Pravachansar (Hindi). Gatha: 76-86.

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तृष्णाभिर्दुःखबीजतयाऽत्यन्तदुःखिताः सन्तो मृगतृष्णाभ्य इवाम्भांसि विषयेभ्यः सौख्यान्य-
भिलषन्ति
तद्दुःखसंतापवेगमसहमाना अनुभवन्ति च विषयान्, जलायुका इव, तावद्यावत
क्षयं यान्ति यथा हि जलायुकास्तृष्णाबीजेन विजयमानेन दुःखांकु रेण क्रमतः समाक्रम्यमाणा
दुष्टकीलालमभिलषन्त्यस्तदेवानुभवन्त्यश्चाप्रलयात् क्लिश्यन्ते, एवममी अपि पुण्यशालिनः
पापशालिन इव तृष्णाबीजेन विजयमानेन दुःखांकु रेण क्रमतः समाक्रम्यमाणा विषयान-
भिलषन्तस्तानेवानुभवन्तश्चाप्रलयात
् क्लिश्यन्ते अतः पुण्यानि सुखाभासस्य दुःखस्यैव
साधनानि स्युः ।।७५।।
सुखाद्विलक्षणानि विषयसुखानि इच्छन्ति न केवलमिच्छन्ति, न केवलमिच्छन्ति, अणुभवंति य अनुभवन्ति च किंपर्यन्तम्
आमरणं मरणपर्यन्तम् कथंभूताः दुक्खसंतत्ता दुःखसंतप्ता इति अयमत्रार्थःयथा तृष्णोद्रेकेण
१. जैसे मृगजलमेंसे जल नहीं मिलता वैसे ही इन्द्रियविषयोंमेंसे सुख प्राप्त नहीं होता
२. दुःखसंताप = दुःखदाह; दुःखकी जलनपीड़ा
होनेसे पुण्यजनित तृष्णाओंके द्वारा भी अत्यन्त दुःखी होते हुए मृगतृष्णामेंसे जलकी भाँति
विषयोंमेंसे सुख चाहते हैं और उस दुःखसंतापके वेगको सहन न कर सकनेसे विषयोंको तब
-तक भोगते हैं, जब तक कि विनाशको [-मरणको ] प्राप्त नहीं होते जैसे जोंक (गोंच)
तृष्णा जिसका बीज है ऐसे विजयको प्राप्त होती हुई दुःखांकुरसे क्रमशः आक्रान्त होनेसे दूषित
रक्त को चाहती है और उसीको भोगती हुई मरणपर्यन्त क्लेशको पाती है, उसीप्रकार यह
पुण्यशाली जीव भी, पापशाली जीवोंकी भाँति, तृष्णा जिसका बीज है ऐसे विजय प्राप्त
दुःखांकुरोंके द्वारा क्रमशः आक्रांत होनेसे, विषयोंको चाहते हुए और उन्हींको भोगते हुए
विनाशपर्यंत (-मरणपर्यन्त) क्लेश पाते हैं
इससे पुण्य सुखाभास ऐसे दुःखका ही साधन है
भावार्थ :जिन्हें समस्तविकल्पजाल रहित परमसमाधिसे उत्पन्न सुखामृतरूप सर्व
आत्मप्रदेशोंमें परमआह्लादभूत स्वरूपतृप्ति नहीं वर्तती ऐसे समस्त संसारी जीवोंके निरन्तर
विषयतृष्णा व्यक्त या अव्यक्तरूपसे अवश्य वर्तती है
वे तृष्णारूपी बीज क्रमशः अंकुररूप
होकर दुःखवृक्षरूपसे वृद्धिको प्राप्त होकर, इसप्रकार दुःखदाहका वेग असह्य होने पर, वे जीव
विषयोंमें प्रवृत्त होते हैं
इसलिये जिनकी विषयोंमें प्रवृत्ति देखी जाती है ऐसे देवों तकके समस्त
संसारी जीव दुःखी ही हैं
इसप्रकार दुःखभाव ही पुण्योंकापुण्यजनित सामग्रीकाआलम्बन करता है
इसलिये पुण्य सुखाभास ऐसे दुःखका ही अवलम्बनसाधन है ।।७५।।

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अथ पुनरपि पुण्यजन्यस्येन्द्रियसुखस्य बहुधा दुःखत्वमुद्योतयति
सपरं बाधासहिदं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं
जं इंदिएहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा ।।७६।।
सपरं बाधासहितं विच्छिन्नं बन्धकारणं विषमम्
यदिन्द्रियैर्लब्धं तत्सौख्यं दुःखमेव तथा ।।७६।।
सपरत्वात् बाधासहितत्वात् विच्छिन्नत्वात् बन्धकारणत्वात् विषमत्वाच्च पुण्य-
जन्यमपीन्द्रियसुखं दुःखमेव स्यात सपरं हि सत् परप्रत्ययत्वात् पराधीनतया, बाधासहितं
प्रेरिताः जलौकसः कीलालमभिलषन्त्यस्तदेवानुभवन्त्यश्चामरणं दुःखिता भवन्ति, तथा निजशुद्धात्म-
संवित्तिपराङ्मुखा जीवा अपि मृगतृष्णाभ्योऽम्भांसीव विषयानभिलषन्तस्तथैवानुभवन्तश्चामरणं

दुःखिता भवन्ति
तत एतदायातं तृष्णातङ्कोत्पादकत्वेन पुण्यानि वस्तुतो दुःखकारणानि इति ।।७५।।
अथ पुनरपि पुण्योत्पन्नस्येन्द्रियसुखस्य बहुधा दुःखत्वं प्रकाशयतिसपरं सह परद्रव्यापेक्षया वर्तते
सपरं भवतीन्द्रियसुखं, पारमार्थिकसुखं तु परद्रव्यनिरपेक्षत्वादात्माधीनं भवति बाधासहिदं तीव्रक्षुधा-
तृष्णाद्यनेकबाधासहितत्वाद्बाधासहितमिन्द्रियसुखं, निजात्मसुखं तु पूर्वोक्तसमस्तबाधारहितत्वाद-
व्याबाधम्
विच्छिण्णं प्रतिपक्षभूतासातोदयेन सहितत्वाद्विच्छिन्नं सान्तरितं भवतीन्द्रियसुखं,
अतीन्द्रियसुखं तु प्रतिपक्षभूतासातोदयाभावान्निरन्तरम् बंधकारणं दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकाङ्क्षा-
प्र. १७
अब, पुनः पुण्यजन्य इन्द्रियसुखको अनेक प्रकारसे दुःखरूप प्रकाशित करते हैं :
अन्वयार्थ :[यत् ] जो [इन्द्रियैः लब्धं ] इन्द्रियोंसे प्राप्त होता है [तत् सौख्यं ]
वह सुख [सपरं ] परसम्बन्धयुक्त, [बाधासहितं ] बाधासहित [विच्छिन्नं ] विच्छिन्न
[बंधकारणं ] बंधका कारण [विषमं ] और विषम है; [तथा ] इसप्रकार [दुःखम् एव ] वह
दुःख ही है
।।७६।।
टीका :परसम्बन्धयुक्त होनेसे, बाधा सहित होनेसे, विच्छन्न होनेसे, बन्धका कारण
होनेसे, और विषम होनेसे, इन्द्रियसुखपुण्यजन्य होने पर भीदुःख ही है
इन्द्रियसुख (१) ‘परके सम्बन्धवाला’ होता हुआ पराश्रयताके कारण पराधीन है,
परयुक्त, बाधासहित, खंडित, बंधकारण, विषम छे;
जे इन्द्रियोथी लब्ध ते सुख ए रीते दुःख ज खरे. ७६.

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हि सदशनायोदन्यावृषस्यादिभिस्तृष्णाव्यक्तिभिरुपेतत्वात् अत्यन्ताकुलतया, विच्छिन्नं हि
सदसद्वेद्योदयप्रच्यावितसद्वेद्योदयप्रवृत्ततयाऽनुभवत्वादुद्भूतविपक्षतया, बन्धकारणं हि सद्विषयो-
पभोगमार्गानुलग्नरागादिदोषसेनानुसारसंगच्छमानघनकर्मपांसुपटलत्वादुदर्कदुःसहतया, विषमं
हि सदभिवृद्धिपरिहाणिपरिणतत्वादत्यन्तविसंष्ठुलतया च दुःखमेव भवति
अथैवं पुण्यमपि
पापवद् दुःखसाधनमायातम् ।।७६।।
प्रभृत्यनेकापध्यानवशेन भाविनरकादिदुःखोत्पादककर्मबन्धोत्पादकत्वाद्बन्धकारणमिन्द्रियसुखं, अतीन्द्रिय-
सुखं तु सर्वापध्यानरहितत्वादबन्धकारणम् विसमं विगतः शमः परमोपशमो यत्र तद्विषममतृप्तिकरं
हानिवृद्धिसहितत्वाद्वा विषमं, अतीन्द्रियसुखं तु परमतृप्तिकरं हानिवृद्धिरहितम् जं इंदिएहिं लद्धं तं सोक्खं
दुक्खमेव तहा यदिन्द्रियैर्लब्धं संसारसुखं तत्सुखं यथा पूर्वोक्तपञ्चविशेषणविशिष्टं भवति तथैव
दुःखमेवेत्यभिप्रायः ।।७६।। एवं पुण्यानि जीवस्य तृष्णोत्पादकत्वेन दुःखकारणानि भवन्तीति कथनरूपेण
द्वितीयस्थले गाथाचतुष्टयं गतम् अथ निश्चयेन पुण्यपापयोर्विशेषो नास्तीति कथयन् पुण्य-
१. च्युत करना = हटा देना; पदभ्रष्ट करना; (सातावेदनीयका उदय उसकी स्थिति अनुसार रहकर हट जाता
है और असाता वेदनीयका उदय आता है)
२. घन पटल = सघन (गाढ़) पर्त, बड़ा झुण्ड
(२) ‘बाधासहित’ होता हुआ खाने, पीने और मैथुनकी इच्छा इत्यादि तृष्णाकी व्यक्तियोंसे
(-तृष्णाकी प्रगटताओंसे) युक्त होनेसे अत्यन्त आकुल है, (३)‘विच्छिन्न’ होता हुआ
असातावेदनीयका उदय जिसे
च्युत कर देता है ऐसे सातावेदनीयके उदयसे प्रवर्तमान होता
हुआ अनुभवमें आता है, इसलिये विपक्षकी उत्पत्तिवाला है, (४) ‘बन्धका कारण’ होता
हुआ विषयोपभोगके मार्गमें लगी हुई रागादि दोषोंकी सेनाके अनुसार कर्मरजके
घन
पटलका सम्बन्ध होनेके कारण परिणामसे दुःसह है, और (५) ‘विषम’ होता हुआ हानि
वृद्धिमें परिणमित होनेसे अत्यन्त अस्थिर है; इसलिये वह (इन्द्रियसुख) दुःख ही है
जब कि ऐसा है (इन्द्रियसुख दुःख ही है) तो पुण्य भी, पापकी भाँति, दुःखका
साधन है ऐसा फलित हुआ
भावार्थ :इन्द्रियसुख दुःख ही है, क्योंकि वह पराधीन है, अत्यन्त आकुल है,
विपक्षकी (-विरोधकी) उत्पत्तिवाला है, परिणामसे दुःस्सह है, और अत्यन्त अस्थिर है
इससे यह सिद्ध हुआ कि पुण्य भी दुःखका ही साधन है ।।७६।।

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अथ पुण्यपापयोरविशेषत्वं निश्चिन्वन्नुपसंहरति
ण हि मण्णदि जो एवं णत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं
हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछण्णो ।।७७।।
न हि मन्यते य एवं नास्ति विशेष इति पुण्यपापयोः
हिण्डति घोरमपारं संसारं मोहसंछन्नः ।।७७।।
एवमुक्तक्रमेण शुभाशुभोपयोगद्वैतमिव सुखदुःखद्वैतमिव च न खलु परमार्थतः
पुण्यपापद्वैतमवतिष्ठते, उभयत्राप्यनात्मधर्मत्वाविशेषत्वात यस्तु पुनरनयोः कल्याणकालायस-
पापयोर्व्याख्यानमुपसंहरतिण हि मण्णदि जो एवं न हि मन्यते य एवम् किम् णत्थि विसेसो त्ति
पुण्णपावाणं पुण्यपापयोर्निश्चयेन विशेषो नास्ति स किं करोति हिंडदि घोरमपारं संसारं हिण्डति भ्रमति
कम् संसारम् कथंभूतम् घोरम् अपारं चाभव्यापेक्षया कथंभूतः मोहसंछण्णो मोहप्रच्छादित इति
तथाहिद्रव्यपुण्यपापयोर्व्यवहारेण भेदः, भावपुण्यपापयोस्तत्फलभूतसुखदुःखयोश्चाशुद्धनिश्चयेन भेदः,
१. सुख = इन्द्रियसुख
नहि मानतोए रीत पुण्ये पापमां न विशेष छे,
ते मोहथी आच्छन्न घोर अपार संसारे भमे. ७७.
अब, पुण्य और पापकी अविशेषताका निश्चय करते हुए (इस विषयका) उपसंहार
करते हैं :
अन्वयार्थ :[एवं ] इसप्रकार [पुण्यपापयोः ] पुण्य और पापमें [विशेषः नास्ति ]
अन्तर नहीं है [इति ] ऐसा [यः ] जो [न हि मन्यते ] नहीं मानता, [मोहसंछन्नः ]
वह मोहाच्छादित होता हुआ [घोर अपारं संसारं ] घोर अपार संसारमें [हिण्डति ] परिभ्रमण
करता है
।।७७।।
टीका : यों पूर्वोक्त प्रकारसे, शुभाशुभ उपयोगके द्वैतकी भाँति और सुखदुःखके
द्वैतकी भाँति, परमार्थसे पुण्यपापका द्वैत नहीं टिकतानहीं रहता, क्योंकि दोनोंमें अनात्मधर्मत्व
अविशेष अर्थात् समान है (परमार्थसे जैसे शुभोपयोग और अशुभोपयोगरूप द्वैत विद्यमान नहीं
है, जैसे सुख और दुःखरूप द्वैत विद्यमान नहीं है, उसीप्रकार पुण्य और पापरूप द्वैतका भी
अस्तित्व नहीं है; क्योंकि पुण्य और पाप दोनों आत्माके धर्म न होनेसे निश्चयसे समान ही हैं )

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निगडयोरिवाहंकारिकं विशेषमभिमन्यमानोऽहमिन्द्रपदादिसंपदां निदानमिति निर्भरतरं धर्मानु-
रागमवलम्बते स खलूपरक्तचित्तभित्तितया तिरस्कृतशुद्धोपयोगशक्तिरासंसारं शारीरं दुःख-
मेवानुभवति
।।७७।।
अथैवमवधारितशुभाशुभोपयोगाविशेषः समस्तमपि रागद्वेषद्वैतमपहासयन्नशेषदुःख-
क्षयाय सुनिश्चितमनाः शुद्धोपयोगमधिवसति
एवं विदिदत्थो जो दव्वेसु ण रागमेदि दोसं वा
उवओगविसुद्धो सो खवेदि देहुब्भवं दुक्खं ।।७८।।
शुद्धनिश्चयेन तु शुद्धात्मनो भिन्नत्वाद्भेदो नास्ति एवं शुद्धनयेन पुण्यपापयोरभेदं योऽसौ न मन्यते
स देवेन्द्रचक्रवर्तिबलदेववासुदेवकामदेवादिपदनिमित्तं निदानबन्धेन पुण्यमिच्छन्निर्मोहशुद्धात्मतत्त्व-
विपरीतदर्शनचारित्रमोहप्रच्छादितः सुवर्णलोहनिगडद्वयसमानपुण्यपापद्वयबद्धः सन् संसाररहितशुद्धात्मनो

विपरीतं संसारं भ्रमतीत्यर्थः
।।७७।। अथैवं शुभाशुभयोः समानत्वपरिज्ञानेन निश्चितशुद्धात्मतत्त्वः सन्
ऐसा होने पर भी, जो जीव उन दोनोंमेंसुवर्ण और लोहेकी बेड़ीकी भाँतिअहंकारिक
अन्तर मानता हुआ, अहमिन्द्रपदादि सम्पदाओंके कारणभूत धर्मानुराग पर अत्यन्त
निर्भरमयरूपसे (-गाढरूपसे) अवलम्बित है, वह जीव वास्तवमें चित्तभूमिके उपरक्त होनेसे
(-चित्तकी भूमि कर्मोपाधिके निमित्तसे रंगी हुई
मलिन विकृत होनेसे) जिसने शुद्धोपयोग
शक्तिका तिरस्कार किया है, ऐसा वर्तता हुआ संसारपर्यन्त (-जबतक इस संसारका अस्तित्व
है तबतक अर्थात् सदाके लिये) शारीरिक दुःखका ही अनुभव करता है
भावार्थ :जैसे सोनेकी बेडी और लोहेकी बेडी दोनों अविशेषरूपसे बाँधनेका ही
काम करती हैं उसीप्रकार पुण्य -पाप दोनों अविशेषरूपसे बन्धन ही हैं जो जीव पुण्य और
पापकी अविशेषताको कभी नहीं मानता उसका उस भयंकर संसारमें परिभ्रमणका कभी अन्त
नहीं आता
।।७७।।
अब, इसप्रकार शुभ और अशुभ उपयोगकी अविशेषता अवधारित करके, समस्त
रागद्वेषके द्वैतको दूर करते हुए, अशेष दुःखका क्षय करनेका मनमें दृढ़ निश्चय करके
शुद्धोपयोगमें निवास करता है (-उसे अंगीकार करता है ) :
१. पुण्य और पापमें अन्तर होनेका मत अहंकारजन्य (अविद्याजन्य, अज्ञानजन्य है)
विदितार्थ ए रीत, रागद्वेष लहे न जे द्रव्यो विषे,
शुद्धोपयोगी जीव ते क्षय देहगत दुःखनो करे
. ७८.

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एवं विदितार्थो यो द्रव्येषु न रागमेति द्वेषं वा
उपयोगविशुद्धः सः क्षपयति देहोद्भवं दुःखम् ।।७८।।
यो हि नाम शुभानामशुभानां च भावानामविशेषदर्शनेन सम्यक्परिच्छिन्न-
वस्तुस्वरूपः स्वपरविभागावस्थितेषु समग्रेषु ससमग्रपर्यायेषु द्रव्येषु रागं द्वेषं चाशेषमेव
परिवर्जयति स किलैकान्तेनोपयोगविशुद्धतया परित्यक्तपरद्रव्यालम्बनोऽग्निरिवायःपिण्डा-
दननुष्ठितायःसारः प्रचण्डघनघातस्थानीयं शारीरं दुःखं क्षपयति
ततो ममायमेवैकः शरणं
शुद्धोपयोगः ।।७८।।
दुःखक्षयाय शुद्धोपयोगानुष्ठानं स्वीकरोतिएवं विदिदत्थो जो एवं चिदानन्दैकस्वभावं परमात्मतत्त्व-
मेवोपादेयमन्यदशेषं हेयमिति हेयोपादेयपरिज्ञानेन विदितार्थतत्त्वो भूत्वा यः दव्वेसु ण रागमेदि दोसं वा
निजशुद्धात्मद्रव्यादन्येषु शुभाशुभसर्वद्रव्येषु रागं द्वेषं वा न गच्छति
उवओगविसुद्धो सो रागादिरहित-
शुद्धात्मानुभूतिलक्षणेन शुद्धोपयोगेन विशुद्धः सन् सः खवेदि देहुब्भवं दुक्खं तप्तलोहपिण्डस्थानीय-
देहादुद्भवं अनाकु लत्वलक्षणपारमार्थिक सुखाद्विलक्षणं परमाकु लत्वोत्पादकं लोहपिण्डरहितोऽग्निरिव
घनघातपरंपरास्थानीयदेहरहितो भूत्वा शारीरं दुःखं क्षपयतीत्यभिप्रायः
।।७८।। एवमुपसंहाररूपेण
तृतीयस्थले गाथाद्वयं गतम् इति शुभाशुभमूढत्वनिरासार्थं गाथादशकपर्यन्तं स्थलत्रयसमुदायेन
अन्वयार्थ :[एवं ] इसप्रकार [विदितार्थः ] वस्तुस्वरूपको जानकर [यः ] जो
[द्रव्येषु ] द्रव्योंके प्रति [रागं द्वेषं वा ] राग या द्वेषको [न एति ] प्राप्त नहीं होता, [स ] वह
[उपयोगविशुद्धः ] उपयोगविशुद्धः होता हुआ [देहोद्भवं दुःखं ] दोहोत्पन्न दुःखका [क्षपयति ]
क्षय करता है
।।७८।।
टीका :जो जीव शुभ और अशुभ भावोंके अविशेषदर्शनसे (-समानताकी
श्रद्धासे) वस्तुस्वरूपको सम्यक्प्रकारसे जानता है, स्व और पर दो विभागोंमें रहनेवाली, समस्त
पर्यायों सहित समस्त द्रव्योंके प्रति राग और द्वेषको निरवशेषरूपसे छोड़ता है, वह जीव,
एकान्तसे उपयोगविशुद्ध (-सर्वथा शुद्धोपयोगी) होनेसे जिसने परद्रव्यका आलम्बन छोड़ दिया
है ऐसा वर्तता हुआ
लोहेके गोलेमेंसे लोहेके सारका अनुसरण न करनेवाली अग्निकी
भाँतिप्रचंड घनके आघात समान शारीरिक दुःखका क्षय करता है (जैसे अग्नि लोहेके
तप्त गोलेमेंसे लोहेके सत्वको धारण नहीं करती इसलिये अग्नि पर प्रचंड घनके प्रहार नहीं
होते, उसीप्रकार परद्रव्यका आलम्बन न करनेवाले आत्माको शारीरिक दुःखका वेदन नहीं
होता
) इसलिये यही एक शुद्धोपयोग मेरी शरण है ।।७८।।
१. सार = सत्व, घनता, कठिनता

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अथ यदि सर्वसावद्ययोगमतीत्य चरित्रमुपस्थितोऽपि शुभोपयोगानुवृत्तिवशतया
मोहादीन्नोन्मूलयामि, ततः कुतो मे शुद्धात्मलाभ इति सर्वारम्भेणोत्तिष्ठते
चत्ता पावारंभं समुट्ठिदो वा सुहम्मि चरियम्मि
ण जहदि जदि मोहादी ण लहदि सो अप्पगं सुद्धं ।।७९।।
त्यक्त्वा पापारम्भं समुत्थितो वा शुभे चरित्रे
न जहाति यदि मोहादीन्न लभते स आत्मकं शुद्धम् ।।७९।।
यः खलु समस्तसावद्ययोगप्रत्याख्यानलक्षणं परमसामायिकं नाम चारित्रं प्रतिज्ञायापि
शुभोपयोगवृत्त्या बकाभिसारिक येवाभिसार्यमाणो न मोहवाहिनीविधेयतामवकिरति स किल
प्रथमज्ञानकण्डिका समाप्ता अथ शुभाशुभोपयोगनिवृत्तिलक्षणशुद्धोपयोगेन मोक्षो भवतीति पूर्वसूत्रे
भणितम् अत्र तु द्वितीयज्ञानकण्डिकाप्रारम्भे शुद्धोपयोगाभावे शुद्धात्मानं न लभते इति तमेवार्थं
अब, सर्व सावद्ययोगको छोड़कर चारित्र अङ्गीकार किया होने पर भी यदि मैं
शुभोपयोगपरिणतिके वश होकर मोहादिका उन्मूलन न करूँ, तो मुझे शुद्ध आत्माकी प्राप्ति
कहाँसे होगी ?इसप्रकार विचार करके मोहादिके उन्मूलनके प्रति सर्वारम्भ (-सर्वउद्यम)
पूर्वक कटिबद्ध होता है :
अन्वयार्थ :[पापारम्भं ] पापरम्भको [त्यक्त्वा ] छोड़कर [शुभे चरित्रे ] शुभ
चारित्रमें [समुत्थितः वा ] उद्यत होने पर भी [यदि ] यदि जीव [मोहादीन् ] मोहादिको [न
जहाति ]
नहीं छोड़ता, तो [सः ] वह [शुद्धं आत्मकं ] शुद्ध आत्माको [ न लभते ] प्राप्त नहीं
होता
।।७९।।
टीका :जो जीव समस्त सावद्ययोगके प्रत्याख्यानस्वरूप परमसामायिक नामक
चारित्रकी प्रतिज्ञा करके भी धूर्त अभिसारिका (नायिका) की भाँति शुभोपयोगपरिणतिसे
अभिसार (-मिलन) को प्राप्त होता हुआ (अर्थात् शुभोपयोगपरिणतिके प्रेममें फँसता हुआ)
१. उन्मूलन = जड़मूलसे निकाल देना; निकन्दन
२. अभिसारिका = संकेत अनुसार प्रेमीसे मिलने जानेवाली स्त्री
३. अभिसार = प्रेमीसे मिलने जाना
जीव छोडी पापारंभने शुभ चरितमां उद्यत भले,
जो नव तजे मोहादिने तो नव लहे शुद्धात्मने
. ७९.

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समासन्नमहादुःखसंक टः कथमात्मानमविप्लुतं लभते अतो मया मोहवाहिनीविजयाय बद्धा
कक्षेयम् ।।७९।।
अथ कथं मया विजेतव्या मोहवाहिनीत्युपायमालोचयति
जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं
सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ।।८०।।
यो जानात्यर्हन्तं द्रव्यत्वगुणत्वपर्ययत्वैः
स जानात्यात्मानं मोहः खलु याति तस्य लयम् ।।८०।।
यो हि नामार्हन्तं द्रव्यत्वगुणत्वपर्ययत्वैः परिच्छिनत्ति स खल्वात्मानं परिच्छिनत्ति,
व्यतिरेकरूपेण दृढयतिचत्ता पावारंभं पूर्वं गृहवासादिरूपं पापारम्भं त्यक्त्वा समुट्ठिदो वा सुहम्मि
चरियम्हि सम्यगुपस्थितो वा पुनः क्व शुभचरित्रे ण जहदि जदि मोहादी न त्यजति यदि
चेन्मोहरागद्वेषान् ण लहदि सो अप्पगं सुद्धं न लभते स आत्मानं शुद्धमिति इतो विस्तरःकोऽपि
मोक्षार्थी परमोपेक्षालक्षणं परमसामायिकं पूर्वं प्रतिज्ञाय पश्चाद्विषयसुखसाधकशुभोपयोगपरिणत्या
मोहितान्तरङ्गः सन् निर्विकल्पसमाधिलक्षणपूर्वोक्तसामायिकचारित्राभावे सति निर्मोहशुद्धात्मतत्त्वप्रति-

पक्षभूतान् मोहादीन्न त्यजति यदि चेत्तर्हि जिनसिद्धसदृशं निजशुद्धात्मानं न लभत इति सूत्रार्थः
।।७९।।
मोहकी सेनाके वशवर्तनपनेको दूर नहीं कर डालताजिसके महा दुःख संकट निकट हैं ऐसा
वह, शुद्ध (-विकार रहित, निर्मल) आत्माको कैसे प्राप्त कर सकता है ? (नहीं प्राप्त कर
सकता) इसलिये मैंने मोहकी सेना पर विजय प्राप्त करनेको कमर कसी है
अब, ‘मैं मोहकी सेनाको कैसे जीतूं’ऐसा उपाय विचारता है :
अन्वयार्थ :[यः ] जो [अर्हन्तं ] अरहन्तको [द्रव्यत्व -गुणत्वपर्ययत्वैः ] द्रव्यपने
गुणपने और पर्यायपने [जानाति ] जानता है, [सः ] वह [आत्मानं ] (अपने) आत्माको
[जानाति ] जानता है और [तस्य मोहः ] उसका मोह [खलु ] अवश्य [लयं याति ] लयको
प्राप्त होता है
।।८०।।
टीका :जो वास्तवमें अरहंतको द्रव्यरूपसे, गुणरूपसे और पर्यायरूपसे जानता है
जे जाणतो अर्हंतने गुण, द्रव्य ने पर्ययपणे,
ते जीव जाणे आत्मने, तसु मोह पामे लय खरे. ८०
.

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उभयोरपि निश्चयेनाविशेषात अर्हतोऽपि पाककाष्ठागतकार्तस्वरस्येव परिस्पष्टमात्मरूपं,
ततस्तत्परिच्छेदे सर्वात्मपरिच्छेदः तत्रान्वयो द्रव्यं, अन्वयविशेषणं गुणः, अन्वयव्यतिरेकाः
पर्यायाः तत्र भगवत्यर्हति सर्वतो विशुद्धे त्रिभूमिकमपि स्वमनसा समयमुत्पश्यति
अथ शुद्धोपयोगाभावे यादृशं जिनसिद्धस्वरूपं न लभते तमेव कथयति
तवसंजमप्पसिद्धो सुद्धो सग्गापवग्गमग्गकरो
अमरासुरिंदमहिदो देवो सो लोयसिहरत्थो ।।।।
तवसंजमप्पसिद्धो समस्तरागादिपरभावेच्छात्यागेन स्वस्वरूपे प्रतपनं विजयनं तपः, बहिरङ्गेन्द्रिय
प्राणसंयमबलेन स्वशुद्धात्मनि संयमनात्समरसीभावेन परिणमनं संयमः, ताभ्यां प्रसिद्धो जात
उत्पन्नस्तपःसंयमप्रसिद्धः,
सुद्धो क्षुधाद्यष्टादशदोषरहितः, सग्गापवग्गमग्गकरो स्वर्गः प्रसिद्धः केवल-
ज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयलक्षणोऽपवर्गो मोक्षस्तयोर्मार्गं करोत्युपदिशति स्वर्गापवर्गमार्गकरः, अमरासुरिंदमहिदो
तत्पदाभिलाषिभिरमरासुरेन्द्रैर्महितः पूजितोऽमरासुरेन्द्रमहितः,
देवो सो स एवंगुणविशिष्टोऽर्हन् देवो
भवति लोयसिहरत्थो स एव भगवान् लोकाग्रशिखरस्थः सन् सिद्धो भवतीति जिनसिद्धस्वरूपं
ज्ञातव्यम् ।।।। अथ तमित्थंभूतं निर्दोषिपरमात्मानं ये श्रद्दधति मन्यन्ते तेऽक्षयसुखं लभन्त इति
प्रज्ञापयति
तं देवदेवदेवं जदिवरवसहं गुरुं तिलोयस्स
पणमंति जे मणुस्सा ते सोक्खं अक्खयं जंति ।।।।
तं देवदेवदेवं देवदेवाः सौधर्मेन्द्रप्रभृतयस्तेषां देव आराध्यो देवदेवदेवस्तं देवदेवदेवं, जदिवरवसहं
जितेन्द्रियत्वेन निजशुद्धात्मनि यत्नपरास्ते यतयस्तेषां वरा गणधरदेवादयस्तेभ्योऽपि वृषभः प्रधानो
यतिवरवृषभस्तं यतिवरवृषभं,
गुरुं तिलोयस्स अनन्तज्ञानादिगुरुगुणैस्त्रैलोक्यस्यापि गुरुस्तं त्रिलोकगुरुं,
पणमंति जे मणुस्सा तमित्थंभूतं भगवन्तं ये मनुष्यादयो द्रव्यभावनमस्काराभ्यां प्रणमन्त्याराधयन्ति ते
सोक्खं अक्खयं जंति ते तदाराधनाफलेन परंपरयाऽक्षयानन्तसौख्यं यान्ति लभन्त इति सूत्रार्थः ।।।।
अथ ‘चत्ता पावारंभं’ इत्यादिसूत्रेण यदुक्तं शुद्धोपयोगाभावे मोहादिविनाशो न भवति, मोहादि-
वह वास्तवमें आत्माको जानता है, क्योंकि दोनोंमें निश्चयसे अन्तर नहीं है; और अरहन्तका
स्वरूप, अन्तिम तावको प्राप्त सोनेके स्वरूपकी भाँति, परिस्पष्ट (-सर्वप्रकारसे स्पष्ट) है,
इसलिये उसका ज्ञान होनेपर सर्व आत्माका ज्ञान होता है
वहाँ अन्वय वह द्रव्य है, अन्वयका
विशेषण वह गुण है और अन्वयके व्यतिरेक(-भेद) वे पर्यायें हैं सर्वतः विशुद्ध भगवान
अरहंतमें (-अरहंतके स्वरूपका ख्याल करने पर) जीव तीनों प्रकारयुक्त समयको
(-द्रव्यगुणपर्यायमय निज आत्माको) अपने मनसे जान लेता है
समझ लेता है यथा ‘यह

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यश्चेतनोऽयमित्यन्वयस्तद्द्रव्यं, यच्चान्वयाश्रितं चैतन्यमिति विशेषणं स गुणः, ये चैकसमय-
मात्रावधृतकालपरिमाणतया परस्परपरावृत्ता अन्वयव्यतिरेकास्ते पर्यायाश्चिद्विवर्तनग्रन्थय इति
यावत
अथैवमस्य त्रिकालमप्येककालमाकलयतो मुक्ताफलानीव प्रलम्बे प्रालम्बे
चिद्विवर्तांश्चेतन एव संक्षिप्य विशेषणविशेष्यत्ववासनान्तर्धानाद्धवलिमानमिव प्रालम्बे चेतन
एव चैतन्यमन्तर्हितं विधाय केवलं प्रालम्बमिव केवलमात्मानं परिच्छिन्दतस्त-
विनाशाभावे शुद्धात्मलाभो न भवति, तदर्थमेवेदानीमुपायं समालोचयतिजो जाणदि अरहंतं यः कर्ता
जानाति कम् अर्हन्तम् कैः कृत्वा दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं द्रव्यत्वगुणत्वपर्यायत्वैः सो जाणदि अप्पाणं
स पुरुषोऽर्हत्परिज्ञानात्पश्चादात्मानं जानाति, मोहो खलु जादि तस्स लयं तत आत्मपरिज्ञानात्तस्य मोहो
दर्शनमोहो लयं विनाशं क्षयं यातीति तद्यथाकेवलज्ञानादयो विशेषगुणा, अस्तित्वादयः
सामान्यगुणाः, परमौदारिकशरीराकारेण यदात्मप्रदेशानामवस्थानं स व्यञ्जनपर्यायः, अगुरुलघुक गुण-
षड्वृद्धिहानिरूपेण प्रतिक्षणं प्रवर्तमाना अर्थपर्यायाः, एवंलक्षणगुणपर्यायाधारभूतममूर्तमसंख्यातप्रदेशं
चेतन है’ इसप्रकारका अन्वय वह द्रव्य है, अन्वयके आश्रित रहनेवाला ‘चैतन्य’ विशेषण वह
गुण है, और एक समय मात्रकी मर्यादावाला कालपरिमाण होनेसे परस्पर अप्रवृत्त
अन्वयव्यतिरेक वे पर्यायें हैंजो कि चिद्विवर्तनकी [-आत्माके परिणमनकी ] ग्रन्थियाँ
[गांठें ] हैं
अब, इसप्रकार त्रैकालिकको भी [-त्रैकालिक आत्माको भी ] एक कालमें समझ
लेनेवाला वह जीव, जैसै मोतियोंको झूलते हुए हारमें अन्तर्गत माना जाता है, उसी प्रकार
चिद्विवर्तोंका चेतनमें ही संक्षेपण [-अंतर्गत ] करके, तथा
विशेषणविशेष्यताकी वासनाका
अन्तर्धान होनेसेजैसे सफे दीको हारमें अन्तर्हित किया जाता है, उसी प्रकारचैतन्यको
चेतनमें ही अन्तर्हित करके, जैसे मात्र हारको जाना जाता है, उसीप्रकार केवल आत्माको
१. चेतन = आत्मा
२. अन्वयव्यतिरेक = एक दूसरेमें नहीं प्रवर्तते ऐसे जो अन्वयके व्यतिरेक
३. विशेषण गुण है और विशेष्य वो द्रव्य है
४. अंतर्धान = अदृश्य हो जाना
५. अंतर्हित = गुप्त; अदृश्य
६. हारको खरीदनेवाला मनुष्य हारको खरीदते समय हार, उसकी सफे दी और उनके मोतियों इत्यादिकी परीक्षा
करता है, किन्तु बादमें सफे दी और मोतियोंको हारमें ही समाविष्ट करके उनका लक्ष छोड़कर वह मात्र
हारको ही जानता है
यदि ऐसा न करे तो हारके पहिनने पर भी उसकी सफे दी आदिके विकल्प बने
रहनेसे हारको पहननेके सुखका वेदन नहीं कर सकेगा
પ્ર. ૧૮

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दुत्तरोत्तरक्षणक्षीयमाणकर्तृकर्मक्रियाविभागतया निष्क्रियं चिन्मात्रं भावमधिगतस्य जातस्य
मणेरिवाकम्पप्रवृत्तनिर्मलालोकस्यावश्यमेव निराश्रयतया मोहतमः प्रलीयते
यद्येवं लब्धो मया
मोहवाहिनीविजयोपायः ।।८०।।
शुद्धचैतन्यान्वयरूपं द्रव्यं चेति इत्थंभूतं द्रव्यगुणपर्यायस्वरूपं पूर्वमर्हदभिधाने परमात्मनि ज्ञात्वा
पश्चान्निश्चयनयेन तदेवागमसारपदभूतयाऽध्यात्मभाषया निजशुद्धात्मभावनाभिमुखरूपेण सविकल्पस्व-
संवेदनज्ञानेन तथैवागमभाषयाधःप्रवृत्तिकरणापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसंज्ञदर्शनमोहक्षपणसमर्थपरिणाम-

विशेषबलेन पश्चादात्मनि योजयति
तदनन्तरमविकल्पस्वरूपे प्राप्ते, यथा पर्यायस्थानीयमुक्ताफलानि
गुणस्थानीयं धवलत्वं चाभेदनयेन हार एव, तथा पूर्वोक्तद्रव्यगुणपर्याया अभेदनयेनात्मैवेति भावयतो
दर्शनमोहान्धकारः प्रलीयते
इति भावार्थः ।।८०।। अथ प्रमादोत्पादकचारित्रमोहसंज्ञश्चौरोऽस्तीति
मत्वाऽऽप्तपरिज्ञानादुपलब्धस्य शुद्धात्मचिन्तामणेः रक्षणार्थं जागर्तीति कथयतिजीवो जीवः कर्ता
जानने पर, उसके उत्तरोत्तर क्षणमें कर्ता -कर्म -क्रियाका विभाग क्षयको प्राप्त होता जाता है
इसलिये निष्क्रिय चिन्मात्र भावको प्राप्त होता है; और इसप्रकार मणिकी भाँति जिसका निर्मल
प्रकाश अकम्परूपसे प्रवर्तमान है ऐसे उस (चिन्मात्र भावको प्राप्त) जीवके मोहान्धकार
निराश्रयताके कारण अवश्यमेव प्रलयको प्राप्त होता है
यदि ऐसा है तो मैंने मोहकी सेनाको जीतनेका उपाय प्राप्त कर लिया है
भावार्थ :अरहंत भगवान और अपना आत्मा निश्चयसे समान है अरहंत भगवान
मोह -राग -द्वेषरहित होनेसे उनका स्वरूप अत्यन्त स्पष्ट है, इसलिये यदि जीव द्रव्य -गुण-
पर्याय रूपसे उस (अरहंत भगवानके) स्वरूपको मनके द्वारा प्रथम समझ ले तो ‘‘यह
जो आत्मा, आत्माका एकरूप (-कथंचित् सदृश) त्रैकालिक प्रवाह है सो द्रव्य है, उसका
जो एकरूप रहनेवाला चैतन्यरूप विशेषण है सो गुण है और उस प्रवाहमें जो क्षणवर्ती
व्यतिरेक हैं सो पर्यायें हैं’’ इसप्रकार अपना आत्मा भी द्रव्य -गुण -पर्यायरूपसे मनके द्वारा
ज्ञानमें आता है
इसप्रकार त्रैकालिक निज आत्माको मनके द्वारा ज्ञानमें लेकरजैसे
मोतियोंको और सफे दीको हारमें ही अन्तर्गत करके मात्र हार ही जाना जाता है, उसीप्रकार
आत्मपर्यायोंको और चैतन्य -गुणको आत्मामें ही अन्तर्गर्भित करके केवल आत्माको जानने
पर परिणामी -परिणाम -परिणतिके भेदका विकल्प नष्ट हो जाता है, इसलिये जीव निष्क्रिय
चिन्मात्र भावको प्राप्त होता है, और उससे दर्शनमोह निराश्रय होता हुआ नष्ट हो जाता है
यदि ऐसा है तो मैंने मोहकी सेना पर विजय प्राप्त करनेका उपाय प्राप्त कर लिया है,
ऐसा कहा है ।।८०।।

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अथैवं प्राप्तचिन्तामणेरपि मे प्रमादो दस्युरिति जागर्ति
जीवो ववगदमोहो उवलद्धो तच्चमप्पणो सम्मं
जहदि जदि रागदोसे सो अप्पाणं लहदि सुद्धं ।।८१।।
जीवो व्यपगतमोह उपलब्धवांस्तत्त्वमात्मनः सम्यक्
जहाति यदि रागद्वेषौ स आत्मानं लभते शुद्धम् ।।८१।।
एवमुपवर्णितस्वरूपेणोपायेन मोहमपसार्यापि सम्यगात्मतत्त्वमुपलभ्यापि यदि नाम
रागद्वेषौ निर्मूलयति तदा शुद्धमात्मानमनुभवति यदि पुनः पुनरपि तावनुवर्तते तदा
प्रमादतन्त्रतया लुण्ठितशुद्धात्मतत्त्वोपलम्भचिन्तारत्नोऽन्तस्ताम्यति अतो मया रागद्वेष-
निषेधायात्यन्तं जागरितव्यम् ।।८१।।
किंविशिष्टः ववगदमोहो शुद्धात्मतत्त्वरुचिप्रतिबन्धकविनाशितदर्शनमोहः पुनरपि किंविशिष्टः उवलद्धो
उपलब्धवान् ज्ञातवान् किम् तच्चं परमानन्दैकस्वभावात्मतत्त्वम् कस्य संबन्धि अप्पणो
निजशुद्धात्मनः कथम् सम्मं सम्यक् संशयादिरहितत्वेन जहदि जदि रागदोसे शुद्धात्मानुभूति-
लक्षणवीतरागचारित्रप्रतिबन्धकौ चारित्रमोहसंज्ञौ रागद्वेषौ यदि त्यजति सो अप्पाणं लहदि सुद्धं
अब, इसप्रकार मैंने चिंतामणि -रत्न प्राप्त कर लिया है तथापि प्रमाद चोर विद्यमान है,
ऐसा विचार कर जागृत रहता है :
अन्वयार्थ :[व्यपगतमोहः ] जिसने मोहको दूर किया है और [सम्यक् आत्मनः
तत्त्वं ] आत्माके सम्यक् तत्त्वको (-सच्चे स्वरूपको) [उपलब्धवान् ] प्राप्त किया है ऐसा
[जीवः ] जीव [यदि ] यदि [रागद्वेषौ ] रागद्वेषको [जहाति ] छोड़ता है, [सः ] तो वह [शुद्धं
आत्मानं ]
शुद्ध आत्माको [ लभते ] प्राप्त करता है
।।८१।।
टीका :इसप्रकार जिस उपायका स्वरूप वर्णन किया है, उस उपायके द्वारा मोहको
दूर करके भी सम्यक् आत्मतत्त्वको (यथार्थ स्वरूपको) प्राप्त करके भी यदि जीव रागद्वेषको
निर्मूल करता है, तो शुद्ध आत्माका अनुभव करता है
(किन्तु) यदि पुनः -पुनः उनका
अनुसरण करता है,रागद्वेषरूप परिणमन करता है, तो प्रमादके अधीन होनेसे शुद्धात्मतत्त्वके
अनुभवरूप चिंतामणि -रत्नके चुराये जानेसे अन्तरंगमें खेदको प्राप्त होता है इसलिये मुझे
जीव मोहने करी दूर, आत्मस्वरूप सम्यक् पामीने,
जो रागद्वेष परिहरे तो पामतो शुद्धात्मने. ८१
.

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अथायमेवैको भगवद्भिः स्वयमनुभूयोपदर्शितो निःश्रेयसस्य पारमार्थिकः पन्था इति
मतिं व्यवस्थापयति
सव्वे वि य अरहंता तेण विधाणेण खविदकम्मंसा
किच्चा तधोवदेसं णिव्वादा ते णमो तेसिं ।।८२।।
सर्वेऽपि चार्हन्तस्तेन विधानेन क्षपितकर्मांशाः
कृत्वा तथोपदेशं निर्वृतास्ते नमस्तेभ्यः ।।८२।।
एवमभेदरत्नत्रयपरिणतो जीवः शुद्धबुद्धैकस्वभावमात्मानं लभते मुक्तो भवतीति किंच पूर्वं
ज्ञानकण्डिकायां ‘उवओगविसुद्धो सो खवेदि देहुब्भवं दुक्खं’ इत्युक्तं, अत्र तु ‘जहदि जदि रागदोसे
सो अप्पाणं लहदि सुद्धं’ इति भणितम्, उभयत्र मोक्षोऽस्ति
को विशेषः प्रत्युत्तरमाहतत्र
शुभाशुभयोर्निश्चयेन समानत्वं ज्ञात्वा पश्चाच्छुद्धे शुभरहिते निजस्वरूपे स्थित्वा मोक्षं लभते, तेन
कारणेन शुभाशुभमूढत्वनिरासार्थं ज्ञानकण्डिका भण्यते
अत्र तु द्रव्यगुणपर्यायैराप्तस्वरूपं ज्ञात्वा
पश्चात्तद्रूपे स्वशुद्धात्मनि स्थित्वा मोक्षं प्राप्नोति, ततः कारणादियमाप्तात्ममूढत्वनिरासार्थं ज्ञानकण्डिका
रागद्वेषको दूर करनेके लिये अत्यन्त जागृत रहना चाहिये
भावार्थ :८० वीं गाथामें बताये गये उपायसे दर्शनमोहको दूर करके, अर्थात्
सम्यक्दर्शन प्राप्त करके जो जीव शुद्धात्मानुभूतिस्वरूप वीतरागचारित्रके प्रतिबन्धक राग -द्वेषको
छोड़ता है, पुनः -पुनः रागद्वेषभावमें परिणमित नहीं होता, वही अभेदरत्नत्रयपरिणत जीव शुद्ध-
बुद्ध -एकस्वभाव आत्माको प्राप्त करता है
मुक्त होता है इसलिये जीवको सम्यग्दर्शन प्राप्त
करके भी सराग चारित्र प्राप्त करके भी, रागद्वेषके निवारणार्थ अत्यन्त सावधान रहना
चाहिये
।।८१।।
अब, यही एक (-पूर्वोक्त गाथाओंमें वर्णित यही एक), भगवन्तोंने स्वयं अनुभव करके
प्रगट किया हुआ निःश्रेयसका पारमार्थिकपन्थ हैइसप्रकार मतिको व्यवस्थित करते हैं :
अन्वयार्थ :[सर्वे अपि च ] सभी [अर्हन्तः ] अरहन्त भगवान [तेन विधानेन ]
उसी विधिसे [क्षपितकर्मांशाः ] कर्मांशोंका क्षय करके [तथा ] तथा उसीप्रकारसे [उपदेशं
१. निःश्रेयस = मोक्ष
२. व्यवस्थित = निश्चित; स्थिर
अर्हंत सौ कर्मो तणो करी नाश ए ज विधि वडे,
उपदेश पण एम ज करी, निर्वृत थया; नमुं तेमने. ८२
.

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यतः खल्वतीतकालानुभूतक्रमप्रवृत्तयः समस्ता अपि भगवन्तस्तीर्थकराः, प्रकारान्तर-
स्यासंभवादसंभावितद्वैतेनामुनैवैकेन प्रकारेण क्षपणं कर्मांशानां स्वयमनुभूय, परमाप्ततया
परेषामप्यायत्यामिदानींत्वे वा मुमुक्षूणां तथैव तदुपदिश्य, निःश्रेयसमध्याश्रिताः
ततो
नान्यद्वर्त्म निर्वाणस्येत्यवधार्यते अलमथवा प्रलपितेन व्यवस्थिता मतिर्मम नमो
भगवद्भयः ।।८२।।
इत्येतावान् विशेषः ।।८१।। अथ पूर्वं द्रव्यगुणपर्यायैराप्तस्वरूपं विज्ञाय पश्चात्तथाभूते स्वात्मनि स्थित्वा
सर्वेऽप्यर्हन्तो मोक्षं गता इति स्वमनसि निश्चयं करोतिसव्वे वि य अरहंता सर्वेऽपि चार्हन्तः तेण
विधाणेण द्रव्यगुणपर्यायैः पूर्वमर्हत्परिज्ञानात्पश्चात्तथाभूतस्वात्मावस्थानरूपेण तेन पूर्वोक्तप्रकारेण
खविदकम्मंसा क्षपितकर्मांशा विनाशितकर्मभेदा भूत्वा, किच्चा तधोवदेसं अहो भव्या अयमेव निश्चय-
रत्नत्रयात्मकशुद्धात्मोपलम्भलक्षणो मोक्षमार्गो नान्य इत्युपदेशं कृत्वा णिव्वादा निर्वृता अक्षयानन्तसुखेन
तृप्ता जाताः, ते ते भगवन्तः णमो तेसिं एवं मोक्षमार्गनिश्चयं कृत्वा श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवास्तस्मै
निजशुद्धात्मानुभूतिस्वरूपमोक्षमार्गाय तदुपदेशकेभ्योऽर्हद्भयश्च तदुभयस्वरूपाभिलाषिण; सन्तो ‘नमोस्तु
तेभ्य’ इत्यनेन पदेन नमस्कारं कुर्वन्तीत्यभिप्रायः
।।८२।। अथ रत्नत्रयाराधका एव पुरुषा दानपूजा-
गुणप्रशंसानमस्कारार्हा भवन्ति नान्या इति कथयति
कृत्वा ] उपदेश करके [निर्वृताः ते ] मोक्षको प्राप्त हुए हैं [ नमः तेभ्यः ] उन्हें
नमस्कार हो
।।८२।।
टीका :अतीत कालमें क्रमशः हुए समस्त तीर्थर्ंकर भगवान, प्रकारान्तरका असंभव
होनेसे जिसमें द्वैत संभव नहीं है; ऐसे इसी एकप्रकारसे कर्मांशों (ज्ञानावरणादि कर्म भेदों)का
क्षय स्वयं अनुभव करके (तथा)
परमाप्तताके कारण भविष्यकालमें अथवा इस (वर्तमान)
कालमें अन्य मुमुक्षुओंको भी इसीप्रकारसे उसका (-कर्म क्षयका) उपदेश देकर निःश्रेयस
(मोक्ष)को प्राप्त हुए हैं; इसलिये निर्वाणका अन्य (कोई) मार्ग नहीं है ऐसा निश्चित होता है
अथवा अधिक प्रलापसे बस होओ ! मेरी मति व्यवस्थित हो गई है भगवन्तोंको नमस्कार हो
भावार्थ :८० और ८१ वीं गाथाके कथनानुसार सम्यक्दर्शन प्राप्त करके
वीतरागचारित्रके विरोधी राग -द्वेषको दूर करना अर्थात् निश्चयरत्नत्रयात्मक शुद्धानुभूतिमें लीन
होना ही एक मात्र मोक्षमार्ग है; त्रिकालमें भी कोई दूसरा मोक्षका मार्ग नहीं है
समस्त
१. प्रकारान्तर = अन्य प्रकार (कर्मक्षय एक ही प्रकारसे होता है, अन्य -प्रकारसे नहीं होता, इसलिये उस
कर्मक्षयके प्रकारमें द्वैत अर्थात् दो -रूपपना नहीं है)
२. परमाप्त = परम आप्त; परम विश्वासपात्र (तीर्थंकर भगवान सर्वज्ञ और वीतराग होनेसे परम आप्त है, अर्थात्
उपदेष्टा हैं )

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अथ शुद्धात्मलाभपरिपन्थिनो मोहस्य स्वभावं भूमिकाश्च विभावयति
दव्वादिएसु मूढो भावो जीवस्स हवदि मोहो त्ति
खुब्भदि तेणुच्छण्णो पप्पा रागं व दोसं वा ।।८३।।
द्रव्यादिकेषु मूढो भावो जीवस्य भवति मोह इति
क्षुभ्यति तेनावच्छन्नः प्राप्य रागं वा द्वेषं वा ।।८३।।
यो हि द्रव्यगुणपर्यायेषु पूर्वमुपवर्णितेषु पीतोन्मत्तकस्येव जीवस्य तत्त्वाप्रतिपत्तिलक्षणो
दंसणसुद्धा पुरिसा णाणपहाणा समग्गचरियत्था
पूजासक्काररिहा दाणस्स य हि ते णमो तेसिं ।।।।
दंसणसुद्धा निजशुद्धात्मरुचिरूपनिश्चयसम्यक्त्वसाधकेन मूढत्रयादिपञ्चविंशतिमलरहितेन
तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणेन दर्शनेन शुद्धा दर्शनशुद्धाः पुरिसा पुरुषा जीवाः पुनरपि कथंभूताः णाणपहाणा
निरुपरागस्वसंवेदनज्ञानसाधकेन वीतरागसर्वज्ञप्रणीतपरमागमाभ्यासलक्षणज्ञानेन प्रधानाः समर्थाः प्रौढा
ज्ञानप्रधानाः
पुनश्च कथंभूताः समग्गचरियत्था निर्विकारनिश्चलात्मानुभूतिलक्षणनिश्चयचारित्रसाधके-
नाचारादिशास्त्रकथितमूलोत्तरगुणानुष्ठानादिरूपेण चारित्रेण समग्राः परिपूर्णाः समग्रचारित्रस्थाः
पूजासक्काररिहा द्रव्यभावलक्षणपूजा गुणप्रशंसा सत्कारस्तयोरर्हा योग्या भवन्ति
दाणस्स य हि
अरहन्तोंने इसी मार्गसे मोक्ष प्राप्त किया है और अन्य मुमुक्षुओंको भी इसी मार्गका उपदेश दिया
है
उन भगवन्तोंको नमस्कार हो ।।८२।।
अब, शुद्धात्मलाभके परिपंथी -मोहका स्वभाव और उसमें प्रकारोंको (-भेदोंको)
व्यक्त करते हैं :
अन्वयार्थ :[जीवस्य ] जीवके [द्रव्यादिकेषु मूढ़ः भावः ] द्रव्यादि सम्बन्धी मूढ़
भाव (-द्रव्यगुणपर्यायसम्बन्धी जो मूढ़तारूप परिणाम) [मोहः इति भवति ] वह मोह है [तेन
अवच्छन्नः ]
उससे आच्छादित वर्तता हुआ जीव [ रागं वा द्वेषं वा प्राप्य ] राग अथवा द्वेषको
प्राप्त करके [क्षुभ्यति ] क्षुब्ध होता है
।।८३।।
टीका :धतूरा खाये हुए मनुष्यकी भाँति, जीवके जो पूर्व वर्णित द्रव्य -गुण-
१. परिपंथी = शत्रु; मार्गमें लूटनेवाला
द्रव्यादिके मूढ़ भाव वर्ते जीवने, ते मोह छे;
ते मोहथी आच्छन्न रागी -द्वेषी थई क्षोभित बने. ८३
.

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मूढो भावः स खलु मोहः तेनावच्छन्नात्मरूपः सन्नयमात्मा परद्रव्यमात्मद्रव्यत्वेन परगुण-
मात्मगुणतया परपर्यायानात्मपर्यायभावेन प्रतिपद्यमानः, प्ररूढदृढतरसंस्कारतया परद्रव्य-
मेवाहरहरुपाददानो, दग्धेन्द्रियाणां रुचिवशेनाद्वैतेऽपि प्रवर्तितद्वैतो, रुचितारुचितेषु विषयेषु
रागद्वेषावुपश्लिष्य, प्रचुरतराम्भोभाररयाहतः सेतुबन्ध इव द्वेधा विदार्यमाणो नितरां
क्षोभमुपैति
अतो मोहरागद्वेषभेदात्त्रिभूमिको मोहः ।।८३।।
दानस्य च हि स्फु टं ते ते पूर्वोक्तरत्नत्रयाधाराः णमो तेसिं नमस्तेभ्य इति नमस्कारस्यापि
त एव योग्याः ।।।। एवमाप्तात्मस्वरूपविषये मूढत्वनिरासार्थं गाथासप्तकेन द्वितीयज्ञान-
कण्डिका गता अथ शुद्धात्मोपलम्भप्रतिपक्षभूतमोहस्य स्वरूपं भेदांश्च प्रतिपादयतिदव्वादिएसु
शुद्धात्मादिद्रव्येषु, तेषां द्रव्याणामनन्तज्ञानाद्यस्तित्वादिविशेषसामान्यलक्षणगुणेषु, शुद्धात्मपरिणति-
लक्षणसिद्धत्वादिपर्यायेषु च यथासंभवं पूर्वोपवर्णितेषु वक्ष्यमाणेषु च
मूढो भावो एतेषु
पूर्वोक्तद्रव्यगुणपर्यायेषु विपरीताभिनिवेशरूपेण तत्त्वसंशयजनको मूढो भावः जीवस्स हवदि मोहो त्ति
इत्थंभूतो भावो जीवस्य दर्शनमोह इति भवति
खुब्भदि तेणुच्छण्णो तेन दर्शनमोहेनावच्छन्नो झम्पितः
सन्नक्षुभितात्मतत्त्वविपरीतेन क्षोभेण क्षोभं स्वरूपचलनं विपर्ययं गच्छति किं कृत्वा पप्पा रागं व दोसं
वा निर्विकारशुद्धात्मनो विपरीतमिष्टानिष्टेन्द्रियविषयेषु हर्षविषादरूपं चारित्रमोहसंज्ञं रागद्वेषं वा प्राप्य
चेति अनेन किमुक्तं भवति मोहो दर्शनमोहो रागद्वेषद्वयं चारित्रमोहश्चेति त्रिभूमिको
मोह इति ।।८३।। अथ दुःखहेतुभूतबन्धस्य कारणभूता रागद्वेषमोहा निर्मूलनीया इत्याघोषयति
पर्याय हैं उनमें होनेवाला तत्त्व -अप्रतिपत्तिलक्षण मूढ़ भाव वह वास्तवमें मोह है उस
मोहसे निजरूप आच्छादित होनेसे यह आत्मा परद्रव्यको स्वद्रव्यरूपसे, परगुणको
स्वगुणरूपसे, और पर -पर्यायोंको स्वपर्यायरूप समझकर -अंगीकार करके, अति रूढ
दृढ़तर संस्कारके कारण परद्रव्यको ही सदा ग्रहण करता हुआ, दग्ध इन्द्रियोंकी रुचिके
वशसे अद्वैतमें भी द्वैत प्रवृत्ति करता हुआ, रुचिकर -अरुचिकर विषयोंमें रागद्वेष करके
अति प्रचुर जलसमूहके वेगसे प्रहारको प्राप्त सेतुबन्ध (पुल) की भाँति दो भागोंमें खंडित
होता हुआ अत्यन्त क्षोभको प्राप्त होता है
इससे मोह, राग और द्वैषइन भेदोंके कारण
मोह तीन प्रकारका है ।।८३।।
१. तत्त्व अप्रतिपत्तिलक्षण = तत्त्वकी अप्रतिपत्ति (-अप्राप्ति, अज्ञान, अनिर्णय) जिसका लक्षण है ऐसा
२. दग्ध = जली हुई; हलकी; शापित (‘दग्ध’ तिरस्कारवाचक शब्द है)
३. इन्द्रियविषयोंमेंपदार्थोंमें ‘यह अच्छे हैं और यह बुरे’ इसप्रकारका द्वैत नहीं है; तथापि वहाँ भी
मोहाच्छादित जीव अच्छेबूरेका द्वैत उत्पन्न कर लेते हैं

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अथानिष्टकार्यकारणत्वमभिधाय त्रिभूमिकस्यापि मोहस्य क्षयमासूत्रयति
मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणदस्स जीवस्स
जायदि विविहो बंधो तम्हा ते संखवइदव्वा ।।८४।।
मोहेन वा रागेण वा द्वेषेण वा परिणतस्य जीवस्य
जायते विविधो बन्धस्तस्मात्ते संक्षपयितव्याः ।।८४।।
एवमस्य तत्त्वाप्रतिपत्तिनिमीलितस्य, मोहेन वा रागेण वा द्वेषेण वा परिणतस्य,
तृणपटलावच्छन्नगर्तसंगतस्य करेणुकुट्टनीगात्रासक्तस्य प्रतिद्विरददर्शनोद्धतप्रविधावितस्य च
सिन्धुरस्येव, भवति नाम नानाविधो बन्धः
ततोऽमी अनिष्टकार्यकारिणो मुमुक्षुणा
मोहरागद्वेषाः सम्यग्निर्मूलकाषं कषित्वा क्षपणीयाः ।।८४।।
अब, तीनों प्रकारके मोहको अनिष्ट कार्यका कारण कहकर उसका (-तीन प्रकारके
मोहका) क्षय करनेको सूत्र द्वारा कहते हैं :
अन्वयार्थ :[मोहेन वा ] मोहरूप [रागेण वा ] रागरूप [द्वेषेण वा ] अथवा
द्वेषरूप [परिणतस्य जीवस्य] परिणमित जीवके [विविधः बंधः ] विविध बंध [जायते ] होता
है; [तस्मात् ] इसलिये [ते ] वे (मोह -राग -द्वेष) [संक्षपयितव्याः ] सम्पूर्णतया क्षय करने
योग्य हैं
।।८४।।
टीका :इसप्रकार तत्त्व -अप्रतिपत्ति (-वस्तुस्वरूपके अज्ञान) से बंद हुए, मोह-
रूप -रागरूप या द्वेषरूप परिणमित होते हुए इस जीवकोघासके ढेरसे ढँके हुए खेका संग
करनेवाले हाथीकी भाँति, हथिनीरूपी कुट्टनीके शरीरमें आसक्त हाथीकी भाँति और विरोधी
हाथीको देखकर, उत्तेजित होकर (उसकी ओर) दौड़ते हुए हाथीकी भाँति
विविध प्रकारका
बंध होता है; इसलिये मुमुक्षु जीवको अनिष्ट कार्य करनेवाले इस मोह, राग और द्वेषका यथावत्
मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणदस्स जीवस्स मोहरागद्वेषपरिणतस्य मोहादिरहितपरमात्मस्वरूप-
परिणतिच्युतस्य बहिर्मुखजीवस्य जायदि विविहो बंधो शुद्धोपयोगलक्षणो भावमोक्षस्तद्बलेन जीव-
प्रदेशकर्मप्रदेशानामत्यन्तविश्लेषो द्रव्यमोक्षः, इत्थंभूतद्रव्यभावमोक्षाद्विलक्षणः सर्वप्रकारोपादेयभूतस्वा-
भाविकसुखविपरीतस्य नारकादिदुःखस्य कारणभूतो विविधबन्धो जायते
तम्हा ते संखवइदव्वा यतो
रे ! मोहरूप वा रागरूप वा द्वेषपरिणत जीवने
विधविध थाये बंध, तेथी सर्व ते क्षययोग्य छे
. ८४.

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अथामी अमीभिर्लिङ्गैरुपलभ्योद्भवन्त एव निशुम्भनीया इति विभावयति
अट्ठे अजधागहणं करुणाभावो य तिरियमणुएसु
विसएसु य प्पसंगो मोहस्सेदाणि लिंगाणि ।।८५।।
अर्थे अयथाग्रहणं करुणाभावश्च तिर्यङ्मनुजेषु
विषयेषु च प्रसङ्गो मोहस्यैतानि लिङ्गानि ।।८५।।
निर्मूल नाश हो इसप्रकार क्षय करना चाहिये
भावार्थ : (१) हाथीको पकड़नेके लिये धरतीमें खबनाकर उसे घाससे ढक
दिया जाता है, वहाँ खा होनेके कारण उस खे पर जानेसे हाथी गिर पडता है और वह
इसप्रकार पकड़ा जाता है
(२) हाथीको पकड़नेके लिये सिखाई हुई हथिनी भेजी जाती है;
उसके शारीरिक रागमें फँसनेसे हाथी पकड़ा जाता है (३) हाथी पकड़नेकी तीसरी रीति यह
है कि उस हाथीके सामने दूसरा पालित हाथी भेजा जाता है; उसके पीछे वह हाथी उत्तेजित
होकर लड़नेके लिये दौड़ता है और इसप्रकार वह पकड़नेवालोंके जालमें फँस जाता है
उपर्युक्त प्रकारसे जैसे हाथी (१) अज्ञानसे, (२) रागसे (३) द्वेषसे अनेक प्रकारके
बन्धनको प्राप्त होता है, उसीप्रकार जीव (१) मोहसे, (२) रागसे या (३) द्वेषसे अनेक
प्रकारके बन्धनको प्राप्त होता है, इसलिये मोक्षार्थीको मोह -राग -द्वेषका भलीभाँति -सम्पूर्णतया
मूलसे ही क्षय कर देना चाहिये
।।८४।।
अब, इस मोहरागद्वेषको इन (आगामी गाथामें कहे गये) चिह्नों -लक्षणोंके द्वारा पहिचान
कर उत्पन्न होते ही नष्ट कर देना चाहिये, एसा प्रगट करते हैं :
अन्वयार्थ :[अर्थे अयथाग्रहणं ] पदार्थका अयथाग्रहण (अर्थात् पदार्थोको जैसे
हैं वैसे सत्यस्वरूप न मानकर उनके विषयमें अन्यथा समझ) [च ] और [तिर्यङ्मनुजेषु
करुणाभावः ]
तिर्यंच -मनुष्योंके प्रति करुणाभाव, [विषयेषु प्रसंगः च ] तथा विषयोंकी संगति
(इष्ट विषयोंमें प्रीति और अनिष्ट विषयोंमें अप्रीति)
[एतानि ] यह सब [मोहस्य लिंगानि ]
मोहके चिह्नलक्षण हैं ।।८५।।
रागद्वेषमोहपरिणतस्य जीवस्येत्थंभूतो बन्धो भवति ततो रागादिरहितशुद्धात्मध्यानेन ते रागद्वेष-
मोहा सम्यक् क्षपयितव्या इति तात्पर्यम्
।।८४।। अथ स्वकीयस्वकीयलिङ्गै रागद्वेषमोहान् ज्ञात्वा
પ્ર. ૧૯
अर्थो तणुं अयथाग्रहण, करुणा मनुज -तिर्यंचमां,
विषयो तणो वळी संग,
लिंगो जाणवां आ मोहनां. ८५.

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अर्थानामयाथातथ्यप्रतिपत्त्या तिर्यग्मनुष्येषु प्रेक्षार्हेष्वपि कारुण्यबुद्धया च मोहमभीष्ट-
विषयप्रसंगेन रागमनभीष्टविषयाप्रीत्या द्वेषमिति त्रिभिलिंगैरधिगम्य झगिति संभवन्नापि
त्रिभूमिकोऽपि मोहो निहन्तव्यः
।।८५।।
अथ मोहक्षपणोपायान्तरमालोचयति
जिणसत्थादो अट्ठे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा
खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदव्वं ।।८६।।
टीका :पदार्थोंकी अयथातथ्यरूप प्रतिपत्तिके द्वारा और तिर्यंच -मनुष्य प्रेक्षायोग्य
होने पर भी उनके प्रति करुणाबुद्धिसे मोहको (जानकर), इष्ट विषयोंकी आसक्तिसे रागको
और अनिष्ट विषयोंकी अप्रीतिसे द्वेषको (जानकर)
इसप्रकार तीन लिंगोंके द्वारा (तीन
प्रकारके मोहको) पहिचानकर तत्काल ही उत्पन्न होते ही तीनो प्रकारका मोह नष्ट कर देने योग्य
है
भावार्थ :मोहके तीन भेद हैंदर्शनमोह, राग और द्वेष पदार्थोंके स्वरूपसे
विपरीत मान्यता तथा तिर्यंचों और मनुष्योंके प्रति तन्मयतासे करुणाभाव वे दर्शनमोहके चिह्न
हैं, इष्ट विषयोंमें प्रीति रागका चिह्न है और अनिष्ट विषयोंमें अप्रीति द्वेषका चिह्न है
इन चिह्न
ोंसे तीनों प्रकारके मोहको पहिचानकर मुमुक्षुओंको उसे तत्काल ही नष्ट कर देना चाहिये ।।८५।।
अब मोहक्षय करनेका उपायान्तर (-दूसरा उपाय) विचारते हैं :
यथासंभवं त एव विनाशयितव्या इत्युपदिशतिअट्ठे अजधागहणं शुद्धात्मादिपदार्थे यथास्वरूपस्थितेऽपि
विपरीताभिनिवेशरूपेणायथाग्रहणं करुणाभावो य शुद्धात्मोपलब्धिलक्षणपरमोपेक्षासंयमाद्विपरीतः करुणा-
भावो दयापरिणामश्च अथवा व्यवहारेण करुणाया अभावः केषु विषयेषु मणुवतिरिएसु मनुष्य-
तिर्यग्जीवेषु इति दर्शनमोहचिह्नम् विसएसु य प्पसंगो निर्विषयसुखास्वादरहितबहिरात्मजीवानां
मनोज्ञामनोज्ञविषयेषु च योऽसौ प्रकर्षेण सङ्गः संसर्गस्तं दृष्ट्वा प्रीत्यप्रीतिलिङ्गाभ्यां चारित्रमोहसंज्ञौ
१. पदार्थोंकी अयथातथ्यरूप प्रतिपत्ति = पदार्थ जैसे नहीं है उन्हें वैसा समझना अर्थात् उन्हें अन्यथा स्वरूपसे
अंगीकार करना
२. प्रेक्षायोग्य = मात्र प्रेक्षकभावसे -दृष्टाज्ञातारूपसे -मध्यस्थभावसे देखने योग्य
शास्त्रो वडे प्रत्यक्षआदिथी जाणतो जे अर्थ ने,
तसु मोह पामे नाश निश्चय; शास्त्र समध्ययनीय छे. ८६
.

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जिनशास्त्रादर्थान् प्रत्यक्षादिभिर्बुध्यमानस्य नियमात
क्षीयते मोहोपचयः तस्मात् शास्त्रं समध्येतव्यम् ।।८६।।
यत्किल द्रव्यगुणपर्यायस्वभावेनार्हतो ज्ञानादात्मनस्तथाज्ञानं मोहक्षपणोपायत्वेन प्राक्
प्रतिपन्नं, तत् खलूपायान्तरमिदमपेक्षते इदं हि विहितप्रथमभूमिकासंक्रमणस्य सर्वज्ञोपज्ञ-
तया सर्वतोऽप्यबाधितं शाब्दं प्रमाणमाक्रम्य क्रीडतस्तत्संस्कारस्फु टीकृतविशिष्टसंवेदन-
शक्तिसंपदः सहृदयहृदयानंदोद्भेददायिना प्रत्यक्षेणान्येन वा तदविरोधिना प्रमाणजातेन
अन्वयार्थ :[जिनशास्त्रात् ] जिनशास्त्र द्वारा [प्रत्यक्षादिभिः ] प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे
[अर्थान् ] पदार्थोंको [बुध्यमानस्य ] जाननेवालेके [नियमात् ] नियमसे [मोहोपचयः ]
मोहोपचय [क्षीयते ] क्षय हो जाता है [तस्मात् ] इसलिये [शास्त्रं ] शास्त्रका [समध्येतव्यम् ]
सम्यक् प्रकारसे अध्ययन करना चाहिये ।।८६।।
टीका :द्रव्य -गुण -पर्यायस्वभावसे अर्हंतके ज्ञान द्वारा आत्माका उस प्रकारका ज्ञान
मोहक्षयके उपायके रूपमें पहले (८०वीं गाथामें) प्रतिपादित किया गया था, वह वास्तवमें
इस (निम्नलिखित) उपायान्तरकी अपेक्षा रखता है
(वह उपायान्तर क्या है सो कहा
जाता है) :
जिसने प्रथम भूमिकामें गमन किया है ऐसे जीवको, जो सर्वज्ञोपज्ञ होनेसे सर्व प्रकारसे
अबाधित है ऐसे शाब्द प्रमाणको (-द्रव्य श्रुतप्रमाणको) प्राप्त करके क्रीड़ा करने पर, उसके
संस्कारसे विशिष्ट
संवेदनशक्तिरूप सम्पदा प्रगट करने पर, सहृदयजनोंके हृदयको
आनन्दका उद्भेद देनेवाले प्रत्यक्ष प्रमाणसे अथवा उससे अविरुद्ध अन्य प्रमाणसमूहसे
रागद्वेषौ च ज्ञायेते विवेकिभिः, ततस्तत्परिज्ञानानन्तरमेव निर्विकारस्वशुद्धात्मभावनया रागद्वेषमोहा
निहन्तव्या इति सूत्रार्थः
।।८५।। अथ द्रव्यगुणपर्यायपरिज्ञानाभावे मोहो भवतीति यदुक्तं पूर्वं
तदर्थमागमाभ्यासं कारयति अथवा द्रव्यगुणपर्यायत्वैरर्हत्परिज्ञानादात्मपरिज्ञानं भवतीति यदुक्तं
तदात्मपरिज्ञानमिममागमाभ्यासमपेक्षत इति पातनिकाद्वयं मनसि धृत्वा सूत्रमिदं प्रतिपादयति
जिणसत्थादो अट्ठे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा जिनशास्त्रात्सकाशाच्छुद्धात्मादिपदार्थान् प्रत्यक्षादि-
१. मोहोपचय = मोहका उपचय (उपचय = संचय; समूह)
२. सर्वज्ञोपज्ञ = सर्वज्ञ द्वारा स्वयं जाना हुआ (और कहा हुआ) ३. संवेदन = ज्ञान
४. सहृदय = भावुक; शास्त्रमें जिस समय जिस भावका प्रसंग होय उस भावको हृदयमें ग्रहण करनेवाला;
बुध; पंडित
५. उद्भेद = स्फु रण; प्रगटता; फु वारा ६. उससे = प्रत्यक्ष प्रमाणसे