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न्योन्यवृत्तिमन्तरेणापि विश्वज्ञेयाकारग्रहणसमर्पणप्रवणाः
तदाकारग्रहणे समर्थानि भवन्ति, तथा त्रैलोक्योदरविवरवर्तिपदार्थाः कालत्रयपर्यायपरिणता ज्ञानेन सह
परस्परप्रदेशसंसर्गाभावेऽपि स्वकीयाकारसमर्पणे समर्था भवन्ति, अखण्डैकप्रतिभासमयं केवलज्ञानं तु
तदाकारग्रहणे समर्थमिति भावार्थः
स्वभाववाले हैं, उसी प्रकार आत्मा और पदार्थ एक दूसरेमें प्रविष्ट हुए बिना ही समस्त
ज्ञेयाकारोंके ग्रहण और समर्पण करनेके स्वभाववाले हैं
ज्ञेयाकारोंके ग्रहण करने
लेने
नित्ये अतीन्द्रिय आतमा, ज्यम नेत्र जाणे रूपने
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ज्ञेयतामापन्नानि समस्तवस्तूनि स्वप्रदेशैरसंस्पृशन्न प्रविष्टः शक्तिवैचित्र्यवशतो वस्तुवर्तिनः
समस्तज्ञेयाकारानुन्मूल्य इव क वलयन्न चाप्रविष्टो जानाति पश्यति च
व्यवहारेण स्पृशति, तथा स्पृशन्निव ज्ञानेन जानाति दर्शनेन पश्यति च
हुआ [अशेषं जगत् ] अशेष जगतको (-समस्त लोकालोकको) [ज्ञेयेषु ] ज्ञेयोमां [न
प्रविष्टः ] अप्रविष्ट रहकर [न अविष्टः ] तथा अप्रविष्ट न रहकर [नियतं ] निरन्तर [जानाति
पश्यति ] जानता -देखता है
अप्रविष्ट न रहकर जानता -देखता है; इसीप्रकार आत्मा भी इन्द्रियातीतताके कारण
वर्तते समस्त ज्ञेयाकारोंको मानों मूलमेंसे उखाड़कर ग्रास कर लेनेसे अप्रविष्ट न रहकर जानता-
देखता है
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संयमेन यदुत्पन्नं केवलज्ञानं तत् स्वपरपरिच्छित्तिसामर्थ्येन समस्ताज्ञानान्धकारं तिरस्कृत्य
निश्चयसे तो ज्ञेयोंमें अप्रविष्ट है तथापि ज्ञायक -दर्शक शक्तिकी किसी परम अद्भुत विचित्रताके
कारण (निश्चयसे दूर रहकर भी) वह समस्त ज्ञेयाकारोंको जानता -देखता है, इसलिये व्यवहारसे
यह कहा जाता है कि ‘आत्मा सर्वद्रव्य -पर्यायोंमें प्रविष्ट हो जाता है
[अभिभूय ] व्याप्त होकर [वर्तते ] वर्तता है, [तथा ] उसीप्रकार [ज्ञानं ] ज्ञान (अर्थात्
ज्ञातृद्रव्य) [अर्थेषु ] पदार्थोंमें व्याप्त होकर वर्तता है
दूधने विषे व्यापी रहे, त्यम ज्ञान पण अर्थो विषे
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भिभूय वर्तत इत्युच्यमानं न विप्रतिषिध्यते
दोषो नास्तीति
ने सर्वगत छे ज्ञान तो क्यम ज्ञानस्थित अर्थो नहीं ?
उपचार करके यह कहनेमें विरोध नहीं आता कि ‘ज्ञान पदार्थोंमें व्याप्त होकर वर्तता है
दूधमें) व्याप्त कही जाती है, इसीप्रकार ज्ञेयोंसे भरे हुए विश्वमें रहनेवाला आत्मा समस्त ज्ञेयोंको
(लोकालोकको) अपनी ज्ञानप्रभाके द्वारा प्रकाशित करता है अर्थात् जानता है इसलिये
व्यवहारसे आत्माका ज्ञान और आत्मा सर्वव्यापी कहलाता है
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संवेद्याकारकारणानीति कथं न ज्ञानस्थायिनोऽर्था निश्चीयन्ते
भवन्त्येवेति
इति
ज्ञान सर्वगत है तो [अर्थाः ] पदार्थ [ज्ञानस्थिताः ] ज्ञानस्थित [कथं न ] कैसे नहीं हैं ?
(अर्थात् अवश्य हैं)
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देखे अने जाणे निःशेषे सर्वतः ते सर्वने
ज्ञेयाकारोंके निमित्तसे ज्ञानमें ज्ञानकी अवस्थारूप ज्ञेयाकार होते हैं (क्योंकि यदि ऐसा न हो
तो ज्ञान सर्व पदार्थोंको नहीं जान सकेगा)
उनके कारण पदार्थ हैं
करके व्यवहारसे ऐसा कहा जा सकता है कि ‘पदार्थ ज्ञानमें हैं’
देखता -जानता है इसलिये उसे (पदार्थोंके साथ) अत्यन्त भिन्नता है ऐसा बतलाते हैं :
वे [निरवशेषं सर्वं ] निरवशेषरूपसे सबको (सम्पूर्ण आत्माको, सर्व ज्ञेयोंको) [समन्ततः ]
सर्व ओरसे (सर्व आत्मप्रदेशोंसे) [पश्यति जानाति ] देखते
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स्फु रितदर्शनज्ञानशक्तिः, समस्तमेव निःशेषतयात्मानमात्मनात्मनि संचेतयते
मुञ्चति यतस्ततः कारणादयं जीवः केवलज्ञानोत्पत्तिक्षण एव युगपत्सर्वं जानन्सन् परं विकल्पान्तरं न
परिणमति
निष्कंप निकलनेवाली ज्योतिवाला उत्तम मणि जैसा होकर रहता हुआ, (१) जिसके सर्व ओरसे
(सर्व आत्मप्रदेशोंसे) दर्शनज्ञानशक्ति स्फु रित है ऐसा होता हुआ,
पदार्थोंके समूहका
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भवतीति निश्चिनोति
प्रतिपादयति ---
तथा उन्हें कुछ भी जानना शेष नहीं रहता इसलिये उनका ज्ञान किसी विशेष ज्ञेयाकारको
जाननेके प्रति भी नहीं जाता; इसप्रकार भी वे परसे सर्वथा भिन्न हैं
परद्रव्यके साथका सम्बन्ध कहलाता है
निश्चयसे प्रत्येक आत्मा परसे भिन्न है
विशेष जाननेकी इच्छाके क्षोभको नष्ट करते हैं ) :
[तं ] उसे [लोकप्रदीपकराः ] लोकके प्रकाशक [ऋषयः ] ऋषीश्वरगण [श्रुतकेवलिनं
भणन्ति ] श्रुतकेवली कहते हैं
ऋषिओ प्रकाशक लोकना श्रुतकेवली तेने कहे. ३३
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स्वभावेनैकत्वात
रसास्वादेनानुभवति
स्वानुभवनाद्यथा भगवान् केवली भवति, तथायं
क्रमशः परिणमित होते हुए कितने ही चैतन्यविशेषोंसेयुक्त श्रुतज्ञानके द्वारा, अनादिनिधन-
निष्कारण -असाधारण -स्वसंवेद्यमान -चैतन्यसामान्य जिसकी महिमा है तथा जो चेतक
स्वभावके द्वारा एकत्व होने से
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चैतन्यके कुछ विशेष क्रमशः परिणमित होते हैं ऐसे श्रुतज्ञानके द्वारा श्रुतकेवली केवल आत्माका
अनुभव करते हैं; अर्थात्, केवली सूर्यके समान केवलज्ञानके द्वारा आत्माको देखते और अनुभव
करते हैं तथा श्रुतकेवली दीपकके समान श्रुतज्ञानके द्वारा आत्माको देखते और अनुभव करते
हैं, इसप्रकार केवली और श्रुतकेवलीमें स्वरूपस्थिरताकी तरतमतारूप भेद ही मुख्य है, कम-
बढ़ (पदार्थ) जाननेरूप भेद अत्यन्त गौण है
[ज्ञानं ] ज्ञान है [च ] और उसे [सूत्रस्य ज्ञप्तिः ] सूत्रकी ज्ञप्ति (श्रुतज्ञान) [भणिता ] कहा
गया है
छे ज्ञप्ति तेनी ज्ञान, तेने सूत्रनी ज्ञप्ति कहे. ३४
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वस्तुप्रकाशकं ज्ञानं भण्यते, पश्चाद्वयवहारेण मेघपटलावृतादित्यस्यावस्थाविशेषवत्कर्मपटलावृता-
खण्डैकज्ञानरूपजीवस्य मतिज्ञानश्रुतज्ञानादिव्यपदेशो भवतीति भावार्थः
कारण होनेसे ज्ञानके रूपमें उपचारसे ही कहा जाता है (जैसे कि अन्नको प्राण कहा जाता
है)
कहने पर निश्चयसे ज्ञप्ति कहीं पौद्गलिक सूत्रकी नहीं, किन्तु आत्माकी है; सूत्र ज्ञप्तिका
स्वरूपभूत नहीं, किन्तु विशेष वस्तु अर्थात् उपाधि है; क्योंकि सूत्र न हो तो वहाँ भी ज्ञप्ति
तो होती ही है
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पोते प्रणमतो ज्ञानरूप, ने ज्ञानस्थित सौ अर्थ छे. ३५
जाता है, तथापि आत्मा और ज्ञान भिन्न नहीं हैं इसलिये अभेदनयसे ‘आत्मा ही ज्ञान है’ ऐसा
समझाते हैं) :
है [न ] ऐसा नहीं है
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रनंकु शा स्यात
ज्ञातृज्ञानविभागक्लेशकल्पनया
भ्यन्तरोपकरणं तथाभिन्नमेव भवति, उपाध्यायप्रकाशादिबहिरङ्गोपकरणं तद्भिन्नमपि भवतु दोषो
नास्ति
इसप्रकार राख इत्यादिके भी ज्ञप्तिका उद्भव निरंकुश हो जायेगा
माना जाये तो जैसे ज्ञान आत्माके साथ युक्त होता है, उसीप्रकार राख, घड़ा, स्तंभ इत्यादि समस्त
पदार्थोंके साथ युक्त हो जाये और उससे वे सब पदार्थ भी जाननेका कार्य करने लगें; किन्तु ऐसा
तो नहीं होता, इसलिये आत्मा और ज्ञान पृथक् नहीं हैं ) और, अपनेसे अभिन्न ऐसे समस्त
ज्ञेयाकाररूप परिणमित जो ज्ञान है उसरूप स्वयं परिणमित होनेवालेको, कार्यभूत समस्त
ज्ञेयाकारोंके कारणभूत समस्त पदार्थ ज्ञानवर्ति ही कथंचित् हैं
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[परिणामसम्बद्धः ] जोकि परिणामवाले हैं
असमर्थ हैं
दो प्रकारका है
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मृग्यं स्वयमेव परिच्छेदनक्रियायाः समुपलम्भात
यह सब प्रत्यक्ष विरुद्ध है; इसलिये पर्यायके उत्पन्न होनेके लिये द्रव्यरूप आधार आवश्यक है
विरुद्ध प्रकारसे (भिन्न प्रकारसे) होती है
नहीं होती, क्योंकि उसके स्वयमेव प्रकाशन क्रियाकी प्राप्ति है; उसीप्रकार जो ज्ञेयभूत परको
जानता है ऐसे ज्ञायक आत्माको स्व ज्ञेयके जाननेके सम्बन्धमें अन्य ज्ञायककी आवश्यकता
नहीं होती, क्योंकि स्वयमेव ज्ञान -क्रिया की प्राप्ति
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चतुर्थस्थले गाथाचतुष्टयं गतम्
ज्ञान स्वभावसे और द्रव्य ज्ञेय स्वभावसे परिणमन करता है, इसप्रकार ज्ञान स्वभावमें परिणमित
आत्मा ज्ञानके आलम्बनभूत द्रव्योंको जानता है और ज्ञेय -स्वभावसे परिणमित द्रव्य ज्ञेयके
आलम्बनभूत ज्ञानमें
तात्कालिक (वर्तमान) पर्यायोंकी भाँति
(उन समस्त द्रव्य -जातियोंकी), क्रमपूर्वक तपती हुई स्वरूप -सम्पदा वाली (-एकके बाद
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वधारितविशेषलक्षणा एकक्षण एवावबोधसौधस्थितिमवतरन्ति
संविद्भित्तावपि
पर्यायाणां ज्ञेयाकारा वर्तमाना एव भवन्ति
तात्कालिक (वर्तमानकालीन) पर्यायोंकी भाँति, अत्यन्त
क्योंकि
वस्तुका चिंतवन करते हुए (भी) ज्ञान उसके आकारका अवलम्बन करता है
क्षणमें ही भासित होते हैं
पर्यायोंके ज्ञेयाकार वर्तमान ही हैं
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भाविरूपाणि च वर्तमानानीव प्रत्यक्षेण दृश्यन्ते तथा चित्रभित्तिस्थानीयकेवलज्ञाने भूतभाविनश्च पर्याया
युगपत्प्रत्यक्षेण दृश्यन्ते, नास्ति विरोधः
सकता है ? उसका समाधान है कि
हो सकता है; तब फि र पूर्ण ज्ञान नष्ट और अनुत्पन्न पर्यायोंको क्यों न जान सकेगा ? ज्ञानशक्ति
ही ऐसी है कि वह चित्रपटकी भाँति अतीत और अनागत पर्यायोंको भी जान सकती है और
आलेख्यत्वशक्तिकी भाँति, द्रव्योंकी ज्ञेयत्व शक्ति ऐसी है कि उनकी अतीत और अनागत
पर्यायें भी ज्ञानमें ज्ञेयरूप होती हैं
एक ही समयमें भासित होना अविरुद्ध है
वे [असद्भूताः पर्यायाः ] अविद्यमान पर्यायें [ज्ञानप्रत्यक्षाः भवन्ति ] ज्ञान प्रत्यक्ष हैं
ते सौ असद्भूत पर्ययो पण ज्ञानमां प्रत्यक्ष छे
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कारेण तन्मयो भूत्वा परिच्छिनत्ति जानाति, तथासन्नभव्यजीवेनापि निजशुद्धात्मसम्यक्श्रद्धान-
ज्ञानानुष्ठानरूपनिश्चयरत्नत्रयपर्याय एव सर्वतात्पर्येण ज्ञातव्य इति तात्पर्यम्
रहितस्वसंवेदनपर्याय एव तात्पर्येण ज्ञातव्यः, बहिर्द्रव्यपर्यायाश्च गौणवृत्त्येति
नव होय जो, तो ज्ञानने ए ‘दिव्य’ कौण कहे भला ? ३९.
निश्चित
(ज्ञानको) अर्पित करती हुई (वे पर्यायें ) विद्यमान ही हैं
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न करोति, तदा तस्य कुतस्तनी दिव्यता स्यात
सहजानन्दैकस्वभावे स्वशुद्धात्मनि तन्मयत्वेन परिच्छित्तिं करोति, तथा निर्मलविवेकिजनोऽपि यद्यपि
व्यवहारेण परकीयद्रव्यगुणपर्यायपरिज्ञानं करोति, तथापि निश्चयेन निर्विकारस्वसंवेदनपर्याये
विषयत्वात्पर्यायेण परिज्ञानं करोतीति सूत्रतात्पर्यम्
तो [तत् ज्ञानं ] उस ज्ञानको [दिव्यं इति हि ] ‘दिव्य’ [के प्ररूपयंति ] कौन प्ररूपेगा ?
अखंडित प्रतापयुक्त प्रभुशक्तिके (-महा सामर्थ्य ) द्वारा बलात् अत्यन्त आक्रमित करे
(-प्राप्त करे), तथा वे पर्यायें अपने स्वरूपसर्वस्वको अक्रमसे अर्पित करें (-एक ही साथ
ज्ञानमें ज्ञात हों ) इसप्रकार उन्हें अपने प्रति नियत न करे (-अपनेमें निश्चित न करे, प्रत्यक्ष
न जाने), तो उस ज्ञानकी दिव्यता क्या है ? इससे (यह कहा गया है कि) पराकाष्ठाको प्राप्त
ज्ञानके लिये यह सब योग्य है
जानता है