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परितापः, इदं ममोत्कर्षणमिदमपकर्षणमयं ममाकिंचित्कर इदमुपकारकमिदं ममात्मधारणमय-
समता है, [समलोष्टकाञ्चनः ] जिसे लोष्ट (मिट्टीका ढेला) और सुवर्ण समान है, [पुनः ] तथा
[जीवितमरणे समः ] जीवन
(-कीर्ति) है, यह अपकर्षण (-अकीर्ति) है,’ (४) ‘यह मुझे अकिंचित्कर है, यह उपकारक
(-उपयोगी) है,’ (५) ‘यह मेरा स्थायित्व है, यह अत्यन्त विनाश है’ इसप्रकार मोहके
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ज्ञेयत्वेनाक्रम्य ज्ञानात्मन्यात्मन्यचलितवृत्तेर्यत्किल सर्वतः साम्यं तत्सिद्धागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धान-
संयतत्वयौगपद्यात्मज्ञानयौगपद्यस्य संयतस्य लक्षणमालक्षणीयम्
तदेव परमागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां यौगपद्येन तथा निर्विकल्पात्मज्ञानेन च परिणततपोधनस्य
लक्षणं ज्ञातव्यमिति
आत्माका अनुभव करता है, और (इसप्रकार) शत्रु
(साम्य) संयतका लक्षण समझना चाहिये
एकाग्रतालक्षणवाला श्रामण्य है :
प्राप्त है
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त्रिभिरपि यौगपद्येन भाव्यभावकभावविजृम्भितातिनिर्भ̄रेतरेतरसंवलनबलादंगांगिभावेन
परिणतस्यात्मनो यदात्मनिष्ठत्वे सति संयतत्वं तत्पानकवदनेकात्मकस्यैकस्यानुभूयमान-
तायामपि समस्तपरद्रव्यपरावर्तत्वादभिव्यक्तैकाग
द्रव्यं तदेव ममोपादेयमितिरुचिरूपं सम्यग्दर्शनम्, तत्रैव परिच्छित्तिरूपं सम्यग्ज्ञानं, तस्मिन्नेव स्वरूपे
निश्चलानुभूतिलक्षणं चारित्रं चेत्युक्तस्वरूपं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयं पानकवदनेकमप्यभेदनयेनैकं यत्
तत्सविकल्पावस्थायां व्यवहारेणैकाग्
जिसका लक्षण है वह ज्ञानपर्याय है; ज्ञेय और ज्ञाताकी
अनेक वस्तुओंका स्वाद आता है
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मास्कन्दत्यचिराद्विकाशमतुलं येनोल्लसन्त्याश्चितेः
अभेदात्मक होनेसे ‘एकाग्रता मोक्षमार्ग है’ इसप्रकार द्रव्यप्रधान निश्चयनयसे उसका प्रज्ञापन है;
समस्त ही पदार्थ भेदाभेदात्मक होनेसे वे दोनों, (सम्यग्दर्शन
उल्लसित चेतनाके अतुल विकासको अल्पकालमें प्राप्त हो
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वा ] राग करता है, [द्वेष्टि वा ] अथवा द्वेष करता है, तो वह [विविधैः कर्मभिः ] विविध
कर्मोंसे [बध्यते ] बँधता है
ज्ञानसे भ्रष्ट वह स्वयं अज्ञानी होता हुआ मोह करता है, राग करता है, अथवा द्वेष करता है; और
ऐसा (-मोही रागी अथवा द्वेषी) होता हुआ बंधको ही प्राप्त होता है; परन्तु मुक्त नहीं होता
वा रागने वा द्वेषने, तो विविध बांधे कर्मने. २४३
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चिन्ताभावान्निर्विकारचिच्चमत्कारमात्राच्च्युतो न भवति
पश्चाद्भविष्यतीति
होता है [सः ] तो वह [नियतं ] नियमसे (निश्चित) [विविधानि कर्माणि ] विविध कर्मोंको
[क्षपयति ] खपाता है
तो नियमथी मुनिराज ए विधविध कर्मो क्षय करे. २४४
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(-अमोही, अरागी, अद्वेषी) वर्तता हुआ (वह) मुक्त ही होता है, परन्तु बँधता नहीं है
उनमें भी [शुद्धोपयुक्ताः अनास्रवाः ] शुद्धोपयोगी निरास्रव हैं, [शेषाः सास्रवाः ] शेष सास्रव
हैं, (अर्थात् शुभोपयोगी आस्रव सहित हैं
शुद्धोपयोगी छे निरास्रव, शेष सास्रव जाणवा. २४५
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तदुपकण्ठनिविष्टाः, कषायकुण्ठीकृतशक्तयो, नितान्तमुत्कण्ठुलमनसः, श्रमणाः किं भवेयुर्न
वेत्यत्राभिधीयते
चकारसमुच्चयव्याख्यानेन गौणत्वम्
हैं, वे
कषायकण अविनष्ट होनेसे सास्रव
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जाता है
शुद्धोपयोगी जीवोंकी मुख्यता है और शुभोपयोगी जीवोंकी गौणता है; क्योंकि शुद्धोपयोगी
निजशुद्धात्मभावनाके बलसे समस्त शुभाशुभ संकल्प
पुण्यास्रवयुक्त हैं
[विद्यते ] पाया जाता है तो [सा ] वह [शुभयुक्ता चर्या ] शुभयुक्त चर्या (शुभोपयोगी
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प्रतिपादकेषु प्रवचनाभियुक्तेषु च भक्त्या वत्सलतया च प्रचलितस्य, तावन्मात्रराग-
प्रवर्तितपरद्रव्यप्रवृत्तिसंवलितशुद्धात्मवृत्तेः, शुभोपयोगि चारित्रं स्यात
परिणतेषु, तथैव शुद्धोपयोगाराधकेषु च यासौ भक्तिस्तच्छुभोपयोगिश्रमणानां लक्षणमिति
शुद्धात्मपरिणतरूपसे रहनेका प्रतिपादन करनेवाले प्रवचनरत जीवोंके प्रति (१) भक्ति तथा
(२) वात्सल्यसे चंचल है उस (श्रमण) के, मात्र उतने रागसे प्रवर्तमान परद्रव्यप्रवृत्तिके साथ
शुद्धात्मपरिणतिमिलित होनेके कारण, शुभोपयोगी चारित्र है
हैं उस श्रमणके शुभोपयोगी चारित्र है, क्योंकि शुद्धात्मपरिणति परद्रव्यप्रवृत्ति (परद्रव्यमें प्रवृत्ति)
के साथ मिली हुई है, अर्थात् वह शुभभावके साथ मिश्रित है
वळी श्रमनिवारण छे न निंदित रागयुत चर्या विषे. २४७
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न दुष्येत
नहीं है
(वैयावृत्यरूप) प्रवृत्ति है, वह शुभोपयोगियोंके लिये दूषित (दोषरूप, निन्दित) नहीं है
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[जिनेन्द्रपूजोपदेशः ] जिनेन्द्रकी पूजाका उपदेश [हि ] वास्तवमें [सरागाणां चर्या ] सरागियोंकी
चर्या है
है, शुद्धोपयोगियोंके नहीं
चउविध साधुसंघने, ते श्रमण रागप्रधान छे. २४९
कथं विशेषो भेदो ज्ञायत इति
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क्रमेण
भवति
[उपकरोति ] उपकार करता है, [सः अपि ] वह भी [सरागप्रधानः स्यात् ] रागकी
प्रधानतावाला है
नहीं
श्रमण यति हैं और सामान्य साधु वह अनगार हैं
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स्थायोग्ये धर्मकार्ये नेच्छति तदा तस्य सम्यक्त्वमेव नास्तीति
भवति ] श्रमण नहीं है, [अगारी भवति ] गृहस्थ है; (क्योंकि) [सः ] वह (छह कायकी
विराधना सहित वैयावृत्ति) [श्रावकाणां धर्मः स्यात् ] श्रावकोंका धर्म है
होनेसे श्रामण्यसे च्युत होता है
तो श्रमण नहि, पण छे गृही; ते श्रावकोनो धर्म छे. २५०
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चाहिये कि जिससे संयमकी विराधना न हो
निरपेक्षतापूर्वक करो उपकार अनुकंपा वडे. २५१
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सकलनिरपेक्षतयैवाल्पलेपाऽप्यप्रतिषिद्धा; न पुनरल्पलेपेति सर्वत्र सर्वथैवाप्रतिषिद्धा, तत्र
तथाप्रवृत्त्या शुद्धात्मवृत्तित्राणस्य परात्मनोरनुपपत्तेरिति
प्रवृत्ति अनिषिद्ध हो ऐसा नहीं है, क्योंकि वहाँ (अर्थात् यदि सबके प्रति सभी प्रकारसे की
जाय तो) उस प्रकारकी प्रवृत्तिसे परके और निजके शुद्धात्मपरिणतिकी रक्षा नहीं हो सकती
शुद्धात्माकी उपलब्धिकी अपेक्षासे ही, वह प्रवृत्ति की जाती हो तो शुभोपयोगीके उसका निषेध
नहीं है
शुद्धात्माकी उपलब्धिके अतिरिक्त अन्य किसी भी अपेक्षासे, वह प्रवृत्ति करनेका शुभोपयोगीके
निषेध है, क्योंकि इसप्रकारसे परको या निजको शुद्धात्मपरिणतिकी रक्षा नहीं होती
साधु करो सेवा स्वशक्तिप्रमाण ए मुनिराजनी. २५२
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[आत्मशक्त्या ] अपनी शक्तिके अनुसार [प्रतिपद्यताम् ] वैयावृत्यादि करो
प्राप्तिके लिये केवल निवृत्तिका काल है
है, और शेष कालमें शुद्धात्मपरिणतिको प्राप्त करनेके लिये निज अनुष्ठान होता है
है और किस निमित्तसे नहीं, सो कहते हैं ) :
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तदाकाले तद्वैयावृत्त्यनिमित्तं लौकिकजनैः सह संभाषणं करोति, न शेषकाल इति भावार्थः
शुभोपयोगयुक्त [लौकिकजनसंभाषा ] लौकिक जनोंके साथकी बातचीत [न निन्दिता ] निन्दित
नहीं है
तेना वडे ज गृहस्थ पामे मोक्षसुख उत्कृष्टने. २५४
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त्वाद्गौणः श्रमणानां; गृहिणां तु, समस्तविरतेरभावेन शुद्धात्मप्रकाशनस्याभावात्कषायसद्भावा-
त्प्रवर्तमानोऽपि, स्फ टिकसम्पर्केणार्कतेजस इवैधसां, रागसंयोगेन शुद्धात्मनोऽनुभवात
तपोधनसंसर्गेण निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गोपदेशलाभो भवति
भणिता ] ऐसा (शास्त्रोंमें) कहा है; [तया एव ] उसीसे [परं सौख्यं लभते ] (परम्परासे)
गृहस्थ परम सौख्यको प्राप्त होता है
सद्भावके कारण प्रवर्तित होता हुआ, गौण होता है, क्योंकि वह शुभोपयोग शुद्धात्मपरिणतिसे
विरुद्ध ऐसे रागके साथ संबंधवान है; और वह शुभोपयोग गृहस्थोंके तो, सर्वविरतिके अभावसे
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शुभोपयोग मुख्य है
शुद्धात्मद्रव्यके मंद आलम्बनसे अशुभ परिणति बदलकर शुभ परिणति होती है और
शुद्धात्मद्रव्यके उग्र आलम्बनसे शुभपरिणति भी बदलकर शुभपरिणति हो जाती है
[प्रशस्तभूतः रागः ] प्रशस्तभूत राग [वस्तुविशेषेण ] वस्तु
भूमिमें वही खराब हो जाता है या उत्पन्न ही नहीं होता), उसीप्रकार प्रशस्तरागस्वरूप शुभोपयोग
ज्योंका त्यों होने पर भी पात्रकी विपरीततासे फलकी विपरीतता होती है, क्योंकि कारणके भेदसे
कार्यका भेद अवश्यम्भावी (अनिवार्य) है
निष्पत्ति विपरीत होय भूमिविशेषथी ज्यम बीजने. २५५