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संयमामृतभारस्य तपसोऽनवकाशतयाशक्यप्रतिकारो महान् लेपो भवति, तन्न श्रेयानपवाद-
निरपेक्ष उत्सर्गः
तपसोऽनवकाशतयाशक्यप्रतिकारो महान् लेपो भवति, तन्न श्रेयानुत्सर्गनिरपेक्षोऽपवादः
सापेक्षोत्सर्गापवादविजृम्भितवृत्तिः स्याद्वादः
पथ्यादिसावद्यभयेन व्याधिव्यथादिप्रतीकारमकृत्वा शुद्धात्मभावनां न करोति तर्हि महान् लेपो भवति;
अथवा प्रतीकारे प्रवर्तमानोऽपि हरीतकीव्याजेन गुडभक्षणवदिन्द्रियसुखलाम्पटयेन संयमविराधनां
करोति तदापि महान् लेपो भवति
होनेवाले अल्पबंधके भयसे उत्सर्गका हठ करके अपवादमें प्रवृत्त न हो तो), अति कर्कश
आचरणरूप होकर अक्रमसे शरीरपात करके देवलोक प्राप्त करके जिसने समस्त संयमामृतका
समूह वमन कर डाला है उसे तपका अवकाश न रहनेसे, जिसका प्रतीकार अशक्य है ऐसा
महान लेप होता है, इसलिये अपवाद
तो), मृदु आचरणरूप होकर संयम विरोधीको
और अपवादसे जिसकी वृत्ति (-अस्तित्व, कार्य) प्रगट होती है ऐसा स्याद्वाद सर्वथा अनुगम्य
(अनुसरण करने योग्य) है
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श्चित्सामान्यविशेषभासिनि निजद्रव्ये करोतु स्थितिम्
नहीं करना चाहिये; तथा उत्सर्गरूप ध्येयको चूककर मात्र अपवादके आश्रयसे केवल मृदु
आचरणरूप शिथिलताका भी सेवन नहीं करना चाहिये
स्थिति करो
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सार्थयाथात्म्यावगमसुस्थितान्तरंगगम्भीरत्वात
(पदार्थोंका) निश्चय [आगमतः ] आगम द्वारा होता है; [ततः ] इसलिये [आगमचेष्टा ]
आगममें व्यापार [ज्येष्ठा ] मुख्य है
व्यापार प्रधानतर (-विशेष प्रधान) है; दूसरी गति (-अन्य कोई मार्ग) नहीं है
निश्चय बने आगम वडे, आगमप्रवर्तन मुख्य छे. २३२
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कदाचिच्चिकीर्षाज्वरपरवशस्य विश्वं स्वयं सिसृक्षोर्विश्वव्यापारपरिणतस्य प्रतिक्षणविजृम्भ-
माणक्षोभतया, कदाचिद्बुभुक्षाभावितस्य विश्वं स्वयं भोग्यतयोपादाय रागद्वेषदोषकल्माषित-
चित्तवृत्तेरिष्टानिष्टविभागेन प्रवर्तितद्वैतस्य प्रतिवस्तुपरिणममानस्यात्यन्तविसंष्ठुलतया, कृत-
निश्चयनिःक्रियनिर्भोगं युगपदापीतविश्वमप्यविश्वतयैकं भगवन्तमात्मानमपश्यतः सततं
वैयग्
प्रत्यर्थविकल्पव्यावृत्तचेतसा सन्ततं प्रवर्तमानस्य तथावृत्तिदुःस्थितस्य चैकात्मप्रतीत्यनुभूति-
दोलायमान (-डावाँडोल) होनेसे अत्यन्त तरलता (चंचलता) प्राप्त करता है, (२) कदाचित्
करनेकी इच्छारूप ज्वरसे परवश होता हुआ विश्वको (-समस्त पदार्थोंको) स्वयं सर्जन
करनेकी इच्छा करता हुआ विश्वव्यापाररूप (-समस्त पदार्थोंकी प्रवृत्तिरूप) परिणमित होनेसे
प्रतिक्षण क्षोभकी प्रगटताको प्राप्त होता है, और (३) कदाचित् भोगनेकी इच्छासे भावित होता
हुआ विश्वको स्वयं भोग्यरूप ग्रहण करके, रागद्वेषरूप दोषसे कलुषित चित्तवृत्तिके कारण
(वस्तुओंमें) इष्ट
जीवके (१) कृतनिश्चय, (२) निष्क्रिय और (३) निर्भोग ऐसे भगवान आत्माको
(-छिन्नभिन्न) चित्त सहित सतत् प्रवृत्त होता हुआ उसप्रकारकी
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ाा
ा
परिच्छित्तिर्भवति
गये) शब्दब्रह्ममें
कारण एकाग्रता नहीं होती; और एकाग्रताके विना एक आत्मामें श्रद्धान
सारभूत चिदानन्द एक परमात्मतत्त्वके प्रकाशक अध्यात्मद्रव्यश्रुतको ‘परमागम’ कहा जाता है]
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पदार्थोंको नहीं जानता हुआ [भिक्षुः ] भिक्षु [कर्माणि ] कर्मोंको [कथं ] किसप्रकार
[क्षपयति ] क्षय करे ?
भिक्षु पदार्थ
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शरीरादिद्रव्येषूपयोगमिश्रितमोहरागद्वेषादिभावेषु च स्वपरनिश्चायकागमोपदेशपूर्वकस्वानुभवा-
भावादयं परोऽयमात्मेति ज्ञानं सिद्धयेत
स्वानुभवाभावात
माकलयतो वध्यघातकविभागाभावान्मोहादिद्रव्यभावकर्मणां क्षपणं न सिद्धयेत
शब्दाभिधेयै रागादिनानाविकल्पजालैर्निश्चयेन कर्मभिः सह भेदं न जानाति, तथैव कर्मारिविध्वंसक-
तथा उपयोगमिश्रित मोहरागद्वेषादिभावोंमें ‘यह पर है और यह आत्मा (-स्व) है’ ऐसा ज्ञान
सिद्ध नहीं होता; तथा उसे,
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मन्तरेणानिवार्यपरिवर्ततया ज्ञप्तिपरिवर्तरूपकर्मणां क्षपणमपि न सिद्धयेत
अनिवार्य होनेसे, ज्ञप्तिपरिवर्तनरूप कर्मोंका क्षय भी सिद्ध नहीं होता
इसीप्रकार ‘ये जो उपयोग है सो मैं हूँ और ये उपयोगमिश्रित मोहरागद्वेषादिभाव हैं सो पर है’
इसप्रकार स्व
मोहादिद्रव्यभावकर्मोंका क्षय नहीं होता, तथा (२) परमात्मनिष्ठताके अभावके कारण ज्ञप्तिका
परिवर्तन नहीं टलनेसे ज्ञप्तिपरिवर्तनरूप कर्मोंका भी क्षय नहीं होता
छे देव अवधिचक्षु ने सर्वत्रचक्षु सिद्ध छे
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शुद्धात्मतत्त्वसंवेदनसाध्यं सर्वतश्चक्षुस्त्वं न सिद्धयेत
[अवधिचक्षुषः ] अवधिचक्षु
देखते हैं इसलिये उन्हें इन्द्रियचक्षुवालोंसे अलग न किया जाय तो, इन्द्रियचक्षु ही हैं
ज्ञानमें ज्ञात न हों ऐसा करना अशक्य है ) तथापि वे उस आगमचक्षुसे स्वपरका विभाग करके,
महामोहको जिनने भेद डाला है ऐसे वर्तते हुए परमात्माको पाकर, सतत ज्ञाननिष्ठ ही रहते हैं
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हैं
ते सर्वने जाणे श्रमण ए देखीने आगम वडे. २३५
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श्रुतज्ञानोपयोगीभूय विपरिणमनात
(-सर्वद्रव्योंको जाननेवाले) अनेकान्तात्मक
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क्रमाक्रमणनिरर्गलज्ञप्तितया ज्ञानरूपात्मतत्त्वैकाग्
नहीं है, [इति ] इसप्रकार [सूत्रं भणति ] सूत्र कहता है; और [असंयतः ] असंयत वह
[श्रमणः ] श्रमण [कथं भवति ] कैसे हो सकता है ?
अध्यवसाय करनेवाले ऐसे वे जीव,
निवृत्तिका अभाव है
हो, तथापि काया और कषायके साथ एकत्व माननेवाले उन जीवोंके वास्तवमें पंचेन्द्रियके विषयोंकी
अभिलाषाका निरोध नहीं है, हिंसाका किंचित्मात्र अभाव नहीं है और इसीप्रकार परभावसे किंचित्मात्र
निवृत्ति नहीं है
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करोति, न किमपि
पदार्थोंका श्रद्धान करनेवाला भी [असंयतः वा ] यदि असंयत हो तो [न निर्वाति ] निर्वाणको
प्राप्त नहीं होता
निर्वाण नहि अर्थो तणी श्रद्धाथी, जो संयम नहीं. २३७
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शून्यतया यथोदितमात्मानमननुभवन् कथं नाम ज्ञेयनिमग्नो ज्ञानविमूढो ज्ञानी स्यात
स्वस्मिन्नेव संयम्य न वर्तयति, तदानादिमोहरागद्वेषवासनोपजनितपरद्रव्यचङ्क्रमणस्वैरिण्या-
श्चिद्वृत्तेः स्वस्मिन्नेव स्थानान्निर्वासननिष्कम्पैकतत्त्वमूर्च्छितचिद्वृत्त्यभावात्कथं नाम संयतः स्यात
आगमः किं करोति, न किमपि
हो तो सिद्धि
यथोक्त आत्माका अनुभव नहीं करता ऐसा वह ज्ञेयनिमग्न ज्ञानविमूढ़ जीव कैसे ज्ञानी होगा ?
(नहीं होगा, वह अज्ञानी ही होगा
इसलिये श्रद्धानशून्य आगमसे सिद्धि नहीं होती
ही संयमित (-अंकुशित) होकर नहीं रहता, तो अनादि मोहरागद्वेषकी वासनासे जनित जो
परद्रव्यमें भ्रमण
अभाव होनेसे, वह कैसे संयत होगा ? (नहीं होगा, असंयत ही होगा) और असंयतको, यथोक्त
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कुर्यात
श्रद्धानं ज्ञानं वा किं कुर्यात्, न किमपीति
इसलिये संयमशून्य श्रद्धानसे या ज्ञानसे सिद्धि नहीं होती
प्रकार (मन
ते कर्म ज्ञानी त्रिगुप्त बस उच्छ्वासमात्रथी क्षय करे. २३८
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तदेव ज्ञानी स्यात्कारकेतनागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्यातिशयप्रसादासादितशुद्ध-
ज्ञानमयात्मतत्त्वानुभूतिलक्षणज्ञानित्वसद्भावात्कायवाङ्मनःकर्मोपरमप्रवृत्तत्रिगुप्तत्वात
भावस्यापि विनाशः प्राप्नोति
समाधिलक्षणमात्मज्ञानं, निश्चयेन तदेव मुक्तिकारणमिति प्रतिपादयति
परिज्ञानं श्रद्धानं तद्गुणस्मरणानुकूलमनुष्ठानं चेति त्रयं, तत्त्रयाधारेणोत्पन्नं विशदाखण्डैकज्ञानाकारे
स्वशुद्धात्मनि परिच्छित्तिरूपं सविकल्पज्ञानं स्वशुद्धात्मोपादेयभूतरुचिविकल्परूपं सम्यग्दर्शनं तत्रैवात्मनि
रागादिविकल्पनिवृत्तिरूपं सविकल्पचारित्रमिति त्रयम्
पुनः संतानको आरोपित करता जाय इसप्रकार, लक्षकोटिभवों द्वारा चाहे जिसप्रकार (-महा
कष्टसे) अज्ञानी पार कर जाता है, वही कर्म, (ज्ञानीको स्यात्कारकेतन आगमज्ञान,
तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्त्वके युगपत्पनेके अतिशयप्रसादसे प्राप्त की हुई शुद्धज्ञानमय
आत्मतत्त्वकी अनुभूति जिसका लक्षण है ऐसे ज्ञानीपनके सद्भावके कारण काय
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मुच्छ्वासमात्रेणैव लीलयैव पातयति
संवेदनज्ञानस्यैव प्रधानत्वमिति
है तथा ज्ञानीके सुखदुःखादिविकाररूप परिणमन न होनेसे वह क र्म पुनः नूतन कर्मरूप संततिको
नहीं छोड़ता जाता
तो सर्वआगमधर भले पण नव लहे सिद्धत्वने. २३९
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यौगपद्येऽपि मनाङ्मोहमलोपलिप्तत्वात
भिरविमुच्यमानो न सिद्धयति
स सिद्धिं मुक्तिं न लभते
निर्विकल्पसमाधिलक्षणं निश्चयरत्नत्रयात्मकं स्वसंवेदनज्ञानं नास्तीति
[सर्वागमधरः अपि ] भले ही सर्वागमका धारी हो तथापि [सिद्धिं न लभते ] सिद्धिको प्राप्त
नहीं होता
उस पुरुषके आगमज्ञान
होता
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[दर्शनज्ञानसमग्रः ] दर्शनज्ञानसे परिपूर्ण
परिपूर्ण दर्शनज्ञानथी ते श्रमणने संयत कह्यो. २४०
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भूत्वा चिद्वृत्तेः परद्रव्यचंङ्क्र मणनिमित्तमत्यन्तमात्मना सममन्योन्यसंवलनादेकीभूतमपि
स्वभावभेदात्परत्वेन निश्चित्यात्मनैव कुशलो मल्ल इव सुनिर्भरं निष्पीडय निष्पीडय
कषायचक्रमक्रमेण जीवं त्याजयति, स खलु सकलपरद्रव्यशून्योऽपि विशुद्धदृशिज्ञप्तिमात्र-
स्वभावभूतावस्थापितात्मतत्त्वोपजातनित्यनिश्चलवृत्तितया साक्षात्संयत एव स्यात
ग्राह्यमिति सविकल्पयौगपद्यं निर्विकल्पात्मज्ञानं च घटत इति
लक्षणमित्युपदिशति
बनाये हुए शरीरपात्रको पाँच समितियोंसे अंकुशित प्रवृत्ति द्वारा प्रवर्तित करता हुआ, क्रमशः
पंचेन्द्रियोंके निश्चल निरोध द्वारा जिसके काय
मिलनके कारण अत्यन्त एकरूप हो जाने पर भी स्वभावभेदके कारण उसे पररूपसे निश्चित
करके आत्मासे ही कुशल मल्लकी भाँति अत्यन्त