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भावपरावर्ताभावात
सम्पूर्ण श्रामण्यवाले साक्षात् श्रमणको मोक्षतत्व जानना, क्योंकि पहलेके सकल कर्मोंके फल
उसने लीलामात्रसे नष्ट कर दिये हैं इसलिये और वह नूतन कर्मफलोंको उत्पन्न नहीं करता
इसलिये पुनः प्राणधारणरूप दीनताको प्राप्त न होता हुआ द्वितीय भावरूप परावर्तनके अभावके
कारण शुद्धस्वभावमें
[विषयेषु न अवसक्ताः ] विषयोंमें आसक्त नहीं हैं, [ते ] वे [शुद्धाः इति निर्दिष्टाः ] ‘शुद्ध’
कहे गये हैं
आसक्त नहि विषयो विषे जे, ‘शुद्ध’ भाख्या तेमने. २७३
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स्वरूपगुप्तसुषुप्तकल्पान्तस्तत्त्ववृत्तितया विषयेषु मनागप्यासक्तिमनासादयन्तः समस्तानुभाववन्तो
भगवन्तः शुद्धा एवासंसारघटितविकटकर्मकवाटविघटनपटीयसाध्यवसायेन प्रकटीक्रियमाणा-
वदाना मोक्षतत्त्वसाधनतत्त्वमवबुध्यताम्
ाा
ा
्र्र
्रयलक्षणं
(तेजस्वी) आत्मतत्त्वके स्वरूपको जिनने समस्त बहिरंग तथा अन्तरंग संगतिके परित्यागसे
विविक्त (भिन्न) किया है, और (इसलिये) अन्तःतत्त्वकी वृत्ति (-आत्माकी परिणति) स्वरूप
गुप्त तथा सुषुप्त (जैसे कि सो गया हो) समान (
छे शुद्धने निर्वाण, शुद्ध ज सिद्ध, प्रणमुं तेहने. २७४
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स्वपरविभागो भावनमस्कारोऽस्तु
शुद्धके [निर्वाणं ] निर्वाण होता है; [सः एव ] वही (-शुद्ध ही) [सिद्धः ] सिद्ध होता है;
[तस्मै नमः ] उसे नमस्कार हो
ज्ञान वे ‘शुद्ध’ के ही होते हैं; निर्विघ्न
ही होता है; और टंकोत्कीर्ण परमानन्द
वचनविस्तारसे बस हो ! सर्व मनोरथोंके स्थानभूत, मोक्षतत्वके साधनतत्वरूप, ‘शुद्ध’को,
जिसमें परस्पर अंगअंगीरूपसे परिणमित
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स्वभावो ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मरहितत्वेन सम्यक्त्वाद्यष्टगुणान्तर्भूतानन्तगुणसहितः सिद्धो भगवान् स
चैव शुद्धः एव
कालेन ] अल्प कालमें ही [प्रवचनसारं ] प्रवचनके सारको (-भगवान आत्माको) [प्राप्नोति ]
पाता है
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प्रवाहावस्थायित्वेन सकलार्थसार्थात्मकस्य प्रवचनस्य सारभूतं भूतार्थस्वसंवेद्यदिव्यज्ञानानन्द-
स्वभावमननुभूतपूर्वं भगवन्तमात्मानमवाप्नोति
सम्यग्दर्शनस्य तद्विषयभूतानेकान्तात्मकपरमात्मादिद्रव्याणां तेन व्यवहारसम्यक्त्वेन साध्यस्य निज-
शुद्धात्मरुचिरूपनिश्चयसम्यक्त्वस्य च, तथैव च व्रतसमितिगु प्त्याद्यनुष्ठानरूपस्य सरागचारित्रस्य तेनैव
साध्यस्य स्वशुद्धात्मनिश्चलानुभूतिरूपस्य वीतरागचारित्रस्य च प्रतिपादकत्वात्प्रवचनसाराभिधेयम्
सप्तनवतिगाथाभि
नामका तृतीय श्रुतस्कंध समाप्त हुआ
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ज्ञानलक्षणप्रमाणपूर्वकस्वानुभवप्रमीयमाणत्वात
जो एक श्रुतज्ञानस्वरूप प्रमाण है, उस प्रमाणपूर्वक स्वानुभवसे (वह आत्मद्रव्य) प्रमेय होता
है (-ज्ञात होता है)
निशानकी ओर है, उसीप्रकार आत्मा अस्तित्वनयसे स्वचतुष्टयसे अस्तित्ववाला है
बाणकी भाँति
अपेक्षासे संधानदशामें नहीं रहा हुआ और अन्य बाणके भावकी अपेक्षासे अलक्ष्योन्मुख है,
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लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख ऐसे पहलेके बाणकी भाँति
अस्तित्व
नहीं स्थित, संधान अवस्थामें रहे हुए तथा संधान अवस्थामें न रहे हुए और लक्ष्योन्मुख तथा
अलक्ष्योन्मुख ऐसे पहलेकी बाणकी भाँति
आत्मा अवक्तव्यनयसे युगपत् स्वचतुष्टय और परचतुष्टयकी अपेक्षासे अवक्तव्य है
परचतुष्टसे) लोहमय तथा अलोहमय, डोरी और धनुषके मध्यमें स्थित तथा डोरी और धनुषके
मध्यमें नहीं स्थित, संधान अवस्थाएं रहे हुए तथा संधान अवस्थामें रहे हुए और लक्ष्योन्मुख
तथा अलक्ष्योन्मुख ऐसे पहलेके बाणकी भाँति
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वस्थलक्ष्योन्मुखालक्ष्योन्मुखप्राक्तनविशिखवत
स्वपरचतुष्टयकी अपेक्षासे (१) अस्तित्ववाला तथा (२) अवक्तव्य है
(युगपत् स्वपरचतुष्टयसे) लोहमय तथा अलोहमय, डोरी और धनुषके मध्यमें स्थित तथा डोरी
और धनुषके मध्यमें नहीं स्थित, संधान अवस्थामें रहे हुए तथा संधान अवस्थामें न रहे हुए
और लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख ऐसे पहलेके बाणकी भाँति
(२) अवक्तव्य है, उसीप्रकार आत्मा नास्तित्व
लोहमय तथा अलोहमय, डोरो और धनुषके मध्यमें स्थित तथा प्रत्यञ्चा और धनुषके मध्यमें
नहीं स्थित, संधान अवस्थामें रहे हुए तथा संधान अवस्थामें न रहे हुए और लक्ष्योन्मुख तथा
अलक्ष्योन्मुख ऐसे पहलेके बाणकी भाँति
(२) अलोहमय तथा (३) अवक्तव्य है, उसीप्रकार आत्मा अस्तित्व
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प्राक्त नविशिखवत
भेदवाला है
है
कहा जाता है
ख्यालमें आता है, जैसे कि बालक सेठपने स्वरूप भावी पर्यायरूपसे ख्यालमें आता है और
मुनि राजास्वरूप भूर्तपर्यायरूपसे आता है
प्रतिभासित होती है
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व्याप्त होता है
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स्वभावसे ही नुकीला है) ऐसे पैने काँटेकी भाँति
लुहारके द्वारा नोक निकाली गई हो ऐसे पैने बाणकी भाँति
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रहितपरमानन्दैकलक्षणसुखामृतरसास्वादानुभवमलभमानः सन् पूर्णमासीदिवसे जलकल्लोलक्षुभितसमुद्र
जाता है ऐसे दैववादीकी भाँति
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इति
रक्तका विकार दूर होनेसे आँखे खुल जायें और निधान प्राप्त हो, उस प्रकार
चिंतामणि
उससे वियुक्त होनेवाले परमाणुकी भाँति
पानेरूप द्वैतको प्राप्त होता है और परमाणुके मोक्षमें वह परमाणु अन्य परमाणुसे पृथक् होनेरूप
द्वैतको पाता है, उस प्रकार
परिणमित होता हुआ परमाणु अकेला ही बद्ध और मुक्त होता है, उस प्रकार
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परस्परमतद्भावमात्रेणाशक्यविवेचनत्वादमेचकस्वभावैकधर्मव्यापकैकधर्मित्वाद्यथोदितैकान्तात्मा-
वर्तनादिपरंपरादुर्लभान्यपि कथंचित्काकतालीयन्यायेनावाप्य सकलविमलकेवलज्ञानदर्शनस्वभावनिज-
वास्तवमें सम्यक् है
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न्मेचकस्वभावानन्तधर्मव्याप्येकधर्मित्वाद
स्वात्मद्रव्यं शुद्धचिन्मात्रमन्तः
समवायात्मक (समुदायस्वरूप) एक समुद्रकी भाँति, अनन्त धर्मोंको वस्तुरूपसे पृथक् करना
अशक्य होनेसे आत्मद्रव्य
धर्मको जाननेवाले एक नयसे देखा जाय तो आत्मा एक धर्म स्वरूप ज्ञात होता है; परन्तु जैसे
एक ही साथ सर्व नदियोंके जलको जाननेवाले ज्ञानसे देखा जाय तो समुद्र सर्व नदियोंके
जलस्वरूप ज्ञात होता है, उसीप्रकार एक ही साथ सर्वधर्मोंको जाननेवाले प्रमाणसे देखा जाय
तो आत्मा अनेक धर्मस्वरूप ज्ञात होता है
आत्मद्रव्यको भीतरमें शुद्ध चैतन्यमात्र देखते ही हैं
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बहिरर्थव्यक्तिषु प्रवृत्तमैत्रीकस्य शिथिलितात्मविवेकतयात्यन्तबहिर्मुखस्य पुनः पौद्गलिककर्म-
निर्मापकरागद्वेषद्वैतमनुवर्तमानस्य दूरत एवात्मावाप्तिः
ज्ञानपूर्वकविभागकरणात
ज्ञप्तिव्यक्तिनिमित्ततया ज्ञेयभूतासु बहिरर्थव्यक्तिषु न नाम मैत्री प्रवर्तते; ततः
सुप्रतिष्ठितात्मविवेकतयात्यन्तमन्तर्मुखीभूतः पौद्गलिककर्मनिर्मापकरागद्वेषद्वैतानुवृत्तिदूरीभूतो
दूरत एवाननुभूतपूर्वमपूर्वज्ञानानन्दस्वभावं भगवन्तमात्मानमवाप्नोति
मोहकल्लोलक्षोभरहितप्रस्तावे यदा निजशुद्धात्मस्वरूपे स्थिरो भवति तदा तदैव निजशुद्धात्मस्वरूपं
प्राप्नोति
उसकी मैत्री प्रवर्तती है, इसलिये आत्मविवेक शिथिल हुआ होनेसे अत्यन्त बहिर्मुख ऐसा वह
पुनः पौद्गलिक कर्मके रचयिता रागद्वेषद्वैतरूप परिणमित होता है और इसलिये उसके
आत्मप्राप्ति दूर ही है
होनेसे समुद्रकी भाँति अपनेमें ही अति निष्कंप रहता हुआ एक साथ ही अनन्त ज्ञप्तिव्यक्तियोंमें
व्याप्त होकर अवकाशके अभावके कारण सर्वथा विवर्तन [परिवर्तन ] को प्राप्त नहीं होता, तब
ज्ञप्तिव्यक्तियोंके निमित्तरूप होनेसे जो ज्ञेयभूत हैं ऐसी बाह्यपदार्थव्यक्तियोंके प्रति उसे वास्तवमें
मैत्री नहीं प्रवर्तती और इसलिये आत्मविवेक सुप्रतिष्ठित [सुस्थित ] हुआ होनेके कारण अत्यन्त
अन्तर्मुख हुआ ऐसा यह आत्मा पौद्गलिक कर्मोंके रचयिता रागद्वेषद्वैतरूप परिणतिसे दूर होता
हुआ पूर्वमें अनुभव नहीं किये गये अपूर्व ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान् आत्माको आत्यंतिक रूपसे
ही प्राप्त करता है
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जिसमें मुख्य है, जो उत्तम रत्न
इसप्रकार जन मोहसे मत नाचो (
(
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अपरमिह न किंचित्तत्त्वमेकं परं चित
चारित्राधिकारश्चेति महाधिकारत्रयेणैकादशाधिकत्रिशतगाथाभिः
उस समस्त वर्णनको अनन्त महिमावान चैतन्य खा जाता है; चैतन्यकी अनन्त महिमाके निकट
सारा वर्णन मानो वर्णन ही न हुआ हो इस प्रकार तुच्छताको प्राप्त होता है
[उत्तम ] तत्त्व है
शाह कृत गुजराती अनुवादका हिन्दी रूपान्तर समाप्त हुआ
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व्यवहारनयको गौण करनेका आशय है ऐसा समझना चाहिये
है
व्यवहारनयको मुख्य करके और निश्चयनयको गौण रखकर कथन किया जाता है
अनन्य परिणाम है
ही होती जाती है और अशुद्धता टलती ही जाती है
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