Pravachansar (Hindi). MokshamArg pragnyapan; Gatha: 232-240.

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भयेनाप्रवर्तमानस्यातिकर्कशाचरणीभूयाक्रमेण शरीरं पातयित्वा सुरलोकं प्राप्योद्वान्तसमस्त-
संयमामृतभारस्य तपसोऽनवकाशतयाशक्यप्रतिकारो महान् लेपो भवति, तन्न श्रेयानपवाद-
निरपेक्ष उत्सर्गः
देशकालज्ञस्यापि बालवृद्धश्रान्तग्लानत्वानुरोधेनाहारविहारयोरल्पलेपत्वं
विगणय्य यथेष्टं प्रवर्तमानस्य मृद्वाचरणीभूय संयमं विराध्यासंयतजनसमानीभूतस्य तदात्वे
तपसोऽनवकाशतयाशक्यप्रतिकारो महान् लेपो भवति, तन्न श्रेयानुत्सर्गनिरपेक्षोऽपवादः
अतः सर्वथोत्सर्गापवादविरोधदौस्थित्यमाचरणस्य प्रतिषेध्यं, तदर्थमेव सर्वथानुगम्यश्च परस्पर-
सापेक्षोत्सर्गापवादविजृम्भितवृत्तिः स्याद्वादः
।।२३१।।
कृत्वा पूर्वकृतपुण्येन देवलोके समुत्पद्यते तत्र संयमाभावान्महान् लेपो भवति ततः कारणादपवाद-
निरपेक्षमुत्सर्गं त्यजति, शुद्धात्मभावनासाधकमल्पलेपं बहुलाभमपवादसापेक्षमुत्सर्गं स्वीकरोति तथैव
च पूर्वसूत्रोक्तक्रमेणापहृतसंयमशब्दवाच्येऽपवादे प्रवर्तते तत्र च प्रवर्तमानः सन् यदि कथंचिदौषध-
पथ्यादिसावद्यभयेन व्याधिव्यथादिप्रतीकारमकृत्वा शुद्धात्मभावनां न करोति तर्हि महान् लेपो भवति;

अथवा प्रतीकारे प्रवर्तमानोऽपि हरीतकीव्याजेन गुडभक्षणवदिन्द्रियसुखलाम्पटयेन संयमविराधनां

करोति तदापि महान् लेपो भवति
ततः कारणादुत्सर्गनिरपेक्षमपवादं त्यक्त्वा शुद्धात्मभावनारूपं
शुभोपयोगरूपं वा संयममविराधयन्नौषधपथ्यादिनिमित्तोत्पन्नाल्पसावद्यमपि बहुगुणराशिमुत्सर्गसापेक्षम-
देशकालज्ञको भी, यदि वह बालवृद्धश्रांतग्लानत्वके अनुरोधसे, जो आहारविहार
है, उससे होनेवाले अल्पलेपके भयसे उसमें प्रवृत्ति न करे तो (अर्थात् अपवादके आश्रयसे
होनेवाले अल्पबंधके भयसे उत्सर्गका हठ करके अपवादमें प्रवृत्त न हो तो), अति कर्कश
आचरणरूप होकर अक्रमसे शरीरपात करके देवलोक प्राप्त करके जिसने समस्त संयमामृतका
समूह वमन कर डाला है उसे तपका अवकाश न रहनेसे, जिसका प्रतीकार अशक्य है ऐसा
महान लेप होता है, इसलिये अपवाद
निरपेक्ष उत्सर्ग श्रेयस्कर नहीं है
देशकालज्ञको भी, यदि वह बालवृद्धश्रांतग्लानत्वके अनुरोधसे जो आहारविहार है,
उससे होनेवाले अल्पलेपको न गिनकर उसमें यथेष्ट प्रवृत्ति करे तो (अर्थात् अपवादसे होनेवाले
अल्पबन्धके प्रति असावधान होकर उत्सर्गरूप ध्येयको चूककर अपवादमें स्वच्छन्दपूर्वक प्रवर्ते
तो), मृदु आचरणरूप होकर संयम विरोधीको
असंयतजनके समान हुए उसकोउस समय
तपका अवकाश न रहनेसे, जिसका प्रतीकार अशक्य है ऐसा महान् लेप होता है इसलिये
उत्सर्ग निरपेक्ष अपवाद श्रेयस्कर नहीं है
इससे (ऐसा कहा गया है कि) उत्सर्ग और अपवादके विरोधसे होनेवाला जो
आचरणका दुःस्थितपना वह सर्वथा निषेध्य (त्याज्य) है, और इसीलिये परस्पर सापेक्ष उत्सर्ग
और अपवादसे जिसकी वृत्ति (-अस्तित्व, कार्य) प्रगट होती है ऐसा स्याद्वाद सर्वथा अनुगम्य
(अनुसरण करने योग्य) है
१. यथेष्ट = स्वच्छंदतया, इच्छाके अनुसार

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इत्येवं चरणं पुराणपुरुषैर्जुष्टं विशिष्टादरै-
रुत्सर्गादपवादतश्च विचरद्बह्वीः पृथग्भूमिकाः
आक्रम्य क्रमतो निवृत्तिमतुलां कृत्वा यतिः सर्वत-
श्चित्सामान्यविशेषभासिनि निजद्रव्ये करोतु स्थितिम्
।।१५।।
इत्याचरणप्रज्ञापनं समाप्तम्
पवादं स्वीकरोतीत्यभिप्रायः ।।२३१।। एवं ‘उवयरणं जिणमग्गे’ इत्याद्येकादशगाथाभिरपवादस्य विशेष-
विवरणरूपेण चतुर्थस्थलं व्याख्यातम् इति पूर्वोक्तक्रमेण ‘ण हि णिरवेक्खो चागो’ इत्यादित्रिंशद्गद्गद्गद्गद्गाथाभिः
स्थलचतुष्टयेनापवादनामा द्वितीयान्तराधिकारः समाप्तः अतः परं चतुर्दशगाथापर्यन्तं श्रामण्यापरनामा
मोक्षमार्गाधिकारः कथ्यते तत्र चत्वारि स्थलानि भवन्ति तेषु प्रथमतः आगमाभ्यासमुख्यत्वेन
‘एयग्गगदो समणो’ इत्यादि यथाक्रमेण प्रथमस्थले गाथाचतुष्टयम् तदनन्तरं भेदाभेदरत्नत्रयस्वरूपमेव
मोक्षमार्ग इति व्याख्यानरूपेण ‘आगमपुव्वा दिट्ठी’ इत्यादि द्वितीयस्थले सूत्रचतुष्टयम् अतः परं
द्रव्यभावसंयमकथनरूपेण ‘चागो य अणारंभो’ इत्यादि तृतीयस्थले गाथाचतुष्टयम् तदनन्तरं
भावार्थ :जब तक शुद्धोपयोगमें ही लीन न हो जाया जाय तब तक श्रमणको
आचरणकी सुस्थितिके लिये उत्सर्ग और अपवादकी मैत्री साधनी चाहिये उसे अपनी
निर्बलताका लक्ष रखे बिना मात्र उत्सर्गका आग्रह रखकर केवल अति कर्कश आचरणका हठ
नहीं करना चाहिये; तथा उत्सर्गरूप ध्येयको चूककर मात्र अपवादके आश्रयसे केवल मृदु
आचरणरूप शिथिलताका भी सेवन नहीं करना चाहिये
किन्तु इस प्रकारका वर्तन करना
चाहिये जिसमें हठ भी न हो और शिथिलताका भी सेवन न हो सर्वज्ञ भगवानका मार्ग
अनेकान्त है अपनी दशाकी जाँच करके जैसे भी लाभ हो उसप्रकारसे वर्तन करनेका
भगवानका उपदेश है
अपनी चाहे जो (सबल या निर्बल) स्थिति हो, तथापि एक ही प्रकारसे वर्तना, ऐसा
जिनमार्ग नहीं है ।।२३१।।
अब श्लोक द्वारा आत्मद्रव्यमें स्थिर होनेकी बात कहकर ‘आचरणप्रज्ञापन’ पूर्ण किया
जाता है
अर्थ :इसप्रकार विशेष आदरपूर्वक पुराण पुरुषोंके द्वारा सेवित, उत्सर्ग और अपवाद
द्वारा अनेक पृथक्पृथक् भूमिकाओंमें व्याप्त जो चारित्र उसको यति प्राप्त करके, क्रमशः अतुल
निवृत्ति करके, चैतन्यसामान्य और चैतन्यविशेषरूप जिसका प्रकाश है ऐसे निजद्रव्यमें सर्वतः
स्थिति करो
इसप्रकार ‘आचरण प्रज्ञापन’ समाप्त हुआ
शार्दूलविक्रीड़ित छंद

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अथ श्रामण्यापरनाम्नो मोक्षमार्गस्यैकाग््रयलक्षणस्य प्रज्ञापनम् तत्र तन्मूलसाधनभूते
प्रथममागम एव व्यापारयति
एयग्गगदो समणो एयग्गं णिच्छिदस्स अत्थेसु
णिच्छित्ती आगमदो आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा ।।२३२।।
ऐकाग््रयगतः श्रमणः ऐकाग््रयं निश्चितस्य अर्थेषु
निश्चितिरागमत आगमचेष्टा ततो ज्येष्ठा ।।२३२।।
श्रमणो हि तावदैकाग््रयगत एव भवति ऐकाग््रयं तु निश्चितार्थस्यैव भवति
अर्थनिश्चयस्त्वागमादेव भवति तत आगम एव व्यापारः प्रधानतरः, न चान्या गतिरस्ति
यतो न खल्वागममन्तरेणार्था निश्चेतुं शक्यन्ते, तस्यैव हि त्रिसमयप्रवृत्तत्रिलक्षणसकलपदार्थ-
सार्थयाथात्म्यावगमसुस्थितान्तरंगगम्भीरत्वात
न चार्थनिश्चयमन्तरेणैकाग््रयं सिद्धयेत्,
निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गोपसंहारमुख्यत्वेन ‘मुज्झदि वा’ इत्यादि चतुर्थस्थले गाथाद्वयम् एवं
स्थलचतुष्टयेन तृतीयान्तराधिकारे समुदायपातनिका तद्यथाअथैकाग्यगतः श्रमणो भवति
अब, श्रामण्य जिसका दूसरा नाम है ऐसे एकाग्रतालक्षणवाले मोक्षमार्गका प्रज्ञापन है
उसमें प्रथम, उसके (-मोक्षमार्गके) मूल साधनभूत आगममें व्यापार (-प्रवृत्ति) कराते हैं :
अन्वयार्थ :[श्रमणः ] श्रमण [ऐकाग्रयतः ] एकाग्रताको प्राप्त होता है;
[ऐकाग्रयं ] एकाग्रता [अर्थेषु निश्चितस्य ] पदार्थोंके निश्चयवान्के होती है; [निश्चितिः ]
(पदार्थोंका) निश्चय [आगमतः ] आगम द्वारा होता है; [ततः ] इसलिये [आगमचेष्टा ]
आगममें व्यापार [ज्येष्ठा ] मुख्य है
।।२३२।।
टीका :प्रथम तो, श्रमण वास्तवमें एकाग्रताको प्राप्त ही होता है; एकाग्रता पदार्थोंके
निश्चयवान्के ही होती है; और पदार्थोंका निश्चय आगम द्वारा ही होता है; इसलिये आगममें ही
व्यापार प्रधानतर (-विशेष प्रधान) है; दूसरी गति (-अन्य कोई मार्ग) नहीं है
उसका कारण
यह है कि :
वास्तवमें आगमके बिना पदार्थोंका निश्चय नहीं किया जा सकता; क्योंकि आगम ही,
जिसके त्रिकाल (उत्पादव्ययध्रौव्यरूप) तीन लक्षण प्रवर्तते हैं ऐसे सकलपदार्थसार्थके
यथातथ्य ज्ञान द्वारा सुस्थित अंतरंगसे गम्भीर है (अर्थात् आगमका ही अंतरंग, सर्व पदार्थोंके
श्रामण्य ज्यां ऐकाग्य्रा, ने ऐकाग्य्रा वस्तुनिश्चये,
निश्चय बने आगम वडे, आगमप्रवर्तन मुख्य छे. २३२
.

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यतोऽनिश्चितार्थस्य कदाचिन्निश्चिकीर्षाकुलितचेतसः समन्ततो दोलायमानस्यात्यन्ततरलतया,
कदाचिच्चिकीर्षाज्वरपरवशस्य विश्वं स्वयं सिसृक्षोर्विश्वव्यापारपरिणतस्य प्रतिक्षणविजृम्भ-
माणक्षोभतया, कदाचिद्बुभुक्षाभावितस्य विश्वं स्वयं भोग्यतयोपादाय रागद्वेषदोषकल्माषित-
चित्तवृत्तेरिष्टानिष्टविभागेन प्रवर्तितद्वैतस्य प्रतिवस्तुपरिणममानस्यात्यन्तविसंष्ठुलतया, कृत-
निश्चयनिःक्रियनिर्भोगं युगपदापीतविश्वमप्यविश्वतयैकं भगवन्तमात्मानमपश्यतः सततं
वैयग्
्रयमेव स्यात न चैकाग््रयमन्तरेण श्रामण्यं सिद्धयेत्, यतोऽनैकाग््रयस्यानेकमेवेदमिति
पश्यतस्तथाप्रत्ययाभिनिविष्टस्यानेकमेवेदमिति जानतस्तथानुभूतिभावितस्यानेकमेवेदमिति
प्रत्यर्थविकल्पव्यावृत्तचेतसा सन्ततं प्रवर्तमानस्य तथावृत्तिदुःस्थितस्य चैकात्मप्रतीत्यनुभूति-
तच्चैकाग्यमागमपरिज्ञानादेव भवतीति प्रकाशयतिएयग्गगदो समणो ऐकाग्यगतः श्रमणो भवति ।।
अत्रायमर्थःजगत्त्रयकालत्रयवर्तिसमस्तद्रव्यगुणपर्यायैकसमयपरिच्छित्तिसमर्थसकलविमलकेवल-
ज्ञानलक्षणनिजपरमात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपमैकाग्यं भण्यते तत्र गतस्तन्मयत्वेन परिणतः
समूहके यथार्थज्ञान द्वारा सुस्थित है इसलिये आगम ही समस्त पदार्थोंके यथार्थ ज्ञानसे गम्भीर है )
और, पदार्थोंके निश्चयके बिना एकाग्रता सिद्ध नहीं होती; क्योंकि, जिसे पदार्थोंका
निश्चय नहीं है वह (१) कदाचित् निश्चय करनेकी इच्छासे आकुलताप्राप्त चित्तके कारण सर्वतः
दोलायमान (-डावाँडोल) होनेसे अत्यन्त तरलता (चंचलता) प्राप्त करता है, (२) कदाचित्
करनेकी इच्छारूप ज्वरसे परवश होता हुआ विश्वको (-समस्त पदार्थोंको) स्वयं सर्जन
करनेकी इच्छा करता हुआ विश्वव्यापाररूप (-समस्त पदार्थोंकी प्रवृत्तिरूप) परिणमित होनेसे
प्रतिक्षण क्षोभकी प्रगटताको प्राप्त होता है, और (३) कदाचित् भोगनेकी इच्छासे भावित होता
हुआ विश्वको स्वयं भोग्यरूप ग्रहण करके, रागद्वेषरूप दोषसे कलुषित चित्तवृत्तिके कारण
(वस्तुओंमें) इष्ट
अनिष्ट विभाग द्वारा द्वैतको प्रवर्तित करता हुआ प्रत्येक वस्तुरूप परिणमित
होनेसे अत्यन्त अस्थिरताको प्राप्त होता है, इसलिये [-उपरोक्त तीन कारणोंसे ] उस अनिश्चयी
जीवके (१) कृतनिश्चय, (२) निष्क्रिय और (३) निर्भोग ऐसे भगवान आत्माको
जो कि
युगपत् विश्वको पी जानेवाला होने पर भी विश्वरूप न होनेसे एक है उसेनहीं देखनेसे सतत
व्यग्रता ही होती है, (-एकाग्रता नहीं होती)
और एकाग्रताके बिना श्रामण्य सिद्ध नहीं होता; क्योंकि जिसके एकाग्रता नहीं है वह
जीव (१) ‘यह अनेक ही है’ ऐसा देखता (-श्रद्धान करता) हुआ उसप्रकारकी प्रतीतिमें
अभिनिविष्ट होता है; (२) ‘यह अनेक ही है’ ऐसा जानता हुआ उसप्रकारकी अनुभूतिसे
भावित होता है, और (३) यह अनेक ही है’ इसप्रकार प्रत्येक पदार्थके विकल्पसे खण्डित
(-छिन्नभिन्न) चित्त सहित सतत् प्रवृत्त होता हुआ उसप्रकारकी
वृत्तिसे दुःस्थित होता है,
१. अभिनिविष्ट = आग्रही, दृढ़ २. वृत्ति = वर्तना; चारित्र

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वृत्तिस्वरूपसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपरिणतिप्रवृत्तद्रशिज्ञप्तिवृत्तिरूपात्मतत्त्वैकाग््रयाभावात् शुद्धात्म-
तत्त्वप्रवृत्तिरूपं श्रामण्यमेव न स्यात अतः सर्वथा मोक्षमार्गापरनाम्नः श्रामण्यस्य सिद्धये
भगवदर्हत्सर्वज्ञोपज्ञे प्रकटानेकान्तकेतने शब्दब्रह्मणि निष्णातेन मुमुक्षुणा भवितव्यम् ।।२३२।।
अथागमहीनस्य मोक्षाख्यं कर्मक्षपणं न सम्भवतीति प्रतिपादयति
श्रमणो भवति एयग्गं णिच्छिदस्स ऐकाग्ग्ग्ग्ग्ाा
ाा
ं पुनर्निश्चितस्य तपोधनस्य भवति केषु
टङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावो योऽसौ परमात्मपदार्थस्तत्प्रभृतिष्वर्थेषु णिच्छित्ती आगमदो सा च सा च
पदार्थनिश्चित्तिरागमतो भवति तथाहिजीवभेदकर्मभेदप्रतिपादकागमाभ्यासाद्भभवति, न केवल-
मागमाभ्यासात्तथैवागमपदसारभूताच्चिदानन्दैकपरमात्मतत्त्वप्रकाशकादध्यात्माभिधानात्परमागमाच्च पदार्थ-
परिच्छित्तिर्भवति
आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा ततः कारणादेवमुक्तलक्षणागमे परमागमे च चेष्टा प्रवृत्तिः ज्येष्ठा
श्रेष्ठा प्रशस्येत्यर्थः ।।२३२।। अथागमपरिज्ञानहीनस्य कर्मक्षपणं न भवतीति प्ररूपयतिआगमहीणो
इसलिये उसे एक आत्माकी प्रतीतिअनुभूतिवृत्तिस्वरूप सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र परिणतिरूप
प्रवर्तमान जो दृशिज्ञप्तिवृत्तिरूप आत्मतत्त्वमें एकाग्रता है उसका अभाव होनेसे
शुद्धात्मतत्वप्रवृत्तिरूप श्रामण्य हो (शुद्धात्मतत्वमें प्रवृत्तिरूप मुनिपना ही) नहीं होता
इससे (ऐसा कहा गया है कि) मोक्षमार्ग जिसका दूसरा नाम है ऐसे श्रामण्यकी
सर्वप्रकारसे सिद्धि करनेके लिये मुमुक्षुको भगवान् अर्हन्त सर्वज्ञसे उपज्ञ (-स्वयं जानकर कहे
गये) शब्दब्रह्ममें
जिसका कि अनेकान्तरूपी केतन (चिह्नध्वजलक्षण) प्रगट है उसमें
निष्णात होना चाहिये
भावार्थ :आगमके विना पदार्थोंका निश्चय नहीं होता, पदार्थोंके निश्चयके विना
अश्रद्धाजनित तरलता, परकर्तृत्वाभिलाषाजनित क्षोभ और परभोक्तृत्त्वाभिलाषाजनित अस्थिरताके
कारण एकाग्रता नहीं होती; और एकाग्रताके विना एक आत्मामें श्रद्धान
ज्ञानवर्तनरूप
प्रवर्तमान शुद्धात्मप्रवृत्ति न होनेसे मुनिपना नहीं होता, इसलिये मोक्षार्थीका प्रधान कर्त्तव्य
शब्दब्रह्मरूप आगममें प्रवीणता प्राप्त करना ही है ।।२३२।।
अब आगमहीनके मोक्षाख्य (मोक्ष नामसे कहा जानेवाला) कर्मक्षय नहीं होता, ऐसा
प्रतिपादन करते हैं :
१. दृशि = दर्शन
२. शब्दब्रह्म = परमब्रह्मरूप वाच्यका वाचक द्रव्य श्रुत [इन गाथाओंमें सर्वज्ञोपज्ञ समस्त द्रव्यश्रुतको
सामान्यतया आगम कहा गया है कभी द्रव्यश्रुतके ‘आगम’ और ‘परमागम’ ऐसे दो भेद भी किये जाते
हैं; वहाँ जीवभेदों और कर्मभेदोंके प्रतिपादक द्रव्यश्रुतको ‘आगम’ कहा जाता है, और समस्त द्रव्यश्रुतके
सारभूत चिदानन्द एक परमात्मतत्त्वके प्रकाशक अध्यात्मद्रव्यश्रुतको ‘परमागम’ कहा जाता है]
]

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आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि
अविजाणंतो अत्थे खवेदि कम्माणि किध भिक्खू ।।२३३।।
आगमहीनः श्रमणो नैवात्मानं परं विजानाति
अविजानन्नर्थान् क्षपयति कर्माणि कथं भिक्षुः ।।२३३।।
न खल्वागममन्तरेण परात्मज्ञानं परमात्मज्ञानं वा स्यात्; न च परात्मज्ञानशून्यस्य
परमात्मज्ञानशून्यस्य वा मोहादिद्रव्यभावकर्मणां ज्ञप्तिपरिवर्तरूपकर्मणां वा क्षपणं स्यात तथा
हिन तावन्निरागमस्य निरवधिभवापगाप्रवाहवाहिमहामोहमलमलीमसस्यास्य जगतः
समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि आगमहीनः श्रमणो नैवात्मानं परं वा विजानाति; अविजाणंतो अत्थे
अविजानन्नर्थान्परमात्मादिपदार्थान् खवेदि कम्माणि किध भिक्खू क्षपयति कर्माणि कथं भिक्षुः, न कथमपि
इति इतो विस्तरः‘‘गुणजीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य उवओगोवि य कमसो वीसं
तु परूवणा भणिदा ।।’’ इति गाथाकथिताद्यागममजानन्, तथैव ‘‘भिण्णउ जेण ण जाणियउ णियदेहहं
परमत्थु सो अंधउ अवरहं अंधयहं कि म दरिसावइ पंथु।।’’ इति दोहकसूत्रकथिताद्यागमपदसारभूतम-
પ્ર. ૫૫
अन्वयार्थ :[आगमहीनः ] आगमहीन [श्रमणः ] श्रमण [आत्मानं ] आत्माको
(निजको) और [परं ] परको [न एव विजानाति ] नहीं जानता; [अर्थान् अविजानन् ]
पदार्थोंको नहीं जानता हुआ [भिक्षुः ] भिक्षु [कर्माणि ] कर्मोंको [कथं ] किसप्रकार
[क्षपयति ] क्षय करे ?
।।२३३।।
टीका :वास्तवमें आगमके विना परात्मज्ञान या परमात्मज्ञान नहीं होता; और
परात्मज्ञानशून्यके या परमात्मज्ञानशून्यके मोहादिद्रव्यभावकर्मोंका या ज्ञप्तिपरिवर्तनरूप कर्मोंका
क्षय नहीं होता वह इसप्रकार है :
प्रथम तो, आगमहीन यह जगतकि जो निरवधि (अनादि) भवसरिताके प्रवाहको
बहानेवाले महामोहमलसे मलिन है वहधतूरा पिये हुए मनुष्यकी भाँति विवेकके नाशको प्राप्त
१. परात्मज्ञान = परका और आत्माका ज्ञान; स्वपरका भेदज्ञान
२. परमात्मज्ञान = परमात्माका ज्ञान, ‘मैं समस्त लोकालोकके ज्ञायक ज्ञानस्वभाववाला परम आत्मा हूँ’ ऐसा
३. ज्ञप्तिपरिवर्तन = ज्ञप्तिका बदलना, जाननेकी क्रियाका परिवर्तन (ज्ञानका एक ज्ञेयसे दूसरे ज्ञेयमें बदलना
सो ज्ञप्तिपरिवर्तनरूप कर्म है )
आगमरहित जे श्रमण ते जाणे न परने, आत्मने;
भिक्षु पदार्थ
अजाण ते क्षय कर्मनो कई रीत करे ? २३३.

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पीतोन्मत्तकस्येवावकीर्णविवेकस्याविविक्तेन ज्ञानज्योतिषा निरूपयतोऽप्यात्मात्मप्रदेशनिश्चित
शरीरादिद्रव्येषूपयोगमिश्रितमोहरागद्वेषादिभावेषु च स्वपरनिश्चायकागमोपदेशपूर्वकस्वानुभवा-
भावादयं परोऽयमात्मेति ज्ञानं सिद्धयेत
्; तथा च त्रिसमयपरिपाटीप्रकटितविचित्रपर्याय-
प्राग्भारागाधगम्भीरस्वभावं विश्वमेव ज्ञेयीकृत्य प्रतपतः परमात्मनिश्चायकागमोपदेशपूर्वक-
स्वानुभवाभावात
् ज्ञानस्वभावस्यैकस्य परमात्मनो ज्ञानमपि न सिद्धयेत परात्म-
परमात्मज्ञानशून्यस्य तु द्रव्यकर्मारब्धैः शरीरादिभिस्तत्प्रत्ययैर्मोहरागद्वेषादिभावैश्च सहैक्य-
माकलयतो वध्यघातकविभागाभावान्मोहादिद्रव्यभावकर्मणां क्षपणं न सिद्धयेत
्; तथाच
ध्यात्मशास्त्रं चाजानन् पुरुषो रागादिदोषरहिताव्याबाधसुखादिगुणस्वरूपनिजात्मद्रव्यस्य भावकर्म-
शब्दाभिधेयै रागादिनानाविकल्पजालैर्निश्चयेन कर्मभिः सह भेदं न जानाति, तथैव कर्मारिविध्वंसक-
होनेसे अविविक्त ज्ञानज्योतिसे यद्यपि देखता है तथापि, उसे स्वपरनिश्चायक
आगमोपदेशपूर्वक स्वानुभवके अभावके कारण, आत्मामें और आत्मप्रदेशस्थित शरीरादिद्रव्योंमें
तथा उपयोगमिश्रित मोहरागद्वेषादिभावोंमें ‘यह पर है और यह आत्मा (-स्व) है’ ऐसा ज्ञान
सिद्ध नहीं होता; तथा उसे,
परमात्मनिश्चायक आगमोपदेशपूर्वक स्वानुभवके अभावके कारण,
जिसके त्रिकाल परिपाटीमें विचित्र पर्यायोंका समूह प्रगट होता है ऐसे अगाधगम्भीरस्वभाव
विश्वको ज्ञेयरूप करके प्रतपित ज्ञानस्वभावी एक परमात्माका ज्ञान भी सिद्ध नहीं होता
और (इसप्रकार) जो (१) परात्मज्ञानसे तथा (२) परमात्मज्ञानसे शून्य है उसे, (१)
द्रव्यकर्मसे होनेवाले शरीरादिके साथ तथा तत्प्रत्ययी मोहरागद्वेषादि भावोंके साथ एकताका
अनुभव करनेसे वध्यघातकके विभागका अभाव होनेसे मोहादिद्रव्यभावकर्मोंका क्षय सिद्ध नहीं
होता, तथा (२) ज्ञेयनिष्ठतासे प्रत्येक वस्तुके उत्पादविनाशरूप परिणमित होनेके कारण
१. अविविक्त = अविवेकवाली; विवेक शून्य, भेदहीन; अभिन्न; एकमेक
२. स्वपरनिश्चायक = स्वपरका निश्चय करानेवाला (आगमोपदेश स्वपरका निश्चय करानेवाला है अर्थात्
स्वपरका निश्चय करनेमें निमित्तभूत है )
३. परमात्मनिश्चायक = परमात्माका निश्चय करनेवाला (अर्थात् ज्ञानस्वभाव परमात्माका निश्चय करनेमें
निमित्तभूत )
४. प्रतपित = प्रतापवान् (ज्ञानस्वभाव परमात्मा विश्वको ज्ञेयरूप करके तपता हैप्रतापवान् वर्तता है )
५. तत्प्रत्ययी = तत्सम्बन्धी, वह जिसका निमित्त है ऐसे
६. वध्यघातक = हनन योग्य और हननकर्ता [आत्मा वध्य है और मोहादिभावकर्म घातक हैं मोहादिद्रव्यकर्म
भी आत्माके घातमें निमित्तभूत होनेसे घातक कहलाते हैं ]]
७. ज्ञेयनिष्ठ = ज्ञेयोंमें निष्ठावाला; ज्ञेयपरायण; ज्ञेयसम्मुख [अनादि संसारमें ज्ञप्ति ज्ञेयनिष्ठ होनेसे वह प्रत्येक
पदार्थकी उत्पत्तिविनाशरूप परिणमित होनेसे परिवर्तनको प्राप्त होती रहती है परमात्मनिष्ठताके बिना
ज्ञप्तिका वह परिवर्तन अनिवार्य है ]]

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ज्ञेयनिष्ठतया प्रतिवस्तु पातोत्पातपरिणतत्वेन ज्ञप्तेरासंसारात्परिवर्तमानायाः परमात्मनिष्ठत्व-
मन्तरेणानिवार्यपरिवर्ततया ज्ञप्तिपरिवर्तरूपकर्मणां क्षपणमपि न सिद्धयेत
अतः कर्म-
क्षपणार्थिभिः सर्वथागमः पर्युपास्यः ।।२३३।।
अथागम एवैकश्चक्षुर्मोक्षमार्गमुपसर्पतामित्यनुशास्ति
आगमचक्खू साहू इंदियचक्खूणि सव्वभूदाणि
देवा य ओहिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू ।।२३४।।
स्वकीयपरमात्मतत्त्वस्य ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मभिरपि सह पृथक्त्वं न वेत्ति, तथाचाशरीरलक्षणशुद्धात्म-
पदार्थस्य शरीरादिनोकर्मभिः सहान्यत्वं न जानाति इत्थंभूतभेदज्ञानाभावाद्देहस्थमपि निजशुद्धात्मानं न
रोचते, समस्तरागादिपरिहारेण न च भावयति ततश्च कथं कर्मक्षयो भवति, न कथमपीति ततः
कारणान्मोक्षार्थिना परमागमाभ्यास एव कर्तव्य इति तात्पर्यार्थः ।।२३३।। अथ मोक्षमार्गार्थिनामागम
अनादि संसारसे परिवर्तनको पानेवाली जो ज्ञप्ति, उसका परिवर्तन परमात्मनिष्ठताके अतिरिक्त
अनिवार्य होनेसे, ज्ञप्तिपरिवर्तनरूप कर्मोंका क्षय भी सिद्ध नहीं होता
इसलिये कर्मक्षयार्थियोंको
सर्वप्रकारसे आगमकी पर्युपासना करना योग्य है
भावार्थ :आगमकी पर्युपासनासे रहित जगतको आगमोपदेशपूर्वक स्वानुभव न
होनेसे ‘यह जो अमूर्तिक आत्मा है सो मैं हूँ, और ये समानक्षेत्रावगाही शरीरादिक वह पर हैं’
इसीप्रकार ‘ये जो उपयोग है सो मैं हूँ और ये उपयोगमिश्रित मोहरागद्वेषादिभाव हैं सो पर है’
इसप्रकार स्व
परका भेदज्ञान नहीं होता था उसे आगमोपदेशपूर्वक स्वानुभव न होनेसे ‘मैं
ज्ञानस्वभावी एक परमात्मा हूँ’ ऐसा परमात्मज्ञान भी नहीं होता
इसप्रकार जिसे (१) स्वपर ज्ञान तथा (२) परमात्मज्ञान नहीं है उसे, (१) हनन
होने योग्य स्वका और हननेवाले मोहादिद्रव्यभावकर्मरूप परका भेदज्ञान न होनेसे
मोहादिद्रव्यभावकर्मोंका क्षय नहीं होता, तथा (२) परमात्मनिष्ठताके अभावके कारण ज्ञप्तिका
परिवर्तन नहीं टलनेसे ज्ञप्तिपरिवर्तनरूप कर्मोंका भी क्षय नहीं होता
इसलिये मोक्षार्थियोंको सर्वप्रकारसे सर्वज्ञकथित आगमका सेवन करना चाहिये ।।२३३।।
अब, मोक्षमार्ग पर चलनेवालोंको आगम ही एक चक्षु है ऐसा उपदेश करते हैं :
मुनिराज आगमचक्षु ने सौ भूत इन्द्रियचक्षु छे,
छे देव अवधिचक्षु ने सर्वत्रचक्षु सिद्ध छे
. २३४.

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आगमचक्षुः साधुरिन्द्रियचक्षूंषि सर्वभूतानि
देवाश्चावधिचक्षुषः सिद्धाः पुनः सर्वतश्चक्षुषः ।।२३४।।
इह तावद्भगवन्तः सिद्धा एव शुद्धज्ञानमयत्वात्सर्वतश्चक्षुषः, शेषाणि तु सर्वाण्यपि
भूतानि मूर्तद्रव्यावसक्तद्रष्टित्वादिन्द्रियचक्षूंषि देवास्तु सूक्ष्मत्वविशिष्टमूर्तद्रव्यग्राहित्वाद-
वधिचक्षुषः, अथ च तेऽपि रूपिद्रव्यमात्रद्रष्टत्वेनेन्द्रियचक्षुर्भ्योऽविशिष्यमाणा इन्द्रियचक्षुष एव
एवममीषु समस्तेष्वपि संसारिषु मोहोपहततया ज्ञेयनिष्ठेषु सत्सु ज्ञाननिष्ठत्वमूल-
शुद्धात्मतत्त्वसंवेदनसाध्यं सर्वतश्चक्षुस्त्वं न सिद्धयेत
अथ तत्सिद्धये भगवन्तः श्रमणा
आगमचक्षुषो भवन्ति तेन ज्ञेयज्ञानयोरन्योन्यसंवलनेनाशक्यविवेचनत्वे सत्यपि स्वपर-
एव द्रष्टिरित्याख्यातिआगमचक्खू शुद्धात्मादिपदार्थप्रतिपादकपरमागमचक्षुषो भवन्ति के ते साहू
निश्चयरत्नत्रयाधारेण निजशुद्धात्मसाधकाः साधवः इंदियचक्खूणि निश्चयेनातीन्द्रियामूर्तकेवलज्ञानादि-
गुणस्वरूपाण्यपि व्यवहारेणानादिकर्मबन्धवशादिन्द्रियाधीनत्वेनेन्द्रियचक्षूंषि भवन्ति कानि कर्तॄणि
सव्वभूदाणि सर्वभूतानि सर्वसंसारिजीवा इत्यर्थः देवा य ओहिचक्खू देवा अपि च सूक्ष्ममूर्त-
पुद्गलद्रव्यविषयावधिचक्षुषः सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू सिद्धाः पुनः शुद्धबुद्धैकस्वभावजीवलोकाकाश-
प्रमितशुद्धासंख्येयसर्वप्रदेशचक्षुष इति अनेन किमुक्तं भवति सर्वशुद्धात्मप्रदेशे लोचनोत्पत्तिनिमित्तं
अन्वयार्थ :[साधुः ] साधु [आगमचक्षुः ] आगमचक्षु (-आगमरूप चक्षुवाले)
हैं, [सर्वभूतानि ] सर्वप्राणी [इन्द्रिय चक्षूंषि ] इन्द्रियचक्षुवाले हैं, [देवाः च ] देव
[अवधिचक्षुषः ] अवधिचक्षु
हैं [पुनः ] और [सिद्धाः ] सिद्ध [सर्वतः चक्षुषः ] सर्वतःचक्षु
(-सर्व ओरसे चक्षुवाले अर्थात् सर्वात्मप्रदेशोसे चक्षुवान्) हैं ।।२३४।।
टीका :प्रथम तो इस लोकमें भगवन्त सिद्ध ही शुद्धज्ञानमय होनेसे सर्वतः चक्षु हैं,
और शेष ‘सभी भूत (-जीव), मूर्त द्रव्योंमें ही उनकी दृष्टि लगनेसे इन्द्रियचक्षु हैं देव सूक्ष्मत्व-
विशिष्ट मूर्त द्रव्योंको ग्रहण करते हैं इसलिये वे अवधिचक्षु हैं; अथवा वे भी, मात्र रूपी द्रव्योंको
देखते हैं इसलिये उन्हें इन्द्रियचक्षुवालोंसे अलग न किया जाय तो, इन्द्रियचक्षु ही हैं
’ इसप्रकार
यह सभी संसारी मोहसे उपहत होनेके कारण ज्ञेयनिष्ठ होनेसे, ज्ञाननिष्ठताका मूल जो शुद्धात्म-
तत्त्वका संवेदन उससे साध्य (-सधनेवाला) ऐसा सर्वतः चक्षुपना उनके सिद्ध नहीं होता
अब, उस (सर्वतःचक्षुपने) की सिद्धिके लिये भगवंत श्रमण आगमचक्षु होते हैं
यद्यपि ज्ञेय और ज्ञानका पारस्परिक मिलन हो जानेसे उन्हें भिन्न करना अशक्य है (अर्थात् ज्ञेय
ज्ञानमें ज्ञात न हों ऐसा करना अशक्य है ) तथापि वे उस आगमचक्षुसे स्वपरका विभाग करके,
महामोहको जिनने भेद डाला है ऐसे वर्तते हुए परमात्माको पाकर, सतत ज्ञाननिष्ठ ही रहते हैं
१. उपहत = घायल, अशुद्ध, मलिन, भ्रष्ट

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विभागमारचय्य निर्भिन्नमहामोहाः सन्तः परमात्मानमवाप्य सततं ज्ञाननिष्ठा एवावतिष्ठन्ते
अतः सर्वमप्यागमचक्षुषैव मुमुक्षूणां द्रष्टव्यम् ।।२३४।।
अथागमचक्षुषा सर्वमेव द्रश्यत एवेति समर्थयति
सव्वे आगमसिद्धा अत्था गुणपज्जएहिं चित्तेहिं
जाणंति आगमेण हि पेच्छित्ता ते वि ते समणा ।।२३५।।
सर्वे आगमसिद्धा अर्था गुणपर्यायैश्चित्रैः
जानन्त्यागमेन हि द्रष्टवा तानपि ते श्रमणाः ।।२३५।।
आगमेन तावत्सर्वाण्यपि द्रव्याणि प्रमीयन्ते, विस्पष्टतर्कणस्य सर्वद्रव्याणाम-
विरुद्धत्वात्; विचित्रगुणपर्यायविशिष्टानि च प्रतीयन्ते, सहक्रमप्रवृत्तानेकधर्मव्यापका-
परमागमोपदेशादुत्पन्नं निर्विकारं मोक्षार्थिभिः स्वसंवेदनज्ञानमेव भावनीयमिति ।।२३४।। अथागम-
लोचनेन सर्वं द्रश्यत इति प्रज्ञापयतिसव्वे आगमसिद्धा सर्वेऽप्यागमसिद्धा आगमेन ज्ञाताः के ते
अत्था विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावो योऽसौ परमात्मपदार्थस्तत्प्रभृतयोऽर्थाः कथं सिद्धाः गुणपज्जएहिं
इससे (ऐसा कहा जाता है कि) मुमुक्षुओंको सब कुछ आगमरूप चक्षु द्वारा ही देखना
चाहिये ।।२३४।।
अब, यह समर्थन करते हैं कि आगमरूप चक्षुसे सब कुछ दिखाई देता ही है :
अन्वयार्थ :[सर्वे अर्थाः ] समस्त पदार्थ [चित्रैः गुणपर्यायैः ] विचित्र
(अनेक प्रकारकी) गुणपर्यायों सहित [आगमसिद्धाः ] आगमसिद्ध हैं [तान् अपि ] उन्हें भी
[ते श्रमणाः ] वे श्रमण [आगमेन हि दृष्टा ] आगम द्वारा वास्तवमें देखकर [जानन्ति ] जानते
हैं
।।२३५।।
टीका :प्रथम तो, आगम द्वारा सभी द्रव्य प्रमेय (ज्ञेय) होते हैं, क्योंकि सर्वद्रव्य
विस्पष्ट तर्कणासे अविरुद्ध हैं, (सर्व द्रव्य आगमानुसार जो विशेष स्पष्ट तर्क उसके साथ
मेलवाले हैं, अर्थात् वे आगमानुसार विस्पष्ट विचारसे ज्ञात हों ऐसे हैं ) और आगमसे वे द्रव्य
विचित्र गुणपर्यायवाले प्रतीत होते हैं, क्योंकि आगमको सहप्रवृत्त और क्रमप्रवृत्त अनेक धर्मोंमें
सौ चित्र गुणपर्याययुक्त पदार्थ आगमसिद्ध छे;
ते सर्वने जाणे श्रमण ए देखीने आगम वडे. २३५
.

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नेकान्तमयत्वेनैवागमस्य प्रमाणत्वोपपत्तेः अतः सर्वेऽर्था आगमसिद्धा एव भवन्ति अथ ते
श्रमणानां ज्ञेयत्वमापद्यन्ते स्वयमेव, विचित्रगुणपर्यायविशिष्टसर्वद्रव्यव्यापकानेकान्तात्मक-
श्रुतज्ञानोपयोगीभूय विपरिणमनात
अतो न किंचिदप्यागमचक्षुषामद्रश्यं स्यात।।२३५।।
अथागमज्ञानतत्पूर्वतत्त्वार्थश्रद्धानतदुभयपूर्वसंयतत्वानां यौगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं नियमयति
आगमपुव्वा दिट्ठी ण भवदि जस्सेह संजमो तस्स
णत्थीदि भणदि सुत्तं असंजदो होदि किध समणो ।।२३६।।
चित्तेहिं विचित्रगुणपर्यायैः सह जाणंति जानन्ति कान् ते वि तान् पूर्वोक्तार्थगुणपर्यायान् किं कृत्वा
पूर्वम् पेच्छित्ता द्रष्टवा ज्ञात्वा केन आगमेण हि आगमेनैव अयमत्रार्थःपूर्वमागमं पठित्वा
पश्चाज्जानन्ति ते समणा ते श्रमणा भवन्तीति अत्रेदं भणितं भवतिसर्वे द्रव्यगुणपर्यायाः परमागमेन
ज्ञायन्ते कस्मात् आगमस्य परोक्षरूपेण केवलज्ञानसमानत्वात् पश्चादागमाधारेण स्वसंवेदनज्ञाने जाते
स्वसंवेदनज्ञानबलेन केवलज्ञाने च जाते प्रत्यक्षा अपि भवन्ति ततःकारणादागमचक्षुषा परंपरया सर्वं
द्रश्यं भवतीति ।।२३५।। एवमागमाभ्यासकथनरूपेण प्रथमस्थले सूत्रचतुष्टयं गतम् अथागमपरिज्ञान-
तत्त्वार्थश्रद्धानतदुभयपूर्वकसंयतत्वत्रयस्य मोक्षमार्गत्वं नियमयतिआगमपुव्वा दिट्ठी ण भवदि जस्सेह
व्यापक (-अनेक धर्मोंको कहनेवाला) अनेकान्तमय होनेसे आगमको प्रमाणताकी उपपत्ति
है (अर्थात् आगम प्रमाणभूत सिद्ध होता है ) इससे सभी पदार्थ आगमसिद्ध ही हैं और
वे श्रमणोंको स्वयमेव ज्ञेयभूत होते हैं, क्योंकि श्रमण विचित्रगुणपर्यायवाले सर्वद्रव्योंमें व्यापक
(-सर्वद्रव्योंको जाननेवाले) अनेकान्तात्मक
श्रुतज्ञानोपयोगरूप होकर परिणमित होते हैं
इससे (ऐसा कहा है कि) आगमचक्षुओंको (-आगमरूप चक्षुवालोंको) कुछ भी
अदृश्य नहीं है ।।२३५।।
अब, आगमज्ञान, तत्पूर्वक तत्त्वार्थश्रद्धान और तदुभयपूर्वक संयतत्त्वकी युगपतताको
मोक्षमार्गपना होनेका नियम करते हैं [अर्थात् ऐसा नियम सिद्ध करते हैं किआगमज्ञान,
तत्पूर्वक तत्त्वार्थश्रद्धान और ३उन दोनों पूर्वक संयतपना इन तीनोंका साथ होना ही
मोक्षमार्ग है ] :
१. अनेकान्त = अनेक अन्त; अनेक धर्म [द्रव्यश्रुत अनेकान्तमय है; सर्वद्रव्योंके एक ही साथ और क्रमशः
प्रवर्तमान अनेक धर्मोंमें व्याप्त (उन्हें कहनेवाले) अनेक धर्म द्रव्यश्रुतमें हैं ]]
२. श्रुतज्ञानोपयोग अनेकान्तात्मक है सर्व द्रव्योंके अनेक धर्मोंमें व्याप्त (उन्हें जाननेवाले अनेक धर्म
भावश्रुतज्ञानमें हैं )
दृष्टि न आगमपूर्विका ते जीवने संयम नहीं
ए सूत्र केरुं छे वचन; मुनि केम होय असंयमी ? २३६.

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आगमपूर्वा द्रष्टिर्न भवति यस्येह संयमस्तस्य
नास्तीति भणति सूत्रमसंयतो भवति कथं श्रमणः ।।२३६।।
इह हि सर्वस्यापि स्यात्कारकेतनागमपूर्विकया तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणया द्रष्टया शून्यस्य
स्वपरविभागाभावात् कायकषायैः सहैक्यमध्यवसतोऽनिरुद्धविषयाभिलाषतया षड्जीवनिकाय-
घातिनो भूत्वा सर्वतोऽपि कृतप्रवृत्तेः सर्वतो निवृत्त्यभावात्तथा परमात्मज्ञानाभावाद् ज्ञेयचक्र-
क्रमाक्रमणनिरर्गलज्ञप्तितया ज्ञानरूपात्मतत्त्वैकाग्
्रयप्रवृत्त्यभावाच्च संयम एव न तावत् सिद्धयेत
आगमपूर्विका द्रष्टिः सम्यक्त्वं नास्ति यस्येह लोके संजमो तस्स णत्थि संयमस्तस्य नास्ति इदि भणदि
इत्येवं भणति कथयति किं कर्तृ सुत्तं सूत्रमागमः असंजदो होदि किध समणो असंयतः सन्
श्रमणस्तपोधनः कथं भवति, न कथमपीति तथाहियदि निर्दोषिनिजपरमात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं
सम्यक्त्वं नास्ति तर्हि परमागमबलेन विशदैकज्ञानरूपमात्मानं जानन्नपि सम्यग्द्रष्टिर्न भवति, ज्ञानी च
न भवति, तद्द्वयाभावे सति पञ्चेन्द्रियविषयाभिलाषषड्जीववधव्यावृत्तोऽपि संयतो न भवति ततः
अन्वयार्थ :[इह ] इस लोकमें [यस्य ] जिसकी [आगमपूर्वा दृष्टिः ]
आगमपूर्वक दृष्टि (दर्शन) [न भवति ] नहीं है [तस्य ] उसके [संयमः ] संयम [नास्ति ]
नहीं है, [इति ] इसप्रकार [सूत्रं भणति ] सूत्र कहता है; और [असंयतः ] असंयत वह
[श्रमणः ] श्रमण [कथं भवति ] कैसे हो सकता है ?
।।२३६।।
टीका :इस लोकमें वास्तवमें, स्यात्कार जिसका चिह्न है ऐसे आगमपूर्वक
तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणवाली दृष्टिसे जो शून्य है उन सभीको प्रथम तो संयम ही सिद्ध नहीं होता,
क्योंकि (१) स्वपरके विभागके अभावके कारण काया और कषायोंके साथ एकताका
अध्यवसाय करनेवाले ऐसे वे जीव,
विषयोंकी अभिलाषाका निरोध नहीं होनेसे छह
जीवनिकायके घाती होकर सर्वतः (सब ओर से) प्रवृत्ति करते हैं, इसलिये उनके सर्वतः
निवृत्तिका अभाव है
(अर्थात् किसी भी ओरसेकिंचित्मात्र भी निवृत्ति नहीं है ), तथापि
(२) उनके परमात्मज्ञानके अभावके कारण ज्ञेयसमूहको क्रमशः जाननेवाली निरर्गल ज्ञप्ति
१. तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणवाली = तत्त्वार्थका श्रद्धान जिसका लक्षण है ऐसी [सम्यग्दर्शनका लक्षण
तत्त्वार्थश्रद्धान है वह आगमपूर्वक होता है आगमका चिह्न ‘स्यात्’ कार है] ]
२. जिन जीवोंको स्वपरका भेदज्ञान नहीं है उनके भले ही कदाचित् पंचेन्द्रियोंके विषयोंका संयोग दिखाई
न देता हो, छह जीवनिकायकी द्रव्यहिंसा न दिखाई देती हो और इसप्रकार संयोगसे निवृत्ति दिखाई देती
हो, तथापि काया और कषायके साथ एकत्व माननेवाले उन जीवोंके वास्तवमें पंचेन्द्रियके विषयोंकी
अभिलाषाका निरोध नहीं है, हिंसाका किंचित्मात्र अभाव नहीं है और इसीप्रकार परभावसे किंचित्मात्र
निवृत्ति नहीं है
३. निरर्गल = निरंकुश; संयमरहित; स्वच्छन्दी

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असिद्धसंयमस्य तु सुनिश्चितैकाग््रयगतत्वरूपं मोक्षमार्गापरनाम श्रामण्यमेव न सिद्धयेत अत
आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां यौगपद्यस्यैव मोक्षमार्गत्वं नियम्येत ।।२३६।।
अथागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानामयौगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं विघटयति
ण हि आगमेण सिज्झदि सद्दहणं जदि वि णत्थि अत्थेसु
सद्दहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिव्वादि ।।२३७।।
न ह्यागमेन सिद्धयति श्रद्धानं यद्यपि नास्त्यर्थेषु
श्रद्दधान अर्थानसंयतो वा न निर्वाति ।।२३७।।
स्थितमेतत्परमागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वत्रयमेव मुक्तिकारणमिति ।।२३६।। अथागमज्ञानतत्त्वार्थ-
श्रद्धानसंयतत्वानां यौगपद्याभावे मोक्षो नास्तीति व्यवस्थापयतिण हि आगमेण सिज्झदि आगमजनित-
परमात्मज्ञानेन न सिद्धयति, सद्दहणं जदि वि णत्थि अत्थेसु श्रद्धानं यदि च नास्ति परमात्मादिपदार्थेषु
सद्दहमाणो अत्थे श्रद्दधानो वा चिदानन्दैकस्वभावनिजपरमात्मादिपदार्थान्, असंजदो वा ण णिव्वादि विषय-
कषायाधीनत्वेनासंयतो वा न निर्वाति, निर्वाणं न लभत इति तथाहियथा प्रदीपसहितपुरुषस्य
कूपपतनप्रस्तावे कूपपतनान्निवर्तनं मम हितमिति निश्चयरूपं श्रद्धानं यदि नास्ति तदा तस्य प्रदीपः किं
करोति, न किमपि
तथा जीवस्यापि परमागमाधारेण सकलपदार्थज्ञेयाकारकरम्बितविशदैकज्ञानरूपं
होनेसे ज्ञानरूप आत्मतत्त्वमें एकाग्रताकी प्रवृत्तिका अभाव है (इसप्रकार उनके संयम सिद्ध
नहीं होता) और (-इसप्रकार) जिनके संयम सिद्ध नहीं होता उन्हें सुनिश्चित
ऐकाग्य्रापरिणततारूप श्रामण्य हीजिसका दूसरा नाम मोक्षमार्ग है वहीसिद्ध नहीं होता
इससे आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्त्वके युगपतपनेको ही मोक्षमार्गपना होनेका
नियम होता है ।।२३६।।
अब, ऐसा सिद्ध करते हैं किआगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्त्वके
अयुगपत्पनेको मोक्षमार्गत्व घटित नहीं होता :
अन्वयार्थ :[आगमेन ] आगमसे, [यदि अपि ] यदि [अर्थेषु श्रद्धानं नास्ति ]
पदार्थोंका श्रद्धान न हो तो, [न हि सिद्धयति ] सिद्धि (मुक्ति) नहीं होती; [अर्थान् श्रद्धधानः ]
पदार्थोंका श्रद्धान करनेवाला भी [असंयतः वा ] यदि असंयत हो तो [न निर्वाति ] निर्वाणको
प्राप्त नहीं होता
।।२३७।।
१. सुनिश्चित = दृढ़ (दृढ़तापूर्वक एकाग्रतामें परिणमित होना सो श्रामण्य है )
सिद्धि नहि आगम थकी, श्रद्धा न जो अर्थी तणी;
निर्वाण नहि अर्थो तणी श्रद्धाथी, जो संयम नहीं. २३७
.

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श्रद्धानशून्येनागमजनितेन ज्ञानेन, तदविनाभाविना श्रद्धानेन च संयमशून्येन, न
तावत्सिद्धयति तथा हिआगमबलेन सक लपदार्थान् विस्पष्टं तर्कयन्नपि, यदि सक ल-
पदार्थज्ञेयाकारकरम्बितविशदैकज्ञानाकारमात्मानं न तथा प्रत्येति, तदा यथोदितात्मनः श्रद्धान-
शून्यतया यथोदितमात्मानमननुभवन् कथं नाम ज्ञेयनिमग्नो ज्ञानविमूढो ज्ञानी स्यात
अज्ञानिनश्च ज्ञेयद्योतको भवन्नप्यागमः किं कुर्यात ततः श्रद्धानशून्यादागमान्नास्ति सिद्धिः
किंच, सकलपदार्थज्ञेयाकारकरम्बितविशदैकज्ञानाकारमात्मानं श्रद्दधानोऽप्यनुभवन्नपि, यदि
स्वस्मिन्नेव संयम्य न वर्तयति, तदानादिमोहरागद्वेषवासनोपजनितपरद्रव्यचङ्क्रमणस्वैरिण्या-
श्चिद्वृत्तेः स्वस्मिन्नेव स्थानान्निर्वासननिष्कम्पैकतत्त्वमूर्च्छितचिद्वृत्त्यभावात्कथं नाम संयतः स्यात
स्वात्मानं जानतोऽपि ममात्मैवोपादेय इति निश्चयरूपं यदि श्रद्धानं नास्ति तदा तस्य प्रदीपस्थानीय
आगमः किं करोति, न किमपि
यथा वा स एव प्रदीपसहितपुरुषः स्वकीयपौरुषबलेन कूपपतनाद्यदि
न निवर्तते तदा तस्य श्रद्धानं प्रदीपो द्रष्टिर्वा किं करोति, न किमपि तथायं जीवः
प्र. ५६
टीका :आगमजनित ज्ञानसे, यदि वह श्रद्धानशून्य हो तो सिद्धि नहीं होती; तथा
उसके (-आगमज्ञानके) विना जो नहीं होता ऐसे श्रद्धानसे भी यदि वह (श्रद्धान) संयमशून्य
हो तो सिद्धि
नहीं होती वह इसप्रकार :
आगमबलसे सकल पदार्थोंकी विस्पष्ट तर्कणा करता हुआ भी यदि जीव सकल
पदार्थोंके ज्ञेयाकारोंके साथ मिलित होनेवाला विशद एक ज्ञान जिसका आकार है ऐसे
आत्माको उसप्रकारसे प्रतीत नहीं करता तो यथोक्त आत्माके श्रद्धानसे शून्य होनेके कारण जो
यथोक्त आत्माका अनुभव नहीं करता ऐसा वह ज्ञेयनिमग्न ज्ञानविमूढ़ जीव कैसे ज्ञानी होगा ?
(नहीं होगा, वह अज्ञानी ही होगा
) और अज्ञानीको, ज्ञेयद्योतक होने पर भी, आगम क्या
करेगा ? (-आगम ज्ञेयोंका प्रकाशक होने पर भी वह अज्ञानीके लिये क्या कर सकता है ?)
इसलिये श्रद्धानशून्य आगमसे सिद्धि नहीं होती
और, सकल पदार्थोंके ज्ञेयाकारोंके साथ मिलित होता हुआ विशद एक ज्ञान जिसका
आकार है ऐसे आत्माका श्रद्धान करता हुआ भी, अनुभव करता हुआ भी यदि जीव अपनेमें
ही संयमित (-अंकुशित) होकर नहीं रहता, तो अनादि मोहरागद्वेषकी वासनासे जनित जो
परद्रव्यमें भ्रमण
उसके कारण जो स्वैरिणी (-स्वच्छंदी, व्यभिचारिणी) है ऐसी चिद्वृत्ति (-
चैतन्यकी परिणति) अपनेमें ही रहनेसे, वासनारहित निष्कंप एक तत्त्वमें लीन चिद्वृत्तिका
अभाव होनेसे, वह कैसे संयत होगा ? (नहीं होगा, असंयत ही होगा) और असंयतको, यथोक्त
१. तर्कणा = विचारणा; युक्ति इत्यादिके आश्रयवाला ज्ञान
२. मिलित होने वाला = मिश्रित होनेवाला; संबंधको प्राप्त; अर्थात् उन्हें जाननेवाला [समस्त पदार्थोंके
ज्ञेयाकार जिसमें प्रतिबिंबित होते हैं अर्थात् उन्हें जानता है ऐसा स्पष्ट एक ज्ञान ही आत्माका रूप है ]]

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असंयतस्य च यथोदितात्मतत्त्वप्रतीतिरूपं श्रद्धानं यथोदितात्मतत्त्वानुभूतिरूपं ज्ञानं वा किं
कुर्यात
ततः संयमशून्यात् श्रद्धानात् ज्ञानाद्वा नास्ति सिद्धिः अत आगमज्ञानतत्त्वार्थ-
श्रद्धानसंयतत्वानामयौगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं विघटेतैव ।।२३७।।
अथागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां यौगपद्येऽप्यात्मज्ञानस्य मोक्षमार्गसाधकतमत्वं
द्योतयति
जं अण्णाणी कम्मं खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं
तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ।।२३८।।
यदज्ञानी कर्म क्षपयति भवशतसहस्रकोटिभिः
तज्ज्ञानी त्रिभिर्गुप्तः क्षपयत्युच्छ्वासमात्रेण ।।२३८।।
श्रद्धानज्ञानसहितोऽपि पौरुषस्थानीयचारित्रबलेन रागादिविकल्परूपादसंयमाद्यदि न निवर्तते तदा तस्य
श्रद्धानं ज्ञानं वा किं कुर्यात्, न किमपीति
अतः एतदायातिपरमागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां
मध्ये द्वयेनैकेन वा निर्वाणं नास्ति, किंतु त्रयेणेति ।।२३७।। एवं भेदाभेदरत्नत्रयात्मकमोक्षमार्ग-
स्थापनमुख्यत्वेन द्वितीयस्थले गाथाचतुष्टयं गतम् किंच बहिरात्मावस्थान्तरात्मावस्थापरमात्मावस्था-
मोक्षावस्थात्रयं तिष्ठति अवस्थात्रयेऽनुगताकारं द्रव्यं तिष्ठति एवं परस्परसापेक्षद्रव्यपर्यायात्मको
जीवपदार्थः तत्र मोक्षकारणं चिन्त्यते मिथ्यात्वरागादिरूपा बहिरात्मावस्था तावदशुद्धा, मुक्तिकारणं
आत्मतत्त्वकी प्रतीतिरूप श्रद्धान या यथोक्त आत्मतत्त्वकी अनुभूतिरूप ज्ञान क्या करेगा ?
इसलिये संयमशून्य श्रद्धानसे या ज्ञानसे सिद्धि नहीं होती
इससे आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्त्वके अयुगपत्पनेको मोक्षमार्गपना घटित नहीं
होता ।।२३७।।
अब, आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्त्वका युगपत्पना होने पर भी, आत्मज्ञान
मोक्षमार्गका साधकतम (उत्कृष्ट साधक) है ऐसा समझाते हैं :
अन्वयार्थ :[यत् कर्म ] जो कर्म [अज्ञानी ] अज्ञानी [भवशतसहस्रकोटिभिः ]
लक्षकोटि भवोंमें [क्षपयति ] खपाता है, [तत् ] वह कर्म [ज्ञानी ] ज्ञानी [त्रिभिः गुप्तः ] तीन
प्रकार (मन
वचनकाय) से गुप्त होनेसे [उच्छ्वासमात्रेण ] उच्छ्वासमात्रमें [क्षपयति ] खपा
देता है ।।२३८।।
अज्ञानी जे कर्मो खपावे लक्ष कोटि भवो वडे,
ते कर्म ज्ञानी त्रिगुप्त बस उच्छ्वासमात्रथी क्षय करे. २३८
.

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यदज्ञानी कर्म क्रमपरिपाटया बालतपोवैचित्र्योपक्रमेण च पच्यमानमुपात्तरागद्वेषतया
सुखदुःखादिविकारभावपरिणतः पुनरारोपितसन्तानं भवशतसहस्रकोटीभिः कथंचन निस्तरति,
तदेव ज्ञानी स्यात्कारकेतनागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्यातिशयप्रसादासादितशुद्ध-
ज्ञानमयात्मतत्त्वानुभूतिलक्षणज्ञानित्वसद्भावात्कायवाङ्मनःकर्मोपरमप्रवृत्तत्रिगुप्तत्वात
् प्रचण्डोप-
न भवति मोक्षावस्था शुद्धा फलभूता, सा चाग्रे तिष्ठति एताभ्यां द्वाभ्यां भिन्ना यान्तरात्मावस्था
सा मिथ्यात्वरागादिरहितत्वेन शुद्धा यथा सूक्ष्मनिगोतज्ञाने शेषावरणे सत्यपि क्षयोपशमज्ञानावरणं
नास्ति तथात्रापि केवलज्ञानावरणे सत्यप्येकदेशक्षयोपशमज्ञानापेक्षया नास्त्यावरणम् यावतांशेन
निरावरणा रागादिरहितत्वेन शुद्धा च तावतांशेन मोक्षकारणं भवति तत्र शुद्धपारिणामिकभावरूपं
परमात्मद्रव्यं ध्येयं भवति, तच्च तस्मादन्तरात्मध्यानावस्थाविशेषात्कथंचिद्भिन्नम् यदैकान्तेनाभिन्नं
भवति तदा मोक्षेऽपि ध्यानं प्राप्नोति, अथवास्य ध्यानपर्यायस्य विनाशे सति तस्य पारिणामिक-
भावस्यापि विनाशः प्राप्नोति
एवं बहिरात्मान्तरात्मपरमात्मकथनरूपेण मोक्षमार्गो ज्ञातव्यः अथ
परमागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां भेदरत्नत्रयरूपाणां मेलापकेऽपि, यदभेदरत्नत्रयात्मकं निर्विकल्प-
समाधिलक्षणमात्मज्ञानं, निश्चयेन तदेव मुक्तिकारणमिति प्रतिपादयति
जं अण्णाणी कम्मं खवेदि
निर्विकल्पसमाधिरूपनिश्चयरत्नत्रयात्मकविशिष्टभेदज्ञानाभावादज्ञानी जीवो यत्कर्म क्षपयति काभिः
करणभूताभिः भवसयसहस्सकोडीहिं भवशतसहस्रकोटिभिः तं णाणी तिहिं गुत्तो तत्कर्म ज्ञानी जीवस्त्रि-
गुप्तिगुप्तः सन् खवेदि उस्सासमेत्तेण क्षपयत्युच्छ्वासमात्रेणेति तद्यथाबहिर्विषये परमागमाभ्यासबलेन
यत्सम्यक्परिज्ञानं तथैव श्रद्धानं व्रताद्यनुष्ठानं चेति त्रयं, तत्त्रयाधारेणोत्पन्नं सिद्धजीवविषये सम्यक्-
परिज्ञानं श्रद्धानं तद्गुणस्मरणानुकूलमनुष्ठानं चेति त्रयं, तत्त्रयाधारेणोत्पन्नं विशदाखण्डैकज्ञानाकारे

स्वशुद्धात्मनि परिच्छित्तिरूपं सविकल्पज्ञानं स्वशुद्धात्मोपादेयभूतरुचिविकल्परूपं सम्यग्दर्शनं तत्रैवात्मनि

रागादिविकल्पनिवृत्तिरूपं सविकल्पचारित्रमिति त्रयम्
तत्त्रयप्रसादेनोत्पन्नं यन्निर्विकल्पसमाधिरूपं
निश्चयरत्नत्रयलक्षणं विशिष्टस्वसंवेदनज्ञानं तदभावादज्ञानी जीवो बहुभवकोटिभिर्यत्कर्म क्षपयति,
टीका :जो कर्म (अज्ञानीको) क्रमपरिपाटीसे तथा अनेक प्रकारके बालतपादिरूप
उद्यमसे पकते हुए, रागद्वेषको ग्रहण किया होनेसे सुखदुःखादि विकारभावरूप परिणमित होनेसे
पुनः संतानको आरोपित करता जाय इसप्रकार, लक्षकोटिभवों द्वारा चाहे जिसप्रकार (-महा
कष्टसे) अज्ञानी पार कर जाता है, वही कर्म, (ज्ञानीको स्यात्कारकेतन आगमज्ञान,
तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्त्वके युगपत्पनेके अतिशयप्रसादसे प्राप्त की हुई शुद्धज्ञानमय
आत्मतत्त्वकी अनुभूति जिसका लक्षण है ऐसे ज्ञानीपनके सद्भावके कारण काय
वचनमनके
कर्मोंके उपरमसे त्रिगुप्तिता प्रवर्तमान होनेसे प्रचण्ड उद्यम से पकता हुआ, रागद्वेषके छोड़नेसे
समस्त सुखदुःखादि विकार अत्यन्त निरस्त हुआ होनेसे पुनःसंतानको आरोपित न करता जाय
१. उपरम = विराम, अटक जाना वह, रुक जाना वह; [ज्ञानीके ज्ञानीपनके कारण कायवचनमन संबंधी
कार्य रुक जानेसे त्रिगुप्तता प्रवर्तती है ]]

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क्रमपच्यमानमपहस्तितरागद्वेषतया दूरनिरस्तसमस्तसुखदुःखादिविकारः पुनरनारोपितसन्तान-
मुच्छ्वासमात्रेणैव लीलयैव पातयति
अत आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्येऽप्यात्म-
ज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनुमन्तव्यम् ।।२३८।।
अथात्मज्ञानशून्यस्य सर्वागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां यौगपद्यमप्यकिं चित्क र-
मित्यनुशास्ति
परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो
विज्जदि जदि सो सिद्धिं ण लहदि सव्वागमधरो वि ।।२३९।।
तत्कर्म ज्ञानी जीवः पूर्वोक्तज्ञानगुणसद्भावात् त्रिगुप्तिगुप्तः सन्नुच्छ्वासमात्रेण लीलयैव क्षपयतीति
ततो ज्ञायते परमागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां भेदरत्नत्रयरूपाणां सद्भावेऽप्यभेदरत्नत्रयरूपस्य स्व-
संवेदनज्ञानस्यैव प्रधानत्वमिति
।।२३८।। अथ पूर्वसूत्रोक्तात्मज्ञानरहितस्य सर्वागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धान-
इसप्रकार उच्छ्वासमात्रमें ही लीलासे ही ज्ञानी नष्ट कर देता है
इससे आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्त्वका युगपत्पना होने पर भी आत्मज्ञानको
ही मोक्षमार्गका साधकतम संमत करना
भावार्थ :अज्ञानीके क्रमशः तथा बालतपादिरूप उद्यमसे कर्म पकते हैं और
ज्ञानीपनके कारण होनेवाले त्रिगुप्ततारूप प्रचण्ड उद्यमसे कर्म पकते हैं; इसलिये
अज्ञानी जिस कर्मको अनेक शतसहस्रकोटि भवोंमें महाकष्टसे उल्लंघन (पार) कर पाता
है वही कर्म ज्ञानी उच्छ्वासमात्रमें ही, कौतुकमात्रमें ही नष्ट कर डालता है और अज्ञानीके
वह कर्म, सुखदुःखादिविकाररूप परिणमनके कारण, पुनः नूतन कर्मरूप संततिको छोड़ता जाता
है तथा ज्ञानीके सुखदुःखादिविकाररूप परिणमन न होनेसे वह क र्म पुनः नूतन कर्मरूप संततिको
नहीं छोड़ता जाता
इसलिये आत्मज्ञान ही मोक्षमार्गका साधकतम है ।।२३८।।
अब, ऐसा उपदेश करते हैं किआत्मज्ञानशून्यके सर्व आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान तथा
संयतत्त्वका युगपत्पना भी अकिंचित्कर है, (अर्थात् कुछ भी नहीं कर सकता) :
१. ज्ञानीपन = आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्त्वके युगपत्पनेके अतिशय प्रसादसे प्राप्त शुद्धज्ञानमय
आत्मतत्त्वकी अनुभूति ज्ञानीपनका लक्षण है
२. शतसहस्रकोटि = १०० × १००० × १०००००००
अणुमात्र पण मूर्छा तणो सद्भाव जो देहादिके,
तो सर्वआगमधर भले पण नव लहे सिद्धत्वने. २३९
.

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परमाणुप्रमाणं वा मूर्च्छा देहादिकेषु यस्य पुनः
विद्यते यदि स सिद्धिं न लभते सर्वागमधरोऽपि ।।२३९।।
यदि करतलामलकीकृतसकलागमसारतया भूतभवद्भावि च स्वोचितपर्यायविशिष्टम-
शेषद्रव्यजातं जानन्तमात्मानं जानन् श्रद्दधानः संयमयंश्चागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां
यौगपद्येऽपि मनाङ्मोहमलोपलिप्तत्वात
् यदा शरीरादिमूर्च्छोपरक्ततया निरुपरागोपयोगपरिणतं
कृत्वा ज्ञानात्मानमात्मानं नानुभवति तदा तावन्मात्रमोहमलकलंक कीलिकाकीलितैः कर्म-
भिरविमुच्यमानो न सिद्धयति
अत आत्मज्ञानशून्यमागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौग-
पद्यमप्यकिंचित्करमेव ।।२३९।।
संयतत्वानां यौगपद्यमप्यकिंचित्करमित्युपदिशतिपरमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो विज्जदि जदि
परमाणुमात्रं वा मूर्च्छा देहादिकेषु विषयेसु यस्य पुरुषस्य पुनर्विद्यते यदि चेत्, सो सिद्धिं ण लहदि
स सिद्धिं मुक्तिं न लभते
कथंभूतः सव्वागमधरो वि सर्वागमधरोऽपीति अयमत्रार्थःसर्वागमज्ञान-
तत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां यौगपद्ये सति यस्य देहादिविषये स्तोकमपि ममत्वं विद्यते तस्य पूर्वसूत्रोक्तं
निर्विकल्पसमाधिलक्षणं निश्चयरत्नत्रयात्मकं स्वसंवेदनज्ञानं नास्तीति
।।२३९।। अथ द्रव्यभाव-
संयमस्वरूपं कथयति
.
अन्वयार्थ :[पुनः ] और [यदि ] यदि [यस्य ] जिसके [देहादिकेषु ] शरीरादिके
प्रति [परमाणुप्रमाणं वा ] परमाणुमात्र भी [मूर्च्छा ] मूर्च्छा [विद्यते ] वर्तती हो तो [सः ] वह
[सर्वागमधरः अपि ] भले ही सर्वागमका धारी हो तथापि [सिद्धिं न लभते ] सिद्धिको प्राप्त
नहीं होता
।।२३९।।
टीका :सकल आगमके सारको हस्तामलकवत् करनेसे (-हथेलीमें रक्खे हुए
आंवलेके समान स्पष्ट ज्ञान होनेसे) जो पुरुष भूतवर्तमानभावी स्वोचित पर्यायोंके साथ
अशेष द्रव्यसमूहको जाननेवाले आत्माको जानता है, श्रद्धान करता है और संयमित रखता है,
उस पुरुषके आगमज्ञान
तत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्त्वका युगपत्पना होने पर भी, यदि वह
किंचित्मात्र भी मोहमलसे लिप्त होनेसे शरीरादिके प्रति (तत्संबंधी) मूर्च्छासे उपरक्त रहनेसे,
निरुपराग उपयोगमें परिणत करके ज्ञानात्मक आत्माका अनुभव नहीं करता, तो वह पुरुष मात्र
उतने (कुछ) मोहमलकलंकरूप कीलेके साथ बँधे हुए कर्मोंसे न छूटता हुआ सिद्ध नहीं
होता
इसलिये आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्त्वका युगपत्पना भी
१. स्वोचित = अपनेको उचित, अपनेअपने योग्य [आत्माका स्वभाव त्रिकालकी स्वोचित पर्यायों सहित
समस्त द्रव्योंको जानना है ]]
२. उपरक्त = मलिन; विकारी ३. निरुपराग = उपराग रहित; निर्मल; निर्विकार; शुद्ध

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अथागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्यात्मज्ञानयौगपद्यं साधयति
पंचसमिदो तिगुत्तो पंचेंदियसंवुडो जिदकसाओ
दंसणणाणसमग्गो समणो सो संजदो भणिदो ।।२४०।।
पञ्चसमितस्त्रिगुप्तः पञ्चेन्द्रियसंवृतो जितकषायः
दर्शनज्ञानसमग्रः श्रमणः स संयतो भणितः ।।२४०।।
यः खल्वनेकान्तकेतनागमज्ञानबलेन सकलपदार्थज्ञेयाकारकरंबितविशदैकज्ञानाकार-
मात्मानं श्रद्दधानोऽनुभवंश्चात्मन्येव नित्यनिश्चलां वृत्तिमिच्छन् समितिपंचकांकु शितप्रवृत्तिप्रवर्तित-
चागो य अणारंभो विसयविरागो खओ कसायाणं
सो संजमो त्ति भणिदो पव्वज्जाए विसेसेण ।।“३५।।
चागो य निजशुद्धात्मपरिग्रहं कृत्वा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहनिवृत्तिस्त्यागः अणारंभो निःक्रियनिज-
शुद्धात्मद्रव्ये स्थित्वा मनोवचनकायव्यापारनिवृत्तिरनारम्भः विसयविरागो निर्विषयस्वात्मभावनोत्थसुखे
तृप्तिं कृत्वा पञ्चेन्द्रियसुखाभिलाषत्यागो विषयविरागः खओ कसायाणं निःकषायशुद्धात्मभावनाबलेन
क्रोधादिकषायत्यागः कषायक्षयः सो संजमो त्ति भणिदो स एवंगुणविशिष्टः संयम इति भणितः
पव्वज्जाए विसेसेण सामान्येनापि तावदिदं संयमलक्षणं, प्रव्रज्यायां तपश्चरणावस्थायां विशेषेणेति
अत्राभ्यन्तरशुद्धात्मसंवित्तिर्भावसंयमो, बहिरङ्गनिवृत्तिश्च द्रव्यसंयम इति ।।“३५।। अथागमज्ञानतत्त्वार्थ-
अकिंचित्कर ही है ।।२३९।।
अब आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्त्वके युगपत्पनेके साथ आत्मज्ञानके
युगपत्पनेको साधते हैं; (अर्थात् आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्त्वइस त्रिकके साथ
आत्मज्ञानके युगपत्पनेको सिद्ध करते हैं ) :
अन्वयार्थ :[पंचसमितिः ] पाँच समितियुक्त, [पंचेन्द्रिय -संवृतः ] पांच इन्द्रियोंका
संवरवाला [त्रिगुप्तः ] तीन गुप्ति सहित, [जितकषायः ] कषायोंको जीतनेवाला,
[दर्शनज्ञानसमग्रः ] दर्शनज्ञानसे परिपूर्ण
[श्रमणः ] ऐसा जो श्रमण [सः ] वह [संयतः ]
संयत [भणितः ] कहा गया है ।।२४०।।
टीका :जो पुरुष अनेकान्तकेतन आगमज्ञानके बलसे, सकल पदार्थोंके
ज्ञेयाकारोंके साथ मिलित होता हुआ, विशद एक ज्ञान जिसका आकार है ऐसे आत्माका श्रद्धान
जे पंचसमित, त्रिगुप्त, इन्द्रिनिरोधी, विजयी कषायनो,
परिपूर्ण दर्शनज्ञानथी ते श्रमणने संयत कह्यो. २४०
.

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संयमसाधनीकृतशरीरपात्रः क्रमेण निश्चलनिरुद्धपंचेन्द्रियद्वारतया समुपरतकायवाङ्मनोव्यापारो
भूत्वा चिद्वृत्तेः परद्रव्यचंङ्क्र मणनिमित्तमत्यन्तमात्मना सममन्योन्यसंवलनादेकीभूतमपि
स्वभावभेदात्परत्वेन निश्चित्यात्मनैव कुशलो मल्ल इव सुनिर्भरं निष्पीडय निष्पीडय
कषायचक्रमक्रमेण जीवं त्याजयति, स खलु सकलपरद्रव्यशून्योऽपि विशुद्धदृशिज्ञप्तिमात्र-
स्वभावभूतावस्थापितात्मतत्त्वोपजातनित्यनिश्चलवृत्तितया साक्षात्संयत एव स्यात
तस्यैव
चागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्यात्मज्ञानयौगपद्यं सिद्धयति ।।२४०।।
श्रद्धानसंयतत्वानां त्रयाणां यत्सविकल्पं यौगपद्यं तथा निर्विकल्पात्मज्ञानं चेति द्वयोः संभवं दर्शयति
पंचसमिदो व्यवहारेण पञ्चसमितिभिः समितः संवृतः पञ्चसमितः, निश्चयेन तु स्वस्वरूपे सम्यगितो
गतः परिणतः समितः तिगुत्तो व्यवहारेण मनोवचनकायनिरोधत्रयेण गुप्तः त्रिगुप्तः, निश्चयेन स्वस्वरूपे
गुप्तः परिणतः पंचेंदियसंवुडो व्यवहारेण पञ्चेन्द्रियविषयव्यावृत्त्या संवृतः पञ्चेन्द्रियसंवृतः, निश्चयेन
वातीन्द्रियसुखस्वादरतः जिदकसाओ व्यवहारेण क्रोधादिकषायजयेन जितकषायः, निश्चयेन
चाकषायात्मभावनारतः दंसणणाणसमग्गो अत्र दर्शनशब्देन निजशुद्धात्मश्रद्धानरूपं सम्यग्दर्शनं ग्राह्यम्,
ज्ञानशब्देन तु स्वसंवेदनज्ञानमिति; ताभ्यां समग्रो दर्शनज्ञानसमग्रः समणो सो संजदो भणिदो
एवंगुणविशिष्टः श्रमण संयत इति भणितः अत एतदायातंव्यवहारेण यद्बहिर्विषये व्याख्यानं कृतं
तेन सविकल्पं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रययौगपद्यं ग्राह्यम्; अभ्यन्तरव्याख्यानेन तु निर्विकल्पात्मज्ञानं
ग्राह्यमिति सविकल्पयौगपद्यं निर्विकल्पात्मज्ञानं च घटत इति
।।२४०।। अथागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धान-
संयतत्वलक्षणेन विकल्पत्रययौगपद्येन तथा निर्विकल्पात्मज्ञानेन च युक्तो योऽसौ संयतस्तस्य किं
लक्षणमित्युपदिशति
इत्युपदिशति कोऽर्थः इति पृष्टे प्रत्युत्तरं ददाति एवं प्रश्नोत्तरपातनिकाप्रस्तावे
१. मर्दन कर करके = दबा दबाके, कचर कचरके, दमन करके
२. आत्मतत्त्वका स्वभाव विशुद्धदर्शनज्ञानमात्र है
और अनुभव करता हुआ आत्मामें ही नित्यनिश्चल वृत्तिको इच्छता हुआ, संयमके साधनरूप
बनाये हुए शरीरपात्रको पाँच समितियोंसे अंकुशित प्रवृत्ति द्वारा प्रवर्तित करता हुआ, क्रमशः
पंचेन्द्रियोंके निश्चल निरोध द्वारा जिसके काय
वचनमनका व्यापार विरामको प्राप्त हुआ है ऐसा
होकर, चिद्वृत्तिके लिये परद्रव्यमें भ्रमणका निमित्त जो कषायसमूह वह आत्माके साथ अन्योन्य
मिलनके कारण अत्यन्त एकरूप हो जाने पर भी स्वभावभेदके कारण उसे पररूपसे निश्चित
करके आत्मासे ही कुशल मल्लकी भाँति अत्यन्त
मर्दन कर करके अक्रमसे उसे मार डालता
है, वह पुरुष वास्तवमें, सकल परद्रव्यसे शून्य होने पर भी विशुद्ध दर्शनज्ञानमात्र स्वभावरूपसे
रहनेवाले आत्मतत्त्व (-स्वद्रव्य) में नित्यनिश्चल परिणति उत्पन्न होनेसे, साक्षात् संयत ही है
और उसे ही आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्त्वके युगपत्पनेका तथा आत्मज्ञानका युगपत्पना
सिद्ध होता है ।।२४०।।