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यादिपरिग्रहः किल श्रेयान्, न पुनः सर्वथा कल्याणलाभ एवेति सम्प्रधार्य विकल्पेनात्मान-
मुपस्थापयन् छेदोपस्थापको भवति
गृह्णाति, न च सर्वथा त्यागं करोति; तथायं जीवोऽपि निश्चयमूलगुणाभिधानपरमसमाध्यभावे
छेदोपस्थानं चारित्रं गृह्णाति
‘केवलसुवर्णमात्रके अर्थीको कुण्डल, कंकण, अंगूठी आदिको ग्रहण करना (भी) श्रेय है,
किन्तु ऐसा नहीं है कि (कुण्डल इत्यादिका ग्रहण कभी न करके) सर्वथा स्वर्णकी ही प्राप्ति
करना ही श्रेय है’ ऐसा विचार करके मूलगुणोंमें विकल्परूपसे (भेदरूपसे) अपनेको स्थापित
करता हुआ छेदोपस्थापक होता है
छेदद्वये स्थापन करे ते शेष मुनि निर्यापका. २१०
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प्रत्युपस्थापकः स निर्यापकः, योऽपि छिन्नसंयमप्रतिसन्धानविधानप्रतिपादकत्वेन छेदे
सत्युपस्थापकः सोऽपि निर्यापक एव
जो
छेदोपस्थापनासंयमके प्रतिपादक होनेसे ‘छेदके प्रति उपस्थापक (भेदमें स्थापित करनेवाले)’
हैं, वे निर्यापक हैं; उसीप्रकार जो (आचार्य)
वे भी निर्यापक ही हैं
उपस्थापक’ है, अर्थात् संयमके छिन्न (खण्डित) होने पर उसमें पुनः स्थापित करता है, वह भी
छेदोपस्थापक है
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आलोचनापूर्वक क्रिया कर्तव्य छे ते साधुने. २११
निज दोष आलोचन करी, श्रमणोपदिष्ट करे विधि. २१२
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[आलोच्य ]
रहित है इसलिये आलोचनापूर्वक क्रियासे ही उसका प्रतीकार (इलाज) होता है
व्यवहारविधिमें कुशल श्रमणके आश्रयसे, आलोचनापूर्वक, उनके द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठान द्वारा
(संयमका) प्रतिसंधान होता है
लोचनपूर्विकया क्रिययैव प्रतीकारः
प्रतिसन्धानम्
प्रायश्चित्तं प्रतिकारो भवति, न चाधिकम्
तात्पर्यम्
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सहकारीकारणभूत प्रतिक्रमणस्वरूप आलोचनापूर्वक क्रियासे ही उसका प्रतीकार
स्वसंवेदनभावनाके अनुकूल जो कुछ भी प्रायश्चित्त उपदेशें वह करना चाहिये
[निबंधान् ] (परद्रव्यसम्बन्धी) प्रतिबंधोंको [परिहरमाणः ] परिहरण करता हुआ [श्रामण्ये ]
श्रामण्यमें [छेदविहीनः भूत्वा ] छेदविहीन होकर [श्रमणः विहरतु ] श्रमण विहरो
मुनिराज विहरो सर्वदा थई छेदहीन श्रामण्यमां. २१३
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परद्रव्यप्रतिबन्धान् श्रामण्ये छेदविहीनो भूत्वा श्रमणो वर्तताम्
होकर श्रमण वर्तो
[चरति ] विचरण करता है, [सः ] वह [परिपूर्णश्रामण्यः ] परिपूर्ण श्रामण्यवान् है
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तात्पर्यम्
भावः
परिपूर्ण श्रामण्य होता है
वह प्रतिबंध निकटका है
उपधि
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रंगद्रव्यप्रसिद्धयर्थमध्यास्यमाने गिरीन्द्रकन्दरप्रभृतावावसथे, यथोक्तशरीरवृत्तिहेतुमार्गणार्थमारभ्य-
(परिग्रहमें), [श्रमणे ]
जाये, तदनुसार प्रवर्तमान अनशनमें), (३) नीरंग और निस्तरंग
पर्वतकी गुफा इत्यादि निवासस्थानमें), (४) यथोक्त शरीरकी वृत्तिकी कारणभूत भिक्षाके लिये
४. नीरंग = नीराग; निर्विकार
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अन्योन्यबोध्यबोधकभावमात्रेण कथंचित्परिचिते श्रमणे, शब्दपुद्गलोल्लाससंवलनकश्मलित-
चिद्भित्तिभागायां शुद्धात्मद्रव्यविरुद्धायां कथायां चैतेष्वपि तद्विकल्पाचित्रितचित्तभित्तितया
प्रतिषेध्यः प्रतिबन्धः
है ऐसे केवल देहमात्र परिग्रहमें, (६) मात्र अन्योन्य
(पुद्गलपर्याय) के साथ संबंधसे जिसमें चैतन्यरूपी भित्तिका भाग मलिन होता है, ऐसी
शुद्धात्मद्रव्यसे विरुद्ध कथामें भी प्रतिबंध निषेध्य
देहमात्र परिग्रह, अन्य मुनियोंका परिचय और धार्मिक चर्चा
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नायाति
वह [सर्वकाले ] सदा [संतता हिंसा इति मता ] सतत हिंसा मानी गई है
शुद्धोपयोगरूप श्रामण्यका हिंसन (हनन) होता है
इसलिये अप्रयत आचरण छेद ही है, हिंसा ही है
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व्यवहारहिंसेति द्विधा हिंसा ज्ञातव्या
[प्रयतस्य समितस्य ]
२. शुद्धात्मस्वरूपमें (मुनित्वोचित) सम्यक् ‘इति’ अर्थात् परिणति वह निश्चय समिति है
भी नहीं है
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व्यपरोपसद्भावेऽपि बन्धाप्रसिद्धया सुनिश्चितहिंसाऽभावप्रसिद्धेश्चान्तरंग एव छेदो बलीयान्, न
पुनर्बहिरंगः
बिना होता है ऐसे
प्रसिद्धि सुनिश्चित है
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स्तोकोऽपि नैव दृष्टः समये परमागमे
जन्तुघातेऽपि यावतांशेन स्वस्थभावचलनरूपा रागादिपरिणतिलक्षणभावहिंसा तावतांशेन बन्धो भवति,
जलमें कमलकी भाँति [निरुपलेपः ] निर्लेप कहा गया है
प्रयत आचारसे प्रसिद्ध होनेवाला अशुद्धोपयोगका असद्भाव अहिंसक ही है, क्योंकि परके
जलकमलवत् निर्लेप भाख्यो, नित्य यत्नसहित जो. २१८
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प्रसिद्धेरहिंसक एव स्यात
निर्लेपताकी प्रसिद्धि है
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प्रसिद्धयदैकान्तिकाशुद्धोपयोगसद्भावस्यैकान्तिकबन्धत्वेन छेदत्वमैकान्तिकमेव
छर्दितवन्तस्त्यक्तवन्तः
[न भवति ] नहीं होता; [उपधेः ] (किन्तु) उपधिसे
[त्यक्तवन्तः ] छोड़ा है
होनेवाले
ही सर्व परिग्रह छोड़ने योग्य है, क्योंकि वह (परिग्रह) अन्तरंग छेदके बिना नहीं होता
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निश्चेतनस्य वचसामतिविस्तरेऽपि
ऽन्तराधिकारः प्रारभ्यते
निमित्तमपवादव्याख्यानमुख्यत्वेन ‘छेदो जेण ण विज्जदि’ इत्यादि सूत्रत्रयम्
बंध नहीं होता; इसप्रकार कायचेष्टापूर्वक होनेवाले परप्राणोंके घातसे बंधका होना अनैकान्तिक
होनेसे उसके छेदपना अनैकान्तिक है
पहलेसे
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इत्याद्येकादशगाथा भवन्ति
ग्रहाभिलाषे सति निर्मलशुद्धात्मानुभूतिरूपां चित्तशुद्धिं कर्तुं नायाति
भवति ] नहीं होती; [च ] और [चित्ते अविशुद्धस्य ] जो भावमें अविशुद्ध है उसके
[कर्मक्षयः ] कर्मक्षय [कथं नु ] कैसे [विहितः ] हो सकता है ?
ने भावमां अविशुद्धने क्षय कर्मनो कइ रीत बने? २२०
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एव स्यात
अणारंभो निःक्रियनिरारम्भनिजात्मतत्त्वभावनारहितत्वेन निरारम्भो वा कथं भवति, किंतु सारम्भ एव;
कैवल्य (मोक्ष) की उपलब्धि नहीं होती
उपधिका निषेध वह अन्तरंग छेदका ही निषेध है
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द्रव्यरतत्वेन शुद्धात्मद्रव्यप्रसाधकत्वाभावाच्च ऐकान्तिकान्तरंगच्छेदत्वमुपधेरवधार्यत एव
प्राणारम्भः,
हो सकता है ? (कदापि नहीं हो सकता), [तथा ] तथा [परद्रव्ये रतः ] जो परद्रव्यमें रत हो
वह [आत्मानं ] आत्माको [कथं ] कैसे [प्रसाधयति ] साध सकता है ?
तथा उपधि जिसका द्वितीय हो (अर्थात् आत्मासे अन्य ऐसा परिग्रह जिसने ग्रहण किया हो)
उसके परद्रव्यमें रतपना (
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ग्राह्यमित्यपवादमुपदिशति
छेदो न भवति तेन वर्तत इति
विद्यते ] नहीं होता, [तेन ] उस उपधियुक्त, [कालं क्षेत्रं विज्ञाय ] काल क्षेत्रको जानकर,
[इह ] इस लोकमें [श्रमणः ] श्रमण [वर्तताम् ] भले वर्ते
ते उपधि सह वर्तो भले मुनि काळक्षेत्र विजाणीने. २२२