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प्राप्तिः फलवैपरीत्यं; तत्सुदेवमनुजत्वम्
फलं ददाति
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न च गणधरदेवादयः
फलता है
शुद्धात्मपरिणतिको प्राप्त न करनेसे ‘विषयकषायमें अधिक’ ऐसे पुरुष हैं
उपकार
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[तत्प्रतिबद्धाः ] उनमें प्रतिबद्ध (विषय
होते, तब फि र वे संसारसे निस्तारके कारण तो कैसे हो सकते हैं ? (नहीं हो सकते); इसलिये
उनसे अविपरीत फल सिद्ध नहीं होता (अर्थात् विषयकषायवान् पुरुषरूप विपरीत कारणका
फल अविपरीत नहीं होता)
तो केम तत्प्रतिबद्ध पुरुषो होय रे निस्तारका ? २५८
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र्मोहद्वेषाशुभरागरहितकाले सरागचारित्रलक्षणशुभोपयोगयुक्ताः सन्तो भव्यलोकं निस्तारयन्ति, तेषु च
करनेवाला है, [सः पुरुषः ] वह पुरुष [सुमार्गस्य ] सुमार्गका [भागी भवति ] भागी होता है
ऐसा ‘अविपरीत कारण’ है, ऐसी प्रतीति करनी चाहिये
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पुण्यभाजः
[लोकं निस्तारयन्ति ] लोगोंको तार देते हैं; (और) [तेषु भक्तः ] उनके प्रति भक्तिवान जीव
[प्रशस्तं ] प्रशस्त (-पुण्य) को [लभते ] प्राप्त करता है
(शुद्धोपयोगमें युक्त) और प्रशस्त रागके विपाकके कदाचित् शुभोपयुक्त होते हैं वे
प्रशस्त भाव प्रवर्तता है ऐसे पर जीव पुण्यके भागी (पुण्यशाली) होते हैं
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वर्तो श्रमण, पछी वर्तनीय गुणानुसार विशेषथी. २६१
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रत्नत्रयगुणप्रकाशनं सत्कारः, बद्धाञ्जलिनमस्कारोऽञ्जलिकरणम्, नमोऽस्त्वितिवचनव्यापारः प्रणाम
इति
अभ्युत्थानयोग्या भवन्ति
निक्षेपैर्विचारचतुरचेतसः सूत्रार्थविशारदाः
(उनके अशन, शयनादिकी चिन्ता), [सत्कारः ] सत्कार (गुणोंकी प्रशंसा), [अञ्जलिकरणं ]
अञ्जलि करना (विनयपूर्वक हाथ जोड़ना) [च ] और [प्रणामः ] प्रणाम करना [इह ] यहाँ
[भणितम् ] कहा है
अंजलिकरण, पोषण, ग्रहण, सेवन अहीं उपदिष्ट छे.२६२
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संयमतपज्ञानाढय, (संयम, तप और आत्मज्ञानमें समृद्ध) [श्रमणः ] श्रमण [अभ्युत्थेयाः
उपासेयाः प्रणिपतनीयाः ] अभ्युत्थान, उपासना और प्रणाम करने योग्य हैं
अतिरिक्त अन्य श्रमणाभासोंके प्रति वे प्रवृत्तियाँ निषिद्ध ही हैं
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[अर्थान् ] पदार्थोंका [न श्रद्धत्ते ] श्रद्धान नहीं करता तो वह [श्रमणः न भवति ] श्रमण नहीं
है,
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निवर्तते तदा दोषो नास्ति, कालान्तरे वा निवर्तते तथापि दोषो नास्ति
किमपि सारपदं गृहीत्वा स्वयं भावनैव कर्तव्या
और [क्रियासु न अनुमन्यते ] (सत्कारादि) क्रियाओंसे करनेमें अनुमत (प्रसन्न) नहीं है [सः
नष्टचारित्रः हि भवति ] उसका चारित्र नष्ट होता है
अनुमत नहीं किरिया विषे, ते नाश चरण तणो करे. २६५
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किमपि ज्ञानसंयमशौचोपकरणादिकं ग्राह्यमित्यपवादव्याख्यानमेव मुख्यम्
भवति, तत्राप्यभेदविवक्षया पुनरेकैव वीतरागचारित्राराधना, तथा भेदनयेन सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञान-
सम्यक्चारित्ररूपस्त्रिविधमोक्षमार्गो भवति, स एवाभेदनयेन श्रामण्यापरमोक्षमार्गनामा पुनरेक एव, स
चाभेदरूपो मुख्यवृत्त्या ‘एयग्गगदो समणो’ इत्यादिचतुर्दशगाथाभिः पूर्वमेव व्याख्यातः
अधिकस्य ] गुणोंमें अधिक (ऐसे श्रमण) के पाससे [विनयं प्रत्येषकः ] विनय (करवाना)
चाहता है [सः ] वह [अनन्तसंसारी भवति ] अनन्तसंसारी होता है
वशसे कदाचित् अनन्त संसारी भी होता है
इच्छे विनय गुण
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तदानन्तसंसारी न भवति, यदि पुनस्तत्रैव मिथ्याभिमानेन ख्यातिपूजालाभार्थं दुराग्रहं करोति तदा
भवति
हैं, [ते ] वे [मिथ्योपयुक्ताः ] मिथ्या उपयुक्त होते हुए [प्रभ्रष्टचारित्राः भवन्ति ] चारित्रसे भ्रष्ट
होते हैं
तो भ्रष्ट थाय चरित्रथी उपयुक्त मिथ्या भावमां. २६७
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रागद्वेषौ कुर्वन्ति, न चान्य इति
(-मिथ्याभावोंमें युक्त होते हुए) चारित्रसे भ्रष्ट होते हैं
[च ] और [तपोऽधिकः अपि ] जो अधिक तपवान् है
तो वह संयत नहीं है (अर्थात् असंयत हो जाता है)
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निश्चयनान्निश्चितसूत्रार्थपदत्वेन, निरुपरागोपयोगत्वात
विकारत्वात
सूत्रार्थपदः,
लौकिकाः स्वेच्छाचारिणस्तेषां संसर्गो लौकिकसंसर्गस्तं न त्यजति यदि चेत्
गुंथ जानेसे (
है ऐसा’ हो, और (३) निष्कंप उपयोगका
अवश्यंभावी है
शमित किया हो (३) और जो अधिक तपवान् हो, वह जीव भी लौकिकजनके संगसे असंयत
ही होता है; क्योंकि जैसे अग्निके संगसे पानीमें उष्णतारूप विकार अवश्य होता है, उसीप्रकार
लौकिकजनके संसर्गको न छोड़नेवाले संयतके असंयततारूप विकार अवश्य होता है
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इत्युच्यते
कर्मभिः वर्तते ] ऐहिक कार्यों सहित वर्तता हो तो, [लौकिकः इति भणितः ] ‘लौकिक’ कहा
गया है
निरंतर मनुष्यव्यवहारके द्वारा चक्कर खानेसे
लौकिक कह्यो तेने य, जो छोडे न ऐहिक कर्मने. २६९
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होना चाहता हो तो वह [गुणात्समं ] समान गुणोंवाले श्रमणके [वा ] अथवा [गुणैः
अधिकं श्रमणं तत्र ] अधिक गुणोंवाले श्रमणके संगमें [नित्यम् ] सदा [अधिवसतु ]
निवास करो
ही हो जाता है
तो नित्य वसवुं समान अगर विशेष गुणीनां संगमां. २७०
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ज्ञानानन्दमयीं दशामनुभवत्वेकान्ततः शाश्वतीम्
वा तपोधनमाश्रयति, तदास्य तपोधनस्य यथा शीतलभाजनसहितशीतलजलस्य शीतलगुणरक्षा भवति
ही निवास करना चाहिये
शीतल हिम (बरफ ) के संपर्कमें रहनेवाले शीतल पानीकी भाँति अधिक गुणवालेके
संगसे गुणवृद्धि होती है
हुआ; जिसका रम्य उदय समस्त वस्तुसमूहके विस्तारको लीलामात्रसे प्राप्त हो जाता है
(-जान लेता है) ऐसी शाश्वती ज्ञानानन्दमयी दशाका एकान्ततः (केवल, सर्वथा, अत्यन्त)
अनुभव करो
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जीयात्सम्प्रति पंचरत्नमनघं सूत्रैरिमैः पंचभिः
व्याख्यानं करोति
अत्यंतफलसमृद्ध भावी काळमां जीव ते भमे. २७१
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अप्यनासादितपरमार्थश्रामण्यतया श्रमणाभासाः सन्तोऽनन्तकर्मफलोपभोगप्राग्भारभयंकर-
मनन्तकालमनन्तभावान्तरपरावर्तैरनवस्थितवृत्तयः संसारतत्त्वमेवावबुध्यताम्
निश्चिताः ] इसप्रकार निश्चयवान वर्तते हुए [अयथागृहीतार्थाः ] पदार्थोंको अयथार्थरूपसे ग्रहण
करते हैं (-जैसे नहीं हैं वैसा समझते हैं ), [ते ] वे [अत्यन्तफलसमृद्धम् ] अत्यन्तफलसमृद्ध
(अनन्त कर्मफलोंसे भरे हुए) ऐसे [अतः परं कालं ] अबसे आगामी कालमें [भ्रमन्ति ]
परिभ्रमण करेंगे
एकत्रित किये जानेवाले महा मोहमलसे मलिन मनवाले होनेसे नित्य अज्ञानी हैं, वे भले
ही समयमें (-द्रव्यलिंगी रूपसे जिनमार्गमें) स्थित हों तथापि परमार्थ श्रामण्यको प्राप्त न
होनेसे वास्तवमें श्रमणाभास वर्तते हुए अनन्त कर्मफलकी उपभोगराशिसे भयंकर ऐसे
अनन्तकाल तक अनन्त भावान्तररूप परावर्त्तनोंसे
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[अफले ] अफल (
है