Pravachansar (Hindi). Gatha: 241-255 ; Shubhopayog pragnyapan.

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अथास्य सिद्धागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्यात्मज्ञानयौगपद्यसंयतस्य कीदृग्लक्षण-
मित्यनुशास्ति
समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो
समलोट्ठुकं चणो पुण जीविदमरणे समो समणो ।।२४१।।
समशत्रुबन्धुवर्गः समसुखदुःखः प्रशंसानिन्दासमः
समलोष्टकाञ्चनः पुनर्जीवितमरणे समः श्रमणः ।।२४१।।
संयमः सम्यग्दर्शनज्ञानपुरःसरं चारित्रं, चारित्रं धर्मः, धर्मः साम्यं, साम्यं मोहक्षोभ-
विहीनः आत्मपरिणामः ततः संयतस्य साम्यं लक्षणम् तत्र शत्रुबन्धुवर्गयोः सुखदुःखयोः
प्रशंसानिन्दयोः लोष्टकांचनयोर्जीवितमरणयोश्च समम् अयं मम परोऽयं स्वः, अयं मह्लादोऽयं
परितापः, इदं ममोत्कर्षणमिदमपकर्षणमयं ममाकिंचित्कर इदमुपकारकमिदं ममात्मधारणमय-
क्वापि क्वापि यथासंभवमितिशब्दस्यार्थो ज्ञातव्यःस श्रमणः संयतस्तपोधनो भवति यः किंविशिष्टः
शत्रुबन्धुसुखदुःखनिन्दाप्रशंसालोष्टकाञ्चनजीवितमरणेषु समः समचित्तः इति ततः एतदायातिशत्रु-
बन्धुसुखदुःखनिन्दाप्रशंसालोष्टकाञ्चनजीवितमरणसमताभावनापरिणतनिजशुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धान-
अब, आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्त्वके युगपत्पनेका तथा आत्मज्ञानका
युगपत्पना जिसे सिद्ध हुआ है ऐसे इस संयतका क्या लक्षण है सो कहते हैं :
अन्वयार्थ :[समशत्रुबन्धुवर्गः ] जिसे शत्रु और बन्धु वर्ग समान है,
[समसुखदुःखः ] सुख और दुःख समान है, [प्रशंसानिन्दासमः ] प्रशंसा और निन्दाके प्रति जिसको
समता है, [समलोष्टकाञ्चनः ] जिसे लोष्ट (मिट्टीका ढेला) और सुवर्ण समान है, [पुनः ] तथा
[जीवितमरणे समः ] जीवन
मरणके प्रति जिसको समता है, वह [श्रमणः ] श्रमण है ।।२४१।।
टीका :संयम, सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वक चारित्र है; चारित्र धर्म है; धर्म साम्य है; साम्य
मोहक्षोभ रहित आत्मपरिणाम है इसलिये संयतका, साम्य लक्षण है
वहाँ, (१) शत्रुबंधुवर्गमें, (२) सुखदुःखमें, (३) प्रशंसानिन्दामें, (४) मिट्टीके
ढेले और सोनेमें, (५) जीवितमरणमें एक ही साथ, (१) ‘यह मेरा पर (-शत्रु) है, यह
स्व (-स्वजन) है;’ (२) ‘यह आह्लाद है, यह परिताप है,’ (३) ‘यह मेरा उत्कर्षण
(-कीर्ति) है, यह अपकर्षण (-अकीर्ति) है,’ (४) ‘यह मुझे अकिंचित्कर है, यह उपकारक
(-उपयोगी) है,’ (५) ‘यह मेरा स्थायित्व है, यह अत्यन्त विनाश है’ इसप्रकार मोहके
निंदाप्रशंसा, दुःखसुख, अरिबंधुमां ज्यां साम्य छे,
वळी लोष्टकनके, जीवितमरणे साम्य छे, ते श्रमण छे. २४१.

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मत्यन्तविनाश इति मोहाभावात् सर्वत्राप्यनुदितरागद्वेषद्वैतस्य, सततमपि विशुद्धद्रष्टिज्ञप्ति-
स्वभावमात्मानमनुभवतः, शत्रुबन्धुसुखदुःखप्रशंसानिन्दालोष्टकांचनजीवितमरणानि निर्विशेषमेव
ज्ञेयत्वेनाक्रम्य ज्ञानात्मन्यात्मन्यचलितवृत्तेर्यत्किल सर्वतः साम्यं तत्सिद्धागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धान-
संयतत्वयौगपद्यात्मज्ञानयौगपद्यस्य संयतस्य लक्षणमालक्षणीयम्
।।२४१।।
अथेदमेव सिद्धागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्यात्मज्ञानयौगपद्यसंयतत्वमैकाग््रय-
लक्षणश्रामण्यापरनाम मोक्षमार्गत्वेन समर्थयति
दंसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुट्ठिदो जो दु
एयग्गगदो त्ति मदो सामण्णं तस्स पडिपुण्णं ।।२४२।।
दर्शनज्ञानचरित्रेषु त्रिषु युगपत्समुत्थितो यस्तु
ऐकाग््रयगत इति मतः श्रामण्यं तस्य परिपूर्णम् ।।२४२।।
ज्ञानानुष्ठानरूपनिर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्ननिर्विकारपरमाह्लादैकलक्षणसुखामृतपरिणतिस्वरूपं यत्परमसाम्यं
तदेव परमागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां यौगपद्येन तथा निर्विकल्पात्मज्ञानेन च परिणततपोधनस्य

लक्षणं ज्ञातव्यमिति
।।२४१।। अथ यदेव संयततपोधनस्य साम्यलक्षणं भणितं तदेव श्रामण्यापरनामा
अभावके कारण सर्वत्र जिससे रागद्वेषका द्वैत प्रगट नहीं होता, जो सतत विशुद्धदर्शनज्ञानस्वभाव
आत्माका अनुभव करता है, और (इसप्रकार) शत्रु
बन्धु, सुखदुःख, प्रशंसानिन्दा, लोष्ट
कांचन और जीवितमरणको निर्विशेषयता ही (अन्तरके बिना ही) ज्ञेयरूप जानकर ज्ञानात्मक
आत्मामें जिसकी परिणति अचलित हुई है; उस पुरुषको वास्तवमें जो सर्वतः साम्य है वह
(साम्य) संयतका लक्षण समझना चाहिये
कि जिस संयतके आत्मज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धान
संयतत्त्वके युगपत्पनेका और आत्मज्ञानका युगपत्पना सिद्ध हुआ है ।।२४१।।
अब, यह समर्थन करते हैं कि आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्त्वके युगपत्पनेके साथ
आत्मज्ञानके युगपत्पनेकी सिद्धिरूप जो यह संयतपना है वही मोक्षमार्ग है, जिसका दूसरा नाम
एकाग्रतालक्षणवाला श्रामण्य है :
अन्वयार्थ :[यः तु ] जो [दर्शनज्ञानचरित्रेषु ] दर्शन, ज्ञान और चारित्र[त्रिषु ]
इन तीनोंमें [युगपत् ] एक ही साथ [समुत्थितः ] आरूढ़ है, वह [ऐकाग्रयगतः ] एकाग्रताको
प्राप्त है
[इति ] इसप्रकार [मतः ] (शास्त्रमें) कहा है [तस्य ] उसके [श्रामण्यं ] श्रामण्य
[परिपूर्णम् ] परिपूर्ण है ।।२४२।।
द्रग, ज्ञान ने चारित्र त्रणमां युगपदे आरूढ जे,
तेने कह्यो ऐकाग्य्रागत; श्रामण्य त्यां परिपूर्ण छे. २४२.
प्र. ५७

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ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथाप्रतीतिलक्षणेन सम्यग्दर्शनपर्यायेण, ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथानुभूतिलक्षणेन
ज्ञानपर्यायेण, ज्ञेयज्ञातृक्रियान्तरनिवृत्तिसूत्र्यमाणद्रष्टृज्ञातृतत्त्ववृत्तिलक्षणेन चारित्रपर्यायेण च,
त्रिभिरपि यौगपद्येन भाव्यभावकभावविजृम्भितातिनिर्भ̄रेतरेतरसंवलनबलादंगांगिभावेन
परिणतस्यात्मनो यदात्मनिष्ठत्वे सति संयतत्वं तत्पानकवदनेकात्मकस्यैकस्यानुभूयमान-
तायामपि समस्तपरद्रव्यपरावर्तत्वादभिव्यक्तैकाग
्रयलक्षणश्रामण्यापरनामा मोक्षमार्ग एवाव-
मोक्षमार्गो भण्यत इति प्ररूपयतिदंसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुट्ठिदो जो दु दर्शनज्ञानचारित्रेषु त्रिषु
युगपत्सम्यगुपस्थित उद्यतो यस्तु कर्ता, एयग्गगदो त्ति मदो स ऐकाग्रयगत इति मतः संमतः,
सामण्णं तस्स पडिपुण्णं श्रामण्यं चारित्रं यतित्वं तस्य परिपूर्णमिति तथाहिभावकर्मद्रव्य-
कर्मनोकर्मभ्यः शेषपुद्गलादिपञ्चद्रव्येभ्योऽपि भिन्नं सहजशुद्धनित्यानन्दैकस्वभावं मम संबन्धि यदात्म-
द्रव्यं तदेव ममोपादेयमितिरुचिरूपं सम्यग्दर्शनम्, तत्रैव परिच्छित्तिरूपं सम्यग्ज्ञानं, तस्मिन्नेव स्वरूपे

निश्चलानुभूतिलक्षणं चारित्रं चेत्युक्तस्वरूपं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयं पानकवदनेकमप्यभेदनयेनैकं यत्

तत्सविकल्पावस्थायां व्यवहारेणैकाग्
यं भण्यते ।। निर्विकल्पसमाधिकाले तु निश्चयेनेति ।। तदेव च
टीका :ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्वकी तथाप्रकार (जैसी है वैसी ही, यथार्थ) प्रतीति
जिसका लक्षण है वह सम्यग्दर्शनपर्याय है; ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्वकी तथाप्रकार अनुभूति
जिसका लक्षण है वह ज्ञानपर्याय है; ज्ञेय और ज्ञाताकी
क्रियान्तरसे निवृत्तिके द्वारा रचित
दृष्टिज्ञातृतत्त्वमें परिणति जिसका लक्षण है वह चारित्रपर्याय है इन पर्यायोंके और आत्माके
भाव्यभावकताके द्वारा उत्पन्न अति गाढ़ इतरेतर मिलनके बलके कारण इन तीनों पर्यायरूप
युगपत् अंगअंगीभावसे परिणत आत्माके, आत्मनिष्ठता होने पर जो संयतत्त्व होता है वह
संयतपना एकाग्रतालक्षणवाला श्रामण्य जिसका दूसरा नाम है ऐसा मोक्षमार्ग ही हैऐसा
जानना चाहिये, क्योंकि वहाँ (संयतपनेमें) पेयकी भाँति अनेकात्मक एकका अनुभव होने
१. क्रियांतर = अन्य क्रिया; [ज्ञेय और ज्ञाता अन्य क्रियासे निवृत्त हो उसके कारण होनेवाली जो द्रष्टाज्ञाता
आत्मतत्त्वमें परिणति वह चारित्रपर्यायका लक्षण है ]]
२. भावक अर्थात् होनेवाला, और भावक जिसरूप हो सो भाव्य है आत्मा भावक है और सम्यग्दर्शनादि
पर्यायें भाव्यक हैं भावक और भाव्यका परस्पर अति गाढ़ मिलन (एकमेकता) होता है भावक आत्मा
अंगी है और भाव्यरूप सम्यग्दर्शनादि पर्यायें उसका अंग है
३. पेय = पीनेकी वस्तु, जैसे ठंडाई [ठंडाईका स्वाद अनेकात्मक एक होता है; क्योंकि अभेदसे उसमें
एक ठंडाईका ही स्वाद आता है, और भेदसे उसमें दूध, शक्कर, सोंफ , कालीमिर्च तथा बादाम आदि
अनेक वस्तुओंका स्वाद आता है
]
४. यहाँ अनेकात्मक एकके अनुभवमें जो अनेकात्मकता है वह परद्रव्यमय नहीं है वहाँ परद्रव्योंसे तो निवृत्ति
ही है; मात्र सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप स्वअंशोंके कारण ही अनेकात्मकता है इसलिये वहाँ,
अनेकात्मकता होने पर भी एकाग्रता (एकअग्रता) प्रगट है

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गन्तव्यः तस्य तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति भेदात्मकत्वात्पर्यायप्रधानेन
व्यवहारनयेन, ऐकाग््रयं मोक्षमार्ग इत्यभेदात्मकत्वाद् द्रव्यप्रधानेन निश्चयनयेन, विश्वस्यापि
भेदाभेदात्मकत्वात्तदुभयमिति प्रमाणेन प्रज्ञप्तिः ।।२४२।।
इत्येवं प्रतिपत्तुराशयवशादेकोऽप्यनेकीभवं
स्त्रैलक्षण्यमथैकतामुपगतो मार्गोऽपवर्गस्य यः
द्रष्टृज्ञातृनिबद्धवृत्तिमचलं लोकस्तमास्कन्दता-
मास्कन्दत्यचिराद्विकाशमतुलं येनोल्लसन्त्याश्चितेः
।।१६।।
नामान्तरेण परमसाम्यमिति तदेव परमसाम्यं पर्यायनामान्तरेण शुद्धोपयोगलक्षणः श्रामण्यापरनामा
मोक्षमार्गो ज्ञातव्य इति तस्य तु मोक्षमार्गस्य सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति भेदात्मकत्वा-
त्पर्यायप्रधानेन व्यवहारनयेन निर्णयो भवति ऐकाग्रयं मोक्षमार्ग इत्यभेदात्मकत्वात् द्रव्यप्रधानेन
निश्चयनयेन निर्णयो भवति समस्तवस्तुसमूहस्यापि भेदाभेदात्मकत्वान्निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गद्वयस्यापि
प्रमाणेन निश्चयो भवतीत्यर्थः ।।२४२।। एवं निश्चयव्यवहारसंयमप्रतिपादनमुख्यत्वेन तृतीयस्थले
गाथाचतुष्टयं गतम् अथ यः स्वशुद्धात्मन्येकाग्रो न भवति तस्य मोक्षाभावं दर्शयतिमुज्झदि वा रज्जदि
पर भी, समस्त परद्रव्यसे निवृत्ति होनेसे एकाग्रता अभिव्यक्त (प्रगट) है
वह (संयतत्त्वरूप अथवा श्रामण्यरूप मोक्षमार्ग) भेदात्मक होनेसे ‘सम्यग्दर्शनज्ञान
चारित्र मोक्षमार्ग है’ इसप्रका पर्यायप्रधान व्यवहारनयसे उसका प्रज्ञापन है; वह (मोक्षमार्ग)
अभेदात्मक होनेसे ‘एकाग्रता मोक्षमार्ग है’ इसप्रकार द्रव्यप्रधान निश्चयनयसे उसका प्रज्ञापन है;
समस्त ही पदार्थ भेदाभेदात्मक होनेसे वे दोनों, (सम्यग्दर्शन
ज्ञानचारित्र तथा एकाग्रता)
मोक्षमार्ग है’ इसप्रकार प्रमाणसे उसका प्रज्ञापन है ।।२४२।।
[अब श्लोक द्वारा मोक्षप्राप्तिके लिये द्रष्टाज्ञातामें लीनता करनेको कहा जाता है ]
अर्थ :इसप्रकार, प्रतिपादकके आशयके वश, एक होने पर भी अनेक होता हुआ
(अभेदप्रधान निश्चयनयसे एकएकाग्रतारूपहोता हुआ भी वक्ताके अभिप्रायानुसार
भेदप्रधान व्यवहारनयसे अनेक भीदर्शन -ज्ञान -चारित्ररूप भीहोता होनेसे) एकता
(एकलक्षणता) को तथा त्रिलक्षणताको प्राप्त जो अपवर्ग (मोक्ष) का मार्ग उसे लोक द्रष्टा
ज्ञातामें परिणति बांधकर (-लीन करके) अचलरूपसे अवलम्बन करे, जिससे वह (लोक)
उल्लसित चेतनाके अतुल विकासको अल्पकालमें प्राप्त हो
शार्दूलविक्रीडित छंद.
१. द्रव्यप्रधान निश्चयनयसे मात्र एकाग्रता ही एक मोक्षमार्गका लक्षण है
२. पर्यायप्रधान व्यवहारनयसे दर्शन -ज्ञान -चारित्ररूप त्रिक मोक्षमार्गका लक्षण है

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अथानैकाग््रयस्य मोक्षमार्गत्वं विघटयति
मुज्झदि वा रज्जदि वा दुस्सदि वा दव्वमण्णमासेज्ज
जदि समणो अण्णाणी बज्झदि कम्मेहिं विविहेहिं ।।२४३।।
मुह्यति वा रज्यति वा द्वेष्टि वा द्रव्यमन्यदासाद्य
यदि श्रमणोऽज्ञानी बध्यते कर्मभिर्विविधैः ।।२४३।।
यो हि न खलु ज्ञानात्मानमात्मानमेकमग्रं भावयति, सोऽवश्यं ज्ञेयभूतं
द्रव्यमन्यदासीदति तदासाद्य च ज्ञानात्मात्मज्ञानाद्भ्रष्टः स्वयमज्ञानीभूतो मुह्यति वा, रज्यति
वा, द्वेष्टि वा; तथाभूतश्च बध्यत एव, न तु विमुच्यते अत अनैकाग््रयस्य न मोक्षमार्गत्वं
सिद्धयेत।।२४३।।
वा दुस्सदि वा दव्वमण्णमासेज्ज जदि मुह्यति वा, रज्यति वा, द्वेष्टि वा, यदि चेत् किं कृत्वा
द्रव्यमन्यदासाद्य प्राप्य स कः समणो श्रमणस्तपोधनः तदा काले अण्णाणी अज्ञानी भवति अज्ञानी
सन् बज्झदि कम्मेहिं विविहेहिं बध्यते कर्मभिर्विविधैरिति तथाहियो निर्विकारस्वसंवेदनज्ञानेनैकाग्रो
भूत्वा स्वात्मानं न जानाति तस्य चित्तं बहिर्विषयेषु गच्छति ततश्चिदानन्दैकनिजस्वभावाच्च्युतो भवति
ततश्च रागद्वेषमोहैः परिणमति तत्परिणमन् बहुविधकर्मणा बध्यत इति ततः कारणान्मोक्षार्थिभि-
रेकाग्रत्वेन स्वस्वरूपं भावनीयमित्यर्थः ।।२४३।। अथ निजशुद्धात्मनि योऽसावेकाग्रस्तस्यैव मोक्षो
अब ऐसा दरशाते हैं किअनेकाग्रताके मोक्षमार्गपना घटित नहीं होता (अर्थात्
अनेकाग्रता मोक्षमार्ग नहीं है ) :
अन्वयार्थ :[यदि ] यदि [श्रमणः ] श्रमण, [अन्यत् द्रव्यम् आसाद्य ] अन्य
द्रव्यका आश्रय करके [अज्ञानी ] अज्ञानी होता हुआ, [मुह्यति वा ] मोह करता है, [रज्यति
वा ]
राग करता है, [द्वेष्टि वा ] अथवा द्वेष करता है, तो वह [विविधैः कर्मभिः ] विविध
कर्मोंसे [बध्यते ] बँधता है
।।२४३।।
टीका :जो वास्तवमें ज्ञानात्मक आत्मारूप एक अग्र (-विषय) को नहीं भाता, वह
अवश्य ज्ञेयभूत अन्य द्रव्यका आश्रय करता है, और उसका आश्रय करके, ज्ञानात्मक आत्माके
ज्ञानसे भ्रष्ट वह स्वयं अज्ञानी होता हुआ मोह करता है, राग करता है, अथवा द्वेष करता है; और
ऐसा (-मोही रागी अथवा द्वेषी) होता हुआ बंधको ही प्राप्त होता है; परन्तु मुक्त नहीं होता
इससे अनेकाग्रताको मोक्षमार्गपना सिद्ध नहीं होता ।।२४३।।
परद्रव्यने आश्रय श्रमण अज्ञानी पामे मोहने
वा रागने वा द्वेषने, तो विविध बांधे कर्मने. २४३
.

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अथैकाग््रयस्य मोक्षमार्गत्वमवधारयन्नुपसंहरति
अट्ठेसु जो ण मुज्झदि ण हि रज्जदि णेव दोसमुवयादि
समणो जदि सो णियदं खवेदि कम्माणि विविहाणि ।।२४४।।
अर्थेषु यो न मुह्यति न हि रज्यति नैव द्वेषमुपयाति
श्रमणो यदि स नियतं क्षपयति कर्माणि विविधानि ।।२४४।।
यस्तु ज्ञानात्मानमात्मानमेकमग्रं भावयति, स न ज्ञेयभूतं द्रव्यमन्यदासीदति
तदनासाद्य च ज्ञानात्मात्मज्ञानादभ्रष्टः स्वयमेव ज्ञानीभूतस्तिष्ठन्न मुह्यति, न रज्यति, न द्वेष्टि;
भवतीत्युपदिशतिअट्ठेसु जो ण मुज्झदि ण हि रज्जदि णेव दोसमुवयादि अर्थेषु बहिःपदार्थेषु यो न मुह्यति,
न रज्यति, हि स्फु टं, नैव द्वेषमुपयाति, जदि यदि चेत्, सो समणो स श्रमणः णियदं निश्चितं खवेदि
विविहाणि कम्माणि क्षपयति कर्माणि विविधानि इति अथ विशेषःयोऽसौ दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकाङ्क्षा-
रूपाद्यपध्यानत्यागेन निजस्वरूपं भावयति, तस्य चित्तं बहिःपदार्थेषु न गच्छति, ततश्च बहिःपदार्थ-
चिन्ताभावान्निर्विकारचिच्चमत्कारमात्राच्च्युतो न भवति
तदच्यवनेन च रागाद्यभावाद्विविधकर्माणि
विनाशयतीति ततो मोक्षार्थिना निश्चलचित्तेन निजात्मनि भावना कर्तव्येति इत्थं वीतरागचारित्र-
व्याख्यानं श्रुत्वा केचन वदन्तिसयोगिकेवलिनामप्येकदेशेन चारित्रं, परिपूर्णचारित्रं पुनरयोगिचरम-
समये भविष्यति, तेन कारणेनेदानीमस्माकं सम्यक्त्वभावनया भेदज्ञानभावनया च पूर्यते, चारित्रं
पश्चाद्भविष्यतीति
नैवं वक्तव्यम् अभेदनयेन ध्यानमेव चारित्रं, तच्च ध्यानं केवलिनामुपचारेणोक्तं ,
चारित्रमप्युपचारेणेति यत्पुनः समस्तरागादिविकल्पजालरहितं शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं सम्यग्दर्शनज्ञान-
अब एकाग्रता वह मोक्षमार्ग है ऐसा (आचार्य महाराज) निश्चित करते हुए (मोक्षमार्ग
प्रज्ञापनका) उपसंहार करते हैं :
अन्वयार्थ :[यदि यः श्रमणः ] यदि श्रमण [अर्थेषु ] पदार्थोंमें [न मुह्यति ] मोह
नहीं करता, [न हि रज्यति ] राग नहीं करता, [न एव द्वेषम् उपयाति ] और न द्वेषको प्राप्त
होता है [सः ] तो वह [नियतं ] नियमसे (निश्चित) [विविधानि कर्माणि ] विविध कर्मोंको
[क्षपयति ] खपाता है
।।२४३।।
टीका :जो ज्ञानात्मक आत्मारूप एक अग्र (-विषय) को भाता है वह ज्ञेयभूत अन्य
द्रव्यका आश्रय नहीं करता; और उसका आश्रय नहीं करके ज्ञानात्मक आत्माके ज्ञानसे अभ्रष्ट ऐसा
नहि मोह, ने नहि राग, द्वेष करे नहीं अर्थो विषे,
तो नियमथी मुनिराज ए विधविध कर्मो क्षय करे. २४४
.

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तथाभूतः सन् मुच्यत एव, न तु बध्यते अत ऐकाग््रयस्यैव मोक्षमार्गत्वं सिद्धयेत।।२४४।।
इति मोक्षमार्गप्रज्ञापनम् ।।
अथ शुभोपयोगप्रज्ञापनम् तत्र शुभोपयोगिनः श्रमणत्वेनान्वाचिनोति
समणा सुद्धुवजुत्ता सुहोवजुत्ता य होंति समयम्हि
तेसु वि सुद्धुवजुत्ता अणासवा सासवा सेसा ।।२४५।।
श्रमणाः शुद्धोपयुक्ताः शुभोपयुक्ताश्च भवन्ति समये
तेष्वपि शुद्धोपयुक्ता अनास्रवाः सास्रवाः शेषाः ।।२४५।।
पूर्वकं वीतरागछद्मस्थचारित्रं तदेव कार्यकारीति कस्मादिति चेत् तेनैव केवलज्ञानं जायते
यतस्तस्माच्चारित्रे तात्पर्यं कर्तव्यमिति भावार्थः किंच उत्सर्गव्याख्यानकाले श्रामण्यं व्याख्यातमत्र
पुनरपि किमर्थमिति परिहारमाहतत्र सर्वपरित्यागलक्षण उत्सर्ग एव मुख्यत्वेन च मोक्षमार्गः, अत्र
तु श्रामण्यव्याख्यानमस्ति, परं किंतु श्रामण्यं मोक्षमार्गो भवतीति मुख्यत्वेन विशेषोऽस्ति ।।२४४।। एवं
श्रामण्यापरनाममोक्षमार्गोपसंहारमुख्यत्वेन चतुर्थस्थले गाथाद्वयं गतम् अथ शुभोपयोगिनां
सास्रवत्वाद्वयवहारेण श्रमणत्वं व्यवस्थापयतिसंति विद्यन्ते क्व समयम्हि समये परमागमे के
सन्ति समणा श्रमणास्तपोधनाः किंविशिष्टाः सुद्धुवजुत्ता शुद्धोपयोगयुक्ताः शुद्धोपयोगिन इत्यर्थः
सुहोवजुत्ता य न केवलं शुद्धोपयोगयुक्ताः, शुभोपयोगयुक्ताश्र्च चकारोऽत्र अन्वाचयार्थे गौणार्थे
वह स्वयमेव ज्ञानीभूत रहता हुआ, मोह नहीं करता, राग नहीं करता, द्वेष नहीं करता, और ऐसा
(-अमोही, अरागी, अद्वेषी) वर्तता हुआ (वह) मुक्त ही होता है, परन्तु बँधता नहीं है
इससे एकाग्रताको ही मोक्षमार्गत्व सिद्ध होता है ।।२४४।।
इसप्रकार मोक्षमार्ग -प्रज्ञापन समाप्त हुआ
अब, शुभोपयोगका प्रज्ञापन करते हैं उसमें (प्रथम), शुभोपयोगियोंको श्रमणरूपमें
गौणतया बतलाते हैं
अन्वयार्थ :[समये ] शास्त्रमें (ऐसा कहा है कि), [शुद्धोपयुक्ताः श्रमणाः ]
शुद्धोपयोगी वे श्रमण हैं, [शुभोपयुक्ताः च भवन्ति ] शुभोपयोगी भी श्रमण होते हैं; [तेषु अपि ]
उनमें भी [शुद्धोपयुक्ताः अनास्रवाः ] शुद्धोपयोगी निरास्रव हैं, [शेषाः सास्रवाः ] शेष सास्रव
हैं, (अर्थात् शुभोपयोगी आस्रव सहित हैं
) ।।२४५।।
शुद्धोपयोगी श्रमण छे, शुभयुक्त पण शास्त्रे कह्या;
शुद्धोपयोगी छे निरास्रव, शेष सास्रव जाणवा. २४५
.

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ये खलु श्रामण्यपरिणतिं प्रतिज्ञायापि, जीवितकषायकणतया, समस्तपरद्रव्यनिवृत्ति-
प्रवृत्तसुविशुद्धदृशिज्ञप्तिस्वभावात्मतत्त्ववृत्तिरूपां शुद्धोपयोगभूमिकामधिरोढुं न क्षमन्ते, ते
तदुपकण्ठनिविष्टाः, कषायकुण्ठीकृतशक्तयो, नितान्तमुत्कण्ठुलमनसः, श्रमणाः किं भवेयुर्न
वेत्यत्राभिधीयते
‘धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो पावदि णिव्वाणसुहं
सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं ।।’ इति स्वयमेव निरूपितत्वादस्ति तावच्छुभोपयोगस्य धर्मेण
सहैकार्थसमवायः ततः शुभोपयोगिनोऽपि धर्मसद्भावाद्भवेयुः श्रमणाः किन्तु तेषां
शुद्धोपयोगिभिः समं समकाष्ठत्वं न भवेत्, यतः शुद्धोपयोगिनो निरस्तसमस्तकषायत्वाद-
ग्राह्यः तत्र दृष्टान्तःयथा निश्चयेन शुद्धबुद्धैकस्वभावाः सिद्धजीवा एव जीवा भण्यते, व्यवहारेण
चतुर्गतिपरिणता अशुद्धजीवाश्च जीवा इति; तथा शुद्धोपयोगिनां मुख्यत्वं, शुभोपयोगिनां तु
चकारसमुच्चयव्याख्यानेन गौणत्वम्
कस्माद्गौणत्वं जातमिति चेत् तेसु वि सुद्धुवजुत्ता अणासवा सासवा
सेसा तेष्वपि मध्ये शुद्धोपयोगयुक्ता अनास्रवाः, शेषाः सास्रवा इति यतः कारणात् तद्यथानिज-
शुद्धात्मभावनाबलेन समस्तशुभाशुभसंकल्पविक ल्परहितत्वाच्छुद्धोपयोगिनो निरास्रवा एव, शेषाः
टीका :जो वास्तवमें श्रामण्यपरिणतिकी प्रतिज्ञा करके भी, कषाय कणके जीवित
(विद्यमान) होनेसे, समस्त परद्रव्यसे निवृत्तिरूपसे प्रवर्तमान ऐसी जो
सुविशुद्धदर्शनज्ञानस्वभाव आत्मतत्त्वमें परिणतिरूप शुद्धोपयोगभूमिका उसमें आरोहण करनेको
असमर्थ हैं; वे (शुभोपयोगी) जीवजो कि शुद्धोपयोगभूमिकाके उपकंठ निवास कर रहे
हैं, और कषायने जिनकी शक्ति कुण्ठित की है, तथा जो अत्यन्त उत्कण्ठित (-आतुर) मनवाले
हैं, वे
श्रमण हैं या नहीं, यह यहाँ कहा जाता हैं :
धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व
सग्गसुहं ।। इसप्रकार (भगवान कुन्दकुन्दाचार्यने ११वीं गाथामें) स्वयं ही निरूपण किया है,
इसलिये शुभोपयोगका धर्मके साथ एकार्थसमवाय है इसलिये शुभोपयोगी भी, उनके धर्मका
सद्भाव होनेसे, श्रमण हैं किन्तु वे शुद्धोपयोगियोंके साथ समान कोटिके नहीं है, क्योंकि
शुद्धोपयोगी समस्त कषायोंको निरस्त किया होनेसे निरास्रव ही हैं और ये शुभोपयोगी तो
कषायकण अविनष्ट होनेसे सास्रव
ही हैं और ऐसा होनेसे ही शुद्धोपयोगियोंके साथ इनको
१. आत्मतत्वका स्वभाव सुविशुद्ध दर्शन और ज्ञान है
२. उपकंठ = तलहटी; पड़ोस; नजदीकका भाग; निकटता
३. अर्थधर्मपरिणत स्वरूपवाला आत्मा यदि शुद्धोपयोगमें युक्त हो तो मोक्षसुखको पाता है, और यदि
शुभोपयोगमें युक्त हो तो स्वर्गसुखको (बंधको) पाता है
४. एकार्थसमवाय = एक पदार्थमें साथ रह सकनेरूप संबंध (आत्मपदार्थमें धर्म और शुभोपयोग एकसाथ
हो सकता है इसलिये शुभोपयोगका धर्मके साथ एकार्थसमवाय है )

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नास्रवा एव इमे पुनरनवकीर्णकषायकणत्वात्सास्रवा एव अत एव च शुद्धोपयोगिभिः
समममी न समुच्चीयन्ते, केवलमन्वाचीयन्त एव ।।२४५।।
अथ शुभोपयोगिश्रमणलक्षणमासूत्रयति
अरहंतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु
विज्जदि जदि सामण्णे सा सुहजुत्ता भवे चरिया ।।२४६।।
अर्हदादिषु भक्तिर्वत्सलता प्रवचनाभियुक्तेषु
विद्यते यदि श्रामण्ये सा शुभयुक्ता भवेच्चर्या ।।२४६।।
शुभोपयोगिनो मिथ्यात्वविषयकषायरूपाशुभास्रवनिरोधेऽपि पुण्यास्रवसहिता इति भावः ।।२४५।। अथ
शुभोपयोगिश्रमणानां लक्षणमाख्यातिसा सुहजुत्ता भवे चरिया सा चर्या शुभयुक्ता भवेत् कस्य
तपोधनस्य कथंभूतस्य समस्तरागादिविकल्परहितपरमसमाधौ स्थातुमशक्यस्य यदि किम् विज्जदि
जदि विद्यते यदि चेत् क्व सामण्णे श्रामण्ये चारित्रे किं विद्यते अरहंतादिसु भत्ती अनन्त-
ज्ञानादिगुणयुक्तेष्वर्हत्सिद्धेषु गुणानुरागयुक्ता भक्तिः वच्छलदा वत्सलस्य भावो वत्सलता वात्सल्यं
विनयोऽनुकूलवृत्तिः केषु विषये पवयणाभिजुत्तेसु प्रवचनाभियुक्तेषु प्रवचनशब्देनात्रागमो भण्यते,
(शुभोपयोगियोंको) नहीं लिया (नहीं वर्णन किया) जाता, मात्र पीछेसे (गौणरूपमें ही) लिया
जाता है
भावार्थ :परमागममें ऐसा कहा है कि शुद्धोपयोगी श्रमण हैं और शुभोपयोगी भी
गौणरूपसे श्रमण हैं जैसे निश्चयसे शुद्धबुद्धएकस्वभावी सिद्ध जीव ही जीव कहलाते हैं और
व्यवहारसे चतुर्गति परिणत अशुद्ध जीव भी जीव कहे जाते हैं, उसीप्रकार श्रमणरूपसे
शुद्धोपयोगी जीवोंकी मुख्यता है और शुभोपयोगी जीवोंकी गौणता है; क्योंकि शुद्धोपयोगी
निजशुद्धात्मभावनाके बलसे समस्त शुभाशुभ संकल्प
विकल्पोंसे रहित होनेसे निरास्रव ही हैं,
और शुभोपयोगियोंके मिथ्यात्वविषयकषायरूप अशुभास्रवका निरोध होने पर भी वे
पुण्यास्रवयुक्त हैं
।।२४५।।
अब, शुभोपयोगी श्रमणका लक्षण सूत्र द्वारा (गाथा द्वारा) कहते हैं :
अन्वयार्थ :[श्रामण्ये ] श्रामण्यमें [यदि ] यदि [अर्हदादिषु भक्तिः ]
अर्हन्तादिके प्रति भक्ति तथा [प्रवचनाभियुक्तेषु वत्सलता ] प्रवचनरत जीवोंके प्रति वात्सल्य
[विद्यते ] पाया जाता है तो [सा ] वह [शुभयुक्ता चर्या ] शुभयुक्त चर्या (शुभोपयोगी
वात्सल्य प्रवचनरत विषे ने भक्ति अर्हंतादिके
ए होय जो श्रामण्यमां, तो चरण ते शुभयुक्त छे. २४६.

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सकलसंगसंन्यासात्मनि श्रामण्ये सत्यपि कषायलवावेशवशात् स्वयं शुद्धात्मवृत्ति-
मात्रेणावस्थातुमशक्तस्य, परेषु शुद्धात्मवृत्तिमात्रेणावस्थितेष्वर्हदादिषु, शुद्धात्मवृत्तिमात्रावस्थिति-
प्रतिपादकेषु प्रवचनाभियुक्तेषु च भक्त्या वत्सलतया च प्रचलितस्य, तावन्मात्रराग-
प्रवर्तितपरद्रव्यप्रवृत्तिसंवलितशुद्धात्मवृत्तेः, शुभोपयोगि चारित्रं स्यात
अतः शुभोपयोगि-
श्रमणानां शुद्धात्मानुरागयोगिचारित्रत्वंलक्षणम् ।।२४६।।
अथ शुभोपयोगिश्रमणानां प्रवृत्तिमुपदर्शयति
वंदणणमंसणेहिं अब्भुट्ठाणाणुगमणपडिवत्ती
समणेसु समावणओ ण णिंदिदा रागचरियम्हि ।।२४७।।
संघो वा, तेन प्रवचनेनाभियुक्ताः प्रवचनाभियुक्ता आचार्योपाध्यायसाधवस्तेष्विति एतदुक्तं भवति
स्वयं शुद्धोपयोगलक्षणे परमसामायिके स्थातुमसमर्थस्यान्येषु शुद्धोपयोगफलभूतकेवलज्ञानेन
परिणतेषु, तथैव शुद्धोपयोगाराधकेषु च यासौ भक्तिस्तच्छुभोपयोगिश्रमणानां लक्षणमिति
।।२४६।।
अथ शुभोपयोगिनां शुभप्रवृत्तिं दर्शयतिण णिंदिदा नैव निषिद्धा क्व रागचरियम्हि शुभरागचर्यायां
પ્ર. ૫૮
चारित्र) [भवेत् ] है ।।२४६।।
टीका :सकल संगके संन्यासस्वरूप श्रामण्यके होने पर भी जो कषायांश
(अल्पकषाय) के आवेशके वश केवल शुद्धात्मपरिणतिरूपसे रहनेमें स्वयं अशक्त है ऐसा
श्रमण, पर ऐसे जो (१) केवल शुद्धात्मपरिणतरूपसे रहनेवाले अर्हन्तादिक तथा (२) केवल
शुद्धात्मपरिणतरूपसे रहनेका प्रतिपादन करनेवाले प्रवचनरत जीवोंके प्रति (१) भक्ति तथा
(२) वात्सल्यसे चंचल है उस (श्रमण) के, मात्र उतने रागसे प्रवर्तमान परद्रव्यप्रवृत्तिके साथ
शुद्धात्मपरिणतिमिलित होनेके कारण, शुभोपयोगी चारित्र है
इससे (ऐसा कहा गया है कि) शुद्धात्माका अनुरागयुक्त चारित्र शुभोपयोगी श्रमणोंका
लक्षण है
भावार्थ :मात्र शुद्धात्मपरिणतिरूप रहनेमें असमर्थ होनेके कारण जो श्रमण, पर ऐसे
अर्हन्तादिके प्रति भक्तिसे तथा पर ऐसे आगमपरायण जीवोंके प्रति वात्सल्यसे चंचल (अस्थिर)
हैं उस श्रमणके शुभोपयोगी चारित्र है, क्योंकि शुद्धात्मपरिणति परद्रव्यप्रवृत्ति (परद्रव्यमें प्रवृत्ति)
के साथ मिली हुई है, अर्थात् वह शुभभावके साथ मिश्रित है
।।२४६।।
अब, शुभोपयोगी श्रमणोंकी प्रवृत्ति बतलाते हैं :
श्रमणो प्रति वंदन, नमन, अनुगमन, अभ्युत्थान ने
वळी श्रमनिवारण छे न निंदित रागयुत चर्या विषे. २४७
.

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वन्दननमस्करणाभ्यामभ्युत्थानानुगमनप्रतिपत्तिः
श्रमणेषु श्रमापनयो न निन्दिता रागचर्यायाम् ।।२४७।।
शुभोपयोगिनां हि शुद्धात्मानुरागयोगिचारित्रतया, समधिगतशुद्धात्मवृत्तिषु श्रमणेषु
वन्दननमस्करणाभ्युत्थानानुगमनप्रतिपत्तिप्रवृत्तिः शुद्धात्मवृत्तित्राणनिमित्ता श्रमापनयनप्रवृत्तिश्च
न दुष्येत
।।२४७।।
अथ शुभोपयोगिनामेवैवंविधाः प्रवृत्तयो भवन्तीति प्रतिपादयति
दंसणणाणुवदेसो सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं
चरिया हि सरागाणं जिणिंदपूजोवदेसो य ।।२४८।।
सरागचारित्रावस्थायाम् का न निन्दिता वंदणणमंसणेहिं अब्भुट्ठाणाणुगमणपडिवत्ती वन्दननमस्काराभ्यां
सहाभ्युत्थानानुगमनप्रतिपत्तिप्रवृत्तिः समणेसु समावणओ श्रमणेषु श्रमापनयः रत्नत्रयभावनाभिघातक-
श्रमस्य खेदस्य विनाश इति अनेन किमुक्तं भवतिशुद्धोपयोगसाधके शुभोपयोगे स्थितानां तपोधनानां
इत्थंभूताः शुभोपयोगप्रवृत्तयो रत्नत्रयाराधकशेषपुरुषेषु विषये युक्ता एव, विहिता एवेति ।।२४७।।
अथ शुभोपयोगिनामेवेत्थंभूताः प्रवृत्तयो भवन्ति, न च शुद्धोपयोगिनामिति प्ररूपयतिदंसणणाणुवदेसो
अन्वयार्थ :[श्रमणेषु ] श्रमणोंके प्रति [वन्दननमस्करणाभ्यां ] वन्दननमस्कार
सहित [अभ्युत्थानानुगमनप्रतिपत्तिः ] अभ्युत्थान और अनुगमनरूप विनीत प्रवृत्ति करना
तथा [श्रमापनयः ] उनका श्रम दूर करना वह [रागचर्यायाम् ] रागचर्यामें [न निन्दिता ] निन्दित
नहीं है
।।२४७।।
टीका :शुभोपयोगियोंके शुद्धात्माके अनुरागयुक्त चारित्र होता है, इसलिये जिनने
शुद्धात्मपरिणति प्राप्त की है ऐसे श्रमणोंके प्रति जो वन्दननमस्कारअभ्युत्थानअनुगमनरूप
विनीत वर्तनकी प्रवृत्ति तथा शुद्धात्मपरिणतिकी रक्षाकी निमित्तभूत ऐसी जो श्रम दूर करनेकी
(वैयावृत्यरूप) प्रवृत्ति है, वह शुभोपयोगियोंके लिये दूषित (दोषरूप, निन्दित) नहीं है
(अर्थात् शुभोपयोगी मुनियोंके ऐसी प्रवृत्तिका निषेध नहीं हैं ) ।।२४७।।
अब, ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि शुभोपयोगियोंके ही ऐसी प्रवृत्तियाँ होती हैं :
१. अभ्युत्थान = मानार्थ खड़ा हो जाना वह
२. अनुगमन = पीछे चलना वह ३. विनीत = विनययुक्त, सन्मानयुक्त, विवेकी, सभ्य
उपदेश दर्शनज्ञाननो, पोषणग्रहण शिष्यो तणुं,
उपदेश जिनपूजा तणोवर्तन तुं जाण सरागनुं. २४८.

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अन्वयार्थ :[दर्शनज्ञानोपदेशः ] दर्शनज्ञानका (सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका)
उपदेश, [शिष्यग्रहणं ] शिष्योंका ग्रहण, [च ] तथा [तेषाम् पोषणं ] उनका पोषण, [च ] और
[जिनेन्द्रपूजोपदेशः ] जिनेन्द्रकी पूजाका उपदेश [हि ] वास्तवमें [सरागाणां चर्या ] सरागियोंकी
चर्या है
।।२४८।।
टीका :अनुग्रह करनेकी इच्छापूर्वक दर्शनज्ञानके उपदेशकी प्रवृत्ति, शिष्यग्रहणकी
प्रवृत्ति, उनके पोषणकी प्रवृत्ति और जिनेन्द्रपूजनके उपदेशकी प्रवृत्ति शुभोपयोगियोंके ही होती
है, शुद्धोपयोगियोंके नहीं
।।२४८।।
अब, ऐसा निश्चित करते हैं कि सभी प्रवृत्तियाँ शुभोपयोगियोंके ही होती हैं :
वण जीवकायविराधना उपकार जे नित्ये करे
चउविध साधुसंघने, ते श्रमण रागप्रधान छे. २४९
.
दर्शनज्ञानोपदेशः शिष्यग्रहणं च पोषणं तेषाम्
चर्या हि सरागाणां जिनेन्द्रपूजोपदेशश्च ।।२४८।।
अनुजिघृक्षापूर्वकदर्शनज्ञानोपदेशप्रवृत्तिः शिष्यसंग्रहणप्रवृत्तिस्तत्पोषणप्रवृत्तिर्जिनेन्द्र-
पूजोपदेशप्रवृत्तिश्च शुभोपयोगिनामेव भवन्ति, न शुद्धोपयोगिनाम् ।।२४८।।
अथ सर्वा एव प्रवृत्तयः शुभोपयोगिनामेव भवन्तीत्यवधारयति
उवकुणदि जो वि णिच्चं चादुव्वण्णस्स समणसंघस्स
कायविराधणरहिदं सो वि सरागप्पधाणो से ।।२४९।।
दर्शनं मूढत्रयादिरहितं सम्यक्त्वं, ज्ञानं परमागमोपदेशः, तयोरुपदेशो दर्शनज्ञानोपदेशः सिस्सग्गहणं च
पोसणं तेसिं रत्नत्रयाराधनाशिक्षाशीलानां शिष्याणां ग्रहणं स्वीकारस्तेषामेव पोषणमशनशयनादिचिन्ता
चरिया हि सरागाणं इत्थंभूता चर्या चारित्रं भवति, हि स्फु टम् केषाम् सरागाणां धर्मानुराग-
चारित्रसहितानाम् न केवलमित्थंभूता चर्या, जिणिंदपूजोवदेसो य यथासंभवं जिनेन्द्रपूजादि-
धर्मोपदेशश्चेति ननु शुभोपयोगिनामपि क्वापि काले शुद्धोपयोगभावना दृश्यते, शुद्धोपयोगिनामपि
क्वापि काले शुभोपयोगभावना दृश्यते, श्रावकाणामपि सामायिकादिकाले शुद्धभावना दृश्यते, तेषां
कथं विशेषो भेदो ज्ञायत इति
परिहारमाहयुक्तमुक्तं भवता, परं किंतु ये प्रचुरेण शुभोपयोगेन
वर्तन्ते ते यद्यपि क्वापि काले शुद्धोपयोगभावनां कुर्वन्ति तथापि शुभोपयोगिन एव भण्यन्ते येऽपि
शुद्धोपयोगिनस्ते यद्यपि क्वापि काले शुभोपयोगेन वर्तन्ते तथापि शुद्धोपयोगिन एव कस्मात्
बहुपदस्य प्रधानत्वादाम्रवननिम्बवनवदिति ।।२४८।। अथ काश्चिदपि याः प्रवृत्तयस्ताः शुभोपयोगि-
नामेवेति नियमतिउवकुणदि जो वि णिच्चं चादुव्वण्णस्स समणसंघस्स उपकरोति योऽपि नित्यं कस्य

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उपकरोति योऽपि नित्यं चातुर्वर्णस्य श्रमणसंघस्य
कायविराधनरहितं सोऽपि सरागप्रधानः स्यात।।२४९।।
प्रतिज्ञातसंयमत्वात् षट्कायविराधनरहिता या काचनापि शुद्धात्मवृत्तित्राणनिमित्ता
चातुर्वर्णस्य श्रमणसंघस्योपकारकरणप्रवृत्तिः सा सर्वापि रागप्रधानत्वात् शुभोपयोगिनामेव
भवति, न कदाचिदपि शुद्धोपयोगिनाम् ।।२४९।।
चातुर्वर्णस्य श्रमणसंघस्य अत्र श्रमणशद्बेन श्रमणशब्दवाच्या ऋषिमुनियत्यनगारा ग्राह्याः ‘‘देश-
प्रत्यक्षवित्केवलभृदिहमुनिः स्यादृषिः प्रसृतर्द्धिरारूढः श्रेणियुग्मेऽजनि यतिरनगारोऽपरः साधुवर्गः
राजा ब्रह्मा च देवः परम इति ऋषिर्विक्रियाक्षीणशक्तिप्राप्तो बुद्धयौषधीशो वियदयनपटुर्विश्ववेदी
क्रमेण
।।’’ ऋषय ऋद्धिं प्राप्तास्ते चतुर्विधा, राजब्रह्मदेवपरमऋषिभेदात् तत्र राजर्षयो विक्रिया-
क्षीणार्द्धिप्राप्ता भवन्ति ब्रह्मर्षयो बुद्धयौषधर्द्धियुक्ता भवन्ति देवर्षयो गगनगमनर्द्धिसंपन्ना भवन्ति
परमर्षयः केवलिनः केवलज्ञानिनो भवन्ति मुनयः अवधिमनःपर्ययकेवलिनश्च यतय उपशमक-
क्षपकश्रेण्यारूढाः अनगाराः सामान्यसाधवः कस्मात् सर्वेषां सुखदुःखादिविषये समतापरिणामो-
ऽस्तीति अथवा श्रमणधर्मानुकूलश्रावकादिचातुर्वर्णसंघः कथं यथा भवति कायविराधणरहिद
स्वस्थभावनास्वरूपं स्वकीयशुद्धचैतन्यलक्षणं निश्चयप्राणं रक्षन् परकीयषटकायविराधनारहितं यथा
भवति
सो वि सरागप्पधाणो से सोऽपीत्थंभूतस्तपोधनो धर्मानुरागचारित्रसहितेषु मध्ये प्रधानः श्रेष्ठः
स्यादित्यर्थः ।।२४९।। अथ वैयावृत्त्यकालेऽपि स्वकीयसंयमविराधना न कर्तव्येत्युपदिशतिजदि
अन्वयार्थ :[यः अपि ] जो कोई (श्रमण) [नित्यं ] सदा [कायविराधनरहितं ]
(छह) कायकी विराधनासे रहित [चातुर्वर्णस्य ] चारप्रकारके [श्रमणसंघस्य ] श्रमण संघका
[उपकरोति ] उपकार करता है, [सः अपि ] वह भी [सरागप्रधानः स्यात् ] रागकी
प्रधानतावाला है
।।२४९।।
टीका :संयमकी प्रतिज्ञा की होनेसेछह कायके विराधनसे रहित जो कोई भी,
शुद्धात्मपरिणतिके रक्षणमें निमित्तभूत ऐसी, चार प्रकारके श्रमणसंघका उपकार करनेकी प्रवृत्ति
है वह सभी रागप्रधानताके कारण शुभोपयोगियोंके ही होती है, शुद्धोपयोगियोंके कदापि
नहीं
।।२४९।।
१. श्रमणसंघको शुद्धात्मपरिणतिके रक्षणमें निमित्तभूत ऐसी जो उपकारप्रवृत्ति शुभोपयोगी श्रमण करते हैं वह
छह कायकी विराधनासे रहित होती है, क्योंकि उन (शुभोपयोगी श्रमणों) ने संयमकी प्रतिज्ञा ली है
२. श्रमणके ४ प्रकार यह हैं :(१) ऋषि, (२) मुनि, (३) यति और (४) अनगार ऋद्धिप्राप्त श्रमण
ऋषि हैं, अवधि, मनःपर्यय अथवा केवलज्ञानवाले श्रमण मुनि हैं, उपशमक या क्षपकश्रेणीमें आरूढ़
श्रमण यति हैं और सामान्य साधु वह अनगार हैं
इसप्रकार चतुर्विध श्रमण संघ है

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अथ प्रवृत्तेः संयमविरोधित्वं प्रतिषेधयति
जदि कुणदि कायखेदं वेज्जावच्चत्थमुज्जदो समणो
ण हवदि हवदि अगारी धम्मो सो सावयाणं से ।।२५०।।
यदि करोति कायखेदं वैयावृत्त्यार्थमुद्यतः श्रमणः
न भवति भवत्यगारी धर्मः स श्रावकाणां स्यात।।२५०।।
यो हि परेषां शुद्धात्मवृत्तित्राणाभिप्रायेण वैयावृत्त्यप्रवृत्त्या स्वस्य संयमं विराधयति, स
गृहस्थधर्मानुप्रवेशात् श्रामण्यात् प्रच्यवते अतो या काचन प्रवृत्तिः सा सर्वथा
संयमाविरोधेनैव विधातव्या; प्रवृत्तावपि संयमस्यैव साध्यत्वात।।२५०।।
कुणदि कायखेदं वेज्जावच्चत्थमुज्जदो यदि चेत् करोति कायखेदं षटकायविराधनाम् कथंभूतः सन्
वैयावृत्त्यार्थमुद्यतः समणो ण हवदि तदा श्रमणस्तपोधनो न भवति तर्हि किं भवति हवदि अगारी
अगारी गृहस्थो भवति कस्मात् धम्मो सो सावयाणं से षटकायविराधनां कृत्वा योऽसौ धर्मः स
श्रावकाणां स्यात्, न च तपोधनानामिति इदमत्र तात्पर्यम्योऽसौ स्वशरीरपोषणार्थं शिष्यादिमोहेन
वा सावद्यं नेच्छति तस्येदं व्याख्यानं शोभते, यदि पुनरन्यत्र सावद्यमिच्छति वैयावृत्त्यादिस्वकीयाव-
स्थायोग्ये धर्मकार्ये नेच्छति तदा तस्य सम्यक्त्वमेव नास्तीति
।।२५०।। अथ यद्यप्यल्पलेपो भवति
अब, प्रवृत्ति संयमकी विरोधी होनेका निषेध करते हैं (अर्थात् शुभोपयोगी श्रमणके
संयमके साथ विरोधवाली प्रवृत्ति नहीं होनी चाहियेऐसा कहते हैं ) :
अन्वयार्थ :[यदि ] यदि (श्रमण) [वैयावृत्यर्थम् उद्यतः ] वैयावृत्तिके लिये
उद्यमी वर्तता हुआ [कायखेदं ] छह कायको पीड़ित [करोति ] करता है तो वह [श्रमणः न
भवति ]
श्रमण नहीं है, [अगारी भवति ] गृहस्थ है; (क्योंकि) [सः ] वह (छह कायकी
विराधना सहित वैयावृत्ति) [श्रावकाणां धर्मः स्यात् ] श्रावकोंका धर्म है
।।२५०।।
टीका :जो (श्रमण) दूसरेके शुद्धात्मपरिणतिकी रक्षा हो ऐसे अभिप्रायसे
वैयावृत्यकी प्रवृत्ति करता हुआ अपने संयमकी विराधना करता है, वह गृहस्थधर्ममें प्रवेश कर रहा
होनेसे श्रामण्यसे च्युत होता है
इससे (ऐसा कहा है कि) जो भी प्रवृत्ति हो वह सर्वथा संयमके
साथ विरोध न आये इसप्रकार ही करनी चाहिये, क्योंकि प्रवृत्तिमें भी संयम ही साध्य है
वैयावृत्ते उद्यत श्रमण षट् कायने पीडा करे
तो श्रमण नहि, पण छे गृही; ते श्रावकोनो धर्म छे. २५०
.

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अथ प्रवृत्तेर्विषयविभागे दर्शयति
जोण्हाणं णिरवेक्खं सागारणगारचरियजुत्ताणं
अणुकं पयोवयारं कुव्वदु लेवो जदि वि अप्पो ।।२५१।।
जैनानां निरपेक्षं साकारानाकारचर्यायुक्तानाम्
अनुकम्पयोपकारं करोतु लेपो यद्यप्यल्पः ।।२५१।।
या किलानुकम्पापूर्विका परोपकारलक्षणा प्रवृत्तिः सा खल्वनेकान्तमैत्रीपवित्रितचित्तेषु
परोपकारे, तथापि शुभोपयोगिभिर्धर्मोपकारः कर्तव्य इत्युपदिशतिकुव्वदु करोतु स कः कर्ता
शुभोपयोगी पुरुषः कं करोतु अणुकं पयोवयारं अनुकम्पासहितोपकारं दयासहितं धर्मवात्सल्यम् यदि
किम् लेवो जदि वि अप्पो ‘‘सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ’’ इति दृष्टान्तेन यद्यप्यल्पलेपः स्तोकसावद्यं
भवति केषां करोतु जोण्हाणं निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गपरिणतजैनानाम् कथम् णिरवेक्खं निरपेक्षं
भावार्थ :जो श्रमण छह कायकी विराधना सहित वैयावृत्यादि प्रवृत्ति करता है,
वह गृहस्थधर्ममें प्रवेश करता है; इसलिये श्रमणको वैयावृत्यादिकी प्रवृत्ति इसप्रकार करनी
चाहिये कि जिससे संयमकी विराधना न हो
यहाँ इतना विशेष समझना चाहिये किजो स्वशरीर पोषणके लिये या शिष्यादिके
मोहसे सावद्यको नहीं चाहता उसे तो वैयावृत्यादिमें भी सावद्यकी इच्छा नहीं करनी चाहिये,
वह शोभास्पद है किन्तु जो अन्यत्र तो सावद्यकी इच्छा करे किन्तु अपनी अवस्थाके योग्य
वैयावृत्यादि धर्मकार्यमें सावद्यको न चाहे उसके तो सम्यक्त्व ही नहीं है ।।२५०।।
अब प्रवृत्तिके विषयके दो विभाग बतलाते हैं (अर्थात् अब यह बतलाते हैं कि
शुभोपयोगियोंको किसके प्रति उपकारकी प्रवृत्ति करना योग्य है और किसके प्रति नहीं) :
अन्वयार्थ :[यद्यपि अल्पः लेपः ] यद्यपि अल्प लेप होता है तथापि
[साकारनाकारचर्यायुक्तानाम् ] साकारअनाकार चर्यायुक्त [जैनानां ] जैनोंका [अनुकम्पया ]
अनुकम्पासे [निरपेक्षं ] निरपेक्षतया [उपकारं करोतु ] (शुभोपयोग से) उपकार करो ।।२५१।।
टीका :जो अनुकम्पापूर्वक परोपकारस्वरूप प्रवृत्ति उसके करनेसे यद्यपि अल्प
लेप तो होता है, तथापि अनेकान्तके साथ मैत्रीसे जिनका चित्त पवित्र हुआ है ऐसे शुद्ध जैनोंके
छे अल्प लेप छतांय दर्शनज्ञानपरिणत जैनने
निरपेक्षतापूर्वक करो उपकार अनुकंपा वडे. २५१
.

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शुद्धेषु जैनेषु शुद्धात्मज्ञानदर्शनप्रवृत्तवृत्तितया साकारानाकारचर्यायुक्तेषु शुद्धात्मोपलंभेतर-
सकलनिरपेक्षतयैवाल्पलेपाऽप्यप्रतिषिद्धा; न पुनरल्पलेपेति सर्वत्र सर्वथैवाप्रतिषिद्धा, तत्र
तथाप्रवृत्त्या शुद्धात्मवृत्तित्राणस्य परात्मनोरनुपपत्तेरिति
।।२५१।।
अथ प्रवृत्तेः कालविभागं दर्शयति
रोगेण वा छुधाए तण्हाए वा समेण वा रूढं
दिट्ठा समणं साहू पडिवज्जदु आदसत्तीए ।।२५२।।
शुद्धात्मभावनाविनाशकख्यातिपूजालाभवाञ्छारहितं यथा भवति कथंभूतानां जैनानाम् सागारणगार-
चरियजुत्ताणं सागारानागारचर्यायुक्तानां श्रावकतपोधनाचरणसहितानामित्यर्थः ।।२५१।। कस्मिन्प्रस्तावे
वैयावृत्त्यं कर्तव्यमित्युपदिशतिपडिवज्जदु प्रतिपद्यतां स्वीकरोतु कया आदसत्तीए स्वशक्त्या स कः
कर्ता साहू रत्नत्रयभावनया स्वात्मानं साधयतीति साधुः कम् समणं जीवितमरणादिसमपरिणाम-
प्रतिजो कि शुद्धात्माके ज्ञानदर्शनमें प्रवर्तमान वृत्तिके कारण साकारअनाकार चर्यावाले
हैं उनके प्रति,शुद्धात्माकी उपलब्धिके अतिरिक्त अन्य सबकी अपेक्षा किये बिना ही, उस
प्रवृत्तिके करनेका निषेध नहीं है; किन्तु अल्प लेपवाली होनेसे सबके प्रति सभी प्रकारसे वह
प्रवृत्ति अनिषिद्ध हो ऐसा नहीं है, क्योंकि वहाँ (अर्थात् यदि सबके प्रति सभी प्रकारसे की
जाय तो) उस प्रकारकी प्रवृत्तिसे परके और निजके शुद्धात्मपरिणतिकी रक्षा नहीं हो सकती
भावार्थ :यद्यपि अनुकम्पापूर्वक परोपकारस्वरूप प्रवृत्तिसे अल्प लेप तो होता है,
तथापि यदि (१) शुद्धात्माकी ज्ञानदर्शनस्वरूप चर्यावाले शुद्ध जैनोंके प्रति, तथा (२)
शुद्धात्माकी उपलब्धिकी अपेक्षासे ही, वह प्रवृत्ति की जाती हो तो शुभोपयोगीके उसका निषेध
नहीं है
परन्तु, यद्यपि अनुकम्पापूर्वक परोपकारस्वरूप प्रवृत्तिसे अल्प ही लेप होता है तथापि
(१) शुद्धात्माकी ज्ञानदर्शनरूप चर्यावाले शुद्ध जैनोंके अतिरिक्त दूसरोंके प्रति, तथा (२)
शुद्धात्माकी उपलब्धिके अतिरिक्त अन्य किसी भी अपेक्षासे, वह प्रवृत्ति करनेका शुभोपयोगीके
निषेध है, क्योंकि इसप्रकारसे परको या निजको शुद्धात्मपरिणतिकी रक्षा नहीं होती
।।२५१।।
अब, प्रवृत्तिके कालका विभाग बतलाते हैं (अर्थात् यह बतलाते हैं किशुभोपयोगी
श्रमण को किस समय प्रवृत्ति करना योग्य है और किस समय नहीं) :
१. वृत्ति = परिणति; वर्तन; वर्तना वह २. ज्ञान साकार है और दर्शन अनाकार है
आक्रांत देखी श्रमणने श्रम, रोग वा भूख, प्यासथी,
साधु करो सेवा स्वशक्तिप्रमाण ए मुनिराजनी. २५२
.

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रोगेण वा क्षुधया तृष्णया वा श्रमेण वा रूढम्
दृष्टवा श्रमणं साधुः प्रतिपद्यतामात्मशक्त्या ।।२५२।।
यदा हि समधिगतशुद्धात्मवृत्तेः श्रमणस्य तत्प्रच्यावनहेतोः कस्याप्युपसर्गस्योपनिपातः
स्यात्, स शुभोपयोगिनः स्वशक्त्या प्रतिचिकीर्षा प्रवृत्तिकालः इतरस्तु स्वयं शुद्धात्मवृत्तेः
समधिगमनाय केवलं निवृत्तिकाल एव ।।२५२।।
अथ लोकसम्भाषणप्रवृत्तिं सनिमित्तविभागं दर्शयति
वेज्जावच्चणिमित्तं गिलाणगुरुबालवुड्ढसमणाणं
लोगिगजणसंभासा ण णिंदिदा वा सुहोवजुदा ।।२५३।।
त्वाच्छ्रमणस्तं श्रमणम् दिट्ठा दृष्टवा कथंभूतम् रूढं रूढं व्याप्तं पीडितं कदर्थितम् केन रोगेण वा
अनाकुलत्वलक्षणपरमात्मनो विलक्षणेनाकुलत्वोत्पादकेन रोगेण व्याधिविशेषेण वा, छुधाए क्षुधया,
तण्हाए वा तृष्णया वा, समेण वा मार्गोपवासादिश्रमेण वा अत्रेदं तात्पर्यम्स्वस्थभावनाविघातक-
रोगादिप्रस्तावे वैयावृत्त्यं करोति, शेषकाले स्वकीयानुष्ठानं करोतीति ।।२५२।। अथ शुभोपयोगिनां
तपोधनवैयावृत्त्यनिमित्तं लौकिकसंभाषणविषये निषेधो नास्तीत्युपदिशतिण णिंदिदा शुभोपयोगि-
अन्वयार्थ :[रोगेण वा ] रोगसे, [क्षुधया ] क्षुधासे, [तृष्णया वा ] तृषासे [श्रमेण
वा ] अथवा श्रमसे [रूढम् ] आक्रांत [श्रमणं ] श्रमणको [दृष्ट्वा ] देखकर [साधुः ] साधु
[आत्मशक्त्या ] अपनी शक्तिके अनुसार [प्रतिपद्यताम् ] वैयावृत्यादि करो
।।२५२।।
टीका :जब शुद्धात्मपरिणतिको प्राप्त श्रमणको, उससे च्युत करे ऐसा कारण
कोई भी उपसर्गआ जाय, तब वह काल, शुभोपयोगीको अपनी शक्तिके अनुसार प्रतिकार
करनेकी इच्छारूप प्रवृत्तिका काल है; और उसके अतिरिक्तका काल अपनी शुद्धात्मपरिणतिकी
प्राप्तिके लिये केवल निवृत्तिका काल है
भावार्थ :जब शुद्धात्मपरिणतिको प्राप्त श्रमणके स्वस्थ भावका नाश करनेवाला
रोगादिक आ जाय तब उस समय शुभोपयोगी साधुको उनकी सेवाकी इच्छारूप प्रवृत्ति होती
है, और शेष कालमें शुद्धात्मपरिणतिको प्राप्त करनेके लिये निज अनुष्ठान होता है
।।२५२।।
अब लोगोंके साथ बातचीतकरनेकी प्रवृत्ति उसके निमित्तके विभाग सहित बतलाते हैं
(अर्थात् शुभोपयोगी श्रमणको लोगोंके साथ बातचीतकी प्रवृत्ति किस निमित्तसे करना योग्य
है और किस निमित्तसे नहीं, सो कहते हैं ) :
१. प्रतिकार = उपाय; सहाय
सेवानिमित्ते रोगीबाळकवृद्धगुरु श्रमणो तणी,
लौकिक जनो सह वात शुभउपयोगयुत निंदित नथी. २५३.

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वैयावृत्त्यनिमित्तं ग्लानगुरुबालवृद्धश्रमणानाम्
लौकिकजनसम्भाषा न निन्दिता वा शुभोपयुता ।।२५३।।
समधिगतशुद्धात्मवृत्तीनां ग्लानगुरुबालवृद्धश्रमणानां वैयावृत्त्यनिमित्तमेव शुद्धात्मवृत्ति-
शून्यजनसम्भाषणमप्रसिद्धं, न पुनरन्यनिमित्तमपि ।।२५३।।
अथैवमुक्तस्य शुभोपयोगस्य गौणमुख्यविभागं दर्शयति
एसा पसत्थभूदा समणाणं वा पुणो घरत्थाणं
चरिया परेत्ति भणिदा ताएव परं लहदि सोक्खं ।।२५४।।
तपोधनानां न निन्दिता, न निषिद्धा का कर्मतापन्ना लोगिगजणसंभासा लौकिकजनैः सह संभाषा
वचनप्रवृत्तिः सुहोवजुदा वा अथवा सापि शुभोपयोगयुक्ता भण्यते किमर्थं न निषिद्धा वेज्जावच्चणिमित्तं
वैयावृत्त्यनिमित्तम् केषां वैयावृत्त्यम् गिलाणगुरुबालवुड्ढसमणाणं ग्लानगुरुबालवृद्धश्रमणानाम् अत्र
गुरुशब्देन स्थूलकायो भण्यते, अथवा पूज्यो वा गुरुरिति तथाहियदा कोऽपि शुभोपयोगयुक्त
आचार्यः सरागचारित्रलक्षणशुभोपयोगिनां वीतरागचारित्रलक्षणशुद्धोपयोगिनां वा वैयावृत्त्यं करोति,
तदाकाले तद्वैयावृत्त्यनिमित्तं लौकिकजनैः सह संभाषणं करोति, न शेषकाल इति भावार्थः
।।२५३।।
एवं गाथापञ्चकेन लौकिकव्याख्यानसंबन्धिप्रथमस्थलं गतम् अथायं वैयावृत्त्यादिलक्षण-
शुभोपयोगस्तपोधनैर्गौणवृत्त्या श्रावकैस्तु मुख्यवृत्त्या कर्तव्य इत्याख्यातिभणिदा भणिता कथिता
का कर्मतापन्ना चरिया चर्या चारित्रमनुष्ठानम् किंविशिष्टा एसा एषा प्रत्यक्षीभूता पुनश्च किंरूपा
पसत्थभूदा प्रशस्तभूता धर्मानुरागरूपा केषां संबन्धिनी समणाणं वा श्रमणानां वा पुणो घरत्थाणं
પ્ર. ૫૯
अन्वयार्थ :[वा ] और [ग्लानगुरुबालवृद्धश्रमणानाम् ] रोगी, गुरु (-पूज्य,
बड़े), बाल तथा वृद्ध श्रमणोंकी [वैयावृत्यनिमित्तं ] सेवाके निमित्तसे, [शुभोपयुता ]
शुभोपयोगयुक्त [लौकिकजनसंभाषा ] लौकिक जनोंके साथकी बातचीत [न निन्दिता ] निन्दित
नहीं है
।।२५३।।
टीका :शुद्धात्मपरिणतिको प्राप्त रोगी, गुरु, बाल और वृद्ध श्रमणोंकी सेवाके
निमित्तसे ही (शुभोपयोगी श्रमणको) शुद्धात्मपरिणतिशून्य लोगोंके साथ बातचीत प्रसिद्ध है (
शास्त्रोंमें निषिद्ध नहीं है ), किन्तु अन्य निमित्तसे भी प्रसिद्ध हो ऐसा नहीं है ।।२५३।।
अब, इस प्रकारसे कहे गये शुभोपयोगका गौणमुख्य विभाग बतलाते हैं; (अर्थात्
यह बतलाते हैं कि किसके शुभोपयोग गौण होता है और किसके मुख्य होता है ) :
आ शुभ चर्या श्रमणने, वळी मुख्य होय गृहस्थने;
तेना वडे ज गृहस्थ पामे मोक्षसुख उत्कृष्टने. २५४
.

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एषा प्रशस्तभूता श्रमणानां वा पुनर्गृहस्थानाम्
चर्या परेति भणिता तयैव परं लभते सौख्यम् ।।२५४।।
एवमेष शुद्धात्मानुरागयोगिप्रशस्तचर्यारूप उपवर्णितः शुभोपयोगः तदयं, शुद्धात्म-
प्रकाशिकां समस्तविरतिमुपेयुषां कषायकणसद्भावात्प्रवर्तमानः, शुद्धात्मवृत्तिविरुद्धरागसंगत-
त्वाद्गौणः श्रमणानां; गृहिणां तु, समस्तविरतेरभावेन शुद्धात्मप्रकाशनस्याभावात्कषायसद्भावा-
त्प्रवर्तमानोऽपि, स्फ टिकसम्पर्केणार्कतेजस इवैधसां, रागसंयोगेन शुद्धात्मनोऽनुभवात
् क्रमतः
परमनिर्वाणसौख्यकारणत्वाच्च, मुख्यः ।।२५४।।
गृहस्थानां वा पुनरियमेव चर्या परेत्ति परा सर्वोत्कृष्टेति ताएव परं लहदि सोक्खं तयैव शुभोपयोगचर्यया
परंपरया मोक्षसुखं लभते गृहस्थ इति तथाहितपोधनाः शेषतपोधनानां वैयावृत्त्यं कुर्वाणाः सन्तः
कायेन किमपि निरवद्यवैयावृत्त्यं कुर्वन्ति; वचनेन धर्मोपदेशं च शेषमौषधान्नपानादिकं
गृहस्थानामधीनं, तेन कारणेन वैयावृत्त्यरूपो धर्मो गृहस्थानां मुख्यः, तपोधनानां गौणः द्वितीयं च
कारणंनिर्विकारचिच्चमत्कारभावनाप्रतिपक्षभूतेन विषयकषायनिमित्तोत्पन्नेनार्तरौद्रदुर्ध्यानद्वयेन
परिणतानां गृहस्थानामात्माश्रितनिश्चयधर्मस्यावकाशो नास्ति, वैयावृत्त्यादिधर्मेण दुर्ध्यानवञ्चना भवति,
तपोधनसंसर्गेण निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गोपदेशलाभो भवति
ततश्च परंपरया निर्वाणं लभन्ते
इत्यभिप्रायः ।।२५४।। एवं शुभोपयोगितपोधनानां शुभानुष्ठानकथनमुख्यतया गाथाष्टकेन द्वितीयस्थलं
अन्वयार्थ :[एषा ] यह [प्रशस्तभूता ] प्रशस्तभूत [चर्या ] चर्या [श्रमणानां ]
श्रमणोंके (गौण) होती है [वा गृहस्थानां पुनः ] और गृहस्थोंके तो [परा ] मुख्य होती है, [इति
भणिता ]
ऐसा (शास्त्रोंमें) कहा है; [तया एव ] उसीसे [परं सौख्यं लभते ] (परम्परासे)
गृहस्थ परम सौख्यको प्राप्त होता है
।।२५४।।
टीका :इसप्रकार शुद्धात्मानुरागयुक्त प्रशस्तचर्यारूप जो यह शुभोपयोग वर्णित किया
गया है वह यह शुभोपयोग, शुद्धात्माकी प्रकाशक सर्वविरतिको प्राप्त श्रमणोंके कषायकणके
सद्भावके कारण प्रवर्तित होता हुआ, गौण होता है, क्योंकि वह शुभोपयोग शुद्धात्मपरिणतिसे
विरुद्ध ऐसे रागके साथ संबंधवान है; और वह शुभोपयोग गृहस्थोंके तो, सर्वविरतिके अभावसे
शुद्धात्मप्रकाशनका अभाव होनेसे कषायके सद्भावके कारण प्रवर्तमान होता हुआ भी, मुख्य है,
क्योंकिजैसे ईंधनको स्फ टिकके संपर्कसे सूर्यके तेजका अनुभव होता है (और इसलिये वह
क्रमशः जल उठता है ) उसीप्रकारगृहस्थको रागके संयोगसे शुद्धात्माका अनुभव होता है, और
(इसलिये वह शुभोपयोग) क्रमशः परम निर्वाणसौख्यका कारण होता है
भावार्थ :दर्शनापेक्षासे तो श्रमणको तथा सम्यग्दष्टि गृहस्थको शुद्धात्माका ही
आश्रय है, परन्तु चारित्रापेक्षासे श्रमणके मुनियोग्य शुद्धात्मपरिणति मुख्य होनेसे शुभोपयोग गौण
१. चारित्रदशामें प्रवर्तमान उग्र शुद्धात्मप्रकाशनको ही यहाँ शुद्धात्मप्रकाशन गिना है; सम्यग्दृष्टि गृहस्थके
उसका अभाव है शेष, दर्शनापेक्षासे तो सम्यग्दृष्टि गृहस्थके भी शुद्धात्माका प्रकाशन है ही

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अथ शुभोपयोगस्य कारणवैपरीत्यात् फलवैपरीत्यं साधयति
रागो पसत्थभूदो वत्थुविसेसेण फलदि विवरीदं
णाणाभूमिगदाणिह बीजाणिव सस्सकालम्हि ।।२५५।।
रागः प्रशस्तभूतो वस्तुविशेषेण फलति विपरीतम्
नानाभूमिगतानीह बीजानीव सस्यकाले ।।२५५।।
यथैकेषामपि बीजानां भूमिवैपरीत्यान्निष्पत्तिवैपरीत्यं, तथैकस्यापि प्रशस्तरागलक्षणस्य
शुभोपयोगस्य पात्रवैपरीत्यात्फलवैपरीत्यं, कारणविशेषात्कार्यविशेषस्यावश्यंभावित्वात२५५
गतम् इत ऊर्ध्वं गाथाषटकपर्यन्तं पात्रापात्रपरीक्षामुख्यत्वेन व्याख्यानं करोति अथ शुभोपयोगस्य
पात्रभूतवस्तुविशेषात्फलविशेषं दर्शयतिफलदि फलति, फलं ददाति स कः रागो रागः
कथंभूतः पसत्थभूदो प्रशस्तभूतो दानपूजादिरूपः किं फलति विवरीदं विपरीतमन्यादृशं भिन्न-
भिन्नफलम् केन करणभूतेन वत्थुविसेसेण जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नपात्रभूतवस्तुविशेषेण अत्रार्थे
है और सम्यग्दृष्टि गृहस्थके मुनियोग्य शुद्धात्मपरिणतिको प्राप्त न हो सकनेसे अशुभवंचनार्थ
शुभोपयोग मुख्य है
सम्यग्दृष्टि गृहस्थके अशुभसे (विशेष अशुद्ध परिणतिसे) छूटनेके लिये
प्रवर्तमान जो यह शुभोपयोगका पुरुषार्थ वह भी शुद्धिका ही मन्दपुरुषार्थ है, क्योंकि
शुद्धात्मद्रव्यके मंद आलम्बनसे अशुभ परिणति बदलकर शुभ परिणति होती है और
शुद्धात्मद्रव्यके उग्र आलम्बनसे शुभपरिणति भी बदलकर शुभपरिणति हो जाती है
।।२५४।।
अब, ऐसा सिद्ध करते हैं कि शुभोपयोगको कारणकी विपरीततासे फलकी विपरीतता
होती है :
अन्वयार्थ :[इह नानाभूमिगतानि बीजानि एव ] जैसे इस जगतमें अनेक प्रकारकी
भूमियोंमें पड़े हुए बीज [सस्यकाले ] धान्यकालमें विपरीतरूपसे फलते हैं, उसीप्रकार
[प्रशस्तभूतः रागः ] प्रशस्तभूत राग [वस्तुविशेषेण ] वस्तु
भेदसे (पात्र भेदसे) [विपरीतं
फलति ] विपरीतरूपसे फलता है ।।२५५।।
टीका :जैसे बीज ज्यों के त्यों होने पर भी भूमिकी विपरीततासे निष्पत्तिकी
विपरीतता होती है, (अर्थात् अच्छी भूमिमें उसी बीजका अच्छा अन्न उत्पन्न होता है और खराब
भूमिमें वही खराब हो जाता है या उत्पन्न ही नहीं होता), उसीप्रकार प्रशस्तरागस्वरूप शुभोपयोग
ज्योंका त्यों होने पर भी पात्रकी विपरीततासे फलकी विपरीतता होती है, क्योंकि कारणके भेदसे
कार्यका भेद अवश्यम्भावी (अनिवार्य) है
।।२५५।।
फ ळ होय छे विपरीत वस्तुविशेषथी शुभ रागने,
निष्पत्ति विपरीत होय भूमिविशेषथी ज्यम बीजने. २५५
.