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तदापकृष्य संयमं प्रतिपद्यमानस्तद्बहिरंगसाधनमात्रमुपधिमातिष्ठते
मुपादीयमानः सर्वथा शुद्धोपयोगाविनाभूतत्वाच्छेदप्रतिषेध एव स्यात
अप्रार्थनीयं निर्विकारात्मोपलब्धिलक्षणभावसंयमरहितस्यासंयतजनस्यानभिलषणीयम्,
करनेमें असमर्थ होता है, तब उसमें
(-त्यागरूप) ही है
हेतुभूत आहार -नीहारादिके ग्रहण
मूर्छादिजनन रहितने ज ग्रहो श्रमण, थोडो भले. २२३
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अप्पं गृह्णातु श्रमणो यमप्यल्पं पूर्वोक्तमुपकरणोपधिं यद्यप्यल्पं तथापि पूर्वोक्तोचितलक्षणमेव ग्राह्यं,
[मूर्च्छादिजननरहितं ] जो मूर्च्छादिकी जननरहित हो
बिना धारणकी जानेसे मूर्च्छादिके उत्पादनसे रहित है, वह वास्तवमें अनिषिद्ध है
उपधि उपादेय नहीं है
मोक्षेच्छुने देहेय निष्प्रतिकर्म उपदेशे जिनो ? २२४
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स्यादिति व्यक्त एव हि तेषामाकूतः
[अप्रतिकर्मत्वम् ] अप्रतिकर्मपना (संस्काररहितपना) [उद्दिष्टवन्तः ] कहा (उपदेशा) है, तब
[किं किंचनम् इति तर्कः ] उनका यह (स्पष्ट) आशय है कि उसके अन्य परिग्रह तो कैसे
हो सकता है ?
उपदेश दिया है, तब फि र वहाँ शुद्धात्मतत्त्वोपलब्धिकी संभावनाके रसिक पुरुषोंके शेष अन्य
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गुरुवचन ने सूत्राध्ययन, वळी विनय पण उपकरणमां. २२५
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पक्खलणं ऋतौ भवमार्तवं प्रस्खलनं रक्तस्रवणं,
““
“
विनय भी [निर्दिष्टम् ] उपकरण कही गई है
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है, दूसरा नहीं
मुनिके आत्माका रूप
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तत्त्वद्योतनसमर्थश्रुतज्ञानसाधनीभूतशब्दात्मकसूत्रपुद्गलाश्च, शुद्धात्मतत्त्वव्यंजकदर्शनादिपर्याय-
भवद्भिः
कुलरूपवयोभिर्युक्ताः कुलरूपवयोयुक्ता भवन्ति
श्रुतज्ञानके साधनभूत शब्दात्मक सूत्रपुद्गल; और (४) शुद्ध आत्मतत्त्वको व्यक्त करनेवाली
जो दर्शनादिक पर्यायें, उनरूपसे परिणमित पुरुषके प्रति
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रहितं वा, स भवति सुमुखः
विनाशः स एव निश्चयेन नाशो भङ्गो जिनवरैर्निर्दिष्टः
उसके सूत्रपुद्गलोंका परिग्रह है; और जिस श्रमणके योग्य पुरुषके विनयरूप परिणाम हों उसके
मनके पुद्गलोंका परिग्रह है
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युक्ताहारविहारो भवेत्
होनेसे [युक्ताहारविहारः भवेत् ]
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प्रदीपपूरणोत्सर्पणस्थानीयाभ्यां शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भप्रसिद्धयर्थतच्छरीरसम्भोजनसंचलनाभ्यां
युक्ताहारविहारो हि स्यात
निजपरमात्मपदार्थमेव निरीक्षते स एव युक्ताहारविहारो भवति, न पुनरन्यः शरीरपोषणनिरत
इति
अनुभवकी तृष्णासे शून्य होनेके कारण परलोकके प्रति अप्रतिबद्ध है; इसलिये, जैसे ज्ञेय
पदार्थोंके ज्ञानकी सिद्धिके लिये (-घटपटादि पदार्थोंको देखनेके लिये ही) दीपकमें तेल डाला
जाता है और दीपकको हटाया जाता है, उसीप्रकार श्रमण शुद्ध आत्मतत्त्वकी उपलब्धिकी
सिद्धिके लिये (-शुद्धात्माको प्राप्त करनेके लिये ही) वह शरीरको खिलाता और चलाता है,
इसलिये युक्ताहारविहारी होता है
पालनके लिये ही केवल युक्ताहारविहारी होता है
वण
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तपः ] उसे वह भी तप है; (और) [तत्प्रत्येषकाः ] उसे प्राप्त करनेके लिये (-अनशनस्वभाववाले
आत्माको परिपूर्णतया प्राप्त करनेके लिये) प्रयत्न करनेवाले [श्रमणाः ] श्रमणोंके [अन्यत्
भैक्षम् ] अन्य (-स्वरूपसे पृथक्) भिक्षा [अनेषणम् ] एषणारहित (-एषणदोषसे रहित) होती
है; [अथ ] इसलिए [ते श्रमणाः ] वे श्रमण [अनाहाराः ] अनाहारी हैं
श्रमण) साक्षात् अनाहारी ही है
सिद्धिके लिये (-पूर्ण प्राप्तिके लिये) एषणादोषशून्य ऐसी अन्य (-पररूप) भिक्षा आचरते हैं;
वे आहार करते हुए भी मानों आहार नहीं करते हों
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बन्धाभावात्साक्षादनाहारा एव भवन्ति
भवन्तीत्यर्थः
विहारवाला होनेसे युक्तविहारी (-युक्तविहारवाला श्रमण) साक्षात् अविहारी ही है
[रहितपरिकर्मा ]
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परिग्रहेण न नाम ममायं ततो नानुग्रहार्हः किन्तूपेक्ष्य एवेति परित्यक्तसमस्तसंस्कारत्वाद्रहित-
परिकर्मा स्यात
भियुक्तवान् स्यात
किया (-जोड़ा) है
अभिप्रायका ग्रहण करके ‘यह (शरीर) वास्तवमें मेरा नहीं है इसलिये यह अनुग्रह योग्य नहीं
है किन्तु उपेक्षा योग्य ही है’ इसप्रकार देहमें समस्त संस्कारको छोड़ा होनेसे परिकर्मरहित है
होता है
आहारग्रहणके परिणामस्वरूप
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होनेसे वह श्रमण युक्त अर्थात् योगी है और इसलिये उसका आहार युक्ताहार अर्थात् योगीका
आहार है
[भैक्षाचरणेन ] भिक्षाचरणसे, [दिवा ] दिनमें [न रसापेक्षः ] रसकी अपेक्षासे रहित और [न
मधुमांसः ] मधु
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करनेवाला शरीरानुरागसे सेवन करनेवाला होनेसे वह आहार
पूर्णोदर आहार करनेवाला प्रतिहत योगवाला होनेसे वह आहार युक्त (-योगी) का आहार
नहीं है
अयथालब्ध आहारका सेवन करनेवाला विशेषप्रियतास्वरूप अनुराग द्वारा सेवन करनेवाला
होनेसे वह आहार युक्त (-योगी) का नहीं है
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द्रव्याहिंसा च, सा द्विविधापि तत्र युक्ताहारे संभवति
वह आहार युक्त (-योग्य) नहीं है; और (२) ऐसे आहारके सेवनमें (सेवन करनेवालेकी)
अन्तरंग अशुद्धि व्यक्त (-प्रगट) होनेसे वह आहार युक्त (योगी) का नहीं है
उसके हिंसायतनपना अनिवार्य होनेसे वह आहार युक्त (-योग्य) नहीं है; और (२) ऐसे
आहारके सेवनमें अन्तरंग अशुद्धि व्यक्त होनेसे आहार युक्त (-योगी) का नहीं है
कारण
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वा प्रासुकं न भवति
चर्या चरो निजयोग्य, जे रीत मूळछेद न थाय छे. २३०
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श्रान्तग्लानस्य स्वस्य योग्यं मृद्वेवाचरणमाचरणीयमित्यपवादः
कर्कशमाचरणमाचरता शरीरस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनभूतसंयमसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा
स्यात
दर्शयति
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मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्यमतिकर्कशमप्याचरणमाचरणीय-
मित्युत्सर्गसापेक्षोऽपवादः
वीतरागचारित्रं शुद्धोपयोग इति यावदेकार्थः
सरागचारित्रं शुभोपयोग इति यावदेकार्थः
मूलभूतशरीरस्य वा यथा छेदो विनाशो न भवति तथा किमपि प्रासुकाहारादिकं गृह्णातीत्यपवादसापेक्ष
उत्सर्गो भण्यते
तथोत्सर्गसापेक्षत्वेन प्रवर्तते
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भवति, तद्वरमपवादः
देशादीन् तपोधनाचरणसहकारिभूतानिति
अल्पलेपी होता है
श्रांत, ग्लान’ शब्द ही प्रयुक्त किये गये हैं)
उत्सर्ग अच्छा है