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विनाशकानि च
सहजशुद्धात्मनोऽभेदज्ञानं तत्र भावना कर्तव्या, इति तात्पर्यम्
सर्वपदार्थपरिज्ञानमिति द्वितीया चेति
सौ अर्थने जाणे छतां, तेथी अबंधक जिन कहे
जाननेकी क्रिया होने पर भी बन्ध नहीं होता, ऐसा कहकर ज्ञान -अधिकार पूर्ण करते हैं)
[तेषु अर्थेषु न एव उत्पद्यते ] और उन पदार्थोंके रूपमें उत्पन्न नहीं होता [तेन ] इसलिये
[अबन्धकः प्रज्ञप्तः ] उसे अबन्धक कहा है
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सिद्धयेत
दृढीकुर्वन् ज्ञानप्रपञ्चाधिकारमुपसंहरति ---
ज्ञानसे नहीं’ इसप्रकार प्रथम ही अर्थपरिणमनक्रियाके फलरूपसे बन्धका समर्थन किया गया
है (अर्थात् बन्ध तो पदार्थरूपमें परिणमनरूप क्रियाका फल है ऐसा निश्चित किया गया है)
तथा ‘गेण्हदि णेव ण मुञ्चदि ण परं परिणमदि केवली भगवं
उत्पन्न नहीं होता उस आत्माके ज्ञप्तिक्रियाका सद्भाव होने पर भी वास्तवमें क्रियाफलभूत बन्ध
सिद्ध नहीं होता
करते हैं, ज्ञानरूप ही परिणमित होते हैं और ज्ञानरूप ही उत्पन्न होते हैं
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मोहाभावाद्यदात्मा परिणमति परं नैव निर्लूनकर्मा
ज्ञेयाकारां त्रिलोकीं पृथगपृथगथ द्योतयन् ज्ञानमूर्तिः
तत्रैव भावना कर्तव्येत्यभिप्रायः
हुआ भी मोहके अभावके कारण पररूप परिणमित नहीं होता, इसलिये अब, जिसके समस्त
ज्ञेयाकारोंको अत्यन्त विकसित ज्ञप्तिके विस्तारसे स्वयं पी गया है ऐसै तीनोंलोकके पदार्थोंको
पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करता हुआ वह ज्ञानमूर्ति मुक्त ही रहता है
करते हैं :
छे सुख पण एवुंज, त्यां परधान जे ते ग्राह्य छे. ५३
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मपि तत्पदाभिलाषी परमभक्त्या प्रणमामि
(अमूर्त या मूर्त, अतीन्द्रिय या ऐन्द्रिय) सुख होता है
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चिदाकारपरिणामेभ्यः समुत्पद्यमानमत्यन्तमात्मायत्तत्वान्नित्यं युगपत्कृतप्रवृत्ति निःप्रतिपक्ष-
महानिवृद्धि च मुख्यमिति कृत्वा ज्ञानं सौख्यं चोपादेयम्
अथेन्द्रियज्ञानमुख्यत्वेन ‘जीवो सयं अमुत्तो’ इत्यादि गाथाचतुष्टयं, तदनन्तरमतीन्द्रियसुखमुख्यतया
‘जादं सयं’ इत्यादि गाथाचतुष्टयं, अथानन्तरमिन्द्रियसुखप्रतिपादनरूपेण गाथाष्टकम्, तत्राप्यष्टकमध्ये
प्रथमत इन्द्रियसुखस्य दुःखत्वस्थापनार्थं ‘मणुआसुरा’ इत्यादि गाथाद्वयं, अथ मुक्तात्मनां देहाभावेऽपि
सुखमस्तीति ज्ञापनार्थं देहः सुखकारणं न भवतीति कथनरूपेण ‘पप्पा इट्ठे विसये’ इत्यादि सूत्रद्वयं,
तदनन्तरमिन्द्रियविषया अपि सुखकारणं न भवन्तीति कथनेन ‘तिमिरहरा’ इत्यादि गाथाद्वयम्,
अतोऽपि सर्वज्ञनमस्कारमुख्यत्वेन ‘तेजोदिट्ठि’ इत्यादि गाथाद्वयम्
प्रथमतस्तावदधिकारस्थलगाथया स्थलचतुष्टयं सूत्रयति
प्रवर्तमान, निःप्रतिपक्ष और हानिवृद्धिसे रहित है, इसलिये मुख्य है, ऐसा समझकर वह
(ज्ञान और सुख) उपादेय अर्थात् ग्रहण करने योग्य है
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क्षायोपशमिकेन्द्रियशक्तिभिरुत्पन्नत्वादिन्द्रियजं ज्ञानं सुखं च परायत्तत्वेन विनश्वरत्वाद्धेयमिति
तात्पर्यम्
च मूर्तेषु पुद्गलद्रव्येषु यदतीन्द्रियं परमाण्वादि
वर्तमानसमयगतपरिणामास्तत्प्रभृतयो ये समस्तद्रव्याणां वर्तमानसमयगतपरिणामास्ते कालप्रच्छन्नाः,
तस्यैव परमात्मनः सिद्धरूपशुद्धव्यञ्जनपर्यायः शेषद्रव्याणां च ये यथासंभवं व्यञ्जनपर्यायास्तेष्वन्त-
ते सर्वने
[सकलं ] इन सबको
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सांप्रतिकपर्यायेषु, भावप्रच्छन्नेषु स्थूलपर्यायान्तर्लीनसूक्ष्मपर्यायेषु सर्वेष्वपि स्वपरव्यवस्था-
व्यवस्थितेष्वस्ति द्रष्टृत्वं, प्रत्यक्षत्वात
मनन्तशक्तिसद्भावतोऽनन्ततामुपगतं दहनस्येव दाह्याकाराणां ज्ञानस्य ज्ञेयाकाराणामन-
क्षेत्रमें प्रच्छन्न अलोकाकाशके प्रदेश इत्यादि, कालमें प्रच्छन्न
सबको वह अतीन्द्रिय ज्ञान देखता है) क्योंकि वह (अतीन्द्रिय ज्ञान) प्रत्यक्ष है
अनन्तशक्तिके सद्भावके कारण अनन्तताको (-बेहदताको) प्राप्त है, ऐसे उस प्रत्यक्ष ज्ञानको
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[अवग्रह्य ]
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स्पर्शादिप्रधानं वस्तूपलभ्यतामुपागतं योग्यमवगृह्य कदाचित्तदुपर्युपरि शुद्धिसंभवादवगच्छति,
कदाचित्तदसंभवान्नावगच्छति, परोक्षत्वात
पात्तानुपात्तपरप्रत्ययसामग्रीमार्गणव्यग्रतयात्यन्तविसंष्ठुलत्वमवलम्बमानमनन्तायाः शक्तेः परि-
स्खलनान्नितान्तविक्लवीभूतं महामोहमल्लस्य जीवदवस्थत्वात
३. अनुपात्त = अप्राप्त (प्रकाश इत्यादि अनुपात्त पर पदार्थ हैं )
४. विक्लव = खिन्न; दुःखी, घबराया हुआ
ज्ञप्ति उत्पन्न करनेमें बल -धारणका निमित्त होनेसे जो उपलम्भक है ऐसे उस मूर्त (शरीर) के
द्वारा मूर्त ऐसी
क्योंकि वह (इन्द्रिय ज्ञान) परोक्ष है
आवृत हो गया है, ऐसा आत्मा पदार्थको स्वयं जाननेके लिये असमर्थ होनेसे
परमार्थतः अज्ञानमें गिने जाने योग्य है
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छे इन्द्रिविषयो, तेमनेय न इन्द्रियो युगपद ग्रहे
पर भी पद पद पर ठगा जाता है (क्योंकि पर पदार्थ आत्माके आधीन परिणमित नहीं
होते) इसलिये परमार्थसे वह ज्ञान ‘अज्ञान’ नामके ही योग्य है
अक्षाणि ] (परन्तु ) वे इन्द्रियाँ [तान् ] उन्हें (भी) [युगपत् ] एक साथ [न एव गृह्णन्ति ]
ग्रहण नहीं करतीं (नहीं जान सकतीं)
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सुखकारणं
उसप्रकारकी शक्ति नहीं है
(-एक ही साथ अनेक विषयोंको जाननेके लिये) असमर्थ है, इसलिये द्रव्येन्द्रियद्वारोंके
विद्यमान होने पर भी समस्त इन्द्रियोंके विषयोंका (-विषयभूत पदार्थोंका) ज्ञान एक ही
साथ नहीं होता, क्योंकि इन्द्रिय ज्ञान परोक्ष है
सकता
ही होती है
द्वारा कार्य नहीं होता
द्वारा वर्णके देखनेमें लगा होता है तब कानमें कौनसे शब्द पड़ते हैं या नाकमें कैसी गन्ध आती
है इत्यादि ख्याल नहीं रहता
ज्ञात होते हों, तथापि सूक्ष्म दृष्टिसे देखने पर क्षायोपशमिक ज्ञान एक समयमें एक ही इन्द्रियके
द्वारा प्रवर्तमान होता हुआ स्पष्टतया भासित होता है
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प्रत्यक्षं भवितुमर्हति
ज्ञात [आत्मनः ] आत्माको [प्रत्यक्षं ] प्रत्यक्ष [कथं भवति ] कैसे हो सकता है ?
आत्मस्वभावत्वको किंचित्मात्र स्पर्श नहीं करतीं (आत्मस्वभावरूप किंचित्मात्र भी नहीं हैं )
ऐसी इन्द्रियोंके द्वारा उपलब्धि करके (-ऐसी इन्द्रियोंके निमित्तसे पदार्थोंको जानकर) उत्पन्न
होता है, इसलिये वह (इन्द्रियज्ञान) आत्माके लिये प्रत्यक्ष नहीं हो सकता
तेनाथी जे उपलब्ध ते प्रत्यक्ष कई रीत जीवने ?. ५७
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२. उपलब्धि = ज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमके निमित्तसे उत्पन्न पदार्थोंको जाननेकी शक्ति
४. चक्षुइन्द्रिय द्वारा रूपी पदार्थको देखनेमें प्रकाश भी निमित्तरूप होता है।
[केवलेन जीवेण ] मात्र जीवके द्वारा ही [ज्ञातं भवति हि ] जाना जाये तो [प्रत्यक्षं ] वह ज्ञान
प्रत्यक्ष है
जीवमात्रथी ज जणाय जो , तो ज्ञान ते प्रत्यक्ष छे. ५८.
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प्रवर्तमानं परिच्छेदनं तत
सकाशादुत्पद्यते यद्विज्ञानं तत्पराधीनत्वात्परोक्षमित्युच्यते
त्प्रत्यक्षं भवतीति सूत्राभिप्रायः
द्रव्य -पर्यायोंके समूहमें एक समय ही व्याप्त होकर प्रवर्तमान ज्ञान वह केवल आत्माके द्वारा
ही उत्पन्न होनेसे ‘प्रत्यक्ष’ के रूपमें जाना जाता है
अवग्रह -ईहादि रहित, निर्मल ज्ञान सुख एकांत छे
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बुभुत्सया, समलमसम्यगवबोधेन, अवग्रहादिसहितं क्रमकृतार्थग्रहणखेदेन परोक्षं ज्ञानमत्यन्त-
[अवग्रहादिभिः रहितं ] अवग्रहादिसे रहित
जाननेकी इच्छाके कारण, (४) ‘समल’ होनेसे असम्यक् अवबोधके कारण (
क्रमशः होनेवाले
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समन्तात्मप्रदेशान् परमसमक्षज्ञानोपयोगीभूयाभिव्याप्य व्यवस्थितत्वात्समन्तम् अशेषद्वारा-
पावरणेन, प्रसभं निपीतसमस्तवस्तुज्ञेयाकारं परमं वैश्वरूप्यमभिव्याप्य व्यवस्थितत्वादनन्तार्थ-
विस्तृतं समस्तार्थाबुभुत्सया, सकलशक्तिप्रतिबन्धककर्मसामान्यनिष्क्रान्ततया परिस्पष्ट-
प्रकाशभास्वरं स्वभावमभिव्याप्य व्यवस्थितत्वाद्विमलं सम्यगवबोधेन, युगपत्समर्पित-
त्रैसमयिकात्मस्वरूपं लोकालोकमभिव्याप्य व्यवस्थितत्वादवग्रहादिरहितं क्रमकृतार्थग्रहण-
खेदाभावेन प्रत्यक्षं ज्ञानमनाकुलं भवति
२. परमविविधता = समस्त पदार्थसमूह जो कि अनन्त विविधतामय है
परम
ज्ञेयाकारोंको सर्वथा पी जानेसे
जाननेकी इच्छा न होनेसे आकुलता नहीं होती); (४) सकल शक्तिको रोकनेवाला
कर्मसामान्य (ज्ञानमेंसे) निकल जानेसे (ज्ञान) अत्यन्त स्पष्ट प्रकाशके द्वारा प्रकाशमान
(-तेजस्वी) स्वभावमें व्याप्त होकर रहनेसे ‘विमल है’ इसलिये सम्यक्रूपसे (-बराबर)
जानता है (और इसप्रकार संशयादि रहिततासे जाननेके कारण आकुलता नहीं होती); तथा
(५) जिनने त्रिकालका अपना स्वरूप युगपत् समर्पित किया है (-एक ही समय बताया
है) ऐसे लोकालोकमें व्याप्त होकर रहनेसे ‘अवग्रहादि रहित है’ इसलिये क्रमशः होनेवाले
पदार्थ ग्रहणके खेदका अभाव है
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परिच्छित्तिविषयेऽत्यन्तविशदत्वाद्विमलं सत्, क्रमकरणव्यवधानजनितखेदाभावादवग्रहादिरहितं च सत्,
यदेवं पञ्चविशेषणविशिष्टं क्षायिकज्ञानं तदनाकुलत्वलक्षणपरमानन्दैकरूपपारमार्थिकसुखात्संज्ञालक्षण-
प्रयोजनादिभेदेऽपि निश्चयेनाभिन्नत्वात्पारमार्थिकसुखं भण्यते
भाख्यो न तेमां खेद जेथी घातिकर्म विनष्ट छे
भणितः ] उसे खेद नहीं कहा है (अर्थात् केवलज्ञानमें सर्वज्ञदेवने खेद नहीं कहा) [यस्मात् ]
क्योंकि [घातीनि ] घातिकर्म [क्षयं जातानि ] क्षयको प्राप्त हुए हैं
सुखत्व न हो ?
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खेदनिदानतां प्रतिपद्यन्ते
स्वयमेव परिणमत् केवलमेव परिणामः, ततः कुतोऽन्यः परिणामो यद्द्वारेण खेदस्यात्म-
लाभः
केवलज्ञानस्य खेदो नास्तीति सुखमेव
होकर थकनेवाले आत्माके लिये खेदके कारण होते हैं
हैं ऐसे समस्त पदार्थोंकी ज्ञेयाकाररूप (विविधताको प्रकाशित करनेका स्थानभूत केवलज्ञान,
चित्रित् दीवारकी भाँति, स्वयं) ही अनन्तस्वरूप स्वयमेव परिणमित होनेसे केवलज्ञान ही
परिणाम है
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केवलसुखयोर्व्यतिरेकः
नास्ति, तथैव च शुद्धात्मसर्वप्रदेशेषु समरसीभावेन परिणममानानां सहजशुद्धानन्दैकलक्षणसुख-
रसास्वादपरिणतिरूपामात्मनः सकाशादभिन्नामनाकुलतां प्रति खेदो नास्ति
ही सुख है, इसलिये केवलज्ञान और सुखका व्यतिरेक कहाँ है ?
किया गया है :
होनेसे वहाँ थकावट या दुःख नहीं है
अत्यन्त निष्कंप -स्थिर -अक्षुब्ध -अनाकुल है; और अनाकुल होनेसे सुखी है
है
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नष्ट हो चुका है [पुनः ] और [यत् तु ] जो [इष्टं ] इष्ट है [तत् ] वह सब [लब्धं ] प्राप्त
हुआ है
लोकालोकमें विस्तृत होनेसे और ज्ञान पदार्थोंके पारको प्राप्त होनेसे वे (दर्शन -ज्ञान)
स्वच्छन्दतापूर्वक (-स्वतंत्रतापूर्वक, बिना अंकुश, किसीसे बिना दबे) विकसित हैं (इसप्रकार
दर्शन -ज्ञानरूप स्वभावके प्रतिघातका अभाव है) इसलिये स्वभावके प्रतिघातका अभाव
जिसका कारण है ऐसा सुख अभेदविवक्षासे केवलज्ञानका स्वरूप है
छे नष्ट सर्व अनिष्ट ने जे इष्ट ते सौ प्राप्त छे