया)
अंगीकार करता हूँ जब तक कि तेरे प्रसादसे शुद्धात्माको उपलब्ध कर लूँ
प्रभावनास्वरूप दर्शनाचार
शुद्धात्माको उपलब्ध कर लूँ
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ममत्वं करोति तदा तपोधन एव न भवति
तपाचार ! मैं यह निश्चयसे जानता हूँ कि तू शुद्धात्मा नहीं है तथापि तुझे तब तक अंगीकार
करता हूँ जब तक तेरे प्रसादसे शुद्धात्माको उपलब्ध कर लूँ ! अहो समस्त इतर (वीर्याचारके
अतिरिक्त अन्य) आचारमें प्रवृत्ति करानेवाली स्वशक्तिके अगोपनस्वरूप वीर्याचार ! मैं यह
निश्चयसे जानता हूँ कि तू शुद्धात्माका नहीं है, तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता हूँ जब
तक कि तेरे प्रसादसे शुद्धात्माको उपलब्ध कर लूँ
निजभाव अंगीकार किया है
प्रथम अशुभ परिणतिकी हानि होती है, और फि र धीरे धीरे शुभ परिणति भी छूटती जाती है
व्यवहाररत्नत्रयरूप पंचाचारको अंगीकार करता है
करता है
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ऐसे गणीको [माम् प्रतीच्छ इति ] ‘मुझे स्वीकार करो’ ऐसा कहकर [प्रणतः ] प्रणत होता है
(-प्रणाम करता है ) [च ] और [अनुग्रहीतः ] अनुगृहीत होता है
योग्य होनेसे और कुलक्रमागत (कुलक्रमसे उतर आनेवाले) क्रूरतादि दोषोंसे रहित होनेसे जो
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पौरुषेयदोषत्वेन मुमुक्षुभिरभ्युपगततरत्वात
सफलं कुर्वित्यनेन प्रकारेणानुगृहीतो भवतीत्यर्थः
है, बालकत्व और वृद्धत्वसे होनेवाली
आचरण कराने सम्बन्धी
ऐसे गणीके निकट
है
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समस्तसम्बन्धशून्यत्वात
धृतयथानिष्पन्नात्मद्रव्यशुद्धरूपत्वेन यथाजातरूपधरो भवति
रूपधरः निर्ग्रन्थो जात इत्यर्थः
यथाजातरूपधर (सहजरूपधारी) [जातः ] होता है
द्रव्य
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और अंतरंग दो लिंगोंका उपदेश करते हैं :
श्रृंगार)से रहित
हिंसादिथी शून्यत्व, देह
निरपेक्षता परथी,
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भूषणधारणस्य मूर्धजव्यंजनपालनस्य सकिंचनत्वस्य सावद्ययोगयुक्तत्वस्य शरीरसंस्कार-
करणत्वस्य चाभावाद्यथाजातरूपत्वमुत्पाटितकेशश्मश्रुत्वं शुद्धत्वं हिंसादिरहितत्वमप्रतिकर्मत्वं च
भवत्येव, तदेतद्बहिरंग लिंगम्
व्यापारस्ताभ्यां मूर्च्छारम्भाभ्यां विमुक्तं मूर्च्छारम्भविमुक्त म्
युक्त म्
मोक्षका कारण है
और डाढ़ी
जन्मसमयके रूप जैसा रूप, (२) सिर और डाढ़ी
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मुपयोगयोगशुद्धियुक्तत्वमपरापेक्षत्वं च भवत्येव, तदेतदन्तरंग लिंगम्
होता है; इसलिये (उस आत्माके) (१) मूर्छा और आरम्भसे रहितता, (२) उपयोग और
योगकी शुद्धिसे युक्तता तथा (३) परकी अपेक्षासे रहितता होती ही है
करते हैं :
व्रत सहित क्रियाको सुनकर [उपस्थितः ] उपस्थित (आत्माके समीप स्थित) होता हुआ
[सः ] वह [श्रमणः भवति ] श्रमण होता है
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तदात्वे च दीक्षाचार्येण तदादानविधानप्रतिपादकत्वेन व्यवहारतो दीयमानत्वाद्दत्तमादानक्रियया
सम्भाव्य तन्मयो भवति
तद्गुणप्रतिपादकवचनरूपेण द्रव्यनमस्कारेण च गुरुं नमस्करोति
या तु क्रिया सा निश्चयेन बृहत्प्रतिक्रमणा भण्यते
श्रामण्यकी सामग्री पर्याप्त (परिपूर्ण) होनेसे श्रमण होता है
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रोहति
हुआ, अतीत
है
२. अतीत
नहि स्नान
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वश्यकमचेलक्यमस्नानं क्षितिशयनमदन्तधावनं स्थितिभोजनमेकभक्तश्चैवं एते निर्विकल्प-
[अदंतधावनं ] अदंतधावन, [स्थितिभोजनम् ] खड़े
श्रमण [छेदोपस्थापकः भवति ] छेदोपस्थापक होता है
तथा उसकी